Text selection Lock by Hindi Blog Tips

रविवार, 13 जून 2010

यादों की लकीरें



संस्मरण
अपने साहित्यकार को देर से पहचाना डॉ0 रत्नलाल शर्मा ने

रूपसिंह चन्देल


फरवरी की वह सुबह अधिक ठंडी न थी । हांलाकि दिल्ली में फरवरी के अंत तक ठंड अपनी जवानी में रहती है । वह सुबह पूरी तरह शांत और सुखद थी । यह 22 फरवरी, 1997 का दिन था । तय हुआ था कि हम दोनों में जो भी पहले जग जाएगा फोन करेगा । और यह बाजी मैंने जीती थी ।


''हलो'' कुछ देर तक फोन की घंटी बजने के बाद खनखनाती आवाज सुनाई दी, ''मैं तो साढ़े तीन बजे ही जग गया था। आपको फोन करने ही वाला था।''


''कितने बजे निकल रहे हैं ?''


''आप साढ़े पांच तैयार मिले। डॉक्टर कालरा को लेकर मैं निश्चित समय पर पहुंच जाउंगा।''


''आज्ञा का पालन करूंगा।''


तेज ठहाका, फिर सकुचाहट, ''मुझे इतनी जोर से नहीं हंसना चाहिए। पोता जग गया तो सौ प्रश्न करेगा।'' फुसफुसाहट, ''ठीक है डॉक्टर.... तो हम मिलते हैं।''


और डॉक्टर रत्नलाल शर्मा सवा पांच बजे मेरे यहां पहुंच गए। मुझे डॉ0 कालरा के पति ने पांच बजे फोन कर दिया था कि वे लोग पीतमपुरा छोड़ चुके हैं। उतनी सुबह दिल्ली की सड़कें प्राय: खाली रहती हैं। वाहन की गति स्वत: दोगुनी हो जाती है। डॉ0 कालरा के पति का फोन मिलते ही मैंने विष्णु प्रभाकर जी को फोन कर दिया था कि हम लोग पौने छ: बजे तक उनके यहां पहुंच जाएगें। यह एक सुखद संयोग था कि उस दिन हम चारों ... विष्णु प्रभाकर, डॉ0 रत्नलाल शर्मा, डॉ0 शकुतंला कालरा और मैं .... लखनऊ-नई दिल्ली शताब्दी एक्सप्रेस से कानपुर जा रहे थे। अवसर था ''बाल कल्याण संस्थान'' द्वारा आयोजित वार्षिक समारोह जिसके लिए हमें डॉ0 राष्ट्रबंधु ने बहुत ही आदरपूर्वक आमंत्रित किया था ।


डॉ0 कालरा को संस्थान उस वर्ष अन्य बाल-साहित्यकारों के साथ सम्मानित कर रहा था, जबकि हम तीनों को अलग-अलग सत्रों के अध्यक्ष-विशिष्ट अतिथि के रूप में आमंत्रित किया गया था। मेरे लिए यह सम्माननीय बात थी, क्योंकि जिस आयोजन के एक सत्र की अध्यक्षता विष्णुप्रभाकर जैसे वरिष्ठतम साहित्यकार कर रहे थे और दूसरे की मेरे अग्रजतुल्य मित्र डॉ0 रत्नलाल शर्मा, वहां 'विचार सत्र' के विशिष्ट अतिथि के रूप में मुझे बुलाकर डॉ0 राष्ट्रबंधु ने अपने बड़प्पन का परिचय देते हए मुझे जो सम्मान दिया मैं शायद उसके सर्वथा योग्य नहीं था, क्योंकि हिन्दी में अनेक ऐसे विद्वान साहित्यकार हैं जिनके सामने मेरी बाल-साहित्य की रचनात्मकता पासंग है। खैर, डॉ0 राष्ट्रबंधु ने विष्णु जी को ले आने के लिए मुझे तो कहा ही था डॉ0 शर्मा को भी कह दिया था। डॉ0 शर्मा अति-उत्साही व्यक्ति थे और नौकरी से अवकाश ग्रहण करने के पश्चात वह बाल-साहित्य को लेकर कुछ अतिरिक्त ही उत्साह में रहने लगे थे। उनका यह उत्साह श्रीमती रतन शर्मा,उनकी पत्नी, की मृत्यु के पश्चात कई गुना बढ़ गया था और उसी का परिणाम था कि उन्होंने बाल-साहित्य के लिए कुछ करने के ध्येय से पत्नी के नाम एक ट्रस्ट बनाया और प्रति वर्ष एक पुरस्कार देने लगे। उनके मस्तिष्क में बाल-साहित्य के महत्व और विकास को लेकर अनेक योजनाएं रहतीं और वह कुछ न कुछ करते भी रहते। हालांकि उन्होंने जो ट्रस्ट बनाया था उसमें ऐसे लोगों को रखा जो बाल-साहित्य का 'क' 'ख' 'ग' भी नहीं जानते थे और इस विषय में मेरी अनेक बार उनसे चर्चा भी हुई, लेकिन उन गैर बाल-साहित्यकारों को लेकर उनके पास तर्क थे और उन तर्कों में दम भी था। एक दमदार तर्क तो यही था कि यदि एक भी बाल-साहित्यकार उन्होंने ट्रस्ट में रखा तो 'न्यास' साहित्यिक राजनीति से अछूता न रहेगा। किसी हद तक उनकी बात सही थी।


'श्रीमती रतन शर्मा स्मृति न्यास' की स्थापना के पश्चात वह बाल-साहित्य के देशव्यापी आयोजनों में शिरकत करने लगे थे और जब भी मिलते उन आयोजनों के संस्मरण मुग्धभाव से सुनाते। आयोजानों में सम्मिलित होते रहने से डॉ0 शर्मा और डॉ0 राष्ट्रबंधु प्राय: एक दूसरे से मिलते रहते और उसी आधार पर डॉ0 शर्मा ने उन्हें आश्वस्त कर दिया कि वह सभी को लेकर कानपुर पहुंचेगें। आनन-फानन में उन्होंने विष्णु जी और डॉ0 कालरा के आरक्षण करवा डाले। मेरा जाना किन्हीं कारणों से टल रहा था, लेकिन एक दिन दिल्ली विश्वविद्यालय पुस्तकालय की छत पर चाय की चुस्कियों के साथ आदेशात्मक स्वर में वह बोले, ''डॉक्टर, कोई बहाना नहीं मानूंगा। शनिवार - रविवार को कार्यक्रम है .... आपको चलना है।''


और मुझे आरक्षण करवाना पड़ा था। इसी कारण हम अलग-अलग कोचों में थे। फिर भी बीच-बीच में मैं तीनों के पास आ खड़ा होता। डॉ0 कालरा विष्णु जी के साथ की सीट में थीं और उस अवसर का लाभ उठाने के विचार से वह लगातार विष्णु जी से साक्षात्कारात्मक बातचीत में संलग्न थीं। ऐसे समय मैं और डॉ0 शर्मा बाथरूम के पास खड़े होकर बाल-साहित्य पर चर्चा करते रहे थे।


