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रविवार, 3 अक्तूबर 2010

यादों की लकीरें



संस्मरण

चंदनिया बुइया उर्फ चांदनी देवी

रूपसिंह चन्देल

16 अगस्त ,1981 (रविवार) को उनसे मेरी अंतिम मुलाकात हुई थी । सुबह छः बजे का वक्त था । आसमान में हल्के बादल थे और रह-रहकर फुहारें पड़ रही थीं । उनसे मिलने के लिए मैं पांच मिनट पहले घर से निकल आया । वह दरवाजे के बाहर खड़ी थीं । मैंने आगे बढ़कर उनके चरणस्पर्श किए ।
‘‘जा रहे हौ ? एकौ दिन न रुकेव ।’’
‘‘कल दफ्तर है ।’’
‘‘बिटेऊ जा रही हैं ?’’
‘‘बहुत मुश्किल से दो महीने के लिए तैयार हुई हैं ।’’
‘का बताई बबुआ .... बहुत समझावा पर सुनै का तैयार नहीं । ई उमिर मा आदमी का अपन बच्चन के पास रहा चाही .... कब तलक अकेली पड़ी रहिहैं, लेकिन ई कान ते सुनति हैं अउर दुसरे ते निकारि देति हैं ।’’
मैं उनके घर के सामने गली के साथ खड़े नीम के पेड़ की ओर खिसकने लगा । वह भी मेरे साथ खिसकने लगीं । मैंने गौर से उन्हें देखा । बहुत बूढ़ी हो गयी थीं । चेहरे पर झुर्रियां छायी हुई थीं ।
तभी मेरे घर के दरवाजे पर ताला बंद होने की आवाज आयी । उनके स्वर में हड़बड़ाहट थी । मैं तुरंत भांप गया कि वह मेरी मां का सामना करने से बचना चाहती थीं ....... मेरी मां यानी उनकी बेटी । वह मेरी नानी थीं ......अस्सी पार ।
‘‘हम चली बबुआ ..... देखिहैं तो कहिहैं कि हम तुमका कुछ पट्टी पढ़ावत रही ।’’
मैंने पुनः उनके चरणस्पर्श किए । आशीसती नानी घर की ओर लपक लीं थीं।
घर में ताला बंद कर मां सामने के त्रिवेदी परिवार के किसी सदस्य से कह रही थीं , ‘‘का बताई , जबरदस्ती जांय का पडि़ रहा है ।’’
उधर से सांत्वना में क्या कहा गया , सुन नहीं पाया । मैं नीम के पेड़ के पास खड़ा मां के आने के प्रतीक्षा कर रहा था और सोच रहा था , नानी और उनके स्वभाव के विषय में । नानी जितनी सीधी-सहज, सरल थीं, मां उतनी ही अक्खड़ । अड़ जाएं तो दुनिया की कोई ताकत उन्हें डिगा नहीं सकती थी । पूरी रात मैं उन्हें कुछ दिन अपने साथ चलकर दिल्ली रहने के लिए मनाता रहा था । नानी से भी कहा था कि वह भी समझाएं, लेकिन ‘‘हमरे कहैं ते वह जाती हुई भी न जइहैं बबुआ ।’’ नानी ने असमर्थता व्यक्त की थी , ‘‘तुम्हरे आवैं ते पहले कहा रही.......पर उनने कहा कि मैं तो चाहती ही हूं कि वह गांव मा न रहैं ।’’
और इसीलिए नानी मां का सामना टालना चाहती थीं ।
त्रिवेदी परिवार से मिलकर और ऐसा आभास देकर कि जिन्दा बचीं तो वह जल्दी ही दिल्ली को अलविदा कह आएगीं, मां भारी कदमों से आगे बढ़ रही थीं ।
पुरवामीर बस अड्डे तक पूरे रास्ते वह बुड़बुड़ाती रहीं और इस गति से चलती रहीं मानो कसाईघर जाने वाली कोई गाय । मुझे कानपुर से आसाम मेल पकड़ने की जल्दी थी और जब भी इस विषय में उन्हें कहता वह चीख उठतीं , ‘‘ मैं तेज नहीं चल सकती । जल्दी है तो चले जाव ।’’
