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रविवार, 18 दिसंबर 2011

यादों की लकीरें

संस्मरण
बड़ी दीदी

शुक्रवार 29 अप्रैल,2005 का गर्मीभरा दिन। मुझे कनॉट प्लेस स्थित कॉफी होम में अपने दो मित्रों से पांच बजे मिलना था। सुबह नौ बजे से अपरान्ह दो बजे तक लियो तोलस्तोय के अंतिम उपन्यास हाज़ी मुराद का अनुवाद कार्य करता रहा। स्वैच्छिक सेवावकाश ग्रहण करने के पश्चात् सबसे पहला काम मैंने दो वर्षों से स्थगित होते आ रहे उस कार्य को सम्पन्न करने का किया था।
उस दिन कॉफी होम बंद होने तक हम वहां बैठे रहे। जब लोग चले गए और कर्मचारियों ने मेजें खिसकाना प्रारंभ किया हम बाहर निकल आए। बाहर भी कुछ देर बातें करते रहे... साहित्यिक बातें। रात जब साढ़े नौ बजे के लगभग मैं घर पहुंचा, पता चला शाम पांच बजे से नौ बजे के मध्य कानपुर से तीन फोन आ चुके थे।
''क्यों?''
''दीदी नहीं रहीं।''
''कब?''
''आज शाम चार बजे।''
'दीदी' - यानी मेरी बड़ी बहन भाग्यवती, जो नाम से ही भाग्यवती थीं और जब तक पिता के घर रहीं भाग्यवती ही रहीं, लेकिन पति के घर जाते ही दुर्भाग्य ने जो एक बार उन्हें अपने फंदे में लपेटा तो मृत्युपर्यंत वह उसके फंदे को काट नहीं पायीं।
अशांत मन कुछ देर मैं कानपुर पहुंचने पर विचार करता रहा। समय नष्ट न कर मैंने रेलवे इन्क्वारी फोन मिलाकर कानपुर जाने वाली अंतिम ट्रेन के विषय में जानकारी मांगी। ज्ञात हुआ कि अंतिम ट्रेन साढ़े दस बजे रात की थी। उस ट्रेन को पकड़ना असंभव था। छोटे भाई राजकुमार को कानपुर फोन करके वस्तुस्थिति स्पष्ट कर अंत्येष्टि के विषय में पूछा। ज्ञात हुआ कि सुबह दस बजे तक सम्पन्न हो जाएगी।
'अब?' मैं सोचता रहा और रातभर सो नहीं पाया।
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मैं जब डेढ़ वर्ष का था, बड़ी दीदी का विवाह कर दिया गया था। पिता जी कलकत्ता में थे। मां को किसी ने सुझाया कि उनकी बबनी के लिए उसने एक सुयोग्य वर देखा है कानपुर से तीस मील दूर पियासी नामके गांव में (बाद में इस गांव का नाम भरतपुर पड़ा)। यह गांव कानपुर के घाटमपुर तहसील में है जिसका निकटतम रेलवे स्टेशन पतारा वहां से छ: मील है। उन दिनों वहां पहुंचने के लिए पैदल के अतिरिक्त कोई विकल्प नहीं था। मेरे बहनोई की सुयोग्यता यह थी कि तीन भाइयों में वह सबसे छोटे थे, लगभग तीस-पैंतीस बीघा उपजाऊ खेत और भाइयों ने उन्हें पहलवानी की छूट दे रखी थी। हालांकि वह मुझे कभी पहलवान जैसे नहीं दिखे। होश संभालने पर जब भी उन्हें देखा--लंबे, छरहरे,सांवले, लंबोतरे चेहरे पर छोटा-सा मुंह, छोटे बाल, छोटी आंखें, हड्डियां निकलीं, उभरी नाक। भाइयों की छूट ने उन्हें आलसी और निकम्मा बना दिया था। दोनों बड़े भाई खेत संभालते और अपने व्यवसाय भी, लेकिन सदन सिंह सेंगर...यही नाम है मेरे बहनोई का, तहमद बांधे गांव में घूमते...अपने हमउम्रों के साथ किसी चौपाल में ताश फेट रहे होते।
