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मंगलवार, 5 अक्तूबर 2010

यादों की लकीरें


संस्मरण-३
प्रखर प्रतिभा के धनी थे नन्दन जी
रूपसिंह चन्देल
आठवें दशक के मध्य की बात है । धर्मयुग के किसी अंक में हृदयखेड़ा के एक सज्जन पर केन्द्रित रेखाचित्र प्रकाशित हुआ । हृदयखेड़ा मेरे गांव से तीन मील की दूरी पर दक्षिण की ओर पाण्डुनदी किनारे बसा गांव है, जहां मेरी छोटी बहन का विवाह 1967 में हुआ था । वर्ष में दो-तीन बार वहां जाना होता । रेखाचित्र जिसके विषय में था उन्हें मैं नहीं जानता था, लेकिन उसके लेखक के नाम से परिचित था । वह धर्मयुग के सहायक सम्पादक कन्हैंयालाल नन्दन थे । तब नन्दन जी के नाम से ही परिचित था, लेकिन उस रेखाचित्र ने मुझे इतना प्रभावित किया कि उसने नन्दन जी के प्रति मेरी उत्सुकता बढ़ा दी । मैंने बहनोई से पूछा । उन्होंने इतना ही बताया कि नन्दन जी उनके पड़ोसी गांव परसदेपुर के रहने वाले हैं । परसदेपुर का हृदयखेड़ा से फासला मात्र एक फर्लागं है । कितनी ही बार मैं उस गांव के बीच से होकर गुजर चुका था । मेरे गांव से उसकी दूरी भी तीन मील है.......बीच में करबिगवां रेलवे स्टेशन ...... यानी रेलवे लाइन के उत्तर मेरा गांव और दक्षिण परसदेपुर ।
इस जानकारी ने कि नन्दन जी मेरे पड़ोसी गांव के हैं उनके बारे में अधिक जानने की इच्छा उत्पन्न कर दी । उन दिनों मैं मुरादनगर में था और साहित्य से मेरा रिश्ता धर्मयुग, साप्ताहिक हिन्दुस्तान, कादम्बनी और सारिका आदि कुछ पत्र-पत्रिकाएं पढ़ने तक ही सीमित था । मैंने नन्दन जी के बारे में अपने भाई साहब से पूछा ।
‘‘तुम नहीं जानते ?’’ उनके प्रश्न से मैं अचकचा गया था । चुप रहा ।
‘‘रामावतार चेतन के बहनोई हैं । मुम्बई में रहते हैं .... परसदेपुर में सोनेलाल शुक्ल के पड़ोसी हैं ।’’ और वह करबिगवां स्टेशन में कभी हुई नन्दन जी से अपनी मुलाकात का जिक्र करने लगे ।
मैं अपनी अनभिज्ञता पर चुप ही रहा । सोनेलाल शुक्ल से कई बार मिला था, क्योंकि वह मेरे गांव आते रहते थे । मेरे पड़ोसी कृष्णकुमार त्रिवेदी उनके मामा थे और चेतन जी की कविताएं पत्र-पत्रिकाओं में पढ़ता रहा था ।
हिन्दी साहित्य की दो हस्तियां मेरे पड़ोसी गांव की थीं, इससे मैं गर्वित हुआ था ।
नन्दन जी से यह पहला परिचिय इतना आकर्षक था कि मैं उनसे मिलने के विषय में सोचने लगा, लेकिन यह संभव न था । कई वर्ष बीत गए । एक दिन ज्ञात हुआ कि नन्दन जी ‘सारिका’ के सम्पादक होकर दिल्ली आ गए हैं, लेकिन मित्रों ने उनकी व्यस्तता और महत्व का जो खाका खींचा उसने मुझे हतोत्साहित किया । मैं उनसे मिलने जाने की सोचता तो रहा, लेकिन कुछ तय नहीं कर पाया । तभी एक दिन एक मित्र ने बताया कि नन्दन जी मुरादगर आए थे.....कुछ दिन पहले ।
‘‘किसलिए ?’’
‘‘हमने काव्य गोष्ठी की थी उसकी अध्यक्षता के लिए ।’’
‘‘और मुझे सूचित नहीं किया !’’
