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मंगलवार, 27 अगस्त 2013

संस्मरण




भगत भूरमलदास

रूपसिंह चन्देल

जून,१९७८ के एक रविवार का गर्म दिन. शाम पांच बजे का समय. लू चल रही थी. कमरे से बाहर निकलने की इच्छा नहीं हो रही थी, लेकिन मैंने साढ़े पांच बजे उनसे उनके घर मिलने का समय लिया हुआ था. घर बहुत दूर नहीं था. हॉस्टेल के दक्षिणी छोर पर पानी की विशाल टंकी थी, जिसके साथ पुस्तकालय था. बात आयुध निर्माणी, मुरादनगर की है. पानी की टंकी और हॉस्टेल के बीच ’आर’ और ”एच’ ब्लॉक से गांधी पार्क और बाजार की ओर जाने वाली सड़क थी. उन दिनो मैं फैक्ट्री हॉस्टेल में रहता था जो फैक्ट्री के प्रशिक्षु अधिकारियों के लिए कभी बनाया बनाया गया था, लेकिन प्रशिक्षण कार्यक्रम स्थगित हो जाने या कहीं अन्यत्र स्थानांतरित हो जाने के कारण खाली था और फैक्ट्री की पूर्वी दीवार के अंतिम छोर पर एस्टेट से अलग निपट एकांत में था.
पैंट पर कुर्ता डाल मैं उनके घर जाने के लिए निकल आया. उनका घर हॉस्टेल से दस मिनट के रास्ते पर फैक्ट्री के ’एस’ टाइप मकानों में था. कहते हैं कि ’आर’ और ’एस’ टाइप के मकानों का निर्माण अंग्रेजों ने अपने घोड़ों को बांधने के लिए किया था. स्पष्ट है कि फैक्ट्री प्रशासन की दृष्टि में उसके नीचे स्तर के कर्मचारियों की औकात जानवरों से अधिक नहीं थी. इन मकानों में रहने वालों के लिए दैनिक क्रियाओं की निवृत्ति के लिए पानी की टंकी के पीछे जंगल में सार्वजनिक शौचालयों की व्यवस्था थी या खुला जंगल था. अब स्थिति क्या है कह नहीं सकता, लेकिन तब उन सबकी स्थिति के विषय में सोचकर मन कसैला को उठता था. 




                   (बाएं भगत भूरमल दास और दांए लेखक - बीच में कोई अपरिचित)

जब उनके घर पहुंचा, वे घर के बाहर सफेद धोती-कुर्ता में चारपाई पर बैठे थे. मैंने अपने सहयोगी मित्र भूपिन्दर सिंह अरोड़ा को भी बुला लिया था. मेरे पहुंचने के कुछ देर बाद ही भूपिन्दर भी पहुंच गया था. जिनसे हम मिल रहे थे उनका नाम भूरमल दास था जिन्हें फैक्ट्री और एस्टेट में लोग भगत जी के नाम से पुकारते थे. मेरे मिलने के दिन तक भगत भूरमल जी हजारों सांप काटे लोगों को जीवन दान दे चुके थे. वह एक करिश्माई व्यक्ति थे, जो सांप काटे स्थान पर मुंह से खून चूस लेते थे और तब तक चूसते रहते थे जब तक जहर पूरी तरह समाप्त नहीं हो जाता था. 

भगत भूरमल जी को मैं फैक्ट्री, जहां के लेखा विभाग में मैंने ३१ अक्टूबर, १९७३ से १८ जुलाई, १९८० तक नौकरी की थी, के गेट के बाहर पीपल के पेड़ के नीचे पालथी मारकर बैठे प्रतिदिन देखता था. सदैव उनका एक ही परिधान होता…सफेद धोती पर सफेद कुर्ता. मध्यम कद, भारी शरीर, उभरा पेट, गोल मोटे चेहरे पर कंचे जैसी छोटी पीली आंखें और  काला रंग. पूछने पर बताया कि वे सांवले तो थे, लेकिन उतना काले नहीं थे. सांपों के जहर के प्रभाव के कारण उनके शरीर का रंग वैसा हो गया था. भगत जी स्वभाव से अत्यंत सरल थे और उन्होंने कभी किसी से एक फूटी कौड़ी नहीं ली थी. सांप काटे व्यक्ति को स्वस्थ कर देने से उन्हें जो सुख मिलता उसे वह किसी भी धन से बड़ा मानते थे. 

