Text selection Lock by Hindi Blog Tips

रविवार, 31 मई 2009

पुस्तक चर्चा

’दक्षिण भारत के पर्यटन स्थल’ का चौथा संस्करण

’दक्षिण भारत के पर्यटन स्थल’ का चौथा संस्करण हाल ही में प्रवीण प्रकाशन, दरियागंज, नई दिल्ली-११००२ से प्रकाशित हुआ है। यह यात्रा संस्मरण पुस्तक है, जिसका शीर्षक मैंने ’सागर के आस-पास’ रखा था, लेकिन किन्ही व्यासायिक कारणों से मेरी सहमति से प्रकाशक ने इसका उपरोक्त शीर्षक चुना। शायद इस बात का उन्हें लाभ भी मिला। इसका प्रथम संस्करण २००० में प्रकाशित हुआ था। इसके बाद इसका दूसरा संस्करण २००४ में, तीसरा फरवरी,२००८ और चौथा फरवरी, २००९ में प्रकाशित हुआ। प्रस्तुत है पुस्तक के संबन्ध में वरिष्ठ कथाकार और कवि सुभाष नीरव की संक्षिप्त टिप्पणी :





दक्षिण भारत के पर्यटन स्थल




वरिष्ठ हिंदी लेखक रूपसिंह चन्देल ने इस पुस्तक में साहित्यिक कलात्मकता से भरपूर अपने यात्रा-संस्मरणों के ज़रिये दक्षिण भारत के प्रमुख पर्यटन स्थलों से जुड़ी तथ्यपरक सूचनाओं को न केवल बेहद रोचक और सरल ढंग से कलमबद्ध किया है बल्कि उन स्थलों से जुड़े ऐतिहासिक-पौराणिक कालखंडों को भी प्रामाणिकता के साथ खंगालने की कोशिश की है। लेखक ने उन स्थलों की वर्तमान स्थितियों - सामाजिक, राजनैतिक ,धार्मिक और आर्थिक स्थितियों का भी विस्तृत और कथात्मक विवरण प्रस्तुत किया है। भाषा और शैली इतनी चित्रात्मक है कि पढ़ते हुए पाठक को ऐसा प्रतीत होता है मानो वह सचमुच में इन रमणीय और मनोहारी स्थलों की यात्रा कर रहा हो...
-सुभाष नीरव

शनिवार, 9 मई 2009

आलेख



१० मई, क्रान्तिदिवस (१८५७)पर विशेष
आलेख

भारतीय जनक्रान्ति और महानायक अजीमुल्ला खां

रूपसिंह चन्देल

१७५७ के प्लासी-युद्ध के पश्चात अंग्रेजों ने एक-एक कर राज्यों को अपने अधीन करना प्रारम्भ कर दिया था. वारेन हेस्टिंग्ज ने काशी, रूहेलखण्ड और बंगाल में पराधीनता के बीज बोये तो वेलेजली ने मैसूर, आसाई, पूना, सतारा और उत्तर भारत के अनेक राज्यों के अधिकार छीन लिए और एक दिन अंग्रेज सम्पूर्ण भारत को पददलित करने लगे थे। भारतीय राजों-बादशाहों के अधिकार कम हो जाने के कारण अंग्रेज पूरी तरह निरंकुश हो गये और भारतीयों को गुलाम समझने लगे. अंग्रेजों की साम्राज्यवादी नीति और निरंकुशता के कारण उन राजे, महाराजे, बादशाह, जमींदार , जागीरदार और ताल्लुकेदारों के मन में ही अंग्रेजों के विरुद्ध विद्रोह की भावना नहीं पनप रही थीं, जिनके राज्य और सम्पत्ति अंरेजों ने हड़प लिए थे ; बल्कि जन-साधारण की विक्षुब्धता भी बढ़ती जा रही थी, जिसका प्रस्फुटन १८५७ की ’जनक्रान्ति’ के रूप में हुआ था, जिसे अंग्रेज इतिहासकारों ने ’गदर’ कहकर महत्वहीन सिद्ध करने की कोशिश की और भारतीय इतिहासकारों ने उसे सैनिक विद्रोह कहा. इससे आगे जाकर कुछ लोग उसे राज्य क्रान्ति कहने लगे. अर्थात वह कुछ राजों, नवाबों, जमींदारों, जागीरदारों जैसे लोगों द्वारा अंग्रेजी शासन के विरुद्ध किया गया ऎसा यौद्धिक प्रयास था, जिसके द्वारा वे अपने खोये शासन को पुनः प्राप्त करना चाहते थे. यहां ये विद्वान इस तथ्य को नजरअंदाज कर जाते हैं कि १८५७ का वह विद्रोह, न मात्र सैनिक विद्रोह था, न राज्य क्रान्ति प्रत्युत वह ’समग्र जन-क्रान्ति’ थी (भले ही किन्हीं कारणों से सम्पूर्ण देश में नहीं) क्योंकि उसमें देशी रजवाड़ों-नवाबों की ही भागीदारी न थी----- आम जनता ने भी अपना रक्तिम योगदान दिया था. लगभग सम्पूर्ण उत्तर भारत के गांव-गांव में क्रान्ति का अलख जगाने के लिए ’कमल’ और ’रोटी’ (शायद यही जनता को आकर्षित करने के लिए सहज स्वीकार्य रहे होंगे) का बंटवाया जाना इस बात का प्रमाण है. जनता के पूर्ण सहयोग के कारण ही नील तथा जनरल हेवलॉक जैसे नर-संहारकों का शिकार हजारों ग्रामीणों को होना पड़ा था.’ १८५७ का भारतीय स्वातन्त्र्य समर” में विनायक दामोदर सावरकर लिखते हैं कि इलाहाबाद से कानपुर तक शेरशाह सूर मार्ग (जी.टी.रोड) के दोनों ओर हजारों ग्रामीणों को पेड़ों से लटकाकर फांसी दी गयी थी----- कितनों ही को तोपों के मुंह से बांधकर उड़ा दिया गया था. इस स्थिति में वह महान क्रान्ति ’जनक्रान्ति’ ही कही जायेगी न कि सैनिक विद्रोह या राज्य क्रान्ति . हमें इस तथ्य को अस्वीकार नहीं करना चाहिए कि अंग्रेजी सेना में कार्यरत सैनिक किसी देशी राजा के अधीन नहीं थे. उनका क्रान्ति की अंग्रिम पंक्ति में रहना भी इसी तथ्य की ओर संकेत करता है कि १८५७ का वह समर ’जनक्रान्ति’ ही था.

