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शनिवार, 31 अक्तूबर 2009

संस्मरण/ श्रद्धांजलि



(चित्र डॉ० अवधेश मिश्र )

वह मेरे पथ-बंधु

रूपसिंह चन्देल

वह साहित्यकार नहीं थे , लेकिन साहित्यकार परिवार से थे । आचार्य शुक्ल से पूर्व हिन्दी साहित्य का इतिहास लिखने वाले ‘मिश्र बंन्धुओं’ में से वह एक भाई के प्रपौत्र और साहित्य-मर्मज्ञ थे .

उनसे मेरा परिचय 1976 के अंतिम दिनों में हुआ था ।

मैंने 1976 में कानपुर विश्वविद्यालय से निजी छात्र के रूप हिन्दी में फर्स्ट डिवीजन में एम।ए. किया था . यहां यह बताना अनुचित नहीं होगा कि इण्टरमीडिएट के बाद की मेरी पूरी शिक्षा एक निजी छात्र के रूप में ही हुई . पारिवारिक परिस्थितियां ऐसी थीं कि नौकरी करना मेरे लिए आवश्यक हो गया था और अप्रैल 1973 में जब मुझे रक्षा लेखा विभाग में नौकरी मिली तब मेरे खाते में केवल इंण्टरमीडिएट का प्रमाणपत्र था . उन दिनों कानपुर विश्वविद्यालय से चार सौ कॉलेज संबद्ध थे और उनमें केवल बीस छात्रों को उस वर्ष हिन्दी में प्रथम श्रेणी प्राप्त हुई थी . मैं डी.ए. वी. कॉलेज केन्द्र से सम्मिलित हुआ और उस कॉलेज का एक मात्र प्रथम श्रेणी पाने वाला छात्र था .

प्रथम श्रेणी ने मुझे पी-एच।डी करने के लिए प्रेरित किया और इस सिलसिले में मुरादनगर से (उन दिनों मेरी पोस्टिंग वहीं थी ) कानपुर के मेरे दौरे बढ़ गए थे . अवकाश प्राप्त करने के लिए तरह-तरह के बहाने खोजने पड़ते , जिसमें कई बार मैंने अपनी मां को बीमार किया और यही नहीं हट्टी-कट्टी स्वस्थ मां को स्थाई रूप से हृदय रोग से पीडि़त घोषित कर दिया था .मैं जब भी कानपुर में होता , हर दूसरे दिन विश्वविद्यालय अवश्य जाता . विश्वविद्यालय में मेरे एक मात्र परिचित थे दुर्गाप्रसाद शुक्ल , जो भास्करानंद इंटर कॉलेज (नरवल) में मेरे सीनियर थे . यह वही इंटर कॉलेज है , कन्हैयालाल नंदन और प्रसिद्ध कवि रामावतार चेतन ने जहां से हाईस्कूल किया था . ‘झण्डा ऊंचा रहे हमारा .....विजयी विश्व तिरंगा प्यारा ’ झण्डा गान के प्रणेता श्यामलाल गुप्त ‘पार्षद’ इसी नरवल के निवासी थे और मेरे समकालीन प्रसिद्ध कवि दिनेश शुक्ल भी यहीं के हैं .

दुर्गाप्रसाद शुक्ल को हम डी।पी. कहते , और जिन दिनों मैं नौकरी के लिए भटक रहा था , डी.पी. विश्वविद्यालय में जम चुके थे और अपने मृदुल स्वभाव और सहयोगी भाव के कारण छात्रों , मित्रों , प्राध्ययापकों और सहयोगियों के प्रिय बन चुके थे .

मैं पी-एच।डी. का स्वप्न तो देखने लगा लेकिन कोई निर्देशक मुझे अपने अधीन रजिस्ट्रेशन करनवाने के लिए तैयार नहीं था . उनके पास एक ही बहाना था कि मैंने एक ‘प्राइवेट छात्र’ के रूप में एम.ए. किया था . मेरे प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण होने की वे प्रशंसा करते , लेकिन अपना छात्र स्वीकार करने में असमर्थता व्यक्त कर देते . कुछ ने ऐसी शर्तें रखी जो मुझे स्वीकार नहीं थीं . उदाहरण के लिए क्राइस्टचर्च कॉलेज के विभागाध्यक्ष ने अपने अधीन रजिस्ट्रेशन के लिए तीन हजार रुपयों की मांग की . 1976 में मुझ जैसे बाबू के लिए वह एक बड़ी रकम थी . ऐसी ही मांग मोदी कॉलेज , मोदी नगर के विभागाध्यक्ष ने की थी . उसने इसके अतिरिक्त यह भी कहा था कि जब तक मैं शोध प्रबंध प्रस्तुत नहीं कर देता , प्रतिवर्ष एक हजार रुपये उसे अतिरिक्त देता रहूंगा . (पी-एच. डी. की उपाधि मिलने के बाद 1985 के अंतिम दिनों के एक ‘रविवारीय हिन्दुस्तान’ में इस संबन्ध में प्रकाशित मेरा आलेख बहुचर्चित हुआ था ) .

