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सोमवार, 19 नवंबर 2012

ताकि विस्मृत न हो जाए


ताकि विस्मृत न हो जाए
कहानी की कहानी
रूपसिंह चन्देल
  मई,१९८७ के हंस में मेरी कहानी आदमखोर प्रकाशित हुई.  यह  तीन माह पहले लिखी और भेजी गई थी, लेकिन वहाँ से कोई सूचना प्राप्त नहीं हुई . मैंने उसके  कार्यालय जाकर कहानी के विषय में पता करने का निर्णय किया. वह ११ अप्रैल,१९८७ (शनिवार) का दिन था. अपरान्ह तीन बजे के लगभग मैं दरियागंज स्थित अक्षर प्रकाशन पहुंचा. दरवाजे से प्रवेश करते ही मेरी मुलाकात बीना उनियाल से हुई. वहां मैं किसी को भी नहीं जानता था. बीना से मैंने राजेन्द्र जी के विषय में पूछा. हाथ का इशारा करते हुए वह बोली, उस कमरे में बैठे हैं. जाइए मिल लीजिए. किसी बड़े सम्पादक से बिना रोक-टोक मुलाकात...इतनी उन्मुक्तता पहले नहीं देखी-जानी थी. वह एक सुखद अनुभव था. मैं राजेन्द्र जी के कमरे में प्रविष्ट हुआ. यहां यह बता दूं कि  समय के साथ राजेन्द्र जी की कुर्सी भले ही बदलती रही, लेकिन कुर्सी का जो स्थान  १९८७ में मैंने देखा था वही आज भी है. राजेन्द्र जी के चेहरे पर जो चमक तब मैंने देखी थी (उन दिनों वह ६२ के थे) वही आज भी विद्यमान है. स्वास्थ्य भले ही  गिर गया है, लेकिन वाणी में वही गर्माहट आज भी विद्यमान है.
यह खाकसार  जहां लक्ष्मी कैद है (जिसे उसने अपने एम.ए. हिन्दी के कोर्स में पढ़ा था) और सारा आकाश के लेखक  से पहली बार मिल रहा था. जो संकोच पहले मन में था वह मिलते ही तिरोहित हो चुका था. परिचय पाते ही राजेन्द्र जी की प्रतिक्रिया से प्रतीत हुआ कि वह मेरे नाम से परिचित हैं. और रहस्य कुछ देर बाद ही खुल भी गया. 
राजेन्द्र यादव
कथादेश के सम्पादक हरिनारायण उन दिनों हंस में थे और उस समय राजेन्द्र जी के कमरे में ही बैठे हुए थे. कुछ देर की बातचीत के बाद राजेन्द्र जी ने हरिनारायण से कहा, परिचय-फोटो ले लो चन्देल से.
परिचय? मैं केवल इतना ही कह सका.
तुम्हारी कहानी अगले अंक में जा रही है क्षणभर के लिए रुके राजेन्द्र जी और हरिनारायण जी की ओर देखते हुए पूछा, क्या नाम है---कहानी का?
आदमखोर मैंने तपाक से कहा. मैं जिस उद्देश्य से वहां गया था वह बिना पूछे ही पूरा हो चुका था.
हांयही शीर्षक है. हरिनारायण ने बहुत ही धीमे स्वर में कहा.
कहानी आपको पसंद आयी? मैंने राजेन्द्र जी की ओर देखकर पूछा. जाहिर है कि यह एक मूर्खतापूर्ण प्रश्न था. पूछते ही मैं सोचने लगा कि मेरा देहातीपन अभी तक नहीं गया, जबकि दिल्ली में रहते हुए मुझे आठ साल हो चुके.
पसंद न होती तो छपती कैसे. राजेन्द्र जी बोले.
मैं झेंप मिटाता सामने दीवार की ओर देखने लगा था.
कहानी हंस के मई,१९८७ अंक में छपी और चर्चित रही. हंस में मेरी यह पहली कहानी थी.  उत्साह बढ़ा. १९८८ के प्रारंभ में लंबी कहानी पापी लिखी. संतुष्ट होने के बाद जून या जुलाई,१९८८ में डाक से हंस को भेज दी. साथ में अपना पता लिखा-टिकट लगा लिफाफा भी संलग्न कर दिया. उन दिनों दस में से पांच रचनाएं निश्चित ही लौटती थीं और मैं उन लेखकों में नहीं था जो यह दावा करते थे कि पत्रिका जब उनसे रचना मांगती है तभी वे उसे देते हैं और उसकी वापसी उन्हें स्वीकार नहीं. आज भी मैं रचना की हार्डकॉपी भेजते समय लिफाफा लगाना नहीं भूलता.
