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रविवार, 8 मई 2011

यादों की लकीरें



आत्मकथ्य

चुनौतियां मुझे प्रेरणा देती हैं


रूपसिंह चन्देल

अपने विषय में कुछ लिखते समय मुझे इस बात का संकोच हो रहा है कि पाठक यह न सोचें कि अतीत के दयनीय पृष्ठों को पलटकर मैंने उनकी सहृदयता बटोरने की चेष्टा की है। 'सारिका' में कमलेश्वर ने साहित्यकारों के आत्मकथ्य एक श्रृखंला 'गर्दिश के दिन' शीर्षक से प्रकाशित की थी और तब कुछ पाठकों और कुछ साहित्कारों को उन रचनाकारों के जीवन-संघर्षों के विषय में ऐसे ही उद्गार व्यक्त करते हुए सुना था। तब से मन में यह भीरु-भाव बैठा रहा कि मेरे जीवन के पैबन्द देखकर पता नहीं कोई क्या सोचे! जीवन के उन पैबन्दों को इस खूबसूरती से ढके रखा कि मित्रों को भी यह एहसास नहीं होने दिया कि संघर्ष ही मेरा सबसे बड़ा मित्र रहा है। जीवन का इतना लंबा पड़ाव पार कर लेने के बाद भी आज भी वह किसी न किसी रूप में मेरे साथ है। अपनी पत्रिका 'कथाबिंब' के 'आमने-सामने' स्तंभ के लिए अरविन्द जी ने जब लिखने के लिए कहा तब उनकी आज्ञा टालने का साहस मैं नहीं जुटा पाया। लेकिन तब से अब तक बहुत-सा पानी सिर के ऊपर से गुजर चुका है। अस्तु :

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छठवीं का विद्यार्थी था। उन दिनों मेरे एक पड़सी ने पूछा, ''क्या बनना चाहते हो?'' सकुचाते हुए मैंने कहा था,''साहित्यकार''। तब साहित्यकार से मेरा आभिप्राय एक बडे क़वि से था। 1962 में 'जुग्गीलाल कमलापति प्राइमरी पाठशाला, पुरवामीर' (कानपुर) से पांचवीं उत्तीर्ण कर जूनियर हाईस्कूल, महोली में छठवीं में दाखिला लिया था। श्यामनारायण पाण्डेय,सुभद्राकुमारी चौहान और सोहनलाल द्विवेदी जैसे कवियों के राष्ट्रगीतों से परिचय हो चुका था। प्रेमचन्द के साहित्य और जीवन से प्रेरित था। गांव के चार लड़के, बाला प्रसाद त्रिवेदी, रामसनेही,यमुनाप्रसाद गुप्त और मोहनलाल कुरील मेरे साथ तीन मील पैदल चलकर महोली जाते थे। हम सभी एक ही कक्षा में पढ़ते थे और हममें से अधिकांश के पास जूते नहीं होते थे। मेरे पास तो शायद ही कभी रहे हों, अगर कभी रहे भी तो कपड़े के जूते। मेरे पास एक ही जोड़ी कपड़े थे जिसे मैं दूसरे-तीसरे दिन बम्बे (नहर) के पानी में रेहू से साफ कर लिया करता था। रेहू से साफ कपड़े वेैसे भी पीलापन लिए होते और ऊपर से तीन मील आने-जाने की धूल-धक्कड़ ..... कपड़े प्राय: गन्दे ही दिखते। इस बात का एहसास रहता, किन्तु विवशता थी। जब कभी साबुन से धुले कपड़े पहनकर स्कूल जाता मन प्रफुल्लित रहता। जाड़े के दिनों में गन्दे कपड़ों से मन भारी रहता और दिन भर आलस्य-सा बना रहता। मुझे याद है, ऐसे दिनों आंखों से कीचड़ निकलता रहता फिर भी पढ़ने में ठीक था...... अर्थात् कक्षा में होशियार तीन छात्रों में से एक। इसीलिए अध्यापकों को प्रिय था।

आज भी दो घटनाएं भूल नहीं पाया। एक घटना तब की है जब मैंने छठवीं कक्षा की परीक्षा दी थी। उन दिनों उत्तर प्रदेश में गर्मियों के लिए विद्यालय 31 मई को बन्द होते थे। 31 मई को परीक्षा परिणाम (बोर्ड की परीक्षा को छोड़कर) धोषित होते थे। 31 मई,1963 (मंगलवार) का दिन था। मेैं 103 डिग्री बुखार में तप रहा था। परीक्षा परिणाम लेने नहीं जा सका। लेकिन आश्चर्य तब हुआ जब मेरे अंग्रेजी अध्यापक एक अन्य अध्यापक के साथ मुझे देखने और मेरा परीक्षा परिणाम देने आए। आज की स्थिति में क्या ऐसा सोचा जा सकता है! दूसरी घटना अगले वर्ष जाड़े के दिनों की है। बड़े भाई (श्री जगरूपसिंह,जो मुझसे 10 वर्ष बड़े हैं) का बी.ए.अंतिम वर्ष था। वह कानपुर में बी.एस.एस.डी. कॉलेज, नवाबगंज में पढ़ रहे थे और होस्टल में रहते थे। उनकी शादी जून,1963 में हो चुकी थी। सात लोगों का परिवार और आय का कोई ठोस आधार नहीं था। बड़े भाई का अंग्रेजी ज्ञान बहुत अच्छा था। शहर में वह अंग्रेजी के टयूशन करते। मेरे पास कोई गर्म कपड़ा नहीं था और मेरी एक मात्र हल्के नीले रंग की कमीज कंधे से नीचे पीठ में फट चुकी थी। उन्हीं दिनों भाई साहब दो पाउण्ड सलेटी रंग का ऊन खरीदकर लाए थे। भाभी ने आनन-फानन में मेरे लिए पूरी बांह का स्वेटर तैयार कर दिया, जिसने मुंह फैला चुकी कमीज को ढक लिया था। लेकिन मेरी स्थिति मेरे हेड मास्टर से छुपी न थी। एक दिन वह मेरे सामने आ बैठे और घुमा-फिराकर मुझसे यह जानने का प्रयत्न करते रहे कि क्या मेरे पास एक ही कमीज और स्वेटर हैं। मैंने क्या उत्तर दिए यह इस समय याद नहीं लेकिन यह याद है कि मैं बेहद भयभीत रहा था यह सोचकर कि कहीं वह मुझसे स्वेटर उतार देने के लिए न कहें। लेकिन उन्होंने जब कहा, ''किसी चीज की आवश्यकता होगी तो नि:संकोच कहना'' मैंने स्वीकृति में मूड़ी हिला दी थी। शायद अभावों में जीने की आदत ने मुझे कुछ ऐसा खुद्दार बना दिया था कि जीवन में कभी किसी से मांगकर कुछ भी हासिल न करने के संकल्प पर कायम रह सका।

