इतना
असीम स्नेह
रूपसिंह
चन्देल
यह
१९९२ के उत्तरार्ध की बात थी.
मुझे
लगातार संदेश मिल रहे थे कि वह मुझसे मिलना चाहते थे. प्रकाशक और शक्तिनगर के मोहल्लावासी
जवाहरलाल गुप्त ने कुछ अधिक ही उनसे मेरी प्रशंसा
की हुई थी और वही आकर उनके विषय में मुझे सूचित किया करते थे. जवाहरलाल तब तक अपने प्रकाशन पेनमैन पब्लिशर्स से उनकी एक
या दो पुस्तकें प्रकाशित कर चुके थे, उनमें उनकी अंग्रेजी में लिखी महत्वाकांक्षी पुस्तक
’अहिंसा इंडियाज डेस्टिनी’ भी थी.
(स्व.वीरेन्द्र कुमार गुप्त)
अंततः
अक्टूबर में एक दिन मैं जवाहरलाल के साथ वीरेन्द्र जी, यानी वीरेन्द्र कुमार गुप्त, के रोहिणी के सेक्टर ६ के उनके एल.आई.जी. फ्लैट
में मिलने पहुंचा. उन्हें सूचना थी और मैंने पाया कि वह बेसब्री से हमारा इंतजार कर
रहे थे. घर में केवल वह और उनकी पत्नी थे. श्रीमती गुप्त, जिन्हें बाद में मैं भाभी
जी कहने लगा था, का सत्कार आज भी नहीं भूला. पूरी तिपाई ही खाद्य पदार्थों से भर दी
थी उन्होंने और हमारे सामने बेड पर बैठकर साग्रह ताकीद भी करती रही थीं, “अभी तो यह
चखना शेष है---तो अभी यह….आपने तो कुछ खाया ही नहीं. ---और कुछ लीजिए---गुलाबजामुन
तो आपने छुआ ही नहीं.” पहली मुलाकात में ही
उनके साथ जो आत्मीयता स्थापित हुई वह उनके जीवन पर्यंत कायम रही.
उस
दिन हमारी चर्चा साहित्य केन्द्रित रही थी. उनकी साहित्यिक विकास यात्रा के बारे में
कुछ जानने का अवसर मिला. तब तक उनकी अनेक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी थीं, जिनमें उनके
ऎतिहासिक उपन्यास –’प्रियदर्शी’ और ’विजेता’ भी थे. उनके इन उपन्यासों को राजपाल एण्ड
संस ने बहुत पहले प्रकाशित किया था. मैंने जब इन उपन्यासों को पढ़ा तो हत्प्रभ रह गया.
भाषा, शिल्प और कथानक के स्तर पर ये हिन्दी के शीर्षस्थ ऎतिहासिक उपन्यासों की श्रेणी
में परिगणित होने वाली कृतियां हैं, लेकिन भीड़ से दूर रहने वाले वीरेन्द्र जी के उन
उपन्यासों के विषय में शायद ही हिन्दी के साहित्य-प्रेमियों को जानकारी होगी. बाद में मेरे प्रयास से ये दोनों उपन्यासों का पुनर्मुद्रण
’प्रवीण प्रकाशन’ (तब महरौली – अब दरियागंज) से हुआ था.
उसके
पश्चात से वीरेन्द्र जी से मिलने का सिलसिला चल पड़ा था. बढ़ती आयु के बावजूद मुझसे मिलने
का उनमें इतना उत्साह था कि यदि मैं उनके यहां नहीं जा पाया तो शक्तिनगर की ओर का कोई
काम निकालकर वह मुझसे मिलने आ जाया करते थे. वह दिल्ली सरकार के शिक्षा विभाग से उप-प्रधानाचार्य
के पद से अवकाश मुक्त हुए थे. उनका बैंक आजाद मार्केट में था और प्रतिमाह पेंशन के
सिलसिले में वह बैंक आते तो मेरे यहां भी आ जाते थे, क्योंकि आजाद मार्केट शक्तिनगर
के निकट है. ऎसे अवसर वह प्रायः शनिवार को निकाला करते थे, क्योंकि उसदिन मेरा अवकाश
होता था. कितनी ही मुलाकातों के पश्चात मुझे
यह जानकारी मिली थी कि वह प्रसिद्ध कथाकार स्व. योगेश गुप्त के बड़े भाई थे. वीरेन्द्र
जी जितना अनुशासन प्रिय और जीवन के प्रति सचेत थे, योगेश उतना ही लापरवाह. वीरेन्द्र जी के जीवन के प्रति सचेतता और अनुशासन
प्रियता ही शायद वह कारण रहा कि उनके बेटे
और बेटियां न केवल उच्च शिक्षित हुए बल्कि सरकारी सेवाओं में भलीभांति व्यवस्थित भी
हुए. उनके बड़े बेटा आज भी आई.आई.टी. रुड़की में प्रोफेसर(फिजिक्स) हैं और छोटा बेटा
आई.ए.एस.(अलाइड) सेवा में. दोनों बेटियां भी सरकारी नौकरियों में थीं. जीवन को शून्य
से शुरु करने वाले व्यक्ति के लिए इससे अधिक संतोष की और क्या बात हो सकती थी.
