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शनिवार, 30 अगस्त 2014

यादों की लकीरें



संस्मरण
वह निर्छद्म हंसी
                                            रूपसिंह चन्देल
                                                             
ठीक से याद नहीं कि बात १९९६ की थी या १९९७ की, लेकिन महीना अक्टूबर का था. मित्रो के आग्रह पर शक्तिनगर के मकान में मैंने कहानी-कविता गोष्ठी का आयोजन किया था. गोष्ठी की अध्यक्षता डॉ. रत्नलाल शर्मा को करनी थी.  डॉ. शर्मा के साथ मध्य वय के सांवले, लंबे, चेहरे पर गंगा-जमुनी बालों वाली दाढ़ी और दाढ़ी में मुस्कराते चेहरे वाले एक सज्जन भी आए, जिनसे मैं पहली बार मिला था. हाय—हैलो के बाद, जैसा कि डॉ. रत्नलाल शर्मा का स्वभाव था, उन्होंने अपने साथ आए सज्जन का परिचय करवाया---“ये डॉ. तेज सिंह हैं---.” डॉ. तेज सिंह से मैं ही नहीं वहां उपस्थित सभी लोग पहली बार मिल रहे थे.   डेढ़ या दो माह बाद डॉ. तेज सिंह मेरी दूसरी मुलाकात दिल्ली विश्वविद्यालय लाइब्रेरी के रिसर्च फ्लोर की छत पर डॉ. शर्मा के साथ ही हुई थी.

उस दिन के पश्चात हमारे मिलने का सिलसिला चल पड़ा था. डॉ. तेज सिंह एक समय जनवादी लेखक संघ से जुड़े रहे थे, लेकिन वहां से उनका मोह भंग हो चुका था.  वह दलित लेखक संघ के संस्थापक सदस्यों में से थे. मुझे यह स्पष्ट नहीं कि दलित लेखक संघ की स्थापना उनके मुझसे मिलने के पश्चात हुई थी या पहले.  वह उस संस्था  के दूसरे अध्यक्ष थे और दो सत्रों तक उसके अध्यक्ष रहे थे. जनवादी लेखक संघ से संबन्ध तोड़ने के पश्चात उनका ठहरा लेखन प्रारंभ हो गया था. यद्यपि उनकी आलोचना का क्षेत्र कहानियां था,लेकिन उनका अध्ययन  केवल कहानियों तक ही सीमित नहीं था---वह व्यापक था. साहित्य से लेकर इतिहास, दर्शन, राजनीति तथा अन्य विषयों पर वह अपनी अलग और बेबाक राय रखते थे. वह मार्क्सवाद से प्रभावित थे और मार्क्सवाद का भी उन्होंने गहन अध्ययन किया था. लेकिन दलित संदर्भ में वह भारतीय मार्क्सवादियों के कटु आलोचक थे.. उनका मानना था कि भारतीय मार्क्सवादियों ने दलित समस्या को सही प्रकार समझा ही नहीं.

१२, मार्च, १९९९ को गांधी शांति प्रतिष्ठान में मेरे उपन्यासपाथर टीलापर एक विचार गोष्ठी का आयोजन किया गया था. कार्यक्रम की अध्यक्षता हंस के सम्पादक राजेन्द्र यादव ने की थी. अतः उस आयोजन के पश्चात राजेन्द्र जी से मेरी निकटता बढ़ गयी थी.  माह में एक या दो बार मैं हंस कार्यालय जाने लगा था. जब डॉ. तेज सिंह को पता चला उन्होंने भी साथ चलने की इच्छा जाहिर की. उससे पहले वह कभी हंस कार्यालय नहीं गए थे. वह गीता कॉलोनी के पास अपने पैतृक घर में रहते थे और मैं शक्ति नगर. प्रायः हम शनिवार को जाते. अपरान्ह ढाई-तीन बजे के लगभग मैं डाक्टर साहब से विश्वविद्यालय में मिलता. वह अपनी कक्षाएं समाप्त कर आर्ट्स फैकल्टी के सामने चाय की दुकान पर मेरी प्रतीक्षा कर रहे होते. मेरे पास  एल.एम.एल. वेस्पा था (आज भी वह है). उससे हम दरियागंज जाते. हममें से जो भी पहले राजेन्द्र जी के पास पहुंचता राजेन्द्र जी उससे  पूछते, “आग कहां है?” याधुंआ आज कहां?” मुझे वह आग कहते और तेज सिंह को धुंआ. हम दोनों ने कभी राजेन्द्र जी से यह नहीं पूछा कि उन्होंने हमारे नामकरण किस आधार पर किए थे. वैसे भी राजेन्द्र जी का स्वभाव था कि जिनके प्रति प्रेम अनुभव करते उनके कुछ कुछ नाम रख देते थे. राजेन्द्र यादव के यहां से हम प्रायः कनॉट प्लेस स्थित कॉफी होम जाते, जहां हम  अन्य साहित्यकार मित्रो से मिला करते थे. बातों में प्रायः समय का खयाल नहीं रहता. कॉफी होम खाली हो चुका होता, लेकिन हम जमे होते. पता तब चलता जब स्टाफ लाइट बंद करना शुरू कर देता.