उस दिन नानी मेरे दिमाग में यो अटकीं कि आसाम मेल में पूरे समय वह मेरे साथ रहीं और उसके बाद भी कितने ही ऐसे अवसर आए जब उनकी स्मृतियों ने मुझे अपने में समेटा और घण्टों उनकी याद में बीत गए ।
*****
जब भी हम बच्चे नानी का नाम पूछते वह सकुचा जातीं । कितनी ही बार पूछने के बाद एक बार बोलीं, ‘‘चंदनिया बुइया ।’’ और हो होकर हंस पड़ी थीं । नाम ठीक समझ में नहीं आया । दोबारा पूछा । फिर वही..... तीसरी बार सही नाम सुना गया । ‘लेकिन यह कोई नाम न हुआ ।’ मै मन ही मन सोचता रहा । सोचता रहा ....... वर्षों .... उम्र गुजर गई और नानी भी गुजर गईं, लेकिन उनके नाम का सही उच्चारण मैं खोजता रहा । यह बात तभी ज्ञात हो गयी थी कि यमुना पार अर्थात् बांदा-हमीरपुर में बुइया का अर्थ देवी या बाई से था , जो वहां सभी लड़कियों के नाम के साथ जोड़ दिया जाता था ।
अनुमान लगाया कि वह चांदनी देवी थीं । चांदनी देवी अर्थात मेरी नानी की मृत्यु 1982 में जब हुई तब वह लगभग नव्वे वर्ष की थीं । इस प्रकार उनका जन्म 1890-91 के आसपास कभी बांदा जिला (उत्तर प्रदेश) के एक गांव में हुआ था । तीन भाइयों की इकलौती बहन । सभी भाई लंबे छः फुटा , लेकिन बहन की कद-काठी सामान्य थी । गेहुआं रंग, गोल चेहरा, बड़ी आंखें ,हृष्ट-पुष्ट शरीर ..... होश संभालने के बाद मैंने उन्हें वैसा ही देखा था । जब मैंने होश संभाला , जाहिर है वह सत्तर के आस-पास थीं , लेकिन ऐसा नहीं लगता था कि वह बूढ़ी हो गयी थीं । उनके बूढ़े होने की प्रक्रिया बेटे (मेरे मामा) के दूसरे विवाह के बाद प्रारंभ हुई थी ।
’’’’’
चांदनी देवी की उम्र जब खेतों से ज्वार और बाजरे के भुट्टे चुन लाने की थी, तभी उनका विवाह मेरे नाना के साथ कर दिया गया । नाना, जिन्हें मैंने कभी नहीं देखा । मेरी मां या मेरे मामा (इन्द्रजीत सिंह गौतम) ने भी अपने पिता को नहीं जाना । मामा साढ़े तीन और मां जब ढाई वर्ष के थे किसी अनजान ज्वर से नाना की मृत्यु हो गयी थी । नानी तब पचीस -छब्बीस वर्ष की थीं ..... जवानी में वैधव्य । घर में तीन देवर और अकाल वर्ष । अकाल भी ऐसा कि बड़े-बड़े किसानों ने घुटने टेक दिए । घरों में चूहे दण्ड लगाते और खेतों में किसान जेठ की तपती दोपहर में जौ-चना के दाने खोजते । अकाल इतना भीषण था कि सर्वत्र त्राहि-त्राहि मच गई । लोग भूखों मरने लगे । उस पर अंग्रेज सरकार और उसके जमींदारों का आतंक जीने से अधिक उन्हें मृत्यु वरण के लिए प्रेरित कर रहा था ।
