Text selection Lock by Hindi Blog Tips

सोमवार, 16 नवंबर 2009

यादों की लकीरें


संस्मरण
रमाकांत जी ने एक सपना देखा था
रूपसिंह चन्देल
उनसे मेरी पहली मुलाकात 1982 में गर्मियों के किसी महीने हुई थी . उन दिनों प्रत्येक माह दूसरे शनिवार को मेरे कार्यालय में अवकाश होता था . उस अवकाश के दिन दोपहर बाद कंधे पर थैला लटका मैं प्रायः परिचितों से मिलने के लिए निकल पड़ता . तब परिचय का दायरा छोटा था , लेकिन धीरे -धीरे बढ़ रहा था . परिचितों से मिलता हुआ मैं काफी हाउस अवश्य जाता . विष्णु प्रभाकर वहां नियमित जाते थे . नियमित जाने वालों में कुछ अन्य साहित्यकार भी थे .
मोहन सिंह प्लेस की सीढि़यां चढ़कर गर्मी के उस दिन जब मैं वहां पहुंचा छः बज चुके थे . दरवाजे के ठीक सामने खुली छत पर विष्णु जी चार-पांच लोगों से घिरे हुए बैठे थे . दो मेजों को मिला दिया गया था , जिससे अन्य आने वाले लोगों के लिए जगह बन सके . विष्णु जी के साथ जो लोग थे उनमें वे भी थे . मध्यम कद , चैड़ा मुस्कराता चेहरा , खिली आंखें और पीछे की ओर ऊंछे घने पाके-अधपके बाल . विष्णु जी से मेरी मु्लाकात काफी हाउस की ही थी . परिचय इतना ही कि वह मेरा चेहरा पहचानने लगे थे . हालांकि कुछ दिनों बाद अर्थात सितम्बर 1982 में ‘बाल साहित्य समीक्षा’ के अतिथि सम्पादन का कार्य करते हुए मैं उनके पर्याप्त निकट हो गया था . कुछ दिनों बाद इस पत्रिका के उन पर केन्द्रित विशेषांक का भी मैं अतिथि संपादक था . संयोगतः उस दिन मैं वि्ष्णु जी के बगल में बैठा था . विष्णु जी ने उनकी ओर इशारा करते हुए पूछा , ‘‘ आप इन्हें जानते हैं ?’’
मैं चुप उनकी ओर देखता रहा . विष्णु जी ने मेरी द्विविधा समझी और बोले , ‘‘आप कथाकार रमाकांत हैं.........’’
और विष्णु जी मेरे बारे में कुछ कहते , इससे पहले ही मैंने रमाकांत जी को अपना परिचय दे देया . रमाकांत जी ‘अच्छा.... अच्छा.....’वहां उपस्थित लोगों के साथ पुनः वार्तालाप में करने लगे थे . लोगों के आने का सिलसिला जारी था और आध घण्टा में दोनों मेजें कम पड़ने लगी थीं . अन्य लोगों के आने के बाद ‘‘अब मैं कुछ देर उधर बैठूंगा ....’’ कहते हुए रमाकांत जी उठे और काफी हाउस की छत में दक्षिण की ओर की गलियारानुमा जगह की ओर चले गए . यह मुझे बाद में पता चला कि उस गलियारे में जनवादी-मा्र्क्सवादी लोग बैठते थे . उनमें से कुछ इधर-उधर ”शिफ्ट होते रहते थे , जिनमें रमाकांत , राजकुमार सैनी , रमेश उपाध्याय , कांति मोहन , “श्याम कश्यप आदि थे .... लेकिन कुछ लोग ऐसे भी थे जो विष्णु जी की मंडली की ओर देखते भी न थे . वे सीढि़यां चढ़ दरवाजे पर