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रविवार, 31 जनवरी 2010

यादों की लकीरें



संस्मरण

गर्दिश के साथी

रूपसिंह चन्देल
मैं उन्हें खान की क्लीनिक में बैठे या बाहर खड़े प्रतिदिन देखता । वह मेरी ही आयु के थे ..... लंबे...... लगभग पांच फीट आठ-नौ इंच , गोरे , स्लिम , स्वस्थ और सुन्दर । गोल , भरे गाल , सुतवां नाक , चमकती गोल आंखें , कुछ घुंघराले काले बाल...... प्रथम दृष्ट्या ही आकर्षक । मैं सुबह दस बजे घर से निकल जाता और शाम छः बजे के आस-पास कालोनी में प्रवेश करता । मैं प्रतिदिन शहर की एक दिशा नापता और खाली हाथ अगले दिन किस दिशा की फैक्ट्रियों-कंपनियों के मैनेजरों-पर्सनल अफसरों से मिलने जाना है यह तय करता घर लौटता । सुबह जाते समय वह मुझे अपने चौथे मंजिल के घर की बाल्कनी में खड़े दिखते और लौटते समय डाक्टर खान की क्लीनिक में या बाहर खड़े । खान की क्लीनिक मेरे पहली मंजिल के घर के ठीक सामने थी ।
यह 1970 के उत्तरार्ध की बात है । मैं बेगमपुरवा की म्यूनिसिपल कालोनी में बड़े भाई के साथ रहता था । उन दिनों मैं एक ऐसी बीमारी का शिकार था जिसके विषय में मैं स्वयं नहीं जान पा रहा था और बड़े भाई का कहना था कि दरअसल मुझे कोई बीमारी नहीं , केवल ‘शक’ की बीमारी है । लेकिन में जानता था कि कुछ ऐसा था अवश्य जिसके कारण मेरा वजन निरंतर घट रहा था और भूख मरती जा रही थी । मैं भाई की विवशता समझता था और उनसे कभी किसी बड़े डाक्टर या अस्पताल की बात नहीं करता था । छोटी नौकरी में , जो छः सात वर्ष पुरानी ही थी , बड़े परिवार का बोझ था उन पर । मैं चाहता था कि नौकरी लगे तो स्वयं ही किसी अच्छे डाक्टर से संपर्क करूं , लेकिन नौकरी मुझे दूर से ही ठेंगा दिखा रही थी । कुछ दिन एक वकील के यहां सेवादारी करके कुछ पैसे बचाए थे जिनसे मैं कुछ दिनों तक आइन्स्टाइन जैसे दिखने वाले एक होम्योपैथ डाक्टर की शरण में रहा जिसने मुझे मीठी गोलियों के साथ दलिया सेवन की सलाह दी थी । उससे लाभ नहीं हुआ । तब मैंने डाक्टर खान की शरण लेने का विचार किया , जिनसे खांसी-ज्वर हाने पर हम दवा लेते थे । ‘बड़े डाक्टर कभी जिस मर्ज को नहीं पकड़ पाते छोटे उसे पकड़ लेते हैं ’ उस समय मैंने यह सोचा और एक दिन डाक्टर खान के पास जा पहुंचा । शाम के सात बजे थे । वही समय होता था खान के आने का । यह तो मुझे बाद में पता चला कि डाक्टर खान नीम -हकीम डाक्टर थे । वह घण्टाघर में एक सरदार जी के धर्मकांटा में बतौर मैनेजर काम करते थे जहां बड़े ट्रकों को तौला जाता था ।
गहरे सांवले रंग के डाक्टर खान सदैव सफेद पैण्ट और हाफ शर्ट पहनते थे । सदैव उनके मुंह में पान रहता और पुराने अखबार में दो-चार बीड़े पान बंधे उनकी मेज पर रखे होते । उनकी क्लीनिक आठ बाई दस के कमरे में थी , जिसमें एक ओर हरे पर्दे के पार्टीशन में कंपाउडर दवाएं कूट-पीसकर....घोल बनाता रहता । उनके यहां बेगमपुरवा बस्ती के कुछ और शेष मरीज कालोनी के होते थे । लेकिन यदि एक मरीज होता तो चार उनसे गप हांकने वाले वहां बैठे होते जो मरीज जैसे ही दिखाई देते थे ।
उस दिन भी वह वहां बैठे अन्य लोगों के साथ ठहाके लगा रहे थे ।
मैंने खान को अपना कष्ट बताया । उन्होंने नब्ज देखी , पेट दबाया फिर आंखें फैलाकर देखीं और बोले , ‘‘ठाकुर साहब आपको कमजोरी है । यह टानिक लिख रहा हूं ..... सुबह-शाम खाने के बाद एक चम्मच लीजिए । बाकी जूस -दूध नियमित ........’’
मैंनें उनसे टानिक का पर्चा लिया और उनकी फीस देने लगा , जिसे उन्होंने , ‘‘तुम ठाकुर साहब के भाई हो ।’’ फीस लेने से इंकार कर दिया । कालोनी में भाई साहब को सभी ठाकुर साहब कहकर पुकारते थे और वहां उनकी अच्छी प्रतिष्ठा थी ।
मैं जब क्लीनिक से बाहर निकला वह भी मेरे पीछे बाहर आ गए ।
‘‘आजकल क्या कर रहे हो ?’’ उन्होंने सीधे पूछ लिया ।
‘‘मैं.....मैं नौकरी तलाश रहा हूं ।’’
‘‘नौकरी....।’’ क्षणभर के लिए उनके चेहरे पर गंभीरता पसर गयी । ‘‘हुंह .....नौकरी.....।’’
‘‘और आप ?’’ उन्हें असमजंस में पाकर मैंने पूछा ।
‘‘यार मैं भी इसी मर्ज से गाफिल हूं ।’’ वह फिर गंभीर हुए । क्षणभर बाद पूछा , ‘‘क्या किया है ?’’
