संस्मरण
एक और कस्तूरबा
रूपसिंह चन्देल
1962 दिसंबर का एक दिन । आसमान में घटाटोप बादल । अरहर के पौधों पर झूमती-इठलाती ,खेतों -सड़कों पर मंडराती ,शरीर पर नश्तर चुभाती ठंडी हवा ।
स्कूल से हम चार बजे छूटे । वैसे हमारी छुट्टी साढ़े तीन बजे होती थी, लेकिन जिस दिन हेड मास्टर छिद्दा सिंह (मेरे उपन्यास ‘रमला बहू’ में चित्रित छिद्दा सिंह नहीं ) का गणित का पीरियड होता , उस दिन हम देर से ही निकल पाते । छिद्दा सिंह हमें गणित और इतिहास -भूगोल पढ़ाते और जब वह क्लास में प्रवेश करते दो-चार छात्रों को छोड़ हम सभी के शरीर में बिना ठण्ड के भी कंपकंपी छूट जाती । दुबला, गहरे सावले रंग के पचपन के आस-पास की आयु के छिद्दा मास्टर , जिन्हें हम छिद्दा मुंशी जी भी कहते , के हाथ में सदैव एक पतली छड़ी होती थी और वह छड़ी कभी-किसी भी छात्र पर कहर बरपा देती । छिद्दा मास्टर के दोनों कान और नाक छिदे हुए थे .....शायद इसीलिए उनके मां-पिता ने उनका नाम छिद्दा सिंह रखा था । सुना था कि उनके पिता की औलादें जीवित नहीं बचती थीं इसलिए एक वर्ष का होते ही उन्होंने उनके नाक-कान छिदवाने का टोटका किया था और अपने छात्रों को पीटने के लिए छिद्दा सिंह जीवित रह गए थे ।
उस दिन भी छिद्दा मास्टर का गणित का पीरियड था । हमारे स्कूल में तब तक बिजली की व्यवस्था नहीं हुई थी और शायद तब तक उस गांव (महोली) में बिजली पहुंची भी न थी । बादलों के कारण क्लास में रोशनी कम थी और छिद्दा मास्टर को बीजगणित का टेस्ट लेना था । उन्होंने हम सभी को स्कूल के बाहर मैदान में पंक्तिबद्ध बैठा दिया ..... तीन-चार फीट के अंतर से । तीन कतारें बन गई । हमें पांच सवाल देकर छिद्दा मास्टर पीठ पर हाथ बांध टहलने लगे । हम इस बात से प्रसन्न थे कि मुंशी जी के हाथ में उस दिन छड़ी नहीं थी । कुछ देर टहलने के बाद वह एक ओर खड़े हो गए और चपटे मुंह पर छोटी आंखों से किसी भी विद्यार्थी की ओर न देखने का भ्रम देने लगे । लेकिन ऐसा था नहीं । कनखियों से वह देखते जा रहे थे । कुछ देर बाद तीसरी कतार में पीछे बिल्ले की भांति दबे पांव वह गए और एक छात्र का कान पकड़कर उसे कतार से बाहर खड़ा कर दिया । उसने गिड़गिड़ाकर कितनी ही बार कहा कि वह नकल नहीं कर रहा था , लेकिन छिद्दा मास्टर ने उसकी कापी छीन ली और उसे मुर्गा बना दिया । सामने खड़े पीपल के पेड़ पर सनसनाती उसके पत्तों को खड़काती बदन छीलती ठंडी हवा के बावजूद मुझे गर्मी लगने लगी थी , जबकि मैंने केवल बनियायन और टेरालीन की नीली धारीदार कमीज पर आधी बांह का स्वेटर ही पहना हुआ था ।
सवाल हल करने का निर्धारित समय समाप्त होने के बाद क्लास के मानीटर सुरजन लाल से छिद्दा मास्टर ने सभी की कापियां जमा करवा लीं । कुर्सी मंगायी और बैठकर कापियां देखने लगे । भंयंकर ठंड के बावजूद वह खादी के धोती-कुर्ता पर काली जैकट पहने थे । कभी-कभी ही वह बंद गले का कोट पहनते थे । हम बच्चे अपास में बातें करते कि बुढ़ऊ को ठंड नहीं लगती क्योंक वह प्रतिदिन एक पाव घी खाते हैं । उनके कापियां देखने के दौरान सभी छात्र उसी प्रकार उकड़ूं बैठे रहे पंक्तिबद्ध और मुर्गा बना छात्र जब शिथिल हो बैठने लगा तब उनकी चीख सुनाई दी और वह लड़का पुनः पूर्वस्थिति में आ गया था । उसे डांटने के बाद उन्होंने मेरी ओर इशारा किया , ‘‘रूपसिंह , इधर आओ ।’’
