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शुक्रवार, 18 मई 2012

यादों की लकीरें- भाग दो

संस्मरण - चार


सुबराती खां
रूपसिंह चन्देल

घुटनों तक सफेद लांगक्लाथ की बड़ी जेबों वाली कमीज, टखनों तक उठंग पायजामा और पैरों में देसी चमड़े की चप्पलें…जब भी मैंने उन्हें देखा इसी वेशभूषा में. सप्ताह में लगभग तीन दिन सुबह सात बजे  फतेहपुर-कानपुर शटल पकड़ने के लिए और शाम सात बजे के लगभग वापस लौटते वह मेरे दरवाजे के सामने से गुजरते. उस समय उनके हाथ में कपड़े का एक थैला लटक रहा होता. उनके  मोहल्ले के दो-चार लोग उनके साथ उनके पीछे होते थे. दरअसल उनके मोहल्ले से, जो गाँव में ‘मुसलमानों का मोहल्ला नाम से जाना जाता था, स्टेशन जाने का सीधा रास्ता मेरे घर के सामने से गुजरता था. वह रास्ता, दरअसल एक ऐसी गली थी जो उनके मोहल्ले से शुरू होकर मेरे घर के दरवाजे से होती हुई गाँव के बाहर तक जाती थी. वह कहीं पाँच फीट तो कहीं दस और कहीं पन्द्रह फीट चौड़ी थी. यह चौड़ाई इस बात पर निर्भर थी कि जिसके घर के सामने से वह गुजर रही थी उसने अपने चबूतरे को कितना कम या कितना ज्यादा आगे बढ़ा रखा था. मेरे घर के सामने वह पन्द्रह फीट चौड़ी थी.
गाँवों में मकान प्रायः गलियों से ऊँचाई पर बने होते हैं. गली से जितनी ऊँचाई पर मकान बना होता है, उसके दरवाजे के बाहर दोनों ओर उससे कहीं अधिक ऊँचाई पर चबूतरे या चबूतरियाँ होते हैं. मेरे मकान के चबूतरे गली से लगभग पाँच फीट ऊँचे थे. सुबह-शाम जब भी वह वहाँ से निकलते, मैं प्रायः चबूतरे पर बैठा होता. गाँव में बड़ों से दुआ-सलाम के संस्कार हर माँ-बाप अपने बच्चों को देते हैं. यहाँ यह बता दूँ कि मेरे पिता अपनी ससुराल में बस गए थे, अतः मेरा ननिहाल ही मेरा गाँव  था. इस तरह गाँ-नाते वह मेरे नाना होते थे और जब भी मैं उन्हें देखता, ‘नाना सलाम’ अवश्य कहता. आशीर्वचनात्मक भाव से वह उत्तर देते और प्रायः मेरी पढ़ाई के विषय में पूछ लेते. उनका नाम सुबराती खां था और वह  ग्राम प्रधान थे.  कुछ राजपूतों और ब्राह्मणों के विरोध के बावजूद वह लगातार तीन बार ग्राम प्रधान चुने जाते रहे थे.
सुबराती खां का मकान गाँव के उत्तरी छोर में था. उनके मकान के ठीक सामने मुस्ताक अहमद का मकान था और दोनों के बीच लंबी-चौड़ी जगह थी. मुस्ताक के मकान के सामने दो घने छायादार नीम के पेड़ थे. उनके घर से सटे हुए खेत थे, जिनमें गन्ना और गेहूं पैदा किया जाता था. खेतों के बीच पगडंडी थी और दो खेतों को छोड़कर गफूर मियां का बेरों का बड़ा बाग था. बेरों के उस बाग के सामने एक और बाग था. किसका? याद नहीं;  और उसी बाग में एक मस्जिद थी.
 मैं पढ़ने में होशियार था और इसी कारण गाँव के तरक्कीपसंद लोगों का  चहेता था. चहेता होने का दूसरा कारण शायद यह भी था कि मेरी छवि सीदे-सादे बच्चे की थी. उन दिनों मैं बेहद दुबला पतला था और कुछ लोग मुझे सींकिया पहलवान या किताबी कीड़ा कहकर पुकारते थे. यह 1963-64 की बात है. सुबराती खां तरक्की पसंद व्यक्ति थे और प्रायः वह मुझे पढ़ाई के लिए प्रोत्साहित किया करते थे. उनके व्यक्तित्व से मैं  प्रभावित था और जब भी वह किसी काम के लिए मुझे कहते, मैं इंकार नहीं कर पाता था.