‘‘बारहवीं की परीक्षा देनी है.....प्राइवेट । टाइपिगं जानता हूं । चालीस से ऊपर स्पीड है ।’’
वह मुझे घूरते हुए कुछ सोचते रहे । मैं भी उनके चेहरे पर नजरें गड़ाए उन्हें देखता रहा । हम खान के क्लीनिक से कुछ हटकर रेलवे कालोनी की ओर जाने वाले रास्ते के पास बिजली के खंभे के निकट आ खड़े हुए , जिस पर एक टिमटिमाता पीला बल्ब इस बात का अहसास करा रहा था कि उस कालोनी वालों पर केसा की मेहरबानी थी। अंधेरा घिर आया था और धुंए में डूबी कालोनी के घरों से बीमार रोशनी फूट रही थी । अमूमन हर दूसरे घर में अंगीठी सुलग रही थी । कुछ घरों के बाहर गृहणियां उन्हें सुलगाने का प्रयत्न करती दिख रही थीं । यह कालोनी रेलवे वर्कशाप के निकट थी , इसलिए कच्चा कोयला सहजता से मिल जाता था । कभी वह वर्कशाप ही कानपुर का मुख्य रेलवे स्टेशन हुआ करता था , जिसकी स्मृति को जीर्ण काठ का पुल आज भी सुरक्षित रखे हुए है।
‘‘फिर तो यार , कहीं न कहीं नौकरी मिल ही जानी चाहिए ।’’
‘‘कैसे ?’’
’’टाइपिगं जो आती है .... मुझे टाइपिगं आती होती तो .....?’’ वह चुप हो गए । लेकिन उन्होंने यह संकेत अवश्य दे दिया था कि वह भी मेरी तरह ही बेकार थे ।
‘‘आप भी सीख लें .....।’’
‘‘आपने कहां सीखी ?’’ उन्होंने पूछा ।
‘‘आई.टी.आई. में....लेकिन प्रैक्टिस के लिए अब सुबह किदवईनगर के शर्मा टाइपिगं इंस्टीट्यूट जाता हूं ।’’
वह देर तक कुछ सोचते रहे , फिर बोले , ‘‘यार , मुझे क्लर्की पसंद नहीं है । मैं अध्यापक बनना चाहता हूं ।’’
‘‘आपने क्या किया है ?’’
‘‘मैंने.........मैंने हमीरपुर से इण्टर पास किया है । वहीं का रहने वाला हूं ।’’
‘‘फिर प्राइमरी टीचर्स ट्रेनिगं कर लो ।’’
‘‘उससे भी नौकरी कहां मिलती है । यू.पी. में बी.टी.सी. किए हुए हजारों बेकार हैं ।’’
‘‘फिर.....?’’ मेरे प्रश्न पर वह सोच में डूब गए ।
‘‘वही.....फिर....।’’ और वह फिर चुप हो गए । हम देर तक खड़े रहे निर्वाक फिर हम अपने घरों को चले गए थे ।
*****
उसके बाद हम दोनों गहरे मित्र बन गए थे ।
उनका नाम था इकरामुर्रहमान हाशमी ।
अब हम दोनों ही सुबह एक साथ अपनी-अपनी साइकिलों पर निकलते । किदवईनगर या रेल बाजार तक साथ जाते , फिर हमारे रास्ते जुदा हो जाते थे । शाम हम पुनः खान की क्लीनिक के सामने मिलते और घण्टा-आध घण्टा दिनभर के अपने अनुभवों को बांटते ।
मार्च 1971 में बारहवीं की परीक्षा थी , इसलिए मैंने नौकरी के लिए दौड़ना छोड़ दिया । सुबह केवल टाइपिगं की प्रैक्टिस के लिए जाता और शेष समय पढ़ाई । हमारी शाम की मुलाकातें बदस्तूर जारी थीं और वह मुझे बताते कि चमनगंज के किसी मुसलमान नेता ने उनसे वायदा किया है कि वह जुलाई में उन्हें अपने स्कूल में बतौर हिन्दी अध्यापक नौकरी दे देगा ।
‘‘यार , वहां काम करते हुए मैं बी.ए. का प्राइवेट फार्म तो भर सकूंगा । बी.ए. करना आवश्यक है ।’’ उन्होंने कहा था ।
‘‘रेगुलर कर लो ।’’
‘‘नहीं ।’’ उनके स्वर में स्वाभिमान की गंध थी । ‘‘मैं भी बड़े भाई के साथ रह रहा हूं ... यही पर्याप्त है । उन पर अधिक बोझ नहीं डालना चाहता । अपने बल पर ही आगे की पढ़ाई करूंगा ।’’
उनके निर्णय की मैंने मन ही मन प्रशंसा की । उससे मुझे भी बल मिला था ।
उन दिनों कानपुर विश्वविद्यालय केवल अध्यापन से जुड़े लोगों को ही प्राइवेट बी.ए. की अनुमति देता था । अगस्त से फार्म भरने का सिलसिला प्रारंभ होता जो विलंब शुल्क के साथ अक्टूबर -नवम्बर तक चलता । मैं भी इण्टरमीडिएट तक सीमित नहीं रहना चाहता था .....लेकिन....वास्तव में हम दोनों की स्थिति एक-सी थी ।
जून 1971 में मेरा स्वास्थ्य अधिक ही खराब हो गया । एक दिन दोपहर इतनी घबड़ाहट हुई कि मैंने सी.ओ.डी. पोस्ट आफिस से भाई साहब को फोन कर दिया । वह घबड़ा गए । उन्होंने कुछ डाक्टरों की जानकारी अपने सहयोगियों से ली और शाम सवा पांच बजे आते ही (वह हिन्दुस्तान एयरोनाटिक्स लि. (HAL) में थे ) बोले , ‘‘कपड़े बदलो....डाक्टर के पास जाना है ।’’
