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शनिवार, 26 सितंबर 2009

यादों की लकीरें


संस्मरण
''मैं दिनकर से बड़ा कवि होता''- भगवतीचरण वर्मा
रूपसिंह चन्देल
वर्ष याद नहीं लेकिन महीना अक्टूबर का था । राज्यसभा का सदस्य बने उन्हें पर्याप्त समय हो चुका था .

बस से मण्डी हाउस उतरकर हम -यानी मैं और सुभाष नीरव पैेदल फीरोजशाह रोड स्थित उनके बंगले की ओर जा रहे थे । मेरे पी-एच. डी. का विषय यदि कथाकार प्रतापनारायण श्रीवास्तव का व्यक्तित्व और कृतित्व न होता तो शायद ही मैं उन जैसे वड़े कथाकार से मिलने का साहस जुटाता .

प्रतापनारायण श्रीवास्तव के जीवन पर इतनी कम सामग्री मुझे मिली कि मेरा कार्य ठहर गया था । कानपुर इस मामले में मेरे लिए छुंछा सिध्द हुआ था . तभी मुझे किसी ने बताया कि भगवती बाबू बचपन में उनके सहपाठी थे. मुझे यह तो ज्ञात था कि जीवन के प्रारंभिक दौर में भगवती चरण वर्मा का कार्य क्षेत्र कानपुर रहा था , लेकिन दोनों बचपन में एक साथ पढ़े थे , सुनकर लगा था कि मेरी समस्या का समाधान मिल गया था दृ अपने बचपन के सहपाठी के विषय में वर्मा जी विस्तार से बताएंगे . उनके बंगले की ओर बढ़ते हुए श्रीवास्तव जप् के विषय में बहुत कुछ जान लेने का उत्साह मेरे अंदर कुलांचे मार रहा था .

जनता पार्टी के दौरान चौधरी चरण सिंह प्रधानमंत्री बने थे । भगवती बाबू ने साप्ताहिक हिन्दुस्तान में उन पर एक लंबा आलेख लिखा था . वह आलेख चर्चा का विषय रहा था और उसके कुछ दिनों बाद ही भगवती बाबू को राज्य सभा में (१९७८ से १९८१ तक ) दाखिला मिल गया था .

भगवती बाबू से मिलने जाने के लिए नीरव ने उन्हें फोन कर रविवार का समय निश्चित कर लिया । मण्डी हाउस से उनका बंगला पांच मिनट पेैदल की दूरी पर था . नौकर ने दरवाजा खोला और हमें ड्राइंगरूम में बैठाकर गायब हो गया . थोड़ी देर बाद सादे कपड़ों में छोटे'कद -काठी के भगवती बाबू ने प्रवेश किया . चेहरे की झुर्रियां उनकी बढ़ी उम्र की घोषणा कर रही थीं . कुछ दिन पहले ही 'सारिका' में उनकी 'खिचड़ी' कहानी प्रकाशित हुई थी . हमारी बातचीत उसीसे प्रारंभ हुई . कहानी को लेकर वह मुग्ध थे , जबकि वह उनकी एक कमजोर कहानी थी. हमारे आने का उद्देश्य जानकर वह गंभीर हो गए और अत्यंत उदासीनतापूर्वक बोले , ''प्रताप बाबू मेरे सहपाठी तो थे - - अब याद नहीं कितने दिन रहे थे - -बहुत पुरानी बात है - - .''

''मुझे बताया गया कि छठवीं से आठवीं तक आप और वह साथ थे .'' मैं बोला .
''बीच में वह किसी दूसरे स्कूल में चले गए थे । लेकिन कुछ दिन हम साथ अवश्य थे . उसके बाद लंबे समय तक हम नहीं मिले . फिर विश्वभंरनाथ शर्मा कौशिक के यहां हमारी मुलाकातें होने लगी थीं . कौशिक जी के घर शाम को कलाकारों - साहित्यकारों का जमघट लगता था - -- ठण्डाई छनती और हंसी-ठट्ठे गूंजते रहते .''

