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सोमवार, 20 दिसंबर 2010

यादों की लकीरें

छाया चित्र - बलराम अग्रवाल
संस्मरण

पहला मित्र

रूपसिंह चन्देल

उससे मेरी पहली मुलाकात 1956 के मार्च या अप्रैल में हुई थी । उस वर्ष की होली कलकत्ता में मनाकर माँ के साथ मैं और छोटी बहन गांव लौटे थे । वहां मुझे पढ़ाने के पिता जी और बड़े भाई के सारे उपक्रम व्यर्थ रहे थे और शायद यह भी सोचा गया होगा कि दो वर्ष बाद पिता जी के रिटायर होने पर अंतत: मुझे गांव के स्कूल में ही पढ़ना होगा । गांव से जाने के समय मैं चार वर्ष के आस-पास रहा हूंगा । उस समय उससे मेरे संपर्क की याद मुझे नहीं है । शायद तब वह गांव में था भी नहीं । उसके पिता फौज में थे और परिवार साथ रखते थे । निश्चित ही तब वह पिता के साथ एक स्थान से दूसरे स्थान घूमता रहा था, लेकिन कलकत्ता से मेरे लौटने पर वह गांव में था गुल्ली-डंडा और कंचे खेलता हुआ । पता चला उसके पिता फौज से अवकाश ग्रहण कर चुके थे ।
उसका एक घर मेरे घर के सामने था (आज भी है) पक्का लिंटलवाला । मेरा मिट्टी की कच्ची इंटों का बना हुआ । उसके घर से सटा हुआ पक्का चबूतरा है , जिसमें एक शिवलिगं है और एक कोने में त्रिशूल गड़ा हुआ है। चबूतरे के पूर्वी छोटे-से हिस्से की फर्श टूट गयी थी जिसमें रेत डाल दी गई थी । मेरे और उसके घर के बीच दस फीट चौड़ी गली है। गली में उसे गांव के किसी न किसी लड़के के साथ कंचे खेलता प्रतिदिन सुबह मैं अपने चबूतरे पर और शाम उसके पक्के चबूतरे पर बैठकर देखता रहता ।

उसका नाम था बाला ... बाला प्रसाद त्रिवेदी । बड़ी ऑंखें, गोल चेहरा, तांबई रंग और हृष्ट-पुष्ट शरीर । जैसा वह बचपन में था वैसा ही अपनी अंतिम मुलाकात में मैंने उसे देखा था। वह मुझे खेलने के लिए बुलाता, लेकिन मैं खेलता नही । खेलने में मेरी रुचि नहीं थी। निठल्ला मैं उसे खेलते देखता और यहीं से हमारी मित्रता प्रारंभ हुई थी। मेरे घर के सामने उसका जो घर था, वह दो हिस्सों में बटा हुआ था। उसका आधा भाग उसके मंझले ताऊ के पास था और आधे में उसके पिता रहते थे। मेरे घर के सामने की गली से मुड़ती एक और संकरी गली है, उसमें पचास कदम पर उसका एक और मकान था, जिसमें वह अपनी माँ, विधवा बुआ और भाई-बहनों के साथ रहता था। बाद में उसकी माँ ने उसे भी पक्का बनवा लिया था ।
वह मुझसे एक वर्ष बड़ा था लेकिन माँ ने एक मील दूर पुरवामीर के 'जुग्गीलाल कमलापति प्राइमरी पाठशाला' में जब मेरा नाम लिखाया तब पता चला कि वह मेरी कक्षा में पहले से ही था। मेरी शिक्षा तो लेट-लपाट शुरू ही हुई थी, लेकिन शायद पिता के साथ रहने के कारण उसकी मुझसे भी देर से प्रारंभ हुई थी। विद्यालय में एक साथ होने के कारण मेरा अधिकांश समय उसके साथ बीतता। सुबह अपना बस्ता संभाल मैं जब उसके घर पहुंचता, वह चाय के साथ पराठे का राश्ता कर रहा होता। हम पगडंडी के रास्ते पड़ोसी गांव पुरवामीर की ओर लपकते जहां हमारी पाठशाला थी। लौटते समय भी हम साथ होते। गांव के तीन औेर लड़के हमारी कक्षा में थे। प्राय: वे हम दोनों से अलग चलते। कारण यह कि वे बाला को पसंद नहीं करते थ । पसंद न करने का कारण था उसकी शरारतें। बात-बात में वह लड़ जाता। शरीर में सबसे जबर था, इसलिए सामने वाले पर भारी पड़ता। आए दिन उसके घर शिकायत पहुंचती। लेकिन वह मुझसे प्रेम करता.... मेरी हर बात मानता। मेरे दूसरे सहपाठियों का ही नहीं, गांव वालों और अध्यापकों का यह मानना था कि हमारी मित्रता अनमेल थी। कई बार हम दोनों के सामने लोग कहते, ''रूप तुम्हें ब्राम्हण और इसे क्षत्रिय घर में जन्म लेना चाहिए था।'' बाला ब्राम्हण था। वह जितना हृष्ट-पुष्ट था मैं उतना ही दुर्बल। गांव में सींकिया पहलवान कहा जाता मुझे। दूसरों से लड़-भिड़ने वाला बाला मेरी डांट सुन लेता और खींसे निपोर देता, लेकिन ऐसा तभी होता जब गलती उसकी होती और मैं उस क्षण उपस्थित होता।
(बाएं से इकबाल बहादुर सिंह,बाला प्र.त्रिवेदी और लेखक -चित्र (नव.१९६६)