कुछ देर खड़े होकर अपने लोगों का जायजा लेते , फिर दाहिनी ओर गलियारे की ओर मुड़ जाते . वे अपने को महान क्रांतिकारी रचनाकार मानते थे . लेकिन इसे विडबंना ही कहेंगे कि कल के क्रांतिकारी आज पूंजीवादी हो गए हैं , हालांकि वे अंदर से तब भी पूंजीवादी - सामंतवादी ही थे और आज पूंजीवादी होकर भी पूंजीवाद का विरोध करते दिख जाते हैं . दरअसल उनका यह विरोध ही उनकी सुविधा-सम्पन्नता का आधार है . लेकिन रमाकांत जी इन सबसे भिन्न थे . उनके जीवन और व्यवहार में कोई अंतर नहीं था . मार्क्सवादी होते हुए भी वह छद्म मार्क्सवादियों के विरोधी थे . सत्ता और सुख के पीछे दौड़ने वाले व्यक्ति वह नहीं थे . यही कारण है कि उन्होंने ‘सोवियत भूमि’ पत्रिका की अच्छी खासी नौकरी छोड़ दी थी , जबकि एक बड़े परिवार का दायित्व उनपर था . बहरहाल , काफी हाउस में महीने में एक बार रमाकांत जी से मेरी मुलाकात हो जाया करती . तभी मुझे ज्ञात हुआ कि वह सादतपुर में रहते थे . यद्यपि इस जगह का नाम मैंने अपने गाजियाबाद निवास के दौरान 1979-80 में सुना था . उन दिनों तक कई साहित्यकार यहां आकर बस चुके थे . यहां को लेकर तभी मन में उत्सुकता जाग्रत हुई थी . रमाकांत जी के यहां रहने की जानकारी के बाद मुझे लगा कि मुझे एक बार जाकर इस स्थान को देखना चाहिए . लेकिन लंबे समय तक यह संभव नहीं हुआ . यहां जमीन सस्ती होने की बात सुनता तो यहां जमीन का छोटा-सा टुकड़ा खरीद लेने की इच्छा प्रबल हो उठती लेकिन अंततः बात आई गई हो जाती . अगस्त 1985 में एक दिन सारिका में बलराम और वीरेन्द्र जैन को आपस में सादतपुर जाने की चर्चा करते सुना . ज्ञात हुआ कि वे दोनों यहां अपने मकान बनवा रहे थे और दफ्तर से जल्दी निकलकर काम देखने जाना चाहते थे . इन दोनों से प्रेरित होकर 20 सितम्बर 1985 को मैंने यहां जमीन का एक टुकड़ा खरीद लिया और यहां आने जाने की परेशानियां समझ मकान बनाकर आ बसने का विचार त्याग दिया .

*******
लेकिन मही्ने में एक बार मैं सादतपुर घूम जाता यह देखने के लिए कि प्लाट पर किसी ने कब्जा तो नहीं कर लिया . आता और चला जाता .....कभी-किसी से मिल नहीं पाता . प्लाट सुरक्षित देखता और उल्टे पैर वापस लौट लेता . अंततः बहुत उहा-पोह के बाद 9 अप्रैल 1988 को प्लाट का पीछे का आधा भाग बनवाना प्रारंभ किया और तब लंबी छुट्टियां लेकर मुझे यहां रहना पड़ा . सुबह सात बजे तक मैं सादतपुर पहुंच जाता और रात 8 बजे तक रहता . काम कछुआ की गति से चलता क्योंकि ठेकेदार शराबी था और मजदूर लगाकर वह कई-कई दिनों के लिए गायब हो जाता था . मजदूरों से कह देता बाबू जी से पैसे ले लेना . उन्हीं दिनों रामकुमार कृषक अपना मकान बनवा रहे थे . कुछ दिनों बाद मेरे पड़ोस में महेश दर्पण ने बनवाना प्रारंभ किया था . कृषक जी की स्थिति मेरी तरह थी . काम देखने के लिए वह त्रिनगर से आते और सारा दिन यहां रहते . दिन का कुछ समय हम साथ बिताते ........ लेकिन कितना .... जब वह न होते मैं रमाकांत जी के पास जा बैठता . घण्टों मैं उनके साथ रहता ... साहित्य से लेकर राजनीति तक ... विभिन्न विषय पर चर्चा होती . उन दिनों वह अपना अंतिम उपन्यास ‘जुलूस वाला आदमी ’ लिख रहे थे . उनका पहला उपन्यास ‘छोटे-छोटे महायुद्ध ’ चर्चित रहा था . हंस में प्रकाशित उनकी कहानी ‘कार्लो हब्सी का संदूक ’ उसी प्रकार उनके नाम का पर्याय बन गयी थी जिसप्रकार ‘उसने कहा था ’ चन्द्रधर शर्मा गुलेरी के नाम का पर्याय बनी . रमाकांत जी उन दिनों स्थानीय समस्याओं पर केन्द्रित एक अखबार भी निकाल रहे थे . किसी दिन जब मैं उनके यहां न जा पाता और शाम शक्तिनगर (11 अक्टूबर , 1980 से 2 अगस्त , 2003 तक मैं वहां किराये पर रहा ) लौटने के लिए सईद मियां की सैलून के सामने बस पकड़ने के लिए खड़ा होता , रमाकांत जी सईद के पास बैठे नजर आते . वहीं से पूछते , ‘‘आज कहां रहे ?’’
सिगरेट उनकी कमजोरी थी . प्रायः मैं उनके मुंह में सिगरेट दबी देखता . 1988 के आसपास उनका काफी हाउस जाना कम हुआ था और शाम प्रायः वह सईद की दुकान में बैठे दिखाई देते थे . इससे पहले वह नियमित काफी हाउस जाया करते थे और देर रात तक वहां बैठते थे बावजूद यह जानते हुए कि सादतपुर पहुंचने के साघन अत्यल्प थे .
उन्हीं दिनों बातचीत में एक दिन उन्होंने बताया कि 1972 में जब उन्होंने सादतपुर में बसने का निर्णय किया तब दूर-दूर तक खेत फैले हुए थे .

उनके बाद 1973 में विष्णु चन्द्र शर्मा यहां आए .
विष्णु चंद्र शर्मा जी को सादतपुर आ बसने की प्रेरणा रमाकांत जी ने ही दी थी . दरअसल सादतपुर को लेकर रमाकांत जी ने एक सपना देखा था . वह इसे साहित्यकारों की बस्ती के रूप में बसा हुआ देखना चाहते थे . काफी हद तक उनकी चाहत पूरी भी हुई . विष्णु चन्द्र शर्मा के बाद महेश दर्पण , सुरेश सलिल , स्व. डा0 माहेश्वर , लेखक-चित्रकार हरिपाल त्यागी , बाबा नागार्जुन , वीरेन्द्र जैन , बलराम , रामकुमार कृषक , धीरेन्द्र अस्थाना , अरविन्द सिंह , सुरेन्द्र जोशी, अजेय सिंह , हीरालाल नागर , सय्यद शहरोज , रामनारायण स्वामी , रामजी यादव , राधेश्याम तिवारी आदि लोग आए . लेकिन इनमें कुछ लोग निजी कारणों से यहां से चले गए . दिल्ली विश्वविद्यालय के कुछ प्राध्यापकों ने भी यहां प्लाट खरीदे , जिन्हें उन्होंने बेच दिए थे .