मेरा चेहरा सूख गया । मैं वैसे ही उनकी ओर चलकर गया जैसे वधस्थल की ओर जा रहा था ।
‘‘जाकर चकौड़ी के चार पौधे उखाड़ लाओं ।’’
चकौड़ी गोल पत्तों वाला एक ऐसा पौधा होता है जो बरसात में स्वतः उग आता है । यह दो-से तीन फीट तक लंबा होता है और जनवरी-फरवरी तक यह जीवित रहता है । इसकी डंडियां बहुत लचीली और मजबूत होती हैं । इसका फूल पीला होता है ।
चकौड़ी उखाड़ने जाते हुए मैंने सोचा कि ‘‘ रूपसिंह तुम तो बच गए । तुम्हारे सवाल सही हैं वर्ना मुंशी जी तुम्हें यह काम नहीं सौंपते ।’’ लेकिन कुछ समय बाद ही मेरे विचारों को झटका लगा । चकौड़ी के पौधे छिद्दा मास्टर को थमाकर मैं अपने स्थान की ओर मुड़ा ही था कि उनकी आवाज सुनाई दी, ‘‘किधर चल दिए ?’’
मैं पलटकर खड़ा हो गया ।
‘‘इधर आओ ।’
कांपती टांगों मैं उनकी कुर्सी की ओर बढ़ा । उनके हाथ में मेरी कापी थी । मेरे दो सवाल गलत थे । उन्होंने प्यार से मेरा हाथ पकड़ा और पुचकारते से बोले , ‘‘ ये ऐसे होगें .....कहां गलती की .....?’’
मैं सिर झुकाए सवाल देख-समझ रहा था कि वह तपाक से कुर्सी से उठे और मेरी पीठ पर चकौड़ी के पौधों की छपाक की आवाज हुई । स्वेटर पर पत्तियों के निशान बने , कुछ पीड़ा हुई और पौधे की आधी पत्तियां झड़ीं । फिर एक-दो-तीन- - - सटाक-सटाक..... ‘‘जाओ ---घर से सही करके लाना ।’’ फिर उन्होंने दूसरे छात्र को बुलाया ।
मैं सिर झुकाए सवाल देख-समझ रहा था कि वह तपाक से कुर्सी से उठे और मेरी पीठ पर चकौड़ी के पौधों की छपाक की आवाज हुई । स्वेटर पर पत्तियों के निशान बने , कुछ पीड़ा हुई और पौधे की आधी पत्तियां झड़ीं । फिर एक-दो-तीन- - - सटाक-सटाक..... ‘‘जाओ ---घर से सही करके लाना ।’’ फिर उन्होंने दूसरे छात्र को बुलाया ।
तिलमिलाता , आंखों में आंसू छलकाता मैं अपनी जगह जा बैठा और दाहिने हाथ से बार-बार पीठ सहलाता रहा ।
उस दिन क्लास के आधे से अधिक छात्रों पर छिद्दा मास्टर ने चारों चकौड़ी के पौधे तोड़ दिए थे । पत्तियां झड़ जाने के बाद उनकी मारक क्षमता बढ़ जाती थी और पीठ पर लंबे समय के लिए निशान छोड़ जाती थी ।
पिट-पिटाकर गांव के हम पांचों , बाला प्रसाद, रामसनेही, यमुना प्रसाद, मोहनलाल और मैं , जो छठवीं क्लास में थे , सड़क पर उतर ठण्डी-सीली धूल पर पैर धंसाते छिद्दा सिंह को कोसते गांव की ओर चल पडे थे अपने कंधों से कपड़े के थैला लटकाए ।
हमने गांव के लिए एक सीधा रास्ता तजवीज लिया था , जो जी।टी. रोड क्रास करने के बाद काछिन खेड़ा के बगल से पगडंडी के रास्ते सिकठिया गांव में निकलता था और सिकठिया से गुजरता हुआ बगीचों के रास्ते हमारे गांव से जुड़ता था । हमारे गांव नौगवां (गौतम) से महोली , जहां के जूनियर हाईस्कूल में हम पढ़ते थे, पांच किलोमीटर था ।
