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सोमवार, 19 नवंबर 2012

ताकि विस्मृत न हो जाए


ताकि विस्मृत न हो जाए
कहानी की कहानी
रूपसिंह चन्देल
  मई,१९८७ के हंस में मेरी कहानी आदमखोर प्रकाशित हुई.  यह  तीन माह पहले लिखी और भेजी गई थी, लेकिन वहाँ से कोई सूचना प्राप्त नहीं हुई . मैंने उसके  कार्यालय जाकर कहानी के विषय में पता करने का निर्णय किया. वह ११ अप्रैल,१९८७ (शनिवार) का दिन था. अपरान्ह तीन बजे के लगभग मैं दरियागंज स्थित अक्षर प्रकाशन पहुंचा. दरवाजे से प्रवेश करते ही मेरी मुलाकात बीना उनियाल से हुई. वहां मैं किसी को भी नहीं जानता था. बीना से मैंने राजेन्द्र जी के विषय में पूछा. हाथ का इशारा करते हुए वह बोली, उस कमरे में बैठे हैं. जाइए मिल लीजिए. किसी बड़े सम्पादक से बिना रोक-टोक मुलाकात...इतनी उन्मुक्तता पहले नहीं देखी-जानी थी. वह एक सुखद अनुभव था. मैं राजेन्द्र जी के कमरे में प्रविष्ट हुआ. यहां यह बता दूं कि  समय के साथ राजेन्द्र जी की कुर्सी भले ही बदलती रही, लेकिन कुर्सी का जो स्थान  १९८७ में मैंने देखा था वही आज भी है. राजेन्द्र जी के चेहरे पर जो चमक तब मैंने देखी थी (उन दिनों वह ६२ के थे) वही आज भी विद्यमान है. स्वास्थ्य भले ही  गिर गया है, लेकिन वाणी में वही गर्माहट आज भी विद्यमान है.
यह खाकसार  जहां लक्ष्मी कैद है (जिसे उसने अपने एम.ए. हिन्दी के कोर्स में पढ़ा था) और सारा आकाश के लेखक  से पहली बार मिल रहा था. जो संकोच पहले मन में था वह मिलते ही तिरोहित हो चुका था. परिचय पाते ही राजेन्द्र जी की प्रतिक्रिया से प्रतीत हुआ कि वह मेरे नाम से परिचित हैं. और रहस्य कुछ देर बाद ही खुल भी गया. 
राजेन्द्र यादव
कथादेश के सम्पादक हरिनारायण उन दिनों हंस में थे और उस समय राजेन्द्र जी के कमरे में ही बैठे हुए थे. कुछ देर की बातचीत के बाद राजेन्द्र जी ने हरिनारायण से कहा, परिचय-फोटो ले लो चन्देल से.
परिचय? मैं केवल इतना ही कह सका.
तुम्हारी कहानी अगले अंक में जा रही है क्षणभर के लिए रुके राजेन्द्र जी और हरिनारायण जी की ओर देखते हुए पूछा, क्या नाम है---कहानी का?
आदमखोर मैंने तपाक से कहा. मैं जिस उद्देश्य से वहां गया था वह बिना पूछे ही पूरा हो चुका था.
हांयही शीर्षक है. हरिनारायण ने बहुत ही धीमे स्वर में कहा.
कहानी आपको पसंद आयी? मैंने राजेन्द्र जी की ओर देखकर पूछा. जाहिर है कि यह एक मूर्खतापूर्ण प्रश्न था. पूछते ही मैं सोचने लगा कि मेरा देहातीपन अभी तक नहीं गया, जबकि दिल्ली में रहते हुए मुझे आठ साल हो चुके.
पसंद न होती तो छपती कैसे. राजेन्द्र जी बोले.
मैं झेंप मिटाता सामने दीवार की ओर देखने लगा था.
कहानी हंस के मई,१९८७ अंक में छपी और चर्चित रही. हंस में मेरी यह पहली कहानी थी.  उत्साह बढ़ा. १९८८ के प्रारंभ में लंबी कहानी पापी लिखी. संतुष्ट होने के बाद जून या जुलाई,१९८८ में डाक से हंस को भेज दी. साथ में अपना पता लिखा-टिकट लगा लिफाफा भी संलग्न कर दिया. उन दिनों दस में से पांच रचनाएं निश्चित ही लौटती थीं और मैं उन लेखकों में नहीं था जो यह दावा करते थे कि पत्रिका जब उनसे रचना मांगती है तभी वे उसे देते हैं और उसकी वापसी उन्हें स्वीकार नहीं. आज भी मैं रचना की हार्डकॉपी भेजते समय लिफाफा लगाना नहीं भूलता.
तीन महीने तक पापी की स्वीकृति-अस्वीकृति की प्रतीक्षा के बाद एक दिन मैं हंस कार्यालय गया. आदमखोर प्रकाशित होने के बाद मैं दो बार और वहां गया था. राजेन्द्र यादव की कुछ बातें मुझे ही नहीं शायद दूसरों को भी पसंद हैं. बात-बात में ठहाके लगाना, एक बार मिलने के बाद व्यक्ति को न भूलना और कार्यालय में आने वाले व्यक्ति का पहले से उपस्थित व्यक्ति के साथ परिचय करवाना आदि. मैंने पापी की चर्चा की तो उन्होंने तपाक से बीना को बुलाया और कहा कि वह रजिस्टर में देखकर बताएं ! कहानी तब तक उनकी नज़रों से गुजरी न थी. बीना ने रजिस्टर छानकर बताया कि पापी तो उसमें दर्ज नहीं है. डाक से आने वाली प्रत्येक कहानी वह रजिस्टर में दर्ज करके राजेन्द्र जी को देतीं थीं. जब तक बीना ने रजिस्टर की छानबीन की राजेन्द्र जी ने पापी की विषयवस्तु मुझसे जान लेना चाही . मैंने संक्षेप में उन्हें बताया. बोले, इसी थीम पर राजी सेठ की एक कहानी है. हाल ही में उनका कहानी संग्रह प्रकाशित हुआ है उसमें है वह कहानी.