शोध निर्देशक की मेरी समस्या का समाधान डी।पी. कर सकते हैं इस आशा में मैं निरंतर डी.पी. के संपर्क में रहने लगा . डी.पी. उन दिनों डिग्री सेक्शन में थे और शहर के सभी कॉलेजों के प्राध्यापक उन्हें जानते थे . डी.पी. को पान खाने का शौक था ..... आज भी है और लंच के समय बाहर घूमने जाने पर मैं भी उनके साथ पान खाता और ऎसा केवल उन्हीं के साथ रहते होता . लंच में वह भी डी.पी. के साथ होते और उन्हीं दिनों उनसे मेरा परिचय हुआ . एक दिन डी.पी. बोले , ‘‘रूपसिंह , इन्हें जानते हो ?’’

मैं चुप था । डी.पी. के पास आते-जाते उन्हें कई बार देख चुका था .

‘‘सुधांशु किशोर मिश्र....’’ पान की पीक गटकते हुए डी।पी. बोले , ‘‘यहीं विश्वविद्यालय में हैं और पी-एचडी. कर रहे हैं .’’

मिश्र जी मंद-मंद मुस्कराते रहे । मैंने उनके शोध विषय और निर्देशक के विषय में पूछा . वह कविताओं पर शोध कर रहे थे और वी.एस.एस.डी. कॉलेज नवाबगंज के विभागाध्यक्ष डॉ. गौड़ उनके निर्देशक थे . डॉ. गौड़ एक अच्छे निर्देशक माने जाते थे .

उसके बाद मैं जब भी जाता मिश्र जी से अवश्य मिलता । लेकिन हमारे संबन्ध प्रगाढ़ हुए जब हम दोनों एक साथ आगरा कॉलेज , आगरा में लेक्चरर पद का साक्षात्कार देने गए . कानपुर से हम एक ही ट्रेन में आगरा गए थे . हम दिनभर साथ रहे . हम दोनों ही जानते थे कि हमारा चयन नहीं होना था , लेकिन हम साक्षात्कार का अनुभव प्राप्त करना चाहते थे . नौकरी तो हम कर ही रहे थे , लेकिन प्राध्यापकी हमारी रुचि की होती . हालांकि मेरा ध्यान प्राध्यापकी पाने से अधिक शोध के लिए पंजीकृत हो लेने में था . इस दिशा में डी.पी. ने मेरी सहायता की और उनके प्रयास से डी.वी.एस. कॉलेज के रीडर डॉ. बैजनाथ त्रिपाठी ने इस शर्त पर मुझे अपना छात्र स्वीकार किया कि शोध में वह मेरी बिल्कुल सहायता नहीं करेंगे . सब कुछ मुझे स्वयं करना होगा . वह केवल हस्ताक्षर करने का दायित्व निभाएगें और मौखिक के समय साथ रहेगें . उन्होंने बहुत ईमानदारी से अपने दायित्व का पालन किया था .