''श्रीवास्तव जी का एक अप्रकाशित संस्मरण है कौशिक जी के यहां उन बैठकों के विषय में .'' मैंने बीच में ही टोका .
कानपुर उन दिनों साहित्य का केन्द्र था। मुझे भगवती बाबू की ये पंक्तियां याद आयीं जो उन्होंने 1966 में प्रकाशित अपनी पुस्तक 'आधुनिक कवि' में प्रस्तावना स्वरूप लिखी थीं -- '' मेरे साहित्यिक जीवन का प्रारंभ कानपुर में हुआ था --- कानपुर उन दिनों हिन्दी का एक प्रमुख साहित्यिक केन्द्र था . स्व. गणेश शंकर विद्यार्थी के 'प्रताप' नामक साप्ताहिक पत्र तथा गणेश (हम लोग गणेश शंकर विद्यार्थी को गणेश जी के नाम से ही जानते थे ) की प्रेरणा के प्रभाव में कानपुर देशभक्ति की ओजपूर्ण कविताओं का भी केन्द्र बन गया था .''

बीच में मेरे टोकने से कुछ देर तक भगवती बाबू चुप रहे थे । फिर बोले ''एल.एल.बी. करके प्रताप नारायण जोधपुर रियाशत के ज्यूडिशियल मजिस्ट्रेट बनकर चले गए थे और मैं जीवन संघर्षों में डूब गया था .''

''क्या आप मानते हैं कि 'विदा' जैसा अपने समय का चर्चित उपन्यास लिखनेवाले श्रीवास्तव जी के लिए वह नौकरी उनके साहित्यिक जीवन के लिए घातक सिध्द हुई थी ?'' ( 1970 तक 'विदा' की 64 हजार प्रतियां बिक चुकी थीं और यह उपन्यास लेखक की 23 वर्ष आयु में 1927 में प्रकाशित हुआ था और मुंशी प्रेमचन्द ने उसकी भूमिका लिखी थी )।

''होना ही था । लेकिन आर्थिक सुरक्षा तो थी . रुतबा तो था - - जब कि मैं आर्थिक संकटों से जूझ रहा था --'' उनके चेहरे पर गंभीरता पसर गयी थी .

''उस संकट ने ही आपको कथा लेखक बना दिया ।''

''निश्चित ही ।''

उन्होंने इस विषय में लिखा है , ''चित्रलेखा उपन्यास मैंने आजीविका के लिए नहीं लिखा , शायद 'तीन वर्ष' उपन्यास भी मैंने आजीविका के लिए नहीं लिखा , लेकिन न जाने कितनी कहानियां मुझे आजीविका के लिए लिखनी पड़ी ।''

मैंने प्रश्न किया , ''आपने कहीं लिखा है कि आपके साहित्यिक जीवन की शरुरूआत कविताआें से हुई थी ?''

'' जी ।''

''अब आप कविता बिल्कुल नहीं लिखते ? '' नीरव का प्रश्न था ।

''कविता की नदी सूख गयी है ।''

बात कविताओं पर केन्द्रित हो गयी थी और तभी उन्होंने सगर्व घोषणा की थी , ''यदि मैंने कविता लिखना छोड़ न दिया होता तो मैं दिनकर से बड़ा कवि होता ।''

सुभाष और मेंने एक-दूसरे की ओर देखा था । भगवती बाबू चुप हो गए थे . विषय परिवर्तन करते हुए मैंने पूछा ,''श्रीवास्तव जी 1948 में जोधपुर से कानपुर लौट आए थे - - - उसके बाद आपकी मुलाकातें हुई ?''

''देखो , जोधपुर जाकर प्रतापनाराण साहित्य की समकालीनता के साथ अपने को जोड़कर नहीं रख सके । अपने साहित्यकार का विकास नहीं कर पाए . सच यह है कि 'विदा' से आगे वह नहीं बढ़ पाये थे . राजा-रानी - - अंग्रेज -- आभिजात्यवर्ग -- - वह इसके इर्द-गिर्द ही घूमते रहे . जबकि साहित्य कहां से कहां पहुंच गया था- - - .'' भगवती बाबू पुन: चुप हो गए थे .

चलते समय मैंने उनसे अनुरोध किया कि यदि वह श्रीवास्तव जी पर संस्मरण लिख दें और वह कहीं प्रकाशित हो जाए तो मेरे लिए बहुत उपयोगी सिध्द होगा ।

''मैं इन दिनों संस्मरण ही लिख रहा हूं । जल्दी ही वे पुस्तकाकार राजकमल प्रकाशन से प्रकाशित होगें .''