चित्र ( २ अक्टूबर,१९९९)
(राजेन्द्र यादव के साथ रूपसिंह चन्देल)












भाईसाहब! मैं बोला, राजी सेठ जी से मेरी क्या तुलना! वे महानगरीय जीवन की लेखिकाआभिजात्य शिल्पआभिजात्य विषयमेरी कहानी ग्रामीण पृष्ठभूमि की है----
राजेन्द्र जी चुप रह गए. मैं सोच रहा था कि अपने प्राण बचाने का उनका यह तरीका लाजवाब है. कुछ देर की चुप्पी के बाद बोले, कहानी की प्रति तो होगी ही तुम्हारे पास?
है.
दे जाओ.
एक ही प्रति है. दूसरी तैयार करना होगा.
जल्दी क्या है. आराम से तैयार करके दे जाना.
मैंने कहानी की दूसरी प्रति तैयार की और 4-6 दिन बाद ही लिफाफा संलग्न करके बीना उनियाल को दे आया. एक माह के अंदर कहानी वापस लौट आयी. राजी सेठ की कहानी का जिक्र कर राजेन्द्र जी ने मेरे मन में यह  आशंका पहले ही पैदा कर दी थी. मैंने अगले ही दिन कहानी रविवार को भेज दी. भेजने के पन्द्रह दिनों के अंदर मेरे द्वारा संलग्न लिफाफे में रविवार से योगेन्द्र कुमार लल्ला का स्वीकृति पत्र आ गया. लल्ला जी वहां साहित्य भी देख रहे थे और संयुक्त सम्पादक थे. उससे पहले रविवार में मेरी भेड़िये कहानी वह प्रकाशित कर चुके थे, लेकिन हमारे मध्य कोई संवाद नहीं बना था. पापी हम दोनों के मध्य घनिष्टता का आधार बनी थी.
पन्द्रह दिनों में रविवार से स्वीकृति पत्र मेरे लिए कल्पनातीत था. मैं उद्वेलित था. स्वीकृति पत्र जेब में डाल मैं आगामी शनिवार ही हंस जा पहुंचा. जब मैं और राजेन्द्र जी ही थे मैंने पूछा, भाईसाहब, आपने पापी  वापस कर दी---आपको पसंद नहीं आयी थी?
चन्देल, पसंद-नापसंद का सवाल नहीं है. वह कहानी ऎसी है कि कहीं भी छप सकती है.
फिर हंस में क्यों नहीं छप सकती!
बहुत से कारण होते हैं---वे बताए नहीं जा सकते. राजेन्द्र जी के चेहरे पर एक बेचारगी-सी उस क्षण  मैंने देखी. मैंने अनुमान लगाया कि स्वयं वह तो शायद कहानी छापना चाहते रहे होंगे लेकिन कोई अन्य आड़े आ गया होगा. मैंने उनसे न छपने का कारण नहीं पूछा और पूछता भी तो क्या वह बता देते! मेरे प्रश्न से अचानक माहौल गंभीर हो उठा था. उसे हल्का करते हुए मैंने कहा, रविवार ने पन्द्रह दिनों के अंदर ही उसका स्वीकृति पत्र भेज दिया है.
मैंने कहा न कि वह कहीं भी छप सकती है.
राजेन्द्र जी के उत्तर से वातावरण पुनः पहले जैसा हो गया था.         