तीन महीने तक पापी की स्वीकृति-अस्वीकृति की प्रतीक्षा के बाद एक दिन मैं हंस कार्यालय गया. आदमखोर प्रकाशित होने के बाद मैं दो बार और वहां गया था. राजेन्द्र यादव की कुछ बातें मुझे ही नहीं शायद दूसरों को भी पसंद हैं. बात-बात में ठहाके लगाना, एक बार मिलने के बाद व्यक्ति को न भूलना और कार्यालय में आने वाले व्यक्ति का पहले से उपस्थित व्यक्ति के साथ परिचय करवाना आदि. मैंने पापी की चर्चा की तो उन्होंने तपाक से बीना को बुलाया और कहा कि वह रजिस्टर में देखकर बताएं ! कहानी तब तक उनकी नज़रों से गुजरी न थी. बीना ने रजिस्टर छानकर बताया कि पापी तो उसमें दर्ज नहीं है. डाक से आने वाली प्रत्येक कहानी वह रजिस्टर में दर्ज करके राजेन्द्र जी को देतीं थीं. जब तक बीना ने रजिस्टर की छानबीन की राजेन्द्र जी ने पापी की विषयवस्तु मुझसे जान लेना चाही . मैंने संक्षेप में उन्हें बताया. बोले, इसी थीम पर राजी सेठ की एक कहानी है. हाल ही में उनका कहानी संग्रह प्रकाशित हुआ है उसमें है वह कहानी.


चित्र ( २ अक्टूबर,१९९९)
(राजेन्द्र यादव के साथ रूपसिंह चन्देल)












भाईसाहब! मैं बोला, राजी सेठ जी से मेरी क्या तुलना! वे महानगरीय जीवन की लेखिकाआभिजात्य शिल्पआभिजात्य विषयमेरी कहानी ग्रामीण पृष्ठभूमि की है----
राजेन्द्र जी चुप रह गए. मैं सोच रहा था कि अपने प्राण बचाने का उनका यह तरीका लाजवाब है. कुछ देर की चुप्पी के बाद बोले, कहानी की प्रति तो होगी ही तुम्हारे पास?
है.
दे जाओ.
एक ही प्रति है. दूसरी तैयार करना होगा.
जल्दी क्या है. आराम से तैयार करके दे जाना.
मैंने कहानी की दूसरी प्रति तैयार की और 4-6 दिन बाद ही लिफाफा संलग्न करके बीना उनियाल को दे आया. एक माह के अंदर कहानी वापस लौट आयी. राजी सेठ की कहानी का जिक्र कर राजेन्द्र जी ने मेरे मन में यह  आशंका पहले ही पैदा कर दी थी. मैंने अगले ही दिन कहानी रविवार को भेज दी. भेजने के पन्द्रह दिनों के अंदर मेरे द्वारा संलग्न लिफाफे में रविवार से योगेन्द्र कुमार लल्ला का स्वीकृति पत्र आ गया. लल्ला जी वहां साहित्य भी देख रहे थे और संयुक्त सम्पादक थे. उससे पहले रविवार में मेरी भेड़िये कहानी वह प्रकाशित कर चुके थे, लेकिन हमारे मध्य कोई संवाद नहीं बना था. पापी हम दोनों के मध्य घनिष्टता का आधार बनी थी.
पन्द्रह दिनों में रविवार से स्वीकृति पत्र मेरे लिए कल्पनातीत था. मैं उद्वेलित था. स्वीकृति पत्र जेब में डाल मैं आगामी शनिवार ही हंस जा पहुंचा. जब मैं और राजेन्द्र जी ही थे मैंने पूछा, भाईसाहब, आपने पापी  वापस कर दी---आपको पसंद नहीं आयी थी?
चन्देल, पसंद-नापसंद का सवाल नहीं है. वह कहानी ऎसी है कि कहीं भी छप सकती है.
फिर हंस में क्यों नहीं छप सकती!