( नाना साहब)
और सच यह है कि उस ’जनक्रान्ति’ की भूमिका तैयार करने वाला व्यक्ति जनता के मध्य से --- सतह पर से आया था. वह महापुरुष था अजीमुल्ला खां, जिसका नाम इतिहास के पन्नों में इतना कम स्थान पा सका है कि आश्चर्य होता है. विश्वविद्यालयों के इतिहास -विभागों’ और ’इतिहास-संस्थाओं ’ में बैठे सुविधाभोगी प्राध्यापकों-अधिकारियों और शोधार्थियों ने इस ओर कभी ध्यान नहीं दिया. हमारे इतिहासकार आज तक अंग्रेज इतिहासकारों द्वारा लिखे गये इतिहास का ही विश्लेषण और पुनरावृत्ति करते रहे----- क्या यह आजादी के इतने वर्षों पश्चात भी उनके मानसिक और बौद्धिक गुलामी (अंग्रेजियत) को प्रमाणित नहीं करता ?

’कानपुर का इतिहास’ के लेखक-द्वय और विनायक दामोदर सावरकर ने स्पष्ट स्वीकार किया है कि १८५७ की क्रान्ति का सारा श्रेय अजीमुल्ला खां को था. और भी जो साक्ष्य मैं उपलब्ध कर सका हूं, उनके अनुसार यदि अजीमुल्ला खां इस देश में न जन्मे होते तो १८५७ की क्रान्ति शायद ही होती और यदि होती भी तो उसका स्वरूप क्या होता---- कहना कठिन है.यह एक पृथक प्रश्न है कि क्रान्ति असफल क्यों हुई? उसके कारणॊं पर पर्याप्त विचार हो चुका है. लेकिन जिस विषय पर विचार और शोध की आवश्यकता है, वह है अजीमुल्ला खां---- उनका जीवन और योगदान ---- जो क्रान्ति का सूत्रधार---- एक मसीहा पुरुष थे.
(अजीमुल्ला खां)
अजीमुल्ला खां के विषय में जो संक्षिप्त सूचनाएं प्राप्त होती हैं उसके अनुसार उनके पिता नजीबुल्ला खां कानपुर के पटकापुर मोहल्ले में रहते थे. नजीबुल्ला राजमिस्त्री थे और अथक परिश्रमी. उन दिनों कानपुर नगर बस रहा था. अंग्रेजों ने उसके सामरिक महत्व को समझ लिया था और वहां सैनिक छावनी कायम कर ली थी. सैनिकों की परेड नगर के उत्तर की ओर गंगा के निकट एक मैदान में होती थी, जिसका नाम बाद में ’परेड’ मैदान पड़ गया था. पटकापुर से यह स्थान निकट था. छावनी बनने के बाद अनेक अंग्रेज अफसर कानपुर में रहने लगे थे, जिनके रहने के लिए नये भवन बन रहे थे. कुछ धनी भारतीयों और सेठो ने भी नगर के महत्व को समझ लिया था और वे भी वहां बसने लगे थे. नये-नये मोहल्ले जन्म लेने लगे थे. इसलिए नजीबुल्ला खां को काम की कमी न थी. मां, पत्नी करीमन और स्वयं का खर्च आराम से चल जाता था. ऎसे समय १८२० की एक ठण्ड भरी रात में उनके घर एक बालक ने जन्म लिया और यही बालक कालान्तर में अजीमुल्ला खां के नाम से जाना गया.

अजीमुल्ला जब छोटे थे तभी उनके माता-पिता का देहावसान हो गया था. वे अनाथ हो गये. एक परिचित ने अनाथ अजीमुल्ला को सहृदय अंग्रेज अधिकारी हिलर्सडेन के यहां नौकर करवा दिया. तब वह आठ-दस वर्ष के रहे होंगे. वहां अजीमुल्ला साफ-सफाई के कामों के साथ हिलर्सडेन के मुख्य बावर्ची की सहायता करते थे. रहते भी अंग्रेज के नौकरों की कोठरी में थे. कुछ बड़े होने के पश्चात बावर्ची का पूर्ण -दायित्व उन पर आ गया था. उस अंग्रेज को एक लड़का, एक लड़की थे. खाली समय में अजीमुल्ला दोनों बच्चों से अंग्रेजी अक्षर ज्ञान प्राप्त करने लगे. उन बच्चों को प्रांसीसी भाषा पढ़ाने के लिए मॉरिस नाम का एक अंग्रेज आता था. हिलर्सडेन की कृपा से मॉरिस अजीमुल्ला खां को भी प्रांसीसी पढ़ाने लगा. इस विषय में सावरकर लिखते हैं, "उन्होंने वहां इंग्लिश और फ्रेंच भाषा का पर्याप्त ज्ञान प्राप्त कर लिया एवं दोनों भाषाओं में धाराप्रवाह बोलने की क्षमता भी प्राप्त कर ली ." (पृ. ३३)

हिलर्सडेन ने अपने सद्प्रयासों से अजीमुल्ला खां को कानपुर के एकमात्र ’फ्री स्कूल ’ में प्रवेश दिलवा दिया. यद्यपि वहां अंग्रेज अधिकारियों के बच्चे और कुछेक देसी रईसों और जमींदारों के बच्चे ही पढ़ते थे और अजीमुल्ला खां जैसे किसी बावर्ची के लिए कोई गुंजाइश न थी तथापि हिलर्सडेन के प्रभाव और अजीमुल्ला की कुशाग्रता के कारण वह संभव हो गया था. ’फ्री स्कूल’ के अध्ययन काल में भी अजीमुल्ला हिलर्सडेन के यहां बावर्ची का काम करते रहे थे. शिक्षा समाप्त होने के बाद वे उसी स्कूल में अध्यापक नियुक्त हो गये थे.