प्रायः
वीरेन्द्र जी अपने जीवन के संघर्षों का उल्लेख किया करते थे. उनके पिता सहारनपुर के
रहने वाले थे. उनका प्रिण्टिंग प्रेस था. स्वतंत्रता आन्दोलन में सक्रिय भूमिका निभाने
के कारण प्रेस बंद हुआ और परिवार विस्थापित होकर दिल्ली आ गया और घण्टाघर के पास किराए
पर वे लोग रहने लगे. हाई स्कूल करने के पश्चात
वीरेन्द्र जी को नौकरी करनी पड़ी थी. उन्हें पहली सरकारी नौकरी ब्रिटिश हुकूमत के तहत
आर्मी हेड़क्वार्टर्स में मिली थी. कुछ वर्षों तक उन्होंने वह नौकरी की थी. साथ ही शैक्षणिक
शिक्षा भी प्राप्त करते रहे थे. देश की आजादी के पश्चात वह नौकरी जाती रही. इस विषय
में मुझे अधिक जानकारी नहीं कि कब वह दिल्ली सरकार के शिक्षा विभाग में बतौर शिक्षक
नियुक्त हुए.
एक
बार शिक्षक बनने के पश्चात वह आजीवन शिक्षक रहे…ज्ञान देते और स्वयं ज्ञानार्जित करते.
लंबे समय तक वह कमला नगर में सरकारी मकान में रहे थे, लेकिन यह शायद तब की बात थी जब
मैं दिल्ली नहीं आया था. बच्चों की अच्छी परवरिश देने के लिए अध्यापन की नौकरी के साथ
उन्होने अनुवाद और ट्यूशन किए. उन्होंने राजपाल एण्ड संस के लिए बारह पुस्तकों के अनुवाद
किए, जिनमें कई विश्व के महान रचनाकारों की कृतियां थीं. एक कृति मेरे हाथ भी लगी,
वह जैक लण्डन का नोबल पुरस्कार प्राप्त उपन्यास ’कॉल ऑफ द वाइल्ड’ था, जिसका अनुवाद
उन्होंने ’जंगल की पुकार’ शीर्षक से किया था.
जैक लण्डन के इस उपन्यास का वीरेन्द्र जी द्वारा किया वह अनुवाद इतना अद्भुत
है कि मैं अभिभूत हुए बिना नहीं रह सका. इस उपन्यास का वही प्रथम और अंतिम अनुवाद है.
एक बार वीरेन्द्र जी को उसके पुनर्मुद्रण की हुड़क सवार हुई. मुझसे चर्चा की. मैंने
उन्हें विश्वनाथ जी से चर्चा कर लेने की सलाह दी. विश्वनाथ जी को पत्र लिखने से पहले
वीरेन्द्र जी रोहिणी में रहने वाले एक छोटे
प्रकाशक (किन्हीं शर्मा जी, जो बंग्लोरोड स्थित एक बड़े प्रकाशन के भागीदार रहे थे और
बटवारे के बाद अपना कोई छोटा प्रकाशन चला रहे थे) से इस विषय में चर्चा कर चुके थे.
उस व्यक्ति ने उनके पास मौजूद एक मात्र प्रति पढ़ने के बहाने हस्तगत कर ली. जब मुझे
इस विषय में जानकारी हुई तब मैंने वीरेन्द्र जी को सलाह दी कि वह तुरन्त उससे प्रति
वापस ले लें. उन्होंने ऎसा किया भी लेकिन तब तक भलेभाव में तीर उनके हाथ से निकल चुका
था. बाद में जानकारी मिली कि उस प्रकाशक ने उसकी फोटो प्रति बनवा ली थी और भाषा में मामूली परिवर्तन करके उसे प्रकाशित कर लिया
था. ऎसे छलावों का पहले भी कितनी ही बार वह शिकार हो चुके थे. विश्वनाथ जी ने ’जंगल
की पुकार’ को स्वयं प्रकाशित करने की बात कहकर कहीं अन्यत्र से उसके प्रकाशन से वीरेन्द्र
जी को रोक दिया था. हालांकि मैं जानता हूं कि पहले या दूसरे संस्करण के पश्चात उस विश्व
प्रसिद्ध कृति को राजपाल एण्ड संस ने कभी प्रकाशित नहीं किया, लेकिन वीरेन्द्र जी की
त्रासदी यह थी कि वह उसके अनुवाद का कॉपी राइट उन्हें दे चुके थे. प्रायः अनुवादकों
को इस प्रकार की अपमानजनक स्थिति का सामना करना पड़ता है.
