(घर में गुड़हल)
आत्मकथ्य
यादें जो आज भी जिन्दा हैं
रूपसिंह चन्देल
मैं उन सौभाग्यशालियों में नहीं हूं जिसे अपनी तीन-चार
साल की उम्र की बातें याद हों.
उन दिनों को मां
(स्व.
रामदुलारी चन्देल)
के बताए अनुसार बयान करूं तो मैं बचपन में खासा गबदू अर्थात
दोहरे बदन का सुन्दर-सौम्य बच्चा था.
हर मां को अपना बच्चा सबसे सुन्दर प्रतीत होता है तो मां के
अनुसार मैं गांव में सबसे सुन्दर था.
बड़ी दीदी का विवाह मेरे जन्म के एक वर्ष बाद हुआ था. मां
कहतीं कि मैं उनसे इतना हिला हुआ था कि उनके विदा होने के समय मैं उन्हें छोड़ने को
तैयार नहीं था.
मेरे जन्म से पहले मां प्रायः कलकत्ता में रहती थीं, जहां
मेरे पिता (स्व. सुरजन सिंह चन्देल)
रेलवे में नौकरी करते थे. दीदी की शादी के बाद मां
का कलकत्ता जाना कम हो गया था.
बड़े भाई जगरूपसिंह पड़ोसी गांव पुरवामीर से पांचवी कक्षा
उत्तीर्ण करके आगे की पढ़ाई के लिए पिता जी के पास चले गए थे. गांव
में मैं,मां और काका ही थे.
छोटी बहन मुन्नी मुझसे तीन साल बाद जन्मी थी.
मां ने दो भैंसे पाल रखी थीं,
जिनकी देखरेख मेरे काका, जिनका नाम नन्हे सिंह था, करते
थे. काका अविवाहित थे.
मां खुद्दार और काका अक्खड़…भैंसों का सुख घर को अधिक दिनों तक नहीं मिला था. लेकिन
जब तक भैंसों का दूध रहा मां प्रतिदिन मुझे सुबह-शाम भर गिलास ताजा दूध देतीं रहीं. सुबह
के नाश्ते में मेरे लिए
उड़द की दाल का देसी घी में पका हलवा होता. ऎसे
पालन-पोषण में कौन बालक गबदू न होगा.
मां और काका में प्रायः रार होती और एक दिन काका ने कहा, “भौजी, अपनी
धौंस अपने तकी राख्यो---अपन चले” और काका अपना छाता उठा,
जिसे कहीं जाते हुए बारहों माह वह साथ रखते थे, मेरे
पुश्तैनी गांव देसामऊ चले गए थे.
वैसे तो मेरा पुश्तैनी गांव रावतपुर के पास मसवानपुर (अब
कानपुर के मध्य में हैलट अस्पताल के पास)
था.
प्रपितामह महीपत सिंह वहीं रहते थे. लेकिन
मेरे पितामह बिपतसिंह पुलिस में सिपाही थे और नवाबगंज थाने में तैनात थे. नवाबगंज
मसवानपुर से चार-पांच मील के फासले पर अवस्थित है.
इसे पुराना कानपुर कहते हैं. मोतीलाल नेहरू ने नवाबगंज
गांव के अधिकार को लेकर एक ब्राम्हण परिवार द्वारा एक मुकदमा लड़ा था, जिसके
अनुसार तेरहवी शताब्दी में इलाहाबाद के राजा कान्हदेव चन्देल कन्नौज जाते समय
नवाबगंज क्षेत्र में गंगा के किनारे ठहरे थे.
वहां की रमणीकता उन्हें इतनी पसंद आयी थी कि वह तीन माह तक वहां रहे थे
और कन्नौज के लिए प्रस्थान करते समय उन्होंने सचेंड़ी के
तत्कालीन राजा को वहां एक गांव बसाने का आदेश दिया था. जो
गांव बसाया गया उसका नाम था कान्हपुर.