पापी’  रविवार के दीपावली विशेषांक में प्रकाशित हो रही थी. उसमें कमलेश्वर जैसे प्रतिष्ठित कथाकारों की कहानियां भी थीं. अंक प्रेस में जा चुका था और प्रकाशन के आदेश से एक दिन पहले मालिकों ने रविवार को बंद करने का निर्णय लिया. रविवार बंद हुआ और पापी लटक गयी. रविवार बंद होने के पश्चात लल्ला जी दिनमान में आ गए. वह तब दिनमान टाइम्स हो गया था और अखबार के रूप में निकलने लगा था. मैं एक दिन लल्ला जी से मिला और वह हमारी पहली मुलाकात थी. पापी पर चर्चा हुई. उन्होंने रविवार की डमी तैयार होने की बात बताते हुए उसके वहां प्रकाशित न हो पाने का अफसोस जाहिर किया. मैंने उन्हें उसे दिनमान टाइम्स में धारावाहिक  प्रकाशित करने का प्रस्ताव किया.
यह कठिन होगा रूपसिंह. लल्ला जी पान चभुलाते हुए बोले, यदि मैंने उसे धारावाहिक प्रकाशित किया तो लोग अपना उपन्यास लेकर आ जाएंगे. किस-किस को मना करूंगा. उन्होंने सलाह देते हुए कहा, आप सारिका को क्यों नहीं देते!
वहां पहले से ही एक कहानी स्वीकृत है.
मुद्गल जी से मिलकर उस कहानी के स्थान पर पापी के प्रकाशन का अनुरोध करो. वह जी भले व्यक्ति हैं. इंकार नहीं करेंगे.
मुद्गल जी मुझे भलीभांति जानते थे. लल्ला जी के पास से उठकर मैं उनके पास गया. दिनमान टाइम्स के साथ ही उनका कमरा था. वह उस समय अकेले थे. मैंने लल्ला जी का सुझाव अपनी ओर से मुद्गल जी के समक्ष रखा. वह कुछ देर तक सोचते रहे, फिर बोले, हां यह हो सकता है. और उन्होंने  महेश दर्पण को बुला लाने के लिए चपरासी से कहा. महेश के आने पर बोले, चन्देल की कोई कहानी हमारे यहां स्वीकृत है?
 “हां, है. महेश दर्पण बोले.
 “तो ऎसा करो, उस कहानी को रोक लो. चन्देल एक और कहानी देंगे, उसे प्रकाशित करना.
 “जी भाई साहब. शायद महेश ने उन्हें इसी प्रकार सम्बोधित किया था.  
एक सप्ताह के अंदर मैंने पापी मुद्गल जी को दी जिसे उन्होंने तुरंत महेश को देते हुए कहा, इसे प्रकाशित करना है.
और पापीसारिका के मई, १९९० अंक में उपन्यासिका के रूप में प्रकाशित हुई. सारिका में वही मेरी पहली और अंतिम कहानी थी, क्योंकि उसके पश्चात सारिका बंद हो गयी थी. उसके बंद होने से मैं सोचने के लिए विवश हुआ कि संभवतः राजेन्द्र यादव एक भविष्यदृष्टा भी हैं. पापी जहां स्वीकृत हुई वह पत्रिका बंद हुई और जहाँ छपी वह भी! कहानी लौटाने का निर्णय लेने से पहले कहीं राजेन्द्र जी ने हंस का भविष्य तो नहीं बांच लिया था!  बहरहाल सारिका में उपन्यासिका के रूप प्रकाशित होने से पापी को जो चर्चा मिली थी मेरे लेखक के लिए वह अत्यन्त महत्वपूर्ण थी.
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गुरुवार, 13 सितंबर 2012

