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मंगलवार, 1 दिसंबर 2009

यादों की लकीरें



संस्मरण


विनष्ट होना एक प्रतिभा का


रूपसिंह चन्देल

उनकी लापरवाही कहें या सोची-समझी आत्मघाती जिद , लेकिन उससे हिन्दी ने न केवल एक प्रतिभाशाली लेखक बल्कि एक प्रखर पत्रकार खो दिया . बात रमेश बतरा की है . रमेश से मेरी मुलाकात 1984 में हुई थी . वह सारिका में उपसम्पादक थे और 10 , दरियागंज , नई दिल्ली में बैठते थे , जहां सारिका , दिनमान और पराग के कार्यालय भी थे . सारिका कार्यालय जाने का मेरा सिलसिला 1982 के आसपास प्रारंभ हुआ था . तब मेरा परिचय केवल बलराम से था और महीना -दो महीने में कंधे पर जूट का थैला लटकाए ( जिसका उन दिनों फैशन था ) मैं सारिका जा पहुंचता और कुछ देर बलराम के सामने पड़ी कुर्सी पर बैठता और बलराम को काम करते या किसी से बतियाते देखता रहता . यदि मैं एक घण्टा वहां बैठता तो बलराम से नहीं के बराबर ही बात होती. कारण मैं भलीभांति समझता था. तब तक मेरा कोई साहित्यिक वजूद नहीं था और न ही मैं इस स्थिति में था कि किसी को कोई बड़ा क्या छोटा लाभ ही पहुंचा सकता . साहित्य में ऐसी स्थितियां सदैव रहीं लेकिन आठवेंं दशक में उनका विकास हुआ और आज वह सब चरम पर है ।

1984 तक सारिका में मेरी केवल एक -दो लघुकथाएं ही प्रकाशित हुई थीं । कहानियां सखेद लौटती रही थीं । उसमें मेरी केवल एक ही लंबी कहानी 'पापी' उपन्यासिका के रूप में मई 1990 में प्रकाशित हुई . उसके बाद सारिका बंद हो गयी थी .

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रमेश बत्तरा से सुभाष नीरव का गहन परिचय तब तक स्थापित हो चुका था. मेरा पहला कहानी संग्रह ‘पेरिस की दो कब्रें’ 1984 में किताबघर से प्रकाशित हुआ . सारिका में जिन दो लोगों को मैंने संग्रह दिया , वे बलराम और रमेश बतरा थे . रमेश से तभी परिचय हुआ , और उस परिचय के लिए मुझे सुभाष नीरव के परिचय का सहारा लेना पड़ा था .

बतरा से परिचय होने के बाद मैं जब भी सारिका जाता उन्हीं के पास बैठता । उन दिनों वहां के

सम्पादकीय विभाग में लेखकों का आवागमन लगा रहता था । मेरा जाना प्राय: शनिवार को होता और मुझ जैसे कुछ अन्य सरकारी बाबू लेखकों के लिए भी वही दिन सुविधाजनक होता था और उनके पत्र-पत्रिकाओं के कार्यालय जाने के पीछे वहां कार्यरत लोगों से याराना निभाने से अधिक अपनी रचना के लिए उनकी दृष्टि में बने रहने का भाव ही अधिक होता था और निश्चित ही मेरे मन में भी यह नहीं था यह कहना हकीकत से मुंह चुराना होगा . गाहे-बगाहे लेखक अपने परिचित उप-सम्पादक को वहां विचारार्थ पड़ी अपनी कहानी की याद भी दिलाते और मुझे याद है कि परिचय के बाद मैंने भी रमेश बतरा से अपनी एक कहानी की बाबत पूछा था और पान की पीक हलक से नीचे उतारते हुए मुंह ऊपर उठा मुस्कराते हुए बतरा ने कहा था ,''पता करूंगा .''