स्कूल में दैनिक जागरण अखबार आता था। उन दिनों भारत-चीन युध्द चल रहा था। महोली स्कूल में ही अखबार से मेरा साक्षात हुआ था। पत्रिकाओं से तो बहुत बाद में परिचित हो सका। उन्हीं दिनों की घटना है। वैसे तो 'जागरण' विद्यार्थियों के हाथ लग ही नहीं पाता था और यदि किसी अध्यापक की मेज पर रखा भी होता तो हेडमास्टर के भय से हम उसे छूने का साहस नहीं कर पाते थे। हर विद्यार्थी उनकी नजर से बचता था। शरारत करते पकड़े गए तो उस समय वह डांटकर छोड़ देते, किन्तु अपने पीरियड में कसर पूरी कर लेते। वह सभी कक्षाओं को गणित पढ़ाते थे। उन दिनों अध्यापकों की मार आम बात थी। यह भय हमें गणित के अभ्यास में जुटाए रखता, लेकिन उस दिन शायद हेडमास्टर अस्वस्थ थे या कहीं गए हुए थे। वही नहीं, एक या दो अध्यापक ही उपस्थित थे और हेडमास्टर की अनुपस्थिति का वे भी लाभ उठा रहे थे।

उस दिन हमारी मौज थी। गुलाबी जाड़े का दिन था वह। बाहर मैदान में टाट-पट्टी बिछी थी और भोजनावकाश का समय था। कक्षा में तीन-चार छात्रों को छोड़कर अधिकांश खेलने भाग गए थे। हममें से कोई 'जागरण्ा' उठा लाया चुपके से। मेरे हाथ भी एक पेज लगा, उसमें किसी की वीर रस की कविता छपी थी, जो भारत-चीन युध्द पर थी। कविता पढ़कर मैं भी वीर रस में डूबने-उतराने लगा। तब मैं कक्षा में सबसे पीछे बैठता था। बहुत डरपोक जो था। खाने की छुट्टी के बाद कक्षा प्रारंभ हुई। बच्चे अपनी मस्ती में थे। मैं उस समय अपने में डूबा जागरण में पढ़ी कविता के तर्ज पर तुकबन्दी में व्यस्त था। काफी मशक्कत के बाद मैं चार पंक्तियां लिखने में सफल रहा था और उस समय मुझे लगा था कि मेरे रूप में किसी महान कवि का पुनर्जन्म हो चुका था।

कितने ही दिनों तक मैं अपनी उस प्रथम कविता को गाता-गुनगुनाता रहा। बाद में तुकबन्दी करने का नशा-सा हो गया। सफेद पन्नों को चौथाई कर छोटी डायरी बना ली और हर समय उसे जेब में रखने लगा। जब भी कोई कविता की पंक्ति मन में उमड़ती, उसमें लिख लेता। ऐसी एक डायरी, जिसमें चार-चार पंक्तियों की कविताएं दर्ज थीं बाला प्रसाद त्रिवेदी के पिता के हाथ लग गयी थी। भारी बरसात का दिन था वह। मैं मामा की चौपाल से उस खोयी डायरी को ढूंढकर असफल लौट रहा था कि उन्होंने, जिन्हें हम बच्चू नाना कहते थे, ने बुलाया। जब उन्होंने वह डायरी दिखाई, मैं संकोच से विजड़ित हो गया। अगर उसके ऊपर मेरा नाम न लिखा होता तो मैं कह देता, मेरी नहीं है। मुझे लगा था जैसे मैं कोई बड़ा अपराध करते हुए पकड़ा गया था, लेकिन उन्होंने मुझे उबार लिया था। डायरी मुझे मिल गयी थी।

कविताओं की तुकबन्दी का काम कम होने के बजाय बढ़ता गया। यहां तक कि मैं तुलसीदास की चौपाइयों और रहीम के दोहों के तर्ज पर रचनाएं लिखने लगा। जब भी मन को किसी बात से ठेस पहुंचती, पीड़ा होती.... एक कविता लिखी जाती। परिवार उन दिनों भयानक आर्थिक संकट से गुजर रहा था। पिताजी को अवकाश ग्रहण किए पांच वर्ष हो चुके थे। उनको नौकरी से मिली जमापूंजी समाप्त हो चुकी थी और हम सभी जानते थे कि भविष्य के दिन और भी अधिक कष्टप्रद होने वाले थे। वे दिन मेरे लिए इतने कष्ट के न थे, जितने मां-पिता के लिए थे। मां पिता जी के साथ कंधे से कंधा मिलाकर काम में जुटी रहतीं और दोनों मिलकर घर की गाड़ी खींचने का प्रयत्न कर रहे थे।

पिता (सुरजनसिंह चन्देल) एक कर्मठ और जुझारू व्यक्ति थे। उनकी जीवटता का एक ज्वलन्त उदाहरण यह है कि युवावस्था में कानपुर में अल:सुबह गंगा स्नान कर वह लखनऊ के लिए पैदल प्रस्थान करते इस संकल्प के साथ कि सूर्यास्त से पहले गोमती में स्नान करेंगे। और पैंतालीस-पचास मील की लंबी यात्रा तय कर वह संकल्प पूरा करते थे। अगले दिन वह गोमती में स्नान कर सूर्यास्त से पूर्व कानपुर पहुंंच गंगा में स्नान करते थे। भले ही इसे उनकी सनक कहा जाये, लेकिन यह किसी व्यक्ति के दृढ़ निश्चय का परिचायक है। मृत्युपर्यन्त मैंने उन्हें वैसा ही कर्मठ और दृढ़-निश्चयी देखा। नौकरी में रहते उन्होंने परिवार के किसी व्यक्ति को किसी कमी का एहसास नहीं होने दिया। खाली समय वह सत्संगति में व्यतीत करते। बचपन में कुछ दिन मैं कलकत्ता में रहा था। उन दिनों बावनगाछी (हाबड़ा) में पिता जी को रेलवे की ओर से अच्छा मकान मिला हुआ था। हम पहली मंजिल में रहते थे। पिताजी सुबह चार बजे उठ जाते। स्नानकर पैदल काली मन्दिर जाते और वहां से लौटकर सात बजे 'हावड़ा लोकोमोटिव वर्कशॉप' अपनी डयूटी पर। वह बहुत ही सीधे और सरल स्वभाव के थे। जबकि मां जिद्दी और जबर्दस्त स्वाभिमानिनी। समझौता करना या झुकना उन्होंने सीखा ही नहीं था। सामने वाले को ही झुकना पड़ता था। अत: मैंने जहां पिता से संघर्ष से जूझना सीखा, वहीं मां से स्वाभिमान और टूटकर भी न झुकना।


पिताजी के अवकाश ग्रहण करने से बहुत पहले ही मां ने मेरे ननिहाल में घर बना लिया था। नाना के पास बहुत जमीन थी.... गांव में सबसे अधिक। उन्होंने न केवल घर बनाने के लिए मां को जमीन दी बल्कि 13 बीघा खेत भी दिए थे। दरअसल मेरे नाना की मृत्यु तभी हो गयी थी जब मामा ढाई वर्ष और मां डेढ़ वर्ष के थे। दोनों का पालन-पोषण चाचा कंचन सिंह ने किया था। मां को वह बहुत चाहते थे और उनके विवाह के बाद उन्होंने यही चाहा था कि उनकी भतीजी मायके में ही बसे। वैसे भी पिताजी के सौतेले भाई के अतिरिक्त कोई नहीं था। उनके गांव देसामऊ के उनके दस बीघे खेतों (जो आज कानपुर शहर की सरहद पर हैं और जिनकी कीमत दो करोड़ से कम नहीं है) पर उनके भांजे अर्थात मेरी बुआ के लड़के ने कोर्ट में यह हलफनामा देकर कि उनके मामा की मृत्यु हो चुकी है और वे ही उनके वारिस हैं कब्जा कर लिया था और पिता जी ने यह कहकर कि, ''भांजा बेटा समान है..... मुझे कोई शिकायत नहीं'' स्थिति को स्वीकार कर लिया था।