हम हाई स्कूल तक एक साथ रहे। आठवीं के बाद मैंने साइंस ली और उसने कामर्स। उत्तर प्रदेश में हाई स्कूल से स्ट्रीम तय कर लेना होता है। प्राइमरी उत्तीर्ण करने के बाद जूनियर हाईस्कूल के लिए हमने गांव से तीन मील दूर महोली के विद्यालय में प्रवेश लिया था। तब तक मेरे परिवार की आर्थिक स्थिति खराब हो चुकी थी। उन तीन वर्षों की पढ़ाई के दौरान हम दोनों के मध्य एक बार किसी बात पर सिकठिया-पुरवा की बाजार के पास तालाब किनारे (उन दिनों वह तालाब सिघांड़ों की बेल से पटा पड़ा था) मल्लयुध्द हुआ था। हम पगडंडी के रास्ते गांव लौट रहे थे। गांव के हमारे तीनों सहपाठी भी उस दिन साथ थे। किसी बात पर बाला और मुझमें बहस छिड़ी हुई थी और उस बहस ने इतना भयंकर रूप लिया कि ताल ठोक हम आमने-सामने थे। एक-दूसरे के बस्ते साथियों ने संभाले और हम भिड़ गए थे खुले मैदान। दुबला-पतला होने के बावजूद मुझमें ताकत कम न थी। उठा-पटक ऐसी कि कभी वह मेरे ऊपर होता तो कभी मैं। एक बार उसकी पीठ पर बैठ मैंने उसका दाहिना हाथ उमेठना शुरू किया। वह सीत्कार कर रहा था। शुक्र था कि मेरे गांव के सीताराम अवस्थी (जो हम दोनों के पड़सी थे) अचानक प्रकट हो गए थे और उनकी दहाड़ सुन मैंने उसका हाथ छोड़ दिया था। सीताराम अवस्थी ने न केवल हमें बुरी तरह डांटा था, बल्कि घर और स्कूल मे शिकायत की धमकी भी दी थी। मैं लड़ाई को बाहर तक ही रखना चाहता था। नहीं चाहता था कि मेरे पिता-माँ तक या स्कूल तक बात पहुंचे। स्कूल में अध्यापकों से लेकर हेडमास्टर तक का मैं प्रिय छात्र था ... सीधा-सादा।उनकी दृष्टि में मैं अपनी वही छवि बनाए रखना चाहता था। मैंने कपड़े पहने, बस्ता साथी से लिया और तेजी से गांव के लिए भाग खड़ा हुआ था।
उसके बाद कई महीनों तक न हम साथ आए-गए और न बोल-चाल रही। बाद में उसने गलती स्वीकार कर माफी मांगी और हमारी मित्रता पुन: उसी ढर्रे पर चल पड़ी थी।
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बाला खेल का शौकीन था ..... वालीबाल और कबड्डी। दूसरे खेलों की गांव में गुंजाइश नहीं थी। वालीबाल के लिए वह कभी-कभी रेलवे स्टेशन जाता, जहां शायं कुछ युवक खेलते थे। अक्टूबर-नवंबर में जब किसान अपने खेतों को रवी की फसल बोने के लिए जोतकर पाटा देते तब खेत चौरस हो जाते। बाला एण्ड कंपनी ऐसे खेतों में रात की छिटकी चांदनी में कबड्डी खेलते। सुबह वह मुझे उत्साहित करता ,''आज तुम भी चलना ... गजब का आनंद आता है ।''
उसे खेलने में ही आनंद नहीं आता था, बागों से फल लूटने में भी वह आनंद लेता। गांव के बाहर दक्षिण दिशा में एक मुसलमान का अमरूदों का बड़ा बाग था। ऐसे कई बाग आज भी गांव में हैं और उनके अमरूद इलाहाबादी अमरूदों जैसे गुदाज और मीठे होते हैं। एक दिन वह बोला, ''आज शाम चलना मेरे साथ....।''
''कहां ?''
''घूमने......स्कूल से आकर घर में घुस लेते हो। कभी घूम भी लिया करो।''
यह सातवीं कक्षा के दिनों की बात है।
शाम लगभग साढ़े पांच बजे वह मुझे लेने आ गया।
''कहां जा रहे हो ?'' तेजी से बढ़ते धुंधलके और ठंड को भांप माँ ने पूछा।
''बाला के साथ जा रहा हूं....अभी आता हूं।''
''दूर मत जाना....शाम होते ही साउज गांव के नजदीक आ जाते हैं।''
गांव के आस-पास जंगल के नाम पर बाग थे और बहुतायत में थे (अब उतने नहीं रहे)। एक मील की दूरी पर गांव के पूरब और दक्षिण में दो नाले थे, जो बरसात के दिनों में किसी नदी का रूप ले लेते थे। इन नालों के दोनों ओर झाड़-झंखाड़ थे, जिनमें कोई खतरनाक जानवर नहीं, सियार, लोमड़ी और खरगोश छुपे होते या कभी-कभी कोई स्याही दिख जाती। गांव के निकट जो बाग घने थे उनमें भी झाड़ियां थीं और कोई जानवर वहां भी छुपा होता। दिन में वे झाड़ियों में होते जबकि रात शुरू होते ही वे गांव के निकट आ जाते। रातभर हमें सियारों की हुहुआहट सुनाई देती। जब लगातार कई दिनों तक सियार गांव के और अधिक निकट आकर हुहुआते तब माँ-नानी कहतीं कि गांव में कुछ विपदा आने वाली है। यह उनका अनुभूत सत्य था ।
''अमुक की तबीयत ज्यादा खराब है .... भगवान उसकी रक्षा करना।''
जब कभी कई दिनों तक हुहुआने के बाद सियारों का हुहुआना कम हो जाता, वे कहतीं, ''भगवान उस पर मेहरबान है .... विपदा टल गयी।''
रास्ते में बाला बोला, ''हाफी जी के बाग में अमरूदों की बहार है .... आज उधर ही चलते हैं ।''
मैं डर रहा था, लेकिन स्वादिष्ट अमरूदों की कल्पना से मेरे मुंह में भी पानी आ गया था। हम हाफी जी के बाग के पीछे पहुंचे। बाग चारों ओर से ऊंची दीवार से घिरा हुआ था और था भी ऊंचाई पर। मेरा साहस उसके अंदर जाने का नहीं हो रहा था, लेकिन बाला उस्ताद था। उसने एक ऐसी जगह पहचान रखी थी जहां से बिना आहट बाग के अंदर प्रवेश किया और निकला जा सकता था। वह एक ही छलांग में बिना आहट बाग में पहुंच गया। उसने मुझे इशारा किया। अंधेरे में केवल उसका हाथ नजर आया। अमरूदों की महक मुझे ललचा रही थी। मैं भी साहस जुटा ऊपर पहुंच गया। हम अंधेरे में टटोलकर अमरूद तोड़ने लगे और कुर्ते की जेबों में ठूंसने लगे।

बाग की फसल किसी कुंजड़े ने खरीद रखी थी। बाग के बीच उसने फूस की झोपड़ी डाल रखी थी, जहां वह सपरिवार दिन-रात रहता था। दिन में वह गांव-गांव - और बाजार में अमरूद बेचता और उसकी पत्नी-बच्चे रखवाली करते। अमरूद पक्षियों.... खासकर सुग्गों का प्रिय आहार होता है। उसके लिए बाग के चारों ओर पेड़ों से बांस के डंडे बांधकर रस्सी से उनको मड़ैया से वे संचालित करते। रस्सी खींचने से डंडे पेड़ से टकराते .... आवाज होती और पक्षी उड़ जाते। दिनभर उसके बच्चे यह करते रहते, जबकि पत्नी घूम-घूमकर पके अमरूद तोड़ती ओैर जानवरों पर नजर रखती।
यद्यपि हम बहुत संभलकर अपना काम कर रहे थे, लेकिन आहट कुंजड़े तक पहुंच चुकी थी। उसने भक से टार्च की रोशनी उधर फेकी। पहचान नहीं पाया, लेकिन इतना समझ गया कि बाग में कोई जानवर नहीं मानुस घुसे थे। वह गाली देता डंडा लेकर हमारी ओर दौड़ा, लेकिन उसकी टार्च की रोशनी पड़ते ही हम प्रवेश की जगह से नीचे कूद गये और सिर पर पैर रख भाग खड़े हुए थे।
इस प्रसंग को केन्द्र में रखकर मैंने 'अमरूदों की चोरी' शीर्षक से एक बाल कहानी लिखी थी।
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हमारी हाई स्कूल की बोर्ड परीक्षा निकट थी और हम दोनों ने ही उस वर्ष पढ़ाई नहीं की थी। उत्तर प्रदेश में आठवीं की परीक्षा जिला बोर्ड द्वारा ली जाती थी और गांव में मैं पहला लड़का था जिसने प्रथम श्रेणी पायी थी। हाई स्कूल में फेल हो जाने का खतरा या कम अंक लेकर पास होने से मैं प्रकम्पित था। सोचता, फिर भी पढ़ाई नहीं कर रहा था। कह सकता हूं कि पूरे वर्ष मैंने पड़ोसी गांव के एक दूधिया के बेटे, जो मुझसे सीनियर था और लगातार इण्टरमीडिएट में फेल होता रहा था, के चक्कर में केवल गप्प-गोष्ठी में समय नष्ट किया था। वह मेरे गांव दूध लेने आता और दूध लेकर सात बजे के लगभग मेरे चबूतरे से साइकिल टिकाकर मुझे आवाज देता। मुझे उसके आने का इंतजार रहता। उसकी एक आवाज में मैं डयोढ़ी पार होता और सामने के पक्के चबूतरें पर रात नौ बजे तक हमारी गोष्ठी होती रहती। इस गोष्ठी में बाला कभी शामिल नहीं हुआ। उसके न पढ़ने के अपने कारण रहे होगें। तभी 31 जनवरी,1967 को मुझे बड़े भाई से मिलने कानपुर जाना पड़ा। रविवार का दिन था। कानपुर मेरे गांव से तीस किलोमीटर दूर है। और उन दिनों मेरे पास नई हीरो साइकिल थी, जिसे मैं हर समय चमकाकर रखता था। मुझे उसी से जाना था। मेरे गांव से जी.टी.रोड एक किलोमीटर उत्तर है और वह कानपुर के मध्य से गुजरती है। भाई साहब उन दिनों लाल बंगला में रहते थे, जो जी.टी.रोड के किनारे बसा है।