दीदी का जब विवाह हुआ वह तेरह-चौदह साल की थीं। दो-तीन वर्षों तक वह अच्छी बहू...देवरानी के रूप में ससुराल में रहीं। उनके सास-श्वसुर नहीं थे। भाइयों ने सोचा होगा कि शादी के पश्चात् सदन सिंह अपनी जिम्मेदारी अनुभव करेंगे और पहलवानी के साथ, जिसके लिए सुबह-शाम अखाड़े में उतरने की आवश्यकता होती है, के बाद खेतों की ओर ध्यान देंगे, लेकिन पचीस-छब्बीस वर्ष की उम्र तक खेत-खलिहान से मुक्त रहे सदन सिंह को वह सब रास नहीं आया। भाइयों की बात की उपेक्षा कर वह बदस्तूर चौपालों की शोभा बढ़ाते रहे और घर में वातावरण तनावपूर्ण होने लगा। दीदी पति के लिए दिए जाने वाले ताने सुनने को विवश थीं। अंतत: उन्होंने स्वयं कमर कसी और खेत-खलिहान तो नहीं, लेकिन घर के काम के साथ घेर का काम करने का विचार किया और एक दिन सुबह जब सदन सिंह के दोनों भाई जानवरों के सानी-चारा के लिए घेर में पहुंचे देखकर हैरान-परेशान रह गए कि उनकी छोटकी बहू जानवरों के नीचे का गोबर एकत्र कर चुकी थी। भूसे में रातिब मिलाकर भैंसों और बैलों के सामने डाल चुकी थीं और जानवर नांद में भकर-भकर मुंह मार रहे थे।
''छोटकी, मैं यह क्या देख रहा हूं?'' मंझले जेठ बदन सिंह बोले, ''सदन लंबी तानकर सो रहे हैं और तुम.....।''
छोटकी ने घूंघट सिर से नीचे खींच लिया, और जानवरों के नीचे झाड़ू लगाना जारी रखा। बोली नहीं। बदन सिंह का पुरुषत्व कोई उत्तर न पाकर आहत हुआ। घेर घर से सटा हुआ था। वह पलटे जबकि बड़े जेठ खड़े रहे...अपने बड़प्पन के बोझ तले दबे। बदन सिंह ने घर जाकर अपनी पत्नी से छोटकी की शिकायत की, ''यह क्या तमाशा है राकेश की अम्मा...छोटकी नाक कटवाने पर तुली हुई है इस खानदान की।''
''का हुआ...?''
''चलकर घेर में देखो।''
और छोटकी की दोनों जेठानियां मिनटों में घेर में हाज़िर थीं। शोर सुनकर सदन सिंह भी अपनी तहमद संभालते घेर जा पहुंचे। छोटकी किंकर्तव्यविमूढ़ हाथ में झाड़ू थाम घूंघट को और नीचे तक सरकाकर खड़ी हो गयीं।
''बदजात, मैं यह क्या तमाशा देख रहा हूं?'' सदन सिंह फुंकारे। उनका पुरुष अहं जाग्रत हो उठा था। छोटकी सोच ही रही थीं कि पति के स्थान पर स्वयं काम करके उन्होंने क्या अपराध किया था।' लेकिन उनकी सोच पूरी भी नहीं हुई थी कि सदन सिंह का मुगदर उठाने वाला हाथ उनकी पीठ पर पड़ा था और छोटकी 'हा, अम्मा...।' के चीत्कार के साथ छाती थाम ज़मीन पर बैठ गयी थीं। जिस अम्मा को उन्होंने याद किया था उसे गलियाते सदन सिंह के हाथ-पांव छोटकी पर चल रहे थे और उनके भाई-भौजाई मुंह बांधे दृश्य देख रहे थे। वे पुलकित थे या दुखी कहना कठिन है, लेकिन सदन सिंह ने पत्नी को उस दिन इतना पीटा कि पन्द्रह दिनों तक वह बिस्तर पर पड़ी दूध में हल्दी पीकर आंतरिक चोटों के ठीक होने का इंतज़ार करती रही थीं।
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दीदी की प्रताड़ना की अनंत कथाएं हैं। सदन सिंह का हाथ खुल चुका था...अब वह मामूली-सी बातों पद भी दीदी पर बरस पड़ता। दीदी पिटती, मां-पिता को याद करतीं...छटपटातीं और उसी खूंटे से बंधी रहतीं। मां...जिन तक समाचार पहुंचाना उनके लिए सहज न था। पढ़ना-लिखना उन्हें बखूबी आता था...