बात 1964 की है. तारीख-महीना याद नहीं. बस इतना ही याद है कि गुलाबी जाड़े के दिन थे. वह मार्च का महीना भी हो सकता है और अक्टूबर-नवंबर का भी. मेरे मोहल्ले के मानूसिंह चौहान अपने खेतों में ट्यूब बेल लगवाना चाहते थे. सुबराती खां के साथ उनके अच्छे संबन्ध थे. मैंने प्रायः लोगों को सुबराती खां से अपने निजी मामलों में सलाह लेते और उनके काम से उन्हें शहर जाते देखा-जाना था. मानूसिंह का कोई काम शहर की कचहरी में भी था. जिस समय शहर जाने का कार्यक्रम बन रहा था उस समय मैं सुबराती खां के घर के सामने से निकल रहा था. उन्होंने हाँक लगाकर मुझे अपनी चौपाल में बुलाया. प्रस्ताव था कि अगले दिन मैं भी उनके साथ कानपुर चलूँ.  मुझे नहीं मालूम था कि वे किस काम से जा रहे थे.
“कचहरी में कुछ काम है लाला. तुम्हारी जरूरत पड़ सकती है.” सुबराती खां ने कहा.
भौंचक मैं कभी सुबराती खां का चेहरा देख रहा था तो कभी मानूसिंह का. मैं उम्र में इतना छोटा था---और मेरी जरूरत कचहरी जैसी जगह में! मेरे असमंजस को मानूसिंह ने भाँप लिया.
“रूप, तुम पढ़े-लिखे हो---अंग्रेजी पढ़ लेते हो---समझ भी लेते होगे----शायद कुछ पढ़ने-लिखने की जरूरत पड़े.”
मैं फिर भी चुप रहा था. मन में कचहरी देखने का उत्साह था, लेकिन कचहरी अच्छी जगह नहीं होती होश सँभालने के बाद यही सुना था, इसलिए एक भय भी था.
“मैं बिट्टी (गाँव में मेरी मां को उनके बचपन के  नाम ‘बिट्टी’  से ही लोग पुकारते थे) से कह दूँगा.” मानूसिंह बोले थे.  
अगले दिन मैं उन लोगों के साथ शहर गया. कानपुर जाने का वह मेरा शायद पहला अवसर था. हम दिनभर कचहरी के बरामदों में भटकते रहे थे. मानूसिंह का क्या काम था मैं नहीं जानता था, लेकिन जीवन में पहली बार रिश्वत देते देखा था. मानूसिंह का काम हो नहीं रहा था. उन्हें सुबराती खां से चर्चा करते सुना कि जब तक पाँच रुपए नहीं दिए जाएँगे बाबू काम नहीं करेगा और पाँच का हरा नोट जेब से निकालकर मानूसिंह ने सुबराती खां को दिया था जिसे लपककर सामने कमरे में बैठे किसी बाबू को वह दे आए थे और कुछ देर बाद ही वे दोनों प्रसन्न मुद्रा में मुझसे बोले थे—“चलो रूप.” और मैं उनके साथ रिक्शा में लदकर मेस्टन रोड गया था, जहाँ से मानूसिंह को ट्यूबवेल लगवाने के लिए सामान खरीदना था. 
 उन दिनों गाँव तीन गुटों में बँटा हुआ था.  एक ओर एक दंबग ठाकुर साहब थे, दूसरी ओर मेरे मोहल्ले का अवस्थी परिवार और तीसरी ओर वे लोग जो इन दोनों गुटों से अलग थे. उन सभी के सुबराती खां के साथ अच्छे संबन्ध थे. उन्हीं लोगों के कारण सुबराती खां लगातार तीन बार ग्राम प्रधान बनते रहे थे. जहाँ तक मेरा अनुमान है—उनकी शैक्षणिक योग्यता अधिक नहीं थी….शायद पाँचवीं तक की पढ़ाई ही उन्होंने की थी. यदि ऎसा नहीं होता तो वह मानूसिंह के मामले में मुझे कचहरी नहीं ले गए होते. लेकिन वह व्यवहार-कुशल, अनुभवशील और प्रगतिशील विचारधारा के व्यक्ति थे.
