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मंगलवार, 1 दिसंबर 2009

यादों की लकीरें



संस्मरण


विनष्ट होना एक प्रतिभा का


रूपसिंह चन्देल

उनकी लापरवाही कहें या सोची-समझी आत्मघाती जिद , लेकिन उससे हिन्दी ने न केवल एक प्रतिभाशाली लेखक बल्कि एक प्रखर पत्रकार खो दिया . बात रमेश बतरा की है . रमेश से मेरी मुलाकात 1984 में हुई थी . वह सारिका में उपसम्पादक थे और 10 , दरियागंज , नई दिल्ली में बैठते थे , जहां सारिका , दिनमान और पराग के कार्यालय भी थे . सारिका कार्यालय जाने का मेरा सिलसिला 1982 के आसपास प्रारंभ हुआ था . तब मेरा परिचय केवल बलराम से था और महीना -दो महीने में कंधे पर जूट का थैला लटकाए ( जिसका उन दिनों फैशन था ) मैं सारिका जा पहुंचता और कुछ देर बलराम के सामने पड़ी कुर्सी पर बैठता और बलराम को काम करते या किसी से बतियाते देखता रहता . यदि मैं एक घण्टा वहां बैठता तो बलराम से नहीं के बराबर ही बात होती. कारण मैं भलीभांति समझता था. तब तक मेरा कोई साहित्यिक वजूद नहीं था और न ही मैं इस स्थिति में था कि किसी को कोई बड़ा क्या छोटा लाभ ही पहुंचा सकता . साहित्य में ऐसी स्थितियां सदैव रहीं लेकिन आठवेंं दशक में उनका विकास हुआ और आज वह सब चरम पर है ।

1984 तक सारिका में मेरी केवल एक -दो लघुकथाएं ही प्रकाशित हुई थीं । कहानियां सखेद लौटती रही थीं । उसमें मेरी केवल एक ही लंबी कहानी 'पापी' उपन्यासिका के रूप में मई 1990 में प्रकाशित हुई . उसके बाद सारिका बंद हो गयी थी .

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रमेश बत्तरा से सुभाष नीरव का गहन परिचय तब तक स्थापित हो चुका था. मेरा पहला कहानी संग्रह ‘पेरिस की दो कब्रें’ 1984 में किताबघर से प्रकाशित हुआ . सारिका में जिन दो लोगों को मैंने संग्रह दिया , वे बलराम और रमेश बतरा थे . रमेश से तभी परिचय हुआ , और उस परिचय के लिए मुझे सुभाष नीरव के परिचय का सहारा लेना पड़ा था .

बतरा से परिचय होने के बाद मैं जब भी सारिका जाता उन्हीं के पास बैठता । उन दिनों वहां के

सम्पादकीय विभाग में लेखकों का आवागमन लगा रहता था । मेरा जाना प्राय: शनिवार को होता और मुझ जैसे कुछ अन्य सरकारी बाबू लेखकों के लिए भी वही दिन सुविधाजनक होता था और उनके पत्र-पत्रिकाओं के कार्यालय जाने के पीछे वहां कार्यरत लोगों से याराना निभाने से अधिक अपनी रचना के लिए उनकी दृष्टि में बने रहने का भाव ही अधिक होता था और निश्चित ही मेरे मन में भी यह नहीं था यह कहना हकीकत से मुंह चुराना होगा . गाहे-बगाहे लेखक अपने परिचित उप-सम्पादक को वहां विचारार्थ पड़ी अपनी कहानी की याद भी दिलाते और मुझे याद है कि परिचय के बाद मैंने भी रमेश बतरा से अपनी एक कहानी की बाबत पूछा था और पान की पीक हलक से नीचे उतारते हुए मुंह ऊपर उठा मुस्कराते हुए बतरा ने कहा था ,''पता करूंगा .''

और सारिका में रहते उन्होंने शायद ही कभी मेरी कहानी के विषय में पता किया और आज मैं समझ सकता हूं कि वह इतना सहज भी न था । कहानी कहानियों के अंबार में किसके पास थी , कैसे पता चल सकता था । सारिका में कहानियों के विलंबित होने का चौदह वर्षों का रिकार्ड दर्ज है ।

लेकिन सभी लेखकों को लंबी प्रतीक्षा नहीं करनी पड़ती थी । मेरे कुछ समकालीन ऐसे थे, सारिका में जिनका विशेष खयाल रखा जाता था और जब वे कंधे पर जींस का थैला लटकाए वहां के सम्पादकीय हॉल में प्रवेश करते किसी हीरो की भांति उनका स्वागत किया जाता , लेकिन उस स्वागत में रमेश बतरा का स्वर शामिल नहीं होता था . यहां यह बताना अनुचित नहीं कि सारिका के उन दिनों के वे हीरो लेखक आज कहीं नहीं हैं . वे अपनी रचनाओं की उत्कृष्टता के बल पर नहीं छपते थे (रचनाएं ऐसी थी भी नहीं ) , छपते थे अपने संपर्कों के कारण . खैर यह इतर प्रसंग है जिस पर फिर कभी लिखा जाएगा .

रमेश बतरा का व्यवहार सभी के साथ समान होता । पहचान के लिए भटकते मुझ जैसे युवक के साथ वह जितनी बात करते , दूसरों से भी उससे अधिक नहीं करते थे . रमेश की कम बोलने की आदत थी… कम श्ब्दों में , लेकिन सार्थक , बात कहते .

पान के वह शौकीन थे . लेकिन शराब के भी थे , मुझे जानकारी नहीं थी . मैं केवल इतना ही जानता था कि आधुनिक लुघुकथा विधा को आंदोलन का रूप देने में उस व्यक्ति की अहम भूमिका थी . रमेश की पहल पर ही उनके सम्पादन में जालंधर से मिकलने वाली 'तारिका ' का लघुकथा विशेषांक प्रकाशित हुआ था और पहली बार किसी पत्रिका ने यह कार्य किया था . सारिका में रहते हुए उसमें लघुकथाओं के प्रकाशन की रूपरेखा तय करने में रमेश बतरा की भूमिका को समझा जा सकता है . सारिका के लघुकथा विशेषांकों ने इस विधा के अनेक लेखक तैयार किए और उन सभी के संपर्क रमेश बतरा से थे , जिन्हें वे अपने लिए प्ररणा श्रोत मानते थे . लघुकथाकारों के प्रति रमेश के हृदय में एक विशेष भाव था . अनुमान लगाया जा सकता है कि वह इस विधा के विकास के प्रति कितना समर्पित थे . वह स्वयं एक सशक्त लघुकथाकार थे लेकिन उन्होंने अनेक उल्लेखनीय कहानियां भी लिखीं थीं . सारिका से नवभारत टाइम्स में जाने से पूर्व उन्होंने मुझसे जिक्र किया कि वह एक उपन्यास लिखने की योजना बना रहे हैं , लेकिन वह उसे लिख नहीं सके थे .

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कमलेश्वर के बाद कन्हैयालाल नंदन सारिका के सम्पादक बने थे । बाद में नंदन जी ने सारिका के साथ-साथ दिनमान और पराग का कार्यभार भी संभाला . उन दिनों पत्रकारिता की दुनिया में कन्हैयालाल नंदन एक चमकता हुआ सितारा थे . लेकिन कुछ वर्षों में ही स्थिति ऐसी बदली कि उन्हें केवल नवभारत टाइम्स के रविवासरीय के प्रभारी के रूप में ही कार्य करना पड़ा . अब वह 10 , दरियागंज के बजाय बहादुरशाह ज़फरमार्ग स्थित टाइम्स ऑफ इंडिया बिल्डिगं में बैठने लगे थे . रमेश बतरा भी नंदन जी के साथ नवभारत टाइम्स में शिफ्ट हो गए थे . रमेश से मिलने मैं कभी-कभी वहां जाने लगा था .

मैंने नवभारत टाइम्स के रविवासरीय संस्करण में प्रकाशनार्थ एक कहानी भेजी । लगभग छ: महीने बीत गए . एक दिन रमेश को कहानी की याद दिलाई . बोले , ''नंदन जी के पास है . छप जाएगी .'' कुछ देर बाद उन्होंने उठते हुए कहा , ''चल तुझे पान खिलाऊं '' पनवाड़ी की दुकान तक जाते हुए गंभीर स्वर में उन्होंने कहा , ''चंदेल , एक बात कहूं.....?''

''हां....''
''अखबारों में कहानी प्रकाशित करवाने का मोह त्याग दो ....''
''क्यों ?''
''क्योंकि जिन्दगीभर तुम अखबार में छपते रहोगे तब भी कहानीकार की पहचान नहीं मिलेगी ।बेहतर होगा कि लघुपत्रिकाओं में प्रकाशित हो .''

मैंने रमेश की बात पर गंभीरता-पूर्वक विचार किया और इस निष्कर्ष पर पहुंचा कि रमेश ने ठीक कहा था ।

रमेश बतरा ने 1989 में स्कूटर खरीदा सौ सी।सी. का . उसे लेकर वह बहुत दुखी थे . दुख था कि किसी को पीछे बैठा लेने पर पुल की चढ़ाई पर स्कूटर हांफता हुए खड़ा हो जाता था . सोचिए जब पत्नी जया रावत को बैठाकर वह चलते होगें और पुल की चढ़ाई पर स्कूटर खड़ा हो जाता होगा तब उनपर क्या बीतती होगी . एस.पी. पिता की बेटी जया को रमेश के हिचक-हिचक कर चलने वाले स्कूटर से कोफ्त अवश्य होती होगी . उन्हीं दिनों उन्होंने एक पत्रिका निकालने की योजना बनाई - हिन्दी-पंजाबी की संयुक्त पत्रिका निकालना चाहते थे वह . मित्रों से सहयोग लेना प्रारंभ किया . नीरव को रसीद बुक भी पकड़ा दी . कम से कम सौ रुयए की राशि देनी थी जो बिना रसीद ही मैं उन्हें दे आया था . एक दिन उन्होंने बताया कि लगभग छ: हजार रुयए एकत्रित हो गए हैं . अब वह रचनाएं मंगाएंगें और पत्रिका छ: महीनों के अंदर पत्रिका हमारे हाथ में होगी . लेकिन वह सब होता उससे पहले ही वह टाइम्स ऑफ इंडिया छोड़ नंदन जी के साथ सण्डेमेल में सहायक सम्पादक होकर चले गए थे . नंदन जी सण्डेमेल के सम्पादक थे .

बाद में मित्रों ने बताया कि पत्रिका के लिए एकत्रित धनराशि उन्होंने खर्च कर दी थी ।

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सण्डेमेल में उनसे मेरी दो मुलाकातें ही हुई । एक तब जब एक साथ प्रकाशित अपने दो कहानी संग्रह - 'हारा हुआ आदमी ' (पारुल प्रकाशन) और 'आदमखोर तथा अन्य कहानियां ' (पराग प्रकाशन ) उन्हें सण्डेमेल में समीक्षार्थ देने गया था और दोबारा कुछ दिनों बाद ही तब जब अपने द्वारा सम्पादित लघुकथा संकलन 'प्रकारांतर' की प्रति नंदन जी को भेंट करने गया , क्योंकि जिन तीन साहित्यकारों को संकलन समर्पित था उनमें नंदन जी एक थे . उसके बाद वर्षों रमेश से मेरी मुलाकात नहीं हुई . सुभाष नीरव से उनके समाचार मिलते रहते , क्योंकि दोनों के पारिवारिक संबन्ध थे और सुभाष उनसे दफ्तर में कम घर ही अधिक मिलते थे . सुभाष को या तो पता नहीं था या उन्होंने जिक्र करना उचित नहीं समझा .... रमेश और उनकी पत्नी के बीच पटरी बैठ नहीं पा रही थी . कारण जो भी रहा हो .... रमेश तनाव में रहने लगे , और पीने की मात्रा बढ़ गयी . कुछ मित्रों के अनुसार वह सण्डेमेल कार्यालय में भी पीने लगे थे और वहां से उनके हटने के कारणों में शायद यह भी एक रहा होगा .

सण्डे मेल से नौकरी छूटने और तनावपूर्ण पारिवारिक स्थितियों के कारण रमेश ने शायद अपने को तबाह (Ruin) कर लेने की ठान ली थी । एक प्रतिभा का इस प्रकार विनष्ट होना दुर्भाग्यपूर्ण था . ऐसी स्थिति में मित्र बिखरने लगते हैं . इस सबका जो दुष्परिणाम होना था.... हुआ ..... रमेश का स्वास्थ्य चौपट हो गया . शरीर में अनेक बीमारियों ने घोसला बना लिया . गुर्दे खराब हो गए और एक दिन उन्हें अस्पताल के हवाले होना पड़ा . नियमित उन्हें अस्पताल देखने जाने वालों में कमलेश्वर थे , जिन्होंने डाक्टरों से कहा था , ''रमेश का ऑपरेशन आवश्यक है तो आप करें डाक्टर ..... पैसों की परवाह न करें . जितना पैसा खर्च होगा मैं दूंगा .'' यह बात कमलेश्वर जैसा मानवीय सरोकारों से युक्त कोई दिलेर व्यक्ति ही कह सकता था . अनुमान लगया जा सकता है कि अपने साथ काम करने वालों को कमलेश्वर कितना प्रेम करते थे . रमेश ने मुम्बई में सारिका में कमलेश्वर जी के साथ काम किया था . लेकिन रमेश बतरा की स्थिति इतनी खराब थी कि ऑपरेशन के बाद भी डाक्टरों को उनके बचने की आशा न थी .

अंतत: 15 मार्च , 1999 को रमेश बतरा इस संसार को अलविदा कह गए थे । हिन्दी कथा-साहित्य का एक स्तंभ गिर गया था . कहानीकार के रूप में आलोचक अब उन्हें भूल चुके हैं , लेकिन लघुकथाकारों ने आधुनिक लघुकथारों के बीच उन्हें शीर्ष स्थान पर अवस्थित कर रखा है और मुझे विश्वास है कि वहां उनका स्थान सदा के लिए सुरक्षित रहेगा . जहां तक कहानी की बात है , आज रमेश की कहानियों की उपेक्षा करने वाले आलोचक उनके सारिका में रहने के दौरान उनके नाम और कहानियों की माला जपते थे . इससे हिन्दी आलोचना के दोगलेपन को समझा जा सकता है .

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रमेश बतरा की मृत्यु के बाद मित्रों ने साहित्य अकादमी में उनकी शोक सभा के आयेजन का कार्यक्रम तय किया और अकादमी प्रशासन से हॉल के लिए अनुरोध किया , लेकिन साहित्य अकादमी ने बहुत ही बेरुखी के साथ हॉल देने से इंकार कर दिया था । प्रशासन ने हॉल देने से इंकार किया लेकिन साहित्यकारों-पत्रकारों को साहित्य अकादमी अपने लॉन में शोक सभा करने से रोक नहीं सकी . 18 मार्च 1999 को शायं चार बजे बड़ी संख्या में वहां एकत्र होकर पत्रकारों और साहित्यकारों ने रमेश बतरा को श्रद्धांजलि दी थी .

उस दिन साहित्यिक सरोकारों और साहित्यकारों के लिए समर्पित रहने की बात करने वाली साहित्य अकादमी का जो चरित्र प्रकट हुआ पतन की ओर उसके बढ़ते कदमों का वह एक प्रमाण था ।

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सोमवार, 16 नवंबर 2009

यादों की लकीरें


संस्मरण
रमाकांत जी ने एक सपना देखा था
रूपसिंह चन्देल
उनसे मेरी पहली मुलाकात 1982 में गर्मियों के किसी महीने हुई थी . उन दिनों प्रत्येक माह दूसरे शनिवार को मेरे कार्यालय में अवकाश होता था . उस अवकाश के दिन दोपहर बाद कंधे पर थैला लटका मैं प्रायः परिचितों से मिलने के लिए निकल पड़ता . तब परिचय का दायरा छोटा था , लेकिन धीरे -धीरे बढ़ रहा था . परिचितों से मिलता हुआ मैं काफी हाउस अवश्य जाता . विष्णु प्रभाकर वहां नियमित जाते थे . नियमित जाने वालों में कुछ अन्य साहित्यकार भी थे .
मोहन सिंह प्लेस की सीढि़यां चढ़कर गर्मी के उस दिन जब मैं वहां पहुंचा छः बज चुके थे . दरवाजे के ठीक सामने खुली छत पर विष्णु जी चार-पांच लोगों से घिरे हुए बैठे थे . दो मेजों को मिला दिया गया था , जिससे अन्य आने वाले लोगों के लिए जगह बन सके . विष्णु जी के साथ जो लोग थे उनमें वे भी थे . मध्यम कद , चैड़ा मुस्कराता चेहरा , खिली आंखें और पीछे की ओर ऊंछे घने पाके-अधपके बाल . विष्णु जी से मेरी मु्लाकात काफी हाउस की ही थी . परिचय इतना ही कि वह मेरा चेहरा पहचानने लगे थे . हालांकि कुछ दिनों बाद अर्थात सितम्बर 1982 में ‘बाल साहित्य समीक्षा’ के अतिथि सम्पादन का कार्य करते हुए मैं उनके पर्याप्त निकट हो गया था . कुछ दिनों बाद इस पत्रिका के उन पर केन्द्रित विशेषांक का भी मैं अतिथि संपादक था . संयोगतः उस दिन मैं वि्ष्णु जी के बगल में बैठा था . विष्णु जी ने उनकी ओर इशारा करते हुए पूछा , ‘‘ आप इन्हें जानते हैं ?’’
मैं चुप उनकी ओर देखता रहा . विष्णु जी ने मेरी द्विविधा समझी और बोले , ‘‘आप कथाकार रमाकांत हैं.........’’
और विष्णु जी मेरे बारे में कुछ कहते , इससे पहले ही मैंने रमाकांत जी को अपना परिचय दे देया . रमाकांत जी ‘अच्छा.... अच्छा.....’वहां उपस्थित लोगों के साथ पुनः वार्तालाप में करने लगे थे . लोगों के आने का सिलसिला जारी था और आध घण्टा में दोनों मेजें कम पड़ने लगी थीं . अन्य लोगों के आने के बाद ‘‘अब मैं कुछ देर उधर बैठूंगा ....’’ कहते हुए रमाकांत जी उठे और काफी हाउस की छत में दक्षिण की ओर की गलियारानुमा जगह की ओर चले गए . यह मुझे बाद में पता चला कि उस गलियारे में जनवादी-मा्र्क्सवादी लोग बैठते थे . उनमें से कुछ इधर-उधर ”शिफ्ट होते रहते थे , जिनमें रमाकांत , राजकुमार सैनी , रमेश उपाध्याय , कांति मोहन , “श्याम कश्यप आदि थे .... लेकिन कुछ लोग ऐसे भी थे जो विष्णु जी की मंडली की ओर देखते भी न थे . वे सीढि़यां चढ़ दरवाजे पर कुछ देर खड़े होकर अपने लोगों का जायजा लेते , फिर दाहिनी ओर गलियारे की ओर मुड़ जाते . वे अपने को महान क्रांतिकारी रचनाकार मानते थे . लेकिन इसे विडबंना ही कहेंगे कि कल के क्रांतिकारी आज पूंजीवादी हो गए हैं , हालांकि वे अंदर से तब भी पूंजीवादी - सामंतवादी ही थे और आज पूंजीवादी होकर भी पूंजीवाद का विरोध करते दिख जाते हैं . दरअसल उनका यह विरोध ही उनकी सुविधा-सम्पन्नता का आधार है . लेकिन रमाकांत जी इन सबसे भिन्न थे . उनके जीवन और व्यवहार में कोई अंतर नहीं था . मार्क्सवादी होते हुए भी वह छद्म मार्क्सवादियों के विरोधी थे . सत्ता और सुख के पीछे दौड़ने वाले व्यक्ति वह नहीं थे . यही कारण है कि उन्होंने ‘सोवियत भूमि’ पत्रिका की अच्छी खासी नौकरी छोड़ दी थी , जबकि एक बड़े परिवार का दायित्व उनपर था . बहरहाल , काफी हाउस में महीने में एक बार रमाकांत जी से मेरी मुलाकात हो जाया करती . तभी मुझे ज्ञात हुआ कि वह सादतपुर में रहते थे . यद्यपि इस जगह का नाम मैंने अपने गाजियाबाद निवास के दौरान 1979-80 में सुना था . उन दिनों तक कई साहित्यकार यहां आकर बस चुके थे . यहां को लेकर तभी मन में उत्सुकता जाग्रत हुई थी . रमाकांत जी के यहां रहने की जानकारी के बाद मुझे लगा कि मुझे एक बार जाकर इस स्थान को देखना चाहिए . लेकिन लंबे समय तक यह संभव नहीं हुआ . यहां जमीन सस्ती होने की बात सुनता तो यहां जमीन का छोटा-सा टुकड़ा खरीद लेने की इच्छा प्रबल हो उठती लेकिन अंततः बात आई गई हो जाती . अगस्त 1985 में एक दिन सारिका में बलराम और वीरेन्द्र जैन को आपस में सादतपुर जाने की चर्चा करते सुना . ज्ञात हुआ कि वे दोनों यहां अपने मकान बनवा रहे थे और दफ्तर से जल्दी निकलकर काम देखने जाना चाहते थे . इन दोनों से प्रेरित होकर 20 सितम्बर 1985 को मैंने यहां जमीन का एक टुकड़ा खरीद लिया और यहां आने जाने की परेशानियां समझ मकान बनाकर आ बसने का विचार त्याग दिया .

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लेकिन मही्ने में एक बार मैं सादतपुर घूम जाता यह देखने के लिए कि प्लाट पर किसी ने कब्जा तो नहीं कर लिया . आता और चला जाता .....कभी-किसी से मिल नहीं पाता . प्लाट सुरक्षित देखता और उल्टे पैर वापस लौट लेता . अंततः बहुत उहा-पोह के बाद 9 अप्रैल 1988 को प्लाट का पीछे का आधा भाग बनवाना प्रारंभ किया और तब लंबी छुट्टियां लेकर मुझे यहां रहना पड़ा . सुबह सात बजे तक मैं सादतपुर पहुंच जाता और रात 8 बजे तक रहता . काम कछुआ की गति से चलता क्योंकि ठेकेदार शराबी था और मजदूर लगाकर वह कई-कई दिनों के लिए गायब हो जाता था . मजदूरों से कह देता बाबू जी से पैसे ले लेना . उन्हीं दिनों रामकुमार कृषक अपना मकान बनवा रहे थे . कुछ दिनों बाद मेरे पड़ोस में महेश दर्पण ने बनवाना प्रारंभ किया था . कृषक जी की स्थिति मेरी तरह थी . काम देखने के लिए वह त्रिनगर से आते और सारा दिन यहां रहते . दिन का कुछ समय हम साथ बिताते ........ लेकिन कितना .... जब वह न होते मैं रमाकांत जी के पास जा बैठता . घण्टों मैं उनके साथ रहता ... साहित्य से लेकर राजनीति तक ... विभिन्न विषय पर चर्चा होती . उन दिनों वह अपना अंतिम उपन्यास ‘जुलूस वाला आदमी ’ लिख रहे थे . उनका पहला उपन्यास ‘छोटे-छोटे महायुद्ध ’ चर्चित रहा था . हंस में प्रकाशित उनकी कहानी ‘कार्लो हब्सी का संदूक ’ उसी प्रकार उनके नाम का पर्याय बन गयी थी जिसप्रकार ‘उसने कहा था ’ चन्द्रधर शर्मा गुलेरी के नाम का पर्याय बनी . रमाकांत जी उन दिनों स्थानीय समस्याओं पर केन्द्रित एक अखबार भी निकाल रहे थे . किसी दिन जब मैं उनके यहां न जा पाता और शाम शक्तिनगर (11 अक्टूबर , 1980 से 2 अगस्त , 2003 तक मैं वहां किराये पर रहा ) लौटने के लिए सईद मियां की सैलून के सामने बस पकड़ने के लिए खड़ा होता , रमाकांत जी सईद के पास बैठे नजर आते . वहीं से पूछते , ‘‘आज कहां रहे ?’’
सिगरेट उनकी कमजोरी थी . प्रायः मैं उनके मुंह में सिगरेट दबी देखता . 1988 के आसपास उनका काफी हाउस जाना कम हुआ था और शाम प्रायः वह सईद की दुकान में बैठे दिखाई देते थे . इससे पहले वह नियमित काफी हाउस जाया करते थे और देर रात तक वहां बैठते थे बावजूद यह जानते हुए कि सादतपुर पहुंचने के साघन अत्यल्प थे .
उन्हीं दिनों बातचीत में एक दिन उन्होंने बताया कि 1972 में जब उन्होंने सादतपुर में बसने का निर्णय किया तब दूर-दूर तक खेत फैले हुए थे .

