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शुक्रवार, 29 जून 2012

यादों की लकीरें - भाग दो









संस्मरण - ६

एक ईमानदार और खुद्दार लेखक थे अरुण प्रकाश
रूपसिंह चन्देल

एक कहानीकार के रूप में अरुण प्रकाश से मैं बहुत पहले से परिचित था, लेकिन व्यक्तिगत परिचय तब हुआ जब मैं  अभिरुचि प्रकाशन के लिए बीसवीं शताब्दी की उत्कृष्ट आंचलिक कहानियां’ सम्पादित कर रहा था.  यद्यपि एक कहानीकार के रूप में समकालीन कहानीकारों में अरुण का नाम शीर्ष पर था और उनकी कई कहानियां बहुचर्चित थीं, लेकिन वह अचानक उस दिन और अधिक चर्चित हो उठे थे जब अच्छी-खासी हिन्दी अधिकारी की अपनी नौकरी से त्यागपत्र देकर वह कमलेश्वर  के साथ दैनिक जागरण में आ गए थे. इसके दो कारण हो सकते हैं –पहला यह कि उन्हें सरकारी नौकरी रास नहीं आ रही थी, जैसा कि प्रायः लेखकों को नहीं आती  और दूसरा कारण कि वह पत्रकारिता में  अपनी प्रतिभा का अधिक विकास देख रहे थे. सही मायने में अरुण प्रकाश से मेरा यह पहला परिचय था. मैं उन्हें एक आदर्श के रूप में देखने लगा था. आदर्श इसलिए कि जिस सरकारी नौकरी को उन्होंने छोड़ दिया था उसे छोड़ने के उहा-पोह में मैं 1980 से  था.  1980 के अक्टूबर माह में नौकरी छोड़ने के इरादे से  मैंने हिन्द पॉकेट बुक्स’ में पहला साक्षात्कार दिया था, लेकिन तब तक न मेरा कोई अधिक साहित्यिक अवदान था और न ही कहीं सम्पादन का अनुभव. मुझे साक्षात्कार के लिए केवल इस आधार पर बुलाया गया था कि मैं कानपुर विश्वविद्यालय से हिन्दी में शोधरत था और कुछ अच्छी कहानियां भी मेरे खाते में थीं.