अध्यापक बनने के पश्चात अजीमुल्ला की पढ़ने की भूख और बढ़ी. उन्होंने मौलवी निसार अहमद, जो पटकापुर में रहते थे, से अरबी-फारसी और पं. गजानन मिश्र से संस्कृत और हिन्दी भाषाओं का अध्ययन किया. देशभक्ति की भावना और अंग्रेजों की दासता से मुक्ति का भाव उनके हृदय में होलोंरें लेता रहता था---- जिसका समाचार नाना साहब को मिला. एक दिन नाना सहब ने उन्हें बुलाया और प्रस्ताव किया कि वे उनके दरबार में आ जायें. इस विषय में थामसन ने अपनी पुस्तक ’कानपुर’ में लिखा है, "उन्होंने (अजीमुल्ला खां) अपनी बुद्धिमत्ता के बल पर ही उन्नति की थी और अन्ततः वे नाना साहब के विश्वासपात्र मन्त्रियों में से एक हो गये थे." कानपुर के नरमेध में जो दो अंग्रेज जीवित बचे थे उनमें थामसन एक था.

नाना साहब के दरबार में अजीमुल्ला खां की नियुक्ति कम्पनी से अंग्रेजी में पत्राचार करने और नाना साहब को समाचार-पत्र पढ़कर सुनाने के लिए हुई थी. अजीमुल्ला अंग्रेजी समाचार पत्रों का हिन्दी रूपान्तरण नाना साहब को सुनाया करते थे. उनसे पहले यह काम टॉड नाम का अंग्रेज करता था, जिसे कार्यमुक्त कर दिया गया था. बाद में यह टॉड नामक व्यक्ति कानपुर के युद्ध में मारा गया था. एक अवसर पर अजीमुल्ला खां ने कोई महत्वपूर्ण सलाह नाना साहब को दी, जिससे वे बहुत प्रभावित हुए थे. सावरकर लिखते हैं, अजीमुल्ला द्वारा प्रथम बार ही दिया गया सद्परामर्श नाना साहब को जंच गया और नाना साहब को मुक्त कण्ठ से इस मेधावी पुरुष की प्रशंसा करनी पडी . इसके पश्चात तो स्थिति यह हो गयी कि प्रत्येक महत्वपूर्ण कार्य के करने से पूर्व नाना साहब के लिए अजीमुल्ला खां से परामर्श करना अनिवार्य हो गया.

सलाहकार के रूप में कार्य करते हुए अजीमुल्ला खां की कार्यशैली इतनी अद्भुत थी कि नाना साहब ने उन्हें सलाहकार के साथ-साथ अपना मंत्री भी नियुक्त कर लिया . इससे इस बात का अंदाजा लगाया जा सकता है कि नाना सहब उनसे कितना प्रभावित थे.

अजीमुल्ला खां के रहने के लिए नाना साहब ने एक भव्य भवन दिया था. नाना साहब स्वयं खूबसूरत और खूबसूरत और कीमती चीजों के शौकीन थे. थामसन के अनुसार "ब्रम्हावर्त में बिठूर स्थित है. श्रीमान नाना साहब के राजमहल की बारहदरी विस्तीर्ण तो थी ही, साथ ही श्रेष्ठ और बहुमूल्य वस्तुएं इसकी शोभा को बढ़ाती रहती थीं. रंग-बिरंगे और कीमती सतरंगियों और कालीनों आदि से राजमहल का दीवानखाना सुसज्जित रहता था. यूरोपियन कला-कौशल से मण्डित अनेक प्रकार कि कांच की वस्तुएं, कलश, हाथीदांत , स्वर्ण और रत्नजटित नक्काशीयुक्त वस्तुओं के नमूने वहां विद्यमान थे. संक्षेप में कहा जा सकता है कि हिन्दुस्तन के राजमहलों में दिखाई देने वाली सब प्रकार की कमनीयता ही मानो बिठूर के राजमहल में आकर निवास करने लगी थी."

अजीमुल्ला खां अपनी कर्मठता और विलक्षण बौद्धिक क्षमता के कारण सतह से उठकर राजभवन का वैभव भोगने की योग्यता पा सके थे. लेकिन वास्तव में वे वैभव-विलास में डूबने वाले जीव न थे. वे उस सब से निरपेक्ष कुछ और ही तलाश रहे थे---- वह जो लगभग नब्बे वर्षों पश्चात इस देश की करोड़ों जनता को आजादी के सुख के रूप में प्राप्त हुआ. यह एक अलग प्रश्न है कि कौन कितना आजाद हुआ या आज भी देश की अस्सी प्रतिशत जनता गुलामी से भी बदतर जीवन जीने के लिए अभिशप्त क्यों है? यह न अजीमुल्ला खां ने तब सोचा होगा और न बाद में आत्माहुति देने वाले हमारे किशोर - युवा क्रान्तिकारियों ने. उनकी मूल चिंता थी देश की आजादी. सुभाषचन्द्र बोस और भगतसिंह जैसे वीरों ने सोचा-विचारा भी , लेकिन वे आजादी देखने और कुछ करने के लिए जीवित नहीं रह सके और उनके विचारों को षड़न्त्रपूर्वक किसी अंधेरी कोठरी में दफ्न कर दिया गया. खैर,

१८५१ में बाजीराव पेशवा की मृत्यु के पश्चात अंग्रेजों ने उन्हें मिलने वाली आठ लाख रुपये वार्षिक पेंशन बन्द कर दी थी. पेंशन बन्द करने के पक्ष में कम्पनी ने तर्क दिया कि "श्रीमन्त बाजीराव साहब ने पेंशन से बचाकर जो राशि एकत्रित की है, वह बहुत अधिक है. अतः पेंशन जारी रखने का कोई कारण नहीं है."

अजीमुल्ला ने नाना साहब की पेंशन प्राप्त कने के लिए कम्पनी के साथ पत्राचार आरंभ किया और तर्क दिया, "क्या यह पेंशन किन्हीं शर्तों के आधार पर दी जा रही थी ?. क्या उन शर्तों में एक भी शर्त ऎसी है, जिसमें कहा गया हो कि बाजीराव को पेंशन की राशि किस प्रकार खर्च करनी है. दिये गये राज्य के बदले प्राप्त हुई पेंशन को किस प्रकार उपयोग किया जायेगा, यह प्रश्न करने का कम्पनी को तनिक भी अधिकार नहीं है. यही नहीं यदि श्रीमन्त बाजीराव पेंशन की सम्पूर्ण राशि भी बचा लेते तो भी वह ऎसा करने के लिए पूर्ण रूप से स्वतन्त्र थे. क्या कम्पनी ने कभी अपने कर्मचारियों से यह प्रश्न किया है कि वे अपनी पेंशन की राशि को किस भांति खर्च करते हैं और उसमें से कितनी राशि बचाते हैं ? यह भी नितान्त आश्चर्यजनक है कि जो प्रश्न कम्पनी अपने सामान्य कर्मचारियों तक से नहीं कर सकती वह प्रश्न एक विख्यात राजवंश के अधिपति से किया जा रहा है."