भाई साहब हिन्दुस्तान एयरोनॉटिक्स लिमिटेड में नौकरी करते थे ...घर का एकमात्र आर्थिक स्रोत। माहांत में या तो वह स्वयं आकर घर खर्च दे जाते या मैं जाकर ले आता। उस दिन मुझे उनसे पैसे लेने जाना था और उसी दिन उनके साले बाबूसिंह को भी कानपुर जाना था। एक मुलाकात में उनसे समय-दिन और स्थान निश्चित हो गया था। तय हुआ था कि महाराजपुर थाना के आगे, जहां नरवल से आने वाला रास्ता जी.टी.रोड से मिलता है वहीं मंदिर के पास हम दस बजे मिलेंगे।
मैं निश्चित समय पर साइकिल मंदिर की दीवार से टिका मंदिर की दीवार पर नरवल की ओर से आने वाली सड़क पर टकटकी लगाकर बैठ गया था। दीवार अधिक ऊंची न थी । मंदिर लगभग एक एकड़ क्षेत्र में था। बाबू सिंह की प्रतीक्षा में जब दो घण्टे से ऊपर समय बीत गया तब मंदिर के पुजारी ने मेरे पास आकर पूछा ,''किसी की प्रतीक्षा में हो बेटा ?''
''जी ।'' मैंने पूरी बात बतायी ।
''अंदर आ जाओ।''
वह मुझे गेट से अंदर प्रागंण में ले गए जहां बिछी चारपाई पर मुझे बैठाते हुए उन्होंने मेरे बारे में जानकारी ली। कुछ देर तक कुछ सोचने के बाद वह कागज-पेंसिल ले आए और बोले, ''किसी फूल का नाम सोचो।''
मेरे सोचते समय उन्होंने उस फूल का नाम लिख लिया था। मेरे बताते ही उन्होंने अपना लिखा कागज मेरी ओर बढ़ा दिया। उन्होंने फूल का वही नाम लिखा था। फिर उन्होंने कहा, ''किसी फल का नाम सोचो।''
मेरे सोचने तक वह उस फल का नाम भी लिख चुके थे।
एक-दो और बातों ने मुझे उनके प्रति आकर्षित किया।
'यह तो बहुत विद्वान व्यंक्ति हैं।' मैंने सोचा। मैं यह सोच रहा था और वह मेरे चेहरे को पढ़ रहे थे। देर की चुप्पी के बाद वह बोले, ''बेटा तुमने पूरे वर्ष पढ़ाई नहीं की.... और हाई स्कूल की परीक्षा देने जा रहे हो!''
मैंने स्वीकार किया ।
''परीक्षा कब से है ?''
''29 फरवरी से।''
''एक महीना है।'' वह फिर कुछ देर चुप रहे, फिर बोले, ''एक महीना है। मैं पढ़ पा रहा हूं कि यदि तुम अभी भी जमकर परिश्रम करोगे तो अच्छे अंकों से उत्तीर्ण हो जाओगे ।''
पुजारी की बात ने मुझे आंदोलित किया। एक बज चुका था और बाबूसिंह का अता-पता नहीं था। मैंने पुजारी से इजाजात ली और भाई साहब से मिलने चला गया। रास्ते भर मैं पुजारी की बात सोचता रहा। घर लौटा तब एक संकल्प था मन में कि कल से रात दिन एक कर देना है पढ़ाई में। रात ही मैंने बाला को यह बताया। वह भी पूरे वर्ष न पढ़ने से परेशान था। हमने तय किया कि गोरखनाथ निगम के बाग में सुबह ही हम पढ़ने चले जाएगें और शाम पांच बजे तक वहीं रहेंगे। दिन भर पढ़ेंगे ....केवल आध घण्टे का विश्राम लेंगे।
यह बाग हमारे घर से दो सौ मीटर की दूरी पर था बिल्कुल गांव से सटा हुआ ...उत्तर दिशा में। उस बाग से सटा हुआ था मुसलमानों का बेरों का बाग।
अगले दिन से हम वहां जाने लगे। प्रेपरेशन लीव चल रही थीं। दृढ़ संकल्प के साथ हमने टाइम-टेबल बनाकर पढ़ाई की। बीच-बीच में बाला अवश्य इधर-उधर घूम आता और मौका पाकर बेर भी तोड़ लाता। शाम पांच बजे अपने बस्ते संभाल हम घर लौटते। मेरे पास घड़ी नहीं थी। उसके पास थी। उसने अपनी घड़ी मुझे दे दी और वह परीक्षा तक मेरे पास ही रही, जिसने समय संयोजित करने में मेरी बहुत सहायता की थी।
मैं सात बजे सो जाता माँ से यह कहकर कि वह साढ़े बारह बजे मुझे जगा देंगी। बाला अपने पिता के कमरे में सोता यह कहकर कि मैं जब उठूंगा उसे भी जगा दूंगा। मुझे आश्यर्य होता जब माँ बिना घड़ी-एलार्म मुझे ठीक साढ़े बारह बजे उठा देतीं। दो बजे कहा तो दो बजे....ऐसा वह कैसे संभव कर लेती थीं..... आज भी मेरे लिए रहस्य है। मैं सुबह तक पढ़ता और अगले दिन की फिर वही दिनचर्या होती। इतना घनघोर परिश्रम मैंने कभी नहीं किया था। परिणामत: मेरी आंखों में पीलापन छा गया। धुंधला दिखने लगा। परीक्षा के बाद इसका देसी इलाज किया और स्वस्थ हुआ।
आज भी सोचता हूं कि यदि मंदिर के पुजारी से मुलाकात न हुई होती तो पता नहीं मेरा भविष्य क्या रहा होता। मैं और बाला दोनों ही पास हो गए थे। कुछ अंकों से मेरी प्रथम श्रेणी रह गयी थी। बाला भी द्वितीय श्रेणी में उत्तीर्ण हो गया था।
*******
हाई स्कूल का परीक्षा परिणाम आने से पहले ही उसका विवाह हो गया। वह बहुत प्रसन्न था। पत्नी सुन्दर और सुशील थी। हाई स्कूल के बाद उसने पढ़ाई नहीं की। वह नौकरी की तलाश में लग गया था। रेगुलर इंटरमीडिएट मैं भी नहीं कर सका। बीच मे्रं 1969-70 मे आई.टी.आई. किया और उसी की भांति नौकरी के लिए भटकने लगा। (इकरामुर्रहमान हाशमी पर लिखे अपने संस्मरण में मैंने इस विषय पर विस्तार से लिखा है।)
जून 1970 में आई.टी.आई से निकलने के बाद मैं भाई साहब के साथ रहने के लिए बेगमपुरवा कॉलोनी में शिफ्ट कर गया था। उन्हीं दिनों भाई साहब ने कॉलोनी में दूसरी मंजिल पर एक और फ्लैट खरीदा था। उन्होंने पड़ोसी बमशंकर बाजपेई से कहकर बाला को उनके प्रिण्टिगं प्रेस में प्रशिक्षु के रूप में लगवा दिया। वेतन न के बराबर था, लेकिन वह अपना गुजर कर लेता। स्वयं ही स्टोव में खाना पकाता और प्रेस तक पांच-छ: किलोमीटर पैदल जाता, लेकिन लौटते समय बाजपेई के साथ उनकी साइकिल से आता। तब तक उसके परिवार की आर्थिक स्थिति डांवाडोल हो चुकी थी और शायद वह एक बेटे का पिता भी बन चुका था। पर्याप्त तनाव में रहता। तनाव में रहते हुए भी वह उसे प्रकट नहीं करता था। दूसरी मंजिल के फ्लैट में मैं उसके साथ रहता था। कभी-कभी वह लंबी आह भरकर कहता, ''रूप, तम्हारे लिए जगरूप कोशिश करने वाले हैं, लेकिन मेरे लिए मेरे घर का कोई कुछ करने को तैयार नहीं। पिता जी ने परिवार से नाता तोड़ लिया है।''
उसके पिता को फौज से पेंशन मिलती थी और वह घर के लिए धेला नहीं देते थे। उसकी माँ गाय -भैंस पालकर उनका दूध बेच परिवार पाल रही थीं। उसकी चिन्ता स्वाभाविक थी।
एक बार सप्ताह भर गांव रहकर वह लौटा। बहुत उत्साहित था। मैंने कारण पूछा।
''रूप, तुम समझो कि जल्दी ही मेरी नौकरी लग जाएगी।''
''कहीं जुगाड़ बन गया है ?''
''मुझे पहले मालूम होता तो इतने दिनों तक बाजपेई जी के प्रेस में अक्षर (कंपोजिगं) न बिठाता रहता।''