उनके बाद 1973 में विष्णु चन्द्र शर्मा यहां आए .
विष्णु चंद्र शर्मा जी को सादतपुर आ बसने की प्रेरणा रमाकांत जी ने ही दी थी . दरअसल सादतपुर को लेकर रमाकांत जी ने एक सपना देखा था . वह इसे साहित्यकारों की बस्ती के रूप में बसा हुआ देखना चाहते थे . काफी हद तक उनकी चाहत पूरी भी हुई . विष्णु चन्द्र शर्मा के बाद महेश दर्पण , सुरेश सलिल , स्व. डा0 माहेश्वर , लेखक-चित्रकार हरिपाल त्यागी , बाबा नागार्जुन , वीरेन्द्र जैन , बलराम , रामकुमार कृषक , धीरेन्द्र अस्थाना , अरविन्द सिंह , सुरेन्द्र जोशी, अजेय सिंह , हीरालाल नागर , सय्यद शहरोज , रामनारायण स्वामी , रामजी यादव , राधेश्याम तिवारी आदि लोग आए . लेकिन इनमें कुछ लोग निजी कारणों से यहां से चले गए . दिल्ली विश्वविद्यालय के कुछ प्राध्यापकों ने भी यहां प्लाट खरीदे , जिन्हें उन्होंने बेच दिए थे .
रमाकांत जी ने जो सपना देखा उसे उन्होंने अपने जीवन में पूरा होते भी देखा . देश के दूरस्थ स्थानों से ही नहीं विदेशों में रहने वाले साहित्यकारों के लिए यह जगह आकर्षण का केन्द्र बन गई थी और लोग यहां बसे साहित्यकारों से मिलने आते .....हफ्तों ठहरते और उनके सम्मान में यहां गोष्ठियों का आयोजन होता . एक सौहार्दपूर्ण वातावरण था . हालांकि आज स्थिति वह नहीं है . अब यहां केवल साहित्यकार ही नहीं हर पेशे के लोग आकर बस गये हैं . 1995 के बाद आए लोगों में अधिकांश पैसे के पीछे दौड़ने वाले लोग हैं या उद्दण्ड और संस्कारहीन . अर्द्धशिक्षितों की संख्या अधिक है और उसका लाभ कर्मकांडी पंडितों-पुरोहितों को मिल रहा है . हर दूसरी गली में एक हनुमान मंदिर है और सप्ताह के पांच दिन किसी न किसी के घर अखंड-पाठ या भागवत प्रवचन होता रहता है . सुबह पांच बजे से लाउडस्पीकर में इन पंडितों की आवाजें गूंजने लगती हैं , जो संस्कृत के श्लोंकों के अशुद्ध उच्चारण द्वारा लोगों को प्रभावित कर धन और प्रंशसा बटोर रहे होते हैं . यह सिलसिला रात देर थमता है . एक बार महेश दर्पण ने बताया कि यहां के ए ब्लाक में जो हनुमान मंदिर है वहां पुस्तकालय बनना था , लेकिन प्लाट का मालिक पंडितों से प्रभावित था अतः उसने पुस्तकालय के बजाए धरती का वह टुकड़ा मंदिर के लिए दे दिया .
अब यहां साहित्यकार अल्पसंख्यक हो गए हैं और उनकी स्थिति वही है जो धर्मान्ध-कट्टर लोगों के बीच अल्पसंख्यकों की होती है .
रमाकांत जी ने ऐसे सादतपुर का सपना शायद नहीं देखा था !

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सितम्बर के प्रारंभ में वह अस्वस्थ होकर अस्पताल में थे . मैं मिलने गया . बहुत धीमे बोल रहे थे . बात करते करते उनकी आंखें पनिया आयीं . उसके बाद वह बोले नहीं सके थे .
‘‘आप ठीक हो जाएगें ....... अधिक नहीं सोचते ’’ मैंने ऐसा ही कुछ कहा था . कुछ और साहित्यकार उनसे मिलने - देखने आ गए तो ‘‘फिर आऊंगा ’’ कह उनसे विदा लेकर चला आया था . दूसरे दिन रात ग्यारह बजे कानपुर से फोन मिला कि मेरी मां गंभीर रूप से बीमार हैं . सुबह शताब्दी एक्सप्रेस से मैं कानपुर चला गया . सात सितम्बर को लौटा , लेकिन 6 सितम्बर , 1991 को रमाकांत जी का देहावसान हो हो चुका था .
गत वर्ष ग्यारहवें रमाकांत स्मृति पुरस्कार कार्यक्रम की समाप्ति के बाद कवि-आलोचक राजकुमार सैनी को जब यह ज्ञात हुआ कि मैं सादतपुर में रहता हूं तब वह बोले , ‘‘ भाई चन्देल , आप बहुत भाग्यशाली हैं .’’
‘‘कैसे ?’’
‘‘आप साहित्यकारों के बीच रहते हैं . रमाकांत जी ने कितनी ही बार मुझे सादतपुर में प्लाट खरीदने के लिए कहा , लेकिन मैं ले नहीं पाया ..... अब द्वारका के फ्लैट में लटका रहता हूं , जहां किसी साहित्यकार की छाया भी नहीं दिखती .’’
मैं उनकी पीड़ा समझ सकता था . आज पंडितों-पुरोहितों और संस्कारहीन लोगों के आतंक के नीचे भले ही रमाकांत जी का सपना तड़फड़ा रहा हो और यहां के पत्रकार-साहित्यकार कुछ भी कर पाने में अपने को असमर्थ पा रहे हों , लेकिन यह सुख तो हमें मिला हुआ है ही कि भले ही अब नियमित नहीं लेकिन जब-तब हम एक-दूसरे से मिल लेते हैं . एक-दूसरे की रचनाओं पर विचार-विमर्श भी हो जाया करता है .
रमाकांत जी का शायद यही वास्तविक सपना था .
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शनिवार, 31 अक्तूबर 2009

संस्मरण/ श्रद्धांजलि



(चित्र डॉ० अवधेश मिश्र )

वह मेरे पथ-बंधु

रूपसिंह चन्देल

वह साहित्यकार नहीं थे , लेकिन साहित्यकार परिवार से थे । आचार्य शुक्ल से पूर्व हिन्दी साहित्य का इतिहास लिखने वाले ‘मिश्र बंन्धुओं’ में से वह एक भाई के प्रपौत्र और साहित्य-मर्मज्ञ थे .

उनसे मेरा परिचय 1976 के अंतिम दिनों में हुआ था ।

मैंने 1976 में कानपुर विश्वविद्यालय से निजी छात्र के रूप हिन्दी में फर्स्ट डिवीजन में एम।ए. किया था . यहां यह बताना अनुचित नहीं होगा कि इण्टरमीडिएट के बाद की मेरी पूरी शिक्षा एक निजी छात्र के रूप में ही हुई . पारिवारिक परिस्थितियां ऐसी थीं कि नौकरी करना मेरे लिए आवश्यक हो गया था और अप्रैल 1973 में जब मुझे रक्षा लेखा विभाग में नौकरी मिली तब मेरे खाते में केवल इंण्टरमीडिएट का प्रमाणपत्र था . उन दिनों कानपुर विश्वविद्यालय से चार सौ कॉलेज संबद्ध थे और उनमें केवल बीस छात्रों को उस वर्ष हिन्दी में प्रथम श्रेणी प्राप्त हुई थी . मैं डी.ए. वी. कॉलेज केन्द्र से सम्मिलित हुआ और उस कॉलेज का एक मात्र प्रथम श्रेणी पाने वाला छात्र था .

प्रथम श्रेणी ने मुझे पी-एच।डी करने के लिए प्रेरित किया और इस सिलसिले में मुरादनगर से (उन दिनों मेरी पोस्टिंग वहीं थी ) कानपुर के मेरे दौरे बढ़ गए थे . अवकाश प्राप्त करने के लिए तरह-तरह के बहाने खोजने पड़ते , जिसमें कई बार मैंने अपनी मां को बीमार किया और यही नहीं हट्टी-कट्टी स्वस्थ मां को स्थाई रूप से हृदय रोग से पीडि़त घोषित कर दिया था .मैं जब भी कानपुर में होता , हर दूसरे दिन विश्वविद्यालय अवश्य जाता . विश्वविद्यालय में मेरे एक मात्र परिचित थे दुर्गाप्रसाद शुक्ल , जो भास्करानंद इंटर कॉलेज (नरवल) में मेरे सीनियर थे . यह वही इंटर कॉलेज है , कन्हैयालाल नंदन और प्रसिद्ध कवि रामावतार चेतन ने जहां से हाईस्कूल किया था . ‘झण्डा ऊंचा रहे हमारा .....विजयी विश्व तिरंगा प्यारा ’ झण्डा गान के प्रणेता श्यामलाल गुप्त ‘पार्षद’ इसी नरवल के निवासी थे और मेरे समकालीन प्रसिद्ध कवि दिनेश शुक्ल भी यहीं के हैं .

दुर्गाप्रसाद शुक्ल को हम डी।पी. कहते , और जिन दिनों मैं नौकरी के लिए भटक रहा था , डी.पी. विश्वविद्यालय में जम चुके थे और अपने मृदुल स्वभाव और सहयोगी भाव के कारण छात्रों , मित्रों , प्राध्ययापकों और सहयोगियों के प्रिय बन चुके थे .

मैं पी-एच।डी. का स्वप्न तो देखने लगा लेकिन कोई निर्देशक मुझे अपने अधीन रजिस्ट्रेशन करनवाने के लिए तैयार नहीं था . उनके पास एक ही बहाना था कि मैंने एक ‘प्राइवेट छात्र’ के रूप में एम.ए. किया था . मेरे प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण होने की वे प्रशंसा करते , लेकिन अपना छात्र स्वीकार करने में असमर्थता व्यक्त कर देते . कुछ ने ऐसी शर्तें रखी जो मुझे स्वीकार नहीं थीं . उदाहरण के लिए क्राइस्टचर्च कॉलेज के विभागाध्यक्ष ने अपने अधीन रजिस्ट्रेशन के लिए तीन हजार रुपयों की मांग की . 1976 में मुझ जैसे बाबू के लिए वह एक बड़ी रकम थी . ऐसी ही मांग मोदी कॉलेज , मोदी नगर के विभागाध्यक्ष ने की थी . उसने इसके अतिरिक्त यह भी कहा था कि जब तक मैं शोध प्रबंध प्रस्तुत नहीं कर देता , प्रतिवर्ष एक हजार रुपये उसे अतिरिक्त देता रहूंगा . (पी-एच. डी. की उपाधि मिलने के बाद 1985 के अंतिम दिनों के एक ‘रविवारीय हिन्दुस्तान’ में इस संबन्ध में प्रकाशित मेरा आलेख बहुचर्चित हुआ था ) .

शोध निर्देशक की मेरी समस्या का समाधान डी।पी. कर सकते हैं इस आशा में मैं निरंतर डी.पी. के संपर्क में रहने लगा . डी.पी. उन दिनों डिग्री सेक्शन में थे और शहर के सभी कॉलेजों के प्राध्यापक उन्हें जानते थे . डी.पी. को पान खाने का शौक था ..... आज भी है और लंच के समय बाहर घूमने जाने पर मैं भी उनके साथ पान खाता और ऎसा केवल उन्हीं के साथ रहते होता . लंच में वह भी डी.पी. के साथ होते और उन्हीं दिनों उनसे मेरा परिचय हुआ . एक दिन डी.पी. बोले , ‘‘रूपसिंह , इन्हें जानते हो ?’’

मैं चुप था । डी.पी. के पास आते-जाते उन्हें कई बार देख चुका था .

‘‘सुधांशु किशोर मिश्र....’’ पान की पीक गटकते हुए डी।पी. बोले , ‘‘यहीं विश्वविद्यालय में हैं और पी-एचडी. कर रहे हैं .’’

मिश्र जी मंद-मंद मुस्कराते रहे । मैंने उनके शोध विषय और निर्देशक के विषय में पूछा . वह कविताओं पर शोध कर रहे थे और वी.एस.एस.डी. कॉलेज नवाबगंज के विभागाध्यक्ष डॉ. गौड़ उनके निर्देशक थे . डॉ. गौड़ एक अच्छे निर्देशक माने जाते थे .

उसके बाद मैं जब भी जाता मिश्र जी से अवश्य मिलता । लेकिन हमारे संबन्ध प्रगाढ़ हुए जब हम दोनों एक साथ आगरा कॉलेज , आगरा में लेक्चरर पद का साक्षात्कार देने गए . कानपुर से हम एक ही ट्रेन में आगरा गए थे . हम दिनभर साथ रहे . हम दोनों ही जानते थे कि हमारा चयन नहीं होना था , लेकिन हम साक्षात्कार का अनुभव प्राप्त करना चाहते थे . नौकरी तो हम कर ही रहे थे , लेकिन प्राध्यापकी हमारी रुचि की होती . हालांकि मेरा ध्यान प्राध्यापकी पाने से अधिक शोध के लिए पंजीकृत हो लेने में था . इस दिशा में डी.पी. ने मेरी सहायता की और उनके प्रयास से डी.वी.एस. कॉलेज के रीडर डॉ. बैजनाथ त्रिपाठी ने इस शर्त पर मुझे अपना छात्र स्वीकार किया कि शोध में वह मेरी बिल्कुल सहायता नहीं करेंगे . सब कुछ मुझे स्वयं करना होगा . वह केवल हस्ताक्षर करने का दायित्व निभाएगें और मौखिक के समय साथ रहेगें . उन्होंने बहुत ईमानदारी से अपने दायित्व का पालन किया था .

डी.पी. के माध्यम से मैं डॉ. तित्रपाठी का छात्र बन अवश्य गया लेकिन पी-एच डी. के लिए विषय की स्वीकृति मिलना निर्देशक मिलने से अधिक कठिन था . उन दिनों कानपुर विश्वविद्यालय जीवित साहित्यकारों पर शोध की अनुमति नहीं देता था . अब नियम ढीले हो चुके हैं . इसी का परिणाम है कि ममता पाण्डे जुलाई 2009 में मेरे कथा साहित्य पर अपना शोध प्रबन्ध प्रस्तुत कर सकीं .
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बात फरवरी 1977 की है । मैं कानपुर में था . किदवईनगर चैराहे की एक पान की दुकान में अखबार देख रहा था . पहले ही पृष्ठ पर कथाकार यशपाल की मृत्यु का समाचार था . दरअसल मैं अपने निर्देशक से ही मिलने जा रहा था जो किदवई नगर में ही रहते थे . उस दिन डॉ. त्रिपाठी ने विषय चयन कर विश्वविद्यालय में संक्षिप्त रूपरेखा प्रस्तुत करके ही मुरादनगर जाने की सलाह दी . उनके घर से मैं सीधे मारवाड़ी पुस्तकालय गया और दो दिनों तक जाता रहा . अंततः ‘सम-सामयिक परिप्रक्ष्य में यशपाल के कथा-साहित्य का आलोचनात्मक अनुशीलन’ विषय की रूपरेखा मैंने प्रस्तुत कर दी . लेकिन डॉ. विजयेन्द्र स्नातक की विशेषज्ञता में हुई बैठक में उसे निरस्त कर दिया गया . इसने मुझे अधिक ही निराश किया . इसका अर्थ मेरे एक वर्ष की बर्बादी से था . अगली बार मैंने प्रतापनारायण श्रीवास्तव के ‘व्यक्तित्व और कृतित्व’ का चयन किया . मिश्र जी उन दिनों शोध अनुभाग में थे . उस बार विशेषज्ञ थीं कथाकार डॉ. शशिप्रभा शास्त्री . मिश्र जी रजिस्ट्रार से सीधे जुड़े हुए थे और मेरे बारे में उन्हें बताकर अनुरोध कर चुके थे कि वे मेरे विषय को निरस्त न होने दें . उस दिन मीटिगं में मिश्र जी रजिस्ट्रार के ठीक पीछे बैठे और जब मेरे विषय पर चर्चा प्रारंभ हुई उन्होंने रजिस्ट्रार की पीठ पर उंगली गड़ाकर संकेत किया था .

विषय स्वीकृत हो गया था .
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मैं मुरादनगर से स्थानांतरित होकर जुलाई 1980 में दिल्ली आ गया । कानपुर जाना कम हो गया , लेकिन मिश्र जी का दिल्ली आना-जाना प्रारंभ हो गया था . 1981 के अंत की बात है शायद . मुझे एक दिन उनका पत्र मिला कि वह ’अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्था” (All India Institute of Medical Sciences ) में अपने मेडिकल चेक अप के लिए आ रहे हैं . मैं सुबह साढ़े सात बजे उन्हें रिसेप्शन के सामने मिलूं .

मैं मिला और पहली बार पता चला कि उनका वहां आने का सिलसिला कई वर्षों से चल रहा था । उन्हें एक ऐसी बीमारी थी कि हर तीसरे माह उन्हें किसी परीक्षण प्रक्रिया से गुजरना होता था . उससे पहले एम्स में उनका परिचित कोई लड़का था जो उनकी देखभाल किया करता था , लेकिन वह वहां से जा चुका था या उसकी सेवाएं समाप्त हो चुकी थीं . मिश्र जी हास्पिटल के कपड़े पहन अपने कपड़े और अटैची मेरे पास छोड़ चेक अप के लिए चले गए . बेंच पर बैठा मैं उनके लौटने की प्रतीक्षा करता रहा . लगभग एक बजे वह लौटे . हमने एम्स की कैण्टीन में लंच किया और सीधे घर चले गए . मेडिकल की उस प्रक्रिया से गुजरने के बाद मिश्र जी बहुत कष्ट अनुभव कर रहे थे और घर पहुंचकर वह सोफे पर लगभग दो घण्टे तक लेटे रहे थे .

रात भोजन के बाद मैं मिश्र जी को पुरानी दिल्ली स्टेशन जाने वाली बस में बैठा आया था .
उसके बाद एम्स की उनकी हर दिल्ली यात्रा के दौरान मैं सुबह साढ़े सात बजे रिसेप्शन के सामने उनसे मिले लगा । मेडिकल चेक अप के बाद हम घर आते और रात नौ बजे के लगभग मैं उन्हें बस में बैठा आता . यह सिलसिला 1985 या 1986 तक चला . इस बीच शोध के लिए मिला मेरा समय समाप्त हो चुका था और केवल नोट्स लेने के अतिरिक्त मैंने कुछ भी नहीं किया था . मिश्र जी कई वर्ष पहले न केवल पी-एच.डी. कर चुके थे बल्कि वी.एस.एस.डी. कॉलेज में लेक्चरर भी नियुक्त हो चुके थे और डी.लिट्. कर रहे थे . उनकी प्रेरणा और उनके प्रयासों से मुझे शोध पूरा करने के लिए अतिरिक्त समय मिल गया . दोबारा मिले समय में रातों-दिन एक करके मैंने कार्य पूरा किया और नवम्बर , 1984 में शोध प्रबन्ध प्रस्तुत कर आया .

******* पी।-एच.डी. की डिग्री मिलने तक शिक्षण क्षेत्र में जाने की मेरी इच्छा समाप्त हो चुकी थी . अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान (एम्स) की अपनी अंतिम यात्रा के समय मिश्र जी ने बताया कि जिस मेडिकल परीक्षण के लिए उन्हें वहां अपना पड़ता था वह लखनऊ मेडिकल कॉलेज में संभव हो गया था . उसके बाद मैं जब भी कानपुर गया , उनसे कभी मिलना हुआ .... कभी नहीं . सिलसिला बन्द नहीं हुआ , लेकिन अंतराल बढ़ गया था . फोन पर बातें हो जाती . 3 अगस्त 2003 को मैंने शक्तिनगर के किराए के मकान से अपने मकान में शिफ्ट किया . यहां के फोन से भी उनसे बातें हुईं लेकिन एक दिन वह डायरी खो गई जिसमें उनका फोन नंबर था और मेरे घर का नंबर भी कुछ दिनों बाद बदल गया . लगभग दो वर्षों तक हम एक दूसरे से संपर्क नहीं कर पाए . तीन वर्ष पूर्व अचानक एक दिन मोबाइल पर उनकी आवाज सुनकर मेरी प्रसन्नता का ठिकाना नहीं रहा . उन्होंने बताया कि मेरा नम्बर प्राप्त करने के लिए उन्हें बहुत श्रम करना पड़ा . उन्होंने अपने सहयोगी हिन्दी प्राध्यापक और कवि-आलोचक पंकज चतुर्वेदी से अपनी समस्या बतायी . पंकज चतुर्वेदी ने कादम्बनी में पंकज पाराशर को संपर्क किया . पाराशर ने किससे मेरा मोबाइल नंबर हस्तगत किया पता नहीं , लेकिन ........उन्होंने कहा कि उनकी छात्रा मामता पाण्डे मेरे कथा साहित्य पर शोध करना चाहती है . सामग्री उपलब्ध करवाने में मैं उसकी सहायता करूं ..... और संवाद का सिलसिला पुनः प्रारंभ हो गया . तब-से महीना-दो महीना में हमारी बातें होती रहीं . वह कई वर्ष से कॉलेज में हिन्दी विभागाध्यक्ष थे और इसी वर्ष 26 अगस्त को उसी पद से उन्होंने अवकाश ग्रहण किया था . उन्हें एक वर्ष का सेवा विस्तार भी मिल गया था .

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16 अक्टूबर ( शुक्रवार ) को मैंने उन्हें मोबाइल पर एस।एम.एस. करके दीवाली की शुभ कामनाएं दीं . उन्होंने उत्तर दिया और लिखा कि वह चार दिनों तक अस्पताल में रहकर आए थे और लकवा के शिकार हो गए थे . मैंने तुरंत फोन किया . रुक-रुककर उन्होंने बात की . पता चला शुगर बढ़ गया था और दाहिना हिस्सा लकवाग्रस्त हो गया था . वह कई वर्षों से शुगर के मरीज थे और एक बार उन्हें हल्का हार्ट अटैक भी हो चुका था .

‘‘आप स्वस्थ हो लें .....कुछ दिन बाद मैं आपसे बात करूंगा ।’’ मैंने कहा तो ‘‘ ठीक है ’’ कहकर उन्होंने फोन काट दिया .

29 अक्टूबर को मामता पाण्डे का फोन आया , ‘‘सर , बहुत बुरा हुआ ।’’

‘‘ क्या हुआ ?’’ मुझे लगा कि शोधप्रबन्ध संबन्धी उसकी काई समस्या है ।

‘‘सर , नहीं रहे ।’’

‘‘ क्या ऽऽऽ..... कब...... ?’’

‘‘ सत्ताइस अक्टूबर को अपरान्ह तीन बजे .....’’ ममता रोने लगी ।मेरी आवाज नहीं फूटी . ममता रोती हुई लगातार एक ही बात कहे जा रही थी ....‘‘बहुत बुरा हुआ सर .....’’

‘‘हां , बहुत बुरा हुआ ।’’ मैं धीरे से कह पाया , ‘‘मैंने अपना एक अच्छा मित्र - एक पथबन्धु खो दिया था .

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शनिवार, 26 सितंबर 2009

यादों की लकीरें


संस्मरण
''मैं दिनकर से बड़ा कवि होता''- भगवतीचरण वर्मा
रूपसिंह चन्देल
वर्ष याद नहीं लेकिन महीना अक्टूबर का था । राज्यसभा का सदस्य बने उन्हें पर्याप्त समय हो चुका था .

बस से मण्डी हाउस उतरकर हम -यानी मैं और सुभाष नीरव पैेदल फीरोजशाह रोड स्थित उनके बंगले की ओर जा रहे थे । मेरे पी-एच. डी. का विषय यदि कथाकार प्रतापनारायण श्रीवास्तव का व्यक्तित्व और कृतित्व न होता तो शायद ही मैं उन जैसे वड़े कथाकार से मिलने का साहस जुटाता .

प्रतापनारायण श्रीवास्तव के जीवन पर इतनी कम सामग्री मुझे मिली कि मेरा कार्य ठहर गया था । कानपुर इस मामले में मेरे लिए छुंछा सिध्द हुआ था . तभी मुझे किसी ने बताया कि भगवती बाबू बचपन में उनके सहपाठी थे. मुझे यह तो ज्ञात था कि जीवन के प्रारंभिक दौर में भगवती चरण वर्मा का कार्य क्षेत्र कानपुर रहा था , लेकिन दोनों बचपन में एक साथ पढ़े थे , सुनकर लगा था कि मेरी समस्या का समाधान मिल गया था दृ अपने बचपन के सहपाठी के विषय में वर्मा जी विस्तार से बताएंगे . उनके बंगले की ओर बढ़ते हुए श्रीवास्तव जप् के विषय में बहुत कुछ जान लेने का उत्साह मेरे अंदर कुलांचे मार रहा था .

जनता पार्टी के दौरान चौधरी चरण सिंह प्रधानमंत्री बने थे । भगवती बाबू ने साप्ताहिक हिन्दुस्तान में उन पर एक लंबा आलेख लिखा था . वह आलेख चर्चा का विषय रहा था और उसके कुछ दिनों बाद ही भगवती बाबू को राज्य सभा में (१९७८ से १९८१ तक ) दाखिला मिल गया था .

भगवती बाबू से मिलने जाने के लिए नीरव ने उन्हें फोन कर रविवार का समय निश्चित कर लिया । मण्डी हाउस से उनका बंगला पांच मिनट पेैदल की दूरी पर था . नौकर ने दरवाजा खोला और हमें ड्राइंगरूम में बैठाकर गायब हो गया . थोड़ी देर बाद सादे कपड़ों में छोटे'कद -काठी के भगवती बाबू ने प्रवेश किया . चेहरे की झुर्रियां उनकी बढ़ी उम्र की घोषणा कर रही थीं . कुछ दिन पहले ही 'सारिका' में उनकी 'खिचड़ी' कहानी प्रकाशित हुई थी . हमारी बातचीत उसीसे प्रारंभ हुई . कहानी को लेकर वह मुग्ध थे , जबकि वह उनकी एक कमजोर कहानी थी. हमारे आने का उद्देश्य जानकर वह गंभीर हो गए और अत्यंत उदासीनतापूर्वक बोले , ''प्रताप बाबू मेरे सहपाठी तो थे - - अब याद नहीं कितने दिन रहे थे - -बहुत पुरानी बात है - - .''