1959 में अवकाश ग्रहण कर गांव आने के समय पिताजी के पास अच्छी जमापूंजी थी जिससे तीन वर्ष तक पुराने ढर्रे पर जीवन बीता था। उन्होंने दो भैंसें,एक गाय और दो भैंसे (खेत जोतने के लिए) खरीद लिए थे। खेती तिहाई में दे दी और स्वयं भैंसों और गाय की सेवा में रहने लगे थे। तीन वर्षों में बैंक का पैसा शून्य हो चला तो उन्हीं भैंसों और गाय का दूध परिवार के भरण-पोषण का सहारा बना था। खेती साथ नहीं दे रही थी बावजूद इसके कि तिहाईदार के साथ पिताजी ने अपने को भी मिट्टी बना लिया था। साफ-सफ्फाफ धोती और मलमल या सिल्क के कुर्ते में रहने वाला व्यक्ति कानपुर के किसी मिल की बनी मोटी लुंगी और बेटे की छोड़ी कमीज से बसर करने के लिए विवश हो गया था। लेकिन उफ नहीं, कोई पीड़ा नहीं, अफसोस नहीं। कभी-कभी यह अवश्य कहते कि ''रिटायरमेंट के समय कलकत्ता में दो खोली मिल रही थीं तीन-तीन हजार में, खरीद लेता तो आज यह सब न करना पड़ता।''

पिताजी के कलकत्ता से चलने से पूर्व भाई साहब ने हाईस्कूल कर लिया था। उन्हें रेलवे में नौकरी मिल रही थी.... चार सौ रुपए रिश्वत देनी थी। रिश्वत देना पिताजी के सिध्दान्त के विरुध्द था। बी.ए. कर भाई साहब नौकरी की तलाश में जूठ गए और सोलह महीने भटकते रहे थे। उनकी नौकरी लगने तक परिवार के पास आय का स्रोत मात्र भैंसों व गाय का दूध रहा। मां के सारे जेवर पेट भरने के लिए बिक गए थे या दूधिया के पास रेहन जा चुके थे, जिन्हें कभी वापस लौटाया नहीं जा सका। कई बार मेरी फीस के पैसे भी कठिनाई से जुट पाते। कॉपी-किताबें खरीदने के लिए पैसे न होते। मैं घर की स्थिति समझता था और स्वयं भी कोई न-कोई मार्ग निकालने की सोचता रहता, और निकाला भी। 1964 में सातवीं की परीक्षा उत्तीर्ण करते ही चिन्तित हो उठा कि आठवीं की कॉपी-किताबें केैसे खरीदी जाएंगी। एक विकल्प सूझा। मामा के खेत कट रहे थे। चमरौटे की कुछ औरतें और बच्चे सीला (खेत काटते समय टूटकर गिरी बालियां) बीनने जाते थे। मामा के खेत गांव में सभी के खेतों से अधिक पैदावार देते थे। गेहूं, जौ, चना, सरसों-लाही फट पड़ता। सीला बीनने वालों का नेतृत्व नानी करतीं । नानी जैसी देवी-स्वरूपा स्त्री मैंने जीवन में दूसरी नहीं देखी। मैंने नानी से प्रस्ताव किया कि मैं भी उनके साथ सीला बीनने जाउंगा। हंसकर उन्होंने स्वीकृति दे दी। सीला बीनने के मेरे निहितार्थ को शायद वे भांप न पायी थीं।

नानी की स्वीकृति पा मैं कितना खुश था इसका अन्दाजा वही लगा सकता है, जिसने वैसी स्थिति देखी होगी। मई-जून (तब खेती की कटाई जून प्रारंभ... और कभी-कभी जून मध्य तक चलती थी) की भयंकर तपिश में मैं गेहूं, जौ, और चना की बालियां जिस गति से टूंगता रहा था, उससे साथ वाले आश्चर्य करते रहे थे। कुछ सरसों भी हाथ लगी थी। सबको कूट-काटकर बेचने से जो मिला उसने आठवीं की पुस्तकें-कॉपियां खरीदने की चिन्ता से मुझे मुक्त कर दिया था।

आठवीं में पहुंचा तो कविताएं लिखने में व्यवधान पड़ा, पढ़ाई का दबाव और हेडमास्टर की छड़ी का भय बढ़ ग़या था। यह भी था कि अच्छे अंकों में उत्तीर्ण होना है, जिससे आगे फीस माफ रहे। मेरी परीक्षा से पहले भाई साहब की नौकरी एच.ए.एल. कानपुर में लग गयी थी। घर ने राहत की सांस ली थी।

परीक्षा के बाद खाली हुआ तो कुछ लिखने की इच्छा हुई। मई का महीना था वह। तुकबन्दी से मन ऊब चुका था। दरी-चादर बिछाकर बरौठे में आसन जमाया और लिखने लगा, 'नौकरी की खेज' । तब तक लंबी कहानी और उपन्यास विधा से परिचय न हुआ था। फिर भी लिखता गया था। दरअसल उसका नायक मैं स्वयं था। वह कहानी तत्काल नहीं जन्मी थी। तीन वर्षों तक मेरी डयूटी प्रतिदिन शाम को घेर में लगती आ रही थीं। पिताजी सुबह जानवरों को चराने ले जाते। शाम जानवर आगे आते, पिताजी काफी बाद में। घेर में पहुंचते ही जानवरों को उनके खूंटों से बांधने का काम मेरा होता। मैं घण्टा-दो घण्टा पहले घेर में पहुंच जाता और चारपाई पर लेट कल्पना की ऊंची उड़ान भरता रहता। 'नौकरी की खोज' उसी का परिणाम थी। लगभग सत्तर-पचहत्तर पृष्ठों की थी वह कहानी। बाद में वह कैसे नष्ट हुई याद नहीं।

जुलाई, 1965 में नौंवीं में 'भास्करानन्द इण्टर कॉलेज', नरवल में विज्ञान में प्रवेश लिया। यह वही कॉलेज है जहां से स्व. कन्हैयालाल नन्दन ने भी हाई स्कूल किया था। लेकिन यह बात बहुत बाद में नन्दन जी से मिलने के बाद ज्ञात हुई थी। यही नहीं नरवल झण्डा गान के रचयिता श्यामलाल पार्षद की जन्मस्थली भी है।

इन्हीं दिनों गांव के एक सीनियर छात्र, प्रेम प्रताम अवस्थी, जो कानपुर में पढ़ रहे थे, से मुझे पांच जासूसी उपन्यास प्राप्त हुए। बड़े चाव से दो ही पढ़ पाया था कि रविवार की छुट्टी में आए भाई साहब के हाथ पांचों लग गए। फिर क्या था! वह घटना आज भी भूल नहीं पाया। उनके शब्दों के कोड़े बरसते रहे और मैं सिर नीचा किए चुपचाप सुनता रहा था। उसी शाम पांचों उपन्यासों को मैंने मिट्टी का तेल डालकर जला दिया था।