यह वह दौर था जब डॉ. तेज सिंह जमकर लिख रहे थे. ’दलित लेखक संघ’ की  अपनी अध्यक्षता के दौरान उन्होंने दो सफल वार्षिक अधिवेशन किए तथा उसके बैनर तले अन्य अनेक कार्यक्रम भी आयोजित किए. दलित साहित्य के संदर्भ मेंस्वानुभूतिऔरसहानुभूतिकी चर्चा सबसे पहले उन्होंने ही की थी. उनका कथन था कि दलित लेखकों से इतर लिखा गया साहित्यसहानुभूतिका साहित्य है. यद्यपि मैं उनसे इत्तेफ़ाक नहीं रखता था. लेकिन वह एक उदार हृदय आलोचक थे और हर व्यक्ति की वैचारिक स्वतंत्रता का सम्मान करते थे.  वह कुछ बड़ा और सार्थक करना चाहते थे. बहुत जद्दोजहद के बाद उन्होंने पत्रिका निकालने का निर्णय किया. और इसप्रकार ’अपेक्षा’ अस्तित्व में आयी.

अपेक्षाप्रारंभ करने के बाद तेज सिंह की व्यस्तता ही नहीं बढ़ी मित्रता का दायरा भी बढ़ा. हिन्दी लेखकों के साथ मराठी, तमिल और तेलगू लेखकों में उनकी पहचान बनी. ’अपेक्षाके सम्पादकीय लिखने में वह बहुत अधिक श्रम करते थे. पत्रिका हिन्दी क्षेत्र में तो उनके नाम का पर्याय बनी ही महाराष्ट्र के दलित लेखकों में भी विशेष रूप से चर्चित थी. इसे अपेक्षा   का करिश्मा ही कहना उचित होगा कि उन्हें सेमिनारों में आदरपूर्वक बुलाया जाने लगा था. कल तक जो व्यक्ति अंधेरे में लुप्त था वह अचानक साहित्याकाश में चमकने लगा तो कुछ लोगों को ईर्ष्या होना स्वाभाविक था. एक लेखक नेवर्तमान साहित्य’ में उनके विरुद्ध अपमानजनक आलेख लिखा.  वह उनसे इसलिए चिढ़ा हुआ था क्योंकि उन्होंने उसके कई बार के आग्रह के बावजूद उसके उपन्यास की समीक्षा नहीं लिखी थी. वह कृतघ्न लेखक यह भूल गया था कि डॉ. तेज सिंह की प्रेरणा से उनके एक छात्र ने उसके उपन्यास पर दिल्ली विश्वविद्यालय से एम.फिल किया था.  वर्तमान साहित्य’ के उस आलेख को पढ़कर मैंने उन्हें उस आलेख का माकूल उत्तर देने की सलाह दी. उन्होंने कहा, “मेरा उत्तर देना ही उसके लिए सबसे बड़ा उत्तर होगा. मेरे विरुद्ध उसने जो लिखा वह कितना असत्य है यह सभी जानते हैं….मैं क्यों उत्तर दूं?” उन्होंने आगे कहा था, “चन्देल जी, आप देखते रहें---इससे इस लेखक का मनोबल बढ़ेगा और यह इससे भी बड़ी गलती करेगा और अपनी गलती का खामियाजा भुगतेगा.” और एक दिन उनकी बात सही सिद्ध हुई थी.