मैं हत्प्रभ था । कल तक वह कहते थे कि मुझे ‘शक’ की बीमारी है.... लेकिन घर में सभी उनसे डरते थे और मैं तो उनसे दस वर्ष छोटा था । चुपचाप बिना कुछ कहे कपड़े बदल उनके साथ चल पड़ा था । किदवई नगर के वाई ब्लाक में डाक्टर भार्गव का क्लीनिक था जो कुछ दिन पहले तक कानपुर मेडिकल कालेज में रीडर पद पर कार्यरत थे , और घर में भी प्रैक्टिस करते थे । घर में उमड़ती भीड़ ने उन्हें नौकरी छोड़ने के लिए प्रेरित किया था । डाक्टर भार्गव ने बातचीत से ही मर्ज समझ लिया , लेकिन उसकी पुष्टि आवश्यक थी , अतः एक्सरे के लिए लिखा । अगले दिन एक्सरे के लिए मैं माल रोड गया । रपट में डाक्टर भार्गव की आशंका सही निकली थी । आंतो का अंतिम छोर आपस में लगभग मिल गया था । (डाक्टरों के मुताबिक इल्यूशिकिल आंत नैरो हो गयी थी ) मात्र सूत भर का अंतर..... यदि पन्द्रह दिन और बीत जाते तब उन आंतों के फट जाने का खतरा था.......अर्थात अवश्यभांवी मृत्यु ।
डाक्टर भार्गव ने सर्जन एस.पी. जैन के पास पत्र देकर भेजा , जो कोतवाली के पास अपनी साली के यहां रहते थे ,क्योंकि उनकी पत्नी की कुछ दिन पहले मृत्यु हो गयी थी और उनके तीन वर्ष की बेटी थी जो साली के यहां रहकर पल रही थी । मैं उनसे घर पर मिला । उन्होंने हैलट अस्पताल में , जहां वह सर्जन थे , मिलने के लिए कहा ।
अंततः 20 जून ‘1971 को उन्होंने मुझे हैलट में भर्ती कर लिया । सभी परीक्षण हुए और पता चला कि उस समय मेरा वजन केवल चालीस किलो था । डाक्टर जैन ने तुरंत आपरेशन न करने का निर्णय किया , क्योंकि उस स्थिति में मुझे बाहर से रक्त देना होता , जो वह नहीं चाहते थे । उचित उपचार प्रारंभ हो गया था , इसलिए पन्द्रह दिनों के लिए आपरेशन टाला जा सकता था । डाक्टर ने अधिक से अधिक मौसमी का जूस लेने की सलाह दी ।
इकराम प्रतिदिन मुझसे मिलने अस्पताल आते थे ।
उन दिनों मौसमी का छोटा गिलास सवा रुपया और बड़ा डेढ़ रुपए का था । मैं भोजन कम जूस अधिक लेने लगा और भाई साहब से पैसे कम लेने के निर्णय के कारण इकराम का एक सौ पचास रुपयों का कर्जदार हो गया । वे पैसे मैंने कब और कैसे वापस किए आज मुझे याद नहीं और न ही यह जान सका कि मेरी ही स्थिति में रह रहे इकराम ने उन पैसों की व्यवस्था कैसी की थी ।
*****
11 जुलाई 1971 को मेरा आपरेशन हुआ ....पांच घण्टे । इकराम सुबह ही अस्पताल पहुंच गए थे और मेरे होश में आने तक अर्थात शाम पांच बजे तक वहां रहे थे ।
जब अस्पताल से मुझे छुट्टी मिली मेरा वजन मात्र छत्तीस किलो था .... लेकिन तब मैं पूर्ण स्वस्थ था । अगले तीन महीनों में मैं इतना स्वस्थ हो गया कि मैं पुनः उस इनकम टैक्स-सेल्स टैक्स वकील के यहां पचास रुपए मासिक पर प्रतिदिन चार घण्टे के लिए काम पर जाने लगा था ... न चाहते हुए भी । अपने उपन्यास ‘शहर गवाह है’ में मैंने इसी वकील का चित्रण किया है । शाम इकराम के साथ हम बी.ए. करने की चर्चा करते । चमनगंज के नेता ने अपना वायदा पूरा नहीं किया था , जबकि इकराम ने जुलाई से कुछ दिनों तक उसके स्कूल में मुफ्त पढ़ाया था । जब उसने अनुभव प्रमाण पत्र देने से इंकार कर दिया , जिसके बिना इकराम प्राइवेट फार्म नहीं भर सकते थे , उन्होंने स्कूल छोड़ दिया था । वकील साहब के यहां तीन महीने जाने के बाद मैंने भी उन्हें नमस्ते कह दी थी । पुनः टाइपिगं की प्रैक्टिस के लिए मैं ‘शर्मा इंस्टीट्यूट’ जाने लगा था । जिन्दगी पुराने ढर्रे पर लौट आयी थी .....दिन भर शहर की धूल फांकता - घूमता और शाम हताश वापस ।
1972 शुरू हो गया था । एक दिन इकराम समाचार लाए कि फूड कार्पोरेशन आफ इंडिया में लेबर की बहुत-सी वेकेंसी आने वाली हैं ।
‘‘अपुन एक दिन झखरकटी एम्प्लायमेण्ट एक्सचेंज में रजिस्ट्रेशन करवा लेते हैं ।’’ वह बोले ।
‘‘लेकिन हम इण्टरमीडियेट हैं । हम गोटैहा में पहले ही रजिस्टर्ड हैं .... सर्टीफिकेट के पीछे वहां की मोहर लगी हुई है । ’’
‘‘यार हमें हाई स्कूल , इण्टर की सार्टीफिकेट दिखानी ही नहीं.... लेबर को आठवीं पास होना चाहिए.... वह प्रमाणपत्र है न ....?’’