बहुत से कारण होते हैं---वे बताए नहीं जा सकते. राजेन्द्र जी के चेहरे पर एक बेचारगी-सी उस क्षण  मैंने देखी. मैंने अनुमान लगाया कि स्वयं वह तो शायद कहानी छापना चाहते रहे होंगे लेकिन कोई अन्य आड़े आ गया होगा. मैंने उनसे न छपने का कारण नहीं पूछा और पूछता भी तो क्या वह बता देते! मेरे प्रश्न से अचानक माहौल गंभीर हो उठा था. उसे हल्का करते हुए मैंने कहा, रविवार ने पन्द्रह दिनों के अंदर ही उसका स्वीकृति पत्र भेज दिया है.
मैंने कहा न कि वह कहीं भी छप सकती है.
राजेन्द्र जी के उत्तर से वातावरण पुनः पहले जैसा हो गया था.         
पापी’  रविवार के दीपावली विशेषांक में प्रकाशित हो रही थी. उसमें कमलेश्वर जैसे प्रतिष्ठित कथाकारों की कहानियां भी थीं. अंक प्रेस में जा चुका था और प्रकाशन के आदेश से एक दिन पहले मालिकों ने रविवार को बंद करने का निर्णय लिया. रविवार बंद हुआ और पापी लटक गयी. रविवार बंद होने के पश्चात लल्ला जी दिनमान में आ गए. वह तब दिनमान टाइम्स हो गया था और अखबार के रूप में निकलने लगा था. मैं एक दिन लल्ला जी से मिला और वह हमारी पहली मुलाकात थी. पापी पर चर्चा हुई. उन्होंने रविवार की डमी तैयार होने की बात बताते हुए उसके वहां प्रकाशित न हो पाने का अफसोस जाहिर किया. मैंने उन्हें उसे दिनमान टाइम्स में धारावाहिक  प्रकाशित करने का प्रस्ताव किया.
यह कठिन होगा रूपसिंह. लल्ला जी पान चभुलाते हुए बोले, यदि मैंने उसे धारावाहिक प्रकाशित किया तो लोग अपना उपन्यास लेकर आ जाएंगे. किस-किस को मना करूंगा. उन्होंने सलाह देते हुए कहा, आप सारिका को क्यों नहीं देते!
वहां पहले से ही एक कहानी स्वीकृत है.
मुद्गल जी से मिलकर उस कहानी के स्थान पर पापी के प्रकाशन का अनुरोध करो. वह जी भले व्यक्ति हैं. इंकार नहीं करेंगे.
मुद्गल जी मुझे भलीभांति जानते थे. लल्ला जी के पास से उठकर मैं उनके पास गया. दिनमान टाइम्स के साथ ही उनका कमरा था. वह उस समय अकेले थे. मैंने लल्ला जी का सुझाव अपनी ओर से मुद्गल जी के समक्ष रखा. वह कुछ देर तक सोचते रहे, फिर बोले, हां यह हो सकता है. और उन्होंने  महेश दर्पण को बुला लाने के लिए चपरासी से कहा. महेश के आने पर बोले, चन्देल की कोई कहानी हमारे यहां स्वीकृत है?
 “हां, है. महेश दर्पण बोले.
 “तो ऎसा करो, उस कहानी को रोक लो. चन्देल एक और कहानी देंगे, उसे प्रकाशित करना.
 “जी भाई साहब. शायद महेश ने उन्हें इसी प्रकार सम्बोधित किया था.  
एक सप्ताह के अंदर मैंने पापी मुद्गल जी को दी जिसे उन्होंने तुरंत महेश को देते हुए कहा, इसे प्रकाशित करना है.
और पापीसारिका के मई, १९९० अंक में उपन्यासिका के रूप में प्रकाशित हुई. सारिका में वही मेरी पहली और अंतिम कहानी थी, क्योंकि उसके पश्चात सारिका बंद हो गयी थी. उसके बंद होने से मैं सोचने के लिए विवश हुआ कि संभवतः राजेन्द्र यादव एक भविष्यदृष्टा भी हैं. पापी जहां स्वीकृत हुई वह पत्रिका बंद हुई और जहाँ छपी वह भी! कहानी लौटाने का निर्णय लेने से पहले कहीं राजेन्द्र जी ने हंस का भविष्य तो नहीं बांच लिया था!  बहरहाल सारिका में उपन्यासिका के रूप प्रकाशित होने से पापी को जो चर्चा मिली थी मेरे लेखक के लिए वह अत्यन्त महत्वपूर्ण थी.
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