सिगरेट फूंकते बात करना डॉ0 शर्मा की आदत थी। जब भी कभी गंभीर चर्चा छिड़ती वह सिगरेट सुलगा लेते। लेकिन अनुशासन-प्रियता इतनी अधिक थी उनमें कि किसी भी सार्वजनिक स्थान में सिगरेट नहीं पीते थे। उनसे जब मेरा परिचय हुआ तब वह जीवन-विहार में 'समाज कल्याण विभाग' में कार्यरत थे और वहीं से उप-निदेशक के रूप में अवकाश ग्रहण किया था। अक्टूबर 1980 में मैं गाजियाबाद से शक्तिनगर में आ बसा था। उन दिनों केन्द्रीय सचिवालय के लिए शक्तिनगर से 240 नं0 रूट की बसें प्रत्येक दस मिनट में चलती थीं। मेरा कार्यालय उन दिनों रामकृष्णपुरम में था। मैं 240 से केन्द्रीय सचिवालय पहुंचकर वहां से रामकृष्णपुरम की बस लेता। डॉ0 शर्मा शक्तिनगर के पश्चिमी छोर में और मैं पूर्वी छोर में रहता था। वह भी उसी बस से जाते और पटेल चौक उतरते। कई वर्षों हमारा यह सिलसिला चला था। बाद में वह दूसरी बस से जाने लगे थे।


उन दिनों शनिवार को कॉफी हाउस (कनॉट प्लेस) में साहित्यकारों का जमघट होता था। नियम से जाने वालों में विष्णु प्रभाकर, रमाकांत, डॉ0 रत्नलाल शर्मा, डॉ0 हरदयाल, डॉ0 राजकुमार सैनी आदि थे। मैं भी कभी-कभार पहुंच जाता। तब कॉफी हाउस का माहौल खराब नहीं था। परनिन्दा तब भी होती, लेकिन साहित्य पर चर्चा भी होती और उसी माध्यम से एक दूसरे की खिंचाई भी होती। विष्णु जी निन्दा-प्रशंसा से विमुख मंद-मंद मुस्कराते हर स्थिति का आनंद लेते रहते। यदि वे बहस में शामिल भी होते तो बोलते धीमे ही थे, लेकिन शर्मा बहस को प्राय: उत्तेजक बना देते और जब उनके मित्र उन पर हावी होने लगते, वह अनियंन्त्रित हो जाते। लेकिन इसका आभिप्राय यह नहीं कि नौबत हाथापाई तक पहुंचती थी । डॉ0 शर्मा की यह खूबी थी कि उत्तेजित वह कितना ही क्यों न होते हों लेकिन किसी के विरुध्द अपशब्द का प्रयोग करते मैंने उन्हें कभी नहीं सुना। जब कि उनके अति अंतरंग मित्रों को कई बार उनके खिलाफ अपशब्द प्रयोग करते (पीठ पीछे) मैंने सुना था । डॉ0 शर्मा आपा तो खोते, क्योंकि वह अपनी बात पर अडिग रहते और प्राय: सही वही होते । लेकिन वह यह समझ नहीं पाते कि उनके मित्र उन्हें उत्तेजित करने के लिए ही ऐसा विनोद कर रहे थे। बाद में माहौल शांत होता और सभी फिर मीठी बातों में खो जात।


बहुत बाद में (वर्ष याद नहीं...संभवत: 1990 के आसपास) किसी शनिवार को शायद किसी मित्र ने उनके विरुध्द कोई ऐसी टिप्पणी कर दी, जिससे उन्हें गहरा आघात लगा था। उन्होंने कभी-भी कॉफी हाउस न जाने का संकल्प किया और मृत्यु पर्यन्त उसका निर्वाह किया।


अवकाश ग्रहण कने के बाद वह प्रतिदिन दिल्ली विश्वविद्यालय के केन्द्रीय पुस्तकालय के 'रिसर्च फ्लोर' के एक कमरे में बैठने लगे थे। निश्चित कमरा और निश्चित सीट थी उनकी। वहां वह पहले भी (जब नौकरी में थे ) शनिवार - रविवार को जाते थे, लेकिन अवकाश ग्रहण के बाद वह वहां तभी अनुपस्थित रहे जब या तो अस्वस्थ रहे या शहर से बाहर या किसी अन्य आवश्यक कार्य में व्यस्त।


'रिसर्च फ्लोर' उनके कारण आबाद रहने लगा था। वहां के प्रत्येक शोधार्थी के वह आदरणीय -प्रिय थे और उम्र की सीमाओं को ताक पर रखकर कॉलेज से निकले युवा से लेकर हम उम्र लोगों से वह स्वयं 'हैलो' करके 'विश' करते और चाय के लिए आमंत्रित करते। मुझ जैसे व्यक्ति, जो स्वयं व्यवहार में उदारता का समर्थक है, को भी वह सब अटपटा लगता कि उम्रदराज डॉ0 शर्मा अपने से चालीस-बयालीस वर्ष छोटे बालक-बालिका से न केवल स्वयं विश कर रहे हैं बल्कि साग्रह चाय के लिए बुला रहे हैं। हालांकि मैं स्वयं इसी आदत का शिकार हूं और गवंई -गांव का होने के कारण आयु की सीमारेखा खींचकर चलना आता नहीं। एक - दो बार मैंने डॉ0 शर्मा को इस विषय में उनकी उम्र का वास्ता देते हुए टोका भी। उनका छोटा-सा उत्तर होता, ''आप नहीं समझेंगे डॉक्टर।''


वास्तव में मैं नहीं समझ सका। वह भी अपने स्वभाव को बदल नहीं सके। एक विशेषता और भी देखी उनमें। वह हर जरूरतमंद की मदद के लिए तत्पर रहते थे। बेहतर सलाह देने का प्रयत्न करते। अनेक उदाहरण हैं जब वह किसी न किसी शोधार्थी के काम से दौड़ रहे होते थे। कई शोधार्थियों को उनसे अपने शोध से संबन्धित चर्चा करते या अपना शोध कार्य दिखाते मैंने देखा। वास्तविकता यह होती कि छात्र-छात्रा उनके किसी मित्र प्राध्यापक के अधीन शोधरत होता और डॉ0 शर्मा मित्रता का निर्वाह करते उसका कार्य देखते/गाइड करते।