‘‘हां....।’’
‘‘फिर कल ही चलते हैं ।’’
हम दोनों ने गंदे पायजामे पर गंदी कमीजें पहनी थीं जिससे लेबर जैसा दिखें । झखरकटी एम्प्लायमेण्ट एक्सचेंज घर से पांच-छः किलोमीटर की दूरी पर जी.टी. रोड पर था । क्लर्क ने हमें पहनावे से नहीं , बातचीत से भांप लिया कि हम आठवी नहीं...अधिक पढ़े लिखे हैं । उसने यह बात छुपायी भी नहीं । और हम पर एहसान जताते हुए उसने हमारा रजिस्ट्रेशन कर लिया था ।
लेकिन हमें वहां से कोई काल नहीं मिली । इकराम हर दिन फूड कार्पोरेशन की खबर लाते और हम हर दिन झखरकटी से लेबर की काल का इंतजार करते ....... समय बीत गया । अब हम पर पूरी तरह अध्यापक के रूप में बी.ए. करने का भूत सवार हो गया था । अध्यापन के प्रमाणपत्र अथवा किसी विद्यालय से अग्रसारण का जिम्मा इकराम ने संभाल रखा था । वह दिनभर केवल दो बातों के लिए धक्के खा रहे थे .... कहीं नियमित अध्यापकी और फार्म के अग्रसारण के लिए । वह सूचना लाते अमुक प्रधानाचार्य या प्रबन्धक ने तीन सौ रुपये लेकर अग्रसारित करने का वायदा किया है , ‘‘लेकिन यार मेरे पास कुल एक सौ पचास रुपये ही हैं ।’’ कुछ चुप रहकर वह कहते , ‘‘मैं कोशिश कर रहा हूं कि इतने में ही काम हो जाए....।’’
मैं उन्हें सुनता और सोचता ‘मेरे आपरेशन में भाई साहब को खासी रकम खर्च करनी पड़ी है .....कैसे उनसे रुपये मांगूगा । लेकिन मैंने अपना उत्साह भंग नहीं होने दिया । ‘रुपयों के बारे में तब सोचूगं जब किसी स्कूल में अग्रसरारण की बात पक्की हो जाएगी ।’’
लेकिन इकराम को अपने प्रयास में सफलता नहीं मिल रही थी ।
एक दिन शाम हम दोनों खान की क्लीनिक के बाहर खड़े उसी विषय पर गंभीरतापूर्वक चर्चा कर रहे थे कि कहीं से मेरे भाई साहब आ गये ।
‘‘क्या गुफ्तगू हो रहीं है ?’’
‘‘ठाकुर साहब , हमारी एक ही समस्या है .... बी.ए. का फार्म भरना ।’’
भाई साहब गंभीर हो गये । फिर मुझे सुनाते हुए बोले , ‘‘जितनी ऊर्जा इसके लिए नष्टट कर रहे हो ....उतनी यदि नौकरी पाने के लिए करते तो शायद नौकरी मिल जाती , तब करते बी.ए.....एम.ए....।’’
उनकी बात से मेरा ही नहीं इकराम का चेहरा भी राख हो गया था । भाई साहब चले गये और हम देर तक वहां खड़े रहे थे लेकिन शायद ही हमने कोई बात की थी । उस दिन के बाद उस समय मैंने बी.ए. करने का स्वप्न त्याग दिया था और शायद इकराम ने भी । मैंने गंभीरता से अपनी टाइपिगं स्पीड बढ़ाने पर ध्यान केन्द्रित कर लिया और इकराम ने अध्यापकी हासिल करने में ।
*****
एक दिन इकराम सूचना लेकर आये कि किसी ने उनसे वायदा किया है कि वह उन्हें हमीरपुर के एक इण्टर कालेज के प्राइमरी सेक्शन में उर्दू टीचर की नौकरी दिलवा सकता है बशर्तें उन्होंने आठवीं जमात तक उर्दू पढ़ी हो ।
‘‘तुम्हें उर्दू आती है ?’’
‘थोड़ी.... लेकिन जाकर अम्मी से पन्द्रह दिनों में सीख लूंगा ।’’ वह फिर गंभीर हो गये । कुछ देर बाद वह बोले , ‘‘लेकिन...।’’
‘‘लेकिन क्या ?’’