अपढ़ मां-पिता ने अपनी संतानों को पढ़ाने में कोई कसर नहीं छोड़ी, लेकिन उन दिनों गांव के निकट के गांव में मात्र प्राइमरी तक शिक्षा की ही सुविधा थी। आगे पढ़ने के लिए तीन: मील दूर जाना पड़ता। दीदी की पढ़ाई में पहली बाधा दूर जाने की थी और दूसरी बाधा उस परिचित ने ला उपस्थित की थी जिसने सदन सिंह की सुयोग्यता का ऐसा दृश्य उपस्थित किया था कि मां ने उस सुयोग्य वर को छोड़ना उचित नहीं समझा था। दीदी पांचवीं तक ही पढ़ सकी थीं। लेकिन ''सर्वश्री उपमा योग भगवान की किरपा से.....'' से प्रारंभ कर पत्र लिखना उन्हें आता था। लेकिन एक अंतर्देशीय लिखकर उसे दूर गांव स्थित पोस्ट आफिस में छोड़ने की व्यवस्था वह कैसे करतीं और मां भी क्या उनकी सहायता के लिए दौड़ आतीं! भले ही वह अक्खड़, खुद्वार और निर्भीक थीं...किसी से भी न दबने वालीं, लेकिन यहां मामला कुछ और ही था। लड़की की ससुराल से जुड़ा मामला.....अति संवेदनशील। मेरे पिता और बड़े भाई कलकत्ता में थे। दीदी अपनी स्थितियां और सीमाएं जानती थीं और यातना सहने के लिए अभिशप्त थीं। उधर उनकी ससुराल का वातावरण अधिकाधिक तनावपूर्ण होता जा रहा था। जेठानियां देवर के खुल चुके हाथ का आनंद लेने लगी थीं और उनके कान भी भरने लगी थीं। दीदी की मामूली त्रुटि भी उनके लिए प्रताड़ना का कारण बन जाती। प्रताड़ना ऐसी कि आह भरने पर भी प्रतिबंध था। आखिर एक दिन पीड़ा फूट ही पड़ी थी। आंगन में पहले दिन के घेर का दृश्य उपस्थित था। सदन सिंह के लात-घूंसों की बौछार के बीच फुंकार उठी थीं रामदुलारी की बेटी, ''बहुत हो चुका...आप डांव-डांव घूमो और मैं यहां ताने सुनूं। मार डालो वह अच्छा, लेकिन ताने नहीं सुन सकती। खेतों में निराई करने गई थी...चोरी-छिनारा करने नहीं। आप अपने शरीर को नहीं खटा सकते, अपने हिस्से के काम के लिए मजदूर रखने की तौफीक पैदा नहीं कर सकते तो कोई तो काम करेगा ही...या तो खेतों में सब के बराबर काम करें या मुझे करने दें और अगर वह भी स्वीकार नही तो मुझे मेरे मायके छोड़ दें...फिर जो मन आए करें....।''
पहली बार दीदी की आवाज फूटी थी और वह भी सदन सिंह के दोनों भाइयों और भौजाइयों के सामने और सदन सिंह के हाथ रुक गए थे। हालांकि वह रुकावट अस्थाई साबित हुई थी, लेकिन दीदी को लगा था कि उनकी बात का असर हुआ था पति पर। और हुआ था...अगली सुबह सदन सिंह के दोनों भाइयों ने देखा था कि हल कंधे पर रख सदन बैलों के साथ खेतों की ओर जा रहे थे। लेकिन अनभ्यस्त हाथ और खेत में टेढ़े-मेझे चलते पैरों ने कुछ देर सही खेत जोतने के बाद हल की कुशिया जमीन में धंसकर चलने के बजाए मात्र रेखा-सी खींचती चलने लगी थी और ऐसी स्थिति में जो होना था वह हुआ। कुशिया का फाल उछलकर सदन सिंह के पैर में जा धंसा था। हल छूट गया था और सदन सिंह लंगड़ाते, खून बहाते पैर घसीटते सड़क किनारे एक खेत की मेड़ पर खड़े आम के पेड़ की ओर दौड़ पड़े थे। बैल उनके बिना जमीन पर बेड़ा पड़े घिसटते हल को तब भी खींच रहे थे। संयोग था कि दोनों बड़े भाई उसी समय वहां पहुंचे थे। एक ने दौड़कर हल को बैलों से अलग किया था, क्योंकि जो गति कुशिया ने सदन सिंह के पैर की की थी, वह दोनों बैलों के पैरों की होनी निश्चित थी।