हमारी लगभग एक घण्टे की उस स्मरण्ीय मुलाकात के बाद उनकी संस्मरणों की पुस्तक 'अतीत के गर्त से' प्रकाशित हुई थी , जिसमें एक छोटा-सा संस्मरण प्रतापनारायण श्रीवास्तव पर भी था । लेकिन उस पुस्तक में सर्वाधिक चाेंैकानेवाला संस्मरण दिनकर पर था . उन्होंने उसमें भी वही बात दोहराई थी कि यदि उन्होंने कविताएं लिखना न छोड़ा होता तो वह दिनकर से बड़े कवि हुए होते . दूसरी बात दिनकर की नैतिकता से जुड़ी हुई थी , जिसके कारण दिनकर जीवन के अंतिम दिनों में गृहकलह से परेशान रहे थे . बात जो भी थी वह दिनकर का निजी जीवन था . उनके किसके साथ अवैध संबंन्ध थे इसे उनके मरणोपरांत लिखा जाना उचित नहीं था . .

'' चित्रलेखा' , 'टेढ़े मेढ़े रास्ते' , 'सीधी-सच्ची बातें , 'भूले बिसरे चित्र , 'त्रिपथगा' आदि उपन्यास , कहानियां और 'मेरी कविताएं ' और 'आधुनिक कवि' कविता संग्रहों के रचयिता भगवती चरण वर्मा निश्चित ही प्रतिभाशाली रचनाकर थे . उन्होंने स्वयं कहा है - ''मैं कभी यश के पीछे नहीं दौड़ा --- वह स्वयं ही मुझे मिलता गया .'' साहित्य में इसे चमत्कार से कम नहीं मानना होगा . हालंकि उन्होंने यह भी माना कि '' विरोधी उनके भी हैं , लेकिन विरोध भी तो चर्चा ही देता है .'' आज जब साहित्य में गलाकाट राजनीति , अविश्वास और विद्रूपता का माहौल है -- जब एक ही विचारधारा के तीन साहित्यकार तीन वर्षों तक एक साथ नहीं चल पाते तब अलग-अलग विचारधारा के लखनऊ की त्रिमूर्ति -- यशपाल , अम्तालाल नागर और भगवती चरण वर्मा की याद एक सुखद अनुभूति प्रदान करती है .
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बुधवार, 9 सितंबर 2009

यादों की लकीरें

छत का एक दृश्य

और धरती घूम गयी

रूपसिंह चन्देल

२ सितम्बर, २००९. सुबह के साढ़े चार बजे का समय.

मोबाईल के अलार्म की पहली ’ट्रिंग’ के साथ वह मेरे पास खड़ा था. अलार्म की कर्णकटु ध्वनि को उसके आने से पहले ही बंद कर मैं उठ बैठा और पन्द्रह मिनट बाद हम टहलने निकल गये थे. १९९६ से यह नियम अबाध है और ३ अगस्त,२००३ को यहां आने के बाद भी जारी है, बावजूद इसके कि मेरे पहले के आवास - शक्ति नगर - से सटा हुआ बहुत बड़ा रौशनआरा बाग था, जिसे औरगंजेब ने अपनी बहन रौशन आरा के लिए तैयार करवाया था और जिसने औरंगजेब की गंभीर अस्वस्थता में उसके नाबालिग पुत्र को गद्दी पर बैठाकर सत्ता अपने हाथ में ले ली थी. दरअसल वह स्वयं साम्राज्ञी बनना चाहती थी, लेकिन उसका दुर्भाग्य था कि औरंगजेब स्वस्थ हो गया था और रौशन आरा की कुचाल की सजा उसे मिली थी. तो यहां अर्थात लेखकों की बस्ती, सादतपुर, जिसे कवि-गज़लकार रामकुमार कृषक नागार्जुननगर कहते-लिखते हैं, क्योंकि यह बाबा नागार्जुन की कर्मभूमि भी रही है, में आने के बाद रौशन आरा जैसे बाग की तो क्या किसी पार्क की सुविधा न होने पर भी यहां की सड़कें मेरे प्रातः सैर का आधार बनीं.

२३ मार्च, २००८ को मेरे पास आने के कुछ दिनों बाद से ही वह भी मेरे साथ जाने लगा. सुबह की सैर उसकी आदत में यों शामिल हुई कि यदि कभी मैंने आलस्य दिखाया, उसने मुझे जाने के लिए विवश कर दिया. विलंब उसे स्वीकार नहीं---- अर्थात पौने पांच का मतलब पौने पांच --- हमें घर से बाहर हो जाना होता है.