कान्हपुर बसाकर सचेंड़ी के राजा ने उसे उस ब्राम्हण के
पूर्वजों को दान में दे दिया था.
कालान्तर में वही कान्हपुर कानपुर के नाम से विख्यात हुआ.
मेरे प्रपितामह की मृत्यु के पश्चात पितामह ने नवाबगंज के निकट गंगा किनारे
रानीघाट में घर बनवा लिया था.
मेरे पिता जब तीन वर्ष के थे, दादी की मृत्यु हो गयी थी. उनसे
मेरे पिता और बुआ थीं.
पितामह ने दूसरी शादी की जिनसे नन्हें सिंह थे. बुआ की
शादी भौंती के पास
(यह गांव भी अब शहर से सट चुका है) छोटे-से
गांव देसामऊ में कछवाहा राजपूतों के यहां हुई थी. पिताजी तेरह-चौदह
साल के ही रहे होंगे कि पितामह की भी मृत्यु हो गयी. दूसरी दादी और काका के
विषय में उन दिनों की जानकारी नहीं है,
लेकिन पिताजी अपनी बहन के गांव जाकर रहने लगे थे. उन
दिनों गावों के आस-पास जंगल हुआ करते थे.
पिताजी ने अपने बल पर देसामऊ के निकट दस बीघे खेत तैयार किए, लेकिन
बहनोई के साथ विवाद हो जाने के कारण पहले फौज में फिर कलकत्त्ता में, पुलिस
में; और उसके बाद रेलवे में नौकरी करने लगे थे. पिताजी के जीवित रहते हुए
ही उनके भांजे ने
“मामा की मृत्यु हो चुकी है और उनका कोई वारिस नहीं है” कोर्ट
में हलफनामा देकर खेत अपने नाम करवा लिए थे.
पिताजी बहुत ही सरल व्यक्ति थे. उन्होंने
इसे सहज रूप में स्वीकार कर लिया था वैसे ही जैसे उन्होंने नवाबगंज के मकान पर कानपुर महापालिका के
कब्जे को स्वीकार कर लिया था.
रानीघाट पण्डों के बार-बार की सूचनाओं के बावजूद वह उस मकान पर अधिकार जताने नहीं
गए थे. वास्तव में कलकत्ता उनके रग-रग में बसा हुआ था और वह वहीं बस जाना चाहते थे, लेकिन मां के कारण ऎसा हो
नहीं पाया था. मां को नाना ने घर बनाने के लिए जमीन और तेरह बीघे खेत दे दिए थे और वह मायके
में बस गयी थीं.
अवकाश ग्रहण के पश्चात पिताजी को भी वहां आना पड़ा था.
मेरी स्मृति में जो बात आज भी अमिटरूप से सुरक्षित है वह है—मेरी कलकत्ता
यात्रा. काका के जाने के बाद मां ने कलकत्ता जाने का निर्णय किया. पिता
जी के अवकाश ग्रहण के कुछ वर्ष शेष थे और वह भी चाहते थे कि मैं वहां जाकर कुछ
वर्ष ही सही पढ़ाई कर लूं.
छोटी बहन और मुझे संभाले मां एक दिन कलकत्ता पहुंची थीं. उन
दिनों पिताजी बावनगाछी के रेलवे फ्लैट में रहते थे. वे बहुत अच्छे चार मंजिला
फ्लैट थे, जिसके पहली मंजिल में हमारी रिहाइश थी.
जब हम फ्लैट में पहुंचे उसका दरवाजा खुला हुआ था और बड़े भाई
अपने एक मित्र के साथ बालकनी में बैठे हुए थे. उन दोनों के मध्य सफेद
खरगोश शावक उछल रहा था.
भाईसाहब ने खरगोश पाला हुआ था. हमारे
पहुंचने के काफी दिनों तक वह हमारे पास रहा,
लेकिन बाद में उसे किसी को दे दिया गया था. बावनगाछी
के उस फ्लैट में दो बड़े हालनुमा कमरे,
एक बड़ा ड्राइंगरूम और लंबी-चौड़ी बालकनी थी.