प्राय: विश्वविद्यालय पुस्तकालय में बाहरी व्यक्ति को एक निश्चित अवधि तक ही बैठने की अनुमति होती है, लेकिन हिन्दी विभाग से लेकर पुस्तकालय तक डॉ0 शर्मा के अनेक मित्र (कुछ उनके सहपाठी थे) थे। डॉ0 शर्मा ने भी कभी स्वप्न देखा था कि वह प्राध्यापक बनेंगे। पी-एच.डी. भी इसी कारण उन्होंने की थी, लेकिन जैसा कि होता है प्राध्यापक बनने के लिए जो गुण व्यक्ति में होने चाहिए वे डॉ0 शर्मा में नहीं थे। डॉ0 शर्मा प्राध्यापक नहीं बन पाए, लेकिन वह उस टीस को शायद कभी भूल भी नहीं पाए। अंदर छुपा वह स्वप्न ही रहा होगा कि कभी उनके अधीन भी शोधार्थी हुआ करेंगे। शायद शोधार्थियों की सहायता कर वह उस स्वप्न को ही पूरा कर रहे थे।


एक अच्छे इंसान होते हुए भी डॉ0 शर्मा में दो कमजारियां भी थीं। जब तब उनका लेखकीय स्वाभिमान जागृत हो जाता और वह सभा-गोष्ठियों का बहिष्कार कर दिया करते। डॉ0 विनय, डॉ0 महीप सिंह, डॉ0 रामदरस मिश्र, डॉ0 नरेन्द्र मोहन और डॉ0 हरदयाल उनके गहरे मित्रों में से थे। डॉ0 शर्मा प्राय: डॉ0 विनय के घर जाते। एक बार डॉ0 विनय ने अपने घर स्व0 डॉ0 सुखबीर के कविता संग्रह पर अपनी संस्था 'दीर्घा' (दीर्घा नाम की पत्रिका भी वह निकालते थे) की ओर से विचार गोष्ठी का आयोजन किया। अध्यक्ष थे डॉ0 रामदरस मिश्र। डॉ0 शर्मा ने आलेख लिखा था। आलेख पढ़ते समय डॉ0 शर्मा को टोका-टाकी बर्दाश्त न थी । उस दिन भी कुछ ऐसा ही हुआ। उन्होंने सभी को घूरकर देखा और अपना शाश्वत तकियाकलाम, '' इट्स एनफ'' कह वह उठ गए। सभी भौंचक। आलेख तो शुरू ही हुआ था। डॉ0 विनय ने टोका, ''क्या हुआ पंडित ?''


''मैं जा रहा हूं ।''


गर्मी के दिन थे। गोष्ठी छत पर हो रही थी। डॉ0 विनय ने रोका ... मिन्नते कीं। डॉ0 रामदरस मिश्र ने समझाने का प्रयास किया, लेकिन पंडित जी का मूड उखड़ा तो फिर जमा नहीं। वह जूते पहन सीढ़ियां उतर गए थे।


डनके व्यक्तित्व का दूसरा कमजोर पक्ष था उनकी कार्य-शैली। एक अच्छे समीक्षक -आलोचक की प्रतिभा थी उनमें, लेकिन वह उसका सही उपयोग नहीं कर सके। स्नेहिल होते हुए भी स्वभाव की अक्खड़ता ने उन्हें रचनाकारों से दूर रखा तो कर्यशैली भी बाधक बनी। कुछ भी व्यवस्थित नहीं कर पाते थे। समय का खयाल नहीं रखते थे। आवश्यक और महत्वपूर्ण को छोड़ अनावश्यक कामों-बातों और लोगों में उलझे रहे। एक बार उन्होंने बताया था कि उन्होंने लगभग एक हजार पुस्तकों की समीक्षाएं लिखी थीं।


उनकी कार्यशैली से संबन्धित स्वानुभूत एक उदाहरण देना चाहता हूं। किताबघर, नई दिल्ली से मेरे द्वारा सम्पादित लघुकथा संकलन प्रकाश्य था। यह कार्य मैंने 1985 में पूरा कर लिया था, लेकिन उस वर्ष उसका प्रकाशन नहीं हो पाया। उन्हीं दिनों डॉ0 शर्मा से इस विषय में चर्चा हुई । उन्होंने पूछा, '' उसकी भूमिका आपने लिखी है ?'' ''जी ।'' ''अरे डॉक्टर, आपने पहले क्यों नहीं बताया.... आजकल मैं लघुकथाओं पर विशेष कार्य कर रहा हूं। उसकी बहुत अच्छी भूमिका लिखता।''


'' अभी क्या बिगड़ गया है । आप लिख दें । आपकी भी प्रकाशित हो जाएगी ।''


''आप सत्यव्रत शर्मा (प्रकाशक) को कह दीजिए .... मेरी भूमिका मिलने के बाद ही वह पुस्तक को प्रेस में देंगे।''


मैंने श्री सत्यव्रत शर्मा को यह कह दिया । फिर प्रारंभ हुआ उनकी भूमिका का इंतजार। पाण्डुलिपि की एक प्रति प्रकाशक के पास और दूसरी डॉ0 रत्नलाल शर्मा के पास और शर्मा जी के वायदे दर वायदे होने लगे। ....बस इसी सप्ताह .....पन्द्रह दिन बाद....। इसी बीच उन्होंने शक्तिनगर से प्रशांत विहार शिफ्ट कर लिया। प्रकाशक को भी शर्मा जी की भूमिका न मिलने का बहाना मिल गया। 'प्रकारांतर' (लघुकथा संकलन) का प्रकाशन स्थगित होता रहा। अंतत: बहुत जोर देने पर डॉ0 शर्मा बोले, ''शिफ्ट करते समय पांडुलिपि बांधकर कहीं रख दी गई। मिल नहीं रही । रविवार को घर आ जाओ.....मिलकर खोजते हैं। मैं गया। बराम्दे में बने दोछत्ती में बोरियों में बंद पुस्तकों के साथ पांडुलिपि को हमलोगों ने खोज लिया। उसके पन्द्रह दिनों के अंदर उन्होंने छोटी-सी भूमिका लिख दी थी। उसे लिखने में उन्होंने तीन वर्षों का समय लिया था। पुस्तक 1990 में प्रकाशित हुई थी।


रत्नलाल शर्मा के साथ एक और कमजारी थी ... वह एक विधा से दूसरी की ओर दौड़ते रहे थे। कहानी, ललित निबंध, व्यंग्य, रेखाचित्र, समीक्षा, बाल-साहित्य..... आभिप्राय यह कि यदि वह अपने को एक-दो विधाओं में साध लेते तो शायद स्थिति खराब न होती। लेखक को स्वयं अपने को पहचानना होता है .... वह क्या लिख सकता है। जीवन भर इधर-उधर भागने के बाद अवकाश ग्रहण करने के पश्चात शायद उन्हें वास्तविकता का ज्ञान हुआ और उन्होंने अपने को 'बाल साहित्य' में केन्द्रित करना प्रारंभ किया। यदि वह कुछ वर्ष और जीवित रह जाते तो तन-मन-धन से बाल साहितय के लिए समर्पित हो जाने वाले व्यक्ति के रूप में अपनी अलग पहचान बना लेते।