उन्होंने अपनी समस्या बतायी । कई दिनों तक हम उसके समाधान के विषय में सोचते रहे थे । और हमने समाधान खोज ही लिया था ।
अंततः इकराम को हमीरपुर के उस इण्टर कालेज के प्राइमरी सेक्शन में जब जुलाई में उर्दू अध्यापक की नौकरी मिली तब मुझे लगा था कि वह इकराम की ही नहीं मेरी भी सफलता थी ।
उनके कदमों को जमीन मिल गयी थी और उसके नौ महीने बाद मुझे भी । जब 1973 में कानपुर विश्वविद्यालय ने सभी के लिए प्राइवेट छात्र के रूप में बी.ए. करने की घोषणा की तब मैंने भी बी.ए. किया और इकराम ने भी । उसके बाद उन्होंने प्राइमरी टीचर्स ट्रेनिगं की स्कूल से अवकाश लेकर । मैंने जब एम.ए. कर लिया तब उन्होंने मुझे लिखा कि वह मेरी पुस्तकों और मेरे नोट्स से हिन्दी में एम.ए. करना चाहते हैं ।
उन्होंने वह भी किया और बी.एड. भी । लेकिन 1978 के बाद हम एक-दूसरे से नहीं मिल सके । उनके बारे में कुछ वर्षों बाद यह सूचना अवश्य मिली थी कि वह इण्टर कालेज में हिन्दी लेक्चरर हो गये थे ।
संभव है अब वह उस कालेज में अब प्रिसिंपल हों ।
******

बुधवार, 6 जनवरी 2010

यादों की लकीरें



संस्मरण

शोभालाल

रूपसिंह चन्देल

मध्यम कद , गहरा सांवला रंग,गठा हुआ शरीर, जो दण्ड-बैठक लगाने वाले व्यक्ति का होता है , और गोल चेहरा । चेहरे पर गंभीरता की चढ़ी पर्त और खोजती आंखें । जब उसने सेक्शन में प्रवेश किया ,उस समय मैं कुछ पढ़ने में तल्लीन था । उन दिनों मैं एम.ए.(हिन्दी) फाइनल का विद्यार्थी था और सीट पर जब काम नहीं होता था विषय की कोई पुस्तक पढ़ने लगता । काम ओैर पढ़ाई.... उन दिनों दफ्तर से लेकर हेस्टल तक मेरी यही दिनचर्या थी ।
वह प्रमोशन पाकर कानपुर से ट्रांसफर होकर आया था । मैं प्रशासन सेक्शन में था और नए आने वाले कर्मचारी को पहले वहीं रिपोर्ट करना होता था । सेक्शन में रिपोर्ट करने के बाद सेक्शन अफसर के निर्देशानुसार वह किसी सेक्शन में जा बैठाा था । दोपहर लंच के बाद वह सकुचाता हुआ मेरे पास आया और अपना परिचय देता हुआ बोला , ''सर, आपके लिए ओ.एन. दीक्षित जी का पत्र है ।''
''ओ0एन0 दीक्षित......'' पत्र लेते हुए मैं बुदबुदाया ।
''सर, आर्डनैंस इक्विपमेण्ट फैक्ट्री में....आपके ....।''
उसे आगे बोलने का अवसर न दे मैं बोला ,''समझ गया....।'' उसे पास बैठने का इशारा करते हुए मैं पत्र पढ़ने लगा । वह बैठा नहीं, पत्र पढ़ता हुआ उत्सुक निगाहों से मुझे देखता रहा । पत्र पढ़कर मैं गंभीर सोच में डूब गया ।
''सर, अगर कुछ नहीं हो सकता तब मैं किसी और से बात करूं....शायद....।''
''दो-चार दिन की कोई बात नहीं....तब तक कुछ व्यवस्था हो ही जाएगी ।''
''जी सर ।'' उसके चेहरे पर राहत झलक आयी थी ।
''सर , दीक्षित जी आपके बारे में अक्सर बातें करते थे....।'' उसके छोड़े स्थान को भरते हुए मैं बोला ,'' वह मेरे गांव के हैं । मेरे बड़े भाई के मित्र ...।''
''जी सर, बता रहे थे । उन्हें पूरा विश्वास था कि आप मेरे लिए कुछ अवश्य करेंगें ।''
''हुंह ।'' मैं पुन: पत्र पढ़ने लगा था ।
ओंकार नाथ दीक्षित को गांव में हम छुन्ना भाई साहब के नाम पुकारते थे। उनके पिता गांव नाते मेरे मामा होते थे , क्योंकि मेरा गांव मेरा ननिहाल भी था । उन्होंने लिख था, ''शोभालाल चपरासी से दफ्तरी प्रमोट होकर तुम्हारे कार्यालय में आ रहा है । विश्वास है कि तुम उसके रहने की समस्या के समाधान में उसकी सहायता करोगे ।'' कुछ ऐसा ही लिखा था छुन्ना भाई ने ।
''कितना सामान है आपके पास ?'' मेरी ओर उत्सुक द्ष्टि गड़ाए शोभालाल से मैंने पूछा।
''सर एक अटैची और एक बैग ।''
''मेरे साथ चलना । मैं फैक्ट्री होस्टल में रहता हूं । मेरे कमरे में दूसरा बेड खाली है । कुछ दिन गेस्ट के रूप में रह सकते हो । तब तक कुछ व्यवस्था हो ही जाएगी ।''