तीन वर्ष अकाल की भेंट चढ़े । नानी ने उन दिनों का एकाधिक बार वर्णन किया था । घर में दो मटके चना बचे हुए थे । रात घर के हर सदस्य के हिसाब से एक मुट्ठी चना भिगो दिए जाते । सुबह अंगौछे में भीगे चना बांध नाना के भाई खेतों में पत्थर हुई मिट्टी से जूझते । बड़े-बड़े ढेलों को तोड़ते और मन को आश्वस्त करते कि आसाढ़ में यदि वर्षा हुई तब वे अच्छी फसल उगा सकेगें । वर्षा तो नहीं हुई, लेकिन उनका सबसे छोटा भाई लू की चपेट में आकर प्राण गंवा बैठा । अब शेष बचे दो भाई , जिनमें मझले कंचन सिंह सन् 1967 तक जीवित रहे थे ।
अकाल के दिनों एक दिन जमींदार का कारिन्दा सिपाहियों सहित नानी के घर आ धमका लगान वसूली के लिए । छूछे घर से क्या वसूली करता ? उसने बेइज्जत करने के लिए सिपाहियों को हुक्म दिया कि वे घर की ड्योंढ़ी उखाड़ लें । गांवों में आज भी ड्योढ़ी किसी भी घर की प्रतिष्ठा से जुड़ी होती है । सिपाही आगे बढ़े ही थे कि नानी दरवाजे की ओट हो आ खड़ी हुईं और दबंग आवाज में बोलीं , ‘‘ खबरदार, ड्योंढ़ी को हाथ मत लगाना ।’’
सिपाही ठहर गए । कारिन्दा का चेहरा देखने लगे ।
‘‘डर गए स्सालो .... आगे बढ़ो ....।’’
‘‘बढ़ो आगे .... गर्दन पर गड़ासा पड़ेगा ।’’ नानी दुर्गा बनी दरवाजे की ओट खड़ी थीं ।
कारिन्दा भी सहमा , ‘‘ठकुरानी, अकड़ से काम नहीं चलेगा । रोकड़ा गिन दो लगान का ....।’’
‘‘बताव।’’
कारिन्दा ने हिसाब बताया । नानी ने टेंट से चांदी के सिक्के निकाले और कारिन्दा की ओर फेककर कहा , ‘‘अब शकल न दिखाएव ।’’
‘‘वाह ठकुरानी ।’’ बेसाख्ता कारिन्दा के मुंह से निकला था।
नना के दोनों भाई नानी का चेहरा देखते रहे थे , लेकिन वे नानी का इतना सम्मान करते थे कि उनसे उलट यह नहीं पूछा कि ‘‘भौजाई, घर में फांके के हालात है और तुम चांदी के सिक्के छुपाए बैठी थी ।’’
वे नहीं पूछ पाए लेकिन मैंने यह बात पूछी थी । नानी ने बताया कि ‘‘कारिन्दा दो साल से लगान वसूली के लिए नहीं आया था । उसे किसान के परेशान हाल होने का ही इंतजार होता था। मैंने कुछ रकम केवल इसीलिए बचा रखी थी । कम खाकर गुजर हो ही रहा था । लेकिन लगान न देने पर अगर वह खेतों से बेदखल कर देता तब क्या होता ..... भूखे रहकर भी खेत बचाना जरूरी था ।’’
इस घटना के कुछ वर्षों में घर में पुनः सम्पन्नता आ बिराजी थी । लेकिन उस सम्पन्नता का उपभोग कंचन नाना के दूसरे भाई नहीं कर सके । कंचन नाना को अकला छोड़ वह भी एक दिन मृत्यु का शिकार हो गए थे ।
*****
भरे-पूरे घर में अब बची थीं नानी, मामा और मां और शायद नानी की एक विधवा ननद। उन सबका बोझ कंचन नाना के कंधों पर था । कंचन नाना का रंग बिल्कुल कंचन जैसा .... साफ-सुथरा, चमकदार चेहरा । सूर्य की रोशनी में उनका चेहरा बिल्कुल सोने की भांति दहकता । कुल मिलाकर वह भव्य व्यक्तित्व के धनी थे ।