हाईस्कूल के बाद भाई साहब मुझे शहर ले गए। उसी वर्ष गर्मी में (1967) में छोटी बहन की शादी हुई थी। मेरे छोटे बहनोई जाजमऊ इण्टर कॉलेज में पढ़ते थे। उन्होंने भी उसी वर्ष हाई स्कूल किया था। हम दोनों ने विज्ञान विषय में प्रवेश लिया। कुछ दिन होस्टल में रहकर हम सभी भाई साहब के पास रहने आ गए। खासकर हमारी सुविधा को ध्यान में रखकर भाई साहब ने हरिजिन्दर नगर के पास बड़ा कमरा किराए पर ले लिया था, लेकिन मेरा मन उखड़ा-सा रहने लगा था। कारण था गणित का पल्ले न पड़ना। कोर्स आगे बढ़ता जा रहा था और मैं पिछड़ता जा रहा था। मैं परेशान हो उठा। मैंने निर्णय किया कि मुझे गांव लौटकर 'भास्करानन्द' में प्रवेश लेना चाहिए। शहर मेरे लिए बना ही नहीं है या मैं शहर के लिए। संयोग से उसी वर्ष वहां इण्टर में विज्ञान शुरू हुआ था। गांव लौटने की मेरी जिद के समक्ष भाई साहब को परास्त होना पड़ा। यह अगस्त 1967 की बात होगी। उन्होंने किराए के लिए पांच रुपए दिए और मैं शहर को प्रणाम कर हाथ में किताबों का थैला थाम गांव लौट पड़ा। मन इतना खिन्न था कि पैदल चला तो चलता ही गया। तीस किलोमीटर की यात्रा पैदल तय कर दोपहर दो बजे गांव पहुचा। रास्ते भर सोचता रहा कि भाई साहब को नाराज कर अच्छा नहीं किया, लेकिन यह भी सोचता रहा कि यदि उसी कॉलेज में पढ़ता रहता तो फेल होना तय था।

मेरा गांव लौटना मां को अच्छा भी लगा और नहीं भी। भाई साहब से सारा घर डरता था। एक तो कमाऊ वही थे। दूसरे वे घर वालों के मध्य मंभीरता ओढ़े रहते थे। मां का कहना था कि मेरे गांव लौटने का आरोप उन्हीं पर लगेगा और हुआ भी यही। भाई जब गांव आए, मुझे लेकर कलह हुई। लेकिन मां ने 'भास्करानन्द' में मेरे प्रवेश के लिए पैसों की व्यवस्था कर दी थी। किसी प्रकार ग्यारहवीं पास की। लेकिन उसी वर्ष (9 जुलाई,1968) मुझे भयानक 'टायफायड' हो गया जो 14 दिनों तक रहा। इतने ही दिनों में न केवल उसने मेरा शरीर निचोड़ दिया, बल्कि अनेक 'साइड एफेक्ट्स' भी छोड़ गया। मैं महीनों इस याग्य नहीं रहा कि कॉलेज जा सकता। पढ़ाई रोकनी पड़ी। वह पूरा वर्ष जानवर चराते बीता। ऐसी स्थिति में साहित्य की सुध लेने की कल्पना स्वप्न में भी नहीं आयी। कुछ बीमारियाें ने शरीर में अड्डा जमा लिया। उनसे मुक्ति के लिए जंगल की न जाने कितनी जड़ी-बूटियों से परिचय हुआ। कई डॉक्टर, हकीम और वैद्यों के सम्पर्क में आया। आयुर्वेद की कई पुरानी पुस्तकें चाट डाली। लेकिन लाभ नहीं हुआ।

इस बेकार और खाली वर्ष ने मुझे अपने जीवन पर पुनरावलोकन के लिए विवश किया। मुझे लगा कि गांव में रहकर निश्चित ही मेरा जीवन नर्क हो जाएगा। मैं गांव में ही खप जाने के लिए नहीं पैदा हुआ। कुछ बनना है तो शहर लौटना ही होगा। 1969 के प्रारंभ से ही मैंने मां से शहर जाकर पुन: पढ़ने की इच्छा व्यक्त करनी प्रारंभ कर दी। मेरा आभिप्राय था कि अवसर देख वह भाई साहब से मेरी इच्छा जाहिर करें। मां के कहने पर भाई साहब ने बेरुखी से उत्तर दिया कि ''यह शहर में नहीं पढ़ पाएगा, इसके लिए गांव ही ठीक है।'' अंतत: पिताजी के हस्तक्षेप के बाद वे तैयार तो हुए, लेकिन पढ़ाई के लिए नहीं, आई.टी.आई. में ट्रेनिगं दिलवाने के लिए। मुझे उनकी सलाह माननी पड़ी। जुलाई में मुझे वहां प्रवेश मिला। रहने की व्यवस्था होस्टल में हो गयी। होस्टल मुफ्त था। खर्च के लिए मैं प्रतिमाह तीस रुपए भाई साहब से लेता था और उसमें जिस ठाठ से रहता था, आज सोचकर आश्चर्य होता है।

मेरे संघर्ष का नया दौर हाईस्कूल के बाद ही शुरू हो गया था। 1970 जुलाई में आई.टी.आई. से निकलने के बाद भाई साहब के साथ रहने लगा। उन्हीं दिनों (20 सितम्बर,1970) को पिताजी का देहान्त हुआ। मैं उस दिन इण्टरमीडिएट का प्राईवेट फार्म भरने के लिए शहर में था। कुछ दिनों बाद ही मैं भी अस्वस्थ हो गया। सभी मेरी खिल्ली उड़ाते कि मुझे कोई बीमारी नहीं...शक की बीमारी है। जून,1971 तक मेरी स्थिति बिगड़ती चली गयी और मेरा वजन 54 किलो से घटकर 40 किलोग्राम रह गया। एक दिन कुछ ऐसा घटित हुआ कि भाई साहब भी घबड़ा गए। किदवई नगर के डॉ. के.के. भार्गव को दिखाया। पता चला कि 'इल्यूसिकिल आंत' बढ़ गयी है। 'एक्स-रे' ने स्पष्ट कर दिया कि यदि शीघ्र ही ऑपरेशन न किया गया तो वह फट जाएगी। 20 जून,1971 को मैं हैलट अस्पताल में भर्ती हुआ और 11 जुलाई, को डॉ. एस.पी.जैन ने ऑपरेशन किया। यह मर्ज 'टायफायड' की देन था। उसके बाद मैं पूर्णरूप से स्वस्थ हो गया और आज तक हूं।

1971 में प्राइवेट छात्र के रूप में बारहवीं की परीक्षा की तैयारी के साथ नौकरी की तलाश जारी रही थी। प्रतिदिन सुबह दस बजे साइकिल पर घर से निकलता और दिन भर एक फैक्ट्री से दूसरी या एक फर्म से दूसरी भटककर नौकरी खोजता रहता। कितनी ही जगहों में 'नहीं है' का दो टूक रूखा जवाब मिलता तो कहीं-कहीं अपमानित कर निकाला जाता। ऐसी ही एक घटना न्यू मार्केट के पास एक 'जॉब प्रेस' के दफ्तर की है। 1971 में चार महीने नयागंज के सेल्स-इनकम टैक्स के एक वकील के घर के कार्यालय में काम किया। सुबह आठ बजे से दोपहर बारह बजे तक और मिलते थे पचास रुपए महीना। सुबह दफ्तर पहुंचने पर मुझे उसका टेलीफोन-मेज साफ करना होता और फाइलें ठीक ढंग से सजानी होतीं। कई बार सब्जी या घर के लिए मेवे लाने होते। यही नहीं वकील साहब का प्रस्ताव था कि मैं लंच साथ लाया करूं और बारह से चार बजे तक उसकी मां को पढ़ा दिया करूं, जो अपढ़ थी, तो वह मेरे वेतन में पचीस रुपए मासिक की वृध्दि कर देगा। मैंने इनकार कर दिया। मेरे उपन्यास 'शहर गवाह है' में वकील के जिस टापपिस्ट का वर्णन है वह कोई और नहीं।