सदन सिंह के घायल होने का दोष भी दीदी के सिर पड़ा। 'कुलच्छनी, गृहतोड़नी-बोरनी' जैसी कितनी ही उपमाओं से उन्हें विभूषित होना पड़ा और अपराधबोध से ग्रस्त वह भी अपने को वैसा ही मान रही थीं।
''मैं इसकी शक्ल नहीं देखना चाहता।'' सदन सिंह का फरमान जारी हुआ तो निर्णय किया गया कि उन्हें मायके पहुंचा दिया जाए। गांव के किसी व्यक्ति के साथ दीदी को मायके भेज दिया गया। मायके आने के बाद मां को दीदी की दारुण स्थिति ज्ञात हुई। तीन या चार महीना ही वह मायके में रही थीं कि एक दिन सफेद झक धोती-कुर्ता पहने चमरौधा चटकाते शाम आगरा-इलाहाबाद पैसेंजर से सदन सिंह प्रकट हुए। वह दीदी को लेने आए थे। दामाद बेटी को ले जाने आया था, मां ने दबी जुबान उनसे शिकायत की और दामाद ने मुस्कराकर कहा, ''अरे अम्मा, मैंने तो आपकी बिटिया की खेतों में काम करने से बदन में लगी धूल झाड़ी थी...अब आपको शिकायत का मौका नहीं मिलेगा। मैंने परचून की दुकान खोल ली है। खेतों में काम करने के लिए अपनी जगह एक मजदूर लगा दिया है। किसी को कहने का मौका नहीं दूंगा...आप निश्चिंत रहें अम्मा...।''
और मां निश्चिंत हुई थीं, लेकिन दीदी नहीं। वह सेंगरों के छद्म को भलीभांति पहचान चुकी थीं। और ससुराल पहुंचने के कुछ दिनों बाद ही उनकी आशंका सही सिध्द हुई थी। सदन सिंह ने दुकान तो कर ली थी, लेकिन वह ताश खेलने वालों का अड्डा बन गयी थी। गांव के उनके आवारा साथी वहां एकत्र होते...मुफ्त की बीड़ी-सिगरेट फूंकते...जल्दी ही दुकान घाटे का सौदा सिध्द हुई। सदन सिंह न कभी अपने प्रति जिम्मेदार हुए न घर के प्रति और न पत्नी के प्रति। भाइयों में कसमसाहट हो रही थी।
''ऐसा कब तक चलेगा?'' का प्रश्न दोनों बड़े भाइयों के बीच उछलने लगा था, ''हम खटें-कमाएं और सदन मौज करें। छोटकी हल तो नहीं चला सकती...घूर तक जाकर गोबर नहीं फेक सकती....।''
छोटकी ने सुना। हल वह भले ही नहीं चला सकती थीं, लेकिन गोबर, सानी-पानी, निराई,गोड़ाई, बुआई से लेकर जानवरों के लिए मशीन पर कुट्टी काटने जैसे काम छोटकी ने अपने सिर ओढ़ लिया। अब उनके इन सब कामों का विरोध भी कम हो चुका था। गांव में नाक कट चुकी थी, लेकिन वह नाक तो गांव के और भी कितने ही निखट्टू पतियों की उनकी पत्नियों के कारण पहले ही कट चुकी थी।

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समय बीतता रहा। दीदी दो बेटियों और दो बेटों की मां बन गयीं। पारिवारिक विग्रह बढ़ा और भाइयों में बटवारा हो गया। बटवारा सदन सिंह को सबक सिखाने के लिए था, लेकिन दूसरे के श्रम पर गुलछर्रे उड़ाने वाले कम लोग ही अपने को संभाल पाते हैं। सदन सिंह ने अपने हिस्से के खेत तिहाई पर दे दिए और स्वयं तहमद बांधे गांव में घूमते रहे। दीदी ने घर-खेत की जिम्मेदारी संभालीं, बच्चों की पढ़ाई और बड़ी बेटी के विवाह की चिन्ता ने उन्हें वह सब करने के लिए विवश किया जो किसी पुरुष किसान को करना होता है। इस सबके बावजूद सदन सिंह का कोपभाजन वह जब-तब होती रहीं, लेकिन बटवारे के बाद दीदी के अथक श्रम पर जीने वाले उस इंसान का साहस दीदी पर हाथ उठाने का कम ही होने लगा था। शायद एक कारण बड़े होते बच्चे रहे हों। दीदी ने अठारह की होते हीे बड़ी बेटी का विवाह कर दिया था।