बालकनी में आरामकुर्सी पड़ी रहती थी जिसमें पिताजी लोको
वर्कशाप से लौटकर आराम किया करते थे.
पिताजी सुबह चार बजे
जागकर स्नान करके काली दर्शन के लिए जाते, वहां
से लौटकर सात बजे वर्कशाप के लिए निकल जाते थे. शाम वह छः बजे के आसपास लौटते थे.
फ्लैट्स के नीचे लंबा-चौड़ा मैदान था,
जिसके दोनों ओर फ्लैट्स की लंबी कतार दूर सड़क तक बनी हुई थी. मैं
प्रतिदिन शाम पैसे लेकर सज-धजकर फ्लैट के नीचे सीढ़ियों के साथ दोनों ओर बने चबूतरों में से बाएं चबूतरे
पर जा बैठता था और कुछ दूरी पर बड़े भाई को मित्रों के साथ वालीवाल खेलता देखता
रहता था. चने-मुरमुरे वाला आता तो वह लेकर चुगता रहता.
उन दिनों मैं साढ़े चार साल का रहा होउंगा. एक दिन
सुबह मुझसे कहा गया कि मुझे स्कूल जाना है.
मुझे तैयार किया गया और बड़े भाई सड़क पार एक स्कूल में ले
जाकर बैठा आए.
स्कूल संचालक से शायद उन्होंने पहले ही बात कर ली थी. मुझे
जमीन पर फट्टे पर बैठना पड़ा.
सभी बच्चे फट्टे पर बैठे थे. ककहरा की शुरूआत हुई…अंग्रेजी
अक्षरों की भी.
लेकिन मन रम नहीं रहा था. पढ़ाई मेरे लिए आतंक का
पर्याय थी. अध्यापकों के प्रयास और प्रधानाध्यापक की पुचकार का कोई असर नहीं हुआ. सच यह
था कि दिमाग में कुछ घुस ही नहीं रहा था.
एक दिन प्रधानाध्यापक ने डांट दिया. बस फिर
क्या था, मुझे बहाना मिल गया स्कूल से निजात पाने का. घर लौटकर मैंने रोते हुए
कहा, “मैं किसी भी कीमत पर
उस स्कूल में पढ़ने नहीं जाउंगा.”
“क्यों?” पिताजी-बड़े भाई ने पूछा.
“क्योंकि हेडमास्टर ने मुझे डांटा है और वहां फट्टॆ पर बैठना पड़ता है. जमीन
गोबर से लिपी होती जिससे गोबर की बदबू आती रहती है.” मैंने बिसूरते हुए कहा। आज सोचता हूं तो आश्चर्य होता है कि बालमन में इतनी बातें कैसे आयी थीं. यह सब सुनकर हेडमास्टर समझाने घर दौड़े आए.
वह सांवले-मध्यमकद के कोई सिन्हा साहब थे.
लेकिन मेरी जिद अटल थी. बड़े भाई की जिद थी कि मुझे
पढ़ना ही होगा. उन्होंने अपने विद्यालय के पास एक स्कूल में बात की और मुझे वहां लेजाकर
प्रवेश दिला दिया.
मैं उनके साथ बस से स्कूल जाने लगा था.
वह स्कूल सुन्दर था.
बैठने के लिए बेंच थी और सभी बच्चे साफ-सुथरे थे. सामने लॉन और लॉन में फूल खिले हुए थे…पीले-लाल. कौन से थे,
पता नहीं.
प्रतिदिन लंच के समय बड़े भाई आते और मेरे लिए कभी गुलाब
जामुन तो कभी मोतीचूर का लड्डू ले आते.
उन्हीं दिनों एक भयानक घटना घटी. पिताजी
की छाती पर क्रेन का पहिया आ गिरा.
भयनाकरूप से वह घायल हो गए थे. रेलवे
अस्पताल में महीनों उनका इलाज हुआ.