हमने गांव के लिए एक सीधा रास्ता तजवीज लिया था , जो जी।टी. रोड क्रास करने के बाद काछिन खेड़ा के बगल से पगडंडी के रास्ते सिकठिया गांव में निकलता था और सिकठिया से गुजरता हुआ बगीचों के रास्ते हमारे गांव से जुड़ता था । हमारे गांव नौगवां (गौतम) से महोली , जहां के जूनियर हाईस्कूल में हम पढ़ते थे, पांच किलोमीटर था ।
काछिन खेड़ा के किसानों के खेतों में बारहों माह हमें सब्जियां उगी दिखाई देतीं । उन दिनों दूर-दूर तक गोभी, बंध गोभी और बैंगन दिख रहे थे ।
स्कूल से निकलने के कुछ देर बाद हम छिद्दा मास्टर और उनकी मार भूल गए । उन दिनों बाला मेरे साथ छीपन के बगीचे से बेर और अमरूद चोरी करने की योजना पर प्रायः चर्चा किया करता और आज यह याद तो नहीं लेकिन उसने उस दिन भी इस पर चर्चा की होगी । गांव में वह मेरा पड़ोसी था और बेहद शरारती, जबकि गांव में लोग मुझे बहुत ही शरीफ ....बिल्कुल भोला समझते थे । हालांकि बाला के साथ मैं भी कुछ शरारतें करता लेकिन रहता मैं पृष्ठभूमि में । इसलिए कभी पकड़ा नहीं जाता । गांव में मेरी शराफत का डंका बजता और लोग कहते कि इतने शैतान लड़के के साथ मेरी मित्रता कैसे थी । मैं चुप रहता , जबकि कुछ बदमाशियां बाला मेरे उकसावे में करता था ।
उस दिन जब हम सिकठिया गांव में प्रविष्ट हुए मैंने साथयों से कहा , ‘‘यार , सामनेवाले घर से कुछ सामान लेना है ।’’ कापी किताबों के थैले के अंदर से कपड़ों का एक बड़ा थैला निकालता हुआ मैं बोला ।
मित्र समझ नहीं पाए , लेकिन किसी ने कुछ पूछा भी नहीं । सभी मेरे पीछे हो लिए । जी।टी.रोड से जाने वाली पगडंडी जहां खत्म होती थी उसके ठीक सामने वह घर था । मैंने रदवाजा खटखटाया । गोरी , दोहरे शरीर की मध्यम कद-काठी की गोल चेहरे वाली वृद्ध महिला ने दरवाजा खोला ।
मित्र समझ नहीं पाए , लेकिन किसी ने कुछ पूछा भी नहीं । सभी मेरे पीछे हो लिए । जी।टी.रोड से जाने वाली पगडंडी जहां खत्म होती थी उसके ठीक सामने वह घर था । मैंने रदवाजा खटखटाया । गोरी , दोहरे शरीर की मध्यम कद-काठी की गोल चेहरे वाली वृद्ध महिला ने दरवाजा खोला ।
‘‘तीन सेर मूंगफली , दो सेर गुड़ और दो सेर चीनी के सेब चाहिए ।’’ मैं बोला ।
वृद्धा सामान तौलने लगीं । उनकी दुकान चैपाल में बायीं ओर बने कमरे में थी । वह सामान तौल रही थीं और मैं उन्हें अपलक देख रहा था । मेरी हिन्दी पाठ्य पुस्तक में कस्तूरबा गांधी पर एक पाठ था , जिसमें उनका चित्र बना हुआ था । मैं उनकी तुलना कस्तूरबा से करता रहा । उनमें और उस चित्र में मुझे बहुत साम्य दिखा था ।
सामान कंधे पर रख मैं मित्रों के साथ गांव की ओर चल पड़ा । वह सामान घर की उस दुकान के लिए था जिसे मेरे बड़े भाई ने 1961 में खोली थी । 1959 में कलकत्ता से हाई स्कूल करके आने के बाद उन्होंने भास्करानंद इण्टर कालेज नरवल से इण्टर की परीक्षा दी थी और मां-पिता की इच्छा के विरुद्ध आगे न पढ़ने का निर्णय कर दुकान खोल ली थी । पिता जी 1959 में रेलवे से अवकाश प्राप्त कर गांव आकर खेती करवाने लगे थे । मां-पिता ने भाई को बहुत समझाया आगे पढ़ने के लिए , परंतु वह न पढ़ने की जिद पर अड़े हुए थे । लेकिन जब इंटर का परिणाम आशा से कहीं अधिक अच्छा आया , ग्रेजुएशन करने के लिए भाई कानपुर चले गए और उनकी खोली दुकान मां को संभालनी पड़ी। अब वह दुकान केवल नाम के लिए थी , क्योंकि उसके लिए आने वाला आधा सामान घर में इस्तेमाल होने लगा था ।