और सारिका में रहते उन्होंने शायद ही कभी मेरी कहानी के विषय में पता किया और आज मैं समझ सकता हूं कि वह इतना सहज भी न था । कहानी कहानियों के अंबार में किसके पास थी , कैसे पता चल सकता था । सारिका में कहानियों के विलंबित होने का चौदह वर्षों का रिकार्ड दर्ज है ।

लेकिन सभी लेखकों को लंबी प्रतीक्षा नहीं करनी पड़ती थी । मेरे कुछ समकालीन ऐसे थे, सारिका में जिनका विशेष खयाल रखा जाता था और जब वे कंधे पर जींस का थैला लटकाए वहां के सम्पादकीय हॉल में प्रवेश करते किसी हीरो की भांति उनका स्वागत किया जाता , लेकिन उस स्वागत में रमेश बतरा का स्वर शामिल नहीं होता था . यहां यह बताना अनुचित नहीं कि सारिका के उन दिनों के वे हीरो लेखक आज कहीं नहीं हैं . वे अपनी रचनाओं की उत्कृष्टता के बल पर नहीं छपते थे (रचनाएं ऐसी थी भी नहीं ) , छपते थे अपने संपर्कों के कारण . खैर यह इतर प्रसंग है जिस पर फिर कभी लिखा जाएगा .

रमेश बतरा का व्यवहार सभी के साथ समान होता । पहचान के लिए भटकते मुझ जैसे युवक के साथ वह जितनी बात करते , दूसरों से भी उससे अधिक नहीं करते थे . रमेश की कम बोलने की आदत थी… कम श्ब्दों में , लेकिन सार्थक , बात कहते .

पान के वह शौकीन थे . लेकिन शराब के भी थे , मुझे जानकारी नहीं थी . मैं केवल इतना ही जानता था कि आधुनिक लुघुकथा विधा को आंदोलन का रूप देने में उस व्यक्ति की अहम भूमिका थी . रमेश की पहल पर ही उनके सम्पादन में जालंधर से मिकलने वाली 'तारिका ' का लघुकथा विशेषांक प्रकाशित हुआ था और पहली बार किसी पत्रिका ने यह कार्य किया था . सारिका में रहते हुए उसमें लघुकथाओं के प्रकाशन की रूपरेखा तय करने में रमेश बतरा की भूमिका को समझा जा सकता है . सारिका के लघुकथा विशेषांकों ने इस विधा के अनेक लेखक तैयार किए और उन सभी के संपर्क रमेश बतरा से थे , जिन्हें वे अपने लिए प्ररणा श्रोत मानते थे . लघुकथाकारों के प्रति रमेश के हृदय में एक विशेष भाव था . अनुमान लगाया जा सकता है कि वह इस विधा के विकास के प्रति कितना समर्पित थे . वह स्वयं एक सशक्त लघुकथाकार थे लेकिन उन्होंने अनेक उल्लेखनीय कहानियां भी लिखीं थीं . सारिका से नवभारत टाइम्स में जाने से पूर्व उन्होंने मुझसे जिक्र किया कि वह एक उपन्यास लिखने की योजना बना रहे हैं , लेकिन वह उसे लिख नहीं सके थे .

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कमलेश्वर के बाद कन्हैयालाल नंदन सारिका के सम्पादक बने थे । बाद में नंदन जी ने सारिका के साथ-साथ दिनमान और पराग का कार्यभार भी संभाला . उन दिनों पत्रकारिता की दुनिया में कन्हैयालाल नंदन एक चमकता हुआ सितारा थे . लेकिन कुछ वर्षों में ही स्थिति ऐसी बदली कि उन्हें केवल नवभारत टाइम्स के रविवासरीय के प्रभारी के रूप में ही कार्य करना पड़ा . अब वह 10 , दरियागंज के बजाय बहादुरशाह ज़फरमार्ग स्थित टाइम्स ऑफ इंडिया बिल्डिगं में बैठने लगे थे . रमेश बतरा भी नंदन जी के साथ नवभारत टाइम्स में शिफ्ट हो गए थे . रमेश से मिलने मैं कभी-कभी वहां जाने लगा था .