चार माह बाद बीमारी के कारण मैंने वह नौकरी छोड़ दी। स्वस्थ होने के बाद महीनों भटककर भी जब नौकरी नहीं मिली तो 1972 के आखिरी दिनों में मुझे पुन: वकील साहब की शरण में जाना पड़ा और पचास रुपए में चार घण्टे प्रतिदिन उसकी उपेक्षापूर्ण नजरों का सामना करने के लिए विवश होना पड़ा था। यहीं 'ब्रम्हकुमारी आश्रम' की वास्तविकता का परिचय मुझे मिला। वकील परिवार उसका अन्ध-भक्त था और सप्ताह में एक बार अनेक सम्पन्न युवक-युवतियां सुबह आठ बजे के आसपास उसके यहां आते थे। एक बड़े हॉल में पर्दे के पीछे वे सब क्या करते, मेरे लिए रहस्य होता। बाद में अनेक विवादास्पद बातें इसके विषय में मैंने सुनीं थीं।

बेकारी के दिनों में मैंने बी.ए. करने का संकल्प किया। 'रेगुलर' पढ़ने की तौफीक न थी और विश्वविद्यालय ने प्राइवेट की खुली छूट तब तक नहीं दी थी। केवल अध्यापकों के लिए प्राइवेट की छूट थी.... भले ही वे किसी भी स्तर के हों। मेरा मित्र इकरार्मुहमान हाशमी मेरे साथ ही बेकारी से जूझ रहा था। हम दोनों ने ही किसी स्कूल के सहयोग से बी.ए. का प्राइवेट फॉर्म भरने का निर्णय किया। उसने अनेक मान्यता प्राप्त प्राइमरी और जूनियर हाई स्कूलों के हेडमास्टरों और मास्टरों से संपर्क करना शुरू किया। एकाध तैयार भी हुए तो रिश्वत मांगी सौ रुपए। कहां से लाते इतना पैेसा! मैं यह सब भाई साहब से छुपाकर कर रहा था। क्योंकि उनकी शर्त थी पहले नौकरी....शेष सब बाद में। मैंने इसके लिए एक जूनियर हाईस्कूल में पढ़ाना शुरू कर दिया, जो घर के पास था। दोनों ही लालच थे....फॉर्म भरने और कुछ मुद्रा लाभ का। लेकिन एक माह सिर खपाने के बाद जब उस घानी से तेल निकलता नजर नहीं आया तो पढ़ाना छोड़ दिया। इकराम भी अनेक स्कूलों के चक्कर काटकर हार चुका था। एक दिन भाई साहब ने अपने कई मित्रों के सामने कहा कि जितनी ऊर्जा मैं बी.ए. का फॉर्म भरने में खर्च कर रहा हूं यदि उसकी आधी भी नौकरी पाने के लिए करूं तो नौकरी मिल सकती है। उनकी बात कुछ समझ में आयी और मैं नए सिरे से नौकरी की खोज में लग गया। उसके लिए हर दूसरे दिन रोजगार कार्यालय जाने लगा।

दिन बीतते रहे और नौकरी दूर भागती रही। आखिर एक दिन किसी ने बताया कि 'फूड कॉर्पोशन ऑफ इण्डिया' में लेबरर्स की भर्ती होने वाली है। उसके लिए झखरकटी रोजगार कार्यालय में रजिस्ट्रेशन आवश्यक था। वहीं से लेबरर्स की वेकेंसी जाती थीं। मैं और इकराम आठवीं की सार्टिफिकेट ले गन्दे पायजामे-कमीज में जा पहुंचे वहां। क्लर्क को सन्देह हुआ हमारी शैक्षणिक योग्यता पर। आखिर हमें शपथ लेनी पड़ी कि हम आठवीं ही पास हैं। रजिस्ट्रशन तो हुआ, लेकिन हम 'फूड कॉर्पोरेशन' से कॉल लेटर की प्रतीक्षा ही करते रहे।

अंतत: लंबी बेकारी के बाद 17 अप्रैल,1973 को मुझे रक्षा लेखा विभाग में नौकरी मिली। आर्डनैंस फैक्ट्री कानपुर में पोस्टिंग हुई। नौकरी लगते ही पढ़ने की दबी ललक पुन: उभरी और मैंने डी.बी.एस. कॉलेज गोविन्दनगर में सुबह शिफ्ट में बी.ए. में प्रवेश ले लिया। मात्र चार दिन ही कॉलेज गया कि मेरा स्थानान्तरण आर्डनैंस फैक्ट्री, मुरादनगर कर दिया गया। कानपुर से उखड़कर 31 अक्तूबर, 1973 को मुरादनगर पहुंचा। संयोग से उसी वर्ष कानपुर विश्वविद्यालय ने प्राइवेट परीक्षा की खुली छूट दे दी थी। लेकिन विश्वविद्यालय क्षेत्र में रहने की शर्त भी थी। जिसके लिए प्रमाण-पत्र देना होता था। यह काम भाई साहब ने संभाला। मैं कानपुर जाकर फॉर्म भरता रहा और किताबों से भरी अटैची उठाए मुरादनगर पहुंचता रहा। वहां फैक्ट्री होस्टल में रहता था, जो जंगल में है। पढ़ने को भरपूर एकान्त मिला। दफ्तर में न के बराबर काम था जिसका मैंने उपयोग किया। परिणामत: एम.ए. (हिन्दी) में 1976 में विश्वविद्यालय में जो बीस विद्यार्थी प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण हुए उनमें मैं एक था। उन दिनों कानपुर विश्वविद्यालय से चार सौ कॉलेज संम्बध्द थे। सबसे अधिक प्रसन्नता इस बात की थी कि मैं डी.ए.वी. कॉलेज कानपुर से सम्मिलित हुआ था और उस वर्ष वहां से मैं ही एकमात्र प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण होने वाला छात्र था। यह 1976 की बात है। इसी वर्ष दिसम्बर में पुखरांया (कानपुर) डिग्री कॉलेज में हिन्दी लेक्चरर के साक्षात्कार में शामिल हुआ। मैं चुना गया। लेकिन,जैसा कि बाद में ज्ञात हुआ, कॉलेज के चेयरमैन, जो कानपुर विश्वविद्यालय के पूर्व कुलपति थे एक लड़की में रुचि रखते थे। बोर्ड निरस्त हुआ और वहां अगले तीन वर्ष तक कोई नहीं चुना गया। दिल्ली के भी कई कॉलेजों में अभ्यर्थी रहा, लेकिन जानता था कि केवल याग्यता ही ऐसी जगहों के लिए पर्याप्त नहीं होती। जो मुख्य योग्यता चाहिए थी वह मुझमें नहीं थी और मैं किसी कॉलेज में नहीं चुना जा सका। इस विषय पर आधारित कहानी 'चेहरे' 1988 में लिखी थी, जो 'सम्बोधन' और 'सण्डे मेल' में प्रकाशित और चर्चित हुई थी। मेरे 'नटसार' उपन्यास का केन्द्रीय विषय ही विश्वविद्यालय की राजनीति है जिसे मैंने श्यामल राय उर्फ बेबे के माध्यम से कहा है। प्राध्यापकों की राजनीति,अवसरवाद और लम्पटता के साथ साहित्य और पत्रकारिता में व्याप्त राजनीति और अवसरवाद को भी इसमें चित्रित किया गया है। शायद प्राध्यापक न बनना मेरे हित में रहा। मेरी नौकरी की चुनौतियां सदैव मुझे लिखने के लिए प्रेरित करती रहीं। वह एक ऐसा नर्क था जिससे मुक्ति के लिए 1976 के बाद से ही मुझमें छटपटाहट थी, लेकिन मध्यवर्गीय जीवन की विवशताओं ने 30 नवम्बर, 2003 को वह अवसर प्रदान किया। अवकाश ग्रहण के छ: वर्ष रहते हुए मैंने नौकरी से त्यागपत्र दे दिया। उसके बाद मैंने निरंतर कार्य किया और वह किया जो मैं करना चाहता था। महान रूसी उपन्यासकार लियो तोल्स्तोय के अंतिम और अप्रतिम उपन्यास -'हाजी मुराद' का अनुवाद किया, जिसका अनुवाद हिन्दी में पहले कभी नहीं हुआ था। 'शहर गवाह है' और 'गुलाम बादशाह' उपन्यास लिखे।'दॉस्तोएव्स्की के जीवन के अछूते पक्षों पर केन्द्रित मौलिक दृष्टिकोण से उनकी जीवनी - 'दॉस्तोएव्स्की के प्रेम' लिखा। 'हाजी मुराद' के अनुवाद पर वरिष्ठ कथाकार ज्ञानरंजन ने लिखा - ''अप्रतिम''। लेकिन इस 'अप्रतिम' को अपने सलाहकार के सुझाव पर 'किताबघर' ने पन्द्रह दिनों के अंदर वापस कर दिया था। एक मित्र की सलाह पर मैंने इसके एक अंश के साथ 'संवाद प्रकाशन' के आलोक श्रीवास्तव को पत्र लिखा। उससे पहले उनसे मेरा संपर्क नहीं था। आलोक ने पूरा उपन्यास पढ़ने की इच्छा जाहिर की। पढ़कर उसे तुरंत प्रकाशित करने का निर्णय किया। 'दॉस्तोएव्स्की के प्रेम' उनके आग्रह पर ही लिखी गयी और संवाद से ही प्रकाशित हुई। संवाद ने उत्कृष्ट विश्व साहित्य का अनुवाद प्रकाशित कर प्रकाशन की दुनिया में नए कीर्तिमान स्थापित किया है। पिछले दिनों मैंने तोल्स्तोय के परिवारजनों, मित्रों, लेखकों, रंगकर्मियों आदि के उन पर लिखे उनतीस संस्मरणों का अनुवाद किया जो संवाद प्रकाशन से शीध्र ही प्रकाश्य है।