मित्र चुप रहे । शायद मुझे सूचित न करने का उन्हें खेद हो रहा था ।
‘‘मैं मिलना चाहता था ।’’ मैंने शिथिल स्वर में कहा ।
‘‘इसमें मुश्किल क्या है ! कभी भी उनके घर-दफ्तर में जाकर मिल लो । बहुत ही आत्मीय व्यक्ति हैं । मैं दो बार उनसे उनके घर मिला हूं .....।’’
मित्र से नन्दन जी के घर का फोन नम्बर और पता लेने के बाद भी महीनों बीत गए । मैं नन्दन जी से मिलने जाने के विषय में सोचता ही रहा ।
****
अंततः अप्रैल 1979 के प्रथम सप्ताह मैंने एक दिन आर्डनैंस फैक्ट्री के टेलीफोन एक्सचैंज से नन्दन जी को फोन किया । अपना परिचय दिया और मिलने की इच्छा प्रकट की ।
‘‘किसी भी रविवार आ जाओ ।’’ धीर-गंभीर आवाज कानों से टकराई ।
‘‘इसी रविवार दस बजे तक मैं आपके यहां पहुंच जाऊंगा ।’’ मैंने कहा ।
‘‘ठीक है ....आइए ।’’
नन्दन जी उन दिनों जंगपुरा (शायद एच ब्लाक) में रहते थे । मैं ठीक समय पर उनके यहां पहुंचा । पायजामा पर सिल्क के क्रीम कलर कुर्ते पर उनका व्यक्तित्व भव्य और आकर्षक था । सब कुछ बहुत ही साफ-सुथरा ....आभिजात्य । नन्दन जी सोफे पर मेरे बगल में बैठे और भाभी जी हमारे सामने । हम चार धण्टों तक अबाध बातें करते रहे । तब तक किसी बड़े साहित्यकार-पत्रकार से मेरी पहली ही मुलाकात इतने लंबे समय तक नहीं हुई थी । गांव से लेकर शिक्षा , प्राध्यापकी, पत्रकारिता, साहित्य आदि पर नन्दन जी अपने विषय में बताते रहे । शायद ही कोई विषय ऐसा था जिस पर हमने चर्चा न की थी । जब उन्होंने बताया कि उन्होंने ‘भास्करानंद इण्टर कालेज नरवल’ से हाईस्कूल किया था तब मेरी प्रसन्नता का ठिकाना न रहा था । मैंने उन्हें बताया कि मैंने भी उसी कालेज से हाईस्कूल किया था ।
बीच-बीच में नन्दन जी फोन सुनने के लिए उठ जाते, लेकिन उसके बाद फिर उसी स्थान पर आ बैठते । बीच में एक बार लगभग आध घण्टा के लिए वह चले गए तब भाभी जी से मैं बातें करता रहा, जिन्हें दिल्ली रास नहीं आ रहा था । वह मुम्बई की प्रशंसा कर रही थीं, जहां लड़कियां दिल्ली की अपेक्षा अधिक सुरक्षित अनुभव करती थीं ।
उस दिन की उस लंबी मुलाकात की स्मृतियां आज भी अक्ष्क्षुण हैं ।
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यह वह दौर था जब मैं कविता में असफल होने के बाद कहानी पर ध्यान केन्द्रित कर रहा था । मेरी पहली कहानी मार्क्सवादी अखबार ‘जनयुग’ ने प्रकाशित की, और लिखने और प्रकाशित होने का सिलसिला शुरू हो गया था । एक कहानी ‘सारिका’ को भेजी और कई महीनों की प्रतीक्षा के बाद सारिका कार्यालय जाने का निर्णय किया । तब तक मैं दिल्ली शिफ्ट हो चुका था ।
मिलने के लिए चपरासी से नन्दन जी के पास चिट भेजवाई । तब सारिका के सम्पादकीय विभाग के किसी व्यक्ति से मेरा परिचय नहीं था , इसलिए चपरासी के बगल की कुर्सी पर बैठकर प्रतीक्षा करने लगा । दस मिनट की प्रतीक्षा के बाद नन्दन जी ने मुझे बुलाया । कंधे पर लटकते थैले को गोद पर रख मैं उनके सामने किसी मगही देहाती की भांति बैठ गया ।
‘‘कहें ?’’ फाइलों पर कुछ पढ़ते हुए नन्दन जी ने पूछा ।
‘‘यूं ही दर्शन करने आ गया । ’’ मेरी हर बात पर देहातीपन प्रकट हो रहा था , जिसे नन्दन जी ने कब का अलविदा कह दिया था .... शायद गांव से निकलते ही ।
‘‘हुंह ।’’ उस दिन मेरे सामने बैठे नन्दन जी घर वाले नन्दन जी न थे । हर बात का बहुत ही संक्षिप्त उत्तर ....और कभी-कभी वह भी नहीं । लगभग पूरे समय फाइल में चेहरा गड़ाए वह कुछ पढ़ते-लिखते रहे । मेरे लिए चाय मंगवा दी और ,‘‘ मैंने अभी-अभी पी है ’’ मुस्कराते हुए उन्होंने कहा, ‘‘आप पियें ...तब तक मैं कुछ काम कर लूं ।’’ वह फाइल में खो गए थे ।
इसी दौरान अवधनारायण मुद्गल वहां आए । नन्दन जी से उन्होंने कुछ डिस्कस किया और उल्टे पांव लौट गए । नन्दन जी के संबोधन से ही मैंने जाना था कि वह मुद्गल जी थे ।
मैंने उठने से पहले अपनी कहानी की चर्चा की ।
‘‘देखूंगा....।’’ फिर चुप्पी ।
‘अब मुझे उठ जाना चाहिए ।’ मैंने सोचा और ‘‘अच्छा भाई साहब ।’’ खड़े हो मैंने हाथ जोड़ दिए ।