संस्मरण




चित्र : बलराम अग्रवाल







संस्मरण
जवाहर चौधरी

रूपसिंह चन्देल

मेरा परिचय उनके बड़े पुत्र से था.  बड़े पुत्र यानी आलोक चौधरी से. आलोक से परिचय  पुस्तकों के संदर्भ में हुआ था. ’शब्दकार प्रकाशन’, जिसे उन्होंने १९६७ में स्थापित किया था, उनकी अस्वस्थता के कारण आलोक ही संभाल रहे थे. जहां तक याद पड़ता है आलोक से मेरी पहली मुलाकात  हिन्दुस्तान टाइम्स बिल्डिंग में हुई थी---शायद दैनिक हिन्दुस्तान में--- बात १९९० के बाद लेकिन १९९३ से पहले की है. दैनिक हिन्दुस्तान के रविवासरीय में उसके सहायक सम्पादक आनन्द दीक्षित समीक्षाएं देखते थे. दीक्षित जी बहुत ही आत्मीय व्यक्ति थे. उनसे मिलने जाने में जब भी मुझे लंबा समय बीत जाता, वह मुझे फोन करके शिकायत करते हुए कहते, “आपके लिए कब से बहुत-सी  अच्छी पुस्तकें संभालकर रखी हुई हैं—.“ पुस्तकें संभालकर रखने से आभिप्राय समीक्षार्थ पुस्तकों से था. उन दिनों वहां और जनसत्ता में मैं नियमित समीक्षाएं लिख रहा था. यह एक बीमारी की भांति मेरे साथ जुड़ गया था. छपास और मुद्रालाभ की बीमारी कह सकते हैं. पाठकों की नजरों में बने रहने की लालसा भी उसके साथ जुड़ी हुई थी. परिणाम यह था कि कितने ही लोग मेरा पता जानकर अपनी पुस्तकें सीधे घर भेजने लगे थे इस अनुरोध के साथ कि मैं  उन पर लिख दूं. उन दिनों कुछ प्रकाशकों का भी मैं चहेता बन गया था. उन्हीं दिनों आलोक चौधरी से मेरी मुलाकात हुई थी. कन्नड़ के मूर्धन्य लेखक एस.एल. भैरप्पा के  हिन्दी में अनूदित उपन्यासों के अनुवाद ’शब्दकार’ ने प्रकाशित किए थे और आलोक से परिचय होने से पूर्व उनके कुछ उपन्यासों पर मैं समीक्षाएं लिख चुका था. शब्दकार प्रकाशन के संस्थापक आलोक के पिता थे, लेकिन वह जवाहर चौधरी थे यह मैं नहीं जानता था.

उस दिन मुलाकात के दौरान आलोक ने अपने पिता के विषय में बताया. जवाहर चौधरी जी से मिलने जाने की इच्छा प्रबल हो उठी. लेकिन समय दौड़ता रहा और मैं जा नहीं पाया. मैं मिलने जा तो नहीं पाया, लेकिन शब्दकार का जब भी नया सेट प्रकाशित होता आलोक कुछ खास पुस्तकों की दो प्रतियां मुझे भेज देते. बाद में फोन करके कहते कि पिता जी ने अर्थात जवाहर चौधरी ने उन पुस्तकों को मुझे भेजने के लिए कहा है. मुझे यह पता चल चुका था कि दैनिक हिन्दुस्तान या जनसत्ता में प्रकाशित मेरी हर समीक्षा ही नहीं मेरी कहानियां भी जवाहर चौधरी मनोयोग से पढ़ते थे.

जवाहर चौधरी से मिलने जाने का कार्यक्रम टलता रहा और तीन वर्ष निकल गए. मार्च १९९३ में मैं अपने परिवार और अशोक आंद्रे और बीना आंद्रे के साथ मैसूर, ऊटी और बंगलुरू (तब बंगलौर) की यात्रा पर गया. हम सीधे मैसूर गए और वहां डी.आर.डी.ओ. गेस्ट हाउस में ठहरे. गेस्टहाउस चामुण्डा हिल्स के ठीक सामने बहुत रमणीय स्थल पर है. चामुण्डा हिल्स देखकर मुझे भैरप्पा के उपन्यास ’साक्षी’ की याद हो आयी.  कुछ दिनों पहले ही यह उपन्यास शब्दकार से प्रकाशित हुआ था. दिल्ली से ही मैंने भैरप्पा जी से मिलने के लिए दिन और समय तय कर लिया था. अगले दिन हमने सबसे पहला काम उनसे मिलने जाने का किया था. बातचीत में भैरप्पा जी ने जवाहर चौधरी की जो प्रशंसा की उसने मुझे दिल्ली लौटकर उनसे मिलने के लिए और प्रेरित किया था. भैरप्पा के हिन्दी में अनूदित सभी उपन्यास शब्दकार से ही क्यों प्रकाशित हुए, मेरे इस प्रश्न के उत्तर में भैरप्पा जी ने कहा था, “जवाहर चौधरी मेरे मित्र हैं. जब तक वह उपन्यास प्रकाशित करने से इंकार नहीं करेंगे---मैं उन्हें ही देता रहूंगा. वह रॉयल्टी दें या नहीं.”