यद्यपि एम.ए. के बाद मैंने पी-एच.डी. करने का निर्णय किया, तथापि अनेक प्रयासों के बावजूद कोई निर्देशक नहीं मिला। जिससे भी मिला उसका एक ही उत्तर रहा, आपने प्राइवेट एम.ए. किया है, शोध नहीं कर पायेंगे। प्राइवेट परीक्षार्थी होना मेरी अयोग्यता बन गया था...... प्रथम श्रेणी योग्यता न बन सकी। यही नहीं जो निर्देशक तैयार भी होते वे पैसों की मांग करते। अपने अधीन रजिस्टे्रशन करवाने और पी-एच.डी. पूरी करवाने के तीन हजार से पांच हजार तक की मांग की गयी। कानपुर क्राइस्टचर्ज कॉलेज के हिन्दी विभागाध्यक्ष (शायद बालमुमुन्द गुप्त) ने पांच हजार रुपयों की मांग की, जबकि मोदी कॉलेज के तत्कालीन विभागाध्यक्ष बाजपेई ने तीन हजार पंजीकरण के अतिरिक्त प्रतिवर्ष एक हजार रुपयों की मांग की थी। हिन्दी के नाम पर हो रही लूट से मैं हत्प्रभ था। लेकिन बहुत प्रयास के बाद कानपुर विश्वविद्यालय में कार्यरत अपने मित्र श्री डी.पी. शुक्ल के माध्यम से मेरी यह समस्या सुलझ गयी थी। कानपुर के डी.वी.एस. कॉलेज के रीडर डॉ. बैजनाथ त्रिपाठी इस शर्त पर अपने अधीन मेरे पंजीकरण के लिए तैयार हुए कि वह मेरी कोई सहायता नहीं करेंगे.... सब कुछ मुझे स्वयं ही करना होगा और वह मैंने सफलतापूर्वक किया भी। 1985 में पी-एच.डी. की डिग्री मिलने के बाद 'रविवारीय हिन्दुस्तान' में मैंने लंबा आलेख लिखा इस लूट और प्राध्यापकों के नैतिक-चारित्रिक पतन के विषय में। अपने छात्रों का कितना शोषण करते हैं ये प्राध्यापक (अधिकांश) कि जानकर सिर शर्म से झुक जाता है। यदि शोध विद्यार्थी लड़की हुई तब शोषण पराकाष्ठा पर पहुंचने की संभावना रहती है।

1977 में मुरादनगर के कुछ साहित्यकार मित्रों के सम्पर्क में आया। वे एक साहित्यिक संस्था 'विविधा' चलाते थे, जिसमें कथाकार सुभाष नीरव और प्रेमचन्द गर्ग मुख्य थे। मैं उसकी गोष्ठियों में शामिल होने लगा। बड़ा उत्साह था उन लोगों में। मुझमें सोया साहित्यकार अंगड़ाई लेने लगा था। उन दिनों मेरे द्वारा प्रस्तुत -'समसामयिक परिप्रेक्ष्य में यशपाल के कथासाहित्य का अनुशीलन' शोध-विषय डॉ. विजयेन्द्र स्नातक की अध्यक्षता में हुई विद्वत परिषद की बैठक में निरस्त हो चुका था। मैं दूसरे विषय की खोज में था। इसी खोज के दोरान मैं कानपुर के प्रसिध्द विद्वान-समाजशात्री और उन दिनों 'कंचनप्रभा' पत्रिका के सम्पादक शम्भूरत्न त्रिपाठी के सम्पर्क में आया। कंचनप्रभा के कार्यालय में ही मेरी मुलाकात गीतकार विजयकिशोर मानव से हुई जो उन दिनों दैनिक जागरण का रविवारीय परिशिष्ठ देखते थे। वहीं मेरी पहली मुलाकात कानपुर के वरिष्ठ कथाकार राजेन्द्र राव से हुई थी। वह मुझे पहले से ही जानते थे जबकि एक कथाकार के रूप में तब तक मेरी कोई पहचान नहीं थी। मुझे बाद में ज्ञात हुआ कि उन दिनों कानपुर में मेरी चर्चा मेरी तब तक छुटपुट प्रकाशित रचनाओं के कारण नहीं बल्कि एक प्राइवेट छात्र के रूप में एम.ए. में प्रथम श्रेणी प्राप्त करने के कारण थी। त्रिपाठी जी मेरे मुक्त प्रशंसक थे। वह मात्र ग्रेजुएट थे लेकिन उनके द्वारा लिखी समाजशास्त्र की पुस्तकें विश्वविद्यालय में पढ़ाई जा रही थीं। यही नहीं वे हिन्दी-साहित्य मर्मज्ञ भी थे। उन्होंने मुझे कई शोध विषय सुझाए, लेकिन वे इतने शास्त्रीय थे कि मैंने उनपर कार्य करने में अपने को असमर्थ पाया। अंतत: 'प्रतापनारायण श्रीवास्तव के व्यक्तित्व एवं कृतित्व पर प्रस्तुत मेरा विषय स्वीकृत हो गया था। 'विविधा' से जुड़ने के बाद मेरे लेखन में तेजी आई थी। कुछ रचनाएं इतस्तत: प्रकाशित भी होने लगी थीं।