लेकिन बात वहीं नहीं थमी थी. ’वर्तमान साहित्य’ के अगले अंक में एक अन्य दलित लेखक ने तेज सिंह को टार्गेट किया था, लेकिन इन अभियानों से वह बिल्कुल ही विचलित थे.  वास्तव में डॉ. तेज सिंह जितना विनम्र थे उतना ही स्पष्टवादी, निर्भीक और सही कहने और सुनने वाले व्यक्ति थे. ’अपेक्षामें जहां वह स्वयं तर्कसंगत, विचारणीय और गंभीर आलेख लिख रहे थे और इस बात की परवाह किए बिना लिख रहे थे कि उनके आलेखों से कौन प्रसन्न होगा और कौन नाखुश, वहीं वह अन्य रचनाकारों को भी उसी प्रकार लिखने के लिए प्रेरित करते थे. उनका मानना था कि अपनी बात कहने के लिए आलेख को शब्द संख्या की सीमा में नहीं बांधा जाना चाहिए. अपेक्षा में उनके सहयोगी ईशकुमार गंगानिया उन लेखकों में हैं जो ईमानदारी से यह मानते हैं कि डॉ. तेज सिंह का मार्गदर्शन पाकर उन्होंने बहुत कुछ सीखा. लेकिन अन्य लेखक सीखने के बजाए उनसे ईर्ष्या-द्वेष करने लगे  और यह ईर्ष्या-द्वेष इस कदर बढ़ा कि उन्हें अहंकारी और दंभी तक कहा जाने लगा. मेरा मानना है कि वह केवल एक प्रखर आलोचक थे, बल्कि दलित लेखकों के बीच वही एक मात्र गंभीर और अध्ययनशील आलोचक थे. उनका विरोध एक दुर्भाग्यपूर्ण बात थी.

’अपेक्षाको लेकर डॉ. तेज सिंह बहुत उत्साहित थे. यद्यपि उन्होंने पत्रिका को दलित साहित्य की आलोचना पत्रिका के रूप में प्रकाशित किया था और अंत तक उन्होंने उसके उस स्वरूप को बनाए भी रखा, लेकिन बीच-बीच में वह कहानी आदि अन्य साहित्यिक विधाओं को भी अवसर देते थे.

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एक दिन डॉ. तेज सिंह का फोन आया कि अमुक शनिवार को डॉ. नामवर सिंह का साक्षात्कार करने चलना है. मैं उनके किसी भी प्रस्ताव को अपरिहार्य स्थिति में ही मना करता था. मैं तैयार था. संभवतः वह २३ नवंबर,२००२ की बात है.  मैं, डॉ. तेज सिंह और ईशकुमार गंगानिया डॉ. नामवर जी के यहां गए. शाम का वक्त था. नामवर जी से अनेक कार्यक्रमों में मैं मिला था, लेकिन आगे बढ़कर मैंने कभी उन्हें अपना परिचय नहीं दिया था. यह मेरे स्वभाव में है और मैं इसे बहुत ही खराब मानता हूं, लेकिन मानते हुए भी इसे बदल नहीं पाया. आमने-सामने पहली बार नामवर जी से मिल रहा था और वह भी उनके निवास पर तो मुझे लगा था कि मुझे अपनी कोई पुस्तक उन्हें अवश्य भेंट करनी चाहिए. मेरे उपन्यासरमला बहूका दूसरा संस्करण २००१ में प्रवीण प्रकाशन ने किया था. मैं उपन्यास की प्रति उन्हें भेंट करने के लिए ले गया. नामवर जी ने उपन्यास को उलट-पलट कर देखा और बोले, “इसे किताबघर ने छापा है !” मैं डाक्टर साहब की स्मृति से प्रभावित और हत्प्रभ था. मैंने कहा, “डाक्टर साहब, इसे १९९४ में पहली बार किताबघर ने प्रकाशित किया था, लेकिन जब उन्होंने आगे प्रकाशित करने से इंकार कर दिया तब इसे मैंने १९९९ में प्रवीण प्रकाशन को दे दिया था. प्रवीण ने २००१ में इसका दूसरा संस्करण प्रकाशित किया और वही संस्करण आपके हाथ में है.”