रमाकांत जी ने जो सपना देखा उसे उन्होंने अपने जीवन में पूरा होते भी देखा . देश के दूरस्थ स्थानों से ही नहीं विदेशों में रहने वाले साहित्यकारों के लिए यह जगह आकर्षण का केन्द्र बन गई थी और लोग यहां बसे साहित्यकारों से मिलने आते .....हफ्तों ठहरते और उनके सम्मान में यहां गोष्ठियों का आयोजन होता . एक सौहार्दपूर्ण वातावरण था . हालांकि आज स्थिति वह नहीं है . अब यहां केवल साहित्यकार ही नहीं हर पेशे के लोग आकर बस गये हैं . 1995 के बाद आए लोगों में अधिकांश पैसे के पीछे दौड़ने वाले लोग हैं या उद्दण्ड और संस्कारहीन . अर्द्धशिक्षितों की संख्या अधिक है और उसका लाभ कर्मकांडी पंडितों-पुरोहितों को मिल रहा है . हर दूसरी गली में एक हनुमान मंदिर है और सप्ताह के पांच दिन किसी न किसी के घर अखंड-पाठ या भागवत प्रवचन होता रहता है . सुबह पांच बजे से लाउडस्पीकर में इन पंडितों की आवाजें गूंजने लगती हैं , जो संस्कृत के श्लोंकों के अशुद्ध उच्चारण द्वारा लोगों को प्रभावित कर धन और प्रंशसा बटोर रहे होते हैं . यह सिलसिला रात देर थमता है . एक बार महेश दर्पण ने बताया कि यहां के ए ब्लाक में जो हनुमान मंदिर है वहां पुस्तकालय बनना था , लेकिन प्लाट का मालिक पंडितों से प्रभावित था अतः उसने पुस्तकालय के बजाए धरती का वह टुकड़ा मंदिर के लिए दे दिया .
अब यहां साहित्यकार अल्पसंख्यक हो गए हैं और उनकी स्थिति वही है जो धर्मान्ध-कट्टर लोगों के बीच अल्पसंख्यकों की होती है .
रमाकांत जी ने ऐसे सादतपुर का सपना शायद नहीं देखा था !

******
सितम्बर के प्रारंभ में वह अस्वस्थ होकर अस्पताल में थे . मैं मिलने गया . बहुत धीमे बोल रहे थे . बात करते करते उनकी आंखें पनिया आयीं . उसके बाद वह बोले नहीं सके थे .
‘‘आप ठीक हो जाएगें ....... अधिक नहीं सोचते ’’ मैंने ऐसा ही कुछ कहा था . कुछ और साहित्यकार उनसे मिलने - देखने आ गए तो ‘‘फिर आऊंगा ’’ कह उनसे विदा लेकर चला आया था . दूसरे दिन रात ग्यारह बजे कानपुर से फोन मिला कि मेरी मां गंभीर रूप से बीमार हैं . सुबह शताब्दी एक्सप्रेस से मैं कानपुर चला गया . सात सितम्बर को लौटा , लेकिन 6 सितम्बर , 1991 को रमाकांत जी का देहावसान हो हो चुका था .
गत वर्ष ग्यारहवें रमाकांत स्मृति पुरस्कार कार्यक्रम की समाप्ति के बाद कवि-आलोचक राजकुमार सैनी को जब यह ज्ञात हुआ कि मैं सादतपुर में रहता हूं तब वह बोले , ‘‘ भाई चन्देल , आप बहुत भाग्यशाली हैं .’’
‘‘कैसे ?’’
‘‘आप साहित्यकारों के बीच रहते हैं . रमाकांत जी ने कितनी ही बार मुझे सादतपुर में प्लाट खरीदने के लिए कहा , लेकिन मैं ले नहीं पाया ..... अब द्वारका के फ्लैट में लटका रहता हूं , जहां किसी साहित्यकार की छाया भी नहीं दिखती .’’
मैं उनकी पीड़ा समझ सकता था . आज पंडितों-पुरोहितों और संस्कारहीन लोगों के आतंक के नीचे भले ही रमाकांत जी का सपना तड़फड़ा रहा हो और यहां के पत्रकार-साहित्यकार कुछ भी कर पाने में अपने को असमर्थ पा रहे हों , लेकिन यह सुख तो हमें मिला हुआ है ही कि भले ही अब नियमित नहीं लेकिन जब-तब हम एक-दूसरे से मिल लेते हैं . एक-दूसरे की रचनाओं पर विचार-विमर्श भी हो जाया करता है .
रमाकांत जी का शायद यही वास्तविक सपना था .
*****