लेकिन गेस्ट के रूप में रहने आया शोभालाल मेरे साथ एक वर्ष से अधिक दिनों तक रहा बावजूद इसके कि होस्टल में वार्डन की अनुमति के बिना किसी अपरिचित को रखना गैर कानूनी था। वार्डन किसी गेस्ट के लिए सप्ताह-दस दिन से अधिक की अनुमति नहीं दे सकता था । लेकिन शोभालाल ने कुछ इस तरह मुझे प्रभावित किया कि सप्ताह भर बाद मैंने स्वयं उससे कहा ,''जब तक वार्डन आपत्ति नहीं करता...तुम यहीं रहो ।'' एक सप्ताह में ही मैं 'आप' से 'तुम' पर आ गया था...हालांकि वह कुछ वर्ष उम्र में मुझसे बड़ा था, लेकिन तब तक कानपुर का प्रभाव मुझ पर शेष था जहां आदर में बड़ों को भी 'तुम' पुकारने की छूट ले ली जाती हैं ।
शोभालाल ने पहले दिन से ही मुझे भोजन बनाने के कार्य से मुक्त कर दिया । एक सप्ताह में वह मुझे 'सर' के बजाय 'गुरू' कहने लगा था । यह शब्द उस दौर में कानपुर के लोगों का तकिया कलाम-सा होता था । आज भी कुछ लोगों की जुबान चढ़ा हुआ है ।
''आप पढ़ाई पर ध्यान दें....।'' शोभालाल बोला ,''मुझे तो कुछ करना नहीं है । आठवीं पास हूं ...दस साल की नौकरी में दफ्तरी हुआ हूं ...अधिक से अधिक क्लर्क बन जाऊंगा। इससे आगे कुछ नहीं गुरू जी...लेकिन आप पढ़कर बहुत आगे जा सकते हैं ...।''
मेरे लिए यह एक बड़ी राहत थी और राहत शोभालाल के लिए भी थी । कहीं बाहर रहने पर उसे किराए के साथ अंगीठी या स्टोव सुलगाने की जहमत उठानी पड़ती, जबकि होस्टल में हीटर था । होस्टल का किराया था सैंतीस रुपए और बिजली का निश्चित था पांच रुपए सत्तर पैसे । कितनी ही खर्च की जाये ।
होस्टल में रहने वाले सभी लोगों (दस या बारह लोग ही थे ) के प्रति शोभालाल का व्यवहार बहुत विनम्रतापूर्ण और मिलनसार था । बहुत दिनों तक लोगों ने यही समझा कि वह अधिकृतरूप से मेरे साथ रह रहा है ,लेकिन जब तक उसकी वास्तविकता लोगों में उद्धाटित होती उसके समुधुर व्यवहार ने उसके प्रति लोगों में सद्भाव उत्पन्न कर दिया था । जबकि सभी जानते थे कि होस्टल चतुर्थ श्रेणी के कर्मचारी को एलाट नहीं हो सकता था ।
दो महीने बाद मैंने होस्टल वार्डन से शोभालाल के विषय में बात की । सामान्य कद-काठी का वार्डन बत्रा फैक्ट्री में फोरमैन था , जिसके सिर के आगे के बाल अपना स्थान छोड़ चुके थे और गाल चूसकर फेके गये आम की भांति थे । चालीस के आस-पास की उम्र थी बत्रा की और कुछ दिन पहले ही उसकी शादी हुई थी । पत्नी की उम्र भी पैंतीस के लगभग थी और वह गेंहुए रंग की भरे-पूरे शरीर की स्वामिनी थी । बत्रा के लंब्रेटा स्कूटर पर बैठकर जब वह सब्जी खरीदने जा रही होती तब हम सोचते ,'' जोड़ा बुरा नहीं है ।''
''कितने दिन रहेगा ?'' बत्रा ने ठंठे स्वर में पूछा ।
''अभी तो आया है । जब तक कहीं एकमोडेशन नहीं मिल जाता....।''
''ठीक है , लेकिन जल्दी ही कोई बंदोबस्त कर लेने के लिए बोलने का....आप जानते हैं यहां बिना एलाटमेण्ट किसी को एलाउ नहीं ।''
''बत्रा साहब , आप बेफिक्र रहें ....जगह मिलते ही वह चला जायेगा ।''
बत्रा कुछ और कहता कि तभी उसकी पत्नी की आवाज सुनाई दी और वह हड़बड़ाता हुआ घर की ओर लपक गया था। मैं निश्चिंत हो गया था । उसे बताना आवश्यक था और मैं यह जानता था कि नई शादी की खुमारी में उसे होस्टल की चिन्ता न थी । एक वर्ष से वह वार्डन था और एक बार भी राउण्ड पर नहीं आया था ।
शोभालाल के साथ रहने से मुझे सुविधा थी । मेरे हिस्से के सभी काम वह कर देता...भोजन बनाने से लेकर दूध आदि लाने का ...। कमरे में हम प्राय: बातें नहीं करते थे । वहां होने पर या तो वह कुछ काम कर रहा होता या मंद स्वर में कोई फिल्मी गाना गुनगुना रहा होता । उसकी खूबी यह थी कि वह बेहद सफाई पसंद था , मितव्ययी भी । मितव्ययिता का कारण संभव है छोटी नौकरी रही हो, लेकिन वह जिस प्रकार टिप-टॉप रह, अनजान व्यक्ति सोच भी नहीं सकता था कि वह चतुर्थ श्रेणी कर्मचारी था ।
मेरे एम.ए. में प्रथम श्रेणी प्राप्त करने के पीछे शोभालाल के सहयोग की महत भूमिका मैं स्वीकार करता हूं ।
जिस दिन मुझे प्रथम श्रेणी उत्तीर्ण होने की सूचना मिली, शोभालाल शाम मेरे साथ सीधे होस्टल न जाकर बाजार गया था और अपने मित्र सरदार भूपिन्दर सिंह अरोड़ा को साथ लेकर होस्टल आया था । उसके हाथ में एक पैकेट था , जिसमें मिठाई थी ।
''लो गुरू ....।'' मिठाई मेरी ओर बढ़ाते हुए उसने कहा, ''फर्स्ट डिवीजन आने की खुशी में मेरी ओर से.... ''
''यार, यह तो मुझे....।'' शर्मिन्दा होते हुए मैं बोला ।