ईशकुमार गंगानिया ने दलित साहित्य के संदर्भ मेंअपेक्षाके लिए नामवर जी से लंबी बातचीत की थी. जब हम उनके घर से निकले रात ने काली चादर ओढ़ ली थी और आसमान से कोहरा नीचे उतर रहा था. उस वर्ष नवंबर २० के बाद ही घनघोर कोहरा प्रारंभ हो गया था. ड्राइव करते हुए मैं आंखें फाड़कर सड़क पर देख रहा था, लेकिन तमाम सतर्कता के बावजूद आश्रम के बाद मैं रास्ता भटक गया और रिंग रोड पर सीधे जाने के बजाए नोएडा जाने वाले टोल पुल पर चढ़ गया. तेज दौड़ते वाहन और घना कोहरा----तेज सिंह मेरे साथ बैठे थे और गंगानिया जी पीछे. गाड़ी पीछे मोड़ना खतरनाक था. कुछ दिन पहले ऎसा करते हुए एक कार भयानकरूप से दुर्घटनाग्रस्त हो चुकी  थी. अब नोएडा से ही मुड़ने का एक मात्र विकल्प था. हम धीमी गति से चलने लगे. टोल पर पहुंचकर हमने वहां अफरा-तफरी का माहौल देखा. एक बैरियर इस प्रकार ऊपर उठा हुआ था कि मैं गाड़ी मोड़कर दूसरी ओर जा सकता था. मैंने समय नष्ट करते हुए तुरंत गाड़ी मोड़ी और राहत की सांस ली थी.

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 वर्ष याद नहीं, एक दिन डॉ. तेज सिंह ने मुझेअपेक्षा  के लिए राजेन्द्र जी का साक्षात्कार कर देने के लिए कहा. उन्होंने विषय भी निर्धारित कर दिया—“बातचीत केवल दलित साहित्य और दलित विषयक होगी.” मैंने राजेन्द्र जी से समय लिया और एक रविवार अपरान्ह हमहिन्दुस्तान टाइम्स अपार्टमेण्ट्सके राजेन्द्र जी के मकान में उपस्थित थे. लगभग दो घण्टे तक बातचीत होती रही थी. तेज सिंह के बोलने की गति बहुत तेज थी. प्रायः राजेन्द्र जी  उनकी आधी बातें ही समझ पाते थे. तेजसिंह के सामने ही उन्होंने मुझसे कई बार पूछा, “तुम समझ लेते हो इनकी बातें?” मैं केवल मुस्करा  देता.  कभी-कभी मैं भी परेशान हो जाया करता था. एक बार राजेन्द्र जी ने उनसे पूछा, “आपके छात्र आपकी बात समझ लेते हैं?” तेजसिंह ने कहा, “समझ क्यों नहीं लेते…पता नहीं आप कैसे नहीं समझ पाते.”

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दलित लेखक संघ के दो सत्रों तक अध्यक्ष रहने के पश्चात जब वह उस पद से मुक्त हुए वह बहुत प्रसन्न थे. बोले थे, “अब और अधिक काम कर सकूंगा.” और सच ही उन्होंने उसके पश्चात आलेखों की झड़ी लगा दी थी. जाहिर है कि उनके विरोधियों की बौखलाहट और बढ़नी थी.  ’अपेक्षा’ के प्रकाशन के बाद उन सबकी कुंठाओं में वृद्धि हुई. एक उदाहरण और याद रहा है. हंस का दलित साहित्य विशेषांक निकलना था. डॉ. तेज सिंह और ईश कुमार गंगानिया से भी आलेख मांगे गए थे. दोनों आलेखों की घोषणा भी की गई, लेकिन जब अंक प्रकाशित होकर आया तब दोनों  ही आलेख गायब थे. तेज सिंह इस घटना से बहुत आहत थे. उन्होंने मेरे सामने व्यक्तिगत रूप से राजेन्द्र जी से अपना विरोध दर्ज करवाया था. राजेन्द्र जी अतिथि सम्पादकों पर जिम्मेदारी डालकर अलग हो गए थे. गंगानिया जी का आलेख तो कभी प्रकाशित नहीं हुआ, लेकिन तेज सिंह का आलेख शायद अगले किसी अंक में प्रकाशित हुए था. बकौल तेज सिंह राजेन्द्र यादव की नाक का बाल बने एक दलित कथाकार के विरोध के कारण
दोनों लेखकों के आलेख रोके गए थे, जिसकी इंडिया
टुडे में प्रकाशित एक कहानी की तीखी आलोचना डॉ. तेज सिंह ने की थी.