24 फरवरी, 1997 को जब हम लोग कानपुर से शताब्दी एक्सप्रेस से लौट रहे थे तब मुझे डॉ0 शर्मा के बालमन का परिचय भी मिला । और लगा कि उन्होंने व्यर्थ ही विभिन्न विधाओं में अपना श्रम जाया किया, उन्हें बाल साहित्यकार ही होना चाहिए था। मन को संतोष हुआ कि विलंब से ही सही उन्होंने आखिर अपने साहित्यकार को पहचान लिया है ..... बाल-साहित्य के लिए यह शुभ होगा । लेकिन प्रकृति को यह स्वीकार न था। उनकी असमय मृत्यु ने एक स्नेहिल व्यक्ति हमसे छीन लिया।


मैं प्राय: हफ्ते-दो हफ्ते में डॉ0 शर्मा से मिलने विश्वविद्यालय पुस्तकालय जाता था, लेकिन उनकी मृत्यु के पश्चात लंबे समय तक नहीं गया । बहुत बाद में अपने मित्र प्रखर दलित आलोचक और 'अपेक्षा' त्रैमासिक पत्रिका के सम्पादक डॉ0 तेज सिंह से मिलने वहां जाने लगा , जो विश्वविद्यालय में हिन्दी विभाग में रीडर हैं। डॉ0 तेज सिंह से डॉ0 शर्मा ने ही परिचय करवाया था। वहां की सीढ़ियां चढ़ते हुए डॉ0 शर्मा की याद आती। मन करता कि उस कमरे में झांकर देखूं जहां वह बैठते थे। शायद वह बैठे काम कर रहे हों और मुझे देखते ही बोलें, '' हैलो डॉक्टर'' ,लेकिन यह सच नहीं था । सच डॉ0 शर्मा के साथ जा चुका था ।


*****



रविवार, 6 जून 2010

यादों की लकीरें



संस्मरण

सपनों में पिता

रूपसिंह चन्देल

पिछले दिनों पिता एक बार फिर आए । इस बार वह वर्षों बाद ......शायद छ:-सात वर्ष बाद । हर बार की भांति वह मेरे साथ बैठे , बातें की, कुछ समझाया , साथ लेकर कहीं गए .... एक अपरिचित स्थान , जिसे मैंने पहले कभी नहीं देखा था । एक समय था जब वह महीना-दो महीना में आते , कुछ देर ही ठहरते , कुछ कहते.... जो मुझे कभी याद नहीं रहता था । वह जब भी आते उनकी वेश-भूषा निपट गंवई होती....अर्थात् मोटे सूत की कानपुर के किसी मिल की बनी लुंगी और बण्डी । कलकत्ता से रेलवे की नौकरी से सेवानिवृत्त होने के पश्चात् उन्होंने बेहद साधारण कपड़े अपना लिए थे.......किसानों वाले । लुंगी, पुरुषों की धोती का आधा, सफेद-बदरंग होती । लेकिन इस बार वह गांव की अपनी प्रिय वेशभूषा में नहीं , कलकत्ता की प्रिय वेशभूषा....मंहगी सफेद बुर्राक धोती और सफेद लक-दक कुर्ता में थे । हाथ में भद्र बंगालियों की पहचान वाला छाता , पैरों में अच्छी चप्पलें और चेहरे पर खिली मुस्कान ।


पहले वह जब आते जाने से पहले भोजन की मांग करते ... अपनी पसंद लौकी या तोराई की सब्जी और चपाती । मैं जब भोजन की व्यवस्था में व्यस्त होता , वह कब खिसक जाते पता नहीं चलता । उनकी यही बात मुझे बाद में याद रहती .... शेष सब भूल जाता । घर वाले दुखी होते कि पिता उनके सपनों में क्यों नहीं आते !


पिता जी की मृत्यु (20 सितम्बर,1970) के इक्कीस वर्ष पांच दिन (25 सितम्बर,1991) बाद मां की मृत्यु हुई और उन्हें अफसोस था कि इस पूरी अवधि में वह दो बार ही उनके सपनों में आए थे । और किसी के सपने में वह शायद ही कभी आए । मेरे सपनों में आने के लिए सभी के पास अपने तर्क थे । कुछ के अनुसार उनकी बीमारी में सबसे अधिक सेवा मैंने की थी , और उनकी मृत्यु के समय मैं उनके निकट नहीं था । शायद अंतिम क्षण उनकी आंखें मुझे खोजती रही होगीं ....इसलिए और भोजन मांगने के लिए उन लोगों के तर्क रहे कि जब मैं उनकी मृत्यु से एक दिन पहले इण्टरमीडिएट का प्राइवेट फार्म भरने कानपुर जा रहा था तब उन्होंने अपने लिए लौकी मंगा देने की मांग की थी, जिसे अनुसुना कर मैं चला गया था ..... ।


पिता जी के उन स्वप्नों से मुक्ति के लिए लोग सुझाव देते कि मैं सुबह किसी भिखारी को भोजन करवाऊं या किसी ब्राम्हण को अन्न दान दूं या मंदिर में कुछ दे आऊं । भिखारी को कुछ देना समझ आता, लेकिन मुझ जैसा नास्तिक शेष सलाहों पर मुस्करा देता । अपने हितैषियों के विश्लेषण से अलग मेरा विश्लेषण था और वह चार-छ: बार के अनुभव के बाद तय हुआ था ।


पिता जी जब भी सपने में आते..... कुछ दिनों के अंदर मैं किसी न किसी परेशानी का सामना कर रहा होता । वह परेशानी शारीरिक होती , आर्थिक या किसी भी प्रकार की..... और कुछ अवसरों के बाद मैं इस निष्कर्ष पर पहले ही पहुंच लेता कि जिस किसी महत्वपूर्ण कार्य के लिए मैं प्रयत्नशील था उसमें असफलता मिलने वाली थी या स्वयं अथवा परिवार का कोई व्यक्ति बीमार होने वाला था । अंतत: होता भी यही । मेरा निष्कर्ष था कि सपने में पिता का आना इस बात का पूर्वाभास देना था कि कोई न कोई संकट आसन्न है ।


जिन्दगीभर संघर्षरत रहने वाले पिता शायद मृत्योपरांत भी संघर्षों में मेरे साथ थे । सपनों में आकर शायद वह मुझे आगाह करते थे । लेकिन यह भी सही है कि समस्या या संकट कितना ही गहन क्यों न रहा हो मैं हर बार उससे उबरता रहा हूं । तो क्या वह आगाह कर मेरी रक्षा करते रहे । स्वप्न विश्लेषक होता तो यह जानने का प्रयत्न करता । एक समय आया कि उनके स्वप्न में आने के बाद सुबह ही मैं यह घोषणा कर देता कि कोई संकट संभावित है ।


लेकिन इस बार.... इतने वर्षों बाद, बिल्कुल अलग वेश-भूषा ... लकदक कपड़ों में पिता का आना मुझे अच्छा लगा । सपना मैं भूल गया ... याद रहा केवल उनका वह परिधान जिसमें कलकत्ता में या छुट्टियों में गांव आने में उन्हें देखता था । सुबह मन आशंकित हुआ कि क्या घटित होने वाला है .... उनका आना किस बात की ओर संकेत है ! सोचता रहा और सोचता रहा पिता के बीहड़ जीवन के बारे में जो उनसे , चाचा (काका) और मां से जाना था ।