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(माइकी छत पर)
अन्य दिनो की भांति उस दिन भी यानी २ सितम्बर, को हम साढ़े पांच बजे लौट आये और सीधे छत पर चले गये. मौसम खुशनुमा था. आसमान में तैरते बादलों के टुकड़े पूरब से पश्चिम की ओर मंद गति से जा रहे थे. हवा पैरों में मेंहदी लगी युवती की भांति सधे कदमों छत पर से गुजर रही थी. पूरब में बादलों के बीच लाली फैल रही थी.

इतने खुशनुमा मौसम का आनंद लेता वह आंखें बंद कर छत पर लेट गया. उसे लेटा देख मैं नीचे उतर गया. यह सब भी मेरी दैनन्दिन गतिविधि का हिस्सा है. अब मुझे आध घण्टा यौगिक व्यायाम में व्यतीत करना था.

छः बजे मेरे चाय बनाने का समय होता है. अपने और पत्नी के लिए और कभी-कभी बेटी के लिए भी --सुबह की चाय मैं तैयार करता हूं. सवा छः बजे से साढ़े छः बजे के मध्य हमारी चाय तैयार होती है, और उसीके साथ तैयार होता है उसका नाश्ता. साढ़े छः बजे के आसपास नाश्ता करना उसकी कमजोरी है और इस कमजोरी का दोषी मैं हूं, लेकिन जब किसी चीज के लेने का एक समय निश्चित हो जाता है तब उस समय उस चीज का न मिलना कष्टकारी होता है. सुबह जैसे साढ़े छः बजे की चाय मेरी कमजोरी है तो नाश्ता उसकी.

नाश्ते में वह आधा लीटर दूध और ब्राउन ब्रेड के दो पीस लेता है. उसके बाद लंच तक उसे किसी चीज की दरकार नहीं होती. उस दिन भी अपने लिए चाय, उसका नाश्ता, और पानी की बोतल लेकर मैं छत पर गया. वह नाश्ता करता रहा और मैं उसके निकट कुर्सी पर बैठा चाय पीता रहा. सात बजे तक मैं उसके साथ था. सात बजे कंप्यूटर पर मेल चेक करने के लिए नीचे उतरा. लेकिन तत्काल कंप्यूटर पर नहीं बैठा. फर्स्ट फ्लोर के आंगन मे लगे जाल पर (ऎसा ही जाल फर्स्टफ्लोर के ऊपर छत पर है, जिससे सूरज की रोशनी सीधे फर्स्ट और ग्राउण्ड फ्लोर पर जाती है ) खड़ा हो मैं अखबार के पहले पन्ने का समाचार पढ़ने लगा . पत्नी सामने किचन में काम कर रही थी. सामने कमरे में घड़ी सात बजकर दस मिनट दिखा रही थी और तभी मुझे उसकी आवाज सुनाई पड़ी. मैंने ऊपर जाल की ओर देखा--- वह किसी पर भौंक रहा था. अनुमान लगाया कि दाहिनी ओर का पड़ोसी या उनका बेटा अपनी छत पर आये होंगे. वह केवल और केवल उन्हीं पर भौंकता है. यह आश्चर्य की बात है, जबकि मेरे मकान से सटे दो और मकान हैं, लेकिन उन लोगों के आने पर वह उनपर नहीं भौंकता.

’क्या जानवर --- खासकर कुत्ते अपने प्रति दुर्भावना रखने वाले के भावों को भांप लेते हैं ?’ मैंने कई बार इस विषय पर विचार किया है. मेरा अनुभव तो यही कहता है. बहरहाल, मैंने नीचे से उसे डांटा -- "माइकी चुप हो जाओ."

लेकिन यह क्या ! मैंने उसकी मर्मान्तक चीख सुनी और फिर ऊपर जाल पर से उसे नीचे झांकते देखा. हम दोनों -- पति-पत्नी - के मुंह से एक साथ निकला , "माइकी क्या हुआ ?" हम दोनों ने एक-दूसरे से यह भी कहा कि ऎसे तो यह कभी नहीं चीखा, लेकिन उसके साथ कुछ हुआ होगा यह हमारी कल्पना से बाहर था. मैं कंप्यूटर पर जा बैठा और पत्नी आफिस के लिए तैयार होने में व्यस्त हो गयी .