''मुझे बताया गया कि छठवीं से आठवीं तक आप और वह साथ थे .'' मैं बोला .
''बीच में वह किसी दूसरे स्कूल में चले गए थे । लेकिन कुछ दिन हम साथ अवश्य थे . उसके बाद लंबे समय तक हम नहीं मिले . फिर विश्वभंरनाथ शर्मा कौशिक के यहां हमारी मुलाकातें होने लगी थीं . कौशिक जी के घर शाम को कलाकारों - साहित्यकारों का जमघट लगता था - -- ठण्डाई छनती और हंसी-ठट्ठे गूंजते रहते .''

''श्रीवास्तव जी का एक अप्रकाशित संस्मरण है कौशिक जी के यहां उन बैठकों के विषय में .'' मैंने बीच में ही टोका .
कानपुर उन दिनों साहित्य का केन्द्र था। मुझे भगवती बाबू की ये पंक्तियां याद आयीं जो उन्होंने 1966 में प्रकाशित अपनी पुस्तक 'आधुनिक कवि' में प्रस्तावना स्वरूप लिखी थीं -- '' मेरे साहित्यिक जीवन का प्रारंभ कानपुर में हुआ था --- कानपुर उन दिनों हिन्दी का एक प्रमुख साहित्यिक केन्द्र था . स्व. गणेश शंकर विद्यार्थी के 'प्रताप' नामक साप्ताहिक पत्र तथा गणेश (हम लोग गणेश शंकर विद्यार्थी को गणेश जी के नाम से ही जानते थे ) की प्रेरणा के प्रभाव में कानपुर देशभक्ति की ओजपूर्ण कविताओं का भी केन्द्र बन गया था .''

बीच में मेरे टोकने से कुछ देर तक भगवती बाबू चुप रहे थे । फिर बोले ''एल.एल.बी. करके प्रताप नारायण जोधपुर रियाशत के ज्यूडिशियल मजिस्ट्रेट बनकर चले गए थे और मैं जीवन संघर्षों में डूब गया था .''

''क्या आप मानते हैं कि 'विदा' जैसा अपने समय का चर्चित उपन्यास लिखनेवाले श्रीवास्तव जी के लिए वह नौकरी उनके साहित्यिक जीवन के लिए घातक सिध्द हुई थी ?'' ( 1970 तक 'विदा' की 64 हजार प्रतियां बिक चुकी थीं और यह उपन्यास लेखक की 23 वर्ष आयु में 1927 में प्रकाशित हुआ था और मुंशी प्रेमचन्द ने उसकी भूमिका लिखी थी )।

''होना ही था । लेकिन आर्थिक सुरक्षा तो थी . रुतबा तो था - - जब कि मैं आर्थिक संकटों से जूझ रहा था --'' उनके चेहरे पर गंभीरता पसर गयी थी .

''उस संकट ने ही आपको कथा लेखक बना दिया ।''

''निश्चित ही ।''

उन्होंने इस विषय में लिखा है , ''चित्रलेखा उपन्यास मैंने आजीविका के लिए नहीं लिखा , शायद 'तीन वर्ष' उपन्यास भी मैंने आजीविका के लिए नहीं लिखा , लेकिन न जाने कितनी कहानियां मुझे आजीविका के लिए लिखनी पड़ी ।''

मैंने प्रश्न किया , ''आपने कहीं लिखा है कि आपके साहित्यिक जीवन की शरुरूआत कविताआें से हुई थी ?''

'' जी ।''

''अब आप कविता बिल्कुल नहीं लिखते ? '' नीरव का प्रश्न था ।

''कविता की नदी सूख गयी है ।''

बात कविताओं पर केन्द्रित हो गयी थी और तभी उन्होंने सगर्व घोषणा की थी , ''यदि मैंने कविता लिखना छोड़ न दिया होता तो मैं दिनकर से बड़ा कवि होता ।''

सुभाष और मेंने एक-दूसरे की ओर देखा था । भगवती बाबू चुप हो गए थे . विषय परिवर्तन करते हुए मैंने पूछा ,''श्रीवास्तव जी 1948 में जोधपुर से कानपुर लौट आए थे - - - उसके बाद आपकी मुलाकातें हुई ?''

''देखो , जोधपुर जाकर प्रतापनाराण साहित्य की समकालीनता के साथ अपने को जोड़कर नहीं रख सके । अपने साहित्यकार का विकास नहीं कर पाए . सच यह है कि 'विदा' से आगे वह नहीं बढ़ पाये थे . राजा-रानी - - अंग्रेज -- आभिजात्यवर्ग -- - वह इसके इर्द-गिर्द ही घूमते रहे . जबकि साहित्य कहां से कहां पहुंच गया था- - - .'' भगवती बाबू पुन: चुप हो गए थे .

चलते समय मैंने उनसे अनुरोध किया कि यदि वह श्रीवास्तव जी पर संस्मरण लिख दें और वह कहीं प्रकाशित हो जाए तो मेरे लिए बहुत उपयोगी सिध्द होगा ।

''मैं इन दिनों संस्मरण ही लिख रहा हूं । जल्दी ही वे पुस्तकाकार राजकमल प्रकाशन से प्रकाशित होगें .''

हमारी लगभग एक घण्टे की उस स्मरण्ीय मुलाकात के बाद उनकी संस्मरणों की पुस्तक 'अतीत के गर्त से' प्रकाशित हुई थी , जिसमें एक छोटा-सा संस्मरण प्रतापनारायण श्रीवास्तव पर भी था । लेकिन उस पुस्तक में सर्वाधिक चाेंैकानेवाला संस्मरण दिनकर पर था . उन्होंने उसमें भी वही बात दोहराई थी कि यदि उन्होंने कविताएं लिखना न छोड़ा होता तो वह दिनकर से बड़े कवि हुए होते . दूसरी बात दिनकर की नैतिकता से जुड़ी हुई थी , जिसके कारण दिनकर जीवन के अंतिम दिनों में गृहकलह से परेशान रहे थे . बात जो भी थी वह दिनकर का निजी जीवन था . उनके किसके साथ अवैध संबंन्ध थे इसे उनके मरणोपरांत लिखा जाना उचित नहीं था . .

'' चित्रलेखा' , 'टेढ़े मेढ़े रास्ते' , 'सीधी-सच्ची बातें , 'भूले बिसरे चित्र , 'त्रिपथगा' आदि उपन्यास , कहानियां और 'मेरी कविताएं ' और 'आधुनिक कवि' कविता संग्रहों के रचयिता भगवती चरण वर्मा निश्चित ही प्रतिभाशाली रचनाकर थे . उन्होंने स्वयं कहा है - ''मैं कभी यश के पीछे नहीं दौड़ा --- वह स्वयं ही मुझे मिलता गया .'' साहित्य में इसे चमत्कार से कम नहीं मानना होगा . हालंकि उन्होंने यह भी माना कि '' विरोधी उनके भी हैं , लेकिन विरोध भी तो चर्चा ही देता है .'' आज जब साहित्य में गलाकाट राजनीति , अविश्वास और विद्रूपता का माहौल है -- जब एक ही विचारधारा के तीन साहित्यकार तीन वर्षों तक एक साथ नहीं चल पाते तब अलग-अलग विचारधारा के लखनऊ की त्रिमूर्ति -- यशपाल , अम्तालाल नागर और भगवती चरण वर्मा की याद एक सुखद अनुभूति प्रदान करती है .
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बुधवार, 9 सितंबर 2009

यादों की लकीरें

छत का एक दृश्य

और धरती घूम गयी

रूपसिंह चन्देल

२ सितम्बर, २००९. सुबह के साढ़े चार बजे का समय.

मोबाईल के अलार्म की पहली ’ट्रिंग’ के साथ वह मेरे पास खड़ा था. अलार्म की कर्णकटु ध्वनि को उसके आने से पहले ही बंद कर मैं उठ बैठा और पन्द्रह मिनट बाद हम टहलने निकल गये थे. १९९६ से यह नियम अबाध है और ३ अगस्त,२००३ को यहां आने के बाद भी जारी है, बावजूद इसके कि मेरे पहले के आवास - शक्ति नगर - से सटा हुआ बहुत बड़ा रौशनआरा बाग था, जिसे औरगंजेब ने अपनी बहन रौशन आरा के लिए तैयार करवाया था और जिसने औरंगजेब की गंभीर अस्वस्थता में उसके नाबालिग पुत्र को गद्दी पर बैठाकर सत्ता अपने हाथ में ले ली थी. दरअसल वह स्वयं साम्राज्ञी बनना चाहती थी, लेकिन उसका दुर्भाग्य था कि औरंगजेब स्वस्थ हो गया था और रौशन आरा की कुचाल की सजा उसे मिली थी. तो यहां अर्थात लेखकों की बस्ती, सादतपुर, जिसे कवि-गज़लकार रामकुमार कृषक नागार्जुननगर कहते-लिखते हैं, क्योंकि यह बाबा नागार्जुन की कर्मभूमि भी रही है, में आने के बाद रौशन आरा जैसे बाग की तो क्या किसी पार्क की सुविधा न होने पर भी यहां की सड़कें मेरे प्रातः सैर का आधार बनीं.

२३ मार्च, २००८ को मेरे पास आने के कुछ दिनों बाद से ही वह भी मेरे साथ जाने लगा. सुबह की सैर उसकी आदत में यों शामिल हुई कि यदि कभी मैंने आलस्य दिखाया, उसने मुझे जाने के लिए विवश कर दिया. विलंब उसे स्वीकार नहीं---- अर्थात पौने पांच का मतलब पौने पांच --- हमें घर से बाहर हो जाना होता है.

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(माइकी छत पर)
अन्य दिनो की भांति उस दिन भी यानी २ सितम्बर, को हम साढ़े पांच बजे लौट आये और सीधे छत पर चले गये. मौसम खुशनुमा था. आसमान में तैरते बादलों के टुकड़े पूरब से पश्चिम की ओर मंद गति से जा रहे थे. हवा पैरों में मेंहदी लगी युवती की भांति सधे कदमों छत पर से गुजर रही थी. पूरब में बादलों के बीच लाली फैल रही थी.

इतने खुशनुमा मौसम का आनंद लेता वह आंखें बंद कर छत पर लेट गया. उसे लेटा देख मैं नीचे उतर गया. यह सब भी मेरी दैनन्दिन गतिविधि का हिस्सा है. अब मुझे आध घण्टा यौगिक व्यायाम में व्यतीत करना था.

छः बजे मेरे चाय बनाने का समय होता है. अपने और पत्नी के लिए और कभी-कभी बेटी के लिए भी --सुबह की चाय मैं तैयार करता हूं. सवा छः बजे से साढ़े छः बजे के मध्य हमारी चाय तैयार होती है, और उसीके साथ तैयार होता है उसका नाश्ता. साढ़े छः बजे के आसपास नाश्ता करना उसकी कमजोरी है और इस कमजोरी का दोषी मैं हूं, लेकिन जब किसी चीज के लेने का एक समय निश्चित हो जाता है तब उस समय उस चीज का न मिलना कष्टकारी होता है. सुबह जैसे साढ़े छः बजे की चाय मेरी कमजोरी है तो नाश्ता उसकी.

नाश्ते में वह आधा लीटर दूध और ब्राउन ब्रेड के दो पीस लेता है. उसके बाद लंच तक उसे किसी चीज की दरकार नहीं होती. उस दिन भी अपने लिए चाय, उसका नाश्ता, और पानी की बोतल लेकर मैं छत पर गया. वह नाश्ता करता रहा और मैं उसके निकट कुर्सी पर बैठा चाय पीता रहा. सात बजे तक मैं उसके साथ था. सात बजे कंप्यूटर पर मेल चेक करने के लिए नीचे उतरा. लेकिन तत्काल कंप्यूटर पर नहीं बैठा. फर्स्ट फ्लोर के आंगन मे लगे जाल पर (ऎसा ही जाल फर्स्टफ्लोर के ऊपर छत पर है, जिससे सूरज की रोशनी सीधे फर्स्ट और ग्राउण्ड फ्लोर पर जाती है ) खड़ा हो मैं अखबार के पहले पन्ने का समाचार पढ़ने लगा . पत्नी सामने किचन में काम कर रही थी. सामने कमरे में घड़ी सात बजकर दस मिनट दिखा रही थी और तभी मुझे उसकी आवाज सुनाई पड़ी. मैंने ऊपर जाल की ओर देखा--- वह किसी पर भौंक रहा था. अनुमान लगाया कि दाहिनी ओर का पड़ोसी या उनका बेटा अपनी छत पर आये होंगे. वह केवल और केवल उन्हीं पर भौंकता है. यह आश्चर्य की बात है, जबकि मेरे मकान से सटे दो और मकान हैं, लेकिन उन लोगों के आने पर वह उनपर नहीं भौंकता.

’क्या जानवर --- खासकर कुत्ते अपने प्रति दुर्भावना रखने वाले के भावों को भांप लेते हैं ?’ मैंने कई बार इस विषय पर विचार किया है. मेरा अनुभव तो यही कहता है. बहरहाल, मैंने नीचे से उसे डांटा -- "माइकी चुप हो जाओ."

लेकिन यह क्या ! मैंने उसकी मर्मान्तक चीख सुनी और फिर ऊपर जाल पर से उसे नीचे झांकते देखा. हम दोनों -- पति-पत्नी - के मुंह से एक साथ निकला , "माइकी क्या हुआ ?" हम दोनों ने एक-दूसरे से यह भी कहा कि ऎसे तो यह कभी नहीं चीखा, लेकिन उसके साथ कुछ हुआ होगा यह हमारी कल्पना से बाहर था. मैं कंप्यूटर पर जा बैठा और पत्नी आफिस के लिए तैयार होने में व्यस्त हो गयी .

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माइकी के साथ क्या हुआ था यह मुझे अगले दिन सुबह सात बजे के लगभग ज्ञात हुआ, जब मैं उसके गले का पट्टा ठीक कर रहा था. उसके गले में एक इंच गहरा घाव था. घाव देख मुझे धरती घूमती नजर आयी . मैं पीड़ा से छटपटा उठा . हम हत्प्रभ -- किंकर्तव्यविमूढ़ थे. किसीने उसे भैंकने से रोकने के लिए -- सदा के लिए उसकी आवाज छीन लेने के लिए - किसी तेज धारदार चीज से उसके गले पर प्रहार किया था. प्रहार होने के बाद ही वह चीखा था और जाल पर झांककर मुझसे सहायता की अपेक्षा की थी. मुझे तब की उसकी आंखों की पीड़ा और निरीहिता स्मरण हो आये और मैं यह सोच और अधिक पीड़ित महसूस करने लगा कि मैं उसके दर्द और निरीहित को पढ़ पाने में असमर्थ क्यों रहा था.

माइकी का गला छेदकर उसकी आवाज छीन लेने का क्रूर कृत्य करने वाले के प्रति विक्षोभ से अधिक मुझे स्वयं पर ग्लानि हुई थी. उसे डाक्टर के पास ले जाने में तीन घण्टों का समय था और मेरे वे तीन घण्टे कैसे कटे होंगे --- अनुमान लगाया जा सकता है.

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मंगलवार, 1 सितंबर 2009

यादों की लकीरें



सभी के जीवन में कुछ ऎसा होता है - छोटी-बड़ी घटनाएं जिनमें से कुछ अमिट छाप छोड़ जाती हैं----- स्मृति पटल पर सदा के लिए अंकित हो जाती हैं. कभी-कभी वे कुरेदती हैं-- जीवंत हो उठती हैं, अपने उसीरूप में---- तब वह क्षण विशेष आंखों के समक्ष साकार हो उठता है अपनी प्रियता-अप्रियता के साथ. जब से होश संभाला छोटी-बड़ी घटनाओं ने कभी साथ नहीं छोड़ा---- उनके रूप बदलते रहे--- सिलसिला आज भी जारी है. लेकिन उन बड़ी घटनाओं से आपका साक्षात करवाकर आपको विचारशील बनाने का कोई इराद नहीं है. इस श्रृखंला में मैं उन छोटी-छोटी घटनाओं को संग्रहीत करना चाहता हूं, जो स्थूलरूप से महत्वहीन होते हुए भी अपने में गहन अर्थ छुपाये हुए थीं. प्रस्तुत है शृखंला की पहली कड़ी :

व्यवहारिकता

हाल की बात है. ’साहित्य अकादमी’ द्वारा प्रकाशित ’प्रवासी हिन्दी लेखकों’ की कहानियों के संकलन का लोकार्पण कार्यक्रम था. संकलन का सम्पादन वरिष्ठ कथाकार-पत्रकार हिमांशु जोशी ने किया है.

एक दिन पूर्व हिमांशु जी का फोन आया और उन्होंने संकलन के लोकार्पण कार्यक्रम में पहुंचने के लिए आमन्त्रित किया. हिमांशु जी से मेरा परिचय १९७८ में तब हुआ था जब मैं ’स्व. प्रतापनारायण श्रीवास्तव के जीवन और कथा साहित्य पर शोध कर रहा था और उसी संबन्ध में ’साप्ताहिक हिन्दुस्तान’ कार्यालय गया था. उसके बाद मैं उनसे १९८२-८३ में मिला और परिचय प्रगाढ़ से प्रगाढ़तर होता गया. वे मेरे लिए आदरणीय भाई साहब बन गये और मैं उनके लिए ’रूप’ . इस संबोधन से घरवाले मुझे बुलाते थे. बाद में डॉ. शिवप्रसाद सिंह ने यह संबोधन दिया और उसके बाद हिमांशु जी ने. वैसे तो १९९२ के बाद मृत्युपर्यन्त शिवप्रसाद जी जब भी दिल्ली में होते मुझे प्रतिदिन उनसे मिलने जाना होता, लेकिन इनमें से कितनी ही मुलाकातों में हिमांशु जी भी हमारे साथ होते थे. कितनी ही बार हम लोग बंगाली मार्केट के ’नत्थू स्वीट्स’ में बैठे---- लंबी बैठकें होती थीं वे---- अविस्मरणीय----.

हिमांशु जी के बाद मुझे ’रूप’ बुलाने वालों में मेरे समकालीन कथाकार-कवि मित्र अशोक गुप्ता हैं. अमेरिका की हिन्दी कवयित्री-कथाकार सुधा ओम ढींगरा भी प्रायः अपने पत्रों में यह संबोधन देती हैं. दरअसल इसकी इतनी लंबी चर्चा केवल इसलिए कि यह संबोधन मुझे अधिक प्रिय और आत्मीय लगता है.

मैं अपने मूल विषय से भटक गया. यह मेरी कमजोरी है और मेरी इस कमजोरी को मित्र लोग ’किस्सागोई’ शब्द देते हैं.

तो हिमांशु जी का फोन मेरे लिए आदेश था. उस कार्यक्रम में जाना इसलिए भी आवश्यक था क्योंकि लगभग एक वर्ष से हम दोनों ’जल्दी ही मिलेंगे’ के झूठे वायदे करते आ रहे थे, जबकि पांच-छः वर्ष पहले तक हम लगभग हर पन्द्रह दिन में ’कॉफी हाउस’, ’कॉफी होम’, ’नत्थू स्वीट्स’ , ’श्रीराम सेण्टर’ या ’त्रिवेणी’ में मिलते रहे थे . बहरहाल -

कार्यक्रम साहित्य अकादमी सभागार में था. जब मैं पहुंचा कथाकार वीरेन्द्र सक्सेना, हिमांशु जी और महेश दर्पण ही पहुंचे थे. लेकिन पन्द्रह मिनट में काफी संख्या में लोग आ गये और साहित्य अकादमी का कोई कर्मचारी सभागार में बैठे लोगों को बाहर हॉल में जलपान के लिए बुला ले गया.

बाहर हॉल में मेरी उनसे मुलाकात हुई. कुछ वर्षों से हम एक दूसरे को जानते हैं. वह मूलतः कवयित्री हैं, लेकिन कुछ कहानियां भी लिखी हैं उन्होंने. किसी सरकारी दफ्तर में अधिकारी हैं. दुबली-पतली -- उनके पतले चेहरे पर सदैव मुस्कान खिली रहती है. मुझे देख दूर से मुस्कराती हुई वह मेरी ओर लपकीं, लेकिन बीच में किसी साहित्यकार के साथ अटक गयीं. दो मिनट उससे बातें करने के बाद वह मेरे निकट आयीं और "कैसे हैं आप ?" से शुरूआत कर "आजकल क्या कर रहे हैं---- क्या लिख डाला ?" जैसे प्रश्न एक सांस में उन्होंने मेरी ओर उछाल दिए. मैंने उलट प्रश्न किया , "आपने क्या लिखा ?"

"मैं---- कुछ नहीं---- आजकल बहुत व्यस्तता है. दफ्तर----- कुछ दूसरे कार्यक्रम-----. मैं कुछ नहीं कर पा रही---- लेकिन आप तो निरंतर लिखने वालों में हैं---." वह क्षणभर के लिए रुकीं, फिर बोलीं, "क्या कर रहे हैं?"

आत्मीयता से पूछे गये प्रश्नों के उत्तर मैं लंबे देने लगता हूं और वही गलती मैंने उनके साथ भी की. हाल ही में प्रकाशित उपन्यास ’गुलाम बादशाह’ की सूचना देने के बाद लियो तोल्स्तोय पर उनके रिश्तेदारों, मित्रों, कलाकारों, लेखकों आदि के संस्मरणॊं की चर्चा करने लगा, जिनका मैंने अनुवाद कर लिया था या कर रहा था. मैंने बताना शुरू ही किया था कि उनकी आवाज सुनाई दी -- "हेलो, अंकित जी S--S--." और मुझे बोलता छोड़ वह तेजी से अंकित जी की ओर बढ़ गयी थीं, जो अपनी दाढ़ी में मुस्कराते हुए समोसा टूंगते किसी से सिर हिलाकर बातें कर रहे थे. अंकित जी ने अपनी ओर उछले ’हेलो’ की ओर देखा और चमकती आंखों से उनकी ओर हाथ हिलाया.

अंकित जी दूरदर्शन में कार्यक्रम अधिकारी हैं और वह कवयित्री जी को नियमित कार्यक्रमों के लिए बुलाते रहते हैं.

उनकी व्यवहारिकता के प्रति मैं नतमस्तक था, जो मेरे लिए एक अच्छा सबक भी था.
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शनिवार, 15 अगस्त 2009

लियो तोल्स्तोय का अंतरंग संसार

साहित्य शिल्पी में संवाद प्रकाशन मुम्बई/मेरठ से मेरे द्वारा संचयित और अनूदित शीघ्र प्रकाश्य पुस्तक ‍‍लियो तोल्स्तोय का अंतरंग संसार’ से कुछ संस्मरण वेब पत्रिका ’साहित्य शिल्पी’ में धारावाहिक प्रकाशित हो रहे थे. निम्न संस्मरण १३.०८.२००९ को प्रकाशित हुआ था, लेकिन रचना के शीर्षक के साथ लेखक के नाम के रूप में आई.आई.मेक्नीकोव का नाम किस प्रकार जुड़ गया समझ नहीं आया. हालांकि मूल लेखक वी.ए.गिल्यारोव्स्की का नाम भी बाद में लिखा गया है. मैंने साहित्य शिल्पी के सम्पादक को उसे सम्पादित करने का अनुरोध किया, लेकिन उन्होंने वैसा नहीं किया. अपने पाठकों के सही पाठ के लिए मैं ’रचना यात्रा’ में उस संस्मरण को पुनः प्रस्तुत कर रहा हूं.
’साहित्य शिल्पी’ द्वारा त्रुटि संशोधित न करने को मेरे प्रकाशक ने पाठकों को दृष्टिगत रखते हुए गंभीरता से लिया है और मुझसे अनुरोध किया है कि मैं वहां शेष रह रहे संस्मरणों को प्रकाशित न करने के लिए ’साहित्य शिल्पी’ के सम्पादक से कहूं. ’रचना यात्रा’ के माध्यम से कहने के अतिरिक्त अलग से भी मैं उन्हें पत्र लिखूंगा कि आगामी अंक से वे शेष संस्मरणॊं को स्थगित कर देंगे।
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संस्मरण
स्तारोग्लादोव्स्काया का व्यक्ति
वी.ए. गिल्यारोव्स्की
(व्लादीमिर अलेक्जेयेविच गिल्यारोव्स्की (१८५५-१९३५) रूसी लेखक)

अनुवाद : रूपसिंह चन्देल

यह मेरा सौभाग्य था कि मुझे उस व्यक्ति से मिलने का अवसर मिला जिसे लेव निकोलायेविच की याद थी . वह उसके कज्जाकी गांव स्तारोग्लादोव्स्काया में कभी रहे थे.

उसने मुझे किस्से सुनाये जिन्हें मैं ईमानदारी से यहां दोहरा रहा हूं. केवल वही लेव निकोलायेविच के उस समय के जीवन के विषय में कुछ भी बताने की सामर्थ्य रखता था.