******

पिता का प्रारंभिक और अंतिम जीवन अत्यंत संघर्षमय रहा ।


मेरे पितामह कानपुर के रावतपुर (मसवानपुर) के रहनेवाले थे, जो जी0टी0 रोड पर अवस्थित है और अब शहर के मध्य में है । पितामह नवाबगंज थाने में सिपाही थे । वे लंबे और हृष्ट-पुष्ट शरीर के धनी..... शायद छ: फुट से अधिक लंबे और उनके पैर इतने बड़े कि मोची विशेष आदेश पर उनके लिए जूते तैयार करता था । इतने लंबे डील-डौल वाले पिता की संतान मेरे पिता कुल पांच फुट तीन इंच लंबे थे, लेकिन बलिष्ठ थे । शायद मेरी दादी छोटे कद की थीं । दादी की मृत्यु पिता जी के जन्म के ढाई वर्ष बाद हो गयी थी । दादा जी ने दूसरी शादी की । सौतेली दादी कद-काठी में ठीक-ठाक थीं । उनसे जन्में मेरे चाचा की लंबाई भी दादा जैसी थी ।


दादा ने नवाबगंज थाने के पास अपना बड़ा-सा मकान बनवा लिया था । यह उन दिनों की बात रही होगी जब कानपुर का विस्तार हो रहा था । एक समय कानपुर की बसावट नवाबगंज के आस-पास थी , जिसे आज भी पुराना कानपुर कहा जाता हैं । 1857 की क्रांति के बाद जो नया कानपुर बसा वह परेड के इर्द-गिर्द था। आज जहां आर्डनैंस इक्विपमेण्ट फैक्ट्री है , वहां 1857 में अंग्रेजों का किला था ....कच्ची-पक्की ईटों से निर्मित । इससे कुछ दूर ही है परेड..... जो उन दिनों सैनिकों का परेड ग्राउण्ड हुआ करता था । 1857 की कानपुर का निर्णायक युध्द इसी परेड ग्राउण्ड और किले मध्य हुआ था।


नवाबगंज कब बसा ज्ञात नहीं , लेकिन कानपुर का इतिहास 1338 के आसपास से मिलता है । इसे इलाहाबाद के तत्कालीन चन्देल वंशीय राजा कान्हदेव ने बसवाया था । अपने लाव-लश्कर के साथ कन्नोज जाते हुए वह गंगा के किनारे जिस स्थान पर ठहरे थे वह आज के नवाबगंज के पास था । तब वहां निपट जंगल था , लेकिन कान्हदेव को वहां की रमणीकता भा गयी थी । उन्होंने संचेडी (आज कानपुर के पास एक कस्बा) के तत्कालीन राजा को उस स्थान पर एक गांव बसाने के लिए कहा था । जो गांव बसा वह कान्हदेव के नाम पर कान्हपुर कहलाया , जिसका स्वामित्व एक ब्राम्हण को प्राप्त था । उस गांव के स्वामित्व के लिए उसी ब्राम्हण परिवार का मुकदमा मोतीलाल नेहरू और कैलाशनाथ काटजू द्वारा इलाहाबाद हाईकोर्ट में लड़ा गया था ('कानपुर का इतिहास' - ले0. नारायण प्रसाद अरोड़ा )। कालान्तर में वही कान्हपुर आज का कानपुर बना ।


नवाबगंज में मकान बनाने के बाद दादा का कितना रिश्ता अपने गांव रावतपुर से रहा था यह जानकारी नहीं । नवाबगंज से रावतपुर की दूरी कुछ ही किलोमीटर है ।


पिता जब तेरह वर्ष के थे दादा की मृत्यु हो गयी थी । सौतेली दादी मेरे चाचा को लेकर अपने मायके चली गयीं और पिता अपनी एक मात्र बहन के यहां चले गये , जो उनसे कई वर्ष बड़ी और पनकी के पास एक छोटे-से गांव देसामऊ में ब्याही थीं । पिता पढ़-लिख नहीं पाए लेकिन उनकी अपनी स्वतंत्र सोच थी । कुछ दिन बहनोई के साथ उनके खेतों में काम कया, लेकिन बात नहीं बनी । उन दिनों इंच-इंच जमीन की मारा-मारी नहीं थी । गांव के इर्द-गिर्द जंगल फैला हुआ था । बहन से पैसे लेकर पिता जी ने एक जोड़ी भेैसे खरीदे और लगभग दस बीघा जमीन खेती योग्य तैयार की । दो वर्ष खेती की, लेकिन काम-काज में बहनोई का दखल बर्दाश्त नहीं हुआ । हल , भैसे बहन के दरवाजे छोड़ आगरा भाग गए । उन दिनों प्रथम विश्वयुध्द चल रहा था । सेना में भर्ती हो रही थी । तब पिता जी की आयु मात्र सोलह वर्ष थी ।


पिता भर्ती के लिए गए और उनका चयन नहीं हुआ । कारण थी उनकी आयु । अठारह वर्ष से कम के युवक को भर्ती नहीं किया जा रहा था । चयन बोर्ड में अंग्र्रेज अफसरों के अलावा एक कुशवाहा साहब भी थे । पिता जी निराश भर्ती कार्यालय के बाहर घूम रहे थे । बाहर निकलने पर कुशवाहा जी ने उन्हें देखा और उन्हें पास बुलाया । पूरी जानकारी के बाद बोले , ''मेरे साथ आओ ।''


पिता उनके पीछे हो लिए । कुछ देर चलने के बाद वह एक लंबे-चौड़े मकान में पहुंचे । वह कुशवाहा साहब का अपना घर था । पिता जी को भोजन करवाने के बाद कुशवाहा साहब बोले , ''घर के पड़ोस में मेरा एक हाता हेै । अभी दिखा दूंगा । छ: भैंसे हैं । छ: महीने तक तुम उस हाते में रहोगे ..... केवल दिसा -मैदान के लिए बाहर जाओगे । एक भैंस तुम्हारे नाम ..... उसका दूध केवल तुम इस्तेमाल करोगे .... दण्ड-बैठक....व्यायाम ...कुश्ती .....केवल अपने शरीर पर ध्यान दोगे....दूसरा कोई काम नहीं । भेैेंसों की देखभाल के लिए आदमी है । तुम्हारे खान-पान की चिन्ता मेरी । छ: महीने बाद फिर भर्ती का प्रयास करना.....तब तुम्हें निराश नहीं होना पड़ेगा ।''


कुशवाहा साहब ने घी, काजू , पिश्ता , बादाम....अर्थात् सभी प्रकार की पौष्टिक चीजें पिता जी के लिए उपलब्ध करवाई थीं।


मुझे सुनकर आश्चर्य हुआ था कि क्या ऐसे लोग भी थे जो एक अपरिचित युवक के लिए इतना करते थे । सौ वर्षों में हम कहां से कहां पहुंच गए !