मुरादगर छोटी-सी जगह है जहां केवल आर्डनैंस फैक्ट्री और उसका ही एस्टेट है। 'विविधा' के तीन मित्र सुभाष नीरव, सुधीर अज्ञात और सुधीर गौतम दिल्ली में नौकरी करते थे। ये लोग विभिन्न पुस्तकालयों के सदस्य थे। वहां रहते हुए इनके माध्यम से मुझे अनेक हिन्दी और विदेशी लेखकों को पढ़ने का अवसर मिला। 'सारिका', 'धर्मयुग', 'साप्ताहिक हिन्दुस्तान' आदि पत्रिकाएं भी इन्हीं लोगों ... विशेषरूप से नीरव के माध्यम से मुझे मिलती थीं। विविधा के दो सदस्य - सुभाष नीरव और मुझे छोड़कर शेष सभी अपनी-अपनी गृहस्थी में व्यस्त हो जाने के कारण साहित्य से दूर हो गए। इस संस्था का बार-बार उल्लेख मैं इसलिए करता हूं कि मैं आज जो भी हूं उसमें इसकी महत भूमिका स्वीकार करता हूं।

शोध के लिए दिल्ली विश्वविद्यालय के तत्कालीन हिन्दी विभागाध्यक्ष से विश्वविद्यालय के केन्द्रीय पुस्तकालय की सदस्यता के लिए विशेष अनुमति प्राप्त कर मैं वहां का सदस्य बना। मारवाड़ी पुस्तकालय, चांदनी चौक, दिल्ली के पुस्तकालयाध्यक्ष कल्याण पारीख ने न केवल सहजता से सदस्यता प्रदान की बल्कि सुधा, माधुरी आदि पुरानी पत्रिकाओं के अंक साथ ले जाने की अनुमति भी प्रदान की थी, जिसकी अनुमति कोई पुस्तकालय नहीं देता।

1979 में मेरी पहली कहानी माक्र्सवादी पत्र 'जनयुग' में प्रकाशित हुई। जून 1979 में शादी के बाद से अक्टूबर 1980 तक मैं गाजियाबाद रहा। 11 अक्टूबर,1980 को मैं शक्तिनगर, दिल्लीं शिफ्ट हुआ, जहां से 3 अगस्त, 2003 को सादतपुर के अपने मकान में आया। दिल्ली में एक ही मकान में मकान मालिक से बिना किसी विवाद के इतने लंबे समय तक रह लेना मेरे जीवन की उल्लेखनीय घटना है। उल्लेखनीय इस अर्थ में क्योंकि यदि मुझे प्रतिवर्ष मकान बदलते रहना पड़ता तो मैं जितना लिख सका उतना शायद ही लिख पाता। एक अन्य कारण से भी यह महत्वपूर्ण है। हम पति-पत्नी नौकरीपेशा थे और बच्चों की सुरक्षा की दृष्टि से इससे अधिक उपयुक्त मकान मिलना कठिन था। मुझे सदैव मकान मालिक सोमनाथ रतन का सहयोग मिलता रहा। इस मकान में रहते हुए मैंने जमकर लिखा- कहानियां, उपन्यास, बाल कहानियां, लघुकथाएं, आलेख, निपोर्ताज, यात्रा संस्मरण, संस्मरण, समीक्षाएं, साक्षात्कार आदि।

यद्यपि पहली पुस्तक यत्किंचित (कविता संग्रह) मैंने और नीरव ने मार्च,1979 में अपने खर्च से संयुक्त रूप से प्रकाशित करवायी थी, जिसे पढ़कर डॉ. हरिबंशराय बच्चन ने मुझे लिखा था, ''मुझमें कवि बनने की प्रतिभा नहीं....कुछ भी बन सकते हो, लेकिन कवि नहीं बन सकते।'' मैंने स्वयं अनुभव किया कि उनका कथन सच था। उसके बाद मैंने कविताएं नहीं लिखी। मैंने अपना ध्यान कथा-साहित्य पर केन्द्रित किया। उन्हीं दिनों मैं प्रसिध्द बालसाहित्यकार डॉ. राष्ट्रबंन्धु के सम्पर्क में आया और कहानियों के साथ बाल कहानियां भी लिखने लगा। अब तक मेरे दस बाल कहानी संग्रह और तीन किशोर उपन्यास प्रकाशित हो चुके हैं। हालांकि अब बाल कहानियां लिखना स्थगित हो चुका है वैसे ही जैसे लघुकथा।


1982 में मेरा पहला बाल कहानी-संग्रह 'राजा नहीं बनूंगा' प्रकाशित हुआ। किसी प्रकाशक से प्रकाशित होने वाली यह मेरी पहली कृति थी। 1983 में 'किताब घर' से 'अपराध:समस्या और समाधान' (अपराध विज्ञान) पुस्तक प्रकाशित हुई। वहीं से मेरा पहला कहानी-संग्रह -'पेरिस की दो कब्रें' 1984 में प्रकाशित हुआ। पुस्तकों के प्रकाशन का जो सिलसिला प्रारंभ हुआ वह बदस्तूर जारी है। अब तक मेरी 42 पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं, जिनमें सात उपन्यास, बारह कहानी-संग्रह, तीन किशोर उपन्यास, यात्रा संस्मरण, आलोचना, लघुकथा-संग्रह, अनुवाद, जीवनी, आदि हैं। पांच पुस्तकें शीघ्र प्रकाश्य हैं, जिनमें एक कहानी-संग्रह (भीड़ में), अनुवाद, उपन्यास, संस्मरण (यादों की लकीरें - भाग एक) और साहित्यकारों के साक्षात्कारों की पुस्तक (शब्दशिल्पियों के साथ) हैं।