गाँव किनारे सड़क के पश्चिम की ओर बंबे से निकलकर एक नाली जाती थी  जो  उत्तर की ओर दूरवर्ती किसानों के खेत सींचती थी. हालांकि उसमें साल में दो से अधिक बार पानी नहीं दिखाई देता था तथापि उन दिनों वह बहुत उपयोगी थी. उस नाली और सड़क के बीच लगभग पाँच सौ वर्गगज चौड़ी और दो हजार वर्गगज लंबी जगह खाली पड़ी हुई थी और वह जमीन गाँ-समाज की थी. कभी-कभी अप्रैल-जून में उसमें एक-दो किसान अपने खलिहान डाल लेते थे. उससे हटकर कुछ दूरी पर गनी खां का लकड़ी का भट्टा लगता था. गनी खां सुबराती के पड़ोसी थे और उनका काम कभी-कभार किसी किसान के बिकने वाले पेड़ों को खरीदकर उनका भट्टा लगाना और उसके कोयले को गाड़ी में भरकर कानपुर में बेच आना था.
सुबराती खां ने उस खाली पड़ी जमीन का उपयोग करते हुए छापाखाना खोल दिया था, जिसमें रजाइयों की फरदों की छपाई होती थी. छापाखाना में कानपुर से आए लोग काम करते थे. दिनभर खटर-पटर होती रहती. बिजली की व्यवस्था थी तो रात में वहां रौनक रहने लगी थी. गाँव के मुझ जैसे कितने ही किशोरों के लिए वह आकर्षण का केन्द्र था. कितनी ही देर तक हम कारीगरों को हाथ चलाते देखते रहते थे.
छापाखाना खुला तो गाँव के एक परिवार ने आटा-चक्की भी लगा ली. अब गाँव के लोगों को पिसान पिसवाने के लिए एक मील दूर  पुरवामीर नहीं जाना होता था. लेकिन छापाखाना दो वर्ष से अधिक नहीं चला. एक दिन सुबह गाँव वालों ने देखा कि न वहाँ कारीगर थे और न ही सामान. बची रही थी फुक-फुक करती चक्की और एक दिन वह भी वहाँ से उखड़ गयी थी. वह जगह पुनः सुनसान हो गयी थी.
            छापाखाना खुलने के बाद गाँका दंबग ठाकुर गुट सुबराती खां के विरुद्ध कुछ लोगों को भड़काने में सफल रहा था.  उस सबके बावजूद गाँव के अधिकांश लोगों में उनकी प्रतिष्ठा शेष थी.  लेकिन सुनने में आया था कि छापाखाना के कारण उन्हें भारी घाटा उठाना पड़ा था और वह कर्जदार हो गये थे.
       सुबराती खां से जुड़ी एक महत्वपूर्ण घटना याद आ रही है . 1966 की बात है.  नवीं कक्षा की परीक्षा देने के बाद मैं खाली था. कई वर्षों बाद उस गर्मी में मुझे  जानवर चराने जाने से छूट मिल गयी थी. उन दिनों मैं प्रतिदिन शाम को या तो किसी बाग की ओर टहलने चला जाता या रेलवे स्टेशन की ओर जो मेरे गाँव से एक मील दूर दक्षिण दिशा में था. स्टेशन में किसी बेंच पर बैठकर आती-जाती गाड़ियों को और कानपुर-फतेहपुर शटल से उतरी सवारियों को देखना मुझे अच्छा लगता था.
वह मई के अंतिम सप्ताह का कोई तपता हुआ  दिन था.
उस दिन भी पगडंडी के रास्ते मैं स्टेशन की ओर जा रहा था. गाँव और स्टेशन के बीच मेरे खेत थे और मेरे खेतों के साथ एक नाला बहता था. वैसे तो नाले में बारहों माह पानी रहता था, लेकिन बरसात के दिनों में वह विकराल रूप ले लेता था और अपने किनारे के मेरे खेतों की मेड़ों को समेट ले जाता था. उस दिन मैं नाले की चढ़ाई उतर रहा था और शटल से उतरकर आते हुए सुबराती खां ऊपर चढ़ रहे थे.  मेरे सामने आकर अपनी सांस रोककर उन्होंने पूछा, “किधर जा रहे हो लाला?”
            “स्टेशन…”
            “लौटकर घर आना---कुछ बात करनी है.”
मैं जब उनके घर पहुँचा, घर के  बाहर खुले में चारपाई पर बैठे उन्हें हुक्का पीते पाया.  सामने पड़ी चारपाई की ओर इशारा करते हुए उन्होंने मुझे बैठने के लिए कहा.  कुछ देर चुप रहने के बाद बोले, “आज तपन कुछ अधिक ही है.” यह कहकर उन्होंने सामने नीम के पेड़ों की ओर नजरें उठाकर देखा और बुदबुदाए, “आज हवा भी सनाका खाए हुए है.”
मैं चुप  ऊँची चौपाल के नीचे नाँद में पड़ी सानी में मुँह मार रहे उनके सुन्दर और जवान बैलों के जोड़े को देख रहा था.