कंचन नाना ने अपनी जिम्मदारी का निर्वहन सफलतापूर्वक किया । कुछ दिनों बाद अकाल पीडि़त नानी के तीनों भाई भी उनके यहां आ जमे थे । नाना के पास अच्छी खेती थी ...गांव में सबसे अधिक मातबर खेत । कई बाग और पड़ती पड़ी जमीन । वह पड़ती जमीन ही कंचन नाना ने बाद में मेरे पिता को दी थी ।
नानी के सबसे बड़े भाई दुलार सिंह और छोटे गजराज सिंह को ही मैं जानता था । तीसरे और शायद मंझले भाई कुछ दिन रहकर अपने गांव वापस लौट गए थे और अपनी किसी खता के कारण कभी नाना के घर नहीं आए । जबकि दुलार सिंह और गजराज सिंह ने नाना के खेत संभाल लिए थे और अपने भांजा-भांजी की परवरिश में रुचि लेने लगे थे । दोनों ही अविवाहित थे और सारी जिन्दगी अविवाहित रहे थे । कंचन नाना भी अविवाहित रहे थे ।
नानी के भाइयों के आने के बाद कंचन नाना ने खेती से अपने को मुक्त कर लिया था और गांव से पांच या छः मील दूर पाण्डुनदी के किनारे सिउली नामक गांव में जी.टी.रोड के किनारे शराब का ठेका ले लिया था । वर्षों वह उसे चलाते रहे । अच्छा धन कमाया और चार गांवों में सम्पन्न व्यक्तियों में शामिल हो गए । लेकिन तभी एक सुबह सोकर उठने पर उन्होंने पाया कि दुनिया देखने की उनकी क्षमता नष्ट हो चुकी थी । वह अंधे हो गए थे । लेकिन मेरी मां और मामा के विवाह तक वह बिल्कुल ठीक थे । यह घटना उसके कुछ दिनों बाद की थी ।
कंचन नाना ने जिस समर्पण के साथ घर संभाला था और भौजाई और उनके बच्चों की देखभाल की थी , नाना के अंधे होने के बाद नानी ने कभी उन्हें कोई कष्ट नहीं होने दिया । वह उनके हर सुख -दुख का खयाल रखती थीं । अंधा होने के बाद नाना घर छोड़कर गांव के बाहर सड़क किनारे के बाग में आकर रहने लगे थे , जहां पहले से ही जानवर बंधते थे और दो कोठरियां बनी हुई थीं ।
शादी के बाद मेरी मां कलकत्ता चली गईं और मामा की पहली पत्नी दो लड़कियों को जन्म देने के बाद जीवित नहीं रहीं । लंबे समय तक विधुर जीवन जीने के बाद मामा का पुनर्विवाह बांदा के ही किसी गांव में हुआ । मेरा अनुमान है कि मामा और इस दूसरी मामी में आयु का पन्द्रह से अघिक वर्षों का अंतर था । कुछ दिनों में ही मामा उस नवोढा की मुट्ठी में थे और नानी अधिकार-वंचिता ।
और वहीं से प्रारंभ हुआ था नानी के दुर्दिनों का सिलसिला और हम उनके लिए कुछ भी कर सकने में अपने को असमर्थ पा रहे थे । दो कारण थे ..... पहला यह कि मामी गजब की लड़ाकू थी । उसे अपने डील-डौल पर घमण्ड था । दूसरा कारण था हमारे घर की विद्रूप आर्थिक स्थिति । पिता अवकाश पाकर घर आ गए थे और कुछ ही वर्षों में उनकी जमा-पूंजी खत्म हो चुकी थी । किस आधार पर एक और पेट हम पालते , जबकि मामा गांव के समृद्धतम व्यक्तियों में गिने जाते थे ।