पिता जी ने कुशवाहा साहब की आज्ञा का पालन किया । छ: महीने में ही उनका शरीर खिल उठा था । दूसरी बार भी चयन बोर्ड में कुशवाहा साहब थे । उन्होंने पहले ही बता दिया था कि पिता जी अपनी उम्र उन्नीस वर्ष बताएगें । कुछ अन्य बातें भी उन्होंने बतायी थीं। इस बार पिता जी सेलेक्ट हुए और कुछ दिनों के प्रशिक्षण के बाद इटली भेज दिए गए ।


वहां से विश्वयुध्द समाप्ति के बाद वह लौटे थे ।


भारत लौटते ही सेना की नौकरी छोड़ पुन: खेती की ओर रुख किया था । फिर भैसे खरीदे और (उन्हें इस बात की आशंका थी कि बैलों की खेती उनके लिए फलीभूत नहीं होगी) खेती में लग गए । लेकिन कुछ दिनों बाद ही बहनोई की दखलंदाजी से परेशान होकर मुम्बई भाग गए । वहां किसी मारवाड़ी के यहां काम किया । स्पष्ट है कि कोई छोटा काम ही रहा होगा..... घरेलू नौकर जैसा । एक दिन उस मारवाड़ी के घर के आंगन में नाली के पास उन्होंने लगभग एक सेर सोना पड़ा देखा । उन्होंने उसे उठाकर मारवाड़ी को दे दिया । उनकी ईमानदारी से मारवाड़ी ने उन्हें बख्शीश देना चाहा, लेकिन उन्होंने उसे लेने से इंकार कर दिया और नौकरी छोड़ दी। उन्हें मारवाड़ी के पेशे पर संदेह हो गया था ।


पुन: एक बार कानपुर वापसी । फिर गांव.....फिर चख-चख और पुन: प्रस्थान ।

******

इस बार पिता जी जा पहुंचे कलकत्ता । आज जिस प्रकार बिहार-उत्तर प्रदेश के लोग दिल्ली दौड़ रहे हैं ... उन दिनों कलकत्ता उनका शरणस्थल था । कई दिनों तक इधर-उधर भटकने के बाद जीने का जुगाड़ सोचा । भद्र बंगाली समाज सुबह नीम की दातून आज भी पसंद करता है .... उन दिनों पसंद करने वालों की संख्या बहुत अधिक थी । उन दिनों जीविका का यह एक अच्छा साधन था और आज की भांति नीम के पेड़ों का संरक्षण भी न था । पिता ने लंबे समय तक सड़क किनारे सुबह-सुबह दातून बेचकर जीविका चलायी । कुछ समय बाद किसी परिचित के माध्यम से पश्चिम बंगाल पुलिस में भर्ती हो गए । दो वर्ष नौकरी की । एक बार वह और उनका साथी सिपाही एक चोर को ट्रेन से आसनसोल ले जा रहे थे । चोर को हथकड़ी लगी हुई थी और एक ने उसकी जंजीर पकड़ रखी थी । रात गहराई तो दोनों साथी खिड़की के रास्ते आ रही शीतल बयार में झपकी लेने लगे । एक जगह ट्रेन धीमी हुई और चोर ने आहिस्ते से जंजीर छुड़ाई और अंधेरे में कूद गया । साथ के यात्री ने इन्हें जगाया । जंजीर खींचकर ट्रेन रोकी । दोनों टार्च की रोशनी में जंगल छानते रहे , अपनी झपकी को कोसते रहे और स्वयं जेल के सीखचों के पीछे जाने की कल्पना करते रहे ।


सुबह दोनों एक गांव के बीच से निकले । भाग्य ने साथ दिया । एक लोहार की दुकान पर नजर पड़ी और दोनों चौंके । चोर लोहार से अपनी हथकड़ी कटवा रहा था । बाज की तेजी से झपठकर दोनों ने चोर को जा पकड़ा था ।


आसनसोल से कलकत्ता लौट पिता ने पुलिस की नौकरी भी छोड़ दी थी ।


*****

एक बार फिर गांव । फिर वही स्थितियां और पुन: कलकत्ता वापसी । पुराने साथियों के सहयोग से वह रेलवे में खलासी नियुक्त हो गए । इस बार मन जमाने का प्रयत्न किया और वर्षों तक देसामऊ नहीं गए । बहनोई की मृत्यु का समाचार मिलने पर कुछ दिनों के लिए गए और अपने खेत जवान भांजे को सौंप वापस लोट गए ।


पिता जी अथक परिश्रमी , बेहद सीधे, सरल, कोमल हृदय और ईमानदार व्यक्ति थे । सुबह चार बजे उठ जाते । कई मील चलकर कालीबाड़ी जाते .... काली दर्शन के लिए, लौटते, चाय पीते और साढ़े छ: बजे लोको वर्कशॉप (हावड़ा) के लिए निकल जाते । शाम छ: बजे के लगभग लौटते । मेरे बचपन के कितने दिन हावड़ा में बीते, यह याद नहीं लेकिन बावनगाछी की याद है मुझे । बहुत खूबसूरत फ्लैट्स थे वे ....तीन मंजिला । मेरा परिवार पहली मंजिल में रहता था । आमने -सामने फ्लैट्स के बीच लगभग सौ फुट चौड़ी जगह थी । रेलवे के वे फ्लैट्स चारदीवारी से घिरे हुए थे । केवल एक ओर... पूर्व का रास्ता खुला हुआ था, जिधर सड़क गुजरती थी और जिसे पारकर मैं पिता जी को प्रतिदिन शाम वर्कशॉप से लौटते देखता था। दक्षिण दिशा की दीवार का कुछ भाग तोड़कर लोगों ने रास्ता बना लिया था जो एक मैदान में निकलता था , जहां से होकर लोग सीधे बाजार जाते थे । कभी -कभी हम बच्चे उस मैदान में खेलने निकल जाते थे ।


अपने श्रम और लगन के बल पर पिता जी खलासी से सीढ़ियां चढ़ते हुए फिटर तक पहुंच चुके थे। मेरे जन्म से पहले ही वह फिटर बन चुके थे । कॉलोनी में उनका अच्छा रुतबा और सम्मान था । उस कॉलोनी के कुछ फ्लैट्स अफसरों को अलॉट थे और मैं देखता कि सहयोगियों के बीच ही नहीं बंगाली अफसरों के बीच भी पिता जी 'बाबू जी' के रूप में जाने जाते थे । मां-पिता दोनों ही निरक्षर थे लेकिन वे अपने बच्चों को पढ़ा-लिखा देखना चाहते थे । उनकी इस लालसा का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि जब भाई साहब पाचवीं में थे पिता जी ने उन्हें नेहरू जी की जीवनी खरीदकर भेंट की थी ।