सेर्गेई निकोलायेविच तोल्स्तोय को लिखे अपने २३ नवम्बर, १८५३ के पत्र में लेव निकोलायेविच ने दूसरी अन्य बातों के अतिरिक्त लिखा था कि उनका भाई निकोलई गांव छोड़ते समय शिकारी कुत्तों का दल अपने साथ ले गया था.

येपिश्का और मैं प्रायः उन्हें इसके लिए ’हॉग’ (hawg) कहा करते थे. वही येपिश्का , लेव निकोलायेविच का अंतरंग मित्र, पुराने स्कूल का तेज-तर्रार कज्जाक, तोल्स्तोय ने अपने ’कज्जाक’ उपन्यास में येरोश्का के रूप में जिसका सजीव चित्रण किया था. उस बूढ़े व्यक्ति को, लेव निकोलयेविच के उन दिनों की अच्छी याद थी, जब वे दोनों युवा थे. वह यपिश्का को भी जानता था और उसने उसके विषय में बहुत कुछ बताया.

१९१० में येसेन्तुकी में मैंने उस वृद्ध के साथ बातचीत के सार विवरण लिखे जिन्हें यहां पुनः प्रस्तुत कर रहा हूं .मैंने वह सब तब लिखा था जब वह मेरे मस्तिष्क में बिल्कुल ताजा था.

ऎसी मुलाकातें विरल होती हैं. सेण्ट जार्ज क्रॉस और काकेशियन मिलिटरी क्रॉस पहनने वाले उस अफसर ने मुझ में गहरी उत्सुकता पैदा कर दी थी. हमने बातचीत की. वह कज्जाक गांव स्तारोग्लादोव्स्काया का रहने वाला किरिल ग्रिगोरेविच नामक ग्रेबेन कज्जाक था. मैं जानता था कि यही वह वास्तविक गांव था जिसे तोल्स्तोय ने अपने कज्जाक उपन्यास में नोवोम्लिन्स्काया नाम से चित्रित किया था.

मैं यह भी जानता था कि कुछ वर्ष पहले, लेव निकोलायेविच से मिलने एक ग्रेबेन कज्जाक अफसर आया था. लेकिन वह एक नौजवान था, और मुझसे बातचीत करने वाला लेव निकोलायेविच की ही आयु का ----- यही, कोई सत्तर से ऊपर था. अभी भी वह स्वस्थ और ऊर्ज्वसी था. वह अपनी आयु से पर्याप्त कम दिखाई देता था.

उसे देखकर मैं बहुत प्रसन्न हुआ. उसके बाल वैसे ही सफेद थे जैसे पर्वत शिखर पर बर्फ. वह सरकण्डा जैसा दुबला और मजबूत था. तोल्स्तोय के विषय में जो कुछ उसे याद था उसने मुझे बताना प्रारंभ किया :

"निश्चित ही मुझे उनकी याद है. मुझे अच्छी तरह याद है. १८४५ में हमारे गांव में पुराने उक्रैनी आस्तिक लोग आये और गांव के एक हिस्से में नयी बस्ती बनानी प्रारंभ की. हां, जब तोल्स्तोय आये, तब उन्होंने अपना सामान वहीं एक मकान में रखा. फिर उन्होंने गांव के पुरानी बस्ती में शिफ्ट कर लिया, जहां वह रहते रहे. २०वीं आर्टिलरी ब्रिगेड वहां नियुक्त थी, और उनका भाई उसमें अफसर था. लेकिन वह अपने भाई के साथ नहीं रहते थे. वह अलग कज्जाक सेकिन के घर में रहते थे. हमारे गांव में बहुत से सिन्युखायेव्स और सेकिन थे. वे सभी एक -दूसरे के रिशेदार थे. तोल्स्तोय --- हम सभी उन्हें तोल्सोव कहते थे --- एक धनी सेकिन के यहां रहते थे, जिसके पड़ोस में सेकिन का भाई और तोल्स्तोय का मित्र, अंकल येपिश्का रहता था, जो एक शिकारी और घुड़सवार था और जिसकी बराबरी करने वाला आज तक कोई नहीं हुआ. लेकिन उस जमाने में उसके कुछ प्रतिद्वन्द्वी भी थे. येपिश्का एक शानदार कज्जाक था. वह अपने कुत्तों, बाजॊं और हर प्रकार के प्रशिक्षित जानवरों के साथ घर में अकेले रहता था और उन्हें घर जैसा वातावरण देता था. सभी उसे प्यार और आदर देते थे. न केवल कज्जाक, बल्कि चेचेन और नोगाइस भी. वह प्रायः उनके ऑल्स (auls) (एक स्थानीय बस्ती) में जाते थे, जहां एक सम्माननीय अतिथि के रूप उनका स्वागत किया जाता था. वह सभी से एक ही बात कहते, "हम सभी जीवित हैं, लेकिन मरना भी है. लोग जानवार नहीं हैं कि एक-दूसरे के गले तक दौड़ लें." इसी प्रकार वह रहते थे. वह या तो शिकार करने जाते या बलालइका (गिटार की तरह का एक तिकोना रूसी तीन तारा वाद्य यंत्र) बजाते. छुट्टी वाले दिनों में वह लाल सिल्क का बेशमेट (राजकुमारी गिरि द्वारा भेंट किया गया), मुलायम चमड़े के स्लिपर और चांदी के बेलबूटेदार चुस्त-दुरस्त पतलून पहनते. उनकी लंबी फर कैप भेड़िये अथवा लोमड़ी की खाल की बनी होती थी और कोई भी उससे अपनी टोपी की तुलना नहीं कर सकता था. ऎसे समय वह सदैव अपने साथ बलालइका लेकर चलते थे, कभी बन्दूक लेकर नहीं. वह एक टावर की भांति लम्बे और बैल की भांति ताकतवर थे. इसी रूप में मुझे उनकी याद है और वह उस समय लगभग सत्तर के थे. आधी बाल्टी ’चिखीर’ (Chikhir) पीने के बाद वह गाने और नाचने लगते थे. हे भगवान ! कितना अच्छा नाचते थे वह. "अंकल येपिश्का, थोड़ा और नाचिये", उपस्थित लोग प्रार्थना करते. "अच्छा, अगर तुम मुझे पहले एक जग चिखीर दो." वे लोग शराब लाते, वह उसे ढालते और पुनः गाने, नृत्य करने और बलालइका बजाने लगते थे. लेकिन यह केवल छुट्टी वाले दिनों में ही होता था. काम वाले दिनों में येपिश्का किसी भी व्यक्ति से एक शब्द भी नहीं कहते थे. वह अपना पुराना बेशमेट (Beshmet) , बकरी की खाल की बिरजिस, भैंस की खाल के बूट, भेड़िये की खाल का टोप पहनते और अपने कंधे पर एक खाल डाल लेते थे. उनके हाथ की बंदूक की बट स्वर्णजटित थी. उस गन से उनका निशाना कभी नहीं चूका . उन दिनों पाउडर और सीसा बहुत महंगे थे. लोग राइफल प्रतियोगिता में भाग नहीं लेते थे."

उस समय एक लंबा, चौड़े कंधोवाला कुबान कज्जाक वहां से गुजरा था.

"येपिश्का बहुत ही लंबा और इससे कहीं अधिक चौड़ा था." उस कुबान कज्जाक की ओर संकेत करते हुए मेरे संलापक ने कहा. इससे मैंने अनुमान लगाया कि लेव निकोलायेविच का मित्र कितना विशालकाय था.

"उन्होंने कभी कुछ नहीं किया सिवाय शिकार के. उनके पास सेण्ट जार्ज क्रॉस था, लेकिन उन्होंने कभी भी उसे नहीं पहना. केवल अपने संतोष के लिए वह केवल अपने पुराने बेशमेट में चिक्कर फीता लगाते थे और वह भी इसप्रकार कि दिखायी न दे. वह अपने महाकार्यों के विषय में चर्चा करना पसंद नहीं करते थे, लेकिन उस बूढ़े आदमी ने उनके विषय में आश्चर्यजनक कहानी सुनाई कि वह कितने बड़े ’जिगीत’ थे ( काकेशिया और मध्य एशिया में प्रचिलित यह शब्द घुड़सवारी , तलवार और बंदूक चल्लने में निपुण , नर्भीक और साहसी व्यक्ति के लिए प्रयुक्त होता था ) . बाद में उन्होंने सेना में और अधिक सेवा करने से इंकार कर दिया था. कोई नहीं जानता, क्यों !"

’वह अच्छे स्वभाव के, और आराम पसंद व्यक्ति थे. अपने अप्रिय शब्दों अथवा काम से उन्होंने कभी किसी को आहत नहीं किया. उन्होंने बहुत खराब किया तो किसी को हॉग (hawg) कहकर पुकारा. वह बहुत स्नेही थे और अंतरंतता में सभी के लिए ’तू’ प्रयोग करते थे. जब वह कहानियां सुनाते अथवा गाते तब पूरा गांव एकत्र हो जाया करता था. उनकी आवाज ऊंची और खनकदार थी.

वह गांव की किसी सभा में उपस्थित नहीं होते थे और न ही गांव के किसी कार्य में भाग लेते थे. "मैं अपने लिए जी रहा हूं. मैं एकाकी भेड़िया हूं." वह कहते. वह बस बंदूक, शिकार, जाल तैयार करना, पीना और आनंद मनाना ही जानते थे. तोल्स्तोय केवल अपवाद थे. वह तोल्स्तोय को प्यार करते थे. उन्हें ’कुनाक’ (Kunak) , अथवा सगे भाई की भांति देखते थे. केवल तोल्स्तोय ही अकेले थे जिन्हें वह शिकार के लिए अपने साथ ले जाते थे. अपने घर के बाहर पत्थर पर आग जलाकर बर्तन में दलिया पकाते समय तोल्स्तोय उनकी बगल में बैठे होते थे. शिकार से लौटते समय दोनों शिकार लटकाये होते और उनके बैग भी भरे होते थे. उनकी बंदूक और शैतली (Shataly - एक प्रकार की बंदूक) उनके कंधों से लटकती होती थी. वह धीमे चलते, क्योंकि शायद दस पूड का वजन वह लादे होते थे. जैसा कि मुझे याद है , अंकल येपिश्का कभी घोड़े पर नहीं, पैदल ही शिकार के लिए जाते थे. वह कुमिक और नोगाई भाषाएं बोल लेते थे और राजकुमारी गिरि के अतिथि होते थे. सभी उन्हें प्यार करते . यहां तक कि लड़कियां उनकी उपस्थिति में अपने चेहरे बुर्कों में नहीं छुपाती थीं. पर्वतवासी बा़ज़ों का शिकार करते, जबकि अंकल येपिश्का बाज़ों को प्रशिक्षित करते और अच्छे मूल्य में उन्हें बेचते थे.

"किरिक ग्रिगोर्येविच, तुम्हें तोल्स्तोय की स्मृति है ?" मैंने पूछा.

"इतनी कि मानो वह इस समय मेरे सामने खड़े हैं."

"तुम्हें उनकी कहानी ’कज्जाक’ याद है ?"

"अंतरतम से जानता हूं. हमने उसे बार-बार पढ़ा है." ’यह हमारे तोल्स्तोय द्वारा लिखा गयी है’ हमलोग प्रायः यह कहते हैं.

"उन्होंने किससे लुकाश्का का चरित्र लिया था ?"

"लुकाश्का हमारा मोची था. मैं भूल गया हूं कि उसका वास्तविक नाम क्या था. लेकिन लेव, उन दिनों हमारे सभी लोग लुकाश्का को पसंद करते थे---- ."

"मार्यान्का के विषय में बताइए. वह कौन थी ?"

"उसकी मृत्यु को बहुत कम समय हुआ है."

फिर उसने स्मृतियों को पुनः कुरेदना प्रारंभ किया.

"मुझे याद है कि तोल्स्तोय के पास बहुत सुन्दर घोड़े थे---- एक कुम्मैत और एक चितकबरा. वह अपने घोड़ों को बाहर घुमाना पसंद करते थे. उन्हें उकसाते फिर उडलकर काठी पर चढ़ जाते और गांव के चक्कर लगाते. वह एक कुशल घुड़सवार थे. उनकी ओर हमारे ध्यानाकर्षण का यह एक मात्र कारण था कि वह एक ’जिगीत’ और येपिश्का के मित्र थे. हमने कभी कल्पना नहीं की थी कि वह इतनी ख्याति अर्जित करेंगे. वह मेरे पड़ोस में रहते थे. पहले वह न्यू स्ट्रीट में ग्लूशोक के यहां रहते थे, फिर वह येपिश्का के भाई सेकिन के यहां रहने आ गये थे. उसका घर हमारे घर के बगल में था. बाद में, जब तोल्स्तोय अफसर बन गये, मैंने सुना कि आक्रमण के दौरान उन्होंने अच्छा प्रदर्शन किया था. अपने आदमियों को वह पुराने युर्ट (Yurta ) से आगे ले गये थे. हमने उनके कैसे कैसे कारनामें सुने थे. लेकिन यदि वह जिगीत न होते, हममे से कौन उनकी ओर ध्यान देता ?"

"तुम्हारे गांव में कोई और भी है जिसे तोल्स्तोय की याद हो ?"

"मुझे नहीं लगता. शायद यर्गुशेव ---- अस्सी से ऊपर बूढ़ा व्यक्ति--."

"यर्गुशेव---- नाम परिचित है. लेव निकोलायेविच ने कज्जाक में इसकी चर्चा की है ."

"हां, धुत्त कज्जाक जमीन पर पड़ा है. उसे सीधे जीवन से उठाया गया है. लेव निकोलायेविच ने उसका नाम तक नहीं बदला. यर्गुशेव भयानक पियक्कड़ों में से एक था. वह हमारा रिश्तेदार था."


"किरिल ग्रिगोर्येविच क्या बाद में आपने अनुभव किया कि कितना प्रसिद्ध व्यक्ति आपके गांव में रहता था ?"

"ओह, हां. बहुत पहले हमें ज्ञात हो गया था. जब उनकी पहली पुस्तक प्रकाशित हुई थी. हम सबने उसे पढ़ा था और बच्चों को उनके विषय में स्कूल में बताया जाता था. हमारा भतीजा द्मित्री सेकिन, मिखाइल सेकिन का बेटा , जो अंकल येपिश्का का भी भतीजा था, तोल्स्तोय से मिलने के लिए यास्नाया पोल्याना गया था. लेव निकोलायेविच ने अपने हस्ताक्षर करके अपना एक चित्र उसे हमारे गांव के लिए दिया था. लेकिन चित्र रास्ते में ही चोरी हो गया था.

"ऎसा कैसे हुआ ?"

"इस विषय में द्मित्री स्वयं आपको बता सकता है. वह इन दिनों किज्ल्यार ग्रेबेन रेजीमेण्ट में कार्यरत है. यदि आप चाहें तो उससे कल प्यातिगोर्स्क के निकट मिल सकते हैं. उसका कैम्प युत्सा के निकट है. उसे मेरी शुभकामनाएं देना."

*****

सुबह जल्दी ही मैं प्यातीगोर्स्क से लगभग छः वर्स्ट की दूरी पर युत्सा पर्वत के निकट कैम्प में पहुंचा और येकातेरिनोदर रेजीमेण्ट को ड्रिल करते हुए पाया. असह्य गर्मी थी और चारों ओर उड़ती धूल की मोटी पर्त के कारण कुछ भी दिखायी नहीं दे रहा था. ड्रिल दोपहर को खत्म हुई और जब घोड़ों से जीन उतार दी गई और डिनर तैयार हो गया, मैं द्मित्री को देखने गया.

रेजीमेण्टें अगल-बगल डेरा डाले हुए थीं. ग्रेबेन रेजीमेण्ट के लोग पहले ही कैम्प वापस लौट चुके थे . सेकिन मुझे अपने टेण्ट में मिला . मेरा सामना लंबी मूंछोवाले, नीला पतलून, सफेद कमीज और बड़ा काला फर कैप पहने एक खूबसूरत कज्जाक से हुआ . तब तक उसने स्नान नहीं किया था और सिर से पांव तक धूल से सना हुआ था.

"मैं सेकिन हूं. क्या आप मुझे पूछ रहे हैं ?" दबंग आवाज में उसने पूछा.

"द्मित्री मिखाइलोविच ?"

"हां . मैं आपके लिए क्या कर सकता हूं ?"

"मैं किरिल ग्रिगोर्येविच के माध्यम से आया हूं." मैंने अपना परिचय दिया . ऎसा प्रतीत हुआ कि एक लेखक के रूप में सेकिन ने मेरे बारे में सुना हुआ था. उसने मुझे टेण्ट के अंदर आमंत्रित किया और मैंने उसे सिन्युखायेव के साथ हुई अपनी बातचीत और अपने आने का उद्देश्य बताया.

"मुझे जो कुछ भी जानकारी है आपको प्रसन्नतापूर्वक बताऊंगा. " वह बोला.

"लेव निकोलायेविच के साथ मेरी मुलाकात बहुत महत्वपूर्ण थी, जिसे मैं कभी नहीं भूल सकता. मेरे जीवन का वह एक महत्तम क्षण था."

उसकी अनुमति से मैंने अपनी नोटबुक निकाली, और उसकी बात लिखने लगा.

"फरवरी २१, १९०८ को मैं यास्नाया पोल्याना पहुंचा था. मैं बर्फीले लंबे मार्ग पर जा रहा था. दो किसान सामने दिखे थे. मैंने ध्यान से देखा. एक लेव निकोलायेविच थे. मैं स्लेज से कूदा और उनके पास दौड़ गया . वह बर्फ पर स्लेज के लिए रास्ता बनाने आये थे. उनके पास जाकर मैंने उन्हें प्रणाम किया.

"एक असाधारण बात है लेव निकोलायेविच." मैं बोला, "अपने अंकल की ओर से उनका भतीजा पचास वर्ष बाद आपसे मिलने आया है."

"लेव निकोलायेविच समझ नहीं पाये, केवल गंभीरतापूर्वक मेरी ओर देखते रहे. मैंने पुनः अभिवादन किया."

"आह, पाल्किन ?" लेव निकोलायेविच ने पूछा.

"नहीं, पाल्किन नहीं, बल्कि अंकल येरोश्का का भतीजा."

"लेव निकोलायेविच ने भौंहे सिकोड़ीं. वह उसी प्रकार खड़े रहे और टकटकी लगाकर जमीन पर देखते रहे.

"कौन येरोश्का ?" वह बोले.

"वही येरोश्का -- पचास वर्ष पहले आप जिसके अतिथि थे, जिसके साथ आप शिकार के लिए जाते थे और जिसका चित्रण आपने अपनी कहानी में किया है. "

"येपिश्का ? नहीं !" और लेव निकोलायेविच का चेहरा खिल उठा था.

"मैं रिश्ता नहीं समझ सका था."

"उनके एक भाई था, मिखाइल पेत्रोविच . मैं उनका बेटा, द्मित्री मिखाइलोविच सेकिन हूं."

"सेकिन, सेकिन !"

"उन्होंने मेरी ओर अपना हाथ बढ़ाया और गर्मजोशी से मेरा हाथ दबाया."

"और तुम क्या हो ---- कैप्टेन ?"

मेरे मिलिटरी कोट की ओर वह निर्निमेष देख रहे थे.

"नहीं, लेफ्टीनेण्ट कर्नल."

"अच्छा, आओ चलें."

"वह अपने घर की ओर मुड़े, फिर अचानक बोले, ’तुम घर तक स्लेज पर जाओ और इल्या वसील्येविच से कहना कि मैं दस मिनट में वापस आऊंगा."

"मैंने उनका संदेश इल्या विसील्येविच को दिया और वह मुझे नीचे की मंजिल में एक कमरे में ले गया. दस मिनट में उसने मुझे ऊपर मंजिल में बुलाया. वहां मुझे गोर्बुनोव-पोसारोव, गुसेव और नकल नवीस मिले. लेव निकोलायेविच मुस्कराते हुए अंदर आए और मेरा परिचय दिया :

"मेरे अंकल येरोश्का के भतीजे से मिलें."

"उन्होंने मुझसे गांव के विषय में पूछना प्रारंभ किया और अपने दिनों की यादों में खो गये.

"क्या अभी भी कुछ छतों पर सरकण्डों के छप्पर हैं ?"

"हां."

"और कोई मेरा समकालीन अभी भी जीवित है ?"

"इवान वर्योलोयेविच यर्गुशेव."

"और चिखीर---- तुम अभी भी उसे पीते हो ? चिखीर --- एक सुन्दर पेय ! तुम अभी भी शेमाइका मछली का शिकार करते हो ?"

"नदी में अब अधिक नहीं बचीं, और जो कुछ हैं वे बहुत छोटी हो गयीं हैं."

"यह दुखद है.मुझे सब कुछ बहुत अच्छी प्रकार याद है. स्तारोग्लादोव्स्काया, और पुराना युर्ट. पर्वत कितने सुन्दर हैं! तेरेक और घास का मैदान. वास्तविक जीवन वहीं है. और मिखाइल अलेक्जेयेविच का भाई लुकाश्का ? ओह, हां, मुझे सब कुछ याद है. जिस घर में मैं रहता था उसका क्या हाल है ? और बेबेन्कोव का घर, जहां मेरा भाई निकोलई रहता था ? और येपिश्का की झोपड़ी ?"

"सभी का पुनर्निर्माण हुआ है."

"लेव निकोलायेविच उठ खड़े हुए."

"गुसेव, " वह बोले, "वह भी गांव के विषय में सुनने का इच्छुक है."

"लेव निकोलायेविच कमरे से बाहर चले गये, लेकिन पांच मिनट में वह अच्छी मनःस्थिति में वापस लौट आये, बैठ गये और पुराने समय के विषय में पूछना जारी रखा."

"मेरी स्मृति जवाब दे रही है, लेकिन मुझे सब कुछ पूरी तरह याद है."

"वह पुनः उठ खड़े हुए और बाहर चले गये और कुछ मिनट बाद मुझे अपनी स्टडी में बुलाया. मैंने कहा कि मुझे जाना है."

"ओह, नहीं, बैठ जाओ. इतनी जल्दी क्यों ? मैंने अभी तक तुमसे वास्तविक बात नहीं की."

"लेकिन, महामहिम-----." मैंने कहना शुरू ही किया था कि लेव निकोलायेविच फट पड़े---"

"कृपया, कोई औपचारिकता नहीं..."

"किस प्रकार आपको संबोधित करना होगा. आपको लेव निकोलायेविच कहना भी धृष्टता होगी."

"अगर तुम ग्रेबेन में होते तो क्या पुकारते?"

"हां, जैसा कि आप जानते हैं, अपने से बड़ों को हम अंकल पुकारते हैं. उदाहरण के लिए अंकल येपिश्का."

"अतः तुम अब मुझे अंकल लेव पुकारो. यह बहुत-बहुत सम्मानजनक है." वह हंसे.

"मैंने लेव निकोलायेविच से स्तारोग्लादोव्स्काया स्कूल में लटकाने के लिए उनकी एक तस्वीर मांगी."

"उन्हें एक तस्वीर मिली और उन्होंने उस पर लिखा, ’स्तारोग्लादोव्स्काया के मेरे मित्रों के लिए’ - लेव तोल्स्तोय की ओर से."

"मैं प्रसन्न और उल्लसित वहां से विदा हुआ, लेकिन जल्दी ही दुर्भाग्य से मेरी अंतरात्मा उदासी में डूब गयी. रास्ते में मेरा बैग चोरी हो गया, और वह तस्वीर उसी बैग में थी.

*****

काकेशस में मैंने एक और वृद्ध व्यक्ति को खोज निकाला . वह एक जनरल था, जो उसी बैटरी में कार्यरत था, जिसमें लेव निकोलायेविच थे. लेकिन उससे मैं अधिक कुछ भी हासिल नहीं कर सका. वह बोला, "हुम, निश्चय ही----- हम दोनों को एक ही बैटरी में काम करने का सौभाग्य मिला था. वह एक अच्छे अधिकारी थे."

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शनिवार, 25 जुलाई 2009

सस्मरण

प्रस्तुत संस्मरण मेरे द्वारा संचयित और अनूदित शीघ्र प्रकाश्य पुस्तक ’लियो तोल्स्तोय का अतंरंग संसार’ से उद्धृत है. यह पुस्तक संवाद प्रकाशन मुम्बई/मेरठ से प्रकाश्य है.

अतीत पर निबन्ध
सत्तर पार मेरे पिता लियो तोल्स्तोय

एस.एल.तोल्स्तोय
(सेर्गेई ल्वोविच तोल्स्तोय (१८६३-१९४६)
तोल्स्तोय के बड़े पुत्र)

अनुवाद : रूपसिंह चन्देल

बचपन में हम तीन बड़े बच्चों ने (मेरी बहन तान्या, मेरा भाई इल्या और मैं ) अपने पिता के प्रति असामान्य भाव अपना रखा था. कहना चाहिए, दूसरे बच्चों का अपने पिताओं के प्रति जो विचार होते हैं उससे बिल्कुल भिन्न. हमारे लिए उनके निर्णय, उनकी सलाह-नियम अंतिम होते थे. वास्तव में हम यह विश्वास करने लगे थे कि हम जो भी सोचते और अनुभव करते थे पिता जी वह सब कुछ जानते थे, भले ही वह उसे प्रकट नहीं करते थे. मैं उनकी टकटकी लगाकर देखती छोटी भेदक भूरी आंखों के नीचे छटपटाता, और जब वह किसी विषय पर मुझसे पूछते (वह प्रश्न करना पसंद करते थे और मैं उत्तर देने की परवाह नहीं करता था ) मैं झूठ नहीं बोल पाता, अथवा टालमटोल उत्तर दे देता .