डी.पी. के माध्यम से मैं डॉ. तित्रपाठी का छात्र बन अवश्य गया लेकिन पी-एच डी. के लिए विषय की स्वीकृति मिलना निर्देशक मिलने से अधिक कठिन था . उन दिनों कानपुर विश्वविद्यालय जीवित साहित्यकारों पर शोध की अनुमति नहीं देता था . अब नियम ढीले हो चुके हैं . इसी का परिणाम है कि ममता पाण्डे जुलाई 2009 में मेरे कथा साहित्य पर अपना शोध प्रबन्ध प्रस्तुत कर सकीं .
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बात फरवरी 1977 की है । मैं कानपुर में था . किदवईनगर चैराहे की एक पान की दुकान में अखबार देख रहा था . पहले ही पृष्ठ पर कथाकार यशपाल की मृत्यु का समाचार था . दरअसल मैं अपने निर्देशक से ही मिलने जा रहा था जो किदवई नगर में ही रहते थे . उस दिन डॉ. त्रिपाठी ने विषय चयन कर विश्वविद्यालय में संक्षिप्त रूपरेखा प्रस्तुत करके ही मुरादनगर जाने की सलाह दी . उनके घर से मैं सीधे मारवाड़ी पुस्तकालय गया और दो दिनों तक जाता रहा . अंततः ‘सम-सामयिक परिप्रक्ष्य में यशपाल के कथा-साहित्य का आलोचनात्मक अनुशीलन’ विषय की रूपरेखा मैंने प्रस्तुत कर दी . लेकिन डॉ. विजयेन्द्र स्नातक की विशेषज्ञता में हुई बैठक में उसे निरस्त कर दिया गया . इसने मुझे अधिक ही निराश किया . इसका अर्थ मेरे एक वर्ष की बर्बादी से था . अगली बार मैंने प्रतापनारायण श्रीवास्तव के ‘व्यक्तित्व और कृतित्व’ का चयन किया . मिश्र जी उन दिनों शोध अनुभाग में थे . उस बार विशेषज्ञ थीं कथाकार डॉ. शशिप्रभा शास्त्री . मिश्र जी रजिस्ट्रार से सीधे जुड़े हुए थे और मेरे बारे में उन्हें बताकर अनुरोध कर चुके थे कि वे मेरे विषय को निरस्त न होने दें . उस दिन मीटिगं में मिश्र जी रजिस्ट्रार के ठीक पीछे बैठे और जब मेरे विषय पर चर्चा प्रारंभ हुई उन्होंने रजिस्ट्रार की पीठ पर उंगली गड़ाकर संकेत किया था .

विषय स्वीकृत हो गया था .
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मैं मुरादनगर से स्थानांतरित होकर जुलाई 1980 में दिल्ली आ गया । कानपुर जाना कम हो गया , लेकिन मिश्र जी का दिल्ली आना-जाना प्रारंभ हो गया था . 1981 के अंत की बात है शायद . मुझे एक दिन उनका पत्र मिला कि वह ’अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्था” (All India Institute of Medical Sciences ) में अपने मेडिकल चेक अप के लिए आ रहे हैं . मैं सुबह साढ़े सात बजे उन्हें रिसेप्शन के सामने मिलूं .

मैं मिला और पहली बार पता चला कि उनका वहां आने का सिलसिला कई वर्षों से चल रहा था । उन्हें एक ऐसी बीमारी थी कि हर तीसरे माह उन्हें किसी परीक्षण प्रक्रिया से गुजरना होता था . उससे पहले एम्स में उनका परिचित कोई लड़का था जो उनकी देखभाल किया करता था , लेकिन वह वहां से जा चुका था या उसकी सेवाएं समाप्त हो चुकी थीं . मिश्र जी हास्पिटल के कपड़े पहन अपने कपड़े और अटैची मेरे पास छोड़ चेक अप के लिए चले गए . बेंच पर बैठा मैं उनके लौटने की प्रतीक्षा करता रहा . लगभग एक बजे वह लौटे . हमने एम्स की कैण्टीन में लंच किया और सीधे घर चले गए . मेडिकल की उस प्रक्रिया से गुजरने के बाद मिश्र जी बहुत कष्ट अनुभव कर रहे थे और घर पहुंचकर वह सोफे पर लगभग दो घण्टे तक लेटे रहे थे .

रात भोजन के बाद मैं मिश्र जी को पुरानी दिल्ली स्टेशन जाने वाली बस में बैठा आया था .
उसके बाद एम्स की उनकी हर दिल्ली यात्रा के दौरान मैं सुबह साढ़े सात बजे रिसेप्शन के सामने उनसे मिले लगा । मेडिकल चेक अप के बाद हम घर आते और रात नौ बजे के लगभग मैं उन्हें बस में बैठा आता . यह सिलसिला 1985 या 1986 तक चला . इस बीच शोध के लिए मिला मेरा समय समाप्त हो चुका था और केवल नोट्स लेने के अतिरिक्त मैंने कुछ भी नहीं किया था . मिश्र जी कई वर्ष पहले न केवल पी-एच.डी. कर चुके थे बल्कि वी.एस.एस.डी. कॉलेज में लेक्चरर भी नियुक्त हो चुके थे और डी.लिट्. कर रहे थे . उनकी प्रेरणा और उनके प्रयासों से मुझे शोध पूरा करने के लिए अतिरिक्त समय मिल गया . दोबारा मिले समय में रातों-दिन एक करके मैंने कार्य पूरा किया और नवम्बर , 1984 में शोध प्रबन्ध प्रस्तुत कर आया .