नन्दन जी ने चेहरा उठा चश्मे के पीछे से एक नजर मुझ पर डाली, मुस्कराए, ‘‘ओ.के. डियर ।’’
सारिका को भेजी कहानी पन्द्रह दिनों बाद लौट आयी और उसके बाद मैंने वहां कहानी न भेजने का निर्णय किया । इसका एक ही कारण था कि मैं दोबारा कभी किसी कहानी के विषय में नन्दन जी से पूछने से बचना चाहता था और वहां हालात यह थे कि परिचितों की रचनाएं देते ही प्रकाशित हो जाती थीं, जबकि कितने ही लेखकों को उनकी रचनाओं पर वर्षों बाद निर्णय प्राप्त होते थे । एक बार रचनाओं के ढेर में वे दबतीं तो किसे होश कि उसे खंगाले । नन्दन जी तक रचना पहुंचती भी न थी ।
और नन्दन जी के कार्यकाल में मैंने कोई कहानी सारिका में नहीं भेजी । सारिका में जो एक मात्र मेरी कहानी प्रकाशित हुई वह ‘पापी’ थी, जिसे मुद्गल जी ने उपन्यासिका के रूप में मई,1990 में प्रकाशित किया और इस कहानी की भी एक रोचक कहानी है, जो कभी बाद में लिखी जाएगी ।
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फरवरी 1983 या 1984 की बात है । कानपुर की संस्था ‘बाल कल्याण संस्थान’ ने उस वर्ष बालसाहित्य पुरस्कार का निर्णायक नन्दन पत्रिका के सम्पादक जयप्रकाश भारती को बनाया था। 1982 से उन्होंने मुझे संस्थान का संयोजक बना रखा था । प्रधानमंत्री इंदिरा जी के निवास में 19.11.1982 को अपने संयोजन में मैं संस्थान का एक सफल आयोजन कर चुका था और केवल उसी कार्यक्रम का संयोजक था , लेकिन संस्थान दिल्ली से जुड़े मामलों का कार्यभार ‘‘मैं संस्था का संयोजक हूं...इसे संभालूं’’ कहकर मुझे सौंप देता ।
उस अवसर पर भी दिल्ली के साहित्यकारों से संपर्क करना, एकाध के लिए रेल टिकट खरीदना आदि कार्य मुझे करने पड़े । जयप्रकाश भारती ने पुरस्कार के लिए जिन लोगों को चुना वे उनके निकटतम व्यक्ति थे, लेकिन सबसे बड़े आश्चर्य की बात यह कि संस्थान के बड़े पुरस्कार के लिए उन्होंने हिन्दुस्तान टाइम्स समूह में कार्यरत अपनी परिचिता महिला पत्रकार का चयन किया । यह पुरस्कार बहुत विवादित रहा था । उस महिला और भारती जी को लेकर अनेक प्रकार की कुचर्चां थी (आज दोंनो ही जीवित नहीं इसलिए उसपर बस इतनी ही ), लेकिन जिस बात के लिए मैंने इस प्रसंग की चर्चा की वह नन्दन जी से जुड़ी हुई है ।
कार्यक्रम कानपुर के चैम्बर आफ कामर्स में था । नन्दन जी कालका मेल से ठीक समय पर वहां पहुंचे । अध्यक्षता की और जब वह अध्यक्षीय भाषण दे रहे थे तब उन्होंने कहा ,‘‘ मैं जयप्रकाष भारती जी को संस्थान द्वारा उनकी पत्नी को पुरस्कृत किए जाने के लिए बधाई देता हूं ।’’
भारती जी और उनके द्वारा चयनित पत्रकार-बालसाहित्यकार मंच पर ही थे । मैं भी मंच पर नन्दन जी के बगल में बैठा था । नन्दन जी के यह कहते ही भारती जी का चेहरा फक पड़ गया और उस पत्रकार , जो अपनी संगमरमरी शरीर और सौन्दर्य के लिए आकर्षण का केन्द्र थीं, ने नन्दन जी की ओर फुसफुसाते हुए कहा , ‘‘आपने यह क्या कहा ?’’
भारती जी भी कुछ बुदबुदाए थे, जो किसी ने नहीं सुना था, क्योंकि दर्शक-श्रोता तो नहीं, लेकिन उपस्थित साहित्यकारों के ठहाकों में उनकी आवाज दब गई थी ।
नन्दन जी प्रत्युत्पन्नमति व्यक्ति थे । तुरंत बोले, ‘‘मेरा आभिप्राय भारती जी की पत्नी स्नेहलता अग्रवाल जी से है ... जिन्हें कुछ दिन पहले एक संस्थान ने ...’’ कुछ रुककर बोले, ‘‘ एन.सी.आर.टी. ने बालसाहित्य के लिए पुरस्कृत किया है ।’’ (नन्दन जी उस पुरस्कार के निर्णायक मंडल में रहे थे ) ।
बात आई गई हो गई । लेकिन इसने सिद्ध कर दिया कि नन्दन जी की नजर हर ओर हरेक की गतिविधि पर रहती थी .... सही मायने में वह पत्रकार थे और एक प्रखर पत्रकार थे । इसी भरोसे टापम्स समूह ने उन्हें सारिका के बाद पराग और फिर दिनमान का कार्यभार सौंपा था । अपने समय के वह एक मात्र ऐसे पत्रकार थे जो एक साथ तीन महत्वपूर्ण पत्रिकाएं देख रहे थे ।
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उसके बाद साहित्यिक कार्यक्रमों में प्रायः नन्दन जी से मुलाकात होने लगी थी ।