उस दिन भी मूंगफली , सेब से भरा थैला कंधे पर लादे मैं कुछ दूर ही गया था कि बाला बोला , ‘‘रूप , तुम थक गए होगे ....थैला मुझे दे दो ।’’
मैंने उसका भाव समझ लिया और सिकठिया से बाहर निकल महुओं के बाग में एक जगह रुक मैंने थैले से सभी को सेब और मूंगफली खाने को दी थीं ।
यह सिलसिला जाड़े भर चला और लगभग पन्द्रह दिनों में स्कूल से लौटते हुए मैं उस दुकान से ये वस्तुएं लेता रहा । मार्च शुरू होते ही उस दुकान से सामान खरीदना बंद करने के बाद उन वृद्धा के दर्शन भी बंद हो गए । यद्यपि हमारा रास्ता वही रहा । अप्रैल में जब तेज गर्मी प्रारंभ हुई , स्कूल से लौटते हुए एक दिन हम पांचों एक चबूतरे पर छप्पर की छाया में सुस्ताने के लिए रुके । हमारी चख-चख की आवाज से घर का दरवाजा खुला और मैंने जिन्हें बाहर निकलते देखा वह वही वृद्धा थीं जिनकी तुलना मैं कस्तूरबा गांधी से करता रहा था । वह हमारे पास आयीं और बहुत ही मधुर-महीन स्वर में बोलीं , ‘‘बहुत तेज धूप है ..... लू चलैं लागि है ....।’’
हमने उनकी हां में हां मिलाया ।
हमने उनकी हां में हां मिलाया ।
‘‘तुम सबके चेहरा कइस कुंभला रहे हैं ! ’’ कुछ देर तक हमारे चेहरों पर नजरें गड़ाए रहने के बाद वह बोलीं , ‘‘पानी पीकर ही जाना । लू से बचत होई ।’’
‘‘हां , हम पानी पीएगें ।’’ हमने एक स्वर में कहा ।
वह अंदर गयीं और दस मिनट बाद पीतल की बाल्टी और गिलास लिए लौटीं ।
‘‘लेव , शर्बत पिओ । लू नजदीकै न फटकी ।’’
हमने कृतज्ञ भाव से उनकी ओर देखा ।
शर्बत पीने के बाद हम कुछ देर उनसे बातें करते रहे । उन्होंने हमारी इस जिज्ञासा का समाधान किया कि वह उनके मकान का दूसरा दरवाजा है । एक उत्तर दिशा की ओर खुलता है , जहां उनकी दुकान है और दूसरा दक्षिण की ओर जहां उस समय हम बैठे थे और उस ओर आनाज का भण्डार था । बाद में पता चला कि मुरवामीर की बाजार से जिस आनाज की दुकान से मेरे घर आनाज आता था वह उनके बेटे सत्यनारायण की थी । उनके तीन बेटे थे और तीनों ही आनाजा खरीदने-बेचने का काम करते थे । किसानों की फसल के समय वे थोक में आनाज खरीदते और उसे कानपुर में कलट्टर गंज में किसी आढ़ती को बेच आते । कुछ बचा लेते जिसे प्रत्येक बृहस्पतिवार और रविवार को पुरवामीर की बाजार में बेचते थे ।