हमारे बचपन की सबसे बड़ी खुशी यह थी कि हम उनके साथ थे. वह जब टहलने, अथवा शिकार करने अथवा भ्रमण करने जाते, हमें साथ ले जाते थे. स्नेह के चिन्ह प्रकट करना उनकी प्रकृति में नहीं था. वह लाड़-प्यार में कभी ही हमे चूमते अथवा नाम लेकर बुलाते. लेकिन हमारे प्रति उनके प्यार से हम अवगत थे और यह भी जानते थे कि हमारे व्यवहार से वह प्रसन्न थे अथवा नहीं. यदि वह मुझे ’सेर्गेझा’ बुलाने के बजाय ’सेर्गुलोविच’ कहकर बुलाते, मैं इसे उनका प्यार मानता. कभी-कभी वह दबे पांव पीछे से आते और अपने दोनों हाथों से मेरी आंखें ढांप लेते. यह अनुमान लगाना कठिन न होता कि कौन था. अथवा वह मेरे दोनों हाथ पकड़ लेते और कहते, "ऊपर चढ़ो " और मैं उनकी सहायता से उनके ऊपर चढ़ जाता और उनके कंधों पर खड़ा हो जाता या बैठ जाता. उसी स्थिति में वह मुझे लेकर कमरे में घूमते, फिर अचानक वह मुझे पहले ऊपर हवा में उछालते और फिर पैरों पर खड़ा कर देते. हम इन कलाबाजियों को बहुत पसंद करते थे और यदि पिता जी हममें से किसी को भी ऎसा करते, कहूं, मुझे , मेरी बहन तान्या अथवा भाई इल्या को तो तुरन्त हम चीखना शुरू कर देते , "मुझे भी ! मुझे भी ."

यहां तक कि हम पिता जी की तम्बाकू की विशेष गंध ( वह उस समय तक धूम्रपान करते थे ) , उनकी फलालेन की शर्ट, और उनके स्वास्थ्यवर्द्धक घोर परिश्रम को बहुत पसंद करते थे.

जिमनास्टिक हमारे मन बहलाव की रुचिकर चीज थी. यह इस प्रकार प्रारंभ होती : हम एक पंक्ति में पिता के सामने खड़े होते और उनकी गतिविधि को ठीक उसी प्रकार दोहराने का प्रयास करते--- सिर को दाहिने मोड़ते, फिर बायें, फिर ऊपर, फिर नीचे. बाहों को सीधा तानते, ऊपर उठाते और पहले दाहिना , फिर बांया पैर झुकाकर उंकड़ू बैठ कुहनियों से सीधे जमीन स्पर्श करते, और इसी प्रकार और बहुत कुछ करते. यहां तक कि हमारे पास लकड़ी का एक घोड़ा भी था, जिसपर चढ़कर हम कूदते थे.

सामान्यतः पिता जी हमारे शारीरिक विकास को विशेष महत्व देते और ध्यान रखते थे. वह जिमनास्टिक, तैराकी, दौड़ना, ऊंची कूद, घुड़सवारी, और ’लेप्ता’ और मोरोद्की सहित बच्चों के अन्य खेलों के लिए हमें प्रोत्साहित करते थे. कभी-कभी जब हम साथ टहल रहे होते वह कहते, "देखें कौन सबसे तेज दौड़ सकता है", और हम सब उनके पीछे दौड़ पड़ते थे.

पिता जी ने कभी हमें दण्डित नही किया, न ही कोने में खड़ा किया. विरले ही कभी हमें डांटा और फटकारा. उन्होंने न कभी हमें पीटा या हमारे कान खींचे, लेकिन वह कैसा महसूस कर रहे थे यह प्रकट करने के उनके अपने दूसरे ढंग थे. वह हमारी उपेक्षा करके अपनी अप्रसन्नता प्रकट करते और हमें अपने साथ ले जाने से इंकार कर देते, अथवा कोई व्यंग्यात्मक टिप्पणी करते.

कहानी सुनाते समय जो बात आमोद-प्रमोद या बुद्धिमानी की होती , और हममें से कोई हंस देता, पिता जी कहते, "जोक सुनाने वाले तीन प्रकार के होते हैं. सबसे खराब प्रकार का वह जो जोक सुनाते समय हंसता है, यद्यपि उसके सुनने वाले नहीं हंसते, दूसरे प्रकार का अपने श्रोताओं के साथ हंसता रहता है, और सबसे अच्छा वह होता है, जो स्वयं नहीं हंसता. यह बात वह अपने श्रोताओं पर छोड़ देता है."

उन्होंने कहानी सुनाते समय हमारे श्रोताओं को ऊबता देखने की परेशानी से बचने के लिए न हंसने की सलाह दी.

जब मैं वाग्विदग्ध हो जाता या श्लेष में बोलता, वह कहते, "तुम्हारी वाग्विदग्धता एक लॉटरी की तरह है. जीतने के नम्बर कुछ ही हैं. अधिकांश ’अलेग्री’ (allegri ) शब्द लिखी खाली टिकटें हैं." हर बार मैं समझता और आशा करता कि मैंने बुद्धिमानीपूर्ण टिप्पणी की थी और हताश अनुभव करता, वह कहते, "अलेग्री’ अथवा "हार गये".

जब कभी मैं दुर्घटनावश, अपने या किसी अन्य के कपड़े फाड़ देता या गंदे कर देता अथवा दिये गये काम को नहीं करता और किसी कारण मैं कर नहीं पाया कहकर अपनी सफाई पेश करता, वह कहते :

"इसीलिए मैं तुम्हें डांट रहा हूं कि दुर्घटनावश ऎसा कर रहे हो. तुम्हें प्रयत्न करना चाहिए कि ऎसी दुर्घटनावश न होने पाये."

उनकी दूसरी चेतावनी होती :

"जब तुम कोई काम करो, भली प्रकार से करो. यदि तुम नहीं कर सकते या करना नहीं चाहते , उसे बिल्कुल मत करो."

पिता जी मित्रों अथवा रिश्तेदारों के बीच घनिष्टता पसंद नहीं करते थे. उनकी टिप्पणी थी : "ऎसे मित्र हैं जो एक-दूसरे के पीठ पीछे बुराई करते हैं और कहते हैं -- ’अच्छे पुराने बदमाश !’ अथवा ’प्यारे बूढ़े कुत्ते’. "यह अमिकोशोन्स्त्वो (amicoshonstvo- - सुअरों की मित्रता) है."

जब पिता जी लिखते, न तो वह और न ही परिवार का कोई दूसरा सदस्य यह कहता कि वह काम कर रहे हैं, लेकिन वह सदैव व्यस्त रहते थे. वह ग्रीष्मकाल में अपने को अधिक व्यस्त नहीं रखते थे, बल्कि तीन महीने वह आराम करते थे. वर्ष के शेष दिनों , शरद के कुछ दिनों को छोड़कर जब कभी वह पूरा दिन शिकार में व्यतीत करते, वह प्रायः प्रतिदिन काम करते थे. जब वह व्यस्त होते, उनके कमरे में जाने का कोई साहस नहीं करता था, मेरी मां भी नहीं. बिना व्यवधान उन्हें पूरी तरह शांति और निश्चिन्तता की आवश्यकता होती थी. उनकी स्टडी बड़ी इटैलियन खिड़कीवाले कमरे में थी. उसके दो ओर दरवाजे थे, जिनमें एक डायनिंग रूम और दूसरा ड्राइंगरूम की ओर खुलते थे, और उन्हें वह बंद रखते थे. साथ वाले कमरे में भी हम शांत और सतर्कतापूर्वक प्रवेश करते थे --- यही हमें आदेश थे. ऎसे समय डायनिंग रूम में पियानो बजाने का तो प्रश्न ही नहीं था, क्योंकि पिता जी का कहना था कि वह संगीत नहीं सुन सकते भले ही वह कितना ही धीमे क्यों न बजाया जाये.

१८५७ में पिता जी ने चेपिझ में एक कुटीर बनवायी थी, जहां वह गर्मियों में लिखने और पढ़ने के लिए जाते थे.

काम के बाद पिता जी टहलने अथवा घुड़सवारी के लिए जाते थे. कभी -कभी उनका भ्रमण सप्रयोजन होता, जब उन्हें जागीर में कुछ काम होता, शिकार के लिए जाना होता, किसी से मिलना होता अथवा वहां ठहरना होता. जब उन्हें कोई प्रयोजन नहीं होता वह प्रायः जुसेस्का (राज्य का जंगल ) अथवा राजमार्ग तक जाते थे .

उद्देश्यहीन टहलना संभवतः उन्हें अधिक़ लाभप्रद प्रतीत होता था. उसमें वह अपनी लेखन सामग्री संचयित कर लाते थे. उस विशाल राजकीय जंगल में वृक्षहीन स्थल, जिन्हें वह अत्यधिक पसंद करते थे, अल्प-प्रयुक्त सड़कें, निकुंज, और दर्रों का वन्य-दृश्य , उसकी एकांतता, हरीभरी वानस्पति , आदि जंगल के आदिम बोध को संप्रेषित करते थे.

पिताजी को ज्ञात था कि कैसे पढ़ते हैं . उनकी स्मरण शक्ति असाधारण थी. जब हम यास्नाया पोल्याना में रह रहे थे वह बहुत अधिक पढ़ते थे. उन्होंने ग्रीक भाषा सीखी , अपने लिए उसकी व्याकरण और पाठमाला की सामग्री का संचयन किया. वह ’पीटर दि ग्रे” के समय को आधार बनाकर और दिसम्बरवादियों पर उपन्यास लिखने का विचार कर रहे थे . उन्होंने चेत्यी-मिनी (Chetyi - Minie) पढ़ा. रूसी वीरगाथाओं और लोकोक्तियों और सातवें दशक के अंत में, न्यू टेस्टामेण्ट और धर्मग्रंथों की समीक्षाओं का अध्ययन किया.

इसके अतिरिक्त वह विदेशी उपन्यास पढ़ते थे, विशेषकर अंग्रेजी और फ्रेंच (अंग्रेजी साहित्य में उनकी अभिरुचि डिकेन्स, ठाकरे (Thackeray) , और घरेलू उपन्यासों में ट्रोलोप, मिसेज हम्फ्री वार्ड, जार्ज इलियट, ब्राइटन, ब्रैडन आदि के उपन्यासों में थी.

जैसा कि बहुविदित है, ब्रिटिश उपन्यासकारों में वह डिकेन्स को सर्वोपरि मानते थे. ठाकरे को वह कुछ तटस्थ पाते थे और शेष में विशेष रूप से ’एडम बेडे’ (Adam Bede) और ’दि विकर ऑफ वेकफील्ड’ (The Vicar of Wakefield ) की प्रशंसा करते थे.

फ्रेंच में वह विक्टर ह्यूगो, फ्लाबर्ट, ड्रोज, फेलर (Felier) ज़ोला, मोपासा, डौडेट (Daudet) , गॉन्कर्ट्स (Goncourts) और अन्य लेखकों को पढ़ते थे.

उन्होंने विशेषरूप से विक्टर ह्यूगो का ले मेजराब्स (Les miserables ) और Le dernier Jourd'un Condamne, और यथार्थवादियों में मोपासा के काम को विशेष महत्वपूर्ण माना था. वह फ्लाबर्ट, बाल्जाक और डौडेट के प्रति तटस्थ थे, लेकिन वह जोला को रुचि लेकर पढ़ते थे, हालांकि वह उनके यथार्थवाद को सुविचारित और उनके चित्रण को बहुत विस्तृत और अनावश्यक मानते थे.

"ज़ोला के पात्र बीस पृष्ठों तक हंस खाते रहते हैं. यह बहुत लंबा है " La terre के एक प्रसंग पर उनकी टिप्पणी थी.

उन्होंने जर्मन कथा-साहित्य अधिक नहीं पढ़ा था. मुझे नहीं याद शिलर (Schiller) , गोयेथ (Goethe) और ऑरबाक (Auerbach) के अतिरिक्त उन्होंने किसी अन्य जर्मन लेखक को पढ़ा था. वह हमें शिलर का ’दि रोबर्स’ और गोयेथ के वर्दर (Werther) और ’हर्मन एण्ड डोरोथिया’ (Hermann and Dorothea) पढ़ने की सलाह देते थे.

सातवें दशक में प्रकाशित रूसी साहित्य भी उन्होंने अधिक नहीं पढ़ा था. पत्रिकाएं वह बिल्कुल ही नहीं के बराबर पढ़ते थे, और जहां तक कथा-साहित्य की बात है, जो कुछ भी हाथ आता उस पर वह केवल दृष्टिपात ही कर पाते थे. तुर्गनेव की पुस्तकें, जैसे ही वे प्रकाशित होतीं, सर्वाधिक उन्हें आकर्षित करती थीं. जहां तक दॉस्तोएव्स्की की पुस्तकों की बात है, यदि मुझे सही स्मरण है, कुछ , जिसमें एडलेसेण्ट (Adolescent) है, की जानकारी उन्हें नहीं थी. वह अन्द्रेई पेचेर्स्की मेलिनिकोव की ’फारेस्ट्स’ और ’माउण्टेन’ को पसंद नहीं करते थे, और कहते, "शैली अवास्तविक है. वह जनसाधारण की भाषा के शब्दों के साथ खिलवाड़ करते हैं.वह किसानों के जीवन के विषय में नहीं जानते." मेलिनकोव पेचेर्स्की के विषय में उनकी एक अन्य टिप्पणी थी, "यह अवास्तविक लेखन है. उदाहरण के लिए एक स्थान पर पेचेर्स्की ने कहा है : "रूसी लोग पेड़ों को कभी नहीं छोड़ते. वह सदियों पुराने बलूत के पेड़ को टुकड़े-टुकड़े कर देते हैं और उससे डण्डा बनाते हैं."

"जो वह नहीं जानते वह यह कि मुझिक कभी-भी पुराने बलूत के पेड़ से डण्डा नहीं बनाते, बल्कि इस उद्देश्य के लिए वह सदैव जवान भुर्ज का पेड़ काटते हैं." ऎतिहासिक उपन्यासों , जैसे युरी माइलोस्लाव्स्की और काउण्ट सेरेब्रियानी (वाल्टर स्कॉट की अनुकृतियां, जिन्हें पिता जी नापसंद करते थे ), के विषय में उनका कहना था कि उनमें तत्कालीन परम्पराओं का मिथ्या निरूपण किया गया है. वह अवज्ञापूर्ण ढंग से डैनिलेव्स्की, मोर्दोव्त्सेव, सैलियस, सोलोव्योव, और दूसरे लोगों के ऎतिहासिक उपन्यासों को खारिज करते थे.

वह हम बच्चों को सलाह देते कि उत्कृष्ट साहित्य पढ़ने की जल्दबाजी न करें, जिसे हमारे बड़े होने पर और उन्हें और अधिक अच्छे ढंग से समझ सकने योग्य हो जाने पर उनकी ताजगी नष्ट न होगी. उन्होंने हमें बच्चों और बड़ों की विश्वप्रसिद्ध पुस्तकें पढ़ने की सलाह दी. उदहरणार्थ रॉबिन्सन क्रूसो, डॉन क्विक्जोट, गलिवर्स ट्रेवेल्स, विक्टर ह्यूगो का ले मिजराब्स, अलेक्जेंडर डमास की पुस्तकें, डिकेन्स (ऑलिवर ट्विस्ट और डैविड कॉपरफीलल्ड ) आदि. रूसी साहित्य में उन्होंने पुश्किन और गोगोल, तुर्गनेव के ’ए हण्टर्स स्केचेज’ और दॉस्तोएव्स्की का ’नोट्स फ्राम दि डेड हाउस’ की अनुशंसा की थी. उन्होंने कभी अपने किसी काम को पढ़ने की सलाह नहीं दी अपवादस्वरूप ’ग्रामर’ और ’रीडर’ की कुछ कहानियों को छोड़कर.

रूसी साहित्य के विषय में लेव निकोलायेविच बताते : "पीटर दि ग्रेट से पहले महाकाव्यों और इतिहास और रूसी लेखकों , भयानक इवान और कुर्ब्स्की के पत्राचार, आर्चबिशप अवाकम की जीवनी, कोतोशिखिन, पोसोस्कोव आदि के विषय में बहुत कम कहा गया है और अब भी वह गंभीर और ज्ञानप्रद साहित्य है."

मेरे किशोरावस्था के दौरान पुश्किन के विषय में उन्होंने सलाह दी थी कि मैं सबसे पहले उनकी - ’दि टेल्स ऑफ बेल्किन’ पढ़ूं. पुश्किन के गद्य, भाषा, शैली और रचनात्मकता के विषय में उनके विचार बहुत उच्च थे. ’दि क्वीन ऑफ स्पेड्स’ को वह रचनात्मक निष्पादन का प्रतिमान मानते थे.

कविता के प्रति पिता जी का विचार पूरी तरह नकारात्मक था. उनका कहना था कि कविगण कविता और छंद, जिसमें भाषा और विम्बविधान की लयात्मकता होनी चाहिए, को जटिल बना देते हैं. उनके पास अपने विचारों की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अभाव होता है. वह कुछ ही कवियों को महव देते थे - त्युचेव, लर्मन्तोव, फेत, और निश्चय ही पुश्किन. जब मैंने एक बार टिप्पणी की कि पुश्किन कविता में ही सोचते हैं, उन्होंने मुझसे सहमति व्यक्त की थी.

एक व्यक्ति के रूप में, सहानुभूति के साथ , वह पुश्किन का सम्मान करते थे. वह पुश्किन को एक सच्चा इंसान मानते थे, जिसने अपनी कमजोरियों के प्रति आंखें बंद नहीं की थीं, और जो, यदि वह समझौता करता तो कर्म में, विश्वास में कभी नहीं. मुझे याद नहीं कि कहां उन्होंने एक मित्र के साथ पुश्किन का संवाद सुना था जिससे वह नेव्स्की प्रोस्पेक्ट के यहां मिले थे.

"मैं एक नीच व्यक्ति जैसा अनुभव कर रहा हूं." पुश्किन ने कहा.

"क्यों?" उनके मित्र ने पूछा.

"मैं अभी-अभी जार से मिला और उससे बात करने के लिए झुका."

सातवें दशक के अंत में ओटेचेस्टवेन्निये जपिस्की (Otechestvenniye Zapiski) पत्रिका की एक प्रति यास्नाया पोल्याना में प्राप्त हुई. पिता जी ने रुचिपूर्वक उसे पढ़ा, खासकर शेंन्द्रिन (Shchendrin) और एंगेलहर्ड (Engelhardt) का ’लेटर्स फ्राम दि विलेज’. उन्होंने हमें शेंद्रिन के ’ए ब्राड’ के अंश पढ़कर सुनाये. पतलून और बिना पतलून वाले बच्चों के मध्य हुए संवाद ने उन्हें इतना हंसाया कि वह चीख उठे थे.

पिताजी जंगलों , खेतों, चारागाहों और आकाश की सुन्दरता को प्यार और प्रशंसा करते थे जैसा कि कुछ और लोग करते हैं. वह कभी-कभी कहते, "ईश्वर ने कितने प्रकार के वरदान प्रदान किये हैं. प्रकृति अत्यधिक परिवर्तनीय है. प्रत्येक दिन वह पहले से भिन्न होती है, प्रतिवर्ष मौसम अप्रत्याशित होता है."

उनकी दृष्टि एक लैण्डस्केप पेण्टर की थी, हालांकि कला के इस प्रकार को वह निम्नकोटि का मानते थे. उदाहरण के लिए एक बार मैंने उन्हें चिल्लाकर कहते सुना, "काले बलूत के जंगल की पृष्ठभूमि के विपरीत पीली राई कितनी प्यारी दिख रही है. एक लैण्डस्केप पेण्टर के लिए अच्छा विषय है."

कभी -कभी वह आकाश और बादलों के बारे में कहते, "कितनी आश्चर्यजनक रोशनी है. यदि कोई कलाकार ऎसा एक चित्र बनाए तो कोई भी उस पर विश्वास नहीं करेगा. उसे अपनी कल्पनाशक्ति से पलायन का दोषी ठहराया जायेगा."

कभी-कभी टहलकर लौटते समय वह हमारे क्षेत्र में विरल उपलब्ध फूल लेकर आते, अथवा असाधारण रूप से बड़ा भुट्टा. वसंत में -- पहाड़ी बादाम की बौराई गुलाबी टहनी, हल्के रंग वाली पत्ती अथवा अनोखे आकार के बीज वाली फली. हमें दिखाते हुए वह स्वयं उनकी प्रशंसा किया करते थे.

एक निर्मल रात उन्होंने हमें तारामण्डल के विषय में बताया. कभी उनकी रुचि खगोल विज्ञान में रही थी. (स्पष्टतया मीमांसात्मक खगोल विज्ञान) और उन्होंने तारों के नाम बताये और तारा, ग्रह और धूमकेतु में अंतर समझाया था.

कभी-कभी वह किसानों के जीवन के विषय में बताते, विशेषरूप से यास्नाया पोल्याना के किसानों के विषय में . वह उनके घरों में जाते, उनसे बातें करते, कभी -कभी उन्हें सलाहें देते, उनकी समस्याओं पर बातचीत करते और उनके प्रश्नों के उत्तर देते. किसान अपने पारिवारिक मसले, यहां तक अपनी गोपनीय बातें उन्हें बताते. उन्होंने एक बहुत ही गोपनीय बात बतायी कि भगोड़ा अपराधी रिबिन गांव में दुर्नोसेन्कोव के घर में छुपा हुआ है.

एक अन्य अवसर पर उन्होंने बताया कि एक किसान राजमार्ग के निकट गड्ढे में गिरकर दफ्न हो गया , जहां वे रेतीली जमीन खोद रहे थे. वह किसानों के साथ गये थे, जिन्हें खोदकर लाश निकालनी थी और बोले थे कि किसान वीरोचित भाव से इस खतरे को अलक्षित करके गये थे जबकि वे स्वयं उसमें दफ्न हो सकते थे.

वह किसानों के काम और उनसे संबन्धित सुक्ष्मतम विवरण जानते थे और परीक्षा लेते हुए हमसे पूछते, "जोतने के काम आने वाले उपकरणॊं के भिन्न भागों के नाम बताओ और बताओ कि उन्हें कैसे जोड़ा जाता है." अथवा "हल के हिस्सों के नाम बताओ." हमें उस विषय का पूरा ज्ञान था, फिर भी जो सूचना हम नहीं दे पाते उसकी जानकारी वह स्वयं हमें देते थे.

कभी-कभी वह हमें बताते कि उस समय उनके दिमाग में क्या चल रहा है ---- एक बार उन्होंने समय मापने का विचार प्रस्तुत किया. उहोंने कहा कि समय मापने के दो पैमाने हैं ---- एक वस्तुनिष्ठ और दूसरा आत्मनिष्ठ. वस्तुनिष्ठ रूप में हम समय को वर्ष , दिनों और घण्टों आदि में मापते हैं, और आत्मनिष्ठ रूप में हमने जैसा अनुभव किया.

जो पुस्तकें चर्चित हो जाती हैं उनके लिए वह लैटिन के एक कथन को उद्धृत करते हुए कहते, "अपने पाठकों की योग्यता पर निर्भर हर पुस्तक का अपना भाग्य होता है ." उन्होंने देखा कि प्रायः कथन का पूर्वार्द्ध ’पुस्तकों का अपना भाग्य होता है’ ही उद्धृत किया जाता है, और इस प्रकार उसका वास्तविक अर्थ खो जाता है. उनके अनुसार, ’किसी पुस्तक की सफलता उसके पाठकों के बौद्धिक विकास पर निर्भर होती है.’

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मंगलवार, 7 जुलाई 2009

सोफिया अन्द्रेयेव्ना तोल्स्तोया कि डायरी

महान रूसी लेखक लियो तोल्स्तोय पर उनके रिश्तेदारों, मित्रों,सहयोगियों, लेखकों और रंगकर्मियों द्वारा लिखे गये संस्मरणॊं का मैंने अनुवाद किया जो ’लियो तोल्स्तोय का अंतरंग’ के रूप में संवाद प्रकाशन मुम्बई/मेरठ से शीघ्र ही प्रकाश्य है. प्रस्तुत है उनकी पत्नी सोफिया अन्द्रेयेव्ना तोल्स्तोया की डायरी के मुख्य अंश जो केवल तोल्स्तोय से ही संबन्धित है. डायरी के इन अंशों को वेब पत्रिका ’साहित्य शिल्पी’ ने प्रकाशित किया था, लेकिन ’रचना यात्रा’ के पाठकॊं के लिए यह पुनः प्रकाशित है:

सोफिया अन्द्रेयेव्ना तोल्स्तोया की डायरी

अनुवाद : रूपसिंह चन्देल

१४ जनवरी, १८६३

लेव की आध्यात्मिक गतिविधियां इन दिनों शांत प्रतीत हो रही हैं, फिर भी मैं जानती हूं कि उनकी आत्मा कभी नहीं सोती बल्कि सदैव नीतिपरक समस्याओं में व्यस्त रहती है.