जवाहर चौधरी के प्रति भैरप्पा जी के ये उद्गार उनकी मित्रता की प्रगाढ़ता को  उद्घाटित कर रहे थे. मुझे बाद में मालूम हुआ  कि कमलेश्वर की कई पुस्तकें शब्दकार से प्रकाशित हुई थीं और कमलेश्वर ने भी उनसे रॉयल्टी लेने से इंकार कर दिया था. इससे इन लोगों के साथ जवाहर चौधरी की मित्रता की प्रगाढ़ता का अनुमान लगाया जा सकता है. भैरप्पा  जी के कथन ने मुझे इतना उत्साहित किया कि यात्रा से लौटकर मैं अपने को रोक नहीं पाया. एक दिन मैं गुरु अंगद नगर (जो दिल्ली के प्रसिद्ध लक्ष्मीनगर के निकट है) आलोक के घर जा पहुंचा. चौधरी परिवार उस मकान में भूतल में रहता था.   दरवाजे के सामने छोटा-सा आंगन था. आंगन के पूरब की ओर दो कमरे थे. पहले कमरे में चारपाई पर उम्रदराज एक व्यक्ति लेटा हुआ था. वही जवाहर चौधरी थे. वह पक्षाघात का शिकार होकर शैय्यासीन  थे. कृशकाय, लेकिन चेहरे पर ओज और चैतन्यता. मध्यम कद, चकमती हुई आंखें और गोरा-चिट्टा चेहरा. मैंने सोचा, ’अपनी जवानी में वह निश्चित ही बहुत ही सुन्दर और आकर्षक रहे होंगे.’

जवाहर चौधरी का जन्म ७ मार्च, १९२६ को हुआ था. गुरुअंगदनगर के जिस मकान में मैं उनसे मिला वह किराए पर था और वहां वह १९८५ में शिफ्ट हुए थे. शिफ्ट होने के कुछ दिनों बाद ही १९८६ के प्रारंभ  में उन्हें पक्षाघात का अटैक हुआ और वह एक प्रकार से शैय्यासीन हो गए थे, लेकिन उस स्थिति में भी वह प्रकाशन के काम में रुचि लेते थे. वास्तव में वह बहुत ही कर्मठ, विद्वान, साहित्य प्रेमी, मित्रजीवी और जीवन्त व्यक्ति थे.  उनके परिचतों और मित्रों से सुनी उनकी इन विशेषताओं ने भी मुझे उस नेक इंसान से मिलने के लिए प्रेरित किया था और एक मुलाकात ने ही मुझ पर उनकी जो अमिट छाप छोड़ी वह आज तक अक्ष्क्षुण है.     

मुझे आया देख चौधरी साहब ने  उठने का प्रयास किया, लेकिन उठ नहीं पाए. मैं उनके निकट बैठ गया. लंबी बातें हुई—मेरे लेखन, परिवार से लेकर नौकरी, देश, समाज और राजनीति की. उन्होंने शब्दकार  को लेकर चिन्ता व्यक्त की. चिन्ता व्यवस्था में व्याप्त भ्रष्टाचार को लेकर थी. पुस्तक खरीद में भारी रिश्वतखोरी को लेकर थी. उन्होंने तब कहा था कि स्थिति यदि यही रही तो अच्छा साहित्य छपना बंद हो जाएगा. स्पष्ट है कि उनकी यह चिन्ता अपने प्रकाशन की पुस्तकों की बेच से सम्बन्धित भी थी. बहुत ही उल्लेखनीय साहित्य उन्होंने प्रकाशित किया था. शब्दकार की सूची में महत्वपूर्ण  लेखक थे, लेकिन खरीद अधिकारियों को रिश्वत दे पाने  की अक्षमता के कारण प्रकाशन की स्थिति अच्छी न थी. जब तक वह स्वस्थ रहे अपने प्रभाव से ठीक-ठाक काम किया, लेकिन अस्वस्थ होते ही ’शब्दकार’ लड़खाने लगा था.