डॉ. तेज सिंह ने अनेक पुस्तकें लिखीं, जिनमें प्रमुख हैं –’नागार्जुन का कथा-साहित्य’, ’राष्ट्रीय आन्दोलन और हिन्दी उपन्यास’, ’आज का दलित साहित्य’, ’उत्तरशती की कहानी’, ’दलित समाज और संस्कृति’,  ’प्रेमचन्द और रंगभूमि: एक विवाद-एक संवाद’, ’अंबेडकरवादी विचारधारा और समाज’, ’अंबेडकरवादी साहित्य का समाजशास्त्र’, ’अंबेडकरवादी कहानी: रचना और दृष्टि’ (सम्पादन), ’अंबेडकरवादी स्त्री चिंतन’ (सम्पादन). इन पुस्तकों के अतिरिक्त उनकी अनेक पुस्तकें प्रकाशनीधीन हैं और अन्य अनेक का उन्होंने सम्पादन किया था.

कुछ लेखक डॉ. तेज सिंह से इस बात से भी खफा थे कि वह उनके आत्मकथा लेखन का विरोध करते थे. डॉ. सिंह का कहना था कि आत्मकथा लिखने से पहले रचनाकारों को उन विधाओं पर जमकर सार्थक लेखन करना चाहिए, जिनमें वह अपनी रचनात्मक क्षमता का उपयोग कर सकते हैं. उनका यह भी मानना था कि एक आत्मकथा कई उपन्यासों को जन्म दे सकती है. इसके अतिरिक्त वह आत्मकथाओं के सतहीपन को लेकर भी परेशान रहते थे और उनकी आलोचना का यही मुख्य कारण था. लेकिन उनकी नेक सलाह को मानना तो दूर लोग उनके विरुद्ध हो गए थे. उनका विरोध एक और कारण से भी होने लगा था. ’अपेक्षानिकालने के कुछ दिनों पश्चात ही उन्होंने दलित लेखकों के साहित्य को लेकर एक नई अवधारणा प्रस्तुत की थी. वह मानने लगे थे किदलित साहित्यके बजाए उसे आम्बेदकरवादी साहित्य माना जाए उसी प्रकार जैसे गांधीवादी साहित्य या मार्क्सवादी साहित्य. अपने तर्क के समर्थन में उन्होंने लंबे-लंबे आलेख लिखे और अपने मित्रो से लिखवाए भी. उनके वे आलेख पुस्तकों  के रूप में प्रकाशित हुए. जितना ही वह अपने विचार को दृढ़ता के साथ प्रस्तुत कर रहे थे उतना ही उनके विरोधियों की संख्या बढ़ती जा रही थी. लोगदलित साहित्यसे बाहर निकलने को तैयार नहीं थे.

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डॉ. तेज सिंह इस बात से बेहद आहत रहते थे कि दलित साहित्यकार खेमो में बट गए थे और वे खेमे जातिवादी आधार पर बन गए थे. इसे वे साहित्य की प्रगति में एक बड़ी बाधा के रूप में देखते थे. वे  दिन-रात साहित्य के
विषय में ---उसके विकास के विषय में ही सोचते थे. वह सस्ती लोकप्रियता के पीछे दौड़ने के विरुद्ध थे और दलित लेखकों को अधिकाधिक अध्ययनशील होने के लिए प्रेरित करते रहते थे.  मैंने उन्हें सदैव लोगों के हित के विषय में ही सोचते और बात करते पाया. अपने विरोधियों को लेकर उनके मन में कोई कटुता थी ऎसा मैंने कभी अनुभव नहीं किया. वह साफ-सुथरे और निर्छद्म व्यक्ति थे.  जब भी मिलते हंसकर ---बल्कि दूर से ही हंसते हुए तेज कदमों से चलकर निकट आते और हाथ मिलाते…”और कैसे हैं?” यह उनका पहला वाक्य होता था. और यह सभी के साथ था. अपने स्वास्थ्य के प्रति वह बेहद जागरूक थे. रात दस बजे बिस्तर पर चले जाते थे और सुबह चार या पांच बजे उठकर टहलना और व्यायाम करना उनका नियम था.  घर में होते तो दोपहर एक-डेढ़ घण्टा विश्राम करते. कोई ऎबयथा स्मोक-ड्रिंक जैसी कोई आदत उनमें नहीं थी. बहुत ही सादा जीवन था उनका. अपने विषय में उनका कथन था, “मैं १०१ पार कर जाउंगा.” लेकिन शरीर के अंदर क्या चल रहा है, समझना कठिन है.