1982 तक मैं अपनी नौकरी से इस कदर ऊब चुका था कि किसी भी कीमत पर वहां से मुक्ति चाहने लगा था और एक मित्र की सलाह पर मैंने दिल्ली प्रेस को इस आशय का एक अंतर्देशीय पत्र भेज दिया था. दिली प्रेस मेरे नाम से  परिचित था. एक सप्ताह के अंदर वहां से परेशनाथ का पत्र आ गया. लेकिन इस मध्य मेरे हितैषी  मित्र डॉ. रत्नलाल शर्मा ने वहां का जो खाका खींचा था वह बेहद भयावह था. एक नर्क से छूटकर उससे भी बड़े दूसरे नर्क में फंसने जैसा---मैं नहीं गया. पन्द्रह दिन बाद परेशनाथ  का एक और पत्र आया, लेकिन न मैंने उत्तर दिया और न ही वहां गया. वहां नहीं गया, लेकिन नौकरी बदलने के प्रयत्न चलते रहे. कई महाविद्यालयों में साक्षात्कार दिए, लेकिन न मैं कच्छाधारी था और न ही घोषित मार्क्सवादी. दिल्ली विश्वविद्यालय में प्रध्यापकी के लिए इनमें से एक का होना अनिवार्य था.  नौकरी मैं बदलना चाहता था लेकिन अपनी योग्यता के बल पर. हालांकि तब तक कितने ही ऎसे लोगों से मेरा सम्पर्क हो चुका था जो पत्रकारिता की दुनिया में ऎसी स्थिति में थे कि कहने पर मेरे लिए कुछ व्यवस्था अवश्य कर देते, लेकिन मुझे वह सब स्वीकार नहीं था. अस्तु ! मैं उसी नौकरी को करने के लिए अभिशप्त रहा. लेकिन नौकरी छोड़ने के अपने स्वप्न को मैंने कभी मरने नहीं दिया (अंततः नवम्बर,२००४ में मैं उसे अलविदा कह सका था) . लेकिन जब पता चला  कि अरुण प्रकाश ने नौकरी से त्यागपत्र दे दिया है तब उनके उस निर्णय ने मुझे प्रभावित किया था. कमलेश्वर ने उनकी योग्यता को पहचाना और उन्हें अपनी टीम में शामिल किया था  और वह सदैव कमलेश्वर के अभिन्न रहे. कमलेश्वर ने स्वयं मुझसे उनकी प्रशंसा करते हुए उन्हें एक प्रतिभाशाली कथाकार कहा था. मालिकों से मतभेद होने के बाद जब कमलेश्वर जागरण से अलग हुए, उनकी टीम भी छिन्न-भिन्न हो गई थी. शेष लोगों की बात मैं नहीं जानता लेकिन कमलेश्वर अरुण को कभी नहीं भूले. जब भी उन्हें अवसर मिला अरुण प्रकाश को साथ रखा. लेकिन कितना ही ऎसा वक्त रहा जब अरुण को फ्रीलांसिग करनी पड़ी. फ्रीलांसिंग करना कितना कठिन है, यह करने वाला ही जानता है और उस व्यक्ति के लिए तो और भी कठिन है जो खुद्दार हो---घुटने न टेकने वाला और अपने श्रम के सही मूल्य के लिए अड़ जाने वाला हो.
बात 1996 की है. अरुण प्रकाश को मैंने उनकी एक आंचलिक कहानी के लिए फोन किया. बहुत ही धीर गंभीर आवाज में वह बोले, “चन्देल, कहानी तो तुम कोई भी ले लो---लेकिन मुझे पहले यह बताओ कि प्रकाशक कहानीकारों को दे क्या रहा है?”
“अरुण जी, प्रकाशक ने प्रत्येक कहानीकार को दो सौ रुपए और उस खंड की प्रति जिसमें लेखक की कहानी होगी.”
            “पहली बात यह कि पारिश्रमिक कम है---कम से कम पांच सौ होना चाहिए और दूसरी बात कि दोनों खंड ही लेखकों को मिलने चाहिए.”
“मैं आपकी बात श्रीकृष्ण जी तक पहुंचा दूंगा. फिर भी यह बता दूं कि पारिश्रमिक पर मैं पहले ही उनसे बहस कर चुका हूं. वह दो सौ से अधिक देने की स्थिति में नहीं हैं. यह बात तो मैं अपनी ओर से स्पष्ट कर ही सकता हूं. रही बात दोनों खण्ड देने की तो मुझे विश्वास है कि इस बात के लिए वह इंकार नहीं करेंगे.” मैंने कहा.
“मैंने तो लेखकीय हक की बात की. हम लेखकों को अपने अधिकार के प्रति जागरूक होने की आवश्यकता है.” क्षण भर के लिए अरुण प्रकाश रुके थे, शायद कुछ सोचने लगे थे, फिर बोले थे, “चन्देल, तुम जो कहानी चाहो वह ले लो---मैं श्रीकृष्ण की स्थिति जानता हूं. तुम्हे और उन्हें कहानी देने से इंकार नहीं कर सकता.जैसा चाहो करो.”

अरुण प्रकाश के साथ मेरी कोई ऎसी मुलाकात जिसे मैं निजी मुलाकात कहूं नहीं थी. प्रायः वह साहित्यिक कार्यक्रमों में मिलते और कई बार हंस कार्यालय में भी उनसे मिलने के अवसर मिले. लेकिन कभी लंबी बातें नहीं हुईं. मैंने सदैव उनके स्वभाव में एक अक्खड़पन अनुभव किया. इसे मैं उनकी लेखकीय ईमानदारी और खुद्दारी मानता हूं. जो मन में होता वह कह देते. वह स्वभाव से विवश थे.
मेरे उपन्यास ’पाथर टीला’ पर 12 मार्च, 1999 को गांधी शांति प्रतिष्ठान में गोष्ठी के दौरान डॉ. ज्योतिष जोशी और डॉ. कुमुद शर्मा ने जिन दो टूक शब्दों में मैत्रेयी पुष्पा को उसमें गांव न होने के उनके कथन पर उत्तर दिए थे वह तो उल्लेखनीय थे ही अरुण प्रकाश ने जो कहा उसने मैत्रेयी पुष्पा के गांव के ज्ञान पर ही प्रश्न चिन्ह लगा दिया था.