यद्यपि जवाहर चौधरी लेखक नहीं थे, लेकिन अच्छे साहित्य और अच्छे साहित्यकारों की उन्हें पहचान थी. उनके दौर के अनेक हिन्दी और गैर हिन्दी लेखक उनके अभिन्न मित्र थे. अक्षर प्रकाशन प्रारंभ करने से पूर्व वह कई प्रकाशकों के लिए काम कर चुके थे. कहते हैं कि भारतीय ज्ञानपीठ को बनारस से दिल्ली लाने का श्रेय उन्हें ही था. ज्ञानपीठ के दिल्ली स्थानांतरित होने पर वह उसके पहले प्रबन्धक नियुक्त हुए थे, लेकिन चूंकि वह बेहद स्वाभिमानी व्यक्ति थे इसलिए लंबे समय तक भारतीय ज्ञानपीठ को उनकी सेवाएं नहीं प्राप्त हो सकी थीं. उन्होंने ’रंगभूमि’ पत्रिका में भी कुछ दिनों तक काम किया था और २८ दिन राजकमल प्रकाशन में भी रहे थे. कुछ दिन आत्माराम एण्ड संस में भी कार्य किया, लेकिन वह कहीं भी अधिक दिनों तक नहीं टिके. व्यक्ति का व्यावहारिक होना और मृदुभाषी होना अलग बात है लेकिन इन गुणों के बावजूद स्वाभिमानी व्यक्ति समझौते नहीं कर पाते. जवाहर चौधरी भी नहीं कर पाते रहे.

जवाहर चौधरी प्रगतिशील लेखक संघ के सचिव भी रहे थे.  ’अक्षर प्रकाशन’, जहां आज हंस पत्रिका का कार्यालय है, के  वह संस्थापक सदस्यों में से एक और उसके प्रथम मैनेजिंग डारकेक्टर थे.. यह बात उस दिन जवाहर चौधरी ने ही मुझे बतायी थी कि अक्षर प्रकाशन में पूंजी लगाने के लिए उन्होंने अपना २०८ वर्ग गज का ग्रेटर कैलाश का प्लॉट बेच दिया था. ग्रेटर कैलाश नई  दिल्ली के उन इलाकों में है जहां आज उस प्लॉट की कीमत करोड़ों में होती.

मैं जब जवाहर चौधरी  से मिलकर वापस लौट रहा था तब मन में एक ही बात उमड़- घुमड़ रही थी कि सहज और सरल व्यक्ति जीवन में असफल क्यों रहते हैं! जवाहर चौधरी  बहुत ही सरल व्यक्ति थे. उन्होंने मित्र बहुत बनाए लेकिन लाभ किसी से भी नहीं उठाया. परिणामतः स्थितियां खराब होती गयीं और एक दिन प्रकाशन ठप होने के कगार पर पहुंच गया.

और २० नवम्बर, १९९९ को उनकी मृत्यु के पश्चात  ’शब्दकार’ बंद हो गया. बाद में आलोक को उसे बेचना पड़ा. लेकिन ’अक्षर प्रकाशन’ हो या ’शब्दकार’, नाम लेते ही जानकार लोगों के जेहन में जवाहर चौधरी का नाम घूमने लगता है.

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रूपसिंह चन्देल
बी-३/२३०, सादतपुर विस्तार,
दिल्ली -११० ०९४

शुक्रवार, 29 जून 2012

यादों की लकीरें - भाग दो









संस्मरण - ६

एक ईमानदार और खुद्दार लेखक थे अरुण प्रकाश
रूपसिंह चन्देल

एक कहानीकार के रूप में अरुण प्रकाश से मैं बहुत पहले से परिचित था, लेकिन व्यक्तिगत परिचय तब हुआ जब मैं  अभिरुचि प्रकाशन के लिए बीसवीं शताब्दी की उत्कृष्ट आंचलिक कहानियां’ सम्पादित कर रहा था.  यद्यपि एक कहानीकार के रूप में समकालीन कहानीकारों में अरुण का नाम शीर्ष पर था और उनकी कई कहानियां बहुचर्चित थीं, लेकिन वह अचानक उस दिन और अधिक चर्चित हो उठे थे जब अच्छी-खासी हिन्दी अधिकारी की अपनी नौकरी से त्यागपत्र देकर वह कमलेश्वर  के साथ दैनिक जागरण में आ गए थे. इसके दो कारण हो सकते हैं –पहला यह कि उन्हें सरकारी नौकरी रास नहीं आ रही थी, जैसा कि प्रायः लेखकों को नहीं आती  और दूसरा कारण कि वह पत्रकारिता में  अपनी प्रतिभा का अधिक विकास देख रहे थे. सही मायने में अरुण प्रकाश से मेरा यह पहला परिचय था. मैं उन्हें एक आदर्श के रूप में देखने लगा था. आदर्श इसलिए कि जिस सरकारी नौकरी को उन्होंने छोड़ दिया था उसे छोड़ने के उहा-पोह में मैं 1980 से  था.  1980 के अक्टूबर माह में नौकरी छोड़ने के इरादे से  मैंने हिन्द पॉकेट बुक्स’ में पहला साक्षात्कार दिया था, लेकिन तब तक न मेरा कोई अधिक साहित्यिक अवदान था और न ही कहीं सम्पादन का अनुभव. मुझे साक्षात्कार के लिए केवल इस आधार पर बुलाया गया था कि मैं कानपुर विश्वविद्यालय से हिन्दी में शोधरत था और कुछ अच्छी कहानियां भी मेरे खाते में थीं.