लेकिन नाना साहब की यह दरख्वास्त कम्पनी के अधिकारियों ने स्वीकार नहीं की. परिणामस्वरूप मामले की पैरवी के लिए नाना साहब ने अजीमुल्ला खां को १८५४ में लन्दन भेजा. लन्दन जाने के लिए नाना साहब ने उन्हें इतना धन दिया कि वे महीनों नवाबी ठाट-बाट से वहां रह सकते थे. वहां पहूंचकर अजीमुल्ला को एहसास हुआ था कि पेंशन का मामला दो-चार-दस दिन में सुलझने वाला नहीं है. ईस्ट ईंडिया कम्पनी के उच्चाधिकारियों से मिलकर उन्होंने नाना साहब की पेंशन का प्रार्थना पत्र प्रस्तुत कर दिया और निर्णय की प्रतीक्षा करने लगे. लेकिन वे खाली नहीं बैठे. उन्होंने ब्रिटिश साम्राज्य की थाह लेनी प्रारम्भ कर दी. वे मृदुभाषी, कुशल-वक्ता, बौद्धिक और सुदर्शन थे और लोगों को प्रभावित कर सकने में सक्षम. लन्दन के अनेक संभ्रान्त परिवारों में उन्हें प्रवेश मिल गया था.

सुबह-शाम कीमती और सुन्दर परिधान और बहुमूल्याभूषणों से सुसज्जित जब अजीमुल्ला लन्दन की सड़कों पर चलते तब युवतियों के झुण्ड उनके पीछे होते. सावरकर लिखते हैं, "उनके सौन्दर्य, मोहक मधुर वाणी और तेजस्वी शरीर तथा पौर्वात्य उदारता के परिणामस्वरूप अनेक आंग्ल युवतियां उन पर अपना तन-मन वार बैठीं. उन दिनों लन्दन के सार्वजनिक उद्यानों, ब्रायरन के सागर तट पर यह हिन्दी राजा ही चर्चा का विषय बना रहता था जो परिधानों और आभूषणों से लदा रहता था. प्रचण्ड जनसमूह इस आकर्षक व्यक्तित्व के धनी की एक झलक लेने को बादलों-सा उमड़ पड़ता था. अनेक संभ्रान्त और प्रतिष्ठित अंग्रेज परिवारों की युवतियां तो उनके प्रेम में अपनी सुध-बुध खो बैठी थीं. और उनके हिन्दुस्तान वापस लौट जाने के उपरान्त भी अपने हृदय की पीड़ा की अभिव्यक्ति हेतु उन्हें प्रेम-पत्र प्रेषित करती रहीं थीं". (१८५७ का भारतीय स्वातन्त्र्य समर - वि.दा.सवरकर - पृ. ३३)

१८५७ की क्रान्ति में बिठूर पतन के बाद हैवलाक ने जब नाना साहब के किले पर अधिकार किया तब उसे अजीमुल्ला खां के नाम भेजे गये उन अंग्रेज युवतियों के प्रेम पत्र मिले थे जिन्हें बाद में उसने ’इण्डियन प्रिंस एण्ड ब्रिटिश पियरेश’ नाम से प्रकाशित करवया था.(कानपुर का इतिहास - ले. लक्ष्मीचन्द्र त्रिपाठी एवं नारायण प्रसाद अरोड़ा)

जिन दिनों अजीमुल्ला खां इंग्लैण्ड में थे, सतारा के राजा की ओर से राज्य वापस लौटाने की अपील करने के लिए रंगोजी बापू भी वहां गये थे, लेकिन उन्हें अपने उद्देशय में सफलता नहीं मिली थी. बाद में कम्पनी ने अजीमुल्ला खां के अनुरोध को खारिज करते हुए लिख दिया, "गवर्नर जनरल द्वारा प्रदत्त यह निर्णय हमारे मत में पूर्णतः ठीक ही है कि दत्तक नाना साहब को अपने पिता की पेंशन प्राप्त करने का कोई अधिकार प्राप्त नहीं हो सकता."

अजीमुल्ला खां और रंगोजी बापू कम्पनी का निर्णय मिलने के बाद एक रात मिले और देश की तत्कालीन स्थिति पर मंभीरतापूर्वक विचार-विमर्श किया. अंततः वे इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि अंग्रेजों से देश की मुक्ति का मार्ग है सशस्त्र जनक्रान्ति. रंगोजी बापू स्वदेश लौट आए थे दक्शिण भारत में क्रान्ति की अलख जगाने के लिए, (हालांकि किन्हीं कारणों से वे अजीमुल्ला के साथ संपर्क नहीं साध सके और न ही स्वतन्त्र रूप से क्रान्ति की ज्वाला धधका सके थे) लेकिन अजीमुल्ला खां यूरोप और एशिया के कुछ देशों की यात्रा के लिए निकल गये थे. वे पहले फ्रांस गये जहां उन्होंने वहां की क्रान्ति की पृष्ठभूमि का अध्ययन करना चाहा था. वहां से वे रूस गये. यह १८५४ की बात है. उन दिनों रूस तुर्की के साथ युद्ध में उलझा हुआ था और ब्रिटेन तुर्की का साथ दे रहा था। सीमा पार करते हुए वे रूसी सैनिकों द्वारा गिरफ्तार कर लिए गये थे, लेकिन पेरिस में परिचित हुए एक फ्रांसीसी पत्रकार जो किसी प्रांसीसी समाचार पत्र के लिए युद्ध संवाददाता के रूप में सीमा पर कार्य कर रहा था के हस्तक्षेप से वे छुट गये थे.

(गंगू मेहतर-कानपुर के सत्तीचौरा कांड का मुख्य आरोपी जिसे ८।९।१८५९ को फांसी दी गई थी)
वे रूस के तत्कालीन जार से मिले थे और अपनी योजना उसके समक्ष प्रस्तुत कर सहायता का आश्वासन प्राप्त किया था. आश्वासन था कि युद्ध प्रारंभ होने की निश्चित तिथि की सुचना पाकर जार की सेनाएं तिथि से पूर्व सीमा पर पहुंच जायेगीं. लेकिन २९ मार्च, १८५७ को बैरकपुर में मंगलपाण्डे की घटना के परिणामस्वरूप निश्चित (३१ मई, १८५७) तिथि से पूर्व ही १० मई को सैनिकों ने मेरठ में युद्ध का बिगुल बजा दिया था.