रेणु ने अपने पात्रों के विषय में अपने एक कहानी संग्रह की भूमिका में लिखा कि उनके पात्र उनके जीवन से किसी न-किसी रूप में जुड़े रहे हैं। अर्थात उन्होंने उन पात्रों को ही केन्द्र में रखकर लिखा जिन्हें वे जानते थे। मुझे भी यह कहते हुए अच्छा लग रहा है कि अधिकांशतया मेरे पात्र मेरे जाने-पहचाने ही हैं। लेकिन भोगे हुए यथार्थ के साथ देखे या पढ़े यथार्थ को भी अपने अन्दर जीने के बाद मैंने सफलतापूर्वक लिखा। मेरी 'भेड़िए' 'सड़क' 'खाकी वर्दी' जैसी अनेक कहानियां इसीप्रकार की हैं। लेकिन मेरे सभी उपन्यास तथा आदमखोर, पापी, हारा हुआ आदमी, उनकी वापसी, आखिरी ख़त' आदि कहानियां जाने-पहचाने चरित्रों पर ही लिखी गयी हैं। मेरी 'क्रान्तिकारी' कहानी, जो स्व. सत्येन कुमार की पत्रिका 'कहानी मासिक चयन' में 'और क्रान्ति शुरू हो गयी' शीर्षक से प्रकाशित हुई थी, के प्रकाशित होते ही बवाल मच गया था। मेरी रिश्तेदार स्व. शीला सिध्दान्तकर ने आरोप लगाया कि यह कहानी उनके पति को लेकर लिखी गयी थी। उन्होंने मुझे मरवाने की धमकी दी। मैंने जानना चाहा था कि कहानी के मुख्य पात्र शान्तनु को वास्तव में क्या उन्होंने पहचान लिया था जिसकी शातिर कारगुजारियों को मैं आज तक पकड़ नहीं पाया। मैंने जब-जब उसे पकड़ने का प्रयास किया और उसे केन्द्र में रख कोई रचना लिखी वह आगे इतना कुछ कर जाता रहा कि लगा कि वह फिर मेरे हाथ से फिसल गया।

प्राघ्यापन की दुनिया में अनेक ऐसे लोग हैं जो दिन में माक्र्सवाद का लबादा ओढ़े रहते हैं और रात के अंधियारे में सत्ता के गलियारे में घूमते दिखाई देते हैं। ये सुविधाभोगी छद्म माक्र्सवादी लोग हैं और माक्र्सवाद इनके लिए सुविधा-सम्पन्नता प्राप्त करने का साधन होता है। शीला सिध्दान्तकर भी अपने को माक्र्सवादी कहती थीं। लेकिन 'ये' लोगों का इसप्रकार इस्तेमाल करने में माहिर थे कि शोषण की पराकाष्ठा तक जिसका इस्तेमाल करते वह उफ तक न कर पाता। मैंने इस्तेमाल होने से इंकार किया और इन लोगों ने मेरे विरुध्द षडयंत्र प्रारंभ कर दिए जो मुझे तबाह करने के लिए पर्याप्त थे। मैं बचा यह मेरा भाग्य ही था (इस पर फिर कभी विस्तार से)। आज मुझे लगता है कि शीला जी तो अपने पति का मोहरा मात्र थीं।

यह बात अगस्त 1981 की है। उस समय मैंने इन लोगो की तुच्छ महत्वांक्षाओं के विषय में लोगों (अपने रिश्तेदारों) को आगाह किया था लेकिन हुआ उल्टा..... मेरे ससुराल पक्ष के सभी लोगों ने मुझे ही कटघरे में खड़ा कर दिया था। कहा गया कि यह सब मैं उनसेर् ईष्यावश कह रहा था। मैं अलग-थलग पड़ गया। लेकिन मार्च, 2001 में मेरा कहा जब सच साबित हुआ तब उन सबके के पास हाथ मसलने के अतिरिक्त कुछ भी शेष नहीं बचा था। पति के साथ षडयंत्र कर शीला जी ने अपने पिता के कानपुर के लाटूश रोड स्थित चार सौ वर्ग गज में बने मकान (जिसकी कीमत आज दो करोड़ से अधिक होगी) की वसीयत छद्म रूप से पिता से अपने नाम करवा ली थी और आठ भाई-बहन देखते रह गए थे। हालांकि वह उस मकान का कुछ कर पातीं उससे पहले ही कैंसर से उनकी मृत्यु हो गयी थी। लेकिन वह वसीयत आज भी उनके पति ने सहेज रखी है। संभव है कभी भविष्य में उसका उपयोग हो।

मेरे रिश्तेदारों ने जितना माानसिक कष्ट मुझे पहुंचाया, मेरे कुछ मित्रों ने उससे अधिक पहुंचाने का प्रयत्न किया। मेरे एक साहित्यिक मित्र मेरे उपन्यास 'रमला बहू' (1994 किताबघर) के प्रकाशन से इतना विचलित हुए कि उन्होंने मेरे प्रकाशकों को मेरे विरुध्द भड़काना प्रारंभ कर दिया। इन मित्र की किस रूप में मैंने सहायता की थी यह बताना भारतीय संस्कृति के विरुध्द है। मेरे दो प्रकाशकों को भड़काने में वह सफल भी रहे, लेकिन इसका मुझे लाभ ही हुआ। यह मेरे लिए एक बड़ी चुनौती थी। मैं निरंतर लिख रहा था यही उनके लिए कष्ट का कारण था। अपनी पुस्तकों के लिए मैंने नए प्रकाशक खोजे और आश्चर्यजनक रूप से उसके पश्चात मैं अनेक प्रकाशकों के संपर्क में आया। अब तक मेरी पुस्तकें चौदह प्रकाशकों से प्रकाशित हो चुकी हैं। यह सिलसिला जारी है।

एक उदाहरण और। मेरा उपन्यास 'पाथर टीला' अक्टूबर,1998 में प्रकाशित हुआ। प्रकाशक उस पर विचार-गोष्ठी करवाना चाहते थे। मेरे एक अन्य साहित्यिक मित्र ने सामयिक प्रकाशन, जहां से उपन्यास प्रकाशित हुआ था, के महेश भारद्वाज को तीन बार फोन करके उपन्यास पर विचार-गोष्ठी न करवाने के लिए कहा, लेकिन महेश के अनुसार -''जितना ही वह फोन कर विचार-गोष्ठी न करवाने के लिए कहते उतना ही मैं उसे करवाने के लिए दृढ़-संकल्प होता।'' साहित्य में मेरे विरुध्द चलने वाली दुरभिसंधियों ने मुझे कमजोर नहीं बल्कि मजबूत किया। मैं निरंतर कार्यरत हूं और जीवन के अंतिम क्षण तक कार्य करना चाहता हूं। चाहता हूं कि एक ऐसा उपन्यास लिख सकूं जो मेरे नाम का पर्याय बन सके। कुछ मित्रों का मानना है कि यह काम 'पाथर टीला' ने पूरा कर दिया है। लेकिन मुझे संतोष नहीं है। 'खुदीराम बोस' के प्रकाशित होते ही यूनीवार्ता ने उस पर विशेष फीचर प्रकाशित करवाया जो एक साथ एक ही दिन देश के कई सौ समाचार पत्रों में प्रकाशित हुआ। कहा गया कि 'खुदीराम बोस' पर हिन्दी में वह पहला उपन्यास था। मेरा अनुमान है कि आज भी वह पहला ही है। 'पाथर टीला' के विषय में भी हंस में यह लिखा गया कि हिन्दी का यह पहला उपन्यास है जिसमें खलनायक नायक के रूप में चित्रित हुआ है। मेरे उपन्यास 'नटसार' का नायक भी खलनायक ही है।

सफलताओं से मुझे प्रसन्नता होती है लेकिन असफलताओं से मैं निराश नहीं होता। नेपोलियन के बारे में विक्टर ह्यूगो ने अपने उपन्यास 'ले मेजराबल' में लिखा , '' वह आस्थावादी व्यक्ति था, जो सुख में प्रसन्न रहता ओैर दुख में शांत और मानता था कि समय बदलेगा अवश्य ... जो है वही नहीं रहेगा।'' उसकी यह बात मुझे बल देती है।
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