1982 तक मैं अपनी नौकरी से इस कदर ऊब चुका था कि किसी भी कीमत पर वहां से मुक्ति चाहने लगा था और एक मित्र की सलाह पर मैंने दिल्ली प्रेस को इस आशय का एक अंतर्देशीय पत्र भेज दिया था. दिली प्रेस मेरे नाम से  परिचित था. एक सप्ताह के अंदर वहां से परेशनाथ का पत्र आ गया. लेकिन इस मध्य मेरे हितैषी  मित्र डॉ. रत्नलाल शर्मा ने वहां का जो खाका खींचा था वह बेहद भयावह था. एक नर्क से छूटकर उससे भी बड़े दूसरे नर्क में फंसने जैसा---मैं नहीं गया. पन्द्रह दिन बाद परेशनाथ  का एक और पत्र आया, लेकिन न मैंने उत्तर दिया और न ही वहां गया. वहां नहीं गया, लेकिन नौकरी बदलने के प्रयत्न चलते रहे. कई महाविद्यालयों में साक्षात्कार दिए, लेकिन न मैं कच्छाधारी था और न ही घोषित मार्क्सवादी. दिल्ली विश्वविद्यालय में प्रध्यापकी के लिए इनमें से एक का होना अनिवार्य था.  नौकरी मैं बदलना चाहता था लेकिन अपनी योग्यता के बल पर. हालांकि तब तक कितने ही ऎसे लोगों से मेरा सम्पर्क हो चुका था जो पत्रकारिता की दुनिया में ऎसी स्थिति में थे कि कहने पर मेरे लिए कुछ व्यवस्था अवश्य कर देते, लेकिन मुझे वह सब स्वीकार नहीं था. अस्तु ! मैं उसी नौकरी को करने के लिए अभिशप्त रहा. लेकिन नौकरी छोड़ने के अपने स्वप्न को मैंने कभी मरने नहीं दिया (अंततः नवम्बर,२००४ में मैं उसे अलविदा कह सका था) . लेकिन जब पता चला  कि अरुण प्रकाश ने नौकरी से त्यागपत्र दे दिया है तब उनके उस निर्णय ने मुझे प्रभावित किया था. कमलेश्वर ने उनकी योग्यता को पहचाना और उन्हें अपनी टीम में शामिल किया था  और वह सदैव कमलेश्वर के अभिन्न रहे. कमलेश्वर ने स्वयं मुझसे उनकी प्रशंसा करते हुए उन्हें एक प्रतिभाशाली कथाकार कहा था. मालिकों से मतभेद होने के बाद जब कमलेश्वर जागरण से अलग हुए, उनकी टीम भी छिन्न-भिन्न हो गई थी. शेष लोगों की बात मैं नहीं जानता लेकिन कमलेश्वर अरुण को कभी नहीं भूले. जब भी उन्हें अवसर मिला अरुण प्रकाश को साथ रखा. लेकिन कितना ही ऎसा वक्त रहा जब अरुण को फ्रीलांसिग करनी पड़ी. फ्रीलांसिंग करना कितना कठिन है, यह करने वाला ही जानता है और उस व्यक्ति के लिए तो और भी कठिन है जो खुद्दार हो---घुटने न टेकने वाला और अपने श्रम के सही मूल्य के लिए अड़ जाने वाला हो.
बात 1996 की है. अरुण प्रकाश को मैंने उनकी एक आंचलिक कहानी के लिए फोन किया. बहुत ही धीर गंभीर आवाज में वह बोले, “चन्देल, कहानी तो तुम कोई भी ले लो---लेकिन मुझे पहले यह बताओ कि प्रकाशक कहानीकारों को दे क्या रहा है?”
“अरुण जी, प्रकाशक ने प्रत्येक कहानीकार को दो सौ रुपए और उस खंड की प्रति जिसमें लेखक की कहानी होगी.”
            “पहली बात यह कि पारिश्रमिक कम है---कम से कम पांच सौ होना चाहिए और दूसरी बात कि दोनों खंड ही लेखकों को मिलने चाहिए.”
“मैं आपकी बात श्रीकृष्ण जी तक पहुंचा दूंगा. फिर भी यह बता दूं कि पारिश्रमिक पर मैं पहले ही उनसे बहस कर चुका हूं. वह दो सौ से अधिक देने की स्थिति में नहीं हैं. यह बात तो मैं अपनी ओर से स्पष्ट कर ही सकता हूं. रही बात दोनों खण्ड देने की तो मुझे विश्वास है कि इस बात के लिए वह इंकार नहीं करेंगे.” मैंने कहा.
“मैंने तो लेखकीय हक की बात की. हम लेखकों को अपने अधिकार के प्रति जागरूक होने की आवश्यकता है.” क्षण भर के लिए अरुण प्रकाश रुके थे, शायद कुछ सोचने लगे थे, फिर बोले थे, “चन्देल, तुम जो कहानी चाहो वह ले लो---मैं श्रीकृष्ण की स्थिति जानता हूं. तुम्हे और उन्हें कहानी देने से इंकार नहीं कर सकता.जैसा चाहो करो.”