बड़े भाई भी कोई बहुत उम्र के न थे. चौदह-साढ़े चौदह वर्ष के रहे
होंगे, बस. स्कूल,
अस्पताल और घर की जिम्मेदारी उन पर आ पड़ी. मेरी भी पढ़ाई बाधित हुई थी और यह मेरे लिए राहत की बात रही थी. पिताजी
के स्वस्थ होने के बाद मां मुझे और छोटी बहन को लेकर पुनः गांव लौट आयी थीं.
गांव में फिर लंबे समय तक मैं मटरगश्ती करता रहा. बच्चे
मेरे घर के बाहर चबूतरे के नीचे कंच्चे खेलते और मैं चबूतरे पर बैठकर उन्हें देखता
रहता. खेलने में मेरी कभी रुचि नहीं रही.
जिन्दगी में एक बार क्रिकेट का बैट संभाला और पहली ही गेंद
पर बैट गेंद से टकराने के बजाए मेरे पेट पर लगा तो पेट पकड़ कभी बैट न थामने का
निर्णय किया था.
एक वाक्य में कहूं कि कभी किसी खेल में हिस्सा नहीं लिया
सिवाय एक बार सातवीं कक्षा में पढ़ने के दौरान सौ मीटर दौड़ में हिस्सा लेने के और
उसमें नंगे पांव जी.टी.रोड पर दौड़ता हुआ सबसे पीछे रहा था.
मेरी उम्र बढ़ती जा रही थी और पढ़ने के प्रति इच्छा नदारद थी. जब भी
मां स्कूल में प्रवेश की बात करतीं तो मैं कहता, “पढ़ें–लिखे
ते का होई, खेती करैं तो गल्ला
(अनाज)
होई.”
तभी पड़ोसी बाला प्रसाद त्रिवेदी की मां ने पुरवामीर के
जुग्गीलाल कमलापति प्राइमरी पाठशाला में
बाला को प्रवेश दिलाया. बाला से मेरी मित्रता हो
चुकी थी. उसने मुझे प्रोत्साहित किया.
शायद पड़ोसी के संग-साथ का भाव होगा उसके मन में.
और एक दिन मां ने मुझे लेजाकर मेरी पाटी भी पुजा दी थी. वह
क्षण भी मुझे याद है.
हेडमास्टर ने मेरी आयु नौ माह अधिक लिखी, जिसे
बड़े भाई ने मेरे पांचवी उत्तीर्ण कर लेने के बाद टी.सी.
लेते समय दुरस्त करवाने का बहुत प्रयास किया, लेकिन मुंशी जी ने दो टूक शब्दों में इंकार कर दिया था.
प्राइमरी पास
करने तक पिताजी अवकाश ग्रहण करके गांव आ गए थे. उन्होंने
दो भैंसें और एक गाय खरीद ली थी.
खेती करवाने के लिए दो भैंसे भी खरीदे और बंसी पासी
को हलवाही में रख लिया.
पांचवी के बाद मुझे महोली के (जो मेरे गांव से तीन मील
दूर है) मिडिल स्कूल में बड़े भाई ने प्रवेश दिला दिया. तब तक पिताजी को अवकाश
ग्रहण के समय मिली एक मुश्त राशि समाप्त हो चुकी थी. बड़े भाई शहर में होस्टेल
में रहकर बी.ए. कर रहे थे और आय के श्रोत के नाम पर भैंसों और गाय के कटता दूध के अतिरिक्त
कुछ भी न था.
मां के जेवर बिकने लगे थे और एक समय ऎसा भी आया कि हम कर्ज
में डूब गए थे.
मेरे पास एक पायजामा और एक ही कमीज थी, जिससे
स्कूल का काम चल रहा था.