घर
की गाड़ी खींचने के लिए वह जिन बच्चों को ट्यूशन
पढ़ाते थे उनमें वरिष्ठ कथाकार और कवि रामदरश मिश्र जी के बच्चे भी थे. एक दिन
मैं उनसे मिलने गया तो उन्हें बहुत ही उदास पाया. ऎसा पहली बार हुआ था. स्वागत में
उत्साह पुराना था, लेकिन चेहरे पर उदासी और बातचीत में उत्साहहीनता. कुछ देर बाद ही
मैंने कारण पूछ लिया. यह उन दिनों की बात है
जब कुछ दिन पहले ही उनका खण्डकाव्य ’कुरुक्षेत्र में राधा’ उनके भाई योगेश ने अपने
प्रकाशन से प्रकाशित किया था. दरअसल जीवनपर्यंत उन्होंने योगेश की आर्थिक सहायता की
थी. भाई की सहायता करने के लिए वह कभी कभी बहाने भी खोज लिया करते थे और यदि वह नहीं
खोज पाते थे तब योगेश स्वयं उन्हें रास्ते सुझा देते थे. ’कुरुक्षेत्र में राधा’ योगेश
ने मुफ्त में नहीं छापा था. यह बात अन्य एक
अवसर पर वीरेन्द्र जी ने मुझे बतायी थी. लेकिन उन्हें संतोष था कि इसी बहाने उन्होंने
छोटे भाई की सहायता की थी. तो बात उस दिन की. उस दिन मेरे कुरेदने पर बहुत ही संजीदा
होकर वीरेन्द्र जी बोले, “यार--, वह फोन पर तो मुझे यार कहते ही थे, सामने बातचीत में
तो कितनी ही बार इस शब्द का प्रयोग करके मुझे बराबरी का दर्जा देते थे, जो मुझे अच्छा
लगता, “ यार, दिल्ली विश्वविद्यालय के एक प्रोफेसर साहब हैं---बहुत पुरानी जान-पहचान
है…तब से जब वह मॉडल टाउन में रहा करते थे---मेरी इच्छा थी कि मैं अपना खण्ड-काव्य
’कुरुक्षेत्र में राधा’ उन्हें पढ़ने के लिए भेजूं. आज सुबह की ही बात है. उन्हें फोन किया. पहले तो
उन्होंने पहचानने से ही इंकार कर दिया, लेकिन तत्काल याद करके बोले, “ ओह,वीरेन्द्र
कुमार गुप्त---मेरे बच्चों के मास्टर---आप मेरे बच्चों को ट्यूशन पढ़ाते थे न---वही..”
वीरेन्द्र जी ने इतना सुनते ही फोन काट दिया था. मैंने नाम पूछा. काफी देर की चुप्पी
के बाद उन्होंने बताया नाम बताया था. मुझे कतई आश्चर्य नहीं हुआ. विश्वविद्यालय के
अधिकांश प्राध्यापकों में एक प्रकार का अहंकार
और साहित्यिक कुंठा होती है. रामदरश मिश्र भी उनमें से एक हैं. मिश्र जी का सम्पूर्ण
काव्य एक ओर और वीरेन्द्र जी का खण्डकाव्य एक ओर----खण्ड काव्य ही भारी पड़ेगा. जोड़-जुगाड़ से सदैव दूर रहने वाले व्यक्ति का ज्वलंत
उदाहरण थे वीरेन्द्र जी.