अरुण प्रकाश के साथ मेरी कोई ऎसी मुलाकात जिसे मैं निजी मुलाकात कहूं नहीं थी. प्रायः वह साहित्यिक कार्यक्रमों में मिलते और कई बार हंस कार्यालय में भी उनसे मिलने के अवसर मिले. लेकिन कभी लंबी बातें नहीं हुईं. मैंने सदैव उनके स्वभाव में एक अक्खड़पन अनुभव किया. इसे मैं उनकी लेखकीय ईमानदारी और खुद्दारी मानता हूं. जो मन में होता वह कह देते. वह स्वभाव से विवश थे.
मेरे उपन्यास ’पाथर टीला’ पर 12 मार्च, 1999 को गांधी शांति प्रतिष्ठान में गोष्ठी के दौरान डॉ. ज्योतिष जोशी और डॉ. कुमुद शर्मा ने जिन दो टूक शब्दों में मैत्रेयी पुष्पा को उसमें गांव न होने के उनके कथन पर उत्तर दिए थे वह तो उल्लेखनीय थे ही अरुण प्रकाश ने जो कहा उसने मैत्रेयी पुष्पा के गांव के ज्ञान पर ही प्रश्न चिन्ह लगा दिया था.

बहुत भटकाव के बाद अरुण प्रकाश  को पत्रकारिता के क्षेत्र में कुछ करने का अवसर तब मिला जब वह साहित्य अकादमी की पत्रिका समकालीन भारतीय साहित्य’ के सम्पादक नियुक्त हुए थे. वहां उनकी नियुक्ति उन लोगों को हजम नहीं हुई थी जो स्वयं उस सीट पर बैठना चाहते थे. अरुण पर कीचड़ उछालने के लिए कुछ समाचार पत्रों का दुरुपयोग किया गया था. लेकिन अरुण प्रकाश ने उस सबको गंभीरता से नहीं लिया था. केवल इतना कहा था, “ खिसियानी बिल्ली खंभा नोचे वाली  कहावत चरितार्थ हो रही है. होने दो.  अपनी पूरी क्षमता और ऊर्जा के साथ अरुण ने पत्रिका के अंक निकाले और नये मानदंड स्थापित किए. उनकी नियुक्ति तीन वर्ष के लिए हुई थी और अकादमी के नियम के अनुसार साठ वर्ष से कम आयु के व्यक्ति को ही तीन वर्ष के लिए आगामी नियुक्ति मिलनी थी. अरुण शायद साठ के निकट थे या पूरे कर चुके थे. उन्हें तो नियुक्ति नहीं मिली, लेकिन उनके हटते ही अकादमी ने अपने नियमों में परिवर्तन किए  थे…. आयु सीमा बढ़ा दी  थी.
एक बार अरुण प्रकाश पुनः संघर्ष-पथ पर चल पड़े थे. लेकिन यह पथ उस ओर उन्हें ले जाएगा जहां से कोई वापस नहीं लौटता शायद उन्होंने भी कल्पना नहीं की होगी. भयंकर बीमारी के बाद भी  कर्मरत रहते हुए उन्होंने नई पीढ़ी के लिए  यह संदेश दिया कि न टूटो और न झुको---विपरीत परिस्थियों में भी कर्मरत रहो. बिहार के बेगूसराय में 22 फरवरी 1948 को जन्मे इस विशिष्ट कथाकार की देह का अवसान 18 जून, 2012 को दिल्ली के पटेल चेस्ट इंस्टीट्यूट में हो गया. हिन्दी ने एक प्रखर प्रतिभा और आन-बान के धनी साहित्यकार को खो दिया जिसकी क्षतिपूर्ति संभव नहीं है.
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