हर समय
बनारसी सिल्क साड़ी पहनने वाली मां कानपुर के एल्गिन मिल की
मोटी धोती और पिताजी मोटी लुंगी से काम चलाने के लिए विवश थे. पिताजी
के बदन पर
बड़े बेटा की छोड़ी कमीज होती, लेकिन इतना होने के बावजूद
बड़े भाई की पढ़ाई में कभी बाधा नहीं आने दी गई थी. मेरे मां-पिता अनपढ़ थे
लेकिन पिताजी ने जिन्दगी पढ़े-लिखे भद्र बंगाली समाज के बीच गुजारी थी अतः उनकी आकांक्षा अपने बच्चों को
अच्छी शिक्षा देने की थी.
घर के हालात विद्रूप थे. विपन्नता ने हमें सुन्न कर
रखा था, लेकिन मां-पिता जी बड़े भाई की शादी करने पर तुले हुए थे. 1963 में उन्होने उनका विवाह तय
कर दिया. भाईसाहब के विवाह के लिए दो बीघे खेत एक समृद्ध चमार के पास एक खास अवधि के लिए रेहन
रखे गए. उसके खेते हमारे खेतों के निकट थे और वह एक भला व्यक्ति था. खेतों में कब्जे का भय नहीं
था. हमारे खेतों में अधिक कुछ पैदा नहीं होता था. खेती के लिए खरीदे गए भैसे
पिताजी ने बेच दिए थे.
शेष खेत बटाई को दे दिए गए थे, लेकिन
पैदावार से जो मिलता उससे दो महीने काटना भी कठिन होता. 1963-65 वे वर्ष थे जब देश में अन्न का अकाल था.
अमेरिका और दूसरे देशों से आने वाला सड़ा गेहूं राशन में दिया जा रहा था.
उन देशों में वह गेहूं सुअरों को दिया जाता था. समय तो
याद नहीं लेकिन बड़े भाई की शादी के बाद एक दिन मां ने कहा कि बड़े भाई की ससुराल
में ग्राम प्रधान दीक्षित जी को राशन के आटा का ठेका मिला है. उन्होंने
मुझे वहां जाकर आटा ले आने के लिए कहा.
मेरा पड़ोसी बाला प्रसाद त्रिवेदी का परिवार भी उसी संकट से
जूझ रहा था. मैं और बाला छः मील पैदल चलकर बड़े भाई की ससुराल पहुंचे. शर्म
से मेरा चेहरा लाल था,
लेकिन पेट की भूख मिटाने के लिए सब कुछ बर्दाश्त करना पड़
रहा था. बड़े भाई की ससुराल समृद्ध थी.
उनके साले ने हमारी समस्या सुनी और दीक्षित का घर दिखा दिया. हमें
वहां दस सेर आटा दिया गया.
दस सेर आटा की पोटली सिर पर रखे हम घर लौटे तो मां ने दुखी
मन से केवल इतना ही कहा था,
“बस इतना ही!”
बाद में बड़े भाई के साले एक बोरा चावल घर डाल गए थे,जिससे
हमारे दिन कटने लगे थे.
मेरे खेतों में शकरकंद की अच्छी पैदावार होती थी. 1964 में प्रकृति ने साथ दिया और अच्छी शकरकन्द हुई. महीनॊं हमने वही खाकर
गुजारा किया था.
एक घटना का उल्लेख किए बिना बात अधूरी रह जाएगी. मैं
सातवीं कक्षा में था.
बड़े भाई कानपुर में ट्यूशन पढ़ाकर अपना खर्च निकाल रहे थे. कुछ
पैसे बचाकर वे एक किलो ऊन खरीद लाए थे.
सलेटी रंग के उस ऊन से भाभी ने मेरे लिए पूरी बांह का
स्वेटर बुन दिया था.
मेरी एक मात्र कमीज पीठ में बिल्कुल फट गयी थी. कॉलर
से नीचे का कुछ हिस्सा साबुत था.