जनवरी १७, १८६३

अभी मैं गुस्से में थी. मैं उनसे उनकी प्रत्येक वस्तु और प्रत्येक व्यक्ति को प्यार करने प्रकृति के कारण नाराज थी, जबकि मैं चाहती हूं कि वह केवल मुझे ही प्रेम करें. इस समय मैं अकेली हूं और देख सकती हूं कि मैं पुनः दुराग्रही हो गयी हूं. यह उनकी सहृयता और भावप्रवण समृद्धता है जो उन्हें विशिष्ट बनती है. लेकिन जब उन्हें क्रोध आता है वह उग्र हो उठते हैं. तब वह मुझे इस सीमा तक परेशान और उत्पीड़ित करते हैं कि झुक जाने में ही मुझे मुक्ति मिल पाती है. लेकिन उनका क्रोध शीघ्र ही समाप्त हो जाता है और फिर वह बिल्कुल परेशान नहीं करते.

फरवरी २५, १८६५
कल लेव ने कहा कि उन्होंने अपने को एक तरुण की तरह अनुभव किया और मैंने उनकी बात भलीप्रकार समझी-----उन्होंने कहा कि युवा अनुभव करने का अर्थ है कि सब कुछ उसकी सामर्थ्य में है. दुन्याशा कहती है कि वह बूढ़ी हो गयी है. क्या यह सच हो सकता है ? वह कभी प्रफुल्ल नहीं रहते. मैं प्रायः उन्हें नाराज कर देती हूं. उनका लेखन उन्हें व्यस्त रखता, लेकिन वह उन्हें सुख नहीं दे पाता.

मार्च ६, १८६५

लेव चुस्त, प्रसन्न, स्वतंत्र, और एक संकल्प के साथ काम कर रहे हैं. मैं अनुभव करती हूं कि उनमें स्फूर्ति और सामर्थ्य है और मैं उन पर रेंगती एक मामूली कीड़ा हूं और उन्हें नष्ट कर रही हूं.


मार्च १५, १८६५

मै भयानकरूप से उन्हें प्यार करती हूं. उनके साथ रहने वाला कोई उनके प्रति बुरा नहीं हो सकता. उनके आत्मज्ञान और सभी मामलों में उनकी ईमानदारी मुझे अपनी नजरों में गिरा देती है और मुझे आत्मविश्लेषण करने और अपनी रंचमात्र त्रुटियों को खोज लेने के लिए प्रेरित करती है.

मार्च २६, १८६५

लेव की इच्छा एक कवि की भांति जीवन जीने और उसका उपभोग करने की है. मैं सोचती हूं कि ऎसा इसलिए है क्योंकि उनके अंदर मौजूद कविता अत्यंत सुन्दर, अत्यंत प्रचुर और अत्यंत अमूल्य है.

मार्च १२, १८६६

मास्को में हमने छः सप्ताह बिताये. ७ को लौटकर लेव मूर्तिकला और जिमनास्टिक की कक्षाओं में गये. हमने दिलचस्प समय बिताया . लेव ने अपने चितकबरे घोड़े को सजाया.

जुलाई १९, १८६६

हमारा एक नया कारिन्दा, अपनी पत्नी के साथ यहां आया हुआ है. वह युवा , सुदर्शना और निहिलिस्ट है. उसने और लेव ने साहित्य और दर्शन पर लंबी और जीवंत चर्चा की---- मैं कहना चाहूंगी---- बहुत लंबी और गैरजरूरी. निश्चित ही वह मुझे बोर और उसकी चाटुकारिता कर रहे थे.

अगस्त १०, १८६६

कल बिबिकोव ने हमें एक भयानक कहानी सुनाई. सेन के एक लिपिक को अपने कम्पनी कमांडर के मुंह पर मारने के लिए गोली मार दी गई. कोर्ट मार्शल में लेव ने उसे बचाने का प्रयास किया, लेकिन दुर्भाग्य से बचाव, सामान्यतया, एक औपचारिकता से अधिक नहीं था.

जनवरी १२, १८६७

लेव पूरी सर्दियों भर आवेश और क्षोभ सहित, कभी-कभी आंखों में आंसू भरे निरन्तर लिखते रहे.

मार्च १५, १८६७


कल रात १० बजे हमारे वनस्पति उगाने के तापघर में आग लग गयी और जलकर वह धराशायी हो गया. मैं सो रही थी. लेव ने मुझे जगाया और मैंने खिड़की से लपटें देखीं. लेव ने माली के बच्चों और चीजों को वहां से हटाया ---- सभी पौधे (उन्हें उनके दादा ने लगाया था और जिन्होंने तीन पीढ़ियों को खुशी प्रदान की थी ) नष्ट हो गये थे. जो नष्ट नहीं हुए या तो उनपर बर्फ जम गयी थी अथवा वे झुलस चुके थे----- लेव को देख मुझे बहुत दुख हो रहा था, क्योंकि वह बहुत दुखी दिख रहे थे----. वह अपने पौधों और फूलों के प्रति बहुत अनुरक्त थे और उन्हें पर्याप्त समय देते थे. उनके लगाये पौधे जब फलने-फूलने लगे थे तब वह प्रसन्न हुए थे.

अक्टूबर ६, १८७८

सुबह मैंने लेव को नीचे की मंजिल में डेस्क पर लिखते हुए पाया. उन्होंने कहा कि वह अपनी नयी पुस्तक के प्रारंभ को दसवीं बार पुनः लिख रहे थे. यह एक मुझिक (रूसी कृषक) द्वारा अपने मालिक के विरुद्ध चलाये गये मुकदमे की जांच-पड़ताल से प्रारंभ होता है. लेव ने मामले को रिकार्ड से सीधे लिया था, यहां तक कि तारीखें भी सही दी थीं. इस मुकदमें की कहानी सेण्ट पीटर्सबर्ग और अन्य स्थानों के किसानों और उनके मालिकों को चित्रित करती एक झरने की भांति बहती है.

अक्टूबर २३, १८७८
शाम के समय लेव ने वेबर का सोनाटा और शुबर्ट बजाया, कुछ को वायलिन में-----. आज उन्होंने कहा कि उन्होंने इतनी अधिक ऎतिहासिक सामग्री पढ़ी है कि वह उससे थक गये हैं, और अब डिकेन्स की ’मार्टिन शुजविट’ (Martina Chuzzlewit) पढ़ते हुए आराम कर रहे थे. मैं जानती हूं कि जब लेव अंग्रेजी उपन्यासकारों की ओर उन्मुख होते हैं तब वह कुछ नया लिखने वाले होते हैं.

अक्टूबर २४, १८७८

वह अभी तक लिख नहीं सके हैं. आज उन्होंने कहा : "सोन्या, यदि मैं लिखता हूं, तो उसे इतना बोधगम्य होना चाहिए कि छोटे बच्चे भी उसके प्रत्येक शब्द को समझ सकें.

नवम्बर १, १८७८


कल सुबह लेव ने मुझे अपनी नयी पुस्तक का प्रारंभिक अंश पढ़कर सुनाया था. उनकी परिकल्पना स्पष्ट, गहन और रुचिकर है. यह एक किसान द्वारा जमीन के एक टुकड़े को लेकर अपने मालिक के विरुद्ध दायर एक मुकदमें से प्रारंभ होता है, फिर मास्को में प्रिंस चेर्निशेव और उनके परिवार के आगमन, और एक धर्मानुरागी वृद्धा के उद्धारक मन्दिर की आधार शिला रखने आदि को चित्रित करता है. शाम के समय अचानक लेव लंबे समय तक पियानो बजाते रहे. इस दिशा में भी वह बहुत प्रतिभा संपन्न हैं.

नवम्बर ४, १८७८

लेव मुश्किल से ही कुछ लिखते हैं और उदास हैं----- मैं बच्चों को पढ़ाती हूं. लेव और मुझमें सेर्गेई को फ्रेंच पढ़ाने को लेकर बहस हुई. मैं मानती हूं कि उसे फ्रेंच साहित्य पढ़ना चाहिए, जबकि लेव ऎसा नहीं चाहते.

नवम्बर ११, १८७८

लेव---- को शिकायत है कि वह नहीं लिख सकते. शाम के समय जब वह डिकेंस का ’डाम्बे एण्ड सन’ पढ़ रहे थे, अचानक मेरी ओर मुड़कर बोले, "आह, अभी क्या ही खूबसूरत विचार मुझे आया !" मैंने पूछा, वह क्या था, लेकिन उन्होंने बताया नहीं. फिर उन्होंने स्पष्ट किया, "मैं एक वृद्धा के विषय में सोच रहा हूं, वह कैसी दिखनी चाहिए, उसकी आकृति, उसके विचार, और विशेषकर----- उसकी अनुभूतियां. यही मुख्य बात है ---- उसका अनुभव करना. उदाहरण के लिए उसका पति गेरासिमोविच आधा सिर घुटाये जेल में बैठा है, जबकि वह निर्दोष है; यह अनुभूति एक क्षण के लिए भी उससे अलग नहीं होनी चाहिए.

नवम्बर ६, १८७८

लेव ने आज कहा कि सब कुछ सुस्पष्ट होता जा रहा है. उनके चरित्र जीवन से ग्रहण किये गये हैं. आज उन्होंने काम किया और अच्छी मनःस्थिति में थे. वह जो कुछ कर रहे हैं उस पर विश्वास करते हैं. लेकिन उन्होंने सिर दर्द की शिकायत की, और उन्हें खांसी है.

मार्च २४, १८८५

कल लेव क्रीमिया से वापस लौटे. वह विशेषरूप से उरूसोव के साथ गये थे , जो बीमार हैं. क्रीमिया में उन्हें सेवस्तोपोल के युद्ध की याद ताजा हो आयी थी. वह पहाड़ों पर चढ़े और समुद्र की प्रशंसा की. सिमीज जाते हुए, वह और उरूसोव उस स्थान से गुजरे जहां युद्धकाल में लेव अपनी तोप के साथ रुके थे. वहां उन्होंने केवल एक बार उसे दागा था. यह लगभग तीस वर्ष पहले की बात है. वह उरूसोव के साथ यात्रा कर रहे थे जब अचानक वह गाड़ी से नीचे कूद गये और कुछ देखने लगे. उन्हें सड़क के पास तोप का एक गोला दिखाई दे गया था. क्या वह वही गोला था जिसे सेवस्तोपोल युद्ध के दौरान लेव ने दागा था ! उस स्थान पर किसी और ने तोप नहीं दागी थी. उस क्षेत्र में केवल एक ही तोप थी.

जून १८, १८८७

लेव हमारी दो बेटियों और कुजमिन्स्की की दो लड़कियों के साथ चहल-कदमी करते युए यसेन्की गये. दूसरी शाम उन्होंने घण्टॊं पियानो बजाकर अपना मन बहलाया. वायलिन पर मोजार्ट, वेबर और हेदन बजाया. प्रतीत होता था कि इससे उन्हें अत्यधिक आनंद प्राप्त हुआ था.

अमेरिका में मिली अपनी सफलता से , अथवा कहना चाहिए कि जिस सहानुभूतिपूर्वक उनके काम को वहां स्वीकार किया गया , उससे वह अत्यंत प्रसन्न हैं. लेकिन सफलता और यश में उनकी बहुत रुचि नहीं है. आजकल वह अधिक ही प्रसन्न दिखाई देते हैं और प्रायः कहते हैं कि जीवन कितना अद्भुत है.

जुलाई २, १८८७

शाम सेर्गेई वाल्ट्स (जर्मन नृत्य) नृत्य कर रहा रहा था. लेव अंदर आये और मुझसे बोले, "अब हमे नृत्य करने दो". युवाओं को आनंदित करते हुए हमने नृत्य किया. वह बहुत प्रफुल्ल और फुर्तीले हैं, लेकिन कमजोर हो गये हैं. जब वह घास लगाते अथवा टहलते हैं, जल्दी ही थक जाते हैं. स्त्राखोव के साथ विज्ञान , कला और संगीत पर उन्होंने लंबी चर्चा की. आज उन्होंने फोटोग्राफी पर भी चर्चा की.

अगस्त १९, १८८७

कलाकार, रेपिन, यहां आए हुए थे. वह ९ को पहुंचे और १६ की शाम को गये. उन्होंने लेव निकोलायेविच के दो पोट्रेट बनाए. पहला नीचे की मंजिल में उनकी स्टडी में उन्होंने बनाना प्रारंभ किया, लेकिन रेपिन उससे असंतुष्ट थे और उन्होंने ऊपर की मंजिल पर ड्राइंगरूप में रोशनी की पृष्ठभूमि के सामने बनाना प्रारंभ किया. पोट्रेट अप्रत्याशित रूप से अच्छा है. वह अभी यहीं सूख रहा है. उन्होंने पहला बहुत तेजी से समाप्त किया था और उसे मुझे भेंट किया था.


शाम के समय लेव ने हम सभी को गोगोल का ’डेड सोल’ पढ़कर सुनाया.

दिसम्बर २८, १८९०

कल उहोंने (तोल्स्तोय) लेव (तोल्स्तोय का बेटा) को बताया कि उन्होंने ’क्रुट्जर सोनाटा’ लिखते समय किस प्रकार का साहित्यिक प्रयोग किया. उन्होंने कहा कि एक बार अभिनेता अन्द्रेयेव बुरलक ने, जो स्वयं एक अच्छे कथाकार हैं, उनसे --- एक कहानी लिखने का अनुरोध किया और बताया कि वह रेल में यात्रा करते समय एक ऎसे सज्जन से मिले थे जिसकी पत्नी उसके प्रति बेवफा थी. लेव निकोलायेविच ने उसी विषय का उपयोग करने का निर्णय किया था.

जनवरी १७, १८९१

डिनर के समय हम मजाक कर रहे थे कि यदि सभी भद्र लोग एक सप्ताह के लिए नौकरों से अपना स्थान बदल लें तो कैसा रहे ! लेव नाराज हो गये और नीचे चले गये. मैं उनके पास गयी और पूछा क्या बात थी ? उन्होंने कहा, "अतिरस्करणीय विषय पर मूर्खतापूर्ण बातें ! मैं पर्याप्त बर्दाश्त करता हूं क्योंकि हम नौकरों से घिरे हुए हैं, और तुम उनका मजाक करती हो खासकर बच्चों के सामने. यह मुझे आहत करता है."

मार्च ६, १८९१

डिनर के बाद, अभ्यास के लिए, छोटे बच्चों के साथ हम लेव के साथ खेलने लगे. प्रतिदिन डिनर के बाद लेव उन्हें घर के आस-पास ले जाते हैं. उनमें से एक को एक खाली बास्केट में बैठाते हैं, उसका ढक्कन बंद कर देते हैं और वहां से चले जाते हैं. कुछ देर बाद वह लौटकर आते हैं और पूछते हैं कि बास्केट के अंदर जो भी है, अनुमान लगाये कि वह किस कमरे में बैठा है.

मार्च २२, १८९१

डिनर के बाद लेव और मैंने पियानो पर युगलवादन किया . शाम को सालीटेयर (ताश का खेल ) के बजाय, उन्होंने अविरंजित (कोरे) धागों का गोला मेरे लिए उछाला. सभी धागे उलझे हुए थे, और उन्हें सुलझाने के काम में वह गहराई से तल्लीन हो गये थे.

(अप्रैल २० के लगभग ) १८९१

जार से मेरे मिलने जाने का लेव विरोध कर रहे थे. पहले वह और जार एक दूसरे की उपेक्षा करते रहे थे और अब मेरे कहने का प्रयास हमें क्षति पहुंचा सकता है और उसके अप्रिय परिणाम हो सकते हैं.

मई २२, १८९१

हमारा इरादा शाम पढ़ने का था, लेकिन साहित्य, प्रेम , कला और पेण्टिंग के विषय में दिलचस्प चर्चा छिड़ गई थी. लेव ने कहा कि उस पेण्टिंग्स से घृणा उत्पन्न करने वाला कुछ और नहीं हो सकता, जिसमें कामुकता को चित्रित किया गया हो. उदाहरणस्वरुप एक सन्यासी का एक स्त्री पर दृष्टि रखना, अथवा क्रीमियन तातार द्वारा एक लड़की का घोड़े पर बैठाकर अपहरण करना, अथवा एक व्यक्ति का अपनी पुत्रवधू की ओर लंपटतापूर्वक देखना. ये बातें कैनवस में उतारे बिना ही जीवन में पर्याप्त बुरी हैं.

सितम्बर १९, १८९१

नोवोये व्रेम्या समाचार पत्र की एक कटिंग के साथ लेस्कोय से एक पत्र प्राप्त हुआ. कटिंग का शीर्षक है -- " दुर्भिक्ष पर एल.एन.तोल्स्तोय के विचार." लेव निकोलायेविच द्वारा दुर्भिक्ष को लेकर लेश्कोव को लिखे एक पत्र में से लेश्कोव ने कुछ अंश प्रकाशित करवा दिए थे. अंश में कहीं कहीं भोंडें शब्द हैं और निश्चित ही उसे प्रकाशित करवाने की लेव की मंशा नहीं थी. इससे लेव दुखी थे. पूरी रात वह सो नहीं पाये, और अगली सुबह उन्होंने कहा कि दुर्भिक्ष के कारण वह अशांत रह रहे थे, कि अकाल-ग्रस्त लोगों के भोजन के लिए जन-भोजनालय खोले जाने चाहिए, कि मुख्य बात यह कि दुर्भिक्ष से निबटने के लिए निजी स्तर पर प्रयत्न किये जाने चाहिए और यह कि वह आशा करते थे कि मुझे आर्थिक सहयोग देना चाहिए. उन्होंने कहा कि वह योजना का कार्य संभालने के लिए पिरोगोवो के लिए प्रस्थान करेंगे और उस विषय पर लिखेंगे. किसी को किसी विषय पर तब तक आलेख नहीं लिखना चाहिए जब तक उसने स्वयं उस विषय का अनुभव प्राप्त न किया हो और यह आवश्यक है, कि अपने भाई और उस क्षेत्र के आस-पास के जमींदारों के सहयोग से दो-तीन जन-भोजनालय खोलूं, जिससे उस विषय पर लिख सकूं."

अक्टूबर ८, १८९१

अभी मैंने अपनी डायरी में पिछला उल्लेख देखा. मैंने लिखा था कि लेव और तान्या पिरोगोवो और दूसरे गांवों में अकाल की जानकार प्राप्त करने के लिए जा चुके थे. पिरोगोवो में उनके भाई सेर्गेई द्वारा निरुत्साह प्रदर्शित करने के बाद लेव और तान्या बिबीकोव के यहां गये और वहां दुर्भिक्ष के शिकार लोगों की सूची तैयार की. तान्या बिबीकोव परिवार में ठहर गयी जबकि लेव ने कुछ धनी महिलाओं के यहां जाने के लिए अपनी यात्रा जारी रखी और वहां से वह स्वेचिन के यहां गये. बिबीकोव और उन महिलाओं ने जन-भोजनालयों के विचार के प्रति ठण्डा रुख प्रदर्शित किया. कोई भी अपना पैसा देना नहीं चाहता. सभी अपने मामलों तक ही सोचते हैं. केवल स्वेचिन ने ही सहानुभूति प्रकट की.

लेव और तान्या पांचवें दिन वापस लौट आये, और २३ को एपीफैन उयेज्द के लिए रेल द्वारा माशा के साथ उन्होंने पुनः प्रस्थान किया. वे राफेल अलेक्जेयेविच पिसारेव के यहां ठहरे, जहां से उन्होंने प्रभावित (दुर्भिक्ष) गांवों में जांच-पड़ताल की. रायेव्स्की उनसे वहां आ मिले , और उन लोगों ने भूखे लोगों के लिए जन-भोजनालयों के विषय में चर्चा की. लेव ने तुरंत निर्णय किया कि वह अपनी दो पुत्रियों के साथ रायेव्स्की के यहां जाड़ा बिताने और जन-भोजनलाय खोलने के लिए चले जायें. उन्होंने, सौ रूबल, जो मैंने उनको यहां से जाने से पहले दिये थे, आलू और लाल शलगम खरीदने के लिए दिए.

मार्च २, १८९४

क्या ही चमकदार धूपवाला दिन था. यह देख लेव निकोलायेविच ने विशेष उत्साहित भाव से दुनायेव के साथ मशरुम खरीदने बाजार के लिए प्रस्थान किया. उन्होंने बताया कि वह किसानों को मशरूम, शहद, करौंदा आदि बेचता हुआ देखना चाहते थे.

जून १, १८९७

लेव निकोलायेविच कला के विषय में एक आलेख लिख रहे हैं और मैं डिनर के समय से पहले उनसे मुश्किल से ही मिल पाती हूं. तीन बजे उन्होंने मुझे घुड़सवारी पर चलने के लिए आमन्त्रित किया----- दुन्यायेव के साथ हम जसेका के खूबसूरत ग्राम्यांचल से होकर गुजरे. हम एक बेल्जियन कम्पनी द्वारा परिचालित अयस्क खदान के निकट रुके, और पुनः एक परित्यक्त बंजर स्थान (’डेड किंगडम’ ) पर ठहरे, और दर्रा से नीचे उतरे और फिर ऊपर चढ़े. लेव निकोलायेविच असाधारणरूप से मेरे प्रति सहृदय और भद्र थे.


जून ७, १८९७

लेव निकोलायेविच ने ----- तान्या द्वारा नियमित मंगायी जाने वाली कला पत्रिका ’सैलोन’ में ड्राइंग देखते हुए प्रसन्नतापूर्वक शाम व्यतीत की.

जून १७, १८९७

आज मरणासन्न मुझिक कोन्स्तान्तिन को देखने लेव निकोलायेविच दो बार गये थे.

जून १९, १८९७

हम लोग लेव निकोलायेविच से मिले, क्योंकि वह उस व्यक्ति से मिलने जा रहे थे, जिसे खोद्यान्का दुर्घटना** पर कविता लिखने के लिए जेल में डाल दिया गया था. लेव निकोलायेविच व्यग्रतापूर्वक कला पर अपना आलेख लगातार लिख रहे हैं और उसे वे लगभग समाप्त कर चुके हैं. वह दूसरा कुछ भी नहीं कर रहे. शाम को रेव्यू ब्लैंच (Revue Blanche) से उन्होंने हमें एक फ्रेंच कॉमेडी पढ़कर सुनाई.

(** खोद्यान्का दुर्घटना १८ मई , १८६६ को घटित हुई थी. खोद्यान्सकोये के दलदले मैदान में निकोलस द्वितीय के राज्याभिषेक के अवसर पर उपहार प्राप्त करने के लिए हजारों की संख्या में एकत्रित लोग दलदले मैदाने में खराब बनी छत के ढह गिरने से कुचलकर मारे गये थे.)


जुलाई १५, १८९७

इस समय सुबह के दो बजे हैं और मैं लगातार नकल (पाण्डुलिपि की ) तैयार कर रहीं हूं. यह भयानक रूप से थकाऊ और श्रमसाध्य कार्य है. बड़ी बात यह कि जो कुछ भी मैं आज नकल करूंगी, निश्चित ही उसे खारिज कर लेव निकोलायेविच कल पूरी तरह उसका पुनर्लेखन करेंगे. वह कितना धैर्यवान और अध्यवसायी हैं----- यह आश्चर्यजनक है.

अगस्त १, १८९७

आज लेव निकोलायेविच ने तीन घण्टे तक रुचिपूर्वक लॉन टेनिस खेला, फिर घोड़े पर कोज्लोव्का चले गये. वह अपनी बाइसिकल पर जाना चाहते थे, लेकिन वह टूटी हुई थी. हां, आज उन्होंने बहुत लिखा, और सामान्यतया फुर्तीले, प्रसन्न और स्वस्थ प्रतीत हो रहे थे. वह कितने असाधारण हैं.

अगस्त ५, १८९७

शाम . लेव निकोलायेविच घोड़े पर ग्यासोयेदोवो उन परिवारों को पैसे देने गये जिनके घर जल गये थे. इन दिनों वह कसात्किन, गिन्त्सबर्ग, सोबोलेव, और गोल्डेनवाइजर के लिए कला पर अपना आलेख पढ़ रहे हैं.

दिसम्बर २१, १८९७ (मास्को)

आज सुबह लेव निकोलायेविच ने हमारे बगीचे की बर्फ की सफाई की और स्केटिगं की, फिर वह घोड़े पर सवार होकर वोरोब्वायी हिल्स और उससे आगे गये. किसी कारण वह काम करने की मनः स्थिति में नहीं हैं.


दिसम्बर २९, १८९७

डिनर के बाद लेव निकोलायेविच और मैंने शुबर्ट का ट्रैजिक सिम्फनी बजाया . पहले उन्होंने कहा कि संगीत नीरस और निरर्थक है. फिर उन्होंने आनंदपूर्वक बजाया, लेकिन जल्दी ही थक गये.

जनवरी ६, १८९८

लेव निकोलायेविच अभी तक भी काकेशस के जीवन और भौगोलिक स्थितियों ----- सभी कुछ का अध्ययन कर रहे हैं. शायद काकेशस सम्बन्धी कुछ लिखना चाहते हैं.