बड़े भाई ने जैसे ही गांव से पाचवीं उत्तीर्ण किया पिता जी उन्हें कलकत्ता ले गए और अंग्रेजी ज्ञान न होने के कारण बड़े भाई को पांचवीं में ही प्रवेश दिलाया । पिता जी ने जब 1959 में अवकाश ग्रहण किया , तब भाई साहब ने हाई स्कूल किया था । वह उन्हें रेलवे में बाबू बनवाना चाहते थे । भाई साहब को नियुक्ति मिल रही थी , लेकिन बंगाली चयन अधिकारी ने पिता जी से चार सौ रुपए रिश्वत मांगी, जिसे देने से उन्होंने इंकार कर दिया और बड़े भाई को पिता जी के साथ ही कलकत्ता से प्रस्थान करना पड़ा था ।


पिता जी ने मुझे दो बार पढ़ने के लिए स्कूल भेजा । उन दिनों मैं पांच वर्ष के लगभग था । पहला स्कूल घर से बहुत दूर नहीं था । सामान्य-सा विद्यालय था वह । आया मुझे और मेरे पड़ोसी मनभरन , जिन्हें हम काका कहते थे , के छोटे बेटे प्रेमचन्द को लेने आती । मां सजा-धजाकर बड़े चाव से मुझे स्कूल भेजतीं । लेकिन मुझे वहां घबड़ाहट होती । मैंने न पढ़ने का मन बना लिया । लेकिन मन बना लेने से बात बनने वाली नहीं थी । कुछ बहाना चाहिए था और मेरे बाल मन ने बहाना खोज लिया था । मैंने जिद पकड़ ली कि स्कूल नहीं जाऊंगा ।


''क्यों ?'' पिता , भाई ने पूछा । भाई ने धमकाया भी, लेकिन पिता जी ने प्यार से समझाया था ।


''क्योंकि वहां जमीन पर बैठाते हैं ......फट्टे पर ।''


''सभी बच्चे बेैठते हैं ....तुम्हारे लिए कुर्सी मेज थोड़े लगाई जाएगी .....कोई अनोखे हो!''


बड़े भाई की इस बात पर मैं रोने लगा था । मुझे यह सब आज भी ज्यों का त्यों याद है। पिता जी ने भाई को डांटा , मुझे पुचकारा , मां ने सहलाया और समझाया , लेकिन बाल जिद .... नहीं का मतलब था नहीं ।


स्कूल का प्रिन्सिपल , जो एक बिहारी बाबू थे , मिस्टर सिन्हा , आया से मेरे स्कूल न आने का कारण जान समझाने - रिझाने घर दौड़े आए । तरह-तरह के लालच दिए , पर मैं जिद पर अटल रहा। लेकिन बड़े भाई छोड़ने वाले नहीं थे । वह जिस हायर सेकेण्डरी स्कूल से हाई स्कूल कर रहे थे , उसके पास एक अच्छा-सा स्कूल था ... मेज कुर्सी .... अच्छे स्मार्ट अध्यापकों और अच्छी ड्रेस वाला । बड़े भाई ने कैसे जुगाड़ बनाया, पता नहीं, लेकिन उन्होंने मुझे वहां प्रवेश दिला दिया । अब बचने का कोई रास्ता नहीं था । बड़े भाई के साथ बस से जाने-आने लगा । वहां मेरा मन भी लगने लगा । इसका एक कारण और था । बड़े भाई हर दिन लंच में मेरे पास आते और कभी लड्डू तो कभी कोई अन्य मिठाई मुझे दे जाते । घर में वह मुझे अंग्रेजी पढ़ाते और पढ़ाई से बिदकने वाला मैं पढ़ने लगा था । लेकिन सत्र समाप्ति से पूर्व ही अकस्मात मां को गांव जाना पड़ा और मुझे और मेरी छोटी बहन को भी उनके साथ लौटना पड़ा। उसके बाद की मेरी पढ़ाई गांव में ही हुई ।


*****


लेकिन दो बातों के उल्लेख के बिना बात अधूरी ही रहेगी । यद्यपि पिता जी का सम्पूर्ण जीवन ही किसी उपन्यास की मांग करता है, लेकिन संक्षेप में दो घटनाओं का उल्लेख करना चाहता हूं ।


पहली घटना मां ने बतायी थी । उन दिनों बड़े भाई छोटे थे और पिता जी के पास रेलवे का छोटा मकान था । उन दिनों उनकी डयूटी शिफ्ट में रहती थी । वह रात शिफ्ट में थे और वेतन का दिन था वह । उस दिन वह रेलवे लाईन के साथ शाम वर्कशॉप जा रहे थे। रास्ते में उन्हें उनका एक सहयोगी मिला, जो दिन की शिफ्ट करके लौट रहा था । दोनों ने पांच मिनट बातचीत की । सहयोगी घर और पिता जी वर्कशॉप की ओर बढ़ गए । कुछ दूर जाने पर पिता जी को नोटों भरा पर्स मिला । खोलकर देखा .... सोचा और अनुमान लगाया कि वह पर्स कुछ देर पहले मिले सहयोगी का था जिसमें उसका वेतन था । उन्होंने पर्स आफिस में जमा कर दिया ।


पर्स उसी सहयोगी का था ।


दूसरी घटना आंखों देखी है । जाड़े के दिन थे । प्रेमचंद के अतिरिक्त कॉलोनी में मेरा कोई साथी नहीं था । बड़े भाई के साथियों की संख्या पर्याप्त थी । शाम बीच के मैदान में वह अपने मित्रों के साथ वॉलीवाल खेलते...नियमत: । मैं सजधज कर -- कोट-पैण्ट पहन फ्लैट के नीचे सीढ़ियों के साथ बने छोटे चबूतरे पर बैठ उन्हें खेलता देखता । उस दिन मेरी दृष्टि सड़क की ओर से आ रहे काफ़िले पर जा टिकी । चार लोगों ने चारपाई थाम रखी थी और साथ कम से कम दस-पन्द्रह लोग थे । काफ़िला निकट आया । भाई और उनके साथियों का खेल थम गया । पता चला चारपाई पर घायल पिता थे । क्रेन से वह किसी डिब्बे को उठा रहे थे कि क्रेन का पहिया टूटकर उनकी छाती पर आ गिरा था । खून से लथपथ पिता सामने ....भाई किंकर्तव्यविमूढ़ । पूरी कॉलोनी इकट्ठा थी ....सिर ही सिर ...शोर और चीत्कार करती मां । उसके बाद क्या हुआ मैं जान नहीं पाया । बाद में कितने ही दिन मैं भाई के साथ रात रेलवे अस्पताल जाता रहा था । पिता जी स्वस्थ हो गये थे, लेकिन भारी-भरकम पहिए ने उन्हें जो आंतरिक चोट पहुंचाई थी , कालांतर में वही उनकी मृत्यु का कारण बनी थी । उस घटना के कुछ दिनों बाद उनका प्रमोशन हुआ ....... ड्राइवर के रूप में । वह मालगाड़ी चलाने लगे और उसी पद से उन्होंने अवकाश ग्रहण किया था ।