जाड़ेभर उस स्वेटर ने स्कूल में मेरी लाज रखी थी. हालांकि
हेडमास्टर छेद्दासिंह ने कितनी ही बार नई कमीज खरीद देने का प्रस्ताव किया था, लेकिन
हर बार मैंने विनम्रतापूर्वक उनके प्रस्ताव को ठुकरा दिया था. 16 माह की
बेकारी के बाद 1965
में बड़े भाई को हिन्दुस्तान एयरोनॉटिक्स कानपुर में नौकरी
मिली तो धीरे-धीरे घर के हालात सामान्य होने शुरू हो गए थे. उम्र के दस-ग्यारह
साल जितने खुशहाल बीते थे बाद के सात-आठ साल बहुत ही संघर्षमय….लेकिन समय बीत जाता है और पीछे छोड़ जाता है स्मृतियां, जिन्हें कहना-सुनाना-लिखना बेहद सुखद लगता
है. वही स्मृतियां हम लेखकों की थाती होती हैं…एक
लेखक के निर्माण में उनकी अहम भूमिका होती है. मेरे लेखकीय निर्माण में
उन स्थितियों की भूमिका को मैं स्वीकार करता हूं.
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बाल कहानी
मशाल
रूपसिंह चन्देल
आज
से लगभग डेढ़ सौ साल पहले की बात है. कानपुर के दक्षिण-पश्चिम दिशा की ओर लगभग बीस मील
दूर एक बहुत बड़ा जंगल था. एक बार चार अंग्रेज वहां शिकार खेलने के लिए आए. शिकार खेलते-खेलते
उन्हें शाम हो गयी. कुछ जानवरों का शिकार कर
उन्हें अपने-अपने घोड़ों पर लादकर वे कानपुर की ओर लौट पड़े. अभी वे कुछ ही दूर चले थे
कि एक अंग्रेज के घोड़े का पैर एक कंकरीली पहाड़ीनुमा ऊंची जगह से उतरते समय फिसल गया.
घोड़ा अपने सवार सहित मुंह के बल नीचे जा गिरा. घोड़े की गर्दन में गंभीर चोट आयी. वह
चलने योग्य नहीं रहा था. अब उन लोगों के सामने समस्या पैदा हुई कि एक और घोड़ा कहां
से लाया जाए, क्योंकि वह अंग्रेज तो अपने किसी साथी के साथ बैठकर जा सकता था, किन्तु
अपने शिकार को उसे वहीं छोड़ना पड़ता. वह ऎसा नहीं करना चाहता था.
वे
लोग कुछ सोच ही रहे थे कि तभी उन्हें घोड़े पर सवार एक किशोर आता दिखाई पड़ा. एक अंग्रेज
ने उसे आवाज देकर बुलाया. किशोर ने अपने घोड़े को ऎड़ लगायी और जा पहुंचा अंग्रेजों के
पास. एक अंग्रेज उससे बोला, “ऎ टुम अपना घोड़ा हमारे हवाले कर दो.”
“क्यों?”
किशोर ने पूछा.
“हमारा
एक घोड़ा घायल हो गया है. चलने लायक नहीं. हम टुमको बोलटा, हुकम खिलाफी नई सुनना मांगटा---समझा—घोड़ा
हमारे हवाले करो—नई टॊ---“ दूसरा अंग्रेज गरजकर बोला.
“नहीं
तो क्या..?” यहां से चले जाइए—मैं अपना घोड़ा नहीं दूंगा.” किशोर ने घोड़े को ऎंड़ लगाई
और चलने लगा, लेकिन तभी उसने देखा कि एक अंग्रेज तलवार से उस पर प्रहार करने के लिए
आगे बढ़ रहा है. उसके पास भी तलवार थी. उस पर अंग्रेज प्रहार करे, इससे पहले ही वह अपनी
तलवार संभालकर तैयार हो गया. अंग्रेज ने उसकी गर्दन पर निशाना साधकर तलवार चला दी,
लेकिन किशोर ने अपनी तलवार से उसके निशाने को व्यर्थ कर दिया और भरपूर प्रहार अंग्रेज
के हाथ पर किया. लेकिन किशोर की तलवार अंग्रेज के हाथ में न लगकर उसकी तलवार पर लगी.