बहुत भटकाव के बाद अरुण प्रकाश  को पत्रकारिता के क्षेत्र में कुछ करने का अवसर तब मिला जब वह साहित्य अकादमी की पत्रिका समकालीन भारतीय साहित्य’ के सम्पादक नियुक्त हुए थे. वहां उनकी नियुक्ति उन लोगों को हजम नहीं हुई थी जो स्वयं उस सीट पर बैठना चाहते थे. अरुण पर कीचड़ उछालने के लिए कुछ समाचार पत्रों का दुरुपयोग किया गया था. लेकिन अरुण प्रकाश ने उस सबको गंभीरता से नहीं लिया था. केवल इतना कहा था, “ खिसियानी बिल्ली खंभा नोचे वाली  कहावत चरितार्थ हो रही है. होने दो.  अपनी पूरी क्षमता और ऊर्जा के साथ अरुण ने पत्रिका के अंक निकाले और नये मानदंड स्थापित किए. उनकी नियुक्ति तीन वर्ष के लिए हुई थी और अकादमी के नियम के अनुसार साठ वर्ष से कम आयु के व्यक्ति को ही तीन वर्ष के लिए आगामी नियुक्ति मिलनी थी. अरुण शायद साठ के निकट थे या पूरे कर चुके थे. उन्हें तो नियुक्ति नहीं मिली, लेकिन उनके हटते ही अकादमी ने अपने नियमों में परिवर्तन किए  थे…. आयु सीमा बढ़ा दी  थी.
एक बार अरुण प्रकाश पुनः संघर्ष-पथ पर चल पड़े थे. लेकिन यह पथ उस ओर उन्हें ले जाएगा जहां से कोई वापस नहीं लौटता शायद उन्होंने भी कल्पना नहीं की होगी. भयंकर बीमारी के बाद भी  कर्मरत रहते हुए उन्होंने नई पीढ़ी के लिए  यह संदेश दिया कि न टूटो और न झुको---विपरीत परिस्थियों में भी कर्मरत रहो. बिहार के बेगूसराय में 22 फरवरी 1948 को जन्मे इस विशिष्ट कथाकार की देह का अवसान 18 जून, 2012 को दिल्ली के पटेल चेस्ट इंस्टीट्यूट में हो गया. हिन्दी ने एक प्रखर प्रतिभा और आन-बान के धनी साहित्यकार को खो दिया जिसकी क्षतिपूर्ति संभव नहीं है.
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शुक्रवार, 22 जून 2012

यादों की लकीरें - भाग दो







माइकी





संस्मरण-५


टीपू

रूपसिंह चन्देल

 दिसंबर,१९६५ के आखिरी दिनों की बात है. ठिठुरती ठंड थी. तेज पछुआ हवाएं चल रहीं थी जो गर्म कपड़ों को भेदती बदन को सिहरा देतीं.  इमली के विशालकाय पेड़, जो अधबने गांव पंचायत भवन और सत्तो जमादारिन के घर के बीच सड़क किनारे पत्रविहीन फलों से लदा-फदा सिर उठाए खड़ा था, के नीचे मां ने उसे लुढ़कते-चीखते देखा था.  उसके तीन और भाई-बहन थे, लेकिन उन सबमें शायद वही अधिक कमजोर था. अपनी मां की कोशिशों के बावजूद वह खाली पड़े पंचायत भवन का ऊंचा चबूतरा नहीं चढ़ पाता था जबकि उसके भाई बहनों ने तेज ठंडी हवा से बचने के लिए वहां शरण ले रखी थी. दिन में जब तेज धूप निकलती वे मां के साथ बाहर निकलते और इमली के पेड़ के इर्द-गिर्द दौड़ते घूमते. तब वह भी उनके साथ हो लेता. पकी इमली चुगने या ढेलों से कच्ची तोड़ गिराने के लालच में जब भी मैं पेड़ के नीचे गया उसे पेड़ और पंचायत भवन के बीच डोलते पाया. लेकिन मैं अधिक ध्यान नहीं दे सका शायद इसलिए कि मेरे ध्यान में इमली होती थी.

मां प्रतिदिन सुबह-शाम गाय-भैंसे दोहने के लिए घेर जाते समय उधर से निकलतीं और उसे देखतीं. उस दिन ठंड कुछ अधिक ही थी. शाम दूध दुहकर  घर लौटने पर उन्होंने उसका जिक्र किया,”इतनी ठंड में मर जाएगा बेचारा.” मां का स्वर द्रवित था.