भगत जी का जन्म अलवर (राजस्थान) के राजगढ़ नामक गांव में एक बाल्मीकि परिवार में हुआ था. उन्हें बचपन से ही सांप पकड़ने का शौक था, लेकिन पिता समय सिंह को उनका यह शौक पसंद नहीं था.  पिता ने अपनी चिन्ता अपने गुरू घम्मन गुरू को बतायी. घम्मन गुरू ने भूरमल को समझाने का बहुत प्रयास किया, लेकिन बालक पर कोई प्रभाव नहीं हुआ. अंततः घम्मन गुरू ने उन्हें कुछ साधना बतायी जिसे नदी तट पर जाकर करना था. लगन के पक्के बालक भूरमल ने निरन्तर तीन वर्ष तक गुरू द्वारा बताए उपाए किए और जब घम्मन गुरू को विश्वास हो गया कि भूरमल ने उनका शिष्यत्व प्राप्त करने की योग्यता प्राप्त कर ली है, उन्होंने उन्हें अपना शिष्य बनाना स्वीकार कर लिया. इसके लिए वह राजगढ़ आए और जिस दिन भूरमल को शिष्य बनाया जाना था, घम्मन गुरू ने वहां एक भंडारा का आयोजन किया. गुरू के अनेक शिष्य उपस्थित थे. भंडारा चल ही रहा था और भूरमल को शिष्य बनाए जाने की प्रक्रिया पूरी भी न हुई थी कि पास के गांव से सांप काटे व्यक्ति को कुछ लोग चारपाई पर डालकर वहां लाए. घम्मन गुरू के शिष्यों ने उसे स्वस्थ करने के प्रयास किए, लेकिन उन्हें सफलता नहीं मिली. भूरमल ने गुरू से अनुमति मांगी कि वह कुछ करना चाहते हैं. गुरू की अनुमति पाकर भूरमल ने काटे स्थान पर अपने होंठ रख दिए. लोग भौंचक थे. भूरमल ने यह भी नहीं ध्यान दिया कि उस स्थान पर जहर मोहरा रखा हुआ था. 

भूरमल ने जहर चूसना प्रारंभ किया. विषैले रक्त के साथ जहर मोहरा भी उनके पेट में चला गया. वहां उपस्थित लोग भयभीत किशोर भूरमल को आंखें फाड़े देख रहे थे. देर तक रक्त चूसने के बाद बेहोश व्यक्ति में हरकत हुई और कुछ देर बाद वह पूर्ण रूप से स्वस्थ हो गया था. भूरमल को कुछ भी नहीं हुआ. उस समय उनकी  आयु मात्र १६ वर्ष थी. उस दिन के बाद भूरमल दास ने पीछे मुड़कर नहीं देखा. 

१९३८ में भूरमल को आहुध निर्माणी कटनी में नौकरी मिली. १९५२ तक वह वहां रहे. वहां से स्थानांतरित होकर १९५९ तक वह जबलपुर में रहे. १९५९ में उनका स्थानांतरण मुरादनगर हो गया. वह जहां भी रहे समाज सेवा का यह कार्य जारी रखा.  बरसात के दिनों में उनके पास आने वाले मरीजों की संख्या प्रतिदिन पांच-छः होती थी. एस्टेट के कुछ लोगों ने उनके झोपड़ीनुमा क्वार्टर के बाहर एक छोटा-सा कमरा बनवा दिया था, जहां रात में आने वाले मरीजों को वह देखा करते थे.
“अब तक कितने मरीजों को उन्होंने स्वस्थ किया है” मेरे पूछने पर भगत जी ने बताया कि १९६५ तक का उनके पास कोई रिकार्ड नहीं था, लेकिन उसके पश्चात उन्होंने लोगों के नाम-पते लिखने प्रारम्भ कर दिए थे. उन्होंने अपने पास रखी एक डायरी दिखाई, जिसमें १९६५ से उस दिन तक आठ हजार पांच  सौ बत्तीस लोगों के नाम-पते दर्ज थे. 

फैक्ट्री प्रशासन की ओर से उन्हें हाजिरी लगाकर गेट के बाहर पीपल के पेड़ के नीचे बैठने की अनुमति मिली हुई थी, जिससे वह मरीजों को जीवन दान दे सकें. 

जब मैं भगत जी से मिला था उस समय वह ५३ वर्ष के थे. उनके एक बेटा था जिसे फैक्ट्री में नौकरी मिल गयी थी और उनके मुरादनगर में ही बस जाने की संभावना थी. पूछने पर उन्होंने कहा था कि यदि  अवकाश ग्रहण के पश्चात वह वहां से जाना भी चाहेंगे तो पता चलने पर आस-पास के गांव वाले उन्हें जाने न देंगे. 

१८ जुलाई, १९८० के पश्चात मैं मुरादनगर नहीं गया. भगत जी हैं या नहीं और हैं तो कहां, मुझे आज जानकारी नहीं है, लेकिन सोचकर सुखद आश्चर्य होता है कि दुनिया में ऎसे लोग हैं जो निर्लिप्त भाव से समाज सेवा में अपना पूरा जीवन ही अर्पित कर देते हैं और इस बात की कतई चिन्ता नहीं करते कि समाज उनके लिए क्या कर रहा है या क्या किया.
  
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