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दीदी ने नानी जैसा स्वभाव पाया था। घोर अपमान और प्रताड़ना सहकर भी परिवार के लिए समर्पित रहना क्या भारतीय ग्राम्य नारी की नियति है! दीदी ने अपने बल पर अपनी आर्थिक स्थिति मजबूत कर ली थी। 1962 से 1965 के मध्य जब मायके की आर्थिक स्थिति दयनीय हो गयी थी, दीदी ने पति से छुपाकर सहायता की थी। उन्हीं दिनों पिता ने शादी के समय उन्हें एक सेर चांदी के दिए वे कड़े बहुत ही भारी मन से मांगा था, जिन्हें देते समय पिता जी ने कहा था, ''बेटा, ईश्वर न करे मुझे ये मांगना पड़े, लेकिन यदि ऐसी स्थिति आ ही जाएगी तब तुम इन्हें अपने भाइयों के लिए दे देना। और यह बात सदन को भी बता देना।''
मुझे याद है कड़े मांगने से पहले मां-पिता जी के बीच हुई वार्तालाप और दोनों के चेहरों के भाव। पिता के चेहरे के भाव बयां कर रहे थे कि बेटी से कड़े मांगने से पहले वे मर क्यों नहीं जाते। लेकिन वे मरे नहीं थे। उन्हें शेष परिवार के पोषण के लिए बेटी को अपनी कही बात याद दिलानी ही पड़ी थी और दीदी ने सहेजकर रखे वे कड़े पिता जी के हवाले कर दिए थे। शायद उन्होंने कभी उन्हें पैरों में नहीं डाला था। छोटे कद का कर्मठता का गवाह उनका दुबला शरीर शायद आध-आघ सेर के कड़ों का वजन पैरों पर स्वीकार करने से इंकार कर देता।
जिन दिनों हम बहनोई को दीदी के विरुध्द किसी प्रताड़ना के लिए रोकने की स्थिति में आ गए थे उन दिनों उनका कहर थमा हुआ था। कारण था घर-खेतों में दीदी की जूझ और बच्चों की परवरिश। बच्चों के लिए सदन सिंह भी चिन्तित दिखने लगे थे और इसी कारण जब बड़ा बेटा छठवीं क्लास में पहुंचा, वह उसे शहर में पढ़ाने के लिए बड़े भाई साहब के पास छोड़ गए थे। उन दिनों मेरा छोटा भाई भी छठवीं में बड़े भाई साहब के पास रहकर पढ़ रहा था। उसे पढ़ाई की परवाह नहीं थी। हम लोगों की डांट-फटकार ...यहां तक कि मारपीट भी उस पर बेअसर थी। उसके साथ राघवेन्द्र की पढ़ाई चौपट होने का खतरा भांप भाई साहब ने बहनोई को उसे वापस ले जाने के लिए संदेश भेजा। यह बात उन्हें नागवार लगनी थी...और लगी। लेकिन दीदी तो दीदी थीं...उन्होंने कभी नाराज होना जाना ही नहीं था।

बड़े बेटे ने इंटर करने के बाद एयर फोर्स ज्वायन किया तो दीदी को लगा कि उनके दुख के दिन बीतने वाले हैं। लेकिन कुछ ही वर्षों में उनका भ्रमभंग हो गया था। बड़ा बेटा पिता के नक्शे-कदम पर था...खानदान का प्रभाव। मां के प्रति पिता के दर्ुव्यवहार के लिए वह मां को दोष देता....उसके सामने भी बहनोई दीदी को पीटते और वह प्रस्तर मूर्ति बना रहता। लेकिन छोटा बेटा जिसे हम पप्पू पुकारते थे, मन ही मन पिता के प्रति विद्रोही हो रहा था। उसने इंटर किया तो पिता ने उसे खेतों में काम करने की सलाह दी। वह चुप रहा, लेकिन तभी एक दिन किसी बात पर बहनोई ने दीदी पर हाथ उठा दिया। पप्पू घर में था। दीदी पर पिता का हाथ पड़ता इससे पहले ही दौड़कर उसने उनका हाथ पकड़ लिया और ऊंची आवाज में बोला, ''चाचा (बड़े भाई के बच्चों का अनुसरण करते हुए मेरे भांजे-भांजियां भी पिता को चाचा कहने लगे थे) जब से होश संभाला आपको अम्मा को मारता-पीटता देखता रहा...अब नहीं। खैरियत इसी में है कि अब आप यह सब बंद कर दें।''