गहरे सांवले रंग की मामी , मोटी नाक, बड़ी आंखें और चेचकारू चेहरे वाली हृष्ट-पुष्ट शरीरा थी । नाक में जब मोटी छदाम जितनी लौंग पहनती और मटककर चलती तब धरती हिलती प्रतीत होती । कुछ वर्षों में ही उसने एक के बाद कई बच्चे पैदा किए ......शायद आठ-नौ । एक डेढ-दो साल का होता कि पता चलता दूसरा आने वाला है । पैदा करती हुई पालने के लिए वह उन्हें नानी के हवाले कर देती । बच्चा जनने से तीन महीना पहले से लेकर चार-पांच महीने बाद तक वह घर के काम छूती भी न थी । नारियल और मिश्री उसका प्रिय खाद्य था । आभूषणों की वह शौकीन थी और उसकी बाक्स का आकार उनके कारण बड़ा होता जा रहा था । घर का सम्पूर्ण स्वामित्व अपने अधीन रखने के बावजूद वह चोरी छुपे छत के रास्ते घर से सटे मुसलमानों के घरों की औरतों को आनाज बेचती और वह बेच अपने लिए दबाकर रखती । जब पचहत्तर की आयु में पूरे घर के बर्तन मांजते मैं नानी को देखता तब कलेजा मुंह को हो आता , और जब भी इस विषय में नानी से कहता कि हम उससे या मामा से बात करके किसी को बर्तन मांजने के लिए लगा लेने के लिए कह देते हैं तब नानी का चेहरा पीला पड़ जाता । लटपटी जुबान से वह कहतीं , ‘‘न बबुआ.... न कहौ । किस्मत मा जो लिखा है होंय देव ।’’
किशोरावस्था से ही मैं अन्याय के विरोध में आवाज उठाने लगा था । मैं अपने को रोक नहीं पाया । एक दिन मामी के पास गया और बोला, ‘‘ मांई (मामी) शर्म करो , इतना बड़ा शरीर पलंग पर पसरा रखा है और इतनी बूढ़ी सास से खांची भर बर्तन मंजवा रही हो ।’’
वह तमककर पलंग पर उठ बैठी और तमतमाती हुई नानी की ओर लपकी ,‘‘ये बूढ़ा.....तुम गांव भर मा हमारी बुराई करती घूमती हो ........ छोडि़ देव बर्तन ।’’ और उसने नानी को धकियाकर एक ओर करने का प्रयास किया और बर्तनों को पैर से दूर खिसका दिया । उसके धकियाने से नानी पीढ़े पर अपना संतुलन नहीं संभाल पायीं । एक ओर लुढ़क गयीं । आगे बढ़कर मैंने उन्हें संभाला ।
नानी बुक्का फाड़कर रोने लगीं, ‘‘हाय बबुआ रूप, ई दिन द्याखैं का बदा रहै ।’’
‘‘ज्यादा बुलकी न बहाव बूढ़ा, आज से ई बबुआ रूप ही तुम्हें खिलैहैं । यहां खाना-रहना है तो ई बर्तन धोवैं का ही पड़ी ।’’ पैर पटकती वह चली गई थी ।
मैं किंकर्तव्यविमूढ़ खड़ा रहा था - असहाय ! नानी के आंखों की ओर देखने का साहस मुझमें नहीं रहा था ।
*****
(प्रकाश्य संस्मरण पुस्तक - ‘रोशनी की लकीरें’ (भाग दो ) में प्रकाश्य एक संस्मरण ।)

3 टिप्‍पणियां:

बलराम अग्रवाल ने कहा…

बेहद भावुक क्षणों को समेटे सधा हुआ संस्मरण।

PRAN SHARMA ने कहा…

Ek marsparshee sansmaran .
Man - mastishk ko pooree tarah
jhakjhortaa hai . Ek baar padh
liyaa hai.Doosree baar phir
padhunga .

बेनामी ने कहा…

मार्मिक , हृदयस्पर्शी संस्मरण!
इला