“इन गर्मियों की छुट्टियों में क्या करने का इरादा है?”
मैं चुप रहा.
 “एक काम है…” सुबराती खां ने पुनः मेरे चेहरे पर नजरें टिका दीं, “यह जो गाँव के बाहर की कच्ची सड़क है न---सिकठिया-पुरवा से हृदययखेड़ा तक---बल्कि उससे भी आगे---बहुत महत्वपूर्ण है—व्यवसाइयों और सवारियों – दोनों के लिए”. क्षणभर रुककर आगे बोले—“पिछले हफ्ते मैं इस इलाके के विधायक से मिला था. उन्होंने कहा कि यदि मैं सड़क किनारे के सभी गांवों के लोगों के दस्तखत करवाकर  एक एप्लीकेशन उन्हें दूँ तो वह मंत्री जी से मिलकर सड़क बनवाने की बात पक्की कर लेंगे.” वह पुनः रुके और मेरी ओर देखा, “लाला, उपकार का काम है. तुम इस काम को सँभाल लो --- गाँव के दो-तीन लड़कों को  साथ ले लो---.”
ऎसे कामों के प्रति मुझमें उत्साह रहता था. मैंने ‘हाँ’ कह दी. अपने साथ जाने वाले  दो लड़कों के नाम  मैंने उन्हें सुझाए. रात ही मैंने उन लड़कों और उनके माँ-पिता से इस बारे में बात की. उनकी थोड़ी -नुकुर के बाद मैं उन्हें मना लेने में सफल रहा. मेरे घर से मुझे अनुमति मिल चुकी थी. अगली सुबह हम उस अभियान के लिए निकल पड़े थे.  
हमने पुरवामीर गाँव से, जहाँ से कच्ची सड़क प्रारंभ होती थी, हस्ताक्षर अभियान की शुरुआत की. हम घर-घर, बागों और खलिहानों में गए. लोग हमारी बातें सुनते, चेहरे पर गंभीर भाव लाकर पक्की सड़क की सुविधा पर दो-चार वाक्य कहते और हस्ताक्षर या अंगूठा निशान दे देते. हम सुबह सात बजे घर से निकल जाते और दोपहर बाद तीन बजे तक लौट आते थे.
मई के अंतिम सप्ताह से शुरू करके जुलाई के प्रथम सप्ताह तक मैं उस अभियान में नियमित जाता रहा. जून के तीसरे सप्ताह तक एक-एक कर मेरे दोनों साथी घर बैठ चुके थे क्योंकि लू के थपेड़े सहने की उनकी क्षमता छीज चुकी थी. लेकिन मेरा उत्साह कम नहीं हुआ था. पुरवामीर से लेकर दस-बारह किलोमीटर दूर पांडुनदी पार टिकरा गाँव तक मैं गया था. इस अभियान में मैंने लगभग चार हजार लोगों से संपर्क किया.  हस्ताक्षरों का मोटा पुलिंदा मैंने जब सुबराती खां को सौंपा तब उनकी प्रसन्नता का ठिकाना नहीं रहा था.
कुछ दिनों बाद उन्होंने मुझे बताया कि विधायक के साथ लखनऊ जाकर हस्ताक्षरों का वह पुलिंदा वह स्वयं मंत्री जी को सौंप आए थे. दो साल बाद एक सुबह पुरवामीर से मेरे गाँव तक सड़क किनारे बड़ी रोड़ियों के चट्टे दिखाई दिए तो गाँव वालों के चेहरे खिल उठे थे, “अब सड़क बनेगी.” लेकिन सड़क बनी मेरे हस्ताक्षर अभियान के चार साल बाद. मेरे उपन्यास ‘रमला बहू’ में यह घटना एक पात्र के माध्यम से वर्णित है.
एक घटना और.  8 जुलाई, 1968 को शाम बारिश हुई. मौसम हल्का-सा ठंडा हो गया था. मैं घर के बाहर चबूतरे पर चारपाई डालकर  सोया. रात को ठंड लगी. चादर ओढ़ने के बाद भी ठंड बढ़ती गई और बदन दर्द करने लगा. सुबह मालूम हुआ कि तेज बुखार था. गाँव के डॉक्टर गोरखनाथ निगम से दवा ले आया. 10 जुलाई को बुखार उतर गया लगा. उस दिन नानी ने बेढ़ईं (उड़द-चना की दाल से बनी रोटियां) बनाई थीं. शायद कोई त्यौहार था. उस दिन गाँव में ऎसी रोटियाँ शायद सभी घरों में बनती हैं. नानी ने पूछा, “बबुआ, खांय का मन होय तो  एक बेढ़ईं अउर आम लाई?”