‘‘कैसे हो रूपसिंह ? ’’ मेरे कंधे पर हाथ रख वह पूछते और , ‘‘ठीक हूं भाई साहब ।’’ मैं कहता ।
मेरा मानना है कि पत्रकारिता की दुनिया विचित्र और बेरहम होती है । कब कौन शीर्ष पर होगा और कौन जमीन पर कहना कठिन है । नन्दन जी के साथ भी ऐसा ही हुआ । एक साथ तीन महत्वपूर्ण पत्रिकाओं के सम्पादक और बड़े हालनुमा भव्य कमरे में बैठने वाले नन्दन जी को एक दिन नवभारत टाइम्स के ‘रविवासरीय’ का प्रभारी बनाकर (जो एक सहायक सम्पादक का कार्य होता है ) 10, दरियगंज से टाइम्स बिल्डिगं में एक केबिन में बैठा दिया गया । निश्चित ही उनके लिए यह विषपान जैसी स्थिति रही होगी , लेकिन उन्होंने उस विष को अपने चेहरे पर शाश्वत मुस्कान बरकरार रखते हुए पी लिया । कई महीने वह उस पद पर रहे । सारिका से बलराम और रमेश बतरा भी उनके साथ गए थे । तब तक इन दोनों से मेरी अच्छी मित्रता हो चुकी थी ।
1988 की बात है । सचिन प्रकाशन के लिए मैंने ‘बाल कहानी कोश’ सम्पादित किया , जिसके लिए दो सौ कहानियां मैंने एकत्र की थीं । नन्दन जी से कहानी मांगने के लिए मैं टाइम्स कार्यालय गया । बलराम ने नन्दन जी से कहा , ‘‘रूपसिंह मिलना चाहते हैं ।’’
‘‘पिछले वर्ष मैंने तुम्हारे एक दोस्त के लिए सिफारिश की थी...अब ये भी....।’’ नन्दन जी को भ्रम हुआ था ।
बलराम ने कहा , ‘‘नहीं, चन्देल किसी और काम से आए हैं ।’’
बहर आकर बलराम ने मुझे यह बात बताई और हंसने लगे । दरअसल नन्दन जी उन दिनों हिन्दी अकादमी दिल्ली के सदस्य थे और शायद पुरस्कार चयन समिति में थे । बलराम के जिस मित्र की सिफारिश की बात उन्होंने की थी, वह मेरे भी मित्र थे । खैर, मैं नन्दन जी से मिला । एक बार पुनः आत्मीय मुलाकात । उन्होंने ड्राअर से निकालकर अपनी बाल कहानी ‘आगरा में अकबर’ मेरी ओर बढ़ा दी ।
दुर्भाग्य कि वह ‘बाल कहानी कोश’ आज तक प्रकाशित नहीं हुआ , क्योंकि दिवालिया हो जाने के कारण सचिन प्रकाशन बन्द हो गया था और पाण्डुलिपि की कोई प्रति मैंने अपने पास नहीं रखी थी ।
इस घटना के कुछ समय बाद ही नन्दन जी सण्डे मेल के सम्पादक होकर चले गए । उन्होंने उसे स्थापित किया । उनके साथ टाइम्स समूह के अनेक पत्रकार भी गए थे । 1991 में मेरे द्वारा सम्पादित लघुकथा संकलन ‘प्रकारान्तर’ किताबघर से प्रकाशित हुआ । हिन्दी में तब तक जितने भी लघुकथा संग्रह या संकलन प्रकाशित हुए थे, सामग्री और साज-सज्जा की दृष्टि से वह अत्यंत आकर्षक था । यह संकलन मैंने तीन लोंगो - कन्हैयालाल नन्दन, हिमांशु जोशी, और विजय किशोर मानव को समर्पित किया था।
नन्दन जी की प्रति देने मैं सण्डे मेल कार्यालय गया । नन्दन जी प्रसन्न, लेकिन उस दिन भी वह मुझे उतना ही व्यस्त दिखे, जितना सारिका में मेरी मुलाकात के समय दिखे थे । यह सच है कि वह समय के साथ चलने वाले व्यक्ति थे .... अतीत को लात मार भविष्य की सोचते और वर्तमान को जीते ....और भरपूर जीते।
सण्डेमेल की उस मुलाकात के बाद गाहे-बगाहे ही उनसे मिलना हुआ । मुलाकात भले ही कम होने लगी थी , लेकिन कभी-कभार फोन पर बात हो जाती । बात उन दिनों की है जब वह गगनांचल पत्रिका देख रहे थे । मेरे एक मित्र उनके लिए कुछ काम कर रहे थे । उन दिनों मैंने (शायद सन् 2000 में) कमलेश्वर जी का चालीस पृष्ठों का लंबा साक्षात्कार किया था । उसका लंबा अंश मेरे मित्र ने गगनाचंल के लिए ले लिया । ले तो लिया, लेकिन अंश का बड़ा होना उनके लिए समस्या था । ‘‘मैं नन्दन जी से बात कर लेता हूं ’’ मैंने मित्र को सुझाव दिया । फोन पर मेरी बात सुनते ही नन्दन जी बोले , ‘‘रूपसिंह , पूरा अंश छपेगा ...... उसे दे दो । मैं कमलेश्वर के लिए कुछ भी कर सकता हूं ।’’
6 जनवरी 2001 को कनाट प्लेस के मोहन सिंह प्लेस के इण्डियन काफी हाउस’ में विष्णु प्रभाकर की अध्यक्षता में कमलेश्वर जी का जन्म दिन मनाया गया । हिमांशु जोशी जी ने मुझे फोन किया । वहां बीस साहित्यकार -पत्रकार थे । नन्दन जी भी थे और बलराम भी । कार्यक्रम समाप्त होने के बाद नन्दन जी ने मेरे कंधे पर हाथ रख पूछा , ‘‘रूपसिंह, क्या हाल हैं ?’’