''गुरू जी....उसके लिए तो मैंने मना नहीं किया ।'' मेरी बात काट शोभालाल बोला ,''वह तो हमें खानी ही है ।''
शोभालाल ने होस्टल के कई लोगों को भी मिठाई बांटी ,'' हमारे गुरू जी एम.ए. में फर्स्ट डिवीजन पास हुए हैं उसी खुशी में...।'' उसने प्रमुदितभाव से सभी को बताया था ।
हम दोनो के साथ सरदार भूपिन्दर सिंह भी जुड़ गया था । वह भी हमारे कार्यालय में क्लर्क था और उसके पिता वहां वरिष्ठ लेखा परीक्षक । वह एक सीधा -सरल छ: फिट लंबा, सांवला और हंसमुख नौजवान था जो अपने पड़ोसी कपूर परिवार से परेशान रहता था । दोनों परिवार पश्चिम पाकिस्तान से आए थे, लेकिन उनमें सद्भाव का अभाव था । इसका कारण यह था कि दफ्तर का इंचार्ज ,डिप्टी कण्ट्रोलर, मंगलसेन कपूर थे और भूपिन्दर का पड़ोसी कपूर इंचार्ज का चमचा था और उसके बल पर वह सब पर रौब गांठता रहता था । वैसे सामने वह सभी से 'बादशाहो' कहकर विनम्रता प्रकट करता, लेकिन पीछे सबकी इंचार्ज से शिकायत करता । उसकी पत्नी का चरित्र गड़बड़ था और उसका घर दिन में दफ्तर के कुछ गड़बड़ चरित्र लोगों का अड्डा बना रहता था ।
उस कार्यालय में मेरे जो तीन-चार मित्र बने उनमें लेखा परीक्षक टी.के. मुखर्जी भी थे । मुखर्जी नाटे कद, साफ चमकता गेहुए रंग ,बड़े गोल चेहरे पर बड़ी-तीक्ष्ण आंखों और तीक्ष्ण बुध्दि वाले लगभग बत्तीस वर्ष के व्यक्ति थे। उनके मुताबिक वह दो बार आई.ए.एस. की परीक्षा उत्तीर्ण कर चुके थे, लेकिन साक्षात्कार में असफल रहे थे । परिचय के बाद वह बदन को जमा देने वाली शीतलहर वाले जाड़े के दिनों में अपने तबला वादन का आनंद लेने के लिए मुझे होस्टल से खींच ले जाते । प्राय: संगीत का कार्यक्रम फैक्ट्री एस्टेट में एक पंत जी के घर होता । मुखर्जी तबला बजाते ,पंत जी हारमानियम और उनकी पुत्री गाती थी।
मुखर्जी की विद्वत्ता से मैं प्रभावित था । जब तब वह मेरे यहां आ जाते । एक-दो बार उन्होंने मुझसे कुछ रुपये उधार लिए । और दो-तीन महीने विलंब से लौटा भी दिए । दफ्तर और होस्टल में सीमित रहने के कारण्ा मुझे उनके विषय में अधिक जानकारी नहीं थी .... और सच यह था कि किसी के विषय में कुछ जानने में मेरे रुचि भी नहीं थी । लोग मुझे अंहकारी या सिरफिरा समझते और कम ही बात करते, जो मेरे हित में था । लेकिन बात कब तक छुपती । शोभालल के आने के बाद मुखर्जी की कहानी ज्ञात हुई । उन्होंने अपने को सेक्शन अफसर बताकर (उन दिनों मेरे विभाग में यह एक सम्मानजनक पद था) रेलवे के डिप्टी डायरेक्टर की बेटी से विवाह किया था और उस झूठ को छुपाने के लिए शादी के बाद प्रदर्शन में इतना खर्च किया कि वह कर्ज के बोझ से दब गए । काबुली पठान से लेकर दफ्तर, फैक्ट्री और स्थानीय सूदखोरों ने उनसे कर्ज के ब्याज के रूप में मूल से कई गुना अधिक वसूल किया और स्थिति यहां तक आयी कि घर का लगभग सब सामान सूदखोर उठा ले गए थे । जब कि उनका मूल ज्यों का त्यों रहा था । मुखर्जी की वस्तुस्थिति जानने के बाद मुझे उनपर क्रोध आया और तरस भी । लेकिन एक शब्द कुछ कहा नहीं मैंने । अपना राजदार समझकर वह बहुत कुछ मूझे बताने लगे थे । वह कलकत्ता स्थानांतरण के लिए प्रयत्नशील थे जहां उनके भाई ,मां और ससुरबाड़ी थी । वहां पहुंचकर उनकी स्थिति सुधर जाएगी ऐसा उन्हें विश्वास था । उनकी पत्नी का सहयोग सराहनीय था जो अभावों में भी प्रसन्न दिखती थी । एक बार मेरे हाथ में घड़ी न देख उन्होंने पूछा, ''आपकी घोड़ी किधर गयी ?''
मैं परेशान सोच में डूब गया कि मैंने घोड़ी पाली ही कब थी । तभी मुखर्जी ने हंसकर कहा ,'' रूपसिंह यह आपकी घड़ी के बारे में पूछ रही हैं ।''
मुखर्जी के एक लड़की और एक लड़का था....छोटे....दो-तीन साल के । एक दिन उनका ट्रांसफर आर्डर आ गया । प्रशासन में रमेन्द्र बनर्जी सेक्शन अफसर थे । एस्टेट का भद्र बंगाली समाज मुखर्जी को पसंद नहीं करता था । बनर्जी के भी वह प्रिय न थे , लेकिन फिर भी उन्होंने वह गोपनीय सूचना उन्हें दी और पूछा वह कब रिलीव होना चाहेंगें ।
रात दस बजे मुखर्जी मेरे पास आए। वह गोपनीय सूचना मुझे देने के बाद पूछा ,''कब रिलीव होना चाहिए ?''