“हम उसे पाल न लें?” मैंने कहा, “मैंने भी उसे देखा है—बहुत प्यारा है …”

“बाबू से पूछ लो.” बाबू का अर्थ पिता से था. कलकत्ता से अवकाश प्राप्त करके गांव लौटने के बाद पिता जी ने नाना द्वारा दिए गए खाली पड़े एक हजार वर्ग गज के प्लॉट को चहार दिवारी करवाकर उसमें एक बड़ा कमरा, जिसे गांव में कोठरी कहा जाता है,  बनावाया था, जो दो भागों में बटा हुआ था. आधे भाग को जाड़े के दिनों में गाय-भैंसों को बांधने के लिए उपयोग किया जाता और आधे में भूसा भरा जाता था.  कोठरी के बाहर छप्पर डाला गया था, जिसके एक ओर जानवरों के लिए नांदे बनायी गयीं थीं और दूसरी ओर लेटने-बैठने की व्यवस्था की गयी थी. पिता जी ने उसे ही अपनी कुटी बना लिया था, जो पासियों के मोहल्ले  के बीच  घर से दस मिनट के रास्ते पर था. वह सुबह नाश्ता, दोपहर भोजन और कुछ देर आराम करने और रात भोजन के लिए ही घर आते थे.

उसे लाने के लिए मेरी छोटी बहन मुन्नी भी उत्साहित थी. रात बाबू जब भोजन के लिए आए हम दोनों ने उन्हें उसके विषय में बताया और उसे घर लाने की जिद की.

“अपनी अम्मा से पूछ लो.” उन्होंने गेंद मां के पाले की ओर उछाल दी. वैसे भी उसे रहना घर में था और मां की अनुमति आवश्यक थी.

“अम्मा तैयार हैं.”

पिता जी चुप रहे. अगले दिन सुबह घेर से लौटते हुए मां उसे उठा लायीं. उन दिनों वह एक या डेढ़ महीने का था. कई दिनों तक हम उसके नामकरण पर बहस करते रहे. मैं उसका नाम टीपू रखना चाहता था. सभी के पास अपने नाम थे लेकिन अंततः मेरा सुझाया नाम ही रखा गया. मैं टीपू सुल्तान की वीरता से अत्यधिक प्रभावित था. शायद कुछ दिनों पहले ही उससे संबन्धित कुछ सामग्री मैंने पढ़ी थी और मेरे दिल और दिमाग पर वह नाम छाया हुआ था.

कुछ दिनों में ही वह हमारे आंगन में उछलने-कूदने लगा था. मैं नरवल से लौटता (जहां भास्करानंद इंटर कॉलेज में मैं नवीं कक्षा मे  पढ़ता था) और उसके साथ खेलता. बड़े भाई प्रति शनिवार अपने कार्यालय (एच.ए.एल.) से छूटकर अपरान्ह चार बजे तक गांव आ जाते थे. जब वह आए मैं उसके साथ घेर में था. मां और छोटी बहन भी वहीं थे. कुछ देर बाद भाई साहब वहां आए और मुझे उसके साथ खेलता देख उनकी भौंहें तन गयीं.

“इसे कहां से लाए?” उन्होंने सीधे मुझसे पूछा.

उन दिनों भाई साहब का घर पर बहुत दबदबा था. यह बात पहले भी लिख चुका हूं कि उन दिनों एक मात्र कमाने वाले वही थे. आर्थिक श्रोत के दो ही आधार थे. उनकी नौकरी और गाय-भैंसों का कटता जाने वाला दूध. भाई साहब का प्रश्न सुनकर मैं सकपका गया. वैसे भी उन्हें देखते ही मैं और मुन्नी इधर-उधर खिसक लेते थे. लेकिन इस बार निश्तार नहीं था. वह सामने खड़े प्रश्न कर रहे थे और मैं अपराधी की भांति मुंह लटकाए खड़ा था. वह अपनी मस्ती में घेर में घूम रहा था.

“इसे जहां से लाए हो---वहीं छोड़ आओ.” हुक्म सुनाकर भाई साहब घेर से बाहर निकल गए थे.

उनके जाते ही रुंआसे स्वर में हमने अम्मा से पूछा, “अब क्या करें?”