वीरेन्द्र
जी बहुत ही परिश्रमी व्यक्ति थे. सुबह से देर रात तक काम करने वाले. वह जैनेन्द्र कुमार
के बहुत निकट रहे थे. यह शायद उनके अध्यापकी के प्रारंभिक दिनों की बात थी. वह प्रतिदिन
सुबह सात बजे जैनेन्द्र जी के यहां जाने के लिए साइकिल पर घर से निकल जाते थे. उन दिनों
वह दर्शन पर आधारित उनका लंबा साक्षात्कार कर रहे थे, जो छठवे दशक के मध्य में ’समय
और हम’ नाम से प्रकाशित हुआ था. ’समय और हम’ की योजना वीरेन्द्र जी के मस्तिष्क की
उपज थी. वह प्रश्न लिखकर ले जाते और जैनेन्द्र जी उन प्रश्नों के उत्तर उन्हें डिक्टेट
करवाते. लगभग दो घण्टे जैनेन्द्र जी के साथ बिताकर वह स्कूल जाते. घर लौटकर ट्यूशन,
फिर लिखवाए गए उत्तरों के आधार पर आगे के प्रश्न तैयार करना---अपने बच्चों को पढ़ाना….अनुमान
लगाया जा सकता है कि कितना संघर्षपूर्ण जीवन जी रहे थे वह उन दिनों. प्रतिदिन एक वर्ष जैनेन्द्र जी के यहां
वह जाते रहे थे और उनके प्रश्नों और जैनेन्द्र जी के उत्तर के आधार पर जो पुस्तक तैयार
हुई वह थी –’समय और हम’. यह पुस्तक मैंने १९७८ में पढ़ी थी. तब सोच भी नहीं सकता था
कि एक दिन मुझे उस पुस्तक के प्रश्नकर्ता की आत्मीयता प्राप्त होगी.
’समय
और हम’ प्रकाशित होने के पश्चात उनके और जैनेन्द्र जी के मध्य विवाद पैदा हुआ. लंबा
पत्राचार हुआ था. जैनेन्द्र जी ने कुछ चालाकी की थी. उन्होंने वीरेन्द्र जी को पूरी
तरह नकार दिया था. पुस्तक पर जैनेन्द्र जी का नाम था और वीरेन्द्र जी केवल प्रश्नकर्ता
के रूप में थे. वीरेन्द्र जी की चालीस पृष्ठों की भूमिका अवश्य उसमें विद्यमान थी.
वीरेन्द्र जी का आहत होना स्वाभाविक था. जिसकी सम्पूर्ण रूपरेखा उनकी थी उससे वही अपदस्थ
थे. मेरा मानना है कि उत्तर देने वाले से अधिक महत्व और जिम्मेदारी प्रश्नकर्ता की
होती है. दोनों के मध्य लंबा पत्राचार हुआ. उस पत्राचार की फोटो-प्रतियां मेरे पास
उपलब्ध हैं. पुस्तक का पहला संस्करण किसी अन्य प्रकाशक से प्रकाशित हुआ था, लेकिन उसके
समाप्त होते ही, जोकि शायद जल्दी ही समाप्त हो चुका था, जैनेन्द्र जी ने उसे अपने प्रकाशन
से प्रकाशित किया था. लगभग सात सौ पृष्ठों की उस पुस्तक को बाद में कई भागों में विभक्त
कर दिया गया. मेरा मानना है कि एक व्यक्ति का इतना लंबा एक साक्षात्कार विश्व में शायद
ही किसी अन्य साहित्यकार का उपलब्ध हो. जब मैंने वीरेन्द्र जी से इस विषय में पूछा,
वह बोले, “मैंने विवाद को अधिक आगे बढ़ाना उचित नहीं समझा था.”
“क्यों?”
“क्योंकि
जैनेन्द्र जी के प्रति मेरे मन में अगाध श्रृद्धा थी…एक सीमा के बाद मैंने पत्राचार
बंद कर दिया था, जबकि कई लोगों ने कोर्ट जाने की भी सलाह दी थी…ऎसा करना मेरी नैतिकता
के विरुद्ध था.” वीरेन्द्र जी ने हंसते हुए कहा था.
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1964
में वीरेन्द्र जी ने एक महत्वपूर्ण पुस्तक प्रकाशित करवाई थी—विश्व के महान लोगों के
प्रेम पत्रों की पुस्तक. उसमें विश्व की पचासों
महान विभूतियों के प्रेम पत्र संग्रहीत हैं. इसके लिए उन्होंने बहुत शोध किया---अनेक
पुस्तकालयों की खाक छानी. इस विषय में जब मुझसे चर्चा की तब मैंने उसे पुनः प्रकाशित
करवाने की उन्हें सलाह दी. “कौन छापेगा?” उदास स्वर में उन्होंने पूछा था.
“मैं
बात करता हूं.” मैंने उन्हें आश्वस्त किया था. इस बात के लिए मैं एक दिन किताबघर (अब
किताबघर प्रकाशन) के श्री सत्यव्रत शर्मा से मिला. यद्यपि एक मित्र के षडयंत्र के कारण
शर्मा जी के प्रकाशन से १९९५ के बाद से मेरा प्रकाशकीय संबन्ध नहीं रहा था, लेकिन तब
मुझे लगा था कि वीरेन्द्र जी की वह पुस्तक यदि वहां से छपेगी तो बहुत से लोगों तक पहुंचेगी.