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माइकी के साथ क्या हुआ था यह मुझे अगले दिन सुबह सात बजे के लगभग ज्ञात हुआ, जब मैं उसके गले का पट्टा ठीक कर रहा था. उसके गले में एक इंच गहरा घाव था. घाव देख मुझे धरती घूमती नजर आयी . मैं पीड़ा से छटपटा उठा . हम हत्प्रभ -- किंकर्तव्यविमूढ़ थे. किसीने उसे भैंकने से रोकने के लिए -- सदा के लिए उसकी आवाज छीन लेने के लिए - किसी तेज धारदार चीज से उसके गले पर प्रहार किया था. प्रहार होने के बाद ही वह चीखा था और जाल पर झांककर मुझसे सहायता की अपेक्षा की थी. मुझे तब की उसकी आंखों की पीड़ा और निरीहिता स्मरण हो आये और मैं यह सोच और अधिक पीड़ित महसूस करने लगा कि मैं उसके दर्द और निरीहित को पढ़ पाने में असमर्थ क्यों रहा था.

माइकी का गला छेदकर उसकी आवाज छीन लेने का क्रूर कृत्य करने वाले के प्रति विक्षोभ से अधिक मुझे स्वयं पर ग्लानि हुई थी. उसे डाक्टर के पास ले जाने में तीन घण्टों का समय था और मेरे वे तीन घण्टे कैसे कटे होंगे --- अनुमान लगाया जा सकता है.

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मंगलवार, 1 सितंबर 2009

यादों की लकीरें



सभी के जीवन में कुछ ऎसा होता है - छोटी-बड़ी घटनाएं जिनमें से कुछ अमिट छाप छोड़ जाती हैं----- स्मृति पटल पर सदा के लिए अंकित हो जाती हैं. कभी-कभी वे कुरेदती हैं-- जीवंत हो उठती हैं, अपने उसीरूप में---- तब वह क्षण विशेष आंखों के समक्ष साकार हो उठता है अपनी प्रियता-अप्रियता के साथ. जब से होश संभाला छोटी-बड़ी घटनाओं ने कभी साथ नहीं छोड़ा---- उनके रूप बदलते रहे--- सिलसिला आज भी जारी है. लेकिन उन बड़ी घटनाओं से आपका साक्षात करवाकर आपको विचारशील बनाने का कोई इराद नहीं है. इस श्रृखंला में मैं उन छोटी-छोटी घटनाओं को संग्रहीत करना चाहता हूं, जो स्थूलरूप से महत्वहीन होते हुए भी अपने में गहन अर्थ छुपाये हुए थीं. प्रस्तुत है शृखंला की पहली कड़ी :

व्यवहारिकता

हाल की बात है. ’साहित्य अकादमी’ द्वारा प्रकाशित ’प्रवासी हिन्दी लेखकों’ की कहानियों के संकलन का लोकार्पण कार्यक्रम था. संकलन का सम्पादन वरिष्ठ कथाकार-पत्रकार हिमांशु जोशी ने किया है.

एक दिन पूर्व हिमांशु जी का फोन आया और उन्होंने संकलन के लोकार्पण कार्यक्रम में पहुंचने के लिए आमन्त्रित किया. हिमांशु जी से मेरा परिचय १९७८ में तब हुआ था जब मैं ’स्व. प्रतापनारायण श्रीवास्तव के जीवन और कथा साहित्य पर शोध कर रहा था और उसी संबन्ध में ’साप्ताहिक हिन्दुस्तान’ कार्यालय गया था. उसके बाद मैं उनसे १९८२-८३ में मिला और परिचय प्रगाढ़ से प्रगाढ़तर होता गया. वे मेरे लिए आदरणीय भाई साहब बन गये और मैं उनके लिए ’रूप’ . इस संबोधन से घरवाले मुझे बुलाते थे. बाद में डॉ. शिवप्रसाद सिंह ने यह संबोधन दिया और उसके बाद हिमांशु जी ने. वैसे तो १९९२ के बाद मृत्युपर्यन्त शिवप्रसाद जी जब भी दिल्ली में होते मुझे प्रतिदिन उनसे मिलने जाना होता, लेकिन इनमें से कितनी ही मुलाकातों में हिमांशु जी भी हमारे साथ होते थे. कितनी ही बार हम लोग बंगाली मार्केट के ’नत्थू स्वीट्स’ में बैठे---- लंबी बैठकें होती थीं वे---- अविस्मरणीय----.