''कुछ मुझे भी बताओ।'' मैं स्वयं उन दिनों साइकिल के पैडल घिस रहा था और मेरा अनुमान है कि शहर की शायद ही कोई मिल रही होगी जहां मैं नहीं गया था। कितने ही छोटे दफ्तर .....और सभी जगह खेदजनक आश्वासन। भाई साहब के लिए अपनी क्लर्की से घर संभालना कठिन हो रहा था।
''इस बार बाबू जी ने तरस खाकर मुझे बताया कि उनके फुफेरे भाई इन दिनों कानपुर के मेयर हैं ।'' वह कह रहा था ।
''हां ऽऽऽ'' मुझे आश्चर्य हुआ। इतना निकट का रिश्ता।
''तिवारी जी मेरे बाबा की बहन के बेटा हैं। उन दिनों कोई तिवारी कानपुर के मेयर थे.... शहर के सभ्रांत व्यक्ति।''
''उन्होंने अब तक क्यों नहीं बताया था ?'' मैंने पूछा।
''बाबू जी उनसे कहना नहीं चाहते थे..... हमारी उनकी हैसियत में बहुत अंतर है शायद इसलिए....''
''तो क्या ...?''
''बस बाबू जी को उनके पास जाना गवारा नहीं .....और इसीलिए उन्होंने आज तक नहीं बताया ।''
''तुम मिलो तिवारी जी से..... अपने बाबा का परिचय देकर।''

''कल ही जाउगां....तुम भी अपनी सर्टीफिकेट लेकर चलना ....मेरा काम बनेगा जब तब तुम्हारे लिए भी कहूंगा ।''
''चलूंगा।''
''बताऊं,'' बाला ने क्षणभर की चुप्पी के बाद कहा, ''तिवारी महाराज फर्टीलाइजर कार्पोरेशन ऑफ इंडिया' के चेयरमैंन हैं.... और आजकल वहां सभी प्रकार की भर्ती चल रही हैं। नया खुला है न कार्पोरेशन कानपुर में।''
''समय नष्ट नहीं करना चाहिए बाला। कल ही चलते हैं।''
और दूसरे ही दिन हम दोनों तिवारी जी के यहां थे सुबह दस बजे के लगभग। आलीशान कोठी। मिलने वालों की भीड़। कोठी के गेट पर दरबान ने रोका, लेकिन वह समय जनता से मिलने का था। मामूली तहकीकात के बाद हम अंदर थे। मुलाकातियों की पंक्ति में लंबे समय तक अपने नंबर की प्रतीक्षा करते हुए हम हॉल में एक ओर बैठ गए थे। हॉल से लगा तिवारी जी का मुलाकाती कमरा था .... कमरा नहीं विशाल हॉल ....खिड़कियों-दरवाजों पर झूलते मंहगे लंबे परदे, फर्शे पर बिछी कार्पेट, जिसपर पैर रखने में उसके गंदा हो जाने का संकोच हमारे चेहरों पर स्पष्ट था। नंबर आने पर हम दोनों साथ ही मिलने गए। आलीशान सोफे पर क्रीम कलर के सिल्क के कुर्ता और भक पायजामा में साठ के आस-पास की आयु के लंबे, गोरे-चिट्टे चमकते चेहरे वाले तिवारी जी आसीन थे।

बाला ने अपना परिचय दिया, ''मैं नौगवां गौतम के कृष्णकुमार त्रिवेदी का बेटा हूं।''
अपने ममेरे भाई का नाम सुनकर भी तिवारी जी के चेहरे पर पहचान का कोई चिन्ह प्रकट नहीं हुआ। ना ही उन्होंने ममेरे भाई के बारे में कुछ पूछा।
''क्या काम हैं ?'' दूसरों की भांति एक रूटीन प्रश्न।
बाला ने आने का आभिप्रय बताया।
''एप्लीकेशन और प्रमाण-पत्र लाए हो ?''
'जी।'' हम दोनों एप्लीकेशन प्रमाणपत्रों के साथ ले गए थे। बाला ने वे उन्हें पकड़ा दिए। लेकिन मेरा मन नहीं हुआ अपनी एप्लीकेशन देने का। बाला ने इशारा भी किया, लेकिन मैं चुप बैठा रहा था।
कुछ देर की चुप्पी के बाद तिवारी जी बोले, '' ठीक है । कुछ होगा तब तुम्हें बुला लेगें।''
हम दोनों ने तिवारी जो के उठ जाने के संकेत को समझा और तुरंत उठकर बाहर आ गए। लेकिन इस बार बाला ने वह गलती नहीं की जो अंदर जाने पर की थी। तब वह तिवारी जी के चरण-स्पर्श करना भूल गया था। लौटते समय उसने वह भूल सुधार ली थी।

''तुम्हारा काम बन जाएगा।'' रास्ते में मैंने उससे कहा।
''मुझे उम्मीद नहीं है ...(.तिवारी महाराज वह ऐसे ही बोल रहा था) उसने पहचाना ही नहीं। बाबू जी का नाम सुनकर भी उन्होंने कुछ भी नहीं पूछा ।
बाला का अनुमान सही सिद्ध हुआ था ।