मैंने ‘हाँ’ में सिर हिलाया. नानी और मेरे घर मिले हुए थे और आवागमन के लिए बीच से रास्ता था. नानी एक बेढ़ईं और अपने बाग के आम ले आईं. नानी आकार में कुछ बड़ी और मोटी बेढ़ईं बनाती थीं जिनका स्वाद ही कुछ अलग होता था. मैंने खाया. लेकिन खाने के दो घंटे बाद ही उतरा हुआ समझ आने वाला बुखार पहले से अधिक तेज हो गया.  दो दिन बाद गोरखनाथ निगम ने घोषित किया कि मुझे टायफाइड हो गया था. 23 जुलाई तक मैं उसकी चपेट में रहा. शरीर काँटा हो गया. बाद में, स्वस्थ तो हो गया लेकिन कुछ अन्य बीमारियों का शिकार हो गया. मां के घी-दूध की खुराकों का भी मुझपर कुछ असर नहीं हो रहा था. उस वर्ष की पढ़ाई बरबाद हुई थी. उस पूरे वर्ष मैंने कच्छा और गंदी कमीज पहनकर  सुबह से शाम तक जानवर चराये थे. वह भरपूर मजदूर-किसानों जैसा जीवन था मेरा. आज सोचता हूँ तो आश्चर्य होता है, लेकिन वे अनुभव बाद में मेरे साहित्य में बहुत काम के सिद्ध हुए.
बात मेरी बीमारी की थी. शायद वह अक्टूबर का महीना था. एक दिन सुबराती नाना रास्ते में मिल गए और पूछ लिया, “लाला---तुम्हारी तबीयत ठीक हुए महीनों बीत गए, लेकिन तुम्हारा शरीर पनप क्यों नहीं रहा?”           
मैं उन्हें कुछ भी बताने में सकुचा रहा था.
उन्होंने मेरे विचार पढ़ लिए. बोले, “कहीं दिखाया?”
“गोरख मामा ने फालसे की छाल कुटवाकर कपड़छान करवाकर मुझसे ली थी और कुछ गोलियाँ बनाकर दी हैं. लेकिन उससे भी कोई लाभ नहीं हुआ.” मैंने बताया.
“लाला, मेरे साथ कानपुर चलना…वहाँ बाबूपुरवा में मेरे जान-पहचान के एक हकीम साहब हैं. बहुत ही नामी हकीम हैं. नब्ज देखकर मर्ज पहचान जाते हैं. उनसे दवा दिलवा दूँगा. जल्दी ही ठीक हो जाओगे.”
उन दिनों उनका छापाखाना चल रहा था और व्यवसाय के सिलसिले में लगभग हर दिन वह कानपुर जाया करते थे. वह मुझे कानपुर ले गए थे उन हकीम साहब के पास और हकीम साहब ने नब्ज देखकर कहा था  “आपके गुर्दों में गर्मी समायी हुई है.”
हकीम साहब ने पन्द्रह दिन की कोई दवा दी. उसमें कुछ बीज भी थे, जिन्हें कूट-पीसकर ठंडाई जैसा बनाकर पीना था. पन्द्रह दिनों में मुझे जब उससे एक प्रतिशत भी लाभ नहीं हुआ तब मैंने हकीम साहब के पास जाना मुनासिब नहीं समझा था. एक कारण और था. घर की माली हालत खराब थी. पहली बार दवा के पैसे सुबराती नाना ने हकीम साहब को दिए थे लेकिन दूसरी बार के वह दें यह मुझे स्वीकार नहीं था. मेरे पास पैसे नहीं थे और घर वालों से पैसे माँगना संभव नहीं था.
1969 में मैं गाँव छोड़कर शहर आ गया. फिर भी, जब-तब गाँव जाना होता रहा. सुबराती खां जब भी मिलते, सदैव आशीसते हुए कहते, “खूब उन्नति करो लाला---अपने अब्बा का नाम रौशन करो….” उनके आशीर्वचन मुझमें आत्मविश्वास पैदा करते.
1973 में नौकरी लगने के बाद गाँव जाना कम हो गया. उससे पहले हुए गाँ-सभा का चुनाव सुबराती खां हार गए थे. उनका प्रभाव कम हो चुका था. छापाखाना से हुए घाटा के बाद कर्ज की चपेट में एक बार जो वह आए तो उससे उबर नहीं सके---बल्कि उसमें निरंतर धँसते ही चले गए. बैलों की जोड़ी और कुछ खेत बेचने के बाद भी शायद वह उससे मुक्त नहीं हो सके थे. बीमार रहने लगे और एक दिन पता चला कि वह नहीं रहे थे.
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मंगलवार, 15 मई 2012