मेरे प्रस्ताव का शर्मा जी ने उत्साहजनक उत्तर दिया. वीरेन्द्र जी के साथ पुस्तक का
अनुबन्ध हुआ और वह वहां से प्रकाशित हुई. बाद में मेरे सुझाव पर सत्यब्रत शर्मा ने
वीरेन्द जी का बहुचर्चित ऎतिहासिक उपन्यास –’विष्णुगुप्त चाणक्य’ प्रकाशित किया था. इस उपन्यास का पेपरबैक संस्करण राजकमल प्रकाशन ने
प्रकाशित किया था. मैंने वीरेन्द्र जी को सलाह दी कि वह अशोक माहेश्वरी को पत्र लिखकर
उसका हार्डबाउण्ड संस्करण प्रकाशित करने के लिए कहें. मैं जानता था कि राजकमल शायद
ही इस बात के लिए तैयार होगा. वही हुआ. फिर मेरे सुझाव पर वीरेन्द्र जी ने किसी अन्य
प्रकाशक से हार्ड बाउण्ड छपवाने के लिए राजकमल से अनुमति मांगी, जिसमें उसे कोई आपत्ति
न थी और इस प्रकार यह उपन्यास भी किताबघर प्रकाशन
से प्रकाशित हुआ था.
उस
घटना के उल्लेख के बिना शायद बात अधूरी रह जाएगी. इस उपन्यास के विषय में चर्चा करने
के लिए उन्होंने मुझे साथ चलने का प्रस्ताव किया. दरियागंज ऎसी जगह है जहां गाड़ी ले
जाना मुझे सदैव कुंए में फंस जाने जैसा लगता
है. मैंने उन्हें स्कूटर से चलने का प्रस्ताव किया. वीरेन्द्र जी सहर्ष तैयार हो गए.
मैंने उन्हें मिलने के लिए अपनी प्रिय जगह कनॉट प्लेस के कॉफी होम बुलाया. तब मोबाइल
न थे. वह कॉफी होम के इर्द-गिर्द देर तक भटकते रहे. अंततः मैंने उन्हें होम के पीछे
जा पकड़ा. कुछ देर वहां हम बैठे…शायद वह प्रथम और अंतिम बार वहां बैठे थे. स्कूटर से
हम किताबर गए. बातचीत के बाद वीरेन्द्र जी ने कहा कि मैं उन्हें कश्मीरी गेट छोड़ दूंगा
तो उन्हें वहां से रोहिणी की बस मिल जाएगी. हम राजघाट के सामने मोड़ पर पहुंचे ही थे
कि पासपोर्ट आफिस का बोर्ड मुझे दिखाई दिया. बच्चों के पासपोर्ट बनवाने की योजना कुछ
दिनों से दिमाग में चल रही थी. मैंने स्क्टूटर रोका और वीरेन्द्र जी को उतरने के लिए
कहा. स्क्टूटर की स्टेपनी काफी ऊंची है (यह एल.एम.एल. वेस्पा स्कूटर मैंने ३१ मार्च,१९८९
को खरीदा था और आज भी जैसा था वैसा ही चल रहा है…फर्क इतना ही कि अब यह घर के आसपास
तक ही सीमित है, क्योंकि न अब इसका इंश्योरेंस होता है और न ही १५ वर्षों के पश्चात
इसका मैंने नवीनीकरण करवाया). वीरेन्द्र जी पांच फुट चार इंच के लगभग थे. उतरते समय
उनका पैर स्टेपनी में फंस गया. बैलेंस ऎसा बिगड़ा कि वह भी गिरे और मैं भी. स्कूटर हम
दोनों के ऊपर उढ़क गया. स्कूटर खड़ा कर मैंने
वीरेन्द्र जी को देखा. चोट नहीं थी. वह संभलकर खड़े हो चुके थे. लेकिन कश्मीरी गेट तक
स्क्टूटर से जाने का इरादा उन्होंने बदल दिया था. बोले, “रिंग रोड से मैं मुद्रिका
ले लूंगा ---आप निकल जाओ.” मैंने दबी जुबान उन्हें कहा भी साथ चलने के लिए लेकिन शायद
उनका साहस जवाब दे गया था.