‘‘ठीक हूं भाई साहब ।’’
‘‘तुम्हे जब भी मेरी आवश्यकता हो याद करना ।’’ लंबी मुस्कान बिखेरते हुए वह बोले, ‘‘यह घोड़ा बूढ़ा बेशक हो गया है , लेकिन बेकार नहीं हुआ ...।’’ उन्होंने बलराम की ओर इशारा करते हुए आगे कहा , ‘‘उससे पूछो ।’’
मैं बेहद संकुचित हो उठा था । कुछ कह नहीं पाया, केवल हाथ जोड़ दिए थे । नन्दन जी मेरे प्रति बेहद आत्मीय हो उठे थे और उनकी यह आत्मीयता निरंतर बढ़ती गई थी । शायद उन्हें इस बात का अहसास हो गया था कि कानपुर के नाम पर उनसे बहुत कुछ पा जाने वाले या पाने की आकांक्षा रखने वाले लोगों जैसा यह शख्श नहीं है । उनके प्रति इस शख्श का आदर निःस्वार्थ है । बीस-बाइस वर्षों के परिचय में इसने उनकी सक्षमता से कुछ पाने की चाहत नहीं की । और यह सब कहते हुए भी वह जानते थे कि यह व्यक्ति शायद ही कभी किसी बात के लिए उनसे कुछ कहेगा । वह सही थे । और यही कारण था कि उनका प्रेम मेरे प्रति बढ़ता गया था ।
न्यूयार्क में होने वाले विश्व हिन्दी सम्मेलन की स्मारिका के सम्पादन का कार्य उन्हें करना था । एक पत्र मिला , जिसमें डा. ”शिवप्रसाद सिंह के उपन्यास ‘अलग-अलग वैतरिणी’ पर निश्चित तिथि तक आलेख मुझे लिख भेजने के लिए उन्होंने लिखा था । उन दिनों मैं लियो तोल्स्तोय के उपन्यास ‘हाजी मुराद’ के अनुवाद को अंतिम रूप दे रहा था । मेरे पास शिवप्रसाद जी के उपन्यास ‘नीला चांद’ पर अच्छा आलेख था । मैंने नन्दन जी को लिखा कि ‘अलग -अलग वैतरिणी’ के बजाय मैं ‘नीला चांद’ पर लिख भेजता हूं । उनका तुरंत पत्र आया ,‘‘ एक सप्ताह का अतिरित समय ले लो, लेकिन लिखो ‘अलग-अलग वैतरिणी’ पर ही ।’’ मुझे उनकी आज्ञा का पालन करना ही पड़ा था । बाद में एक दिन शाम सवा पांच बजे उनका फोन आया ।
‘‘रूपसिंह कैसे हो ?’’
‘‘आपका आशीर्वाद है भाई साहब ।’’
कुछ इधर-उधर की बातें और अंत में ,‘‘आज तुम पर प्रेम उमड़ आया ...... तुम्हें प्रेम करने का मन हुआ ....।’’ और एक जबर्दस्त ठहाका ।
मैं भी ठहाका लगा हंस पड़ा था ।
‘‘अच्छा प्रसन्न रहो ।’’ आशीर्वचन ।
और उनके पचहत्तरहवें जन्म दिन का निमंत्रण । इण्डिया इण्टरनेशनल सेण्टर में आयोजन था । लगा पूरी दिल्ली के साहित्यकार-पत्रकार उमड़ आए थे । नन्दन जी के कुछ मित्र बाहर से भी आए थे । उस दिन नन्दन जी बहुत ही बूढ़े दिखे थे । बीमारी ने उन्हें खोखला कर दिया था । डायलिसस पर रहना पड़ रहा था । 1933 में परसदेपुर (जिला - फतेहपुर (उत्तर प्रदेश ) में जन्मे इस प्रखर पत्रकार -साहित्यकार ने 25 सितम्बर , 2010 को नई दिल्ली के राकलैण्ड अस्पताल में तड़के तीन बजकर दस मिनट पर 77 वर्ष की आयु में इस संसार को अलविदा कह दिया ।
अत्यंत सामान्य परिवार में जन्में नन्दन जी का जीवन बेहद उथल-पुथलपूर्ण रहा । प्रेमचंद से प्रेरित हो उन्होंने अंतर्जातीय विवाह किया , जिसके बारे में उन्होंने अपने एक आलेख में लिखा था । उनके जाने से पत्रकारिता और लेखन जगत को अपूरणीय क्षति हुई है ।
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रविवार, 3 अक्तूबर 2010

यादों की लकीरें



संस्मरण

चंदनिया बुइया उर्फ चांदनी देवी

रूपसिंह चन्देल

16 अगस्त ,1981 (रविवार) को उनसे मेरी अंतिम मुलाकात हुई थी । सुबह छः बजे का वक्त था । आसमान में हल्के बादल थे और रह-रहकर फुहारें पड़ रही थीं । उनसे मिलने के लिए मैं पांच मिनट पहले घर से निकल आया । वह दरवाजे के बाहर खड़ी थीं । मैंने आगे बढ़कर उनके चरणस्पर्श किए ।
‘‘जा रहे हौ ? एकौ दिन न रुकेव ।’’
‘‘कल दफ्तर है ।’’
‘‘बिटेऊ जा रही हैं ?’’