यादों की लकीरें-भाग दो

संस्मरण - तीन


मेरे पाठक
रूपसिंह चन्देल

यद्यपि मुझे मेरे और मेरे पाठकों के बीच संबन्धों पर प्रकाश डालने के लिए कहा गया है, लेकिन उससे पहले मैं कुछ सामान्य बातें कहना आवश्यक समझता हूं.

हिन्दी पाठकों में साहित्य के प्रति रुचि क्षरित हुई है यह बात प्रायः कही जाती है. कही ही नहीं जाती बल्कि साहित्यिक समागमों में इस पर गंभीर चर्चाएं भी हुईं और आगे भी होगीं. इसके लिए दोषी पाठक है या लेखक यह एक अहम प्रश्न है. कुछ लोग इसके लिए टी.वी., इंटरनेट आदि माध्यमों को दोष देते हैं और कुछ वर्तमान जीवन स्थितियों को. मेरी दृष्टि में वास्तविकता इससे भिन्न है. इसके लिए कोई माध्यम दोषी नहीं---दोष स्वयं लेखकों का है. पाठक स्वस्थ साहित्य के साथ वह पढ़ना चाहता है  जिसमें वह अपने जीवन को प्रतिभासित पाता है. हम सभी जानते हैं कि  नवें दशक के उत्तरार्द्ध तक स्थितियां इतनी विद्रूप नहीं थीं. लेकिन बदलाव प्रारंभ हो चुका था. बाजार से स्थापित पत्रिकाओं ने अपने कार्यालयों में ताला लगाना प्रारंभ कर दिया था. लेकिन इस सबके बावजूद पाठक थे और पाठकों में उन पत्रिकाओं के तिरोहित होने की पीड़ा भी थी. सहज और सस्ते रूप में उपलब्ध साहित्य उनसे छीन लिया गया था. यह सर्वविदित सत्य है कि हिन्दी पाठक की हैसियत पुस्तकें खरीदकर पढ़ने की नहीं है. फिर भी बंद हुई पत्रिकाओं की क्षतिपूर्ति कुछ पत्रिकाएं कर रही थीं. १९९२-९३ तक हंस और कुछ अन्य पत्रिकाओं ने इस दिशा में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई, लेकिन अचानक प्रकटे स्त्री विमर्श और दलित विमर्श ने पाठकों में बेचैनी पैदा की और उन्हें दूर हटने के लिए विवश किया. रही सही कसर पूरी कर दी अपठनीय और अविश्सनीय रचनाओं ने. पाठक  कथा खोजता जिसके दर्शन उसे अंत नहीं हो रहे थे. लेकिन आश्चर्य इस बात का था कि स्वनामधन्य सम्पादकों, वैसा ही लेखन करने वाले लेखकों और आलोचकों ने बेहद अपठनीय, विकृत यौन सम्बन्धों से परिपूर्ण, जीवन से दूर रचनाओं की प्रशंसा में एड़ी चोटी का जोर लगाया और उनकी प्रशंसा से प्रेरित पाठक ने वहां अपने को छला हुआ पाया. ऎसी स्थिति में दोष किसे दिया जाना चाहिए?

किसी भी साहित्यकार को उसके आलोचक नहीं उसके पाठक जीवित रखते हैं. इसका अर्थ यह नहीं कि लेखक वह लिखे जिसकी और जैसे की मांग पाठक उससे करता है, लेकिन उसे वैसा अवश्य लिखना चाहिए जो पाठकों  को विश्वसनीय और संप्रेषणीय लगे. यदि रचना में संप्रेषणीयता और पठनीयता नहीं  है तो पाठक उसे नकारने में समय नष्ट नहीं करता.

महान रूसी लेखक लियो तोल्स्तोय ने अपने एक मित्र से कहा था, “तुम्हें पता है कि प्रारंभ में रूस ही नहीं जर्मन के आलोचकों ने मेरी रचनाओं पर कितना हाय-तौबा मचाया था. यह अच्छी बात है कि बात अब उनकी समझ में आ गयी है.” उन्होंने आगे कहा था, “मैंने कभी आलोचकों की परवाह नहीं की.  सदैव अपने पाठकों के विषय में सोचा---क्योंकि वे ही लेखक को जीवित रखते हैं.” मैक्सिम गोर्की की एक कहानी सुनकर तोल्स्तोय ने उनसे कहा था, “किसके लिए लिखी यह कहानी? यह भाषा आम-जन की नहीं है. आम-जन ऎसे नहीं बोलता. उसके लिए लिखो---वही तुम्हें जिन्दा रखेगा.”

पाठकों का प्यार पाने के मामले में मैं अपने को भाग्यशाली मानता हूं. नवें दशक में किसी भी रचना, विशेषरूप से कहानी पर, पाठकों के पत्र आते थे. वे बेबाकरूप से अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त करते थे. ये पत्र भारत के किसी स्थान से ही नहीं बल्कि अमेरिका और लंदन से भी मुझे मिलते थे. मेरी कहानी ’उनकी वापसी’ (साप्ताहिक हिन्दुस्तान -१९८५) पर ऎसे अनेक पत्र मुझे मिले थे.  सत्येन कुमार की पत्रिका में जब मेरी ’क्रान्तिकारी’ कहानी प्रकाशित हुई, उसपर कितने ही पाठकों ने प्रशंसा में पत्र लिखे. लेकिन केवल प्रशंसक ही नहीं थे. सत्यवती कॉलेज के हिन्दी विभाग में कार्यरत एक प्राध्यापक की पत्नी ने मुझे मरवाने की धमकी भी भेजी थी, क्योंकि उसे लगा था कि उस कहानी के मुख्य पात्र शांतनु के रूप में उसके पति को चित्रित किया गया था. इसे मैंने अपनी कहानी की सफलता मानी थी और अपनी पीठ पर लगाने के लिए हल्दी-चूना की अग्रिम व्यवस्था कर ली थी.

