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शुक्रवार, 13 जनवरी 2012

यादों की लकीरें - भाग-दो

संस्मरण
आचार्य मुंशी राम शर्मा


रूपसिंह चन्देल

अप्रैल, १९७८ की बात है. उन दिनों मेरे मन में एक ही धुन सवारथी---विश्वविद्यालय से शोध विषय की स्वीकृति. फरवरी में यशपाल केकथा-साहित्य पर प्रस्तुत विषय अस्वीकृत हो चुका था. लेकिन मैं पीएच.डी. करने का संकल्प करचुका था अतः कुछ उदास तो हुआ लेकिन हताश नहीं. मेरे कानपुर के दौरे बढ़ गएथे. हफ्तों वहां पड़ा रहता. एक सप्ताह का अवकाश लेकर जाता और बीमारी केबहाने दो-तीन सप्ताह रुकता. मेरे शोध निर्देशक ने किसी भी प्रकार कीसहायता से पहले ही हाथ खड़े कर दिए थे. जो भी करना था स्वयं के बल पर. इससिलसिले में कितने ही लोगों से मिला. ‘कंचनप्रभा’ पत्रिका के सम्पादक श्रीयुत शंभूरत्न त्रिपाठी (अब स्वर्गीय) से भी उन्हीं दिनों मुलाकात हुई थी. वह थे तोसमाजशास्त्र के व्यक्ति लेकिन हिन्दी साहित्य में भी उनकी गहरी पैठ थी.उन्होंने अनेक विषय सुझाए, लेकिन वे इतने मुश्किल थे कि या तो मैं उसीसमय असमर्थता व्यक्त कर देता या कुछ दिन पुस्तकालयों की खाक छानकर हताशहो जाता. मतलब का कुछ भी नहीं मिलता. तब तक मैं कथा-साहित्य की ओर उन्मुखहो चुका था. कुछ कहानियां लिखी थीं. यद्यपि उन्हें प्रकाशनार्थभेजने का साहस नहीं जुटा पाया था तथापि मेरी रुचि कथा साहित्य में ही शोधकरने की थी.
अवकाश के दिन की एक सुबह, किदवई नगर में एक दुकान पर पानखाने के लिए रुका. प्रायः सुबह नौ बजे के लगभग मैं अपने निर्देशक सेमिलने साइकिल से जाता था, जो किदवई नगर के ’एल’ ब्लॉक में रहते थे. मिलने जाते हुए मैं उस दुकान से पान अवश्य खाता था. पान बनवातेसमय दैनिक जागरण भी पढ़ लेता. उस दिन कानपुर के वरिष्ठ कथाकारप्रतापनारायण श्रीवास्तव के निधन का समाचार प्रकाशित हुआ था. मेरेमस्तिष्क की घंटी बजी थी. ऎसी ही घंटी यशपाल के कथा-साहित्य पर विषय चयन केसमय भी बजी थी. उसी पनवाड़ी के यहां सुबह के उसी वक्त अखबार में उनकीमृत्यु का समाचार पढ़कर मैं अपने निर्देशक के यहां दौड़ गया था और उनसेचर्चा करके सीधे बिरहना रोड स्थित ’मारवाड़ी पुस्तकालय’ गया था, जहांदिनभर बैठकर यशपाल पर नोट्स तैयार किए थे और दो दिन के अंदर संक्षिप्तरूपरेखा प्रस्तुत कर दी थी.