‘‘बहुत मुश्किल से दो महीने के लिए तैयार हुई हैं ।’’
‘का बताई बबुआ .... बहुत समझावा पर सुनै का तैयार नहीं । ई उमिर मा आदमी का अपन बच्चन के पास रहा चाही .... कब तलक अकेली पड़ी रहिहैं, लेकिन ई कान ते सुनति हैं अउर दुसरे ते निकारि देति हैं ।’’
मैं उनके घर के सामने गली के साथ खड़े नीम के पेड़ की ओर खिसकने लगा । वह भी मेरे साथ खिसकने लगीं । मैंने गौर से उन्हें देखा । बहुत बूढ़ी हो गयी थीं । चेहरे पर झुर्रियां छायी हुई थीं ।
तभी मेरे घर के दरवाजे पर ताला बंद होने की आवाज आयी । उनके स्वर में हड़बड़ाहट थी । मैं तुरंत भांप गया कि वह मेरी मां का सामना करने से बचना चाहती थीं ....... मेरी मां यानी उनकी बेटी । वह मेरी नानी थीं ......अस्सी पार ।
‘‘हम चली बबुआ ..... देखिहैं तो कहिहैं कि हम तुमका कुछ पट्टी पढ़ावत रही ।’’
मैंने पुनः उनके चरणस्पर्श किए । आशीसती नानी घर की ओर लपक लीं थीं।
घर में ताला बंद कर मां सामने के त्रिवेदी परिवार के किसी सदस्य से कह रही थीं , ‘‘का बताई , जबरदस्ती जांय का पडि़ रहा है ।’’
उधर से सांत्वना में क्या कहा गया , सुन नहीं पाया । मैं नीम के पेड़ के पास खड़ा मां के आने के प्रतीक्षा कर रहा था और सोच रहा था , नानी और उनके स्वभाव के विषय में । नानी जितनी सीधी-सहज, सरल थीं, मां उतनी ही अक्खड़ । अड़ जाएं तो दुनिया की कोई ताकत उन्हें डिगा नहीं सकती थी । पूरी रात मैं उन्हें कुछ दिन अपने साथ चलकर दिल्ली रहने के लिए मनाता रहा था । नानी से भी कहा था कि वह भी समझाएं, लेकिन ‘‘हमरे कहैं ते वह जाती हुई भी न जइहैं बबुआ ।’’ नानी ने असमर्थता व्यक्त की थी , ‘‘तुम्हरे आवैं ते पहले कहा रही.......पर उनने कहा कि मैं तो चाहती ही हूं कि वह गांव मा न रहैं ।’’
और इसीलिए नानी मां का सामना टालना चाहती थीं ।
त्रिवेदी परिवार से मिलकर और ऐसा आभास देकर कि जिन्दा बचीं तो वह जल्दी ही दिल्ली को अलविदा कह आएगीं, मां भारी कदमों से आगे बढ़ रही थीं ।
पुरवामीर बस अड्डे तक पूरे रास्ते वह बुड़बुड़ाती रहीं और इस गति से चलती रहीं मानो कसाईघर जाने वाली कोई गाय । मुझे कानपुर से आसाम मेल पकड़ने की जल्दी थी और जब भी इस विषय में उन्हें कहता वह चीख उठतीं , ‘‘ मैं तेज नहीं चल सकती । जल्दी है तो चले जाव ।’’
उस दिन नानी मेरे दिमाग में यो अटकीं कि आसाम मेल में पूरे समय वह मेरे साथ रहीं और उसके बाद भी कितने ही ऐसे अवसर आए जब उनकी स्मृतियों ने मुझे अपने में समेटा और घण्टों उनकी याद में बीत गए ।
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जब भी हम बच्चे नानी का नाम पूछते वह सकुचा जातीं । कितनी ही बार पूछने के बाद एक बार बोलीं, ‘‘चंदनिया बुइया ।’’ और हो होकर हंस पड़ी थीं । नाम ठीक समझ में नहीं आया । दोबारा पूछा । फिर वही..... तीसरी बार सही नाम सुना गया । ‘लेकिन यह कोई नाम न हुआ ।’ मै मन ही मन सोचता रहा । सोचता रहा ....... वर्षों .... उम्र गुजर गई और नानी भी गुजर गईं, लेकिन उनके नाम का सही उच्चारण मैं खोजता रहा । यह बात तभी ज्ञात हो गयी थी कि यमुना पार अर्थात् बांदा-हमीरपुर में बुइया का अर्थ देवी या बाई से था , जो वहां सभी लड़कियों के नाम के साथ जोड़ दिया जाता था ।
अनुमान लगाया कि वह चांदनी देवी थीं । चांदनी देवी अर्थात मेरी नानी की मृत्यु 1982 में जब हुई तब वह लगभग नव्वे वर्ष की थीं । इस प्रकार उनका जन्म 1890-91 के आसपास कभी बांदा जिला (उत्तर प्रदेश) के एक गांव में हुआ था । तीन भाइयों की इकलौती बहन । सभी भाई लंबे छः फुटा , लेकिन बहन की कद-काठी सामान्य थी । गेहुआं रंग, गोल चेहरा, बड़ी आंखें ,हृष्ट-पुष्ट शरीर ..... होश संभालने के बाद मैंने उन्हें वैसा ही देखा था । जब मैंने होश संभाला , जाहिर है वह सत्तर के आस-पास थीं , लेकिन ऐसा नहीं लगता था कि वह बूढ़ी हो गयी थीं । उनके बूढ़े होने की प्रक्रिया बेटे (मेरे मामा) के दूसरे विवाह के बाद प्रारंभ हुई थी ।
’’’’’