 पाठकों के प्रेम की अनगिनत किस्से हैं. अंतिम दशक की बात है. नवभारत टाइम्स में ’बच्चे’ कहानी प्रकाशित हुई. कहानी कन्याकुमारी में सीपियों से तैयार वस्तुएं बेचने वाले बच्चों पर केन्द्रित थी और बहुत ही मार्मिक थी. गलती से अखबार ने परिचय के साथ मेरा पता भी प्रकाशित कर दिया था. उन दिनों मैं शक्तिनगर, दिल्ली में रहता था. अगले दिन रात जब मैं घर पहुंचा पता चला कि एक युवक घर आकर लौट चुका था. वह एक बेरोजगार युवक था और कहानी ने उसमें एक आशा का संचार किया था. उसे लगा था कि कन्याकुमारी के बच्चों का वास्तविक और मार्मिक चित्रण करने वाला लेखक अवश्य ही उसकी बेरोजगारी दूर करने में सहायक होगा. ’हंस’ में मई, १९८७ में प्रकाशित  कहानी ’आदमखोर’ से कितने ही पाठक विचिलित हुए थे और आज भी कितनों के जेहन में वह ताजा है. यह अनुभव मुझे अनेक बार हुआ, जब संयोगतः ऎसे पाठकों से मेरी मुलाकात  हुई और नाम सुनते ही उन्होंने उस कहानी का उल्लेख किया. ऎसा ही लंबी कहानी ’पापी’ के उपन्यासिका के रूप में मई १९९० में सारिका में प्रकाशित होने के बाद कितनी ही बार हुआ. 

एक सोमवार का वाकया याद आ रहा है. बात १९९३ की है.  मैं जब शाम सात बजे कार्यालय से घर पहुंचा दरवाजे पर ही पता चला कि एक सज्जन आध घंटा से मेरी प्रतीक्षा कर रहे थे. वह सज्जन मेरे क्षेत्र के ही रहने वाले थे. बीते रविवार को नवभारत टाइम्स में प्रकाशित मेरी कहानी उन्हें मेरे घर तक खींच लायी थी. उनकी शिकायत थी कि वह कहानी मैंने उन्हें केन्द्र में रखकर लिखी थी. मैंने उन्हें समझाने का प्रयास किया कि मैं उन्हें जानता भी नहीं, लेकिन वह मानने को तैयार नहीं थे. सज्जन व्यक्ति थे, इसलिए मैं उन्हें समझाने में सफल रहा था. यदि कोई दबंग होता तो ----- लेकिन ऎसे पाठकों ने सदैव मुझमें अपने साहित्य के प्रति विश्वास और आस्था उत्पन्न किया.

मार्च, २०१२ की पाखी में द्रोणवीर कोहली पर मेरा संस्मरण पढ़कर जिन पाठकों ने मुझे फोन किए उनमें वरिष्ठ कथाकार ज्ञानरंजन जी और बरेली की एक निर्मला सिंह थीं. निर्मला सिंह ने कहा कि संस्मरण पढ़कर वह अपने को रोक नहीं पायीं. उन्होंने बताया कि १९९४ में अमर उजाला में धारावाहिक प्रकाशित  मेरे उपन्यास ’रमला बहू’   की सभी किस्ते उन्होंने पढ़ीं थीं और आज भी वह उसे भूल नहीं पायीं हैं. चेन्नई से प्रो. आर. सौरीराजन ने भी रमला बहू  पर अपनी ऎसी ही प्रतिक्रिया से मुझे अवगत करवाया था. मेरे उपन्यास ’खुदीराम बोस’ को पढ़कर सुधीर विद्यार्थी ने पूछा था कि क्या मैं पश्चिमी बंगाल में रहा था. उपन्यास को पढ़कर कहा नहीं जा सकता कि मेरे बचपन के दो-तीन वर्ष ही वहां बीते थे और उसकी धुंधली याद ही मेरे मस्तिषक में शेष है. सुधीर ने कहा था कि उपन्यास इतना विश्वनीय है कि वह यही मान रहे थे कि मैंने लंबा समय वहां गुजारा होगा.