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वीरेन्द्र
जी बहु-आयामी प्रतिभा के धनी व्यक्ति थे. कविता, लेख, उपन्यास, साक्षात्कार, आध्यात्म---उन्होंने
बहुत लिखा. उनके आलेखों की पुस्तक उनकी मृत्यु
से दो-तीन दिन पहले भावना प्रकाशन से प्रकाशित हुई, जिसे देखने की लालसा लिए वह चले
गए. उनकी सर्वाधिक महत्वाकांक्षी पुस्तक थी, “अहिंसा इंडियाज डेस्टिनी’ जो शायद १९९०
के आसपास एक बहुत ही छोटे प्रकाशक से प्रकाशित हुई थी और उसे लेकर जिन्दगी भर उन्हें
मलाल रहा. बाद में उन्होंने बताया था कि उस दौरान प्रकाशक ने उनसे उस पुस्तक को प्रकाशित
करने के लिए खासी रकम ली थी. वह उसने वापस लौटायी या नहीं यह जानकारी नहीं, लेकिन यह
जानकारी मुझे है कि उसने उसे बेच लिया था. वीरेन्द्र जी उसे किसी बड़े प्रकाशक से प्रकाशित
देखना चाहते थे, लेकिन अंग्रेजी प्रकाशकों से न उनकी पहचान थी और न मेरी जबकि पुस्तक
अंग्रेजी में थी. यदि उसे सही प्रकाशक मिला होता तो वह पुस्तक निश्चित ही यशपाल की
बहु-चर्चित पुस्तक –’गांधीवाद की शव परीक्षा’ की भांति चर्चित हुई होती.
वीरेन्द्र
जी की अपनी एक खास विचारधारा थी. उन्होंने इतिहास,पुराण, उपनिषद, जैन आदि साहित्य का
गहन अध्ययन किया था. बुद्ध कालीन और परवर्तॊ साहित्य के अध्ययन ने उनमें यह सोच पैदा
कर दी थी कि अहिंसावादी सोच के कारण ही यह देश एक हजार सालों तक गुलाम रहा. बौद्ध दर्शन
ने प्रतिरोध की क्षमता नष्ट कर दी. ’अहिंसा इंडियाज डेस्टिनी’ में उन्होंने अपनी इसी
विचारधारा को अनेकानेक उद्धरणों और प्रमाणों के आधार पर सिद्ध किया है. लगभग २५० पृष्ठों
की इस पुस्तक से असहमत हुआ जा सकता है, लेकिन लेखक के तर्क सहजता से खारिज भी नहीं
किए जा सकते. जीवन के अंतिम दिनों में वह किसी भी रूप में उसे प्रकाशित देखना चाहते
थे. इसके लिए उन्होंने कुछ प्रकाशकों को आधा पैसा तक खर्च करने का प्रस्ताव भी किया
था, लेकिन कोई सही प्रकाशक उन्हें कभी नहीं मिला.
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भाभी
जी की मृत्यु के पश्चात वीरेन्द्र जी ने अपने बड़े बेटे प्रवीण के पास रुड़की जाकर रहने
का निर्णय किया था. साल में दो-तीन बार वह दिल्ली आते और कुछ दिन रहते. कभी उनसे मेरी
मुलाकात होती तो कभी नहीं.
नवंबर,२००४
में स्वैच्छिक सेवाकाश लेने के पश्चात मैंने सबसे पहला काम लियो तोलस्तोय के अंतिम
और अप्रतिम उपन्यास ’हाजी मुराद’ का अनुवाद करने का किया. यह उपन्यास मुझे केन्द्रीय
सचिवालय पुस्तकालय से मिला था, जिसे देखकर मैं हत्प्रभ था. तब तक मैंने वीआरएस नहीं
लिया था. उपन्यास की चर्चा मैंने अनेक वरिष्ठ साहित्यकारों से की, लेकिन किसी को भी
’हाजी मुराद’ की जानकारी नहीं थी. तभी निर्णय किया था कि वीआरएस लेते ही सबसे पहला
काम उसके अनुवाद का करना है. अनुवाद पूरा करने के पश्चात मैंने उसके कुछ चैप्टर वीरेन्द्र
जी को देख लेने का अनुरोध किया. उनके अनुवादों से मैं बहुत प्रभावित था. उन्होने स्वीकृति
दी तो मैने चार चैप्टर उन्हें भेज दिए. लगभग दो माह बीत गए---जब भी रुड़की फोन करूं
वह कह देते, “अभी तक एक ही देख पाया हूं.” अंततः एक दिन उनका फोन आया, “यार, मैं एक
चैप्टर ही देख पाया हूं….कुछ जगहों पर छेड़-छाड़ की है…शेष देख पाने में समय लग सकता
है. आप खुद ही देख लो---मैं सामग्री कल भेज रहा हूं.” मैंने बुझे मन कहा, “ठीक है.” दो दिन बाद सामग्री मिली. पहले चैप्टर में यत्र-तत्र
लाल स्याही का इस्तेमाल हुआ था. उस सबको एक बार नहीं दो-तीन बार ध्यान से पढ़ा और समझ
गया कि वीरेन्द्र जी ने सही मायने में एक अध्यापक की भूमिका निभायी थी. यदि विद्यार्थी
का सारा काम अध्यापक कर दे तो विद्यार्थी क्या करेगा. आखिर परीक्षा तो उसे ही उत्तीर्ण
करनी होती है. मेरे लिए उनकी यह नसीहत इतनी महत्वपूर्ण सिद्ध हुई कि मैंने एक बार नहीं
तीन बार हाजी मुराद के अनुवाद को रिवाइज किया. पूर्णरूप से संतुष्ट होने के पश्चात
ही उसे संवाद प्रकाशन को भेजा था.