जनवरी ८, १८९८

कल रात रेपिन ने हमारे साथ भोजन किया और पेण्टिंग के लिए कोई विषय सुझाने के लिए लेव निकोलायेविच से कहते रहे. उन्होंने कहा कि वह चाहते हैं कि मृत्यु से पहले अपने में बची ऊर्जा का वह भरपूर उपयोग पेण्टिंग के लिए करें और कुछ ऎसा महत्वपूर्ण करें जो उनके श्रम की सार्थकता सिद्ध कर सके. लेव निकोलायेविच अभी तक उन्हें कोई सुझाव नहीं दे पाये लेकिन उस विषय में निरंतर सोच अवश्य रहे हैं.

जनवरी २१, १८९८

सोन्या ममोनोवा, लेव निकोलायेविच और मैं पूरे दिन साधारण जन के लिए एक ग्रामीण समाचार पत्र के विषय में चर्चा करते रहे. समाचार पत्र का उद्देश्य उनके पढ़ने के लिए कुछ रुचिकर सामग्री देना होगा. लेव निकोलायेविच ने इस विचार को इतनी गंभीरता से लिया कि उन्होंने सितिन (लोकप्रिय और पुनर्मुद्रित पुस्तकों के प्रकाशक) को आमन्त्रित किया कि आकर वह उस कार्य को सम्पन्न करने के लिए वित्तीय सहायता पर चर्चा करें.


जनवरी २६, १८९८

अभी लेव निकोलायेविच आये और बोले, "मैं तुम्हारे साथ बैठना चाहता हूं," उन्होंने सात पाउण्ड के दो ’वेट’ दिखाये जिन्हें उन्होंने जिमनास्टिक व्यायाम के लिए आज ही खरीदा था. वह बहुत उदासीन हैं और कहते रहे ,"मैं एक सत्तर वर्षीय व्यक्ति जैसा अनुभव करता हूं." सच यह है कि वह अगस्त में सत्तर वर्ष के हो जायेगें, यही , अब से छः महीने बाद. आज अपरान्ह उन्होंने बर्फ साफ की और स्केटिंग किया. लेकिन मानसिक कार्य से वह थकान
अनुभव करते हैं, और यही सर्वाधिक उनकी चिन्ता का कारण है.

फरवरी १, १८९८

कला पर बात करते हुए आज लेव निकोलायेविच ने बहुत से कामों का उल्लेख किया जिन्हें वह महत्वपूर्ण मानते हैं. उदाहरण के लिए ---- शेव्जेन्को का ’दि सर्वेण्ट गर्ल’ , विक्टर ह्यूगो के उपन्यास , क्राम्स्काई की मार्च करती हुई सेना और खिड़की से उसे देखती एक युवा स्त्री, बच्ची और धाय की ड्राइंग, साइबेरिया में सोते हुए अपराधियों और उनके साथ जाग रहे एक वृद्ध की सुरीकोव की ड्राइंग, और उन्ही की एक अन्य ड्राइंग जिसे उन्होंने लेव निकोलायेविच की कहानी ’गॉड नोज दि ट्रुथ’ के लिए बनाया था. उन्होंने एक मछुआरे की पत्नी की कहानी -- मुझे याद नहीं किसकी --- संभवतः ह्यूगो की -- का भी उल्लेख किया जिसके स्वयं अपने पांच बच्चे थे, लेकिन जिसने एक दूसरे मछुआरे की पत्नी के जुड़वां बच्चों को पालन-पोषण के लिए लिया था, प्रसव के दौरान जिसकी मृत्यु हो गयी थी. जब उस भली महिला का पति घर आया और उसकी पत्नी ने उन बच्चों की मां की मृत्यु के विषय में उसे बताया, वह बोला, "अच्छा , हमें उन बच्चों को घर ले आना चाहिए." उसके बाद उसकी पत्नी ने पर्दा हटाते हुए उसे दिखाया कि यह काम वह पहले ही कर चुकी थी. चर्चा में उन्होंने बहुत-सी अन्य बातों का उल्लेख किया.

फरवरी १६, १८९८

शाम लेव निकोलायेविच ने शिलर का ’रॉबर्स’ पढ़ा, और उसे लेकर बहुत उत्साहित थे.

मार्च १४, १८९८


कल एस.आई. तानेयेव हमारे यहां आए-------उन्होंने सुन्दर स्वर संगति के साथ पियानो बजाया और उसके विषय में लेव निकोलायेविच की राय जाननी चाही. बहुत गंभीरता और आदर के साथ लेव निकोलायेविच ने उनसे कहा कि उनकी स्वर-संगति में, जैसा कि सभी नये संगीत में है, राग, लय अथवा संगति का भी तर्क-संगत विकास नहीं है. कोई जैसे ही राग पर ध्यान केन्द्रित करने का प्रयास करता है, वैसे ही वह टूट जाता है, जैसे ही कोई लय पकड़ता है, वह बदल जाती है. व्यक्ति हर समय असंतोष अनुभव करता रहता है, जब कि वास्तविक कला में व्यक्ति ऎसा अनुभव नहीं करता. प्रारंभ से ही पदबन्ध अनिवर्य होता है.

अप्रैल १५, १८९८

लेव निकोलायेविच ने घोषणा की इल्या के साथ रहने के लिए वह परसों देहात के लिए प्रस्थान करेंगे, क्योंकि शहरी जीवन उन्हें कष्टप्रद लगता है और यह कि जरूरमंद लोगों में बांटने के लिए उनके पास १४०० रूबल हैं.

अप्रैल २१, १८९८

शाम के समय तानेयेव आ गये और उन्होंने और लेव निकोलायेविच ने अनेक दिलचस्प विषयों पर जीवंत बातें की. त्रुबेत्स्कोई भी आ मिले. उन्होंने कला, संगीत-शिक्षालय संबन्धी मामलों, जीवन की संक्षिप्तता और समय प्रबन्धन की योग्यता जिससे भले कामों में प्रत्येक मिनट का उपयोग हो सके और लोग और कार्य लाभान्वित हों सकें आदि विषयों पर चर्चा की.

जून १२, १८९८

शाम के समय, लेव निकोलायेविच ने , जो बाल्कनी में बैठे हुए थे, हल करने के लिए हमें एक पहेली दी. उन्होंने अपनी मन पसंद घास काटने वाली समस्या दोहराई. वह इस प्रकार है :

घास के दो मैदान हैं. एक बड़ा और एक छोटा. घास काटने वाले बड़े मैदान में पहुंचे और पूरी सुबह घास काटते रहे. अपरान्ह समय, आधे काटने वालों को छोटे मैदान में भेज दिया गया. दिन समाप्त होने तक बड़ा घास का मैदान पूरी तरह काट दिया गया था, जबकि छोटे घास के मैदान में एक व्यक्ति के लिए पूरे एक दिन का काम शेष था.


तो कितने घास काटने वाले थे ? उत्तर है -- आठ. ३/४ काटने वालों ने बड़े और ३/८ ने अर्थात २/८ और १/८ ने, दूसरे शब्दों में, एक आदमी ने, दूसरे मैदान को काट लिया. यदि एक व्यक्ति १/८ है तब कुल आठ व्यक्ति होने चाहिए.

यह लेव निकोलायेविच की मनपसंद पहेली है और वह सभी को उसे हल करने में लगा देते हैं.

अगस्त २२, १८९८

शाम लेव निकोलायेविच ने हम लोगों को ’दि मदर’, ’दि कूपन’, ’कुज्मिक - अलेक्जेण्डर प्रथम’ जैसे कहानी के विषय सुनाकर अत्यंत सजीव और प्रभावशाली ढंग से मनोरंजन किया.

अगस्त २२, १८९८

सुबह लेव निकोलायेविच ने ’रेसरेक्शन’ पर काम किया और आज के अपने काम से बहुत प्रसन्न थे. जब मैं उनके पास गयी वह बोले, "वह उससे शादी नहीं करेगा.मैंने इसे समाप्त कर दिया. मैं निष्कर्ष के विषय में सुस्पष्ट हूं और इससे मुझे अच्छा अनुभव हो रहा है."

सितम्बर ११, १८९८

लेव की बहन मारिया निकोलायेव्ना बहुत खुशमिजाज, स्नेही, सहृदय, और जिन्दादिल इंसान हैं. शाम बहुत देर पहले वह और लेव निकोलायेविच यहां अपने बचपन को याद कर रहे थे. वह बहुत मनोरंजक था. मारिया ने हमें बताया कि एक बार, जब लेव १५ वर्ष के थे, वे पिरोगोवो जा रहे थे और केवल प्रदर्शन के लिए वह ५ वर्स्ट (वेर्स्त) तक गाड़ी के पीछे दौड़ते रहे थे. घोड़े दौड़ रहे थे और लेव पिछड़े नहीं थे. जब उहोंने गाड़ी रोंकी तब उनकी सांस इस प्रकार फूल रही थी कि उन्हें देख मारिया फूट-फूटकर रो पड़ी थीं.

एक और समय अंकल युश्कोव की जागीर पानोवो के गांव कजान गुबेर्निया में कुछ युवा स्त्रियों को दिखाने के लिए कपड़ों सहित ही उन्होंने तालाब में छलांग लगा दी थी. अचानक उन्हें पता लगा कि पानी उनके सिर से बहुत ऊपर था और यदि किसी घसियारन ने अपना रस्सा डालकर उन्हें नहीं बचाया होता तो निश्चित ही वह डूब गये होते.

सितम्बर २८, १८९८


मिखाइल स्ताखोविच ----- लेव निकोलायेविच ऑरेल से साथ आये. लेव निकोलायेविच अपने उपन्यास ’रेसरेक्शन’ के सम्बन्ध में वहां एक जेल देखने गये थे. वह उसमें गहनता से तल्लीन हैं. पाण्डुलिपि पर निरंतर काम कर रहे हैं और अनुवाद के लिए उसके अनेक अध्याय विदेश भेज चुके हैं. आज उन्होंने एक कट्टर धार्मिक व्यक्ति से लंबी बातचीत की, जिसे एक बार हड़ताल में भाग लेने के कारण देश से निकाल दिया गया था और चार महीने उसने जेल में काटे थे. लेव निकोलायेविच उसकी कहानियों से मंत्रमुग्घ थे.

नवम्बर १४, १८९८

अपने पति के कार्य के विषय में मैंने उनसे लंबी वार्ता की-----उन्होंने कहा कि ’युद्ध और शांति’ के बाद वह अपने अच्छे ’फार्म’ में नहीं हैं और ’रेसरेक्शन’ से बहुत अधिक संतुष्ट हैं.

दिसम्बर १६, १८९८

लेव निकोलायेविच ने पुनः हमें जेरोम के. जेरोम (Jerome K. Jerome) पढ़कर सुनाया, और हंसे. हमने लंबे समय से उन्हें हंसते हुए नहीं देखा था.

जनवरी १४, १८९९

हमने एक खूबसूरत शाम बितायी. लेव निकोलायेविच ने हमें चेखव की दो कहानियां सुनाईं -- ’डार्लिंग’ और दूसरी आत्महत्या के विषय में , जिसका नाम मैं भूल चुकी हूं, लेकिन मैं कहूंगी कि अपनी प्रकृति में वह निबन्ध अधिक थी.

जनवरी १७, १८९९

लेव निकोलायेविच ने म्यासोयेदोव और बत्यर्स्काया जेल के जेलर का स्वागत किया, जिन्होंने जेल से संबन्धित तकनीकी पक्ष , कैदियों और उनके जीवन आदि के विषय में बहुत-सी सूचनाएं उन्हें प्रदान कीं. ’रेसरेक्शन’ के लिए यह सामग्री बहुत महत्वपूर्ण है.

जून २६, १८९९

लेव निकोलायेविच ने एक ’स्नैग’ पर प्रहार किया : रेसरेक्शन में सीनेट ट्रायल का एक दृश्य. उन्हें एक ऎसे व्यक्ति की तलाश है जो सीनेट की बैठकों के विषय में बता सकता हो, और प्रत्येक के साथ अपनी मुलाकात को मजाक में कह सके. " मेरे लिए एक सीनेटर खोज दो." यह ऎसे ही है जैसे लेव निकोलायेविच दूर चले गये हैं: वह अकेले, पूरी तरह अपने काम में डूबे रहते हैं, अकेल टहलने जाते हैं, अकेले बैठते हैं, आधा भोजन समाप्त होने के समय नीचे आ जाते हैं, बहुत कम खाते हैं और पुनः गायब हो जाते हैं. कोई भी देख सकता है कि उनका मस्तिष्क पूरे समय व्यस्त रहता है और किसी न किसी तरह यह उनकी शुरूआत है. वह बहुत कठोर श्रम कर रहे हैं.


दिसम्बर ३१, १८९९

१४ नवम्बर को, हमारी तान्या का विवाह मिखाइल सेर्गेई सुखोतिन से हुआ. हमने, उसके मां-पिता (तान्या के) ने उतना ही दुखी अनुभव किया जितना वान्या की मृत्यु पर किया था. लेव निकोलायेविच ने जब तान्या को गुडबॉय कहा तब वह रो पड़े थे----- वह इस प्रकार बिलख रहे थे मानो उनके जीवन का अत्यन्त प्रिय उनसे अलग हो रहा था.

तान्या का अभाव लेव निकोलायेविच को इतना खला और वह इतना अधिक रोये कि अंततः २१ नवम्बर को पेट और लिवर में तेज दर्द से वह बीमार हो गये. लगभग छः सप्ताह व्यतीत हो चुके हैं. अब वह स्वस्थ हो रहे हैं.

नवम्बर १३, १९००

तान्या और उसका पति हमसे मिलने आये. लेव निकोलायेविच इतना प्रसन्न हुए कि उन्हें अपनी आंखों पर विश्वास न करते हुए कहा, "तो तुम आ गयी ? यह अप्रत्याशित है ."

नवम्बर २४, १९००

लेव निकोलायेविच एक पागलखाने के विक्षिप्तों के लिए आयोजित संगीत समारोह में उपस्थित रहे.

दिसम्बर ७, १९००

लेव निकोलायेविच ग्लेबोव में आन्द्रेमेन द्वारा आयोजित २३ ब्लालाइका (गिटार की तरह का एक तिकोना रूसी तीन तारा वाद्ययंत्र) बजाने वालों के संगीत समारोह में आमंत्रित थे. उनके ऑर्केस्ट्रा में अन्य लोक वाद्ययंत्र यथा -- ’झेलीका’ और ’गुस्की’ भी शामिल थे.

यह बहुत मनोहर था, विशेषरुप से रूसी गायन, और शुमन वाल्ज वारम (Shumann Waltz Warum) भी. लेव निकोलायेविच ने उन्हें सुनने की इच्छा व्यक्त की और विशेषरूप से उनके लिए समारोह की व्यवस्था की गई थी.

फरवरी १२, १९०१

हमने अपने घर में ९ को एक संगीत समारोह का आयोजन किया ---- जब अतिथिगण चले गये और लेव निकोलायेविच ड्रेसिंग गाउन पहन चुके और सोने के लिए जाने ही वाले थे, कि विद्यार्थियों, कुछ युवतियों और क्लिमेन्तोवा-मरोम्त्सेवा (जो ड्राइंग रूम में ठहरी हुई थीं) ने रूसी, जिप्सी और कामगारों के गीत गाना प्रारंभ कर दिया. वे हंस रहे थे और नाच रहे थे ---- लेव निकोलायेविच उनका उत्साह बढ़ाते हुए और अपनी पसंदगी व्यक्त करते हुए एक कोने में बैठ गये थे. वह उनके साथ लंबे समय तक बैठे रहे थे.


मार्च ६, १९०१

कई घटनाओं के दौरान हम जन-सामान्य की भांति रहे बजाय घरेलू ढंग से रहने के . २४ फरवरी को चर्च से लेव निकोलायेविच का बहिष्करण संबन्धी समाचार सभी समाचार पत्रों में प्रकाशित हुआ . फरमान को उच्चवर्ग ने रोष और सामान्यजन ने आश्चर्य और असंतोषपूर्वक ग्रहण किया. तीन दिनों तक लेव निकोलायेविच के सम्मान में जय-जयकार की जाती रही. ताजे फूलों से भरे टोकरे घर लाये जाते रहे, और उन पर तारों, पत्रों और संदेशों की वर्षा होती रही. लेव निकोलायेविच के प्रति सहानुभूति व्यक्त करने और धर्म-सभाओं और आर्कबिशप के विरुद्ध रोष अभी तक समाप्त नहीं हुआ. उसी दिन मैंने एक पत्र लिखा और उसे पोबेदोनोत्सेव और विशप को भेजा. उसी रविवार, २४ फरवरी, को लेव निकोलायेविच और दुनायेव की लुव्यान्स्काया स्क्वायर पर अकस्मात भेंट हो गयी, जहां हजारों की संख्या में लोग एकत्रित थे. एक ने लेव निकोलायेविच को देख लिया और बोला, "वह जा रहा है, मनुष्य के रूप में शैतान." बहुत से लोगों ने मुड़कर देखा और लेव निकोलायेविच को पहचानकर चीखने लगे , "लेव निकोलायेविच -- हुर्रा---- लेव निकोलायेविच हुर्रा. अभिवन्दन , लेव निकोलायेविच. महान व्यक्ति को सलाम, हुर्रा."

भीड़ बढती गयी, आवाजें ऊंची होती गईं. घबडाये हुए कोचवान ने गाड़ी रोक दी.

अंत में एक छात्र गाड़ी के निकट आया. लेव निकोलायेविच और दुनायेव की उतरने में उसने सहायता की. भीड़ देखकर एक सशस्त्र घुड़सवार पुलिस वाला आगे बढ़ा, घोड़े की लगाम पकड़ उसे रोका और हस्तक्षेप करते हुए उसने उन्हें वापस गाड़ी में बैठा दिया.

कई दिनों तक मेरे घर में सुबह से शाम तक आने वालों की भीड़ के कारण उत्सवजनित कोलाहल होता रहा.

मार्च २६, १९०१

एक महत्वपूर्ण दिन. लेव निकोलायेविच ने”जार और उनके एड्जूटेण्ट’ के नाम एक पत्र भेजा.

मार्च ३०, १९०१

कल की बात है. हमने रेपिन के साथ खुशनुमा शाम व्यतीत की . उन्होंने कहा कि सेण्टपीटर्सबर्ग में पेरेद्विझिनिकी प्रदर्शनी में, जहां उन्होंने लेव निकोलायेविच का पोट्रेट प्रदर्शित किया हुआ है (अलेक्जेण्डर तृतीय म्यूजियम में ) वहां दो डिमांस्ट्रेशन हुए थे. पहले में अनेकों लोगों ने पोट्रेट के सामने फूल चढ़ाए थे. गत रविवार, २५ मार्च, १९०१ को , दूसरे में एक बड़ी भीड़ एक बड़े प्रदर्शनी कक्ष में एकत्र हुई थी. एक छात्र ने एक कुर्सी पर खड़े होकर पोट्रेट के फ्रेम के चारों ओर फूलों का गुलदस्ता रखा, फिर उसने प्रशंसापूर्ण भाषण दिया, जिसके बाद भीड़ चीखकर हुर्रा बोली और, मानों स्वतः, फूलों की वर्षा हुई. परिणामस्वरुप पोट्रेट को उतार लिया गया और उसे मास्को में प्रदर्शित नहीं किया जायेगा. अन्य प्रदेशों के विषय में कुछ नहीं कहा गया.


जुलाई ३, १९०१

जून २७ की रात लेव निकोलायेविच अस्वस्थ हो गये------ आज उन्होंने मुझसे कहा, "मैं अब चौराहे पर खड़ा हूं, और आगे जाने वाला मार्ग (मृत्यु की ओर) अच्छा है, और पीछे (जीवन) का भी अच्छा था. यदि मैं अच्छा हो जाता हूं, तो यह केवल विलम्बन ही होगा." वह रुके, सोच में डूब गये, और फिर बोले, "लोगों से कहने के लिए अभी भी मेरे पास बहुत कुछ है."

जब हमारी बेटी माशा उनके लिए उनका बिल्कुल हाल में लिखा आलेख, जिसकी प्रतिलिपि एन.एन.घे ने अभी-अभी तैयार की थी, उन्हें दिखाने के लिए लेकर आयी, उसे देखकर वह ऎसा प्रसन्न हुए जैसे एक शय्यासीन बीमार मां अपने प्रिय नन्हें बच्चे को लाये जाने पर होती है. उन्होंने तुरंत घे से कहा कि वह उसमें किंचित परिवर्तन करें. कल उन्होंने दूर के एक गांव में अग्निकांड के शिकार लोगों के प्रति अपना विशेष सरोकार प्रकट किया, जिनके लिए उन्होंने कुछ दिन पहले मुझसे पैंतीस रूबल लिये थे, और जानना चाहा कि क्या कोई यहां आया था. उन्होंने मुझसे पूछा कि उनमें से क्या कोई सहायता के लिए आया था !.

जुलाई २२, १९०१

लेव निकोलायेविच अब स्वस्थ हो रहे हैं.

कल शाम तुला से हमें एक पत्र प्राप्त हुआ, जिसे निकोलई ओबोलेन्स्की ने हमारे लिए पढ़ा. वे सभी लेव निकोलायेविच के स्वास्थ्य-लाभ से प्रसन्न थे. उन्होंने उन्हें सुना, हंसे और बोले, "यदि पुनः मेरे मरने के लक्षण प्रकट हों, तो मुझे इस सबसे एक बार फिर गुजरना होगा. इस बार यह मूर्खों जैसा व्यवहार नहीं होगा. यह सब पुनः प्रारंभ होना, झुण्ड का झुण्ड लोगों, संवाददाताओं, पत्रों और तारों का आना, मेरे लिए शर्मनाक होगा---- सब छोटी-सी बात के लिए. नहीं, यह असंभव होगा. पूर्णतया अशोभन------."

----- कल, जब लेव निकोलायेविच ने कहा कि यदि वह दोबारा बीमार पड़ें, वह एक शालीन मृत्यु चाहेंगे. मैंने टिपणी की, ’वृद्धावस्था उकताऊ होता है. मैं भी जल्दी ही मर जाना चाहूंगी." इस पर लेव निकोलायेविच ने प्रबल विरोध करते हुए कहा, "नहीं, हमें जीवित रहना है. जिन्दगी इतनी अद्भुत है."

दिसम्बर ९, १९०१ (क्रीमिया, गास्वरा)

लेव निकोलायेविच के लिए हम सितम्बर ८, से यहां रह रहे हैं, लेकिन उनके स्वास्थ में अधिक सुधार नहीं है.

दिसम्बर २३, १९०१

लेव निकोलायेविच अब बेहतर हैं. आज वह लंबी दूरी तक टहले और सीढि़यां चढ़कर मैक्सिम गोर्की से मिलने गये.

जनवरी १६, १९०२

जार निकोलस द्वितीय को लिखे लेव निकोलायेविच के पत्र को तान्या ने फेयर किया और उसे ग्रैण्ड ड्यूक निकोलई मिखाइलोविच को डाक से भेज दिया. निकोलई मिखाइलोविच ने वायदा किया था कि परिस्थितियां अनुकूल देखकर वह उसे जार को दे देंगे. यह एक तीखा पत्र है.

जनवरी २५, १९०२

निदान में बायें फेफड़े में सूजन पता चली है. यह दाहिने में भी फैल चुकी है. इस समय हृदय भी भलीभांति काम नहीं कर रहा है.

जनवरी २६, १९०२

मेरे लेव निकोलायेविच मर रहे हैं ---- उन्होंने ये पंक्तियां कहीं किसी दिन पढ़ी थीं, "बूढ़ी औरत तड़प रही है, बूढ़ी औरत खांस रही है, बूढ़ी औरत के लिए यह उचित समय है कि वह अपने कफन में सरक जाये." वह जब इन पंक्तियों को दोहरा रहे थे तब उन्होंने इशारा किया कि उनका संकेत अपनी ओर ही था और उनकी आंखों में आंसू आ गये. फिर उन्होंने कहा, "मैं इसलिए नहीं रो रहा हूं कि मुझे मरना है, बल्कि मृत्यु की सुन्दरता पर रो रहा हूं."

जनवरी २७, १९०२

आज मैं उनके पास गयी ---- और पूछा, "आप कष्ट में हैं ?" "नहीं, मैं बिल्कुल ठीक हूं " उन्होंने कहा. माशा बोली, "पापा, अच्छा महसूस नहीं कर रहे, नहीं ?" और उन्होंने उत्तर दिया, "शारीरिकरूप से बहुत खराब, लेकिन मानसिक तौर पर -- अच्छा, सदैव अच्छा ----." हमारे प्रति उनका व्यवहार सुखद और स्नेहमय है. ऎसा प्रतीत होता है कि हमारी देखभाल से वह प्रसन्न हैं, जिसके लिए वह कहते रहते हैं "शानदार, अत्युत्तम."


जनवरी ३१, १९०२

कल उन्होंने तान्या से कहा, "उन्होंने एडम वसील्येविच (काउण्ट ओल्सूफ्येव) के विषय में क्या कहा ----- वह सहजता से मर गये थे. मरना इतना आसान नहीं है, यह बहुत कठिन है. इस सुविदित मनोदशा को निकाल देना कठिन है." उन्होंने अपने कृशकाय शरीर की ओर इशारा करते हुए कहा था.

फरवरी ७, १९०२

उनकी स्थिति लगभग, कहा जाय यदि पूरी तरह से नहीं, तो भी निराशाजनक है. सुबह से उनकी नब्ज हल्की है और उन्हें कपूर के दो इंजेक्शन दिए गये ----- लेव निकोलायेविच ने कहा, "तुम लोग मेरे लिए अपना सर्वोत्तम कर रहे हो----कैम्फर और बहुत कुछ दे रहे हो---- लेकिन मैं फिर भी मर रहा हूं."