लगभग एक वर्ष तक बाला ने प्रेस में हाथ-पैर मारे लेकिन कंपोजिंग में वह अच्छी गति नहीं बना पाया। बाजपेई उसे कुछ नहीं कहते लेकिन भाई साहब को बताते ,''ठाकुर साहब, बाला काम सीखने में रुचि नहीं ले रहा।'' और वास्तव में ही उसका मन नहीं लग रहा था। एक दिन खीजकर उसने कहा, ''इस काम से मेरी गुजर न होगी। मैं नहीं सीख पाउंगा।'' और एक दिन उसने घोषणा की कि वह गांव वापस जा रहा है। मैं अपने संघर्षों में डूबा हुआ था। बाद में पता चला कि वह अपने बड़े ताऊ के बड़े लड़के बद्रीप्रसाद त्रिवेदी के पास चला गया था, जो महाराष्ट्र के किसी शहर में रेलवे में छोटे पद पर कार्यरत थे। बद्री ने किसी प्रकार उसे रेलवे पुलिस में भर्ती करवा दिया था। नौकरी लगने के बाद मैं मुरादनगर, फिर दिल्ली आ गया। गांव जाना कम हो गया। लेकिन मुझे बाला के समाचार मिलते रहते।
1973 के बाद लंबे समय तक हम नहीं मिले और जब मिले तब पता चला कि वह गांव लौट आया था। यह मुलाकात गांव में हुई थी। वह रेलवे की नौकरी छोड़ आया था.... छोड़ नहीं बल्कि उसे निकाल दिया गया था। वह झगड़ा करने की आदत से विवश था। अपने किसी सहयोगी से उसका झगड़ा हुआ और उसने उस पर घातक प्रहार किया था। परिणामस्वरूप नौकरी से हाथ धोना पड़ा। मैं गांव गया तब वह मुझसे मिलने आया और लगभग एक घण्टा मेरे पास बैठा। लेकिन उसकी नौकरी के विषय में कुछ भी पूछने का साहस मुझमें नहीं था और न ही उसने बताया। यह बात 1988 की है। उसने मेरा दिल्ली का पता लिया। मैंनें उसे अपना वर्तमान पता दिया, क्योंकि मैंने इस मकान का आधा भाग इस उद्देश्य से बनवाया था कि यहां शिफ्ट करूंगा। बाला को पता देने के समय मैं शक्तिनगर में किराए के मकान में रह रहा था और कुछ दिनों के अंदर ही अपने मकान में आने का विचार था, लेकिन बच्चों की शिक्षा को ध्यान में रखकर बाद में इस विचार को त्यागना पड़ा था। उसने बताया था कि उसकी छोटी बहन का विवाह दिल्ली में हुआ था और वह जल्दी ही दिल्ली आएगा ।
वह दिल्ली आया और मेरे मकान में भी आया, लेकिन यहां ताला बंद था। शक्तिनगर का पता उसके पास नहीं था। डेढ़-दो वर्ष बाद मैं फिर गांव गया। इस बार वह गांव में नहीं था। उस दिन मेरा मन अपने खेतों की ओर जाने का हुआ। अपने खेतों की ओर जाऊं और पास के रेलवे स्टेशन (करबिगवां) तक न जाऊं यह संभव नहीं था। इस रेलवे स्टेशन से मेरी अनेक यादें जुड़ी हुई हैं। गांव में रहते हुए मैं प्राय: शाम के समय उधर निकल जाता और स्टेशन के बाहर एक चबूतरे पर बैठकर आगरा-इलाहाबाद पैसेंजर से आने वाले यात्रियों को देखता। उस दिन मेरा मन स्टेशन को एक बार पुन: देखने का हुआ। वहां मुझे बदलू मोची मिले, जो उसी प्रकार स्टेशन के बाहर पीपल के पेड़ के नीचे बैठे हुए थे, जिस प्रकार वह मेरी किशोरावस्था में मुझे बैठे दिखाई देते थ। घर के जूते-चप्पलें गठवांने के लिए मुझे एक मील चलकर स्टेशन तक जाना पड़ता, जबकि बदलू मेरे गांव के ही थे। ऐसा इसलिए क्योंकि वह अपना सामान स्टेशन में ही कहीं रख आते थे। बदलू बहुत बूढ़े हो चुके थे। मैंने जिस बदलू को किशोरावस्था में देखा था उनमें और उस दिन के बदलू में बहुत अंतर था। चेहरा झुर्रियों भरा......हाथ-पैर सूखे हुए.....लेकिन वह तब भी जूते गांठ रहे थे ।
स्टेशन में बहुत कुछ बदल गया था, नहीं बदला था तो पुन्नी पाण्डे के भतीजे का व्यवसाय। वर्षों बाद भी मैंने उसे उसी प्रकार यात्रियों को पानी पिलाते देखा। उम्र अपनी छाप उसके चेहरे पर छोड़ चुकी थी। गोरे चेहरे पर कालिमा उतर आयी थी, जो उसके कठिनतर जीवन की गवाही दे रही थी ।
वहां से लौटते हुए रेलवे फाटक के पास अचानक बाला से मेरी मुलाकात हो गयी। वह किसी बारात में जा रहा था। बारात बैलगाडियों में थी। मुझे देखते ही वह बैलगाड़ी से उछलकर कूदा और आंखे निकालकर लगा धमकाने, ''तुम्हारा खून पीने का मन कर रहा है .....मुझे तुमने सादतपुर का पता दिया....मैं गया....वहां ताला बंद था। तुमने शक्तिनगर का पता क्यों नहीं दिया था ! नहीं मिलना था तब दिया ही क्यों था ?''
शर्मिन्दा मैंने बहुत सफाई दी, लेकिन उसने एक नहीं सुनी। बोलता रहा। ट्रेन निकल गई थी और फाटक खुलने वाला था। वह बोला, ''अपना शक्तिनगर का पता दो ।''
मैंने उसके आदेश का पालन किया।
''ठीक है....जल्दी ही वहां आऊंगा।'' कहकर वह उछलकर बैलगाड़ी पर सवार हो गया था।
लेकिन वह शक्तिनगर कभी नहीं आया।
बाला के साथ वह मेरी अंतिम भेंट थी। उसके बाद उसके विषय में मुझे जो सूचना मिलती वह अत्यंत कष्टकारी होती। उसके पास कोई रोजगार नहीं था .... शायद वह कुछ करना भी नहीं चाहता था। कोढ़ में खाज यह कि वह पीने लगा था। ऐसा-वैसा नहीं.....पूरी बोतल एक साथ पी जाता और पीने के लिए उसे हर दिन शराब चाहिए थी। बड़ा बेटा कहीं कुछ करने लगा था, लेकिन हालात बेहतर नहीं थे ।
शराब के साथ ही उसने मदक की लत डाल ली थी। गांव में मदक की पहली लत उसके बड़े ताऊ यानी बद्रीप्रसाद त्रिवेदी के पिता ने डाली थी। वह पूरे दिन उसी में धुत रहते थे और उनसे ही वह लत गांव के कितने ही लोगों को लग गयी थी। कई लोग तबाह हुए थे और कई युवावस्था में ही परलोकवासी हो चुके थे। अब वही लत बाला ने अपना ली थी। अपने उपन्यास 'पाथरटीला' में मैंने मदक का विस्तृत चित्रण किया है।
मदक और शराब ने बाला के हट्टे-कट्टे शरीर को निचोड़ दिया। ऐसा नहीं कि वह इसके दुष्परिणाम नहीं जानता रहा होगा। शायद वह अपने जीवन से अत्यंत असंतुष्ट और निराश था और उसने अपने को समाप्त कर लेने का निर्णय कर लिया था। उसने जो चाहा होगा, वही हुआ। हाल की कानपुर यात्रा के दौरान मुझे सूचना मिली कि सात-आठ माह पूर्व वह इस संसार को अलविदा कह गया था।
अपने पहले मित्र के ऐसे अंत से मैं आहत था। उसका अंतिम स्वप्न भी मैंने लगभग इतने ही दिनों पहले देखा था। शायद वह मुझे स्वप्न में अलविदा कहने आया था और संभव है, वह वही दिन रहा हो जिस दिन वह इस संसार से विदा हुआ था।
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मंगलवार, 5 अक्तूबर 2010