जब से उन्होंने वैशाली में मकान लिया और वहां शिफ्ट हुए हमारी मुलाकातें काफी अंतराल से होने लगी थीं.  दिल्ली विश्वविद्यालय इस घर से आठ किलोमीटर दूर है.  जब भी मिलने का मन करता उनसे समय तय कर लेता और विश्वविद्यालय पहुंच जाता. लेकिन जब उन्होंने अवकाश ग्रहण किया वह सिलसिला भी थम गया. अब हम गाहे-बगाए ही मिलने लगे थे. हमारी अंतिम मुलाकात  मेरी बेटी की शादी के वक्त २४ फरवरी,२०१४ को हुई थी, जब वह भाभी जी के साथ उसमें शामिल होने के लिए आए थे.

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  जुलाई,१४ को मैं कनॉट प्लेस जा रहा था. अचानक मन में आया कि डॉक्टर साहब को पूछ लूं, यदि तैयार हो गए तो मिलना हो जाएगा. मैंने लगभग दस बजे उन्हें मोबाइल पर फोन किया. वह मेट्रो में थे और विश्वविद्यालय जा रहे थे. मैंने अपना प्रस्ताव बताया. उन्होंने पूछा, “और कौन रहा है?” मैंने कहा, “सुभाष नीरव”. एक क्षण की चुप्पी के बाद कुछ सोचकर बोले, “पत्नी घर में अकेली हैं---आप तो जानते ही हैं कि उनका स्वास्थ्य सही नहीं….विश्वविद्यालय से सीधे घर जाउंगा. किसी और दिन रख लेंगे.” उनके साथ वह मेरा अंतिम संवाद था.

१५ जुलाई को तीन मित्रो से सुबह ग्यारह बजे कनॉट प्लेस में मिलने का कार्यक्रम था. पन्द्रह को सुबह से दोपहर तक मैं उन्हें फोन करने की उहा-पोह में रहा. कनॉट प्लेस में सुबह के समय वह कभी मिलने नहीं आए थे. मैंने मन में यहां तक तय किया कि यदि वह शाम चार बजे भी आने के लिए तैयार हो जाएगें तो मैं उन तीन मित्रो से मिलने के बाद का शेष समय कॉफी होम में बैठकर काट लूंगा. लेकिन गर्मी में तीन घण्टे काटना आसान समझ मैंने उन्हें फोन करने का विचार त्याग दिया. यदि फोन कर लेता तो कम से कम अंतिम बार उनकी आवाज तो सुन ही लेता.

उसी रात दस बजे पता चला कि अपरान्ह तीन बजे डॉ. तेज सिंह का निधन हो गया था. मैं हत्प्रभ था अपने इस मित्र के असामयिक निधन के उस समाचार से. जानकारी जुटाई तो पता चला कि अंत्येष्टि १६ सुबह  साढ़े नौ बजे होगी.  मैंने सुभाष नीरव और अरविन्द कुमार सिंह को बताया. हम तीनों  ठीक साढ़े नौ बजे जब अंत्येष्टि स्थल पहुंचे, चिता जल रही थी. गंगानिया जी ने बताया वे लोग नौ बजे वहां पहुंच गए थे. चूंकि डॉक्टर साहब की मृत्यु १५ जुलाई को दोपहर तीन बजे हुई थी, अतः उनके पार्थिव शरीर को लोगों के दर्शनार्थ  रखना उचित नहीं समझा गया था. शास्त्रोक्त परम्पराओं के वह विरोधी थे इसलिए उसमें भी समय नष्ट नहीं किया गया था.

१३ जुलाई,१९४६ को जन्में अपने इस अभिन्न मित्र को खोने का जितना दुख मुझे है उतना ही दुख मुझे इस बात का है कि मैं समय से पहुंच पाने के कारण उनके अंतिम दर्शन नहीं कर पाया. रात उनकी मृत्यु के समाचार से मैं रात भर जागता रहा था और उनकी उस निर्छद्म हंसी के विषय में ही सोचता रहा था कि अब वह हंसी सदा के लिए हमारे बीच से विलुप्त हो गयी है----फिर सोचा था कि पार्थिव रूप से वह हमारे बीच भले ही नहीं हैं लेकिन उनका लेखन तब तक जीवित रहेगा जब तक साहित्य में अंबेडकरवादी साहित्य रहेगा. 

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