एक और समय, उन्होंने कहा, "भविष्य की ओर देखने का प्रयत्न मत करो, मैं स्वयं कभी ऎसा नहीं करता."

फरवरी २०, १९०२

लेव निकोलायेविच अधिक प्रसन्न हैं. कल उन्होंने डॉ. वोल्कोव से कहा था ,"मुझे प्रतीत होता है कि मैं अभी रहने वाला हूं" मैंने उनसे पूछा, "आप जीवन से हतोत्साहित क्यों हैं ?" और अचानक उन्होंने उत्साहपूर्वक उत्तर दिया "जीवन से हताश ? कोई कारण नहीं ! मैं बेहतर अनुभव कर रहा हूं. " शाम को उन्होंने मुझे लेकर चिन्ता प्रकट की . मैंने कहा मैं थकी हुई हूं. मेरा हाथ दबाते और स्नेहपूर्वक मेरी ओर देखते हुए उन्होंने कहा, "प्रिये, तुम्हे धन्यवाद, मैं बहुत अच्छा अनुभव कर रहा हूं."

फरवरी २८, १९०२

आज उन्होंने तान्या से कहा, "लंबे समय के लिए बीमार पड़ना अच्छा है. यह किसी को मृत्यु के लिए अपने को तैयार करने के लिए एक समय देता है."

फिर, पुनः वह तान्या से बोले, "मैं हर बात के लिए तैयार हूं. जीने के लिए तैयार हूं, और मरने के लिए भी तैयार हूं."


मार्च ११, १९०२

लेव निकोलायेविच स्वस्थ हो रहे हैं---- उन्होंने कहा, "मैं एक कविता रच रहा हूं. पंक्तियां इसप्रकार हैं :

"मैं सब जीत लूंगा, सोना बोला."

मैंने उसे इस प्रकार व्यक्त किया :

"मैं कुचल और तोड़ दूंगा, सामर्थ्य बोला,
मैं पुनर्चना कर दूंगा, मस्तिष्क बोला."

जून २२, १९०२ (यास्नाया पोल्याना )

आज हम क्रीमिया से घर वापस लौट आए.

अगस्त ९, १९०२

लेव निकोलायेविच ’हाजी मुराद’ लिख रहे हैं और आज अच्छी प्रकार काम नहीं हुआ, ऎसा प्रतीत होता है. वह लंबे समय तक एकांतवास में बैठे, जो इस बात का संकेत है कि उनका दिमाग व्यस्त है और वह अभी तक नहीं समझ पाये कि वह क्या चाहते हैं.

अगस्त ११, १९०२

लेव निकोलायेविच ने कहा कि लेस्कोव ने कहानी के लिए उनका ’प्लाट’ लिया, उसे तोड़ा-मरोड़ा और प्रकाशित करवा लिया. लेव निकोलायेविच का ’आइडिया’ इस प्रकार था : एक लड़की से बताने के लिए कहा गया कि सर्वाधिक महत्वपूर्ण व्यक्ति कौन है, सर्वाधिक महत्वपूर्ण समय क्या है, और किस काम को सबसे महत्वपूर्ण समझती है. कुछ सोच-विचार के बाद उसने उत्तर दिया, इस क्षण सबसे महत्वपूर्ण व्यक्ति आप हैं, वर्तमान समय सबसे महत्वपूर्ण है, और इस क्षण आप जो काम कर रहे हैं, वही अच्छा और महत्वपूर्ण काम है.

फरवरी २०, १९०३

लेव निकोलायेविच के पास एक मिलनेवाला आया है ---- एक बूढ़ा व्यक्ति जिसने निकलस प्रथम के अधीन एक सैनिक के रूप में कार्य कि था, काकेशस का युद्ध लड़ा था और अब वह उन्हें उन दिनों के संस्मरण सुना रहा है.

जुलाई १०, १९०३


लेव निकोलायेविच निकलस प्रथम काल के इतिहास में डूबे हुए हैं और उन्हें जो भी हस्तगत होता है उसे एकत्रित कर रहे हैं और पढ़ रहे हैं. उस सबका प्रयोग ’हाजी मुराद’ में होगा.

जनवरी १४, १९०९

आज मैंने ---- उस कहानी को फेयर करना प्रांरभ किया, जिसे लेव निकोलायेविच ने अभी पूरा किया है .

उसका थीम --- क्रान्तिकारी, मृत्युदंड और उनके उद्देश्य हैं. रोचक हो सकती है. लेकिन ढंग वही है ---- मुझिकों के जीवन का वर्णन. संदेह नहीं, वह क्रान्ति को काव्यात्मक बनाना चाहेंगे, बावजूद अपनी ईसाइयत के प्रति झुकाव के. वह निःसंदेह उनके प्रति सहानुभूति रखते हैं, क्योंकि ऊंची हैसियत, अथवा सत्ता की क्रूरता से उन्हें घृणा है.

अप्रैल ७, १९१०

हम इससे क्रुद्ध हैं कि लेव निकोलायेविच को जेल में एक हत्यारे से मिलने की अनुमति नहीं दी गई. अपने लेखन के लिए उन्हें इसकी आवश्यकता थी.

अप्रैल १९, १९१०

गांव के पुस्तकालय के बाहर हमने ग्रामोफोन बजाया और उसे सुनने के लिए बहुत से लोग एकत्र हो गये. लेव निकोलायेविच ने किसानों से बात की. कुछ ने पुच्छलतारा के विषय में और कुछ ने ग्रामोफोन के डिजाइन के विषय में उनसे पूछा.

जुलाई ८, १९१०

लेव निकोलायेविच हमारे लिए एक नये फ्रेंच लेखक मिले की एक अच्छी कहानी पढ़कर सुनाई. कल उन्होंने हमारे लिए उसका "la luiche ecrassee" पढ़ा था, जिसे उन्होंने स्वयं पसंद किया था.

जुलाई २८, १९१०

आज शाम लेव निकोलायेविच ने हमारे लिए मिले की एक अच्छी छोटी कहानी "Le repos hebdomadaire" पढ़ी, जिसे उन्होंने स्वयं बहुत पसंद किया, और एक अन्य कहानी , "Le Secreta" पढ़ना प्रारंभ किया.


अक्टूबर १४, १९१०

लेव निकोलायेविच दॉस्तोएव्स्की का ’दि कर्माजोव ब्रदर्स’ (The Karamazova Brothers ) पढ़ रहे हैं और उन्होंने कहा कि यह बहुत खराब है. विवरणात्मक परिच्छेद अच्छे हैं, लेकिन संवाद निम्नकोटि के हैं. मानो दॉस्तोएव्स्की स्वयं बोल रहे हैं, न कि चरित्र. उनके कथन वैयक्तिक नहीं हैं.

अक्टूबर १९, १९१०

शाम के समय लेव निकोलायेविच ’दि करमाजोव ब्रदर्स’ पढ़ने में तल्लीन थे. उन्होंने कहा, "आज मैंने महसूस किया कि दॉस्तोएव्स्की में लोगों को क्या मिलता है ! उनके पास आश्चर्यजनक आइडियाज हैं." फिर उन्होंने दॉस्तोएव्स्की की आलोचना प्रारंभ कर दी और एक बार फिर कहा कि सभी चरित्र दॉस्तोएव्स्की की जुबान बोलते हैं ---- नितांत शब्दाडंबर.

सोफिया अन्द्रेएव्ना तोल्स्तोया की डायरी के कुछ अन्य महत्वपूर्ण अंश

फरवरी १४, १८७० (यास्नाया पोल्याना)

एक दिन जब मैं पुश्किन की जीवनी पढ़ रही थी, मेरे मन में आया कि मैं भावी पीढ़ियों के लिए उपयोगी सिद्ध हो सकती हूं, जो लेव निकोलायेविच तोल्स्तोय के जीवन के विषय में कुछ जानना चाहेगें. मैं न केवल उनके दैनन्दिन जीवन, बल्कि उनकी मनोदशा का रिकार्ड रख सकती हूं ---- कम से कम जितना मेरी सामर्थ्य में है. यह विचार मेरे मन में पहले भी उत्पन्न हुआ था, लेकिन तब मैं बहुत व्यस्त थी.

अब उसे प्रारंभ करने का उपयुक्त समय है . ’

फरवरी १५, १८७०

कल लेव ने देर तक शेक्सपियर के विषय में मुझसे बात की और उसके प्रति बहुत प्रशंसा प्रकट की. वह नाटककारों में उन्हें बहुत बड़ा मानते हैं. जहां तक गोयेथ का प्रश्न है, सौन्दर्य और सादृश्यबोध से वह उसे सौन्दर्यबोधी मानते हैं, लेकिन उसमें नाटकार की प्रतिभा नहीं---- वहां वह कमजोर है. लेव फेट से उनके प्रेमपात्र गोयेथ के विषय में बात करना चाहते हैं. लेकिन लेव ने कहा कि जब गोयेथ दार्शनिक रूप प्रस्तुत करते हैं तब निश्चित ही वह महान है..

जब मैं आज सुबह लेव की स्टडी के दरवाजे के सामने से गुजर रही थी, उन्होंने मुझे अंदर आने के लिए कहा. उन्होंने मुझसे रूसी इतिहास और महान व्यक्तियों के विषय में लंबी चर्चा की. वह ’पीटर दि ग्रेट’ पर उस्त्र्यालोव का इतिहास पढ़ रहे थे.

’पीटर दि ग्रेट’ और मेन्सिकोव जैसे व्यक्तियों में उनकी बहुत रुचि है. मेन्सिकोव को उन्होंने शक्तिशाली और विशुद्ध रूसी चरित्र बताया, जो केवल आमजन के मध्य से आते हैं. पीटर दि ग्रेट के विषय में उन्होंने कहा कि वह अपने समय का कठपुतली था, कि वह निर्दयी था , लेकिन भाग्य ने उसे रूस और योरोपीय संसार के बीच संपर्क स्थापित करने के मिशन के लिए निर्दिष्ट किया था. लेव को एक ऎतिहासिक नाटक के लिए विषय की तलाश है और वह नोट्स ले रहे हैं, जिसे वह अच्छी सामग्री मानते हैं. आज उन्होंने मिरोविच की कहानी लिखी, जो इयोन एण्टोनोविच को किले से मुक्त करवाना चाहता है. कल उन्होंने मुझसे कहा था कि उन्होंने पुनः कॉमेडी लिखने का विचार त्याग दिया था, लेकिन एक ड्रामा के विषय में सोच रहे थे. वह कहते रहते हैं कि आगे कितना अधिक काम है !

हम साथ-साथ स्कैटिंग के लिए गये और उन्होंने सभी प्रकार के प्रदर्शन में भाग लिया. उन्होंने एक पैर से, दोनों पैरों से, पीछे चलकर, घूमकर और भी कई प्रकार से स्कैटिंग की. वह एक बच्चे की भांति प्रसन्न थे.

फरवरी २४, १८७०

आज अंततः बहुत हिचकिचाहट के बाद वह काम करने बैठे . कल उन्होंने कहा कि जब भी वह गंभीरता पूर्वक विचार करते हैं वह चीजों को नाट्य रूप की अपेक्षा महाकाव्यात्मक रूप में ही देखते हैं.

कुछ दिन पहले वह फेट के पास गये थे, जिन्होंने उनसे कहा कि ड्रामा उनकी विधा नहीं है. इसलिए अब ऎसा प्रतीत होता है कि उन्होंने ड्रामा अथवा कॉमेडी का विचार छोड़ दिया है.

आज सुबह एक शीट पेपर के दोनों ओर उन्होंने मिनटों में भर दिये. बहुत ही चमत्कारिक ढंग से काम प्रारंभ हुआ. उन्होंने बहुत से मान्य व्यक्तियों पर ध्यान केन्द्रित किया, जिनमें कुछ महान लोग भी हैं जो बाद में उनके मुख्य चरित्र बनेंगे.

कल उन्होंने कहा कि वह आभिजात्यवर्ग की एक विवाहिता स्त्री के विषय में सोच रहे थे जो गलत दिशा में जा चुकी थी. उन्होंने कहा कि उनका उद्देश्य यह चित्रित करना था कि वह निन्दा की अपेक्षा दया की पात्र थी. जैसे ही अपनी हीरोइन के विषय में उनकी दृष्टि स्पष्ट हुई, उनके अन्य पात्र जिनकी कल्पना उन्होंने की थी (पुरुष और महिला पात्र) उसके इर्द-गिर्द एकत्रित हो लिए थे.

"अब मुझे सब कुछ स्पष्ट है." वह बोले थे. जहां तक कृषक मूल के पढ़े-लिखे लोगों की बात है, जो उनके मस्तिष्क में लंबे समय से विद्यमान हैं----- उनके विषय में उन्होंने निर्णय किया है कि वह उसे किसी जागीर के कारिन्दा के रूप में चित्रित करेंगे.

मार्च २७, १८७१

दिसम्बर से वह दृढ़ निश्चय के साथ ग्रीक भाषा का अध्ययन कर रहे हैं. दिन और रात वह उसके लिए बैठे रहते हैं. एक नये ग्रीक शब्द को जान लेने अथवा उसकी अभिव्यक्ति को समझ लेने से उन्हें जो आनंद और प्रसन्नता प्राप्त होती है वह दुनिया की किसी अन्य बात में नहीं मिल सकती.---- जेनोफॉन से प्लेटो, फिर ओडिसी और इलियाड (जिसके लिए वह पागल हैं) . वह चाहते हैं कि मैं उन्हें मौखिक अनुवाद करता सुनूं और उनके अनुवाद को ग्नेडिच (Gnedich) से मिलाऊं, जिसे वह बहुत अच्छा और ईमानदार मानते हैं. ग्रीक में उनकी प्रगति (दूसरों को समझकर, जबकि उनमें से वे भी हैं जो विश्वविद्यालय का कोर्स समाप्त कर चुके हैं ) अद्भुत है.

कभी-कभी उनके दो-तीन पृष्ठों के अनुवाद में मुझे दो या तीन से अधिक त्रुटियां अथवा अबोध्य-वाक्यांश नहीं मिले.

वह मुझसे कहते रहते हैं कि वह लिखना चाहते हैं. वह ग्रीक कला और साहित्य जैसा शास्त्रीय , सुबोध्य, ललित और अपेक्षाकृत भारमुक्त कुछ लिखने का स्वप्न देख रहे हैं. मैं बता नहीं सकती, हांलाकि मैं स्पष्टतः महसूस करती हूं कि उनके मस्तिष्क में क्या है. उनका कहना है कि "लिखने की अपेक्षा न लिखना अधिक मुश्किल है." अर्थात मुश्किल चीजें किसी को निस्सार शब्द लिखने से रोकती हैं. कुछ ही लेखक इसमें सक्षम होते हैं.

वह रूसी पुराकाल पर लिखने की सोच रहे हैं ---- चेत्यी-मिनेई (Chetyi-Minei) और संतों के जीवन का अध्ययन कर रहे हैं, और कहते हैं कि यही हमारा वास्तविक रूसी काव्य है.

मार्च १९, १८७३
कल शाम अचानक लेव ने मेरी ओर देखा और बोले, "मैंने डेढ़ पृष्ठ लिखे हैं और मैं सोचता हूं कि वह अच्छा है." यह मानकर कि यह पीटर दि ग्रेट काल पर लिखने का उनका एक और प्रयास है, मैंने उनकी बात पर अधिक ध्यान नहीं दिया. लेकिन बाद में मुझे ज्ञात हुआ कि उन्होंने निजी जीवन के विषय में एक समसामयिक उपन्यास प्रारंभ किया था. यह विलक्षण है कि उन्होंने उस पर कितनी सफल रचना की है.

सेर्गेई ने हमारी वृद्धा आण्ट के लिए ऊंचे स्वर में पढ़ने के लिए कुछ देने को कहा. मैंने उन्हें पुश्किन की ’दि स्टोरीज ऑफ बेल्किन ’ (The stories of Belkin) दी. लेकिन वृद्ध आण्ट सो गयीं और मैं इतनी आलसी कि नीचे जाकर पुस्तक को पुस्तकालय में नहीं रखा. उसे ड्राइंग रूम में खिड़की की दहलीज पर रख दिया. अगली सुबह जब हम कॉफी पी रहे थे, लेव ने वह पुस्तक उठायी, उसे देखा और बोले यह कितनी अच्छी है. उसके पीछे उन्होंने कुछ आलोचनात्मक टिप्पणियां देखीं. (अनेन्कोव संस्करण ) और बोले, "मैंने पुश्किन से बहुत कुछ सीखा है. वह मेरे पिता हैं, वह मेरे अध्यापक भी हैं. " फिर उन्होंने उससे एक परिच्छेद पढ़कर सुनाया कि पुराने समय में किस प्रकार जमींदार राजमार्गों पर यात्रा करते थे. उसने उन्हें पीटर दि ग्रेट के समय में आभिजात्य वर्ग के जीवन को समझने में सहायता की. वह एक ऎसा विषय था जो उन्हें विशेषरूप से परेशान कर रहा था. पुश्किन के प्रभाव में उन्होंने उस शाम लिखना प्रारंभ किया था. आज उन्होंने पुनः लिखना प्रारंभ किया और कहा कि वह अपने काम से संतुष्ट हैं.

अक्टूबर ४, १८७३

उपन्यास ’अन्ना कारेनिना’ प्रारंभ हो गया है . उसकी सम्पूर्ण रूपरेखा वसंत में बन चुकी थी. हम गर्मियों में समारा गुबेर्निया गये थे तब उन्होंने अधिक नहीं लिखा. अब वह उसे परिष्कृत कर रहे हैं, बदल रहे हैं और उपन्यास पर लगातार काम कर रहे हैं.

क्राम्स्कोई उनके दो पोट्रेट बना रहे हैं और उनके काम में कुछ व्यवधान उप्तन्न हो रहा है. कला के विषय में प्रतिदिन चर्चा और वाद-विवाद होता है.

नवम्बर २१, १८७६

कल मेरे पास आये और बोले, "लिखना कितना थकाऊ होता है !"

"क्या ?" मैंने चिल्लाकर पूछा.

"हूं, मैंने लिखा कि व्रोन्स्की और अन्ना ने होटल में एक कमरा लिया, लेकिन यह असंभव है. सेण्टपीटर्सबर्ग के किसी भी होटल में उन्हें अलग-अलग मंजिलों में ठहरना चाहिए था. तभी ऎसा होता कि वे अपने मित्रों से अलग-अलग मिलते, और इस प्रकार यह सब मुझे पुनः लिखना होगा.

मार्च १, १८७८

लेव निकोलायेविच निकोलस प्रथम के समय का अध्ययन कर रहे हैं. वह पूरी तरह दिसंबरवादियों की कहानी में तल्लीन हैं. वह मास्को गये थे और पुस्तकों का ढेर लादकर लाये. कभी-कभी वह पढ़कर रो पड़ते हैं.

जनवरी ३१, १८८१

लेव निकोलायेविच केवल शीत रितु में ही काम कर पाये. जब तक उन्होंने सामग्री का अध्ययन किया और दिसंबरवादियों के लिए कुछ रूपरेखा बनायी , गर्मी पुनः प्रारंभ हो चुकी थी और कुछ भी गंभीर नहीं लिखा गया. अपने स्वास्थ्य और लेखन को दृष्टिगत रखते हुए उन्होंने राजमार्ग (कीव क्षेत्र) पर लंबी दूरी तक टहलना प्रारंभ किया जो हमारे यहां से लगभग दो वर्स्ट है. गर्मियों में सम्पूर्ण रूस और साइबेरिया से कीव , वोरोनेझ, ट्रिनिटी-सेर्गेइस मठों और ऎसे ही अन्य स्थानों में पूजा-अर्चना करने के लिए आने वाले तीर्थयात्रियों के दलों से कोई भी मिल सकता है.

लेव निकोलायेविच अपने रूसी ज्ञान को सीमित और अपूर्ण मानते हैं और इसीलिए पिछली गर्मियों में उन्होंने लोगों की भाषा (लोक भाषा) का अध्ययन प्रारंभ किया था. उन्होंने तीर्थयात्रियों और पर्यटकों से बात की और लोक शब्दों , सूक्तियों, प्रतिबिंबों और भावाभिव्यक्तियों को दर्ज किया. लेकिन उस उद्देशय को जारी रखने के अनपेक्षित परिणाम निकले.

१८७७ तक लेव निकोलायेविच के धार्मिक विचार अपरिभाषित रहे थे. वह धर्म के प्रति उदासीन थे. वह कभी पूर्ण नास्तिक तो नहीं थे, लेकिन उन्होंने कभी किसी धार्मिक मत का समर्थन नहीं किया था.

लोगों, तीर्थयात्रियों, और धर्म-भिक्षुओं के निकट संपर्क में आने के बाद वह उनके दृढ़, स्पष्ट और अडिग आस्था से विस्मित हुए. उनका अपना संशयवाद उन्हें अकस्मात भयानक प्रतीत होने लगा और उन्होंने अपना हृदय और आत्मा लोगों और उनकी आस्था की ओर मोड़ दिया. उन्होंने न्यू टेस्टामेण्ट का अध्ययन, उसका अनुवाद और उसकी टीका लिखनी प्रारंभ कर दी. इस कार्य का दूसरा वर्ष है और मेरा विश्वास है कि लगभग आधा कार्य सम्पन्न हो चुका है. उनका कहना है कि इससे उन्हें आध्यात्मिक शांति प्राप्त हुई है. अपनी भावाभिव्यक्ति के लिए उन्हे ’प्रकाश’ दिखा, और उसने जीवन के प्रति उनके दृष्टिकोण को बदल दिया. लोगों के उस छोटे से समूह , जिनके साथ वह समय व्यतीत करते थे , और उन्हींके विषय में प्रयः सोचा करते थे (ऎसा ही उन्होंने कहा था ), लेकिन अब करोड़ों लोग उनके बन्धु हो गये हैं. पहले उनकी जागीर और धन निजी सम्पति थे, लेकिन अब वह उनके लिए केवल गरीबों और जरूरतमंदों को देने के लिए है.

प्रतिदिन वह पुस्तकों से घिरे हुए काम करने के लिए बैठते हैं और डिनर तक कार्य करते रहते हैं. स्वास्थ्य में वह बहुत कमजोर हो गये हैं और सिर दर्द की शिकायत करते रहते हैं. उनके बाल भूरे हो गये हैं और इस जाड़े में उनका वजन घटा है.

मैं जितना चाहती हूं, वह उतना प्रसन्न नहीं प्रतीत होते . वह शांत, चिन्तनशील और चिड़चिड़े हो गये हैं. विनोदी और जीवन्त स्वभाव, जो कभी हम सभी को प्रसन्नता प्रदान किया करता था अब मुश्किल से ही दीप्तिमान होता है. मेरा अनुमान है कि यह कठोर श्रम के परिणामस्वरूप है. ’वार एण्ड पीस’ जैसे दिन नहीं रहे, जब शिकार अथवा ’बालनृत्य’ का वर्णन करने के बाद उत्तेजित और प्रसन्नचित दिखते हुए वह हमारे पास आते थे, मानो वह स्वयं उस आमोद-प्रमोद में लिप्त रहे थे. उनकी आध्यात्मिक शुचिता और शांति प्रश्नातीत हैं, लेकिन दूसरों के दुर्भाग्य ----- गरीबी, कारावास, दुर्दम्यता, अन्याय को लेकर उनकी व्यथा उनकी अतिसंवेदनशील आत्मा को प्रभावित और उनके शरीर को क्षीण कर रही है.

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कारेनिना अन्ना क्यों थी और किस विचार ने उसे आत्महत्या के लिए प्रेरित किया

एन.एन. बिबिकोव नामके लगभग पचास वर्ष के एक व्यक्ति हमारे पड़ोसी थे. वह न धनवान थे और न ही शिक्षित. उसके घर की व्यवस्था संभालने और उसकी रखैल के रूप में रहने वाली लगभग पैंतीस वर्ष की स्त्री अविवाहित और उसकी दिवंगता पत्नी की दूर की रिशतेदार थी. बिबिकोव ने अपने बेटे और भतीजी को पढ़ाने के लिए एक गवर्नेस नियुक्त किया. वह एक सुन्दर जर्मन युवती थी. उसकी पहली रखैल, जिसका नाम अन्ना स्तेपानोव्ना था, अपनी मां से मिलने जाने की बात कहकर तुला चली गयी. अपनी पोटली सहित (जिसमें बदलने के लिए एक जोड़ी कपड़े ही थे ) वह निकटतम स्टेशन यसेन्की गयी और चलती मालगाड़ी के आगे कूद गई . बाद में उसके शरीर का पोस्टमार्टम हुआ. लेव निकोलायेविच ने यसेन्की स्टेशन के बैरकों में उसका कुचला सिर, नग्न और विकृत शरीर देखा था. वह भयनक रूप से हिल उठे थे. वह अन्ना स्तेपानोव्ना को लंबी, हृष्ट-पुष्ट, चेहरे और वर्ण में पूरी तरह रूसी, भूरी आंखों सहित भूरे बालों वाली, सुन्दर नहीं, लेकिन आकर्षक स्त्री के रूप में जानते थे.
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