मैंने नवभारत टाइम्स के रविवासरीय संस्करण में प्रकाशनार्थ एक कहानी भेजी । लगभग छ: महीने बीत गए . एक दिन रमेश को कहानी की याद दिलाई . बोले , ''नंदन जी के पास है . छप जाएगी .'' कुछ देर बाद उन्होंने उठते हुए कहा , ''चल तुझे पान खिलाऊं '' पनवाड़ी की दुकान तक जाते हुए गंभीर स्वर में उन्होंने कहा , ''चंदेल , एक बात कहूं.....?''

''हां....''
''अखबारों में कहानी प्रकाशित करवाने का मोह त्याग दो ....''
''क्यों ?''
''क्योंकि जिन्दगीभर तुम अखबार में छपते रहोगे तब भी कहानीकार की पहचान नहीं मिलेगी ।बेहतर होगा कि लघुपत्रिकाओं में प्रकाशित हो .''

मैंने रमेश की बात पर गंभीरता-पूर्वक विचार किया और इस निष्कर्ष पर पहुंचा कि रमेश ने ठीक कहा था ।

रमेश बतरा ने 1989 में स्कूटर खरीदा सौ सी।सी. का . उसे लेकर वह बहुत दुखी थे . दुख था कि किसी को पीछे बैठा लेने पर पुल की चढ़ाई पर स्कूटर हांफता हुए खड़ा हो जाता था . सोचिए जब पत्नी जया रावत को बैठाकर वह चलते होगें और पुल की चढ़ाई पर स्कूटर खड़ा हो जाता होगा तब उनपर क्या बीतती होगी . एस.पी. पिता की बेटी जया को रमेश के हिचक-हिचक कर चलने वाले स्कूटर से कोफ्त अवश्य होती होगी . उन्हीं दिनों उन्होंने एक पत्रिका निकालने की योजना बनाई - हिन्दी-पंजाबी की संयुक्त पत्रिका निकालना चाहते थे वह . मित्रों से सहयोग लेना प्रारंभ किया . नीरव को रसीद बुक भी पकड़ा दी . कम से कम सौ रुयए की राशि देनी थी जो बिना रसीद ही मैं उन्हें दे आया था . एक दिन उन्होंने बताया कि लगभग छ: हजार रुयए एकत्रित हो गए हैं . अब वह रचनाएं मंगाएंगें और पत्रिका छ: महीनों के अंदर पत्रिका हमारे हाथ में होगी . लेकिन वह सब होता उससे पहले ही वह टाइम्स ऑफ इंडिया छोड़ नंदन जी के साथ सण्डेमेल में सहायक सम्पादक होकर चले गए थे . नंदन जी सण्डेमेल के सम्पादक थे .

बाद में मित्रों ने बताया कि पत्रिका के लिए एकत्रित धनराशि उन्होंने खर्च कर दी थी ।

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सण्डेमेल में उनसे मेरी दो मुलाकातें ही हुई । एक तब जब एक साथ प्रकाशित अपने दो कहानी संग्रह - 'हारा हुआ आदमी ' (पारुल प्रकाशन) और 'आदमखोर तथा अन्य कहानियां ' (पराग प्रकाशन ) उन्हें सण्डेमेल में समीक्षार्थ देने गया था और दोबारा कुछ दिनों बाद ही तब जब अपने द्वारा सम्पादित लघुकथा संकलन 'प्रकारांतर' की प्रति नंदन जी को भेंट करने गया , क्योंकि जिन तीन साहित्यकारों को संकलन समर्पित था उनमें नंदन जी एक थे . उसके बाद वर्षों रमेश से मेरी मुलाकात नहीं हुई . सुभाष नीरव से उनके समाचार मिलते रहते , क्योंकि दोनों के पारिवारिक संबन्ध थे और सुभाष उनसे दफ्तर में कम घर ही अधिक मिलते थे . सुभाष को या तो पता नहीं था या उन्होंने जिक्र करना उचित नहीं समझा .... रमेश और उनकी पत्नी के बीच पटरी बैठ नहीं पा रही थी . कारण जो भी रहा हो .... रमेश तनाव में रहने लगे , और पीने की मात्रा बढ़ गयी . कुछ मित्रों के अनुसार वह सण्डेमेल कार्यालय में भी पीने लगे थे और वहां से उनके हटने के कारणों में शायद यह भी एक रहा होगा .