श्रीवास्तव जी के निधन का समाचार पढ़कर भी समय नष्ट न कर मैं शोध-निर्देशक डा. बैजनाथ त्रिपाठी से मिलने गया. श्रीवास्तव जी के बारे में उनसे चर्चा की और सीधे ’मारवाड़ी पुस्तकालय’ जा पहुंचा. श्रीवास्तव जी का अधिकांश साहित्य वहां उपलब्ध था. यशपाल जी की भांति ही मैंने नोट्स तैयार किए और किसी अन्य छात्र द्वारा विषय प्रस्तुत करने से पहले ही रूपरेखा विश्वविद्यालय में प्रस्तुत कर आया.यह सब मेरे वश में था, लेकिन विषय की स्वीकृति विश्वविद्यालय में विषय निर्धारित करने वाली कमिटी के अधिकार की बात थी जिसकी बैठक साल या छः माह में एक बार होती थी. डा. सुधांशु किशोर मिश्र पर लिखे अपने संस्मरण में इस विषय पर मैं विस्तार से प्रकाश डाल चुका हूं. लेकिन उनकी सहायता कितनी लाभप्रद होने वाली थी, कहना कठिन था. इसके लिए उन तमाम स्रोतों को पकड़ना आवश्यक था विषय स्वीकृति में जिनके सहायक होने की संभावना थी.एक निजी छात्र के रूप में एम.ए. में प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण करने काएक सुखद परिणाम यह हुआ था कि कानपुर के भद्र समाज में मेरी पहुंच और पूछबढ़ गयी थी. शंभूरत्न त्रिपाठी मेरे मुक्तकठ प्रशंसक थे. मेरे ऎसे हीप्रशंसकों में श्री सूर्यभान सिंह गौतम और उनकी पत्नी तरुणलता गौतम भी थे.तरुणलता जी आगरा के वरिष्ठ पत्रकार स्व. राजेन्द्र रघुवंशी की भतीजी थीं,जो इप्टा के संस्थापक सदस्यों में से एक और राजेन्द्र यादव के मित्र थे.बहरहाल, उन दोनों ने भी मेरी सहायता की थी. होता यह कि कानपुर प्रवासकाल में मैं घर में बिल्कुल नहीं टिकता था. दिनभर साइकिल शहर की सड़कों परदौड़ती रहती और किसी न किसी से मिलने जाता रहता. जिन लोगों से मिलने जाताउनमें गौतम दम्पति भी थे. उन्होंने मुझे आचार्य डा. मुंशीराम शर्मा सेमिलवाया, जो उन्हीं के मोहल्ले आर्यनगर में रहते थे. आर्यनगर कानपुर काअभिजात्य मोहल्ला है—खासकर नया आर्यनगर. वे दोनों आचार्य मुंशीरामशर्मा के भक्त थे. यह तो बाद में ज्ञात हुआ कि वे जिस मकान में रहते थेवह आचार्य शर्मा का ही था, जिसे उन्होंने कुछ वर्ष पहले उन्हें बेच दिया था.वह एक बड़ा, लेकिन पुराना मकान था. आचार्य शर्मा ने वहां से दस मिनट पैदलके रास्ते पर आर्यनगर की नयी बस्ती में मकान बनवा लिया था.इस प्रकार मैं एक ऎसे व्यक्ति—आचार्य डा. मुंशीराम शर्मा—से मिला जो संस्कृत और हिन्दी के प्रकांड विद्वान थे. आचार्य शर्मा डी.ए.वी. कॉलेज कानपुर के हिन्दी विभागाध्यक्षपद से अवकाश प्राप्त थे और उन दिनों वह अस्सी पार थे. पहली मुलाकात केसमय मैं उनके विषय में इतना ही जानता था. बाद में जाना कि उनके संबन्धचन्द्रशेखर आजाद, भगतसिंह आदि क्रान्तिकारियों के साथ रहे थे. जिन दिनोंवह डी.ए.वी.इंटर कॉलेज में प्रवक्ता थे, भगतसिंह, चन्द्रशेखर आजाद और दूसरेक्रान्तिकारी डी.ए.वी. हॉस्टेल में आकर रहते थे. उन दिनों कानपुरक्रान्तिकारियों की शरणस्थली ही नहीं कर्मस्थली भी था. अपने जन्मकाल से हीयह नगर न केवल अपनी व्यावसायिक विशेषताओं के लिए बल्कि साहित्य और कला केलिए तो प्रसिद्ध था ही, क्रान्तिकारियों का प्रमुख केन्द्र भी था.क्रान्ति शायद इस नगर की मिट्टी में बसी हुई है. १८५७ की क्रान्ति कीयोजना बनाने वाले अजीमुल्ला खां इसी नगर में पले-बढ़े थे. यहीं एक अंग्रेजके घर बावर्ची का काम करते हुए उन्होंने यहां के तत्कालीन एकमात्रप्राइमरी विद्यालय में अंग्रेजी और उस अंग्रेज के बच्चों को फ्रांसीसीपढ़ाने आने वाले शिक्षक से फ्रांसीसी का ज्ञान प्राप्त किया था. नाना साहबके सलाहकार और बाद में मंत्री बनने से पहले वह उसी प्राइमरी विद्यालय मेंअध्यापक रहे थे. १८५७ की क्रांति के कार्यान्वयन का श्रेय भले ही नानासाहब को जाता है, लेकिन उसकी संपूर्ण योजना अजीमुल्ला खां के मस्तिष्क कीही उपज थी.