हिमांशु जी के बाद मुझे ’रूप’ बुलाने वालों में मेरे समकालीन कथाकार-कवि मित्र अशोक गुप्ता हैं. अमेरिका की हिन्दी कवयित्री-कथाकार सुधा ओम ढींगरा भी प्रायः अपने पत्रों में यह संबोधन देती हैं. दरअसल इसकी इतनी लंबी चर्चा केवल इसलिए कि यह संबोधन मुझे अधिक प्रिय और आत्मीय लगता है.

मैं अपने मूल विषय से भटक गया. यह मेरी कमजोरी है और मेरी इस कमजोरी को मित्र लोग ’किस्सागोई’ शब्द देते हैं.

तो हिमांशु जी का फोन मेरे लिए आदेश था. उस कार्यक्रम में जाना इसलिए भी आवश्यक था क्योंकि लगभग एक वर्ष से हम दोनों ’जल्दी ही मिलेंगे’ के झूठे वायदे करते आ रहे थे, जबकि पांच-छः वर्ष पहले तक हम लगभग हर पन्द्रह दिन में ’कॉफी हाउस’, ’कॉफी होम’, ’नत्थू स्वीट्स’ , ’श्रीराम सेण्टर’ या ’त्रिवेणी’ में मिलते रहे थे . बहरहाल -

कार्यक्रम साहित्य अकादमी सभागार में था. जब मैं पहुंचा कथाकार वीरेन्द्र सक्सेना, हिमांशु जी और महेश दर्पण ही पहुंचे थे. लेकिन पन्द्रह मिनट में काफी संख्या में लोग आ गये और साहित्य अकादमी का कोई कर्मचारी सभागार में बैठे लोगों को बाहर हॉल में जलपान के लिए बुला ले गया.

बाहर हॉल में मेरी उनसे मुलाकात हुई. कुछ वर्षों से हम एक दूसरे को जानते हैं. वह मूलतः कवयित्री हैं, लेकिन कुछ कहानियां भी लिखी हैं उन्होंने. किसी सरकारी दफ्तर में अधिकारी हैं. दुबली-पतली -- उनके पतले चेहरे पर सदैव मुस्कान खिली रहती है. मुझे देख दूर से मुस्कराती हुई वह मेरी ओर लपकीं, लेकिन बीच में किसी साहित्यकार के साथ अटक गयीं. दो मिनट उससे बातें करने के बाद वह मेरे निकट आयीं और "कैसे हैं आप ?" से शुरूआत कर "आजकल क्या कर रहे हैं---- क्या लिख डाला ?" जैसे प्रश्न एक सांस में उन्होंने मेरी ओर उछाल दिए. मैंने उलट प्रश्न किया , "आपने क्या लिखा ?"

"मैं---- कुछ नहीं---- आजकल बहुत व्यस्तता है. दफ्तर----- कुछ दूसरे कार्यक्रम-----. मैं कुछ नहीं कर पा रही---- लेकिन आप तो निरंतर लिखने वालों में हैं---." वह क्षणभर के लिए रुकीं, फिर बोलीं, "क्या कर रहे हैं?"

आत्मीयता से पूछे गये प्रश्नों के उत्तर मैं लंबे देने लगता हूं और वही गलती मैंने उनके साथ भी की. हाल ही में प्रकाशित उपन्यास ’गुलाम बादशाह’ की सूचना देने के बाद लियो तोल्स्तोय पर उनके रिश्तेदारों, मित्रों, कलाकारों, लेखकों आदि के संस्मरणॊं की चर्चा करने लगा, जिनका मैंने अनुवाद कर लिया था या कर रहा था. मैंने बताना शुरू ही किया था कि उनकी आवाज सुनाई दी -- "हेलो, अंकित जी S--S--." और मुझे बोलता छोड़ वह तेजी से अंकित जी की ओर बढ़ गयी थीं, जो अपनी दाढ़ी में मुस्कराते हुए समोसा टूंगते किसी से सिर हिलाकर बातें कर रहे थे. अंकित जी ने अपनी ओर उछले ’हेलो’ की ओर देखा और चमकती आंखों से उनकी ओर हाथ हिलाया.

अंकित जी दूरदर्शन में कार्यक्रम अधिकारी हैं और वह कवयित्री जी को नियमित कार्यक्रमों के लिए बुलाते रहते हैं.

उनकी व्यवहारिकता के प्रति मैं नतमस्तक था, जो मेरे लिए एक अच्छा सबक भी था.
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