सण्डे मेल से नौकरी छूटने और तनावपूर्ण पारिवारिक स्थितियों के कारण रमेश ने शायद अपने को तबाह (Ruin) कर लेने की ठान ली थी । एक प्रतिभा का इस प्रकार विनष्ट होना दुर्भाग्यपूर्ण था . ऐसी स्थिति में मित्र बिखरने लगते हैं . इस सबका जो दुष्परिणाम होना था.... हुआ ..... रमेश का स्वास्थ्य चौपट हो गया . शरीर में अनेक बीमारियों ने घोसला बना लिया . गुर्दे खराब हो गए और एक दिन उन्हें अस्पताल के हवाले होना पड़ा . नियमित उन्हें अस्पताल देखने जाने वालों में कमलेश्वर थे , जिन्होंने डाक्टरों से कहा था , ''रमेश का ऑपरेशन आवश्यक है तो आप करें डाक्टर ..... पैसों की परवाह न करें . जितना पैसा खर्च होगा मैं दूंगा .'' यह बात कमलेश्वर जैसा मानवीय सरोकारों से युक्त कोई दिलेर व्यक्ति ही कह सकता था . अनुमान लगया जा सकता है कि अपने साथ काम करने वालों को कमलेश्वर कितना प्रेम करते थे . रमेश ने मुम्बई में सारिका में कमलेश्वर जी के साथ काम किया था . लेकिन रमेश बतरा की स्थिति इतनी खराब थी कि ऑपरेशन के बाद भी डाक्टरों को उनके बचने की आशा न थी .

अंतत: 15 मार्च , 1999 को रमेश बतरा इस संसार को अलविदा कह गए थे । हिन्दी कथा-साहित्य का एक स्तंभ गिर गया था . कहानीकार के रूप में आलोचक अब उन्हें भूल चुके हैं , लेकिन लघुकथाकारों ने आधुनिक लघुकथारों के बीच उन्हें शीर्ष स्थान पर अवस्थित कर रखा है और मुझे विश्वास है कि वहां उनका स्थान सदा के लिए सुरक्षित रहेगा . जहां तक कहानी की बात है , आज रमेश की कहानियों की उपेक्षा करने वाले आलोचक उनके सारिका में रहने के दौरान उनके नाम और कहानियों की माला जपते थे . इससे हिन्दी आलोचना के दोगलेपन को समझा जा सकता है .

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रमेश बतरा की मृत्यु के बाद मित्रों ने साहित्य अकादमी में उनकी शोक सभा के आयेजन का कार्यक्रम तय किया और अकादमी प्रशासन से हॉल के लिए अनुरोध किया , लेकिन साहित्य अकादमी ने बहुत ही बेरुखी के साथ हॉल देने से इंकार कर दिया था । प्रशासन ने हॉल देने से इंकार किया लेकिन साहित्यकारों-पत्रकारों को साहित्य अकादमी अपने लॉन में शोक सभा करने से रोक नहीं सकी . 18 मार्च 1999 को शायं चार बजे बड़ी संख्या में वहां एकत्र होकर पत्रकारों और साहित्यकारों ने रमेश बतरा को श्रद्धांजलि दी थी .

उस दिन साहित्यिक सरोकारों और साहित्यकारों के लिए समर्पित रहने की बात करने वाली साहित्य अकादमी का जो चरित्र प्रकट हुआ पतन की ओर उसके बढ़ते कदमों का वह एक प्रमाण था ।

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