******

अवकाश ग्रहण के बाद पिता जी ने गांव में बसने का निर्णय किया , जबकि उनके साथियों ने उन्हें कलकत्ता में रुकने का आग्रह किया था । तीन हजार का एक अच्छा-सा मकान भी उन्हें मिल रहा था । पैसा भी था, लेकिन मां गांव रहना चाहती थीं । मां को उनके चाचा (कंचन सिंह गौतम) ने तेरह बीघे खेत दे दिए थे और मकान बनाने की जगह । नाना के पास यह जमीन अतिरिक्त थी । गांव में सर्वाधिक उपजाऊ खेत उन्हीं के पास थे , लेकिन जो जमीन उन्होंने मां को दी थी वह ऊंची -नीची और चरीदा थी, जिसे कभी उपजाऊ नहीं बनाया जा सका । पिता जी ने अपने गांव देसामऊ में जो खेत भांजे को जोतने-बोने और उनके लौटने पर उन्हें लौटा देने के लिए दिए थे उस भांजे ने कोर्ट में उन्हें मृत घोषित कर (शपथ पत्र देकर) वे खेत अपने नाम लिखा लिए थे । लोगों ने पिता जी को जब भांजे पर मुकदमा करने की सलाह दी तब उन्होंने उत्तर दिया ,'' भांजा बेटा समान होता है ...... उससे कैसा मुकदमा !''


कानपुर शहर से सटे उन दस बीघे खेतों की कीमत आज लगभग ढाई-तीन करोड़ रुपए है । उसी प्रकार मेरे पितामह का जो मकान नवाबगंज में था पिताजी की उदासीनता के कारण नगर महापालिका ने उसे अपने अधिकार में ले लिया था ।


******

गांव आकर कलकत्ता के बाबू जी पूरे किसान हो गए थे और गांव में 'चंद्याल' के नाम से जाने जाने लगे । नौकरी करने के दौरान जब भी वह गांव आते (मेरा ननिहाल ही मेरा गांव है ) हर दिन किसी न किसी के घर आमंत्रित रहते । एक युवा नाई, जिसका नाम मैं भूल गया हूं , सप्ताह में दो बार उनकी तेल-मालिश करने आता और बाबू जी मुक्त हस्त पैसे खर्च करते । मां के ठाठ सदैव शाही रहे । बनारसी साड़ी से नीचे कुछ नहीं पहना और यह सब 1962 तक चला । पिता जी ने भले ही खेती में झोंक अपने को माटी कर लिया था , लेकिन मां और हम सब तब तक अच्छा जीवन जीते रहे जब तक अवकाश प्राप्त होने के समय एक मुश्त मिला पैसा समाप्ति की कगार पर नहीं पहुंचा । लेकिन पिता जी ने शायद पहले ही यह स्थिति भांप ली थी । उन्होंने दुधारू गाएं , भैसें पाल ली थीं .... खेती करने के भैसों के साथ । उन दिनों तेरह जानवर थे मेरे यहां । कुछ खेत तिहाई में दिए जाते और कुछ वह स्वयं करते । लेकिन नाले के किनारे होने के कारण भयानक जाड़े में खेतों को पाला मार जाता और फसल के नाम पर जो मिलता उससे लागत बमुश्किल निकल पाती ।


कलकत्ता की अपनी आदत के अनुसार पिता सुबह चार बजे जागते । अब गाय-भैसों की सेवा उनके लिए काली दर्शन था । कुट्टी काटते, सानी तेैयार करते और साढ़े पांच बजे तक हसिया फावड़ा ले खेतों की ओर निकल जाते । जानवर घर से कुछ दूर पसियाने के बीच बने बड़े से घेर में रहते थे और पिता भी वहीं सोते थे । उनके खेतों की ओर जाने से पहले ही गाय-भैंसों का दूध निकालने या दूधिया से निकलवाने के लिए मां बालटी लटका घेर पहुंच जाती थीं ।


पिता जी के रिटायरमेण्ट की राशि खत्म होने के बाद और बड़े भाई की नौकरी लगने तक घर का खर्च गाय-भैंसों के कटता दूध से ही चला था । मुक्त भाव से लोगों को चीजें देने वाले ....ठाठ-बाट से रहने वाले पिता जवान बेटे की उतारन पहनने के लिए विवश थे ,लेकिन उन्हें कभी खीझते-झींकते ...दुखी होते या शिकायत करते नहीं देखा । 'दुखे-सुखे समेकृत्वा' वाला भाव रहता उनके चेहरे पर । जानवरों के लिए सानी आदि तैयार करते हुए ऊंची आवाज में भजन गाते रहते तरन्नाम में ।


*****

1967 में पहली बार उनके फेफड़ों में फोड़ा हुए । खांसी के साथ बलगम नहीं मवाद निकलता । शहर में दिखाया गया । इंजेक्शन ....लगभग एक सौ इंजेक्शन लगे । चार महीने लगे ठीक होने में । ठीक होते ही पुन: काम । डाक्टरों ने शायद उनके मर्ज को टी.बी. समझाा था । जबकि छाती पर वर्षों पहले गिरे क्रेन के पहिए के जख्म से उन्हें फेफड़ों का कैंसर हो गया था । इंजेक्शन ने कुछ समय के लिए कष्ट मुक्त कर दिया था । लेकिन तीन वर्ष बाद पुन: वह उभरा और इस बार जानलेवा साबित हुआ । बलगम के स्थान पर जो पस वह उगलते उसमें इतनी बदबू होती कि घर का कोई भी व्यक्ति उनके निकट ठहरने से कतराता । मां भी घबड़ाती, लेकिन मैं रात-दिन उनकी सेवा में रहा । मिट्टी के बड़े बर्तन में राख डाल दी गई थी । जब भी उन्हें खांसी आती मैं उनके सिर के नीचे हाथ लगा उन्हें आधा उठाता और राख भरा मिट्टी का बर्तन उनके मुंह के पास कर देता । उनके थूकने के बाद साफ कपड़े से उनका मुंह साफ करता । लगभग डेढ़ महीना यह सिलसिला चला था ।


19 सितम्बर, 1970 को सुबह इंटरमीडिएट का फार्म भरकर (20 सितम्बर अंतिम तिथि थी) 21 को वापस लौट आने की बात उनसे कहकर मैं कानपुर गया । लेकिन बीस सितम्बर की रात मेरे छोटे बहनोई ने कानपुर पहुंच मुझे उनके दिवगंत होने की सूचना दी थी ।

मृत्यु के समय मैं उनके अंतिम दर्शन से वंचित रहा था । क्या इसीलिए वे मेरे सपनों आते रहे । लेकिन उनके आने का जो विश्लेषण मैंने किया था इस बार भी वह सही सिध्द हुआ । मध्य मई में मेरा एक अत्यावश्यक कार्य सम्पन्न होना था , जो नहीं हुआ । पिता शायद उसका पूर्वाभास देने आए थे ।
******