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उस दिन के बाद अप्रैल-मई के महीनों में छठवीं-सातवीं के दौरान हम उनके यहां चबूतरे पर कुछ देर बैठने और पानी पीने लगे थे। कुछ दिन बाद स्थिति यह हुई कि वह हमारी प्रतीक्षा में पहले ही दरवाजा खोल बैठ जातीं थीं और कभी भी सूखा पानी नहीं पिलाती थीं । कुछ नहीं होने पर गुड़ तो होता ही था और हमारे न-नुकर करने पर बहुत प्रेम से खा लेने का आग्रह करतीं । मुझे अफसोस है कि उनका नाम मुझे नहीं मालूम । उनकी छवि आज भी ज्यों की त्यों मन में अंकित है और आज भी मैं उन्हें उसी रूप में देख पाता हूं । उनके चेहरे पर छलकता ममत्व-मातृत्व स्पृहणीय था । तब मुझे क्या मालूम था कि मैं उन पर कुछ लिखने की योग्यता हासिल कर लूंगा । अप्रैल 1964 में जब मैं कुछ दिन बीमार रहा तब वह प्रतिदिन मेरे साथियों से मेरे हाल पूछती रही थीं और एक दिन दुखी स्वर में यह भी कहा था , ‘‘वह बहुत कमजोर है न ! इसीलिए ....।’’
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उस दिन के बाद अप्रैल-मई के महीनों में छठवीं-सातवीं के दौरान हम उनके यहां चबूतरे पर कुछ देर बैठने और पानी पीने लगे थे। कुछ दिन बाद स्थिति यह हुई कि वह हमारी प्रतीक्षा में पहले ही दरवाजा खोल बैठ जातीं थीं और कभी भी सूखा पानी नहीं पिलाती थीं । कुछ नहीं होने पर गुड़ तो होता ही था और हमारे न-नुकर करने पर बहुत प्रेम से खा लेने का आग्रह करतीं । मुझे अफसोस है कि उनका नाम मुझे नहीं मालूम । उनकी छवि आज भी ज्यों की त्यों मन में अंकित है और आज भी मैं उन्हें उसी रूप में देख पाता हूं । उनके चेहरे पर छलकता ममत्व-मातृत्व स्पृहणीय था । तब मुझे क्या मालूम था कि मैं उन पर कुछ लिखने की योग्यता हासिल कर लूंगा । अप्रैल 1964 में जब मैं कुछ दिन बीमार रहा तब वह प्रतिदिन मेरे साथियों से मेरे हाल पूछती रही थीं और एक दिन दुखी स्वर में यह भी कहा था , ‘‘वह बहुत कमजोर है न ! इसीलिए ....।’’
स्वस्थ होकर जब मैं उनसे मिला देर तक वह मेरे चेहरे और पीठ पर हाथ फेरती रही थीं । आज सोचता हूं तो लगता है कि क्या वह इसी युग में थीं ! क्या ऐसे लोग होते हैं ...निर्छद्म , ममत्व और प्रेम की प्रतिमूर्ति....किसी पौराणिक पात्र की भांति । लेकिन होते हैं .....यह सच है और इन शब्दों की सार्थकता ऐसे लोगों के कारण ही बची हुई है ।
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9 टिप्पणियां:
आदरणीय रूप चन्द जी बहुत अच्छा संस्मरन है पहले वाले गुरू आज कहाँ वो केवल पढाते ही नही थी बल्कि बच्चों से दिल से प्यार करते थे आज सब कुछ बाज़ार्वाद की भेंट चढ गया है। धन्यवाद। "आपको सपरिवार होली की शुभकामनाएँ
चन्देल यार, तुम्हारा यह संस्मरण भी मन को मोह लेने वाला है। कहीं कहीं आत्मकथा सा रस देता है क्योंकि यह तुमसे जुड़ा है तो तुम्हारे जीवन से जुड़ी बातों का आना स्वाभाविक है। यदि तुम इसका शीर्षक 'एक और कस्तूरबा' ना देते तो शुरूआत में मै( और शायद अन्य पाठक भी) इसे गणित के छिददा मास्टर से जुड़ा संस्मरण पढ़ते। पाँचवी कक्षा में मैंने भी इसी तरह के एक मास्टर से खूब पिटाई खाई है- उसका नाम खचेड़ू था, सब उसे खचेड़ू मास्टर कहते थे। उसके दायें हाथ की हथेली टेढ़ी थी और अंगुलियां भी पर वह इसी हथेली से बच्चों की पीठ धुन देता था। उसकी मार के डर से तो कई बालकों का निक्कर में पेशाब तक निकल जाता था।
खैर, एक अच्छे संस्मरण के लिए बधाई !