क्रांति, कला और साहित्य का स्वाभाविक विकास कानपुर की धरती में हो रहाथा. यह नगर प्रतापनारायण मिश्र, बालकृष्णशर्मा नवीन, विश्वम्भरनाथ शर्मा कौशिक,भगवतीचरण वर्मा, प्रतापनारायण श्रीवास्तव, गणेशशंकर विद्यार्थी, और कुछसमय के लिए कथाकार प्रेमचंद की भी कर्मभूमि रहा है यह नगर. और भी कितने हीनाम हैं. इस नगर की ऎसी ही एक विभूति थे आचार्य मुंशीराम शर्मा. शर्मा जीक्रांतिकारियों के छुपने-छुपाने में सहायक रहते थे. ब्रितानी शासनकाल में यह एक जोखिमभरा काम था. जिन दिनों मैं उनसे मिला, उन दिनों वह प्रतिदिन संस्कृत के कुछ श्लोकों का सृजन कर रहे थे. मुझे बताया गया कि स्वरचित ऎसे श्लोकों का एक ग्रंथ शीघ्र ही प्रकाशित करवाने की उनकी योजना थी. ग्रंथ प्रकाशित हुआ या नहीं मुझे जानकारी नहीं. आचार्य शर्मा जी से मिलवाने के लिए श्रीमती तरुणलता गौतम मेरे साथ गई थीं. आचार्य जी से उन्होंने मेरे विषय में पहले ही चर्चा की हुई थी. पहली मुलाकातसंक्षिप्त रही थी—मात्र परिचय और शोध विषय तक सीमित. उसके बाद जब भीमैं कानपुर में होता एक-दो बार आचार्य जी से मिलने अवश्य जाता था….भलेही मैं कई महीनों बाद गया, लेकिन उन्होंने कभी भुलाया नहीं था.उनके पड़ोस में रहते थे डॉ. प्रेम नारायण शुक्ल. शुक्ल जी उनके शिष्य रहेथे और उन दिनों डी.ए.वी. कॉलेज के हिन्दी विभागाध्यक्ष थे. दूसरी मुलाकातमें आचार्य जी ने बताया कि उन्होंने मेरे विषय में शुक्ल जी से चर्चा कीथी. मैं समझ नहीं पाया था कि शुक्ल जी से चर्चा का अर्थ क्या था. यह वहीप्रेमनारायण शुक्ल थे जिनसे मैं सितंबर १९७६ में पीएच.डी. करने केअपने निर्णय के बाद डी.ए.वी. कॉलेज में बहुत उत्साह से इस आशय से मिलाथा कि उनके कॉलेज में उस वर्ष प्रथम श्रेणी पाने वाला एकमात्र छात्र मैंथा और वह मुझे अपने निर्देशन में पीएच.डी. के लिए पंजीकृत करवा लेंगे.भूतल में सीढ़ियों के पास खड़ा मैं उनकी प्रतीक्षा कर रहा था. वह नीचेउतरे. हाथ में पुस्तकें—धोती-कुर्ता में मध्यम कद. मैंने चरण स्पर्श करपरिचय दिया. प्रसन्न हुए, लेकिन जब मेरे मिलने का अभिप्राय जाना, चेहरेपर भावहीनता ओढ़ बोले, “निजी छात्र के रूप में तुमने एम.ए. किया है इसलिएअपने अधीन मैं तुम्हें पंजीकृत नहीं करवा सकता.” मैं बुझ गया था.उन्हीं प्रेमनारायण शुक्ल से आचार्य मुंशीरामशर्मा जी द्वारा चर्चा करने की बात सुनकर मैं चौंका था. मैंने सफाई देते हुए कहा था कि मुझे शोध निर्देशकनहीं चाहिए. मैंने अपने निर्देशक का नाम बताया और कहा कि मैं चाहता हूंकि इस बार प्रतापनारायण श्रीवास्तव पर प्रस्तुत मेरा विषय अस्वीकृत न हो.
“उसी विषय में प्रेम से मैंने चर्चा की थी. वह संयोजक को कह देंगे.”
मैं चुप रहा था. उस वर्ष संयोजक लखनऊ विश्वविद्यालय के कोई डॉ. अग्रवालथे. मीटिंग की तिथि मुझे डॉ. सुधांशु किशोर मिश्र से ज्ञात हो गयी थी.मैं कानपुर पहुंचा और आचार्य शर्मा से मिला. उन्होंने शुक्ल जी को फोनकरके अपने पास बुलाया. शुक्ल जी तुरंत आए. आचार्य जी ने मेरी ओर संकेत करकहा, “यही हैं रूपसिंह चन्देल. प्रतापनारायण श्रीवास्तव के व्यक्तित्व औरकृतित्व पर इनका विषय प्रस्तुत है.”