यादों की लकीरें


संस्मरण-३
प्रखर प्रतिभा के धनी थे नन्दन जी
रूपसिंह चन्देल
आठवें दशक के मध्य की बात है । धर्मयुग के किसी अंक में हृदयखेड़ा के एक सज्जन पर केन्द्रित रेखाचित्र प्रकाशित हुआ । हृदयखेड़ा मेरे गांव से तीन मील की दूरी पर दक्षिण की ओर पाण्डुनदी किनारे बसा गांव है, जहां मेरी छोटी बहन का विवाह 1967 में हुआ था । वर्ष में दो-तीन बार वहां जाना होता । रेखाचित्र जिसके विषय में था उन्हें मैं नहीं जानता था, लेकिन उसके लेखक के नाम से परिचित था । वह धर्मयुग के सहायक सम्पादक कन्हैंयालाल नन्दन थे । तब नन्दन जी के नाम से ही परिचित था, लेकिन उस रेखाचित्र ने मुझे इतना प्रभावित किया कि उसने नन्दन जी के प्रति मेरी उत्सुकता बढ़ा दी । मैंने बहनोई से पूछा । उन्होंने इतना ही बताया कि नन्दन जी उनके पड़ोसी गांव परसदेपुर के रहने वाले हैं । परसदेपुर का हृदयखेड़ा से फासला मात्र एक फर्लागं है । कितनी ही बार मैं उस गांव के बीच से होकर गुजर चुका था । मेरे गांव से उसकी दूरी भी तीन मील है.......बीच में करबिगवां रेलवे स्टेशन ...... यानी रेलवे लाइन के उत्तर मेरा गांव और दक्षिण परसदेपुर ।
इस जानकारी ने कि नन्दन जी मेरे पड़ोसी गांव के हैं उनके बारे में अधिक जानने की इच्छा उत्पन्न कर दी । उन दिनों मैं मुरादनगर में था और साहित्य से मेरा रिश्ता धर्मयुग, साप्ताहिक हिन्दुस्तान, कादम्बनी और सारिका आदि कुछ पत्र-पत्रिकाएं पढ़ने तक ही सीमित था । मैंने नन्दन जी के बारे में अपने भाई साहब से पूछा ।
‘‘तुम नहीं जानते ?’’ उनके प्रश्न से मैं अचकचा गया था । चुप रहा ।
‘‘रामावतार चेतन के बहनोई हैं । मुम्बई में रहते हैं .... परसदेपुर में सोनेलाल शुक्ल के पड़ोसी हैं ।’’ और वह करबिगवां स्टेशन में कभी हुई नन्दन जी से अपनी मुलाकात का जिक्र करने लगे ।
मैं अपनी अनभिज्ञता पर चुप ही रहा । सोनेलाल शुक्ल से कई बार मिला था, क्योंकि वह मेरे गांव आते रहते थे । मेरे पड़ोसी कृष्णकुमार त्रिवेदी उनके मामा थे और चेतन जी की कविताएं पत्र-पत्रिकाओं में पढ़ता रहा था ।
हिन्दी साहित्य की दो हस्तियां मेरे पड़ोसी गांव की थीं, इससे मैं गर्वित हुआ था ।
नन्दन जी से यह पहला परिचिय इतना आकर्षक था कि मैं उनसे मिलने के विषय में सोचने लगा, लेकिन यह संभव न था । कई वर्ष बीत गए । एक दिन ज्ञात हुआ कि नन्दन जी ‘सारिका’ के सम्पादक होकर दिल्ली आ गए हैं, लेकिन मित्रों ने उनकी व्यस्तता और महत्व का जो खाका खींचा उसने मुझे हतोत्साहित किया । मैं उनसे मिलने जाने की सोचता तो रहा, लेकिन कुछ तय नहीं कर पाया । तभी एक दिन एक मित्र ने बताया कि नन्दन जी मुरादगर आए थे.....कुछ दिन पहले ।
‘‘किसलिए ?’’
‘‘हमने काव्य गोष्ठी की थी उसकी अध्यक्षता के लिए ।’’
‘‘और मुझे सूचित नहीं किया !’’
मित्र चुप रहे । शायद मुझे सूचित न करने का उन्हें खेद हो रहा था ।
‘‘मैं मिलना चाहता था ।’’ मैंने शिथिल स्वर में कहा ।
‘‘इसमें मुश्किल क्या है ! कभी भी उनके घर-दफ्तर में जाकर मिल लो । बहुत ही आत्मीय व्यक्ति हैं । मैं दो बार उनसे उनके घर मिला हूं .....।’’
मित्र से नन्दन जी के घर का फोन नम्बर और पता लेने के बाद भी महीनों बीत गए । मैं नन्दन जी से मिलने जाने के विषय में सोचता ही रहा ।
****
अंततः अप्रैल 1979 के प्रथम सप्ताह मैंने एक दिन आर्डनैंस फैक्ट्री के टेलीफोन एक्सचैंज से नन्दन जी को फोन किया । अपना परिचय दिया और मिलने की इच्छा प्रकट की ।
‘‘किसी भी रविवार आ जाओ ।’’ धीर-गंभीर आवाज कानों से टकराई ।
‘‘इसी रविवार दस बजे तक मैं आपके यहां पहुंच जाऊंगा ।’’ मैंने कहा ।
‘‘ठीक है ....आइए ।’’
नन्दन जी उन दिनों जंगपुरा (शायद एच ब्लाक) में रहते थे । मैं ठीक समय पर उनके यहां पहुंचा । पायजामा पर सिल्क के क्रीम कलर कुर्ते पर उनका व्यक्तित्व भव्य और आकर्षक था । सब कुछ बहुत ही साफ-सुथरा ....आभिजात्य । नन्दन जी सोफे पर मेरे बगल में बैठे और भाभी जी हमारे सामने । हम चार धण्टों तक अबाध बातें करते रहे । तब तक किसी बड़े साहित्यकार-पत्रकार से मेरी पहली ही मुलाकात इतने लंबे समय तक नहीं हुई थी । गांव से लेकर शिक्षा , प्राध्यापकी, पत्रकारिता, साहित्य आदि पर नन्दन जी अपने विषय में बताते रहे । शायद ही कोई विषय ऐसा था जिस पर हमने चर्चा न की थी । जब उन्होंने बताया कि उन्होंने ‘भास्करानंद इण्टर कालेज नरवल’ से हाईस्कूल किया था तब मेरी प्रसन्नता का ठिकाना न रहा था । मैंने उन्हें बताया कि मैंने भी उसी कालेज से हाईस्कूल किया था ।
बीच-बीच में नन्दन जी फोन सुनने के लिए उठ जाते, लेकिन उसके बाद फिर उसी स्थान पर आ बैठते । बीच में एक बार लगभग आध घण्टा के लिए वह चले गए तब भाभी जी से मैं बातें करता रहा, जिन्हें दिल्ली रास नहीं आ रहा था । वह मुम्बई की प्रशंसा कर रही थीं, जहां लड़कियां दिल्ली की अपेक्षा अधिक सुरक्षित अनुभव करती थीं ।
उस दिन की उस लंबी मुलाकात की स्मृतियां आज भी अक्ष्क्षुण हैं ।
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यह वह दौर था जब मैं कविता में असफल होने के बाद कहानी पर ध्यान केन्द्रित कर रहा था । मेरी पहली कहानी मार्क्सवादी अखबार ‘जनयुग’ ने प्रकाशित की, और लिखने और प्रकाशित होने का सिलसिला शुरू हो गया था । एक कहानी ‘सारिका’ को भेजी और कई महीनों की प्रतीक्षा के बाद सारिका कार्यालय जाने का निर्णय किया । तब तक मैं दिल्ली शिफ्ट हो चुका था ।