“कहीं नहीं जाएगा.” मां बोली थीं. मां हृदय से कोमल थीं, लेकिन बेहद जिद्दी. एक बार किसी बात का निश्चय कर लें तो हजार नुकसान के बाद भी वह अपनी बात पर अडिग रहती थीं. वह बेहद खुद्दार थीं. मां का निर्णय सुनकर हमारी बांछे खिल गयीं थीं.

“जगरूप (बड़े भाई) डेढ़ दिन के लिए आते हैं---यह उनका क्या बिगाड़ेगा---बड़ा होकर बाबू के साथ यहां घेर में रहेगा---सुरक्षा ही रहेगी.” मां ने दूर की बात सोच रखी थी.

घेर से लौटते हुए दूध की बाल्टी मैंने थामी थी और मां ने टीपू को गोद में उठा लिया था.

भाई साहब ने यह दृश्य देखा, लेकिन कुछ बोले नहीं. हमने सोचा कि उन्होंने उसे सड़क छाप कुत्ता सकझा होगा. अब उन्हें पता चला कि हमने इसे पाल लिया है इसीलिए चुप हैं.

रात या तो वह मेरे पायताने चारपाई पर रजाई के नीचे दुबका रहता या मां के. कुछ दिनों में ही वह  बड़ा और हृष्ट-पुष्ट हो गया. अब वह सुबह-शाम मां के साथ उनके बगल में चलता हुआ घेर जाता और उनके साथ लौटता—उनके बॉडीगार्ड की भांति.

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समय बीतता गया. एक वर्ष में उसने अपनी पूरी ग्रोथ ले ली. था तो देसी नस्ल का लेकिन देखने में सुन्दर था. कुछ दिनों तक चुप रहने के बाद भाई साहब ने पुनः उसे भगा देने का राग अलापना शुरू कर दिया था. हमारा प्रयास होता कि  शनिवार-रविवार वह अधिक से अधिक समय तक घेर में रहे. लेकिन पिता जी के खेतों की ओर जाने और मां के घर में रहने पर उसे अकेले वहां छोड़ा भी नहीं जा सकता था. ऎसी स्थिति में हम उसे मामा की चौपाल में रखते. उनका घर मेरे घर से जुड़ा हुआ था. लेकिन इस सबके बावजूद भाई साहब और मां के बीच उसे लेकर वाक युद्ध होने लगा था. मां किसी भी कीमत में उसे छोड़ने के लिए तैयार नहीं थीं. हम भी यही चाहते थे. जबकि भाई साहब उसे भगा देना चाहते थे. पिता जी अपने स्वभाव के अनुसार चुप रहते थे.

वह शाम मां के साथ जब घेर से लौटता घर के बाहर चबूतरे पर बैठता. मुस्लिम  मोहल्ला  मेरे मोहल्ले से सटा हुआ था और सुबह फतेहपुर-कानपुर शटल पकड़ने के लिए उस मोहल्ले के कुछ लोग तहमद बांध स्टेशन जाते और शाम उसी वेशभूषा में कानपुर से लौटते हुए मेरे दरवाजे के सामने से गुजरते. उन्हें देखकर वह भौंकता. आश्चर्यजनक बात यह थी कि गांव के अन्य किसी के भी वहां से निकलने पर वह भौंकता नहीं था. कुछ दिनों तक मुसलमानों ने दबी जुबान शिकायत की, “बिट्टी (मां का गांव का नाम) इसे बांधकर रखो—किसी को काट लेगा.”

लेकिन हम लोगों ने उसे बांधा नहीं.  एक दिन मुश्ताक अहमद ने जब मां से कहा, “बिटेऊ, हम सब पर ही क्यों भौंकता है?”

“भइया का कही?” मां ने उत्तर दिया.

“इसे हमारी बिरादरी से खास चिढ़ है. आप इसे बांधकर रखो वर्ना किसी दिन हम इसे गोली मार देंगे.”