चांदनी देवी की उम्र जब खेतों से ज्वार और बाजरे के भुट्टे चुन लाने की थी, तभी उनका विवाह मेरे नाना के साथ कर दिया गया । नाना, जिन्हें मैंने कभी नहीं देखा । मेरी मां या मेरे मामा (इन्द्रजीत सिंह गौतम) ने भी अपने पिता को नहीं जाना । मामा साढ़े तीन और मां जब ढाई वर्ष के थे किसी अनजान ज्वर से नाना की मृत्यु हो गयी थी । नानी तब पचीस -छब्बीस वर्ष की थीं ..... जवानी में वैधव्य । घर में तीन देवर और अकाल वर्ष । अकाल भी ऐसा कि बड़े-बड़े किसानों ने घुटने टेक दिए । घरों में चूहे दण्ड लगाते और खेतों में किसान जेठ की तपती दोपहर में जौ-चना के दाने खोजते । अकाल इतना भीषण था कि सर्वत्र त्राहि-त्राहि मच गई । लोग भूखों मरने लगे । उस पर अंग्रेज सरकार और उसके जमींदारों का आतंक जीने से अधिक उन्हें मृत्यु वरण के लिए प्रेरित कर रहा था ।
तीन वर्ष अकाल की भेंट चढ़े । नानी ने उन दिनों का एकाधिक बार वर्णन किया था । घर में दो मटके चना बचे हुए थे । रात घर के हर सदस्य के हिसाब से एक मुट्ठी चना भिगो दिए जाते । सुबह अंगौछे में भीगे चना बांध नाना के भाई खेतों में पत्थर हुई मिट्टी से जूझते । बड़े-बड़े ढेलों को तोड़ते और मन को आश्वस्त करते कि आसाढ़ में यदि वर्षा हुई तब वे अच्छी फसल उगा सकेगें । वर्षा तो नहीं हुई, लेकिन उनका सबसे छोटा भाई लू की चपेट में आकर प्राण गंवा बैठा । अब शेष बचे दो भाई , जिनमें मझले कंचन सिंह सन् 1967 तक जीवित रहे थे ।
अकाल के दिनों एक दिन जमींदार का कारिन्दा सिपाहियों सहित नानी के घर आ धमका लगान वसूली के लिए । छूछे घर से क्या वसूली करता ? उसने बेइज्जत करने के लिए सिपाहियों को हुक्म दिया कि वे घर की ड्योंढ़ी उखाड़ लें । गांवों में आज भी ड्योढ़ी किसी भी घर की प्रतिष्ठा से जुड़ी होती है । सिपाही आगे बढ़े ही थे कि नानी दरवाजे की ओट हो आ खड़ी हुईं और दबंग आवाज में बोलीं , ‘‘ खबरदार, ड्योंढ़ी को हाथ मत लगाना ।’’
सिपाही ठहर गए । कारिन्दा का चेहरा देखने लगे ।
‘‘डर गए स्सालो .... आगे बढ़ो ....।’’
‘‘बढ़ो आगे .... गर्दन पर गड़ासा पड़ेगा ।’’ नानी दुर्गा बनी दरवाजे की ओट खड़ी थीं ।
कारिन्दा भी सहमा , ‘‘ठकुरानी, अकड़ से काम नहीं चलेगा । रोकड़ा गिन दो लगान का ....।’’
‘‘बताव।’’
कारिन्दा ने हिसाब बताया । नानी ने टेंट से चांदी के सिक्के निकाले और कारिन्दा की ओर फेककर कहा , ‘‘अब शकल न दिखाएव ।’’
‘‘वाह ठकुरानी ।’’ बेसाख्ता कारिन्दा के मुंह से निकला था।
नना के दोनों भाई नानी का चेहरा देखते रहे थे , लेकिन वे नानी का इतना सम्मान करते थे कि उनसे उलट यह नहीं पूछा कि ‘‘भौजाई, घर में फांके के हालात है और तुम चांदी के सिक्के छुपाए बैठी थी ।’’
वे नहीं पूछ पाए लेकिन मैंने यह बात पूछी थी । नानी ने बताया कि ‘‘कारिन्दा दो साल से लगान वसूली के लिए नहीं आया था । उसे किसान के परेशान हाल होने का ही इंतजार होता था। मैंने कुछ रकम केवल इसीलिए बचा रखी थी । कम खाकर गुजर हो ही रहा था । लेकिन लगान न देने पर अगर वह खेतों से बेदखल कर देता तब क्या होता ..... भूखे रहकर भी खेत बचाना जरूरी था ।’’
इस घटना के कुछ वर्षों में घर में पुनः सम्पन्नता आ बिराजी थी । लेकिन उस सम्पन्नता का उपभोग कंचन नाना के दूसरे भाई नहीं कर सके । कंचन नाना को अकला छोड़ वह भी एक दिन मृत्यु का शिकार हो गए थे ।
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भरे-पूरे घर में अब बची थीं नानी, मामा और मां और शायद नानी की एक विधवा ननद। उन सबका बोझ कंचन नाना के कंधों पर था । कंचन नाना का रंग बिल्कुल कंचन जैसा .... साफ-सुथरा, चमकदार चेहरा । सूर्य की रोशनी में उनका चेहरा बिल्कुल सोने की भांति दहकता । कुल मिलाकर वह भव्य व्यक्तित्व के धनी थे ।
कंचन नाना ने अपनी जिम्मदारी का निर्वहन सफलतापूर्वक किया । कुछ दिनों बाद अकाल पीडि़त नानी के तीनों भाई भी उनके यहां आ जमे थे । नाना के पास अच्छी खेती थी ...गांव में सबसे अधिक मातबर खेत । कई बाग और पड़ती पड़ी जमीन । वह पड़ती जमीन ही कंचन नाना ने बाद में मेरे पिता को दी थी ।
नानी के सबसे बड़े भाई दुलार सिंह और छोटे गजराज सिंह को ही मैं जानता था । तीसरे और शायद मंझले भाई कुछ दिन रहकर अपने गांव वापस लौट गए थे और अपनी किसी खता के कारण कभी नाना के घर नहीं आए । जबकि दुलार सिंह और गजराज सिंह ने नाना के खेत संभाल लिए थे और अपने भांजा-भांजी की परवरिश में रुचि लेने लगे थे । दोनों ही अविवाहित थे और सारी जिन्दगी अविवाहित रहे थे । कंचन नाना भी अविवाहित रहे थे ।