''तीन अप्रैल के लिए पहले आप कलकत्ता जाने का आरक्षण करवा लें और दो को रिलीव हो लें । तब तक आपको मार्च का वेतन भी मिल चुका होगा । ''
''लेकिन सूदखोरों को पता चला तो....?'' मुखर्जी के स्वर में कंपकपाहट थी । सूदखारों को सूचना मिलते ही मुखर्जी का मुरादनगर से निकलना कठिन हो जानेवाला था ।
मैंने उसी समय शोभालाल से परामर्श किया। ऐसे मामलों में वह अधिक व्यावहारिक ढंग से सोचता था । वह साहसी भी था । दो घण्टे तक हम विमर्श करते रहे । तय हुआ कि अंतिम दिन हमें भूपिन्दर सिंह की सेवाएं भी लेनी होगीं , लेकिन तब तक सब कुछ गुप्त रखा जाए ।
मैंने अपना ट्रंक और अटैची उन्हें पकड़ा दी । वे चीजें भी उनकी बिक चुकी थीं । आवश्यक सामान उनमें भरा गया । शेष दो बोरों में भरकर उन्हें सिल दिया गया । मुखर्जी ने बनर्जी से बात कर ली थी । तीन अप्रैल के लिए पुरानी दिल्ली रेलवे स्टेशन से शाम चार बजे चलने वाले जनता एक्सप्रेस से उन्हें कलकत्ता जाने का आरक्षण मिल गया था । दो को उन्हें वेतन और रिलीविगं आर्डर मिल जाना था । तय हुआ कि वह अपनी पत्नी और बच्चों को अपने मित्र मिस्टर रायर के घर रात में छोड़ देगें जहां से दोपहर बाद भूपिन्दर सिंह उन्हें लेकर बस से दिल्ली पहुंचेगा । मुखर्जी भी बस स्टैण्ड में उनसे जा मिलेगें । मैं और शोभालाल उनके घर से सामान लेकर बारह बजे की ट्रेन से पुरानी दिल्ली स्टेशन पहुंचेगें ।
कार्य बिल्कुल योजनानुसार सम्पन्न हुआ । मुखर्जी के घर से रिक्शों में सामान लाद जब हम स्टेशन जा रहे थे तब उस ब्लॉक की गृहणियां हमें देख रही थीं। उन सबके पति फैक्ट्री में थे । यदि वे होते तब हमारा रहस्य छुपा नहीं रह पाता । उन महिलाओं ने यही अनुमान लगाया होगा कि हम भी कोई सूदखोर हैं ।
स्टेशन पर हमें मेरठ से मछली बेचने आनेवाला मिला जो प्रतिदिन मेरठ से लाकर वहां मछलिया बेचता था । उसकी कुछ उधारी थी । उसे कुछ भनक लग गयी थी । उसे देखकर मुझे अफसोस हुआ । वह जब हमारे निकट आया, शोभालाल उसे सुनाते हुए मुझसे बोला ,'' गुरू आप चण्डीगढ़ पहुंचकर मुझे भूल मत जाना । पत्र जरूर लिखना ।''
''यार ,भूलूंगा कैसे ?'' मैं भी उतनी ही जोर से बोला था ।
''आप बहुत कठोर जो हैं ।''
'कठोर' शब्द शोभालाल का प्रिय शब्द था ।
मछलीवाला हमारा संवाद सुन आगे बढ़ गया था ।
पुरानी दिल्ली स्टेशन पर हमने क्लॉक रूम में सामान रखा । अटैची और ट्रंक रखने की समस्या न थी । बोरों के लिए बाबू तैयार नहीं था , जिसके लिए उसे कुछ देना पड़ा था। चार बजे के लगभग भूपिन्दर, मुखर्जी और उनका परिवार प्लेटफार्म नंबर बारह में हमसे आ मिले । टिकट के आधार पर मुखर्जी को रिटायरिंग रूम मिल गया । रात ग्यारह बजे जब हम होस्टल पहुंचे पता चला दफ्तर का सूदखोर जैन मेरे कमरे के दो चध्ककर काट गया था । सूदखोरों को अनुमान हो गया था कि चिड़िया उड़ गयी थी । अगले दिन पता चला कि दूसरा सूदखोर दिल्ली स्टेशन के चक्कर काट आया था । दफ्तर में जब हम तीनों से लोगों ने मुखर्जी के विषय में पूछा हमने यही कहा कि हमसे वह हरिद्वार जाने की बात कह रहे थे .... सपरिवार वहीं गये होगें .... शेष बनर्जी साहब बताएगें कि वह कब रिलीव होगें ।
''लेकिन तुम तीनों ...आप, भूपिन्दर और शोभालाल .....कल दफ्तर नहीं आए थे ।''
हमने पूर्व निर्धारित बहाने बता दिए थे ।
लेकिन हमारी बातों पर किसी को विश्वास नहीं हुआ था ।
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1977 में शोभालाल अपना परिवार ले आया और किराये के मकान में चला गया । जुलाई 1980 में मैंने अपना स्थानांतरण दिल्ली करवा लिया । उसके बाद शोभालाल से मेरी मुलाकात नहीं हुई । कुछ वर्षों वह मुरादनगर कार्यालय में रहा । वहां से प्रमोशन पर अण्डमान निकोबार और फिर प्रमोशन पर कानपुर । यह सूचना मुझे भूपिन्दर से मिलती रही जो यदा-कदा मुझसे मिलने आ जाया करता था । नौकरी से अवकाश प्राप्त कर शोभालाल अब कहां है मुझे जानकारी नहीं ंहै । लेकिन उसे भूल पाना संभव नहीं और भूल मैं भूपिन्दर सिंह को भी नहीं सकता, कुछ दिन पहले सुबह दूध लेने जाते समय किन्हीं अज्ञात लोगों ने जिसकी गोली मारकर हत्या कर दी थी । क्यों...? इसका उत्तर मुझे आज तक नहीं मिला । उस जैसे सीधे-सरल व्यक्ति के भी दुश्मन थे यह सोचकर आश्चर्य होता है ।
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