विवाद बढ़ा। सदन सिंह नाग की भांति फुंकारते उछलते रहे, लेकिन जवान बेटे के सामने कुछ करने में असमर्थ थे, जो उनसे भी लंबा दो इंच कम छ: फुट का था।
''आज और अभी निकल जा घर से....।'' सदन सिंह चीखे थे। पप्पू ने घर छोड़ दिया, लेकिन दीदी उसके पीछे दौड़ीं और गांव के छोर पर उसे रोककर समझाने में सफल रहीं कि उसके जाने के बाद पति का उनके प्रति दर्ुव्यहार बढ़ जाएगा जो कुछ वर्षों से थमा हुआ था। पप्पू लौट आया। वास्तव में पति से भय से अधिक एक मां की पुत्र के प्रति ममता ने उन्हें उसे लौटा लाने के लिए दौड़ाया था।
पप्पू के लौट आने से सदन सिंह की खीझ बढ़ गयी, लेकिन अब उम्र जवान खून का सामना करने की न रही थी। छटपटाकर रह गए थे सदन सिंह।
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नवंबर, 1984 के अंत में दीदी बड़े बेटे के साथ मेरे यहां आयीं। अवकाश समाप्तकर भुज वापस लौटते समय बेटा उन्हें मेरे यहां छोड़ गया। चार माह रहीं वह। उन्ही दिनों पप्पू को पिता ने घर से निकाल बाहर किया। वह भी दिल्ली आ गया। स्टेशन से सीधे मां से मिलने मेरे यहां आया। उसने रात बितायी। दीदी ने उसे गांव लौट जाने के लिए समझाया, लेकिन वह वापस न लौटने के दृढ़ निश्चय के साथ आया था। अगले दिन वह अपने बहनोई के किसी रिश्तेदार के यहां बुध्दविहार चला गया। दीदी के रहते वह दो बार उनसे मिलने कुछ घण्टे के लिए आया। उसने किसी एक्सपोर्ट कंपनी में एकाउण्ट्स का का काम संभाल लिया था। वह लंबा,स्वस्थ-सुदर्शन युवक था।
चार माह बाद पति की बीमारी का समाचार पाकर दीदी गांव चली गयीं। मैं उनके निर्णय पर सोचने लगा था कि जिस पति ने आजीवन उन्हें सताया उसकी मामूली बीमारी के समाचार ने उन्हें विचलित कर दिया...क्या यही भारतीय नारी का वास्तविक स्वरूप है! शायद परंपरा से उसे यह सिखाया जाता रहा कि वही घर की असली संरक्षिका है...वह सर्व-स्वरूपा है। पुरुषों ने नारी को बांध रखने के कितने ही छद्म किए...वह प्रताड़ित भी होती रही और प्रताड़ित करने वालों के लिए मरने को भी तैयार होती रही। सत्यवान कैसा भी हो उसे सावित्री ही बनना होता है। मैं नहीं चाहता था कि वह जाएं , लेकिन उन्होंने मेरे सुझाव को दरकिनार कर दिया था।
''खेत कटने के लिए तैयार हैं रूप...अगर वह सच ही बीमार हैं तब न जांये ते आधी पैदावार ही मिलेगी।''
बहनोई की बीमारी शायद खेतों को लेकर ही थी और इसे दीदी ने भांप लिया था।
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दीदी ने छोटी बेटी की भी शादी कर दी और अब उनके दिन ठीक बीत रहे थे। 1994 में उन्होंने छोटे बेटे का विवाह निश्चित किया। 12 या तेरह मार्च को शादी होनी थी। पप्पू हम लोगों से मिलकर और ''शादी में आप सब अवश्य आना मामा....।'' कहकर कानपुर गया, लेकिन शादी से दो दिन पूर्व रात बारह बजे किदवई नगर से यशोदानगर जाने वाली रोड पर एक ट्रक से स्कूटर टकरा जाने से उसकी मृत्यु हो गयी थी। तब तक दीदी का बड़ा बेटा नौकरी से स्वेच्छया सेवाकाश लेकर कानपुर में बस गया था। पप्पू की मृत्यु ने दीदी को तोड़ दिया। वह बीमार रहने लगीं... मधुमेह और दूसरी तमाम बीमारियां।