सावरकर ने लिखा कि अजीमुल्ला खां तुर्की में भी ठरे थे और इस बात के भी स्पष्ट प्रमाण मिलते हैं कि मिश्र के साथ भी सम्बन्ध स्थापित करने का उन्होंने प्रयास किया था. अन्ततः वे काबुल के रास्ते स्वदेश वापस लौट आये थे.

स्वदेश लौटने के पश्चात उन्होंने नाना साहब, तात्यां टोपे और बाला साहब (नाना के भाई) के साथ गूढ़ मन्त्रणा की थी और उन्हें जनक्रान्ति की योजना समझायी थी. उसकी जो रूपरेखा उन्होंने बनायी थी कि उसे इतने प्रभावशाली ढंग से नाना के समक्ष रखा था कि नाना और तात्यां को सहमत होना पड़ा था. यह अजीमुल्ला की पहली सफलता थी. अजीमुल्ला यह जानते थे कि बुद्धि भले ही उनके पास है, लेकिन साधन तो राजओं , नवाबॊं और जमींदारों के पास ही हैं.यही नहीं जनता के प्रति अनेक अनियमितताओं और अमानवीय व्यवहार के बावजूद अपने नवाबों और राजों के प्रति जनता में गहरा आदर और लगाव है और अंग्रेजॊ के विरुद्ध उनके आह्वान पर जनता उठ खड़ी होगी.नाना के मंत्री के रूप में उन्होंने दूसरे राजों -नवाबॊं पर नाना की प्रतिश्ठा और प्रभाव को जान लिया था और यह एक संयोग और सुयोग था कि वे नाना के मंत्री थे और नाना साहब का उन पर अटूट विश्वास था. उसी विश्वास के बल पर भावी क्रान्ति की रूपरेखा उन्होंने बनायी थी, जिस पर नाना साहब, बाला साहब और तात्यां टोपे ने मुहर लगा दी थी. तात्यां एक प्रखर कूट्नीतिज्ञ और अप्रतिम योद्धा थे और अंग्रेजों के शत्रु. नाना साहब के सेनापति थे और अजीमुल्ला के उस सुझाव का जबर्दस्त समर्थन उन्होंने किया था.

परिणामस्वरूप नाना साहब ने लखनऊ, कालपी, दिल्ली, झांसी, मेरठ, अम्बाला, पटियाला आदि की यात्राएं की थीं, जो अंग्रेजों के लिए धार्मिक कहकर प्रचारित की गई थीं, लेकिन वास्तव में थीं राजनीतिक. इन यात्राओं का उदेश्य बहादुरशाह जफ़र, बेगम हज़रत महल, लक्ष्मीबाई आदि से क्रान्ति के विषय में मन्त्रणा करना, सुझाव प्राप्त कना और किसी एक तिथि पर सहमत होना था.इन यात्राओं में अजीमुल्ला खां नानासाहब के साथ रहे थे और लगभग सभी से उन्हें सहयोग का अश्वासन मिला था. बहादुरशाह प्रारंभ में इनकार करते रहे, लेकिन अन्ततः वे भी तैयार हो गये थे. ये यात्राएं भी अजीमुल्ला के दिमाग की ही उपज थीं और उनमे उन्हें सफलता मिली थी. तारीख निश्चित हो गयी थी ३१ मई, १८५७.

अजीमुल्ला खां को क्रन्ति के लिए जिस नायकत्व की आवश्यकता थी, उसके लिए उन्होंने नाना साहब को तैयार कर लिया था. उन दिनों सामाजिक, आर्थिक , राजनीतिक और धार्मिक स्थितियां ऎसी थीं कि नायकत्व के लिए किसी राजपुरुष का चुनाव और वह भी ऎसे पुरुष का, जिसकी छवि देशी राजाओं-नवाबों और जनता के मध्य अच्छी हो, आवश्यक था. अजीमुल्ला खां इस तथ्य से परिचित थे और नाना साहब से, जो उनके आश्रयदाता थे, कौन अधिक उपयुक्त होता? अपनी योजनानुसार उन्होंने सब कुछ सुव्यवस्थित किया था---दूर-दूर तक----पंजाब से बिहार (राजा कुंवर सिंह आदि ) तक सन्देश भेजवाए थे.जनता में जागृति लाने और क्रान्ति के लिए सन्नद्ध करने के लिए साधुओं की (जिन पर उन दिनों जनता की अगाध श्रद्धा और अटूट विश्वास था) सेवाएं और प्रचार के लिए प्रतीक स्वरूप ’रोटी’ और ’कमल’ का चुनाव उसी व्यक्ति के दिमाग की उपज हो सकती थी, जो भूत-वर्तमान और भविष्य पर गहन दृष्टि रखने वाला हो. अजीमुल्ला खां ने अपने कौशल का उपयोग कर वह कर दिखाया था. यह कल्पना कर सुखद आश्चर्य होता है कि जिस सुनियोजित ढंग से क्रान्ति का प्रचार किया गया और क्रूर-कुटिल कम्पनी बहादुर को भनक तक न पड़ी वह एक चमत्कार-सा ही था. और यह योग्यता अजीमुल्ला खां में ही थी.

३१ मई, १८५७ की जो तिथि क्रान्ति के योजनाकारों ने निश्चित की थी अंग्रेजों के निरन्तर बढ़ते दुर्व्यवहारों ,अधैर्य और क्षणिक उत्तेजना के वशीभूत हो मेरठ के सैनिकों ने उस तक प्रतीक्षा न कर १० मई को ही अंग्रेजों का सफाया प्रारंभ कर दिया. मेरठ से वे दिल्ली पहुंचे और बहादुरशाह जफ़र को बादशाह घोषित कर दिया. कानपुर इससे अछूता कैसे रहता. क्रान्ति की लपटें चारों ओर फैल चुकी थीं. अवध, झांसी, कालपी, इलाहाबाद, जगदीशपुर (बिहार) तक क्रान्ति की ज्वाला धूं-धूं कर जल उठी थी. दिल्ली में बूढ़ा शेर बहादुरशाह जफ़र गद्दीनशीं हो आजाद भारत के स्वप्न देखने लगा था तो जगदीशपुर का अस्सी वर्षीय बूढ़ा शेर कुंवर सिंह समारांगण में अंग्रेजों को चुनौती दे रहा था, जिसका साथ उनके भाई अमर सिंह, उनकी रानियां और जागीरदार निस्वार सिंह दे रहे थे.

कानपुर में सूबेदार टीका सिंह, दलगंजन सिंह, शमस्सुद्दीन, ज्वाला प्रसाद, मुहम्मद अली, अजीजन ऎसे वीर योद्ध थे, जिनके साथ अजीमुल्ला के सम्पर्क पहले से ही थे. अजीजन एक नर्तकी थी, जिसके यहां अनेक अंग्रेज अफसर भी आते थे और अजीमुल्ला खां के निर्देश पर उसने उनके अनेक गुप्त भेद भी प्राप्त किये थे. उसके विषय में नानक चन्द ने अपनी डायरी में लिखा है -"सशस्त्र अजीजन स्थान-स्थान पर निरन्तर विद्युत लता-सी दमक रही थी. वह अनेक बार तो थके हुए सैनिकों को मार्ग में मेवा, मिष्ठान्न और दूध आदि देती हुई भी दृष्टिगोचर होती थी."

नानक चन्द उस क्रान्ति का प्रत्यक्षदर्शी था और अंग्रेज भक्त था, जिसे सावरकर ने ’अंग्रेजों का क्रीतदास ’ कहा है.

अजीजन केवल नर्तकी ही न थी, कानपुर के युद्ध में उसने सक्रिय भाग लिया था. सावरकर के अनुसार, "उसने वीरों के परिधान धारण कर लिए थे. कोमल गुलाब से कपोलों वाली और प्रतिक्षण मन्द मुस्कान विस्फारित करती रहने वाली वह रूपसी सशस्त्र हो अश्व की पीठ पर आरूढ़ होकर घूम रही थी." कानपुर में युद्ध १९ जून, १८५७ को भड़का. लेकिन उससे पूर्व जो भी युद्ध विषयक गुप्त सभाएं होती थीं वे सूबेदार टीका सिंह और सैनिकों के दूसरे नेता शमस्सुद्दीन खां के निवास स्थान पर होती थीं. ऎसी ही एक गुप्त मन्त्रणा, जो नाना साहब , अजीमुल्ला, टीका सिंह और शमस्सुद्दीन के मध्य गंगा में नाव पर हुई थी, का वर्ण करते हुए सावरकर कहते हैं कि यद्यपि उसके विषय में या तो वे नेता जानते थे या पुण्य तोया-गंगा, "कुन्तु यह बात भी सुविख्यात है कि दूसरे ही दिन शमस्सुद्दीन अपनी प्रेमिका अजीजन के घर गया और उसने भावावेश में अपनी प्रेमिका को यह बता दिया कि अब केवल दो दिन ही प्रतीक्षा करो. अंग्रेजों के राज्य की समाप्ति होकर अपनी मातृभूमि हिन्दुस्तान स्वतन्त्रता को प्राप्त कर लेगी." (जी.ओ.ट्रेवेलियन कृत- ’कानपुर’)

कानपुर के युद्ध में मात्र अजीजन एकमात्र महिला सैनिक न थी उसकी अनेक सहेलियां समरांगण में कूद पड़ी थीं और उसके साथ थीं. उनको देख युवक कैसे घरों में कैद रह सकते थे. और यह सब इस बात को प्रमाणित करता है कि १८५७ की वह क्रान्ति राज्य या सैनिक क्रान्ति नहीं, ’जनक्रान्ति’ थी और उसकी परिकल्पना आम जनता के मध्य से शीर्ष पर पहुंचे जिस महानायक ने की थी उसका नाम अजीमुल्ला खां था. लेकिन उस महामानव के प्रति अनभिज्ञता इस देश के लिए दुर्भाग्य की बात है. अभी भी तथ्य नष्ट न हुए होंगे. यदि सरकार इतिहासकारों की अन्ध प्रस्तुतियों से पृथक १८५७ पर नये सिरे से शोध करवाने में रुचि ले तो विश्वास के सथ कहा जा सकता है कि न केवल अजीमुल्ला खां के विषय में पूर्ण जानकारी प्राप्त हो सकेगी; प्रत्युत अनेक ऎसे तथ्य उद्घाटित हो सकेंगे जो अतीत की गर्त में लुप्त हैं.

कानपुर के युद्ध के दिनों तक नाना साहब के साथ अजीमुल्ला खां की उपस्थिति के प्रमाण प्राप्त होते हैं, लेकिन उसके पश्चात उनका क्या हुआ, इतिहासकार मौन हैं. एक-दो इतिहासकारों के अनुसार वे नाना साहब के साथ नेपाल चले गये थे, जहां उनकी मृत्यु हो गयी थी. फिर भी, बहुत कुछ ऎसा है जो अतीत की अन्धी सुरंग में छुपा हुआ है और आवश्यकता है उस सुरंग में प्रवेश कर सब खोज लाने का. शायद कभी यह संभव हो सके. लेकिन देश की वर्तमान अराजक स्थिति के विषय में सोचकर लगता है कि क्या इसी दिन के लिए उन वीरों ने आत्माहुति दी थी, जिनकी जलायी मशाल को बीसवीं सदी के क्रान्तिकारियों ने थाम देश को आजादी मे मुकाम तक पहुंचाया था? सभी वीरों को - विस्मृति के गर्त में झोंकने का निकृष्ट प्रयास भले ही आज के सत्ता लोलुप करें, किन्तु इस सत्य को झुठलाया नहीं जा सकता कि जिस आजादी को वे भोग रहे हैं उसकी प्राप्ति १८५७ के हजारों वीर योद्धाओं के साथ ही खुदीराम बोस, भगत सिंह, सुखदेश बटुकेश्वर दत्त, बिस्मिल, आजाद और उनके सैकड़ों साथियों के बलिदान से ही संभव हो सकी थी.

’साहित्य, संवाद और संस्मरण’
(पुस्तक में संकलित)
’भावना प्रकाशन’
ए-१९१, पटपड़गंज, दिल्ली-११००९१

शुक्रवार, 1 मई 2009

पुस्तक चर्चा

’खुदीराम बोस उपन्यास’ के विषय में दो शब्द

रूपसिंह चन्देल

मैं इतिहास का विद्यार्थी कभी नहीं रहा, लेकिन इतिहास में रुचि है--- विशेषरूप से क्रान्तिकारी इतिहास मे.शायद यही कारण रहा कि अपने लेखन के प्रारंभिक दौर में मैनें कुछ ऎतिहासिक कहानियां लिखीं. मेरा सबसे पहला उपन्यास किशोरों के लिए लिखा गया था शिवाजी को केन्द्र में रखकर - ’ऎसे थे शिवाजी’ जो १९८५ में ’चांद कार्यालय , इलहाबाद ( यह वही प्रकाशन था जहां से हिन्दी की प्रसिद्ध पत्रिका ’चांद’ निकलती थी और जिसके ’फांसी अंक’ ने ब्रितानी सरकार को हिलाकर रख दिया था. अंततः उन्होंने इसे प्रतिबन्धित कर दिया था. ) से प्रकाशित हुआ था.

मेरा दूसरा किशोर उपन्यास प्रसिद्ध क्रान्तिकारी करतार सिंह सराभा को केन्द्र में रखकर लिखा गया था. सराभा ने १८ वर्ष की आयु में ऎसे कार्य कर डाले थे, जिनकी कल्पना बड़े भी नहीं कर सकते. पंजाबी में उन पर मुकम्मल एक बड़ा उपन्यास लिखा गया , लेकिन हिन्दी में सराभा पर ऎसा कोई उपन्यास या उनकी जीवनी नहीं थी विशेष रूप से किशोरों के लिए. उन दिनों मैं कहानियों के साथ बाल साहित्य भी निरन्तर लिख रहा था. सराभा पर लिखा गया उपन्यास - ’अमर बलिदान’ १९९२ में ’राजपाल एण्ड संस’ से प्रकाशित हुआ और जिन्दगी में पहली और अंतिम बार मैंने अपनी किसी कृति का कॉपी राइट किसी प्रकाशक को बेचा था. यह पैसों के लिए नहीं था----- शायद एक बड़े प्रकाशक के यहां से प्रकाशित होने का मोह इसके पीछे रहा था. आज मेरी परेशानी का अनुमान लगाया जा सकता है. राजपाल एण्ड संस से कॉपी राइट वापस पाना एक टेढ़ी खीर है.

मेरा तीसरा किशोर उपन्यास था - ’क्रान्तिदूत अजीमुल्ला खां’ . वास्तव में अजीमुल्ला को केन्द्र में रखकर मैं एक बड़ा महत्वाकांक्षी उपन्यास लिखना चाहता था, लेकिन लिख नहीं पा रहा था और आज तक नहीं लिख पाया, जबकि उसपर मैं १९८३ से निरंतर सामग्री का संचयन करता आ रहा था. १८५७ के एक सौ पचास वर्ष मनाये जाने के दौरान कई प्रकाशकों ने उसे शीघ्रातिशीघ्र लिख डालने का आग्रह किया ,लेकिन मैं उस महान व्यक्ति के प्रति जल्दबाजी नहीं करना चाहता. हां, जब प्रकाशन विभाग के निदेशक डॉ. श्याम सिंह शशि ने इस विषय पर किशोरों के लिए लिख देने का आग्रह किया तब १९८८ में यह लिखा गया और यह भी प्रकाशन विभाग, भारत सरकार, से १९९२ में प्रकाशित हुआ और अब तक असमिया और पंजाबी भाषाओं में न केवल इसके अनुवाद प्रकाशित हो चुके हैं बल्कि हिन्दी में यह दस हजार प्रतियों के लगभग बिक भी चुका है.

कर्तार सिंह सराभा की भांति एक और युवक था - खुदीराम बोस, जिसे अंग्रेजों ने सराभा की भांति ही १८ वर्ष की आयु में ११ अगस्त, १९०८ को फांसी दे दी थी. वास्तविकता यह है कि आजादी के लिए शहीद होने वाला वह पहला किशोर क्रान्तिकारी था. सराभा को भी १८ वर्ष की आयु में ही फांसी पर लटका दिया गया था, लेकिन खुदीराम बोस के वर्षों बाद.

खुदीराम बोस पर हिन्दी में इतनी कम सामग्री उपलब्ध थी कि आश्चर्य हो रहा था. मैंने सामग्री संकलित की. बांग्ला साहित्य में उन पर पर्याप्त लिखा गया है, लेकिन न मुझे बांग्ला आती थी और न मेरे लिए अनुवाद उपलब्ध था. अंग्रेजी और हिन्दी में जो प्रामाणिक सामग्री मुझे उपलब्ध हुई वही ’खुदीराम बोस’ उपन्यास का आधार बनी. कुछ लोग इसे जीवनी मानते हैं, लेकिन अपनी सम्पूर्णता में यह उपन्यास है . इसे पढ़कर क्रान्तिकारी साहित्य के मर्मज्ञ और क्रान्तिकारियों पर महत्वपूर्ण कार्य करने वाले प्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार सुधीर विद्यार्थी ने पहला प्रश्न किया था कि आप बंगाल में कब और कितने दिन रहे थे. मेरा उत्तार था कि चार-पांच वर्ष की आयु के दौरान (१९५६-५७) कलकत्ता में रहा था जब पिताजी वहां रेलवे में नौकरी करते थे. उनका आभिप्राय था कि बंगाल में रहे बिना इतना प्रामाणिक और पठनीय उपन्यास लिखने में मुझे सफलता कैसे मिली ! यहां यह बताना आवश्यक है कि कथा को गति देने के लिए दो-तीन पात्र और कुछ घटनाओं की ही कल्पना की गई है. लेकिन कहीं और किसी रूप में भी ऎतिहासिकता से छेड़ -छाड़ नहीं की गई. जब मेरे प्रकाशक ने कहा कि उपन्यास का एक अंश पढ़कर वह रो पड़े थे तब मैंने अनुभव किया था कि अपने प्रयास में मैं सफल रहा था, क्योंकि एक तो हिन्दी का प्रकाशक कृतियों को पढ़ते नहीं (छापने से पहले भी ) और यदि गलती से पढ़ भी लिया तो उनकी आंखों में आंसू ----- खुदा का नाम लीजिए. वे तो लेखक के आंखों में आंसू देखने के लिए विकल रहते हैं.

उपन्यास ’प्रवीण प्रकाश” (मेहरौली, नई दिल्ली- अब दरियागंज, नई दिल्ली ) ने ८ अगस्त, १९९७ को प्रकाशित किया था और सबसे पहली प्रति रफी मार्ग, नई दिल्ली स्थित ’यूनिवार्ता’ के कार्यालय पहुंचाय़ी थी, क्योंकि ११, अगस्त को खुदीराम बोस का शहीदी दिवस था. ’युनिवार्ता ’ ने उपन्यास के आधार पर लगभग एक हजार शब्दों का जो फीचर तैयार किया वह ११ अगस्त, १९९७ को देश के लगभग सभी हिन्दी समाचार पत्रों में प्रकाशित हुआ था. ’राष्ट्रीय सहारा ’ ने इसे १३ अगस्त को प्रकाशित किया था.

पाठकों ने किस गंभीरता से इसे ग्रहण किया इसका प्रमाण यह है कि अप्रैल, २००९ में इसका पांचवां संस्करण प्रकाशित हुआ है, जबकि चौथा संस्करण जनवरी, २००८ में विश्व पुस्तक मेला के दौरान प्रकाशित हुआ था. प्रस्तुत है प्रथम संस्करण पर लिखी गयी और ’अमर उजाला’ में प्रकाशित वरिष्ठ कथाकार ज्ञानप्रकाश विवेक की समीक्षा :
प्रवीण प्रकाशन, दरियागंज, नई दिल्ली-११०००२
पृष्ठ - १५६, मूल्य : २००/-
अमेरिका में यह उपन्यास : www.pustak.org
में उपलब्ध है। इसके लिए श्री अभिलाष त्रिवेदी से : actrivedi@gmail.com पर संपर्क कर सकते हैं.

समीक्षा


खुदीराम बोस के विस्मृत जीवन की एक झलक

ज्ञान प्रकाश विवेक

देश की स्वतंत्रता के संदर्भ में नेताजी सुभाष चन्द्र बोस की पंक्तियां ध्यान आती हैं. उन्होंने कहा था, "आजादी सहज उपलब्ध हो जाए, तो न उसका महत्व होता है न मुल्यांकन! " भारतीय स्वतंत्रता किसी तश्तरी में परोसकर नहीं दी गई. उसके पीछे बलिदानों और देशवासियों की शौर्यकथाओं का लंबा और गौरवपूर्ण इतिहास है. १८५७ के स्वतंत्रता संग्राम से १९४७ तक सैकड़ों वीरों का स्मरण और उनकी वीरता तथा दृढ़ संकल्पों के दस्तावेज एक नए रक्त का संचार करते हैं. उन्हीं वीर पुत्रों में एक थे खुदीराम बोस.

कथाकार रूपसिंह चन्देल ने खुदीराम बोस की जीवनी को औपन्यासिक कृति के रूप में सृजित करते हुए पठनीयता का विशेष ध्यान रखा है. उपन्यास, जीवनी के अधिक निकट होने के बावजूद, कल्पनाशीलता और यथार्थ के संश्लिष्ट तालमेल की अच्छी प्रस्तुति है. वस्तुतः जीवनियों को उपन्यास विधा में उतारना दिक्कत भरा काम इसलिए होता है कि कथानक जीवनी और उपन्यास (या कहें कि यथार्थ और कल्पना) के बीच झूलता रह जाता है. रूप सिंह चन्देल इससे बचे हैं. यह सफलता इसलिए भी हासिल हुई है कि वे अधिक जोखिम (कल्पनाशीलता का जोखिम) नहीं उठाते. इसके बावजूद खुदीराम बोस के जीवन संबंधी सभी पहलू और घटनाएं उपन्यास की मुख्य कथा के साथ जुड़ते चले जाते हैं.

जाहिर है खुदीराम बोस स्वयं उपन्यास का मुख्य पात्र है और पात्रता के सभी गुण उसमें मौजूद हैं. कथा में मुख्य पात्र खुदीराम विचलित है. संभवतः किसी तलाश में है. तलाश क्या है, स्वयं उसे भी नहीं मालूम. उस तलाश के लिए उपयुक्त रास्ता दिखाते हैं क्रांतिकारी सत्येन्द्रनाथ . इसके पश्चात खुदीराम का विचलन समाप्त हो जाता है और देशप्रेम का जज्बा तथा स्वतंत्रता की कामना उसका दृढ़ संकल्प बन जाता है.

उपन्यास में अपने भांजे ललित के साथ खुदीराम की शैतानियां तथा अपने संगी- साथियों के साथ झगड़े, उसके भीतर की ईमानदारी , सचाई और साहस को भी लक्षित करते हैं. गौरतलब है कि बचपन में ही खुदीराम के माता-पिता चल बसे और बड़ी बहन ने खुदीराम का पालन-पोषण किया था. खुदीराम नाम भी बड़ी बहन ने दिया था.

उपन्यास में बचपन से खुदीराम के बलिदान तक के प्रसंग सिलसिलेवार कथासूत्र में गुंधे हुए हैं. क्रांतिकारी विचारों से लैस सत्येंद्रनाथ ने खुदीराम को एक चट्टान जैसा व्यक्तित्व प्रदान करने में जरूर मदद की. गौरतलब है कि भगत सिंह हों, बिस्मिल हों अथवा खुदीराम बोस, सभी अध्येता भी थे. उनमे केवल जोश नहीं, विवेकशील चिंतन और गहरी समझ भी थी. किंग्जफोर्ड जैसे क्रूर, अत्याचारी अधिकारी पर बम फेंकना, आतंकवादी घटना नहीं , अत्याचारों के विरुद्ध देश के युवाओं की बुलंद आवाज थी. आम मनुष्य के प्रति करुणा का भाव था. दुर्भाग्यवश किंग्जफोर्ड बच गया. खुदीराम बोस के साथी प्रफुल्ल चाकी ने स्वयं को गोली मार ली और खुदीराम बोस को फांसी की सजा हुई.

उपन्यास में क्रांति और देशप्रेम की भावना को जीवंतता प्रदान की गई है. चन्देल ने खुदीराम बोस की जीवनी पर उपन्यास रचकर, खुदीराम के विस्मृत जीवन तथा घटनाओं को पाठकों के बीच लाने का महत्वपूर्ण कार्य किया है.

खुदीराम बोस के जीवन पर आधारित यह पहला और प्रामाणिक उपन्यास है, ऎसा मेरा मानना है.