अंग्रेज की तलवार छिटककर दूर जा गिरी. अब अंग्रेज घबड़ाए. किशोर क्रोध से फुंकारता हुआ
आगे बढ़ा, लेकिन जब उसने देखा कि अपने साथी को बैठाकर अंग्रेज मैदान छोड़कर भाग रहे हैं
तब वह भी घर की ओर लौट पड़ा.
यह
किशोर कानपुर के पास संचेड़ी के राजा भीमसिंह का पुत्र दुर्गाप्रसाद था. दुर्गाप्रसाद मन
ही मन रास्ते भर अंग्रेजों को मार भगाने की बात सोचता रहा, क्योंकि जब भी अंग्रेज गांवों
के आस-पास शिकार के लिए जाते थे, गांवों की स्त्रियों और पुरुषों को उनके अत्याचार
का शिकार होना पड़ता था. दुर्गाप्रसाद ने प्रतिज्ञा की कि जब भी उसे अवसर मिलेगा, वह
उनको अवश्य मार भगाएगा.
(१८५७ का एक दृश्य)
पिता
की मृत्यु के बाद वह सचेण्डी का राजा बना और राजा बनने के कुछ दिनों बाद ही उसे अंग्रेजों
को मार भगाने का अवसर मिल गया. सन १८५७ के प्रथम स्वतन्त्रता संग्राम में बिठूर के
पेशवा नाना साहब के साथ मिलकर उन्होंने अंग्रेजों के साथ जमकर युद्ध किए. सचेण्डी तथा
आसपास के क्षेत्र से अंग्रेजों का नामो-निशान मिटा दिया. लेकिन अपनी कूतनीति के बल
पर अंग्रेजों ने कानपुर पर अधिकार कर लिया और उसके पश्चात सनेण्डी में भी थाना कायम
करने में सफल हो गए . दुर्गाप्रसाद की गद्दी को उन्होंने नष्ट कर दिया.
दुर्गाप्रसाद
के अनेक बहादुर साथी तथा सैनिक युद्ध में मारे जा चुके थे. अतः उन्हें मजबूर होकर अपना
राज्य छोड़ना पड़ा.
वह
कोटरा मकरन्दपुर नामक गांव में जाकर गुप्तरूप से रहने लगे और सचेण्डी को अंग्रेजों
से मुक्त कराने की योजना बनाने लगे. लेकिन योजना को अंतिम रूप देने से पहले ही उनके
सेवक ठाकुर प्रसाद ने कुछ रुपयों के लालच में उनके साथ विश्वासघात किया और एक दिन रात
में अंग्रेजों ने उन्हें कैद कर लिया.
राजा
दुर्गाप्रसाद को कैद करके कानपुर लाया गया. वहां सेशन अदालत में उन पर मुकदमा चला.
उन्हें फांसी की सजा सुनाई गई. सजा सुनाते हुए अंग्रेज जज ने उनसे कहा कि यदि वह माफी
मांग लें और अंग्रेज सरकार के प्रति भविष्य में वफादार रहने की शपथ लें तो उन्हें छोड़
दिया जाएगा और उनका राज्य भी उन्हें वापस लौटा दिया जाएगा. जज की बात सुनकर दुर्गाप्रसाद
ने कहा, “माफी मांगने के लिए मैं क्रान्ति में शामिल नहीं हुआ था. देश की स्वतन्त्रता
के लिए मुझे फांसी पर चढ़ने में ही खुशी होगी, जिससे हम लोगों द्वारा जलायी गई क्रान्ति
की मशाल हमारे देशवासियों द्वारा तब तक प्रज्वलित की जाती रहे, जब तक देश स्वतन्त्र
न हो जाए.”
अंग्रेजों
ने उन्हें फांसी पर लटका दिया. फांसी पर लटकाए जाते समय दुर्गाप्रसाद ने चीखते हुए
कहा था—“अंग्रेजो, तुम्हें भारत से जाना ही होगा. फांसी पर चढ़कर मैं तुमसे लड़ने के
लिए पुनः इसी पवित्र भूमि पर जन्म लूंगा.”
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