मिलने के लिए चपरासी से नन्दन जी के पास चिट भेजवाई । तब सारिका के सम्पादकीय विभाग के किसी व्यक्ति से मेरा परिचय नहीं था , इसलिए चपरासी के बगल की कुर्सी पर बैठकर प्रतीक्षा करने लगा । दस मिनट की प्रतीक्षा के बाद नन्दन जी ने मुझे बुलाया । कंधे पर लटकते थैले को गोद पर रख मैं उनके सामने किसी मगही देहाती की भांति बैठ गया ।
‘‘कहें ?’’ फाइलों पर कुछ पढ़ते हुए नन्दन जी ने पूछा ।
‘‘यूं ही दर्शन करने आ गया । ’’ मेरी हर बात पर देहातीपन प्रकट हो रहा था , जिसे नन्दन जी ने कब का अलविदा कह दिया था .... शायद गांव से निकलते ही ।
‘‘हुंह ।’’ उस दिन मेरे सामने बैठे नन्दन जी घर वाले नन्दन जी न थे । हर बात का बहुत ही संक्षिप्त उत्तर ....और कभी-कभी वह भी नहीं । लगभग पूरे समय फाइल में चेहरा गड़ाए वह कुछ पढ़ते-लिखते रहे । मेरे लिए चाय मंगवा दी और ,‘‘ मैंने अभी-अभी पी है ’’ मुस्कराते हुए उन्होंने कहा, ‘‘आप पियें ...तब तक मैं कुछ काम कर लूं ।’’ वह फाइल में खो गए थे ।
इसी दौरान अवधनारायण मुद्गल वहां आए । नन्दन जी से उन्होंने कुछ डिस्कस किया और उल्टे पांव लौट गए । नन्दन जी के संबोधन से ही मैंने जाना था कि वह मुद्गल जी थे ।
मैंने उठने से पहले अपनी कहानी की चर्चा की ।
‘‘देखूंगा....।’’ फिर चुप्पी ।
‘अब मुझे उठ जाना चाहिए ।’ मैंने सोचा और ‘‘अच्छा भाई साहब ।’’ खड़े हो मैंने हाथ जोड़ दिए ।
नन्दन जी ने चेहरा उठा चश्मे के पीछे से एक नजर मुझ पर डाली, मुस्कराए, ‘‘ओ.के. डियर ।’’
सारिका को भेजी कहानी पन्द्रह दिनों बाद लौट आयी और उसके बाद मैंने वहां कहानी न भेजने का निर्णय किया । इसका एक ही कारण था कि मैं दोबारा कभी किसी कहानी के विषय में नन्दन जी से पूछने से बचना चाहता था और वहां हालात यह थे कि परिचितों की रचनाएं देते ही प्रकाशित हो जाती थीं, जबकि कितने ही लेखकों को उनकी रचनाओं पर वर्षों बाद निर्णय प्राप्त होते थे । एक बार रचनाओं के ढेर में वे दबतीं तो किसे होश कि उसे खंगाले । नन्दन जी तक रचना पहुंचती भी न थी ।
और नन्दन जी के कार्यकाल में मैंने कोई कहानी सारिका में नहीं भेजी । सारिका में जो एक मात्र मेरी कहानी प्रकाशित हुई वह ‘पापी’ थी, जिसे मुद्गल जी ने उपन्यासिका के रूप में मई,1990 में प्रकाशित किया और इस कहानी की भी एक रोचक कहानी है, जो कभी बाद में लिखी जाएगी ।
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फरवरी 1983 या 1984 की बात है । कानपुर की संस्था ‘बाल कल्याण संस्थान’ ने उस वर्ष बालसाहित्य पुरस्कार का निर्णायक नन्दन पत्रिका के सम्पादक जयप्रकाश भारती को बनाया था। 1982 से उन्होंने मुझे संस्थान का संयोजक बना रखा था । प्रधानमंत्री इंदिरा जी के निवास में 19.11.1982 को अपने संयोजन में मैं संस्थान का एक सफल आयोजन कर चुका था और केवल उसी कार्यक्रम का संयोजक था , लेकिन संस्थान दिल्ली से जुड़े मामलों का कार्यभार ‘‘मैं संस्था का संयोजक हूं...इसे संभालूं’’ कहकर मुझे सौंप देता ।
उस अवसर पर भी दिल्ली के साहित्यकारों से संपर्क करना, एकाध के लिए रेल टिकट खरीदना आदि कार्य मुझे करने पड़े । जयप्रकाश भारती ने पुरस्कार के लिए जिन लोगों को चुना वे उनके निकटतम व्यक्ति थे, लेकिन सबसे बड़े आश्चर्य की बात यह कि संस्थान के बड़े पुरस्कार के लिए उन्होंने हिन्दुस्तान टाइम्स समूह में कार्यरत अपनी परिचिता महिला पत्रकार का चयन किया । यह पुरस्कार बहुत विवादित रहा था । उस महिला और भारती जी को लेकर अनेक प्रकार की कुचर्चां थी (आज दोंनो ही जीवित नहीं इसलिए उसपर बस इतनी ही ), लेकिन जिस बात के लिए मैंने इस प्रसंग की चर्चा की वह नन्दन जी से जुड़ी हुई है ।
कार्यक्रम कानपुर के चैम्बर आफ कामर्स में था । नन्दन जी कालका मेल से ठीक समय पर वहां पहुंचे । अध्यक्षता की और जब वह अध्यक्षीय भाषण दे रहे थे तब उन्होंने कहा ,‘‘ मैं जयप्रकाष भारती जी को संस्थान द्वारा उनकी पत्नी को पुरस्कृत किए जाने के लिए बधाई देता हूं ।’’
भारती जी और उनके द्वारा चयनित पत्रकार-बालसाहित्यकार मंच पर ही थे । मैं भी मंच पर नन्दन जी के बगल में बैठा था । नन्दन जी के यह कहते ही भारती जी का चेहरा फक पड़ गया और उस पत्रकार , जो अपनी संगमरमरी शरीर और सौन्दर्य के लिए आकर्षण का केन्द्र थीं, ने नन्दन जी की ओर फुसफुसाते हुए कहा , ‘‘आपने यह क्या कहा ?’’
भारती जी भी कुछ बुदबुदाए थे, जो किसी ने नहीं सुना था, क्योंकि दर्शक-श्रोता तो नहीं, लेकिन उपस्थित साहित्यकारों के ठहाकों में उनकी आवाज दब गई थी ।
नन्दन जी प्रत्युत्पन्नमति व्यक्ति थे । तुरंत बोले, ‘‘मेरा आभिप्राय भारती जी की पत्नी स्नेहलता अग्रवाल जी से है ... जिन्हें कुछ दिन पहले एक संस्थान ने ...’’ कुछ रुककर बोले, ‘‘ एन.सी.आर.टी. ने बालसाहित्य के लिए पुरस्कृत किया है ।’’ (नन्दन जी उस पुरस्कार के निर्णायक मंडल में रहे थे ) ।
बात आई गई हो गई । लेकिन इसने सिद्ध कर दिया कि नन्दन जी की नजर हर ओर हरेक की गतिविधि पर रहती थी .... सही मायने में वह पत्रकार थे और एक प्रखर पत्रकार थे । इसी भरोसे टापम्स समूह ने उन्हें सारिका के बाद पराग और फिर दिनमान का कार्यभार सौंपा था । अपने समय के वह एक मात्र ऐसे पत्रकार थे जो एक साथ तीन महत्वपूर्ण पत्रिकाएं देख रहे थे ।
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उसके बाद साहित्यिक कार्यक्रमों में प्रायः नन्दन जी से मुलाकात होने लगी थी ।
‘‘कैसे हो रूपसिंह ? ’’ मेरे कंधे पर हाथ रख वह पूछते और , ‘‘ठीक हूं भाई साहब ।’’ मैं कहता ।