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वीरेन्द्र
जी ने मेरे अंतिम दो उपन्यासों को छोड़कर सभी उपन्यास पढ़े थे. ’रमला बहू’ पर उन्होंने
विस्तृत समीक्षा लिखी थी. ’पाथरटीला’, ’नटसार’
और ’शहर गवाह है’ उपन्यासों के विषय में उनका
कथन था कि जब तक वे उन्हें समाप्त नहीं कर
पाए बेचैन रहे थे. मेरी किस्सागोई शैली के वह मुक्तकंठ प्रशंसक थे. २०१२ में प्रकाशित
संस्मरण पुस्तक –’यादों की लकीरें’ पढ़कर उन्होंने स्वयं उसकी समीक्षा लिख डाली थी.
मेरे सुझाव पर उन्होंने उसके लिए प्रेम भारद्वाज से बात की और उसे प्रेम को भेज दिया,
लेकिन वह पाखी में अभी तक प्रकाशित नहीं हुई.
रुड़की
जाने के बाद पहले सप्ताह में एक दिन उनका फोन आता था. फिर यह सिलसिला सप्ताह में दो
दिन, फिर तीन और पिछले चार वर्षों से प्रतिदिन का सिलसिला बन गया था. फोन करने का उनका
कोई समय निश्चित नहीं था. कभी वह सुबह ९ बजे कर देते तो कभी बारह बजे. कितनी ही बार
उनका फोन तब आता जब मैं ड्राइव कर रहा होता. फोन न सुन पाता तो शाम या रात को करके
शिकायत करते, “यार, अमुक समय किया था---आपने उठाया नहीं था.” मैं स्पष्टीकरण देता तो
कहते, “कोई बात नहीं---मैं तो वैसे ही कर लेता हूं…आप ही तो हैं जिसे फोन करता हूं.
एक दिन भी नागा हो जाता है तो बेचैनी होने लगती है.”
इतना
असीम स्नेह…. कई बार ऎसा भी हुआ कि दो-तीन दिन मैं उनका फोन नहीं सुन पाया. बाद में
समय मिलने पर किया तो बोले, “अरे, कोई खास बात नहीं थी---आपने क्यों किया---मैं स्वयं
करता.” अर्थात फोन करने का अधिकार वह अपने पास सुरक्षित रखना चाहते थे. लेकिन यदि दो-चार
दिन उनका फोन नहीं आता तो मुझे बेचैनी होने लगती, “वीरेन्द्र जी कहीं अस्वस्थ तो नहीं---क्या
बात हुई” और मैं फोन कर हाल पूछता तो कहते, “यार, कुछ लिखने में उलझ गया था.”
अंतिम
दिनों में उन्होने एक उपन्यास पूरा किया था. नवंबर,२०१३ में मुझे पढ़ने के लिए भेजा.
मैं बेटी के विवाह की तैयारी में व्यस्त हो चुका था. बीच-बीच में वह पूछ लेते, “यार,
मौका लगाकर पढ़ लो. आपकी सलाह की प्रतीक्षा है…कुछ कमी होगी तो कर दूंगा.” सच यह कि
उपन्यास के दस पेज पढ़ने के बाद आज तक उसे नहीं पढ़ पाया हूं. एक अपराधबोध है मुझे इस
बात का.
मुझे
एक मित्र ने बताया कि उन्होंने गीता का अनुवाद किया है, जिसे बंग्लो रोड के प्रकाशक
’चौखंभा’ प्रकाशित कर रहे हैं. मैंने वीरेन्द्र जी से पूछा,” आपने यह बात मुझे बतायी
नहीं…” लहजे में शिकायत थी. बोले, “यार, वह आपकी रुचि का काम न था---इसलिए…” फिर स्वयं
बताया कि चौखंभा ने दर्शन पर अंग्रेजी में लिखी उनकी पुस्तक –’इनरशेल्फ’ दो साल पहले
प्रकाशित की थी और चौखंभा के लिए उन्होंने ’विष्णुगुप्त चाणक्य’ का अंग्रेजी अनुवाद
भी किया था. वह भी प्रकाशित हो चुका था.
अस्सी
वर्ष की आयु में भी वह कितना सक्रिय थे, सोचकर आश्चर्य हुआ था. यहां यह बताना आवश्यक
है कि वीरेन्द्र जी की शिक्षा बहुत व्यवस्थित ढंग से नहीं हुई थी. स्वाध्याय के बलपर
ही उन्होने हिन्दी और अंग्रेजी पर पारगंतता हासिल की थी. यह एक बड़ी बात थी. उनके सर्वाधिक
प्रिय लेखक थे दॉस्तोएव्स्की. मेरी पुस्तक
’दॉस्तोएव्स्की के प्रेम’ लिखने की मूल प्रेरणा मुझे वीरेन्द्र जी से ही मिली थी. उन्होंने
ही कुछ पुस्तकें भी सुझाई थीं---उस पुस्तक के लिखे जाने का श्रेय निश्चित ही वीरेन्द
जी को था.
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२६
जनवरी,२०१४ को उन्होंने पूछा, “तुमने मुझे बिटिया का कार्ड भेजा?” मैंने कहा, “अभी
तक नहीं भेज पाया”
“क्यों?”
मैं सकपका गया, “यार, मैं आना चाहता हूं. कार्ड तो भेजो.” मैंने कहा, “ठंड बहुत अधिक
पड़ रही है. आपका स्वास्थ्य भी ठीक नहीं---फिर---“
“तुम
इसकी परवाह क्यों करते हो.” कुछ दिनों से वह मुझे आप के स्थान तुम बोलने लगे थे. “तुम
कार्ड तो भेजो…मैं जैसे भी होगा…आउंगा.”
मैंने
हामी भरी. फोन काट दिया. क्षणभर बाद ही उन्होंने
पुनः फोन किया, “मुझे अपने घर का पता लिखवाओ.”
“मैं
पहले ही समझ रहा था कि बार-बार वह कार्ड भेजने के लिए वह क्यों कह रहे थे और मैं उसी
कारण जानबूझकर टाल रहा था. लेकिन अब कोई उपाय नहीं था. मैंने उन्हें पता लिखवाया और
कहा, “वीरेन्द्र जी, जिस कारण आपने पता लिया है वह सब आप न करें क्योंकि मैंने निर्णय
किया है कि मैं किसी भी आमन्त्रित से गिफ्ट नहीं लूंगा.”
वीरेन्द्र
जी भड़क गए. ऎसा पहली बार हो रहा था. बोले, “वह तुम्हारे लिए नहीं होगा. वह बेटी के
लिए सगन होगा और जो भी व्यक्ति जो कुछ भी देगा वह तुम्हारे लिए नहीं बेटी के लिए देगा. सगन
लेने से तुम इंकार नहीं कर सकते.”
मैं
चुप रहा था. और तीसरे दिन वीरेन्द्र जी का पांच हजार एक सौ का चेक आ गया था. मैंने
उन्हें सूचित किया. बोले, “उसे घर मेंन रखो…बैंक
में जमा कर आओ.” मैंने उनकी आज्ञा का पालन किया था. यही मेरा उनसे अंतिम संवाद था.
मैं भी इतना व्यस्त था कि स्वयं फोन नहीं कर पाया. एक रात प्रवीण जी का फोन आया. उन्होंने बताया कि
वीरेन्द्र जी ८ फरवरी की रात नहीं रहे थे. उन्होंने उनके चौथे की सूचना देने के लिए
फोन किया था. मेरे लिए यह अकल्पनीय था….प्रवीण जी की बात सुनकर देर तक मैं अबोला ही
रहा था.
२९
अगस्त,१९२८ को सहारनपुर में जन्मे वीरेन्द्र जी ८ फरवरी,२०१४ की रात दो बजे से तीन
बजे के मध्य कब हृदयाघात का शिकार हो गए---किसी को पता नहीं चला. उन जैसा कर्मठ, भला
और ईमानदार व्यक्ति आज के समय में मिलना कठिन है. मैं उन भाग्यशाली व्यक्तियों में
हूं जिसे उनका प्रगाढ़ प्रेम मिला.
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