" YAADON KEE LAKEEREN " KE ANTARGAT
AAPKA EK AUR SANSMARAN PADHA HAI.
MUJHE SAARAA KAA SAARAA LEKH
SANSMARAN HEE LAGAA HAI.MASTER
CHHIDDA KAA CHARITRA BADAA HEE
SAJEEV LAGAA HAI.AAPKEE LEKHNI KO
DAAD DETAA HOON.KAHIN VYANGYA,
KAHIN HAASYA AUR KAHIN GAMBHHEERTA.
BAHUT KHOOB !MEREE BADHAAEE SWEEKAR
KIJIYE.
क्या ऐसे लोग होते हैं ...निर्छद्म , ममत्व और प्रेम की प्रतिमूर्ति....किसी पौराणिक पात्र की भांति । लेकिन होते हैं ....vivek ranjan shrivastava jabalpur
प्रिय रूप ,
"एक और कस्तूरबा" एक सार्थक संस्मरण है. यह समाज को उसका खोया हुआ यह विश्वास लौटाता है कि मानवीयता अभी बहुतेरे ठौरों पर पाई जाती है और मानवीय होने के किये प्रचुर संपन्न होना कोई शर्त नहीं है. यह समाज के लिए एक सार्थक उपलब्धि है.
मैं तुम जैसे कुशल कथाकार को एक काम और सौंपना चाहता हूँ. कथा सृजो जो कस्तूरबा जैसे पात्रों के रचे जाने की अंतरप्रक्रिया सामने लाये... कि कस्तूरबा आखिर कस्तूरबा कैसे और क्यों है... निश्चित रूप से ऐसे वैचारिक तर्क ज़रूर हैं जिन्हें जान कर कोई भी खुद कस्तूरबा होना चुन सकता है. अभी तो तुम्हारा संस्मरण पाठकों को प्रेरित भर करता है कि वह कस्तूरबा को, उसके सामने पड़ने पर, पहचान कर उसका सम्मान कर सकें.
जो भी है, बधाई तो तुम्हें है ही.
अशोक गुप्ता
भाई चंदेल जी,एक जीवन्त संस्मरण के लिए आप को बधाई.छिद्दा जैसे मास्टर तो उस वक्त में लगभग सभी की किस्मत के हिस्से में आये हुए थे.मुझे भी चौथी क्लास के चौवे जी और पांचवीं क्लास के पंडित गौरी शंकर याद हैं.विस्तार से फिर कभी.कस्तूरवा के रूप में आप ने अपनी स्मृति में जिस महिला को याद किया है ,सचमुच ममता भरे स्नेह को जीवित किया है.आप निरंतर ऐसे प्रसंग लाते रहिये प्रेरणा का काम करेंगे.धन्यवाद.
आप संस्मरण विधा को ही नए सिरे से माँज दे रहे हैं। जैसा कि सुभाष ने अपने अध्यापक को याद किया है, वैसे ही बहुत से पाठकों को अपने अध्यापक ही नहीं, आसपास के अनेक लोग याद जरूर आयेंगे। यही किसी भी संस्मरण-लेखक की सफलता है कि वह समूचे पाठकवर्ग को अपने साथ जोड़ ले। बधाई।
रूप जी आप का संस्मरण मुझे अपने साथ बहा ले जाता है...कस्तूरबा जैसे एक चरित्र के स्नेह से ही मैं यहाँ तक पहुँची हूँ ..आप के संस्मरण पढ़ कर मैं भी एक संस्मरण लिख लेती हूँ पर यादों में ही..कागज़ पर उतार नहीं पाती ..लगता है अभी सही समय नहीं ..और अपने को मना लेती हूँ ..सही समय की प्रतीक्षा करो ..शायद यह पलायन है ..या उन यादों को कुरेदना नहीं चाहती जो सुखद नहीं.. आप लिखते रहें शायद मुझे भी एक दिन प्रेरणा मिल जाए..
bhai chandel tumharaa sansmaran padaa aaj hame sochne ko majboor honaa padtaa hei ki eise charitra kahaan chale gae hein jinki chhanv me sakoon miltaa thaa aur veise hii guru jan bhee jo nihswarth apne shishyon ke bhavishya ko sawanrte rehte the aur samaaj ke liye prerna srotr bante the eise logon ko yadon me hi sahii milvane ke liye aabhar vyakt kartaa hoon
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