मेरा मानना है कि पत्रकारिता की दुनिया विचित्र और बेरहम होती है । कब कौन शीर्ष पर होगा और कौन जमीन पर कहना कठिन है । नन्दन जी के साथ भी ऐसा ही हुआ । एक साथ तीन महत्वपूर्ण पत्रिकाओं के सम्पादक और बड़े हालनुमा भव्य कमरे में बैठने वाले नन्दन जी को एक दिन नवभारत टाइम्स के ‘रविवासरीय’ का प्रभारी बनाकर (जो एक सहायक सम्पादक का कार्य होता है ) 10, दरियगंज से टाइम्स बिल्डिगं में एक केबिन में बैठा दिया गया । निश्चित ही उनके लिए यह विषपान जैसी स्थिति रही होगी , लेकिन उन्होंने उस विष को अपने चेहरे पर शाश्वत मुस्कान बरकरार रखते हुए पी लिया । कई महीने वह उस पद पर रहे । सारिका से बलराम और रमेश बतरा भी उनके साथ गए थे । तब तक इन दोनों से मेरी अच्छी मित्रता हो चुकी थी ।
1988 की बात है । सचिन प्रकाशन के लिए मैंने ‘बाल कहानी कोश’ सम्पादित किया , जिसके लिए दो सौ कहानियां मैंने एकत्र की थीं । नन्दन जी से कहानी मांगने के लिए मैं टाइम्स कार्यालय गया । बलराम ने नन्दन जी से कहा , ‘‘रूपसिंह मिलना चाहते हैं ।’’
‘‘पिछले वर्ष मैंने तुम्हारे एक दोस्त के लिए सिफारिश की थी...अब ये भी....।’’ नन्दन जी को भ्रम हुआ था ।
बलराम ने कहा , ‘‘नहीं, चन्देल किसी और काम से आए हैं ।’’
बहर आकर बलराम ने मुझे यह बात बताई और हंसने लगे । दरअसल नन्दन जी उन दिनों हिन्दी अकादमी दिल्ली के सदस्य थे और शायद पुरस्कार चयन समिति में थे । बलराम के जिस मित्र की सिफारिश की बात उन्होंने की थी, वह मेरे भी मित्र थे । खैर, मैं नन्दन जी से मिला । एक बार पुनः आत्मीय मुलाकात । उन्होंने ड्राअर से निकालकर अपनी बाल कहानी ‘आगरा में अकबर’ मेरी ओर बढ़ा दी ।
दुर्भाग्य कि वह ‘बाल कहानी कोश’ आज तक प्रकाशित नहीं हुआ , क्योंकि दिवालिया हो जाने के कारण सचिन प्रकाशन बन्द हो गया था और पाण्डुलिपि की कोई प्रति मैंने अपने पास नहीं रखी थी ।
इस घटना के कुछ समय बाद ही नन्दन जी सण्डे मेल के सम्पादक होकर चले गए । उन्होंने उसे स्थापित किया । उनके साथ टाइम्स समूह के अनेक पत्रकार भी गए थे । 1991 में मेरे द्वारा सम्पादित लघुकथा संकलन ‘प्रकारान्तर’ किताबघर से प्रकाशित हुआ । हिन्दी में तब तक जितने भी लघुकथा संग्रह या संकलन प्रकाशित हुए थे, सामग्री और साज-सज्जा की दृष्टि से वह अत्यंत आकर्षक था । यह संकलन मैंने तीन लोंगो - कन्हैयालाल नन्दन, हिमांशु जोशी, और विजय किशोर मानव को समर्पित किया था।
नन्दन जी की प्रति देने मैं सण्डे मेल कार्यालय गया । नन्दन जी प्रसन्न, लेकिन उस दिन भी वह मुझे उतना ही व्यस्त दिखे, जितना सारिका में मेरी मुलाकात के समय दिखे थे । यह सच है कि वह समय के साथ चलने वाले व्यक्ति थे .... अतीत को लात मार भविष्य की सोचते और वर्तमान को जीते ....और भरपूर जीते।
सण्डेमेल की उस मुलाकात के बाद गाहे-बगाहे ही उनसे मिलना हुआ । मुलाकात भले ही कम होने लगी थी , लेकिन कभी-कभार फोन पर बात हो जाती । बात उन दिनों की है जब वह गगनांचल पत्रिका देख रहे थे । मेरे एक मित्र उनके लिए कुछ काम कर रहे थे । उन दिनों मैंने (शायद सन् 2000 में) कमलेश्वर जी का चालीस पृष्ठों का लंबा साक्षात्कार किया था । उसका लंबा अंश मेरे मित्र ने गगनाचंल के लिए ले लिया । ले तो लिया, लेकिन अंश का बड़ा होना उनके लिए समस्या था । ‘‘मैं नन्दन जी से बात कर लेता हूं ’’ मैंने मित्र को सुझाव दिया । फोन पर मेरी बात सुनते ही नन्दन जी बोले , ‘‘रूपसिंह , पूरा अंश छपेगा ...... उसे दे दो । मैं कमलेश्वर के लिए कुछ भी कर सकता हूं ।’’
6 जनवरी 2001 को कनाट प्लेस के मोहन सिंह प्लेस के इण्डियन काफी हाउस’ में विष्णु प्रभाकर की अध्यक्षता में कमलेश्वर जी का जन्म दिन मनाया गया । हिमांशु जोशी जी ने मुझे फोन किया । वहां बीस साहित्यकार -पत्रकार थे । नन्दन जी भी थे और बलराम भी । कार्यक्रम समाप्त होने के बाद नन्दन जी ने मेरे कंधे पर हाथ रख पूछा , ‘‘रूपसिंह, क्या हाल हैं ?’’
‘‘ठीक हूं भाई साहब ।’’
‘‘तुम्हे जब भी मेरी आवश्यकता हो याद करना ।’’ लंबी मुस्कान बिखेरते हुए वह बोले, ‘‘यह घोड़ा बूढ़ा बेशक हो गया है , लेकिन बेकार नहीं हुआ ...।’’ उन्होंने बलराम की ओर इशारा करते हुए आगे कहा , ‘‘उससे पूछो ।’’
मैं बेहद संकुचित हो उठा था । कुछ कह नहीं पाया, केवल हाथ जोड़ दिए थे । नन्दन जी मेरे प्रति बेहद आत्मीय हो उठे थे और उनकी यह आत्मीयता निरंतर बढ़ती गई थी । शायद उन्हें इस बात का अहसास हो गया था कि कानपुर के नाम पर उनसे बहुत कुछ पा जाने वाले या पाने की आकांक्षा रखने वाले लोगों जैसा यह शख्श नहीं है । उनके प्रति इस शख्श का आदर निःस्वार्थ है । बीस-बाइस वर्षों के परिचय में इसने उनकी सक्षमता से कुछ पाने की चाहत नहीं की । और यह सब कहते हुए भी वह जानते थे कि यह व्यक्ति शायद ही कभी किसी बात के लिए उनसे कुछ कहेगा । वह सही थे । और यही कारण था कि उनका प्रेम मेरे प्रति बढ़ता गया था ।
न्यूयार्क में होने वाले विश्व हिन्दी सम्मेलन की स्मारिका के सम्पादन का कार्य उन्हें करना था । एक पत्र मिला , जिसमें डा. ”शिवप्रसाद सिंह के उपन्यास ‘अलग-अलग वैतरिणी’ पर निश्चित तिथि तक आलेख मुझे लिख भेजने के लिए उन्होंने लिखा था । उन दिनों मैं लियो तोल्स्तोय के उपन्यास ‘हाजी मुराद’ के अनुवाद को अंतिम रूप दे रहा था । मेरे पास शिवप्रसाद जी के उपन्यास ‘नीला चांद’ पर अच्छा आलेख था । मैंने नन्दन जी को लिखा कि ‘अलग -अलग वैतरिणी’ के बजाय मैं ‘नीला चांद’ पर लिख भेजता हूं । उनका तुरंत पत्र आया ,‘‘ एक सप्ताह का अतