Text selection Lock by Hindi Blog Tips

रविवार, 25 अप्रैल 2010

यादों की लकीरें



संस्मरण

एक किस्सागो से मुलाकात

रूपसिंह चन्देल

संस्मरणों की इस श्रृंखला में मैंने कुछ साहित्यकारों पर लिखा तो उन लोगों पर भी जिनका साहित्य से दूर का भी रिश्ता नहीं था । जिन साहित्यकारों पर लिखा उन्होंने किसी न किसी रूप में मुझे प्रभावित किया और दूसरे लोगों की मेरे जीवन में कुछ स्मरणीय भूमिका रही । सभी पर लिखने के अपने कारण रहे लेकिन मुख्य कारण उन पर लिखकर उन सबकी स्मृतियों को जीने का सुख प्राप्त करना रहा । मैं आज जो हूं उसके निर्माण में जिन लोगों की सकारात्मक भूमिका रही उन्हें याद करना उनके प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करने के अतिरिक्त कुछ नहीं है । उनमें से एक नाम डॉ0 शिवतोष दास का है ।

डॉ0 दास दुबले , पांच फीट छ: या सात इंच लंबे , चमकदार आंखों और चपटे ---कुछ लंबोतरे चेहरे वाले व्यक्ति थे । उनकी भौंहों पर घने बाल थे । मुंह में बनारसी पान , दाहिने हाथ में छाता (जैसा कि प्राय: बंगाली भद्र लोगों में देखने को मिलता है ) , और बायें में रेड वाइन कलर का चमड़े का बैग .....पैर में चप्पलें और ढीले पैण्ट पर बाहर निकली शर्ट...... वह प्रतिदिन सुबह आठ बजे मुझे शकितनगर बस स्टैण्ड पर दो सौ चालीस नंबर बस की प्रतीक्षा में पंक्ति में खड़े दिखते । यदि मुझे आते हुए नांगिया पार्क के मोड़ पर देख लेते तब चीखते .......''आसून.....आसून.....।'' और मैं दौड़ लेता । लेकिन यदि उस बस में मेरे लिए सीट मिलने की संभावना न होती तब वह भी बस छोड़ देते और हम दूसरी बस में होते जो दस मिनट बाद जाने वाली होती । उन दिनों शक्तिनगर से सेण्ट्रल सेक्रेटरिएट के लिए प्रत्येक दस मिनट में दौ सौ चालीस नंबर बस शक्तिनगर से चलती थी और यात्री अनुशासन में पंक्तिबध्द बस में चढ़ते थे । आज की भांति अनुशासन-हीनता नहीं थी । आज बसों के लिए दिल्ली में कहीं कोई पंक्ति नहीं दिखती और यदि होती भी है तो बस के आते ही वह बिखर जाती है । सभ्यता के मुखौटे में दिल्ली इन तीस वर्षों में इतनी असभ्य .....इतनी संवेदनशून्य और खुदगर्ज हो गयी है कि सभी एक दूसरे के कंधे पर चढ़कर निकल जाना चाहते हैं ।

साहित्य भी अपवाद कैसे रह सकता था । हालंकि जड़ें काटने वाले लोग तब भी थे , लेकिन आज जैसी गलाकाट स्थिति न थी । तब एक -दूसरे की सहायता के लिए अधिक हाथ आगे बढ़ते थे और नि:स्वार्थभाव से .... आज ऐसे हाथ हैं लेकिन संख्या कम हो गयी है ।

शिवतोष दास से मेरा परिचय डॉ0 रत्नलाल शर्मा ने करवाया था । दास साहब कमला नगर में ई-135 में रहते थे , जबकि डॉ0 शर्मा शक्तिनगर में आनाज गोदाम के पास गंदा नाले की ओर रहते थे ....... मेरे घर से दस मिनट के रास्ते पर । परिचय के मामले में मैं सदैव संकोची रहा हूं । स्वयं आगे बढ़कर परिचय करने से आज भी बचता हूं । संभव है इसे लोग मेरा अहंकार मानते हों या कुछ और लेकिन मैं आज भी अपनी इस आदत का शिकार हूं । एक बार परिचय होने के बाद अपनी ओर से उसके निर्वाह की भरपूर कोशिश करता हूं ......। रिश्तों में कांइयापन मुझे स्वीकार नहीं.....इसका अहसास होते ही कोई कितना ही बड़ा लेखक-व्यक्ति क्यों न हो उससे दूर छिटक लेने में मैं समय नष्ट नहीं करता ।

उन दिनों मेरे पास पढ़ने के लिए बहुत कुछ होता था ....खासकर कथा-साहित्य । दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी , मारवाड़ी पुस्तकालय (चांदनी चौक) ,और केन्द्रीय सचिवालय पुस्तकालय का मैं स्थायी सदस्य था और दिल्ली विश्वविद्यालय और साहित्य अकादमी पुस्तकालयों का अस्थायी । शक्तिनगर से आर।के। पुरम तक की मेरी एक ओर की यात्रा में दो बसें बदलकर डेढ़ -पौने दो घण्टे लगते थे । आते -जाते मुझे तीन-साढ़े तीन घण्टे मिलते , जिसमें मैं किसी भी कृति के सत्तर-अस्सी पृष्ठ पढ़ लेता । डॉ0 रत्नलाल शर्मा समाज कल्याण विभाग में डिप्टी डायरेक्टर थे , जो उन दिनों संसद मार्ग में था । वह प्रतिदिन मुझे पढ़ते देखते ..... और महीनों देखते रहे । बस में उनके परिचितों की संख्या बहुत थी और प्राय: वह आगे बैठते , जबकि मैं जानबूझकर बीच में या पीछे बैठता । कई महीनों बाद डॉ0 शर्मा ने मेरे बारे में पूछ लिया । वह आलोचक थे ...... उन्होंने अपना परिचय उसी रूप में दिया था , लेकिन उन्हें उनके मित्र आलोचक मानने को तैयार नहीं थे । उनके मित्रों में डॉ0 विनय , डॉ0 कमलकिशोर गोयनका , डॉ0 रामदरस मिश्र , डॉ0 हरदयाल , डॉ0 नरेन्द्र मोहन , डॉ0 प्रताप सहगल , डॉ0 अश्वनी पाराशर , डॉ0 सुखबीर ..... थे और उनके माध्यम से इन सबसे मेरा परिचय हुआ। डॉ0 विनय दास साहब के ब्लॉक में रहते थे और प्राय: इन सबका उनके यहां बैठना होता । इनमें से कोई प्राय: डॉ0 शर्मा को छेड़ देता और वह उत्तेजित हो बैठक छोड़कर विनय के घर की सीढ़ियां उतर जाते । लेकिन ऐसा वह अपने समकालीनों के साथ ही करते । मुझ जैसे युवा और अपने से बहुत जूनियर के प्रति उनका व्यवहार बहुत ही आत्मीय होता था ।

डॉ0 रत्नलाल शर्मा ने दास साहब से मेरा परिचय करवाया , ''आर. के. पुरम में केन्दीय हिन्दी निदेशालय में हैं दास साहब ....बड़े लेखक हैं । ''

पहली बार केन्द्रीय हिन्दी निदेशालय नामक संस्था के बारे में जाना और आगे जितना ही जाना यही निष्कर्ष निकाला कि यह संस्था एक सफेद हाथी है ..... हिन्दी के नाम पर जनता के धन का दुरुपयोग करने वाली मृतप्राय: संस्था । डॉ0 दास वहां सहायक शिक्षा अधिकारी थे । उनसे परिचय के बाद सुबह बस में मेरा पढ़ना बंद हो गया । उनके पास संस्मरणों का भंडार था , जिसे वह किसी किस्सागो की भांति सुनाते और सफ़र का पता ही नहीं चलता । मैं सोचता , यह व्यक्ति यदि कथाकार होता तो कितने ही मील के पत्थर गाड़ चुका होता ।

वह बनारस के रहने वाले थे और बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय के छात्र रहे थे । वहां से उन्होंने मिलटरी साइंस में एम0एस0सी किया था । उनके मुताबिक उन्होंने ओटावा विश्वविद्यालय से पी-एच।डी. की थी और दिल्ली से ओटावा की यात्रा का एक बार नहीं अनेक बार उन्होंने आकर्षक वर्णन किया था ..... फिर विश्वविद्यालय जीवन का भी ।

''इतनी योग्यता के बाद भी आप केन्द्रीय हिन्दी निदेशालय जैसे अर्थहीन संस्था में.....और वह भी ग्रुप-बी गज़टेड अफसर के रूप में क्यों सड़ रहे हैं ?'' एक दिन मैंने पूछ लिया ।

''सब किश्मत का खेल है चंदेल जी ।'' मुंह में पान चभुलाते हुए उन्होंने कहा ।

उनके बैग में कई बीड़े पान रहते , जो वह घर से लगवा लाते थे ।

उनके साथ रिसर्च असिस्टैण्ट बनकर नौकरी प्रारंभ करने वाले लोग इधर-उधर घूमकर वहां निदेशक बने.... डॉ0 रणवीर रांग्रा वहां एक मेसेंजर के पद पर नियुक्त हुए और कहीं न जाकर वहीं निदेशक के पद तक पहुंचे । 'कोई रहस्य है.........दास साहब कुछ छुपा रहे हैं' मैं सोचता लेकिन उस विषय में मैंने कभी कोई चर्चा नहीं की । मैं उनके किस्से सुनकर ही प्रसन्न था । लेकिन जाड़े के एक दिन डॉ0 रत्नलाल शर्मा ने दिल्ली विश्वविद्यालय के रिसर्च फ्लोर की छत पर धूप में बैठकर चाय पीते हुए कहा , ''डॉ0 दास ने पी-एच0डी0 नहीं की ..... होम्योपैथ का सार्टीफिकेट है उनके पास ।''

छठवें -सातवें दशक में लखनऊ से होम्योपैथ और आयुर्वेद के प्रमाणपत्र सहजता से मिल जाया करते थे । संभव है डॉ0 शर्मा सच कह रहे हों लेकिन इस विषय में मेरी रुचि नहीं थी ।

बहरहाल गाहे-बगाहे दास साहब मेरे घर आने लगे थे । उनकी पत्नी मीना दास आर्टिस्ट थीं और दिल्ली दूरदर्शन द्वारा निर्मित घारावाहिकों में उनकी कोई न कोई भूमिका होती थी । प्राय: वह कृषि-दर्शन में किसी से बातचीत करती दिखतीं ।

1982 , फरवरी में कानपुर की बाल-कल्याण संस्था ने बाल साहित्य में दास साहब के योगदान के लिए उन्हें सम्मानित किया । वह मुझे भी अपने साथ ले गये ....''आपका शहर है .... अपका साथ अच्छा लगेगा । ''

पुरस्कार पाकर वह बहुत प्रसन्न थे और शायद वह उनके जीवन का प्रथम और अंतिम पुरस्कार था । उन दिनों उन्होंने अपनी पुस्तकों की जो साइक्लोस्टाइल्ड प्रति मुझे दी थी उसमें तब तक उनकी बाल साहित्य की प्रकाशित पुस्तकों की संख्या चौसठ थी । उनकी पुस्तकें किताबघर , आर्य बुक डिपो, , प्रकाशन विभाग (भारत सरकार ) , पेनमेन पब्लिशर्स आदि से प्रकाशित हुईं थीं , जिनमें आदिवासियों और जन-जातियों पर अनेक बड़ी पुस्तकें भी थीं ।

1982 में एक दिन बस में उन्होंने मुझे एक प्रस्ताव दिया , '' आप हमारी संस्था के लिए कोई पुस्तक क्यों नहीं लिखते ?''

''मैं.......।'' मैं चौका था , क्योंकि तब तक मैं साहित्य में अपने पैर जमाने की कोशिश कर रहा था और 'विशाल साहित्य सदन ' , नवीन शाहदरा से मेरा बालकहानी संग्रह - ''राजा नहीं बनूंगा'' ही प्रकाशित हुआ था । 'यत्किंचित' के कवि के रूप में मैं फ्लाप घोषित किया जा चुका था और कवि होने के मुगालते से बाहर आ चुका था । अब कथा साहित्य ही मेरी दुनिया थी । तब तक कोई प्रकाशक मुझे पहचानता नहीं था .... बल्कि उनकी दृष्टि में मैं लेखक था ही नहीं । 'प्रभात प्रकाशन' के श्यामसुन्दर जी ने उन्हीं दिनों बहुत ही शालीनता से कहा था , '' न ....न .... अभी आप अपने को लेखक न कहें .....अभी तो आपने लिखना शुरू ही किया है .....।''

बात गलत नहीं थी ।

इस वास्तविकता से वाकिफ़ मेरे लिए दास साहब का प्रस्ताव आश्चर्यचकित करने वाला था । बात को स्पष्ट करते हुए उन्होंने कहा ''निदेशालय की एक योजना है प्रकाशकों के सहयोग से पुस्तक प्रकाशन की । पाण्डुलिपि आप निदेशालय में किसी प्रकाशक के माध्यम से प्रस्तुत करेंगे । निदेशालय तीन विद्वानों से उस पर राय लेगा । स्वीकृत होने पर प्रकाशक को तीन हजार प्रतियां प्रकाशित करनी होगीं । निदेशालय उसमें से एक हजार प्रतियां खरीद लेगा । प्रकाशक लेखक को उन एक हजार की तुरंत रायल्टी देने के लिए बाध्य होता है ।''

मुझ जैसे नये लेखक के लिए योजना आकर्षक थी ।

''फिर कहानियों का संग्रह प्रस्तुत कर देता हूं ।''

''नहीं , कथा-साहित्य नहीं....कुछ और विषय सोचिए .....।''उस दिन बात यहीं समाप्त हो गयी । लगभग एक सप्ताह बाद उन्होंने पूछा ,''विषय सोचा ?''

''नहीं ।''

''आप अपराध विज्ञान पर पुस्तक लिखें ।''

'' मैं और अपराध विज्ञान ..........यह तो मज़ाक हो गया ।''

''नहीं.....मेरे पास इस विषय पर पर्याप्त सामग्री है ।'' चेहरे पर गंभीरता ओढ़ वह बोले , ''भाभी जी (मेरी पत्नी) दिल्ली विश्वविद्यालय पुस्तकालय में हैं ..... उनकी सहायता लें । आप स्वयं अनेक पुस्तकालयों के सदस्य हैं ...... बहुत अच्छा रहेगा । एक बार लगकर काम कर जायें .....पुलिस विभाग , क्राइम ब्रांच ....सर्वत्र आपकी पूछ बढ़ जाएगी । ''

''भाड़ में जाये पूछ .....मुझे कहानियां ही लिखने दीजिए ।''

लेकिन वह पीछे पड़ गये और एक दिन ढेर-सी सामग्री मेरे घर छोड़ गये । विषय भी सुझा दिया -- ''अपराध : समस्या और समाधान ।'' मैंने उनकी दी सामग्री का अध्ययन किया । पत्नी की सहायता ली । अन्य पुस्तकालयों से अपराध संबन्धी डॉटा इकट्ठा किया । मनोवैज्ञानिकों के अपराध संबन्धी वियारों का अध्ययन किया और कार्य प्रारंभ किर दिया । छ: महीनों तक मैंने कोई अन्य साहित्यिक कार्य नहीं किया । पाण्डुलिपि टाइप करवाकर दास साहब को सौंप दी ।

''मुझे नहीं ..... मेरे मित्र प्रकाशक हैं सुखपाल जी .... आर्य बुक डिपो , करोल बाग ....उन्हें दे आइये । पेमेण्ट के मामले में वह ईमानदार हैं । आजकल इस प्रोजेक्ट को मैं ही देख रहा हूं । मैं उन्हें कह दूंगा । ''

पण्डुलिपि मैं सुखपाल जी को दे आया । मैं प्रसन्न था कि दिल्ली में एक ढंग के प्रकाशक से परिचय हुआ । यह तो बाद में जाना कि वह साहित्य के नहीं स्कूलों की पुस्तकें प्रकाशित करते थे ।
पण्डुलिपि केन्द्रीय हिन्दी निदेशालय से स्वीकृत हो गयी । पत्र मुझे और आर्यबुक डिपो के पास आया । दास साहब से पूछा , ''अब ?''

''जाकर अनुबंध करो । '' कुछ देर चुप रहकर बोले , ''सुखपाल जी से कहना कि वह आपको अनुबंध के साथ तीन हजार रुपये अग्रिम दें ।''

दास साहब की सलाह मान मैं सुखपाल जी से मिला । मेरा प्रस्ताव सुनते ही वह उत्तेजित स्वर में बोले , ''अग्रिम मैं किसी को नहीं देता .....आपको तो बिल्कुल ही नहीं , क्योंकि आपसे मेरा अधिक परिचय नहीं है । फिर तीन हजार ......।''

लौटकर मैं सीधे दास साहब के घर गया । पता चला वह घर में नहीं थे । हालांकि कभी-कभी वह होकर भी मना करवा देते थे । एक बार का ऐसा ही प्रसंग उन्होंने सुनाया था । उनके पास ढाई कमरे थे किराये पर । छोटे कमरे को उन्होंने स्टडी बना रखा था । उसका निकास ड्राइंगरूम से था । वह स्टडी में कुछ लिख रहे थे । कोई मित्र मिलने आ गया । मीना जी ने कहा , ''वह बाहर गए हैं ।''

''कोई बात नहीं भाभी जी ....मैं उनके आने का इंतजार करूंगा ।'' और मित्र महोदय बैठ गये । जाड़े के दिन.....दास साहब लिखने के फेर में पेशाब टालते रहे थे ....'' अब .....'' वह सोचने लगे । दो घण्टे तक उन पर क्या बीती होगी , कल्पना की जा सकती है ।

सुबह बस में पूरा विवरण सुनकर वह बोले ,'' आप फोन करके सुखपाल जी को कह दें कि यदि वह अग्रिम राशि देंगे तभी पाण्डुलिपि उनके यहां से प्रकाशित होगी ..... अन्यथा आप किसी अन्य प्रकाशक को दे देंगे । यदि वह नहीं छापते तो लिखकर दे दें ।''

मैंने दास साहब के निर्देश का पालन किया । सुखपाल भले प्रकाशक थे । लिखकर देने के लिए तैयार हो गये । इधर दास साहब ने किताबघर के श्री सत्यव्रत शर्मा से उसे प्रकाशित करने की चर्चा की और वह तैयार हो गये । लेकिन मुझे अग्रिम तीन हजार नहीं डेढ़ हजार ही देने के लिए तैयार हुए । सत्यव्रत जी अनुबंध करने के लिए दास साहब के साथ मेरे घर आये । डेढ़ हजार का चेक पाकर मैं इतना प्रसन्न था कि उस पुस्तक का कॉपी राइट मैंने मीना दास के नाम लिख दिया ... जो आज भी उन्हीं नाम है । हालंकि उसका दूसरा संस्करण आज तक नहीं हुआ और न ही मेरी उस पुस्तक में कोई रुचि रही । लेकिन इसका परिणाम यह हुआ कि दास साहब मुझे छोटे भाई की भांति मानने लगे । 'अपराध :समस्या और समाधान' के बाद उनके कारण सत्यव्रत जी ने एक साथ मेरी तीन पाण्डुलिपियां प्रकाशनार्थ लीं । एक कहानी संग्रह (पेरिस की दो कब्रें) , बाल कहानी संग्रह (अपना घर) और लघुकथा संग्रह (चीख) । लेकिन उन्होंने केवल कहानी संग्रह ही 1984 में प्रकाशित किया । 'अपना घर' बहुत बाद में अभिरुचि प्रकाशन से और 'चीख' संशोधित रूप में 'कुर्सी संवाद' शीर्षक से 1997 में पेनमेन पब्लिशर्स से प्रकाशित हुए ।

दास साहब के माध्यम से ही मेरा परिचय जैनेन्द्रे जी के पुत्र प्रदीप जैन से हुआ और प्रदीप ने पूर्वोदय प्रकाशन के लिए मेरा किशोर उपन्यास 'ऐसे थे शिवाजी' लिया । तीन सौ रुपये अग्रिम राशि भी दी । यह 1985 की बात है । लेकिन उन्होंने उसे प्रकाशित नहीं किया ।

*******

एक दिन दफ्तर में दास साहब का फोन आया , ''चन्देल जी.... तुरंत आइए .....।''

''क्यों ?''

''इलाहाबाद से सहगल साहब आए हैं .....चांद कार्यालय वाले ।''''चांद कार्यालय .....?''

''अरे भाई, चांद पत्रिका .....आप तो इतिहास में रुचि रखने वाले व्यक्ति हैं ।''

मैं दौड़ गया । सड़क के इस पार-उस पार का फासला । दास सहब मेरे बारे में सहगल साहब से पहले ही हवा बांध चुके थे । यह वह दौर था जब मैं पत्र-पत्रिकाओं में धुंआधार लिख रहा था । दैनिक हिन्दुस्तान के प्रत्येक दूसरे रविवासरीय संस्करण में मेरी एक रचना होती थी । सहगल साहब मेरे नाम-काम से परिचित थे ।

''आप चन्देल जी की बाल साहित्य की पुस्तकें प्रकाशित करें ..... ।'' दास साहब बोल रहे थे और ''दीजिए साहब ....मुझे आपको प्रकाशित कर अच्छा लगेगा । '' सहगल साहब ने कहा ।

उनका नाम अशोक कुमार सहगल था । चांद पत्रिका उनके पिता जी निकालते थे , जिसका फांसी अंक सरकार ने जब्त कर लिया था । सहगल साहब ने मेरी चार पुस्तकें प्रकाशित कीं , जिनमें तीन बाल कहानी संग्रह और 'ऐसे थे शिवाजी' किशोर उपन्यास थे । 1985-86 में चारों की अग्रिम भुगतान के रूप में उन्होंने चार हजार रुपये दिये थे । बाल साहित्य की पुस्तकों की दृष्टि से उन दिनों यह अच्छी राशि थी क्योंकि बड़े-बड़े प्रकाशक बाल साहित्य की पाण्डुलिपियां मिट्टी भाव खरीदते थे... ढाई -तीन सौ से लेकर पांच सौ में ----सदा के लिए । कर्तार सिंह सराभा' पर मेरे किशोर उपन्यास 'अमर बलिदान' (1992 ) के साथ राजपाल एण्ड संस ने ऐसा ही किया था और मैं आज तक उसे पुनर्मुद्रित नहीं करवा सका ।

यद्यपि तीन प्रकाशकों से ही डॉ0 शिवतोष दास ने मेरा परिचय करवाया , लेकिन यह उन्होंने तब किया जब इस क्षेत्र में मेरी कोई पहचान नहीं थी । उसके बाद मैं एक के बाद अनेक (अब तक चौदह) प्रकाशकों के संपर्क में आया और दास साहब ने जो जमीन मेरे लिए तैयार की थी .... मैंने मित्रों के लिए करने की कोशिश की । मेरे माध्यम से जब मेरे किसी मित्र की कोई पुस्तक प्रकाशित होती है तब अपनी पुस्तक प्रकाशित होने जैसा सुख मैं अनुभव करता हूं ।

मेरे और दास साहब के बीच कुछ मुद्दों पर मतभेद भी रहे , लेकिन संबन्धों में कोई फ़र्क नहीं आया । 1987-88 के आस-पास हमारा साथ आना-जाना छूट गया था । कभी-कभार हम मिलते , लेकिन उनमें वही उत्साह.......लपककर मिलना....घर परिवार ...माशा-कुणाल....सबके हालचाल पूछना । जबकि मैं उनकी दोनों बेटियों और मीना जी के बारे में पूछना भूल जाता ।

*******

अवकाश ग्रहण करने के बाद ही उन्हें चालीस वर्ष पुराना किराए का मकान छोड़कर विजयनगर जाना पड़ा था । एक दिन विश्वविद्यालय में टकरा गये । कुछ दुबले हो गये थे । बोले , ''आजकल करेले के जूस पर जी रहा हूं ।''

''शुगर के शिकार हो गये ? दुबले पतले लोगों को भी शुगर हो जाती है ? आप तो पैदल भी खूब चलते हैं ।''

''हो गयी .....कैसे ...... पता नहीं ।''

''वक्त कैसा कट रहा है ?''

''कुछ लिखना-पढ़ना.....विश्वविद्यालय में विजिटिगं प्रोफेसर हूं ......कुछ क्लासेज मिल जाती हैं ......।'' कुछ रुककर बोले ,'' मैंने नोएडा में मकान ले लिया है । एक महीने में शिफ्ट कर जाऊंगा ।''

जिन्दगी भर दास साहब 'एक ऐसी महत्वाकांक्षा पाले रहे जिसकी पूर्ति संभव नहीं थी , लेकिन अपने को उस रूप में प्रस्तुत करने की आदत वह कभी छोड़ नहीं पाए । इस मनोवैज्ञानिक कमजोरी को मैंने यथासमय समझ लिया था और उनके साथ मुझे कभी कोई परेशानी नहीं हुई । इसके बावजूद वह एक सहज ,सरल और भले व्यक्ति थे ।

एक बार मैं सपरिवार उनसे मिलने नोएडा गया ..... यह शायद 1997 की बात है । वह कुछ और दुबले हो गये थे , लेकिन प्रसन्न थे । उसके बाद उनसे मेरी मुलाकात नहीं हुई ।
********

शुक्रवार, 9 अप्रैल 2010

यादों की लकीरें




संस्मरण

अस्थिर स्वभाव थे डॉ0 लक्ष्मीनारायण लाल

रूपसिंह चन्देल
मार्च 1979 के दूसरे शनिवार ( 9।03.1979 ) का खुशनुमा दिन । यानी मुरादनगर की 'विविधा' संस्था के सदस्यों को संस्था के वरिष्ठ सदस्य स्व0 प्रेमचन्द गर्ग के सरकारी मकान में अपरान्ह चार बजे काव्य गोष्ठी के लिए एकत्रित होना था । सुभाष नीरव को छोड़ हम सभी वहां पहुंचे। नीरव सुबह दिल्ली गए थे और गर्ग जी को कह गए थे कि गोष्ठी प्रारंभ होने तक वह लौट आएगें ।

आध घण्टा बीत जाने के बाद भी जब नीरव नहीं लौटे, गोष्ठी प्रारंभ कर दी गई । संतराज सिंह उसकी अध्यक्षता कर रहे थे । आर्डनैंस फैक्ट्री में संतराज सिंह वैज्ञानिक और प्रशासनिक अधिकारी थे और गर्ग जी के बॉस थे । गर्ग जी बहुत विनम्र और मृदुल स्वभाव व्यक्ति थे। संतराज सिंह संस्था के संस्थापक सदस्यों में से थे और हमारी हर गोष्ठी में होते थे। गर्ग जी उनका विशेष खयाल रखते थे.......उनके लिए वह कवि कम अफसर ही अधिक होते थे । उनका खयाल रखते हुए ही साढ़े चार बजे काव्य पाठ प्रारंभ कर दिया गया था । सुधीर अज्ञात ( जो इन दिनों इंदौर में स्टेट बैंक ऑफ इंडिया की एक शाखा में मैनेजर हैं और अब 'अज्ञात' उपनाम का प्रयोग नहीं करते ) के कविता पाठ पर चर्चा शुरू ही हुई थी कि एक बड़ा-सा थैला कंधे से लटकाए हांफते हुए सुभाष नीरव पहली मंजिल के उस मकान में पहुंचे । चेहरे पर थकान स्पष्ट थी। प्रस्थान के लिए उद्यत मार्च की उस ठंड की ठुनक के बावजूद बस और रिक्शा की लटक-पटक और धूल-धक्कड़ उनकी बरौनियों पर चस्पां थी ।
कुछ देर के लिए कार्यक्रम स्थगित हुआ । सभी की नजरें नीरव के बैग पर टिकी थीं । उस बैग में क्या था केवल मैं ही जानता था ।
पानी पीकर नीरव ने बैग खोला और उसमें से 'यत्किंचित' की कुछ प्रतियां निकालीं । सबकी नजरें अब उस अड़तालीस पृष्ठों के कविता संग्रह पर टिक गयी थीं । मैं उसे हाथ में लेने के लिए विकल था। संतराज सिंह विचलित थे । उनका विचलन उनके चेहरे पर लटक आया था ।
''अरे वाह.....आप और चन्देल जी....आप दोनों को बधाई । '' भारी बैठे हुए गले से गर्ग जी ने हमें बधाई दी । उनकी आवाज ऐसी ही थी ।
नीरव ने एक-एक कर प्रतियां मित्रों की ओर बढ़ाईं - ''यह मेरा और चन्देल का संयुक्त कविता संग्रह है ।''
प्रति हाथ में पकड़ उसे खोले बिना ही संतराज सिंह उद्वेलित स्वर में बोले , ''यह क्या ढंग है पुस्तक भेंट करने का । हस्ताक्षर तक नहीं .... '' कुछ देर तक वह उलट-पलटकर उसकी साज-सज्जा देखते रहे फिर बोले , '' आप लोगों ने गुपचुप संग्रह छपवा लिया ...... यह ठीक नहीं......। ''
हम दोनों हत्प्रभ संतराज सिंह के चेहरे की ओर देखते रहे थे ।
''संस्था में और भी लोग हैं .... आप लोगों ने जिक्र तक करना उचित नहीं समझा ....।'' संतराज ने और भी बहुत कुछ कहा , जो आज याद नहीं । वह तेजी से उठे और किसी को कुछ कहने का अवसर दिए बिना ही सीढ़ियां उतरने लगे। गर्ग जी की परेशानी का अनुमान लगाया जा सकता है , जो उनके पीछे लपकते हुए सीढ़ियां उतर रहे थे ।
कुछ देर बाद गर्ग जी मायूस-से लौटे और मुंह के दोनों कोनों में झांक आए झाग में बुदबुदाते हुए बोले - ''यह उचित नहीं हुआ ।''
स्थिति अप्रिय हो चुकी थी । गोष्ठी समाप्त कर दी गयी और वह विविधा की अंतिम गोष्ठी सिध्द हुई थी । बाद में नीरव और मैंने इसका विश्लेषण किया और इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि उस क्षण संतराज सिंह का कुंठित कवि बोल रहा था .... ।
'यत्किंचित्' हम दोनों की पहली पुस्तक थी जिसे हमने अपने पैसों से छपवाया था । हम दोनों उससे बहुत उत्साहित थे । मैं अपने को बड़े कवियों की पंक्ति में आरूढ़ अनुभव करने लगा था ,लेकिन डॉ0 हरिवंशराय बच्चन ने मुझे वास्तविकता से परिचित करवाते हुए दो टूक शब्दों में लिखा -- ''तुममें काव्य प्रतिभा नहीं है। तुम कुछ और कुछ भी क्यों न बनो लेकिन कवि नहीं बन सकते।''
बच्चन जी का वह पत्र आज भी मेरे पास सुरक्षित है । लेकिन इस पत्र के मिलने से पूर्व हम दोनों कुंलाचें भरते हुए लोगों को पुस्तक की प्रतियां बांटते रहे थे । एक दिन मैंने नीरव से डॉ0 लक्ष्मीनारायण लाल के यहां जाने का प्रस्ताव किया । उन्हीं दिनों 'सारिका' में उनका आत्मकथ्य प्रकाशित हुआ था, जिसमें उनके जीवन संघर्ष से मैं प्रभावित हुआ था। उनसे मिलने के लिए लखनऊ के मेरे एक परिचित ने 1978 में मुझे प्रेरित किया था । डॉ0 लाल उनके बचपन के मित्र थे ।
उसके बाद ही मैंने डॉ0 लाल का साहित्य खोजकर पढ़ना प्रारंभ कर दिया था । हिन्दी कहानी पर उनका शोधग्रंथ चर्चित था । उन दिनों वह पत्र-पत्रिकाओं में धुंआधार लिख रहे थे ....सारिका, कादम्बिनी, साप्ताहिक हिन्दुस्तान, धर्मयुग, दैनिक हिन्दुस्तान...। लेकिन चाहकर भी मैं उनसे मिलने नहीं जा सका । अब 'यत्किंचित्' के रूप में उनसे मिलने जाने का हमारे पास एक आधार था ।
एक दिन हम दोनों ईस्ट पटेलनगर उनके घर जा पहुंचे । जिस व्यक्ति ने हमारा स्वागत किया उनका कद लगभग छ: फुट लंबा, शरीर हृष्ट-पुष्ट, बंटे जैसी बड़ी आकर्षक आंखे, चौड़ा गोल चेहरा और चेहरे पर पसरी मुस्कान… वही डॉ0 लक्ष्मीनारायण लाल थे ।
मिलने पर नहीं लगा कि डॉ0 लाल हमें पहचानते नहीं थे । संग्रह देख बधाई दी, प्रशंसा की और नीरव से उनकी दो-तीन कविताएं सुनीं । 'सारिका' के उनके आत्मकथ्य की चर्चा चलने पर विस्तार से अपने जीवन संघर्षों की उन्होंने चर्चा की । यह पूछने पर कि उन्होंने खालसा कॉलेज के प्राध्यापक पद से त्याग-पत्र क्यों दिया था, विस्तार से उन्होंने प्रमोशन में हुई धांधली और अपने साथ हुए अन्याय के विषय में बताया। उन्हें सुपरसीड कर उनसे जूनियर प्राध्यापक को रीडर बना दिए जाने पर उन्होंने त्याग-पत्र दे दिया था । उसके बाद नेशनल बुक ट्रस्ट में सम्पादक से लेकर घनश्यामदास बिरला की जीवनी लिखने तक की यात्रा...... कई चाहे-अनचाहे समझौते… आपात्काल के तुरंत बाद जयप्रकाश नारायण पर लिखी उनकी बहुचर्चित पुस्तक - 'एक प्रकाश : जयप्रकाश' आदि पर लगभग डेढ़ घण्टे तक हम चर्चा करते रहे थे। उस मुलाकात के दौरान जो स्मरणीय बात उन्होंने कही वह यह कि किसी भी साहित्यकार को स्वयं को पहचानना चाहिए कि वह वास्तव में क्या कर सकता है । उसे उसी दिशा में सक्रिय होना चाहिए। ''क्या कर सकने से उनका आभिप्राय था कि वह किस विधा विशेष विधा में अपनी लेखनी को सार्थकता प्रदान कर सकता है । उसे उसी में कार्य करना चाहिए । एक बात उन्होंने और कही थी, ''हर साहित्यकार के अंदर एक सम्पादक होता है । उसे निर्ममतापूर्वक अपनी रचनाओं का सम्पादन करना चाहिए ।''
उनकी ये दोनों बातें हम आज तक नहीं भूले । डॉ0 बच्चन और डॉ0 लाल ने मुझे अंतर्मंथन के लिए विवश किया और मैं इस निष्कर्ष पर पहुंचा कि मैं कवि नहीं कथाकार ही बन सकता हूं । लेकिन इन दोनों ने ही नीरव की पीठ ठोकी थी। खासकर बच्चन जी ने उनकी कविताओं की प्रशंसा करते हुए उन्हें अपना आशीर्वाद दिया था ।
डॉ0 लाल के साथ नीरव की वह प्रथम और अंतिम मुलाकात थी, लेकिन मैं गाहे-बगाहे उनके यहां जाता रहा । हर बार उनके नए स्वरूप के दर्शन होते मुझे । कभी वह बहुत प्रसन्न दिखते तो कभी उखड़े हुए । एक प्रश्न के उत्तर में उन्होंने बताया था कि वह नियम से लेखन करते हैं… सुबह नौ बजे से दोपहर एक बजे तक…फिर लंच के बाद कुछ विश्राम और चार बजे के बाद पुन: साहित्य… ।
उन दिनों कन्हैयालाल नंदन 'सारिका' के सम्पादक थे । एक दिन उनकी चर्चा चलने पर मैंने गर्वपूर्वक कहा , '' नंदन जी ने उसी इंटर कॉलेज से हाई स्कूल किया , जिससे मैंने और उनका गांव मेरे गांव से तीन मील के फासले पर है ।''
यह बात 1982 या 1983 की है ।
''फिर तुम्हारे उनसे अच्छे संबन्ध होगें ।''
''नहीं । नंदन जी से मैं अब तक केवल दो बार मिला हूं । वे शायद ही मुझे पहचानते हों ।''
''उनसे जब भी मिलना .....गांव की चर्चा मत करना ।''
''क्यों ?''
''गांव की चर्चा से वह बचते हैं ।'' डॉ0 लाल देर तक चुप रहे, फिर बोले, ''कल नंदन जी सपत्नीक मेरे यहां आए थे ....लंच पर ।'' वह फिर कुछ देर चुप रहकर बोले ,'' मैं प्राय: एक बात सोचता हूं ।'' मुस्कराते हुए उन्होंने कहा , ''हिन्दी पत्रकारिता में तीन आश्चर्य हैं।'' मुस्कान उनके चेहरे पर पूरी तरह फैल चुकी थी , ''कन्हैयालाल नंदन , राजेन्द्र अवस्थी और जयप्रकाश भारती ।''
''वह कैसे ?''
मेरे इस प्रश्न पर उन्होंने चुप्पी साध ली थी ।
इन्हीं दिनों एक दिन दफ्तर में उनका फोन आया , ''रविवार को क्या कर रहे हो ?''
''आज्ञा दें डाक्टर साहब ।''
''करोलबाग में पीतांबर पब्लिशिंग हाउस के यहां एक मीटिगं है .... तुम्हे आना है । ''
मैं गया । वहां शीला झुनझुनवाला (उन दिनों वह साप्ताहिक हिन्दुस्तान की सम्पादक थीं ) के पति , जो कहीं इनकमटेक्स कमिनश्नर थे , सुरेन्द्र शर्मा के अतिरिक्त अन्य कई लोग उपस्थित थे । प्रकाशक की ओर से डॉ0 लाल पर एक स्मारिका प्रकाशित की जानी थी और उनका अभिनन्दन होना था । स्मारिका के सम्पादन का कार्य मुझे सौंपा गया । अभिनंदन समारोह में मैं नहीं गया, लेकिन स्मारिका का संपादन करते हुए मुझे यह स्पष्ट हुआ कि साहित्यकार उनसे एक दूरी बनाकर रखना चाहते हैं । ये बातें बाद में समझ आयीं । उनके स्वभाव की अस्थिरता उसका सबसे बड़ा कारण था और दूसरा बड़ा कारण था । उनकी प्रसन्नता और नाराजगी अप्रत्याशित होते थे। स्वाभिमान अहंकार की सीमा चूमने लगता । श्रेष्ठता का भाव लोगों को उनसे दूर करता । संघर्ष के बाद उपलब्धियां प्राप्त करने वाले लोगों के साथ ऐसा ही होता है ।
एक बार ग्वालियर में उनके नाटकों का मंचन था । लौटने पर मुलाकात हुई तो बोले , ''रंग बरस रहा था .... रंग । लोगों की दृष्टि में मोहन राकेश बौने हो गए मेरे सामने । ''
शायद राकेश का भी कोई नाटक वहां मंचित हुआ था ।
डसके बाद अपनी व्यस्तताओं के कारण लगभग चार वर्षों तक मैं उनसे नहीं मिला। एक दिन एक पत्रिका में प्रकाशित उनके पते से ज्ञात हुआ- वह ईस्ट पटेल नगर से पश्चिम विहार डी0डी0ए0 फ्लैट में शिफ्ट हो गए थे । यह उनका अपना मकान था । 1988 में एक दिन मैं किसी कार्यवश पश्चिम विहार गया । लौटते समय उनके घर भी गया । चार वर्षों बाद मिलने की शिकायत… कहां रहे के उत्तर में कुछ मनगढंत कहानी… फिर लेखन आदि की चर्चा। बातचीत में उन्होंने पुन: अपनी वह सलाह दोहरायी जो उन्होंने 1983 के अंत में मुझे दी थी। उनकी वह सलाह भी मेरे लिए स्मरणीय रही । 1983 में मेरी पहली बड़ी पुस्तक किताबघर से प्रकाशित हुई थी - 'अपराध : समस्या और समाधान' । मैंने उन्हें पुस्तक दी थी । कुछ दिनों बाद मिलने पर उन्होंने कहा , '' विषय तो तुम्हारा नहीं है लेकिन तुमने परिश्रमपूर्वक शोधपूर्ण कार्य किया है । अपराध को अपने कथा साहित्य का विषय बनाओ। हिन्दी में ऐसे कथा-साहित्य का अभाव है । ''
संभव है उनकी यह सलाह अवचेतन में काम कर रही थी या वे पात्र ही इतनी प्रबलता से मुझे उद्वेलित करते रहे थे कि अनेक कहानियां और 'पाथर टीला' , 'नटसार' और 'शहर गवाह है' उपन्यास अपराधी प्रवृत्ति के चरित्रों को केन्द्र में रखकर लिखे गए । 'पाथर टीला' और 'नटसार' पूर्णरूप से खलनायक प्रधान उपन्यास हैं । कई आलोचकों ने कहा कि अंग्रेजी में खलनायक प्रधान उपन्यास का प्रारंभ 'गॉड फादर' से माना जाता है जबकि हिन्दी में पहली बार 'पाथर टीला' में ऐसा प्रयोग किया गया है ।
उन दिनों डॉ0 लाल को एक हिन्दी टाइपिस्ट की आवश्यकता थी । मेरे कार्यालय में एक जैन साहब थे.... एल.डी.सी. । उनसे चर्चा की। वह शनिवार -रविवार दस बजे से शाम पांच बजे तक उनके यहां काम करने के लिए तैयार थे । मैंने डॉ0 लाल से बात की । उन्होंने जैन साहब को बुला लिया । महीने में आठ दिनों का भुगतान तय होने के बाद जैन ने विनम्रतापूर्वक उनसे किसी एक शनिवार को आधे दिन की मोहलत देने का अनुरोध किया जिससे वह गृहस्थी के लिए आवश्यक वस्तुएं खरीद सकें । यह सुनते ही डाक्टर लाल हत्थे से उखड़ गए । जैन को उन्होंने इतना डांटा कि वह बेचारे रुआंसे होकर उनके घर से निकले । अगले दिन मुझे बताया । मैं भी आहत हुआ । उनके घर कभी न जाने का निर्णय किया लेकिन दफ्तर में लगातार उनके फोन आने लगे । एक दिन जाना पड़ा ।
डॉ0 लाल ऐसे मिले जैसे कुछ हुआ ही न था । बिल्कुल प्रसन्न । उन दिनों वह 1857 पर अवध के किसी ताल्लुकेदार पर केन्द्रित उपन्यास की तैयारी कर रहे थे । देर तक उसकी चर्चा होती रही । मैंने उन्हें प्रतापनारायण श्रीवास्तव का बहुचर्चित उपन्यास 'बेकसी का मज़ार' पढ़ने की सलाह दी ।
''तुम्हारे पास है ?''
''अपनी प्रति मैंने किताबघर के श्री सत्यव्रत शर्मा को दे दी थी उसके पुनर्मुद्रण के लिए। श्रीवास्तव जी की बेटी मेरे माध्यम से सत्यव्रत जी से मिल चुकी हैं । अनुबंध होते ही छप जाएगा ।''
''मैं सत्यव्रत से ले लूंगा ।''
उन दिनों किताबघर से उनकी पुस्तकें प्रकाशित हो रही थीं । उन्होंने शर्मा जी से वह उपन्यास ले लिया और मृत्युपर्यंत उसे वापस नहीं किया। वह उपन्यास पुन: मुद्रित नहीं हो सका ।
उपन्यास पर चर्चा चल ही रही थी कि फोन की घण्टी बजी । डॉ0 लाल लपककर दूसरे कमरे में गए । लौटे तब बहुत उत्तेजित थे ।
''तुम्हारी पीढ़ी के लेखकों को क्या हो गया है ?''
''क्या बात हुई डाक्टर साहब !''
''शकरपुर से फोन था---साप्ताहिक अखबार से (उन्होंने लेखक का नाम बताया) । मैं एक दस हजार रुपए के पुरस्कार का निर्णायक हूं... अकेला निर्णायक । इस युवा लेखक का आज यह चौथा फोन था ... वह चाहता है कि पुरस्कार मैं उसे दूं ।'' वह कुछ देर चुप रहे, ''मैंने उसे डांट दिया और दोबारा फोन न करने के लिए कह दिया।''
और सच ही उस वर्ष उस लेखक को वह पुरस्कार नहीं मिला , लेकिन उसके अगले वर्ष वह लेखक उस पुरस्कार को हासिल करने में सफल रहा था । उसके कुछ वर्षों बाद जब उसे मुम्बई (तब तक वह एक अखबार से संबध्द होकर मुम्बई पहुंच चुका था) के एक लेखक द्वारा अपनी पत्नी के नाम पर दिए जाने वाला दस हजार रुपयों का स्मृति पुरस्कार उसे मिला तब किसी को कतई आश्चर्य नहीं हुआ। बाद में वह पुरस्कार मुम्बई से बाहर स्थानांतरित हो गया था। पुरस्कार हासिल करने में उस लेखक को महारत हासिल है । उस लेखक की एक और क्षुद्रता का उल्लेख आवश्यक प्रतीत हो रहा है । हाल में एक दिन रात बारह बजे मुम्बई से एक युवा कवि का फोन आया । उनका पहला फोन था और पहली ही बार उन्होंने मुझसे लगभग एक घण्टा बात की और अपनी तीन कविताएं सुनाई । बातचीत प्रारंभ करते समय उस लेखक के विषय में उस युवा कवि ने बताया कि एक दिन उन्होंने उस लेखक से मेरी चर्चा की तो उसने मोटी भर्रायी आवाज में कहा , ''राजेन्द्र यादव की सीढ़ियों पर सुबह से शाम तक बैठे रहने वाले लेखक का नाम है रूपसिंह चन्देल ।''
उस युवा कवि से अपने बारे में उस लेखक के उद्गार सुनकर मैं बिल्कुल हत्प्रभ नहीं था । मैंने युवा कवि से कहा, '' आपने उससे गलत समय में मेरे बारे में पूछा होगा। निश्चित ही उस क्षण वह कई बोतल शराब के नशे में रहा होगा ।''
युवा कवि ने हंसते हुए कहा , '' शायद… शराब, चाटुकारिता और अवसरवादिता उस लेखक की कमजोरी हैं ।'' क्षणिक चुप्पी के बाद उन्होंने कहा, '' और पीत पत्रकारिता भी…।''

........तो उस लेखक और हमारी पीढ़ी पर देर तक बोलने के बाद डॉ0 लाल जैन साहब के बारे में बोलने लगे थे । फिर लंबी चुप्पी .... सन्नाटा .... सन्नाटे को तोड़ता पंखे की हवा से फड़फड़ाता तिपाई पर रखा अखबार…। कुछ देर बाद उन्होंने पत्नी को आवाज दे चाय बनवाई और चाय पीते हुए वे बिल्कुल दूसरे ही डॉक्टर लक्ष्मीनारायण लाल हो गए थे । उन्होंने फिर अपने लिए फुल टाइम किसी टापपिस्ट की व्यवस्था कर देने के लिए कहा ।
उन दिनों मैं शक्तिनगर में रहता था और आर.के.पुरम में नौकरी करता था । मेरे पड़ोस की एक महिला भी आर.के.पुरम में नौकरी करती थीं, और प्राय: शाम को वह उसी बस में होतीं जिसमें मैं होता। कई वर्षों तक संवादहीनता के बाद एक दिन उन्होंने वार्तालाप प्रारंभ की और उसके बाद सामने पड़ने पर हमारी 'हलो' 'नमस्ते' होने लगी । एक दिन उन्होंने मोहल्ले की एक लड़की का जिक्र करते हुए कहा कि उसके लिए किसी प्रकाशक के यहां टाइपिगं का काम दिलवाऊं। लड़की ने हिन्दी -अंग्रेजी स्टेनोग्राफी सीख रखी थी । मुझे डॉ0 लाल की याद हो आयी । उनसे चर्चा की तो उसी शाम वह उस लड़की को मुझसे मिलवाने ले आयीं । मां और बड़ी बहन के साथ वह कुछ मकान छोड़कर किराए पर रहती थी । उसके पिता की मृत्यु हो चुकी थी । भाई नहीं था । वह डॉ0 लाल के यहां जाने के लिए तैयार हो गयी ।
आगामी रविवार को पड़ोस की वह महिला (श्रीमती अरुणा आवेल) उस युवती को लेकर डॉ0 लाल के घर गयीं । पगार , छुट्टी , समय ....काम... आदि तय हो गया और वह युवती दो बसें बदलकर उनके घर जाने लगी । एक महीना बीता । उसे पगार मिली और वह मेरे घर लड्डू देने आयी । दूसरा महीना बीता भी नहीं था कि श्रीमती आवेल ने बताया कि उस लड़की ने डॉ0 लाल के यहां जाना छोड़ दिया ।
''कहीं दूसरी जगह नौकरी मिल गयी ?''
''नहीं।''
''फिर ?''
कुछ देर वह चुप रहीं फिर बोलीं ,''डाक्टर साहब उसे बहुत डांटते थे। टॉयलेट जाने तक के लिए टोकते थे .... कामचोरी का आरोप लगाते थे ।''
मैं शर्मसार था । उस लड़की के दिए लड्डुओं की मिठास मुंह से मिटी भी नहीं थी और डॉ0 लाल..... उन्होंने मेरे माध्यम से काम करने गए दूसरे व्यक्ति का अपमान किया था .... और इस बार एक लड़की का । मुझे ऐसा लगा कि श्रीमती आवेल ने कुछ बातें छुपायी थीं । शायद इसलिए कि वह लड़की थी । मैं लंबे समय तक श्रीमती आवेल के सामने पड़ने से बचता रहा । हालांकि वह सामान्य थीं । उसके बाद मैं डॉ0 लाल के घर कभी नहीं गया और न ही मेरे पास उनका कभी फोन आया ।
*******