“मुझे याद है. आप चिन्ता न करें.” शुक्ल जी ने अपने गुरू से कहा और मेरी ओर उन्मुख हुए, “मेरे साथ आओ.”
आचार्य मुंशीराम जी ने भी मुझे उनके साथ जाने के लिए कहा.मैं शुक्ल जी के साथ उनके निवास पर गया. शुक्ल जी बोले, “परसों मीटिंगहै. डॉ. अग्रवाल से मेरी बात हुई थी. वह सुबह दस बजे की ट्रेन से कानपुरसेण्ट्रल स्टेशन पहुंचेंगे….आप टैक्सी लेकर उन्हें वहां रिसीव करें औरमेरे घर पहुंचा दें. वह टैक्सी दिनभर डॉ. अग्रवाल जी के साथ रहेगी.”
“जी डाक्टर साहब.” मैंने कहने के लिए कह तो दिया था, लेकिन उनकी बातसुनकर मेरे पैरों के नीचे से जमीन खिसक गयी थी. पहली बात, टैक्सी का दिनभरका खर्च—मेरी सोच से बाहर की बात थी. दूसरी बात, जीवन में इस प्रकार कावह पहला अनुभव था. यह एक प्रकार का खुला भ्रष्टाचार था. इससे पहले शोधकरवाने के नाम पर कुछ प्रोफसरों ने मुझसे पैसों की मांग की थी, जिनकेप्रस्ताव सुनकर मैंने उनसे पुनः संपर्क नहीं किया था. उनके खिलाफ कुछ करसकने की हैसियत नहीं थी सिवा चुप रहने के. यह भी वैसा ही प्रस्ताव था.तब तक इतनी जानकारी तो हो ही चुकी थी कि कितने ही शोधार्थियों को ऎसीशर्तें मानने के लिए विवश होना पड़ता है. इससे भी खराब शर्तें—हिन्दीशोध के नाम पर भयानक शोषण—डॉ. शुक्ल जैसे दो-चार प्रोफेसर प्रत्येकविश्वविद्यालय में होते हैं, यह भी जानता था.
“मेरा फोन नंबर लिख लो—कल सुबह मुझे फोन कर लेना. मैं डॉ. अग्रवाल कानिश्चित कार्यक्रम पूछकर बता दूंगा.”
“बुरे फंसे.” मैंने सोचा, लेकिन तत्क्षण मुझे डॉ. मुंशीराम शर्मा की यादआयी और मैंने डॉ. शुक्ल का फोन नंबर लिखा और उनके घर से बाहर आ गया था.
रातभर बेहद उहा-पोह की स्थिति में रहा. अंततः सुबह डॉ. शुक्ल को फोन करनेका निर्णय किया. फोन पर उन्होंने बताया कि डॉ. अग्रवाल की योजना बदल गयीहै. तुम्हें स्टेशन जाने की आवश्यकता नहीं है. मैंने राहत की सांस ली थी.
उस मीटिंग की अध्यक्ष थीं प्रसिद्ध साहित्यकार डॉ. शशिप्रभा शास्त्री औरजैसाकि डॉ. सुधांशु किशोर मिश्र पर लिखे अपने संस्मरण में लिख चुका हूं—विषय की स्वीकृति में डॉ. मिश्र और विश्वविद्यालय में कार्यरत श्रीडी.पी. शुक्ल ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी. मुझे नहीं मालूम किप्रेमनारायण शुक्ल ने कुछ किया था या नहीं, लेकिन बाद में यह जानकारीअवश्य मिली थी कि हिन्दी शोध के लिए कानपुर विश्वविद्यालय का जो भीसंयोजक होता था, डॉ. शुक्ल उसे लपक लेते थे. अधिकांश उन्हीं विषयों कोस्वीकृति दी जाती जिन्हें डॉ. शुक्ल चाहते थे. लेकिन उस दिन आचार्य मुंशीरामशर्मा के निवास पर हुई मुलाकात ही डॉ. प्रेमनारायण शुक्ल से मेरी अंतिममुलाकात थी, जबकि उसके बाद भी मैं आचार्य शर्मा से मिलने जाता रहा था. यहसिलसिला तभी थमा जब कानपुर जाने का अंतराल बढ़ा और साथ ही बढ़ी व्यस्तता.
और एक दिन समाचार पत्र में उनकी मृत्यु का समाचार पढ़ा. कानपुर का एक बेहदआत्मीय और मानवीय चेहरा हमारे मध्य नहीं रहा था. समाचार-पत्र में यहसमाचार भी था कि अंतिम समय तक आचार्य शर्मा का संस्कृत श्लोक लिखने कासिलसिला जारी रहा था.
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