 दिसम्बर,२०११ में एक रात मुम्बई से प्रो.डॉ. धनराज मानधानि का फोन आया. मेरे लिए बिल्कुल अपरिचित नाम. लंबी बातचीत और बातचीत मेरे शीघ्र प्रकाश्य उपन्यास ’गलियारे’ पर केन्द्रित. उन्होंने उसे मेरे ब्लॉग ’रचना समय’ में धारावाहिक रूप से प्रकाशित होते पढ़ा था. उपन्यास पर एक-दो सुझावों के बाद वह मेरे अन्य उपन्यासों पर बात करने लगे थे. मैं भौंचक था. पता चला कि उन्होंने ’रमला बहू’ से लेकर ”गलियारे’ तक मेरे सभी उपन्यास पढ़ रखे थे. बोले, “वह उन्हें पुनः पढ़ेंगे’ और  ’पाथर टीला’ को पुनः पढ़कर उन्होंने एक रात फोन किया और उस पर लंबी बात की. ऎसे पाठक सदैव मुझे लिखते रहने की प्रेरणा देते हैं.    

कुछ और उदाहरणों के बिना बात अधूरी रहेगी. एक घटना याद आ रही है. लगभग पन्द्रह वर्ष पुरानी बात है. राजस्थान से एक पाठक ने फोन कर मेरी एक कहानी का उल्लेख करते हुए कहा, “सर, मैं तो आपसे कभी मिला नहीं, फिर आपने मेरी कहानी कैसे लिख दी.” वह शिकायत नहीं कर रहा था और न ही धमकी दे रहा था. अपनी जिज्ञासा प्रकट कर रहा था.

सामयिक प्रकाशन के जगदीश भारद्वाज जी उन प्रकाशकों में थे जो पांडुलिपियों को पढ़ते अवश्य थे. मेरा उपन्यास ’पाथर टीला’ उनके यहां प्रकाशनार्थ प्रस्तुत था जो १९९८ में प्रकाशित हुआ था. पांडुलिपि समाप्त कर वह अपने को रोक नहीं पाए. तुरंत फोन करके बोले, “चंदेल जी, पांच मिनट पहले ही उपन्यास पढ़कर समाप्त किया है.”

मुझे लगा कि वह उसमें कुछ संशोधन सुझाना चाहते हैं. मैं  चुप रहा था.

“आप कभी मेरे गांव के ग्राम प्रधान से मिले थे?”

“भारद्वाज जी, मुझे आपके नगर की जानकारी भी नहीं, गांव तो दूर की बात है.”

“उपन्यास में ग्रामप्रधान हरिहर अवस्थी का चरित्र मेरे गांव के ग्रामप्रधान जैसा है.”

ये उदाहरण इसलिए दिए क्योंकि जिन रचनाओं में पाठक स्वयं को अथवा अपने आस-पास के किसी चरित्र को खोज लेता है,  उन्हें ही पसंद करता है, न कि प्रायोजित रूप से थोपी गई रचनाओं को. हाल में मेरी संस्मरण पुस्तक ’यादों की लकीरें’ प्रकाशित हुई है. उसके सभी संस्मरण मैंने अपने ब्लॉग में प्रकाशित किए थे. प्रत्येक संस्मरण  पर मुझे पाठकों की जो प्रतिक्रियाएं मिलती रहीं वे मुझे एक नया संस्मरण लिखने के लिए प्रेरित करती रहीं. लगभग डेढ़-दो वर्ष पहले मेरे यात्रा संस्मरण को पढ़कर फैजाबाद के एक पाठक का लंबा पत्र मुझे मिला था. उन्होंने मुझे सूचित किया था कि उस पुस्तक से दक्षिण भारत के पर्यटन स्थलों की जो जानकारी उन्हें प्राप्त हूई है उसने उन्हें दक्षिण भारत की यात्रा के लिए प्रेरित किया है. प्रसंगतः यह बताना अनुपयुक्त न होगा कि उस यात्रा संस्मरण के १९९७ से अब तक छः संस्करण प्रकाशित हो चुके हैं. सातवां संस्करण शीघ्र ही प्रकाशित होने वाला है. १९९४ से अब तक मेरे उपन्यास ’रमला बहू’ के तीन, ’पाथर टीला’ के दो और ’खुदी राम बोस’(१९९९) के चार संस्करण प्रकाशित हो चुके हैं. पन्द्रह दिन पहले ही प्रकाशित ने बताया कि ’खुदी राम बोस’ का नया संस्करण भी वह शीघ्र ही प्रकाशित करने वाले हैं. यह सब मेरे पाठकों के कारण ही संभव हो पा रहा है.

कितने ही उदाहरण हैं जब पाठकों के पत्रों, फोन, और निजी मुलाकातों ने मुझमें रचनात्मक उत्साहवर्धन किया. मैं अपने पाठकों के प्रति कृतज्ञ हूं, क्योंकि मेरा रचनात्मक नैरंतैर्य और ऊर्जा का प्रमुख कारण मेरे पाठक ही हैं. जब तक मुझ पर उनका विश्वास और मेरे प्रति उनका आदर-प्रेम हैं मैं निरंतर लिखता रहूंगा.

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