राघवेन्द्र ने कार्पोरेशन बैंक ज्वायन किया और नोएडा में उसकी पोस्टिंग हुई। वह गाजियाबाद रह रहा था। एक दिन दीदी का खत मिला जिसमें उन्होंने दुखी भाव से लिखा था कि बहनोई अब फिर बात-बात पर उन पर हाथ छोड़ने लगे हैं। बड़े भाई साहब ने दीदी को अपने साथ कानपुर आकर रहने के लिए समझाया, लेकिन अपना घर छोड़ने को वह तैयार नहीं हुईं। यह उचित भी था। जिस घर को उन्होंने अपने अथक श्रम से सजाया-संवारा था, उसे छोड़कर भाई के घर रहना उन्होंने उचित नहीं समझा था। उस पत्र में दीदी ने लिखा था कि मैं राघवेन्द्र को कहूं कि वह पिता को समझाए ....पिता बड़े बेटा-बहू की बात मानते हैं।
हम पति-पत्नी गाजियाबाद गए। पत्र पढ़कर राघवेन्द्र बोला, ''मामा, सारा दोष अम्मा का ही है।''
हम हत्प्रभ-निराश लौटे। बड़ा बेटा पिता के पक्ष में खड़ा था...वह पहले भी उन्हीं के पक्ष में था और छोटा अब था नहीं। कहानी बाद में मालूम हुई। राघवेन्द्र पिता पर खेत बेचने का दबाव डाल रहा था। पिता तैयार थे, लेकिन दीदी न बेचने के लिए अड़ी हुई थीं। उन्हें बड़े बेटे की मंशा में खोट दिख रहा था और खेत न बिकते देख बेटा मां के विरुध्द था।
खेत नहीं बिके। बहनोई ने भी हथियार डाल दिए थे। लेकिन तभी एक दिन सूचना मिली कि राघवेन्द्र अंतर्ध्यान हो गया। कहां गया किसी को पता नहीं था। दीदी का हाल बेहाल था जिनका दूसरा बेटा, भले ही वह उनके विरुध्द था, सन् 2000 में अच्छी-खासी नौकरी छोड़कर गायब हो गया था। हम अनुमान ही लगाते रहे और वह नहीं लौटा। दीदी उस बेटे को एक नज़र देख लेने की आस लिए 29 अप्रैल, 2005 को इस संसार को अलविदा कह गयीं। दीदी की मृत्यु के एक वर्ष बाद एक दिन पता चला कि राघवेन्द्र की पत्नी-बच्चे भी कहीं चले गये। स्पष्ट है कि राघवेन्द्र के पास ही वे गये थे। मेरे बहनोई को शायद दीदी की मृत्यु का ही इंतजार था।
मुझे यह अपराध बोध है कि मैं बड़ी दीदी के लिए कुछ नहीं कर सका सिवाय इसके कि उन्हें समर्पित दो कहानियां....'उनकी वापसी' (साप्ताहिक हिन्दुस्तान-1985) और ‘आखिरी खत’ (साहित्य अमृत-1995) लिखीं और दोनों ही कहानियाँ चर्चित रहीं।
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2 टिप्‍पणियां:

बलराम अग्रवाल ने कहा…

यादों की ये लकीरें इतनी मारक व सूचिमुखी हैं कि सीधे मस्तिष्क में उतर जाती हैं और हृदय को बेध डालती हैं। इस देश की अधिकतर बेटियाँ और बहनें अपने पिता और भाइयों के ऊपर बोझ न बनने या ससुराल का नरक छोड़कर मायके के नरक में न जाने की नकारात्मक यथार्थपरक मानसिकता के चलते असीम कष्ट और अपमान झेलती हैं।

ashok andrey ने कहा…

priya bhai chandel tumhaari didi kee yeh marmik kathaa pad kar man bhojil ho gayaa. hamare desh men aaj bhee kitni nariyan yeh sub bhogne ke liye abhishapt hain.yeh ek shashvat satya hai jise nakaarna apne ko dhoke men rakhne ke samaan hai.