नानी के भाइयों के आने के बाद कंचन नाना ने खेती से अपने को मुक्त कर लिया था और गांव से पांच या छः मील दूर पाण्डुनदी के किनारे सिउली नामक गांव में जी.टी.रोड के किनारे शराब का ठेका ले लिया था । वर्षों वह उसे चलाते रहे । अच्छा धन कमाया और चार गांवों में सम्पन्न व्यक्तियों में शामिल हो गए । लेकिन तभी एक सुबह सोकर उठने पर उन्होंने पाया कि दुनिया देखने की उनकी क्षमता नष्ट हो चुकी थी । वह अंधे हो गए थे । लेकिन मेरी मां और मामा के विवाह तक वह बिल्कुल ठीक थे । यह घटना उसके कुछ दिनों बाद की थी ।
कंचन नाना ने जिस समर्पण के साथ घर संभाला था और भौजाई और उनके बच्चों की देखभाल की थी , नाना के अंधे होने के बाद नानी ने कभी उन्हें कोई कष्ट नहीं होने दिया । वह उनके हर सुख -दुख का खयाल रखती थीं । अंधा होने के बाद नाना घर छोड़कर गांव के बाहर सड़क किनारे के बाग में आकर रहने लगे थे , जहां पहले से ही जानवर बंधते थे और दो कोठरियां बनी हुई थीं ।
शादी के बाद मेरी मां कलकत्ता चली गईं और मामा की पहली पत्नी दो लड़कियों को जन्म देने के बाद जीवित नहीं रहीं । लंबे समय तक विधुर जीवन जीने के बाद मामा का पुनर्विवाह बांदा के ही किसी गांव में हुआ । मेरा अनुमान है कि मामा और इस दूसरी मामी में आयु का पन्द्रह से अघिक वर्षों का अंतर था । कुछ दिनों में ही मामा उस नवोढा की मुट्ठी में थे और नानी अधिकार-वंचिता ।
और वहीं से प्रारंभ हुआ था नानी के दुर्दिनों का सिलसिला और हम उनके लिए कुछ भी कर सकने में अपने को असमर्थ पा रहे थे । दो कारण थे ..... पहला यह कि मामी गजब की लड़ाकू थी । उसे अपने डील-डौल पर घमण्ड था । दूसरा कारण था हमारे घर की विद्रूप आर्थिक स्थिति । पिता अवकाश पाकर घर आ गए थे और कुछ ही वर्षों में उनकी जमा-पूंजी खत्म हो चुकी थी । किस आधार पर एक और पेट हम पालते , जबकि मामा गांव के समृद्धतम व्यक्तियों में गिने जाते थे ।
गहरे सांवले रंग की मामी , मोटी नाक, बड़ी आंखें और चेचकारू चेहरे वाली हृष्ट-पुष्ट शरीरा थी । नाक में जब मोटी छदाम जितनी लौंग पहनती और मटककर चलती तब धरती हिलती प्रतीत होती । कुछ वर्षों में ही उसने एक के बाद कई बच्चे पैदा किए ......शायद आठ-नौ । एक डेढ-दो साल का होता कि पता चलता दूसरा आने वाला है । पैदा करती हुई पालने के लिए वह उन्हें नानी के हवाले कर देती । बच्चा जनने से तीन महीना पहले से लेकर चार-पांच महीने बाद तक वह घर के काम छूती भी न थी । नारियल और मिश्री उसका प्रिय खाद्य था । आभूषणों की वह शौकीन थी और उसकी बाक्स का आकार उनके कारण बड़ा होता जा रहा था । घर का सम्पूर्ण स्वामित्व अपने अधीन रखने के बावजूद वह चोरी छुपे छत के रास्ते घर से सटे मुसलमानों के घरों की औरतों को आनाज बेचती और वह बेच अपने लिए दबाकर रखती । जब पचहत्तर की आयु में पूरे घर के बर्तन मांजते मैं नानी को देखता तब कलेजा मुंह को हो आता , और जब भी इस विषय में नानी से कहता कि हम उससे या मामा से बात करके किसी को बर्तन मांजने के लिए लगा लेने के लिए कह देते हैं तब नानी का चेहरा पीला पड़ जाता । लटपटी जुबान से वह कहतीं , ‘‘न बबुआ.... न कहौ । किस्मत मा जो लिखा है होंय देव ।’’
किशोरावस्था से ही मैं अन्याय के विरोध में आवाज उठाने लगा था । मैं अपने को रोक नहीं पाया । एक दिन मामी के पास गया और बोला, ‘‘ मांई (मामी) शर्म करो , इतना बड़ा शरीर पलंग पर पसरा रखा है और इतनी बूढ़ी सास से खांची भर बर्तन मंजवा रही हो ।’’
वह तमककर पलंग पर उठ बैठी और तमतमाती हुई नानी की ओर लपकी ,‘‘ये बूढ़ा.....तुम गांव भर मा हमारी बुराई करती घूमती हो ........ छोडि़ देव बर्तन ।’’ और उसने नानी को धकियाकर एक ओर करने का प्रयास किया और बर्तनों को पैर से दूर खिसका दिया । उसके धकियाने से नानी पीढ़े पर अपना संतुलन नहीं संभाल पायीं । एक ओर लुढ़क गयीं । आगे बढ़कर मैंने उन्हें संभाला ।
नानी बुक्का फाड़कर रोने लगीं, ‘‘हाय बबुआ रूप, ई दिन द्याखैं का बदा रहै ।’’
‘‘ज्यादा बुलकी न बहाव बूढ़ा, आज से ई बबुआ रूप ही तुम्हें खिलैहैं । यहां खाना-रहना है तो ई बर्तन धोवैं का ही पड़ी ।’’ पैर पटकती वह चली गई थी ।
मैं किंकर्तव्यविमूढ़ खड़ा रहा था - असहाय ! नानी के आंखों की ओर देखने का साहस मुझमें नहीं रहा था ।
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(प्रकाश्य संस्मरण पुस्तक - ‘रोशनी की लकीरें’ (भाग दो ) में प्रकाश्य एक संस्मरण ।)