******* पी।-एच.डी. की डिग्री मिलने तक शिक्षण क्षेत्र में जाने की मेरी इच्छा समाप्त हो चुकी थी . अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान (एम्स) की अपनी अंतिम यात्रा के समय मिश्र जी ने बताया कि जिस मेडिकल परीक्षण के लिए उन्हें वहां अपना पड़ता था वह लखनऊ मेडिकल कॉलेज में संभव हो गया था . उसके बाद मैं जब भी कानपुर गया , उनसे कभी मिलना हुआ .... कभी नहीं . सिलसिला बन्द नहीं हुआ , लेकिन अंतराल बढ़ गया था . फोन पर बातें हो जाती . 3 अगस्त 2003 को मैंने शक्तिनगर के किराए के मकान से अपने मकान में शिफ्ट किया . यहां के फोन से भी उनसे बातें हुईं लेकिन एक दिन वह डायरी खो गई जिसमें उनका फोन नंबर था और मेरे घर का नंबर भी कुछ दिनों बाद बदल गया . लगभग दो वर्षों तक हम एक दूसरे से संपर्क नहीं कर पाए . तीन वर्ष पूर्व अचानक एक दिन मोबाइल पर उनकी आवाज सुनकर मेरी प्रसन्नता का ठिकाना नहीं रहा . उन्होंने बताया कि मेरा नम्बर प्राप्त करने के लिए उन्हें बहुत श्रम करना पड़ा . उन्होंने अपने सहयोगी हिन्दी प्राध्यापक और कवि-आलोचक पंकज चतुर्वेदी से अपनी समस्या बतायी . पंकज चतुर्वेदी ने कादम्बनी में पंकज पाराशर को संपर्क किया . पाराशर ने किससे मेरा मोबाइल नंबर हस्तगत किया पता नहीं , लेकिन ........उन्होंने कहा कि उनकी छात्रा मामता पाण्डे मेरे कथा साहित्य पर शोध करना चाहती है . सामग्री उपलब्ध करवाने में मैं उसकी सहायता करूं ..... और संवाद का सिलसिला पुनः प्रारंभ हो गया . तब-से महीना-दो महीना में हमारी बातें होती रहीं . वह कई वर्ष से कॉलेज में हिन्दी विभागाध्यक्ष थे और इसी वर्ष 26 अगस्त को उसी पद से उन्होंने अवकाश ग्रहण किया था . उन्हें एक वर्ष का सेवा विस्तार भी मिल गया था .

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16 अक्टूबर ( शुक्रवार ) को मैंने उन्हें मोबाइल पर एस।एम.एस. करके दीवाली की शुभ कामनाएं दीं . उन्होंने उत्तर दिया और लिखा कि वह चार दिनों तक अस्पताल में रहकर आए थे और लकवा के शिकार हो गए थे . मैंने तुरंत फोन किया . रुक-रुककर उन्होंने बात की . पता चला शुगर बढ़ गया था और दाहिना हिस्सा लकवाग्रस्त हो गया था . वह कई वर्षों से शुगर के मरीज थे और एक बार उन्हें हल्का हार्ट अटैक भी हो चुका था .

‘‘आप स्वस्थ हो लें .....कुछ दिन बाद मैं आपसे बात करूंगा ।’’ मैंने कहा तो ‘‘ ठीक है ’’ कहकर उन्होंने फोन काट दिया .

29 अक्टूबर को मामता पाण्डे का फोन आया , ‘‘सर , बहुत बुरा हुआ ।’’

‘‘ क्या हुआ ?’’ मुझे लगा कि शोधप्रबन्ध संबन्धी उसकी काई समस्या है ।

‘‘सर , नहीं रहे ।’’

‘‘ क्या ऽऽऽ..... कब...... ?’’

‘‘ सत्ताइस अक्टूबर को अपरान्ह तीन बजे .....’’ ममता रोने लगी ।मेरी आवाज नहीं फूटी . ममता रोती हुई लगातार एक ही बात कहे जा रही थी ....‘‘बहुत बुरा हुआ सर .....’’

‘‘हां , बहुत बुरा हुआ ।’’ मैं धीरे से कह पाया , ‘‘मैंने अपना एक अच्छा मित्र - एक पथबन्धु खो दिया था .

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