कई मुसलमान परिवारों में दोनाली थी. मां ने एक-दो दिन सोचा फिर उसे सुबह-शाम बांधने लगीं. अब वह उन लोगों के आते-जाते उछल-उछलकर आक्रामक मुद्रा में भौंकता. बाद में स्थिति यह हुई कि वह दिन में भी किसी तहमद वाले को देखकर आक्रामक मुद्रा में भौंकने लगा था. उसे बांधकर रखन विवशता हो गयी. इसका परिणाम यह हुआ कि उसके चारों पैर टेढ़े हो गए.  उसकी चाल धीमी और खराब हो गयी थी. भाई साहब को जब वह स्वस्थ सुन्दर अवस्था में स्वीकार नहीं था तब उस स्थिति में वह उसे कैसे बर्दाश्त करते. अब प्रत्येक शनिवार-रविवार उसे लेकर मां से उनकी लंबी बहसें होने लगीं थीं. मां अपमानित अनुभव करती हुई रोतीं लेकिन टीपू को अपने से अलग न करने का अपना निर्णय दोहरा देतीं.

कुछ समय और बीता. १९६७ की होली का दिन था. सब होली के रंग में मस्त थे. टीपू मामा की चौपाल के बाहर  नीम के पेड़ के नीचे लेटा हुआ था. बारह बजे के लगभग भाई साहब उधर पहुंचे और उसे आराम फरमाते देखकर उनका पारा सातवें आसमान पर पहुंच गया. मैं चौपाल के बाहर चबूतरे पर बैठा हुआ था. मां घर में पकवान बना रही थीं. टीपू ने बड़े भाई को देखा तो सिमटकर बैठ गया. शायद कुछ अनहोनी को उसने भांप लिया था. बड़े भाई टीपू की ओर बढ़े और हुमककर उसकी पीठ पर लात जमाते हुए चीखे, “भाग स्साले---“.

टीपू किकियाता पासियों के मोहल्ले की ओर भाग गया. मेरा साहस नहीं हुआ कि मैं उसके पीछे दौड़कर जाता और उसे पकड़ लाता. भाई साहब वहां तब भी खड़े थे. मैं कलप कर रह गया. लेकिन यह सोचकर कि कुछ देर बाद टीपू स्वयं ही वापस लौट आएगा…मन को मनाकर रंग खेलने की तैयारी में व्यस्त हो गया था. मेरे गांव में रंग दोपहर दो बजे के बाद खेला जाता था.  लोग गाते-बजाते हर गली-मोहल्ले में हर दरवाजे जाते और रंग खेलते-गले मिलते. रंग देर रात तक चलता . रात नौ बजे के लगभग जब मैं घर लौटा मां ने टीपू के विषय में पूछा. मैंने दोपहर की घटना उन्हें बतायी. आहत स्वर में मां बोलीं, “आखिर जगरूप ने अपने मन का कर लिया…दोपहर खाने के लिए उसे खोजती रहीं---सभी जगह आवाज दी---घेर में खोजा, लेकिन वह नहीं मिला. इतनी रात बीत गयी –वह नहीं लौटा.”

मुझे याद है कि उस रात न मां ने भोजन किया और न मैंने. अगले दिन सुबह छः बजे ही भाई साहब कानपुर चले गए थे. साढ़े सात बजे उन्हें आफिस पहुंचना था. मैं टीपू को खोजने के लिए खेतों की ओर गया. स्टेशन गया---उसे बागों में आवाजें दी लेकिन उसका कहीं अता-पता नहीं था. घेर से लौटने के बाद मां ने भी गांव के आस-पास उसे खोजने का प्रयास किया . हमारी खोज कई दिनों तक जारी रही. हमने गांव के चारों ओर उसे खोजा---यहां तक आसपास के दूसरे गांवों में भी खोजने गया.यह जानने के लिए जंगल छान मारा कि कहीं किसी साउज ने उसे न खा लिया हो. लेकिन ऎसा भी नहीं दिखा. हमारे लिए यह रहस्य ही रहा कि वह कहां लुप्त हो गया था. निश्चित ही वह अपने विषय में घर में होने वाले कोहराम को समझता रहा होगा और भाई साहब की मार से आहत होकर उसने उस घर,गांव को  ही नहीं उस क्षेत्र को भी छोड़ देने का निर्णय किया होगा.

मैं टीपू को कभी भूल नहीं पाया. आज भी उसकी वही छवि मेरे मस्तिष्क में अंकित है. टीपू की स्मृति ही ने मुझे माइकी को लाने के लिए उत्साहित किया. माइकी आज  मेरे जीवन का ऎसा अभिन्न अंग बन गया है कि न यह मेरे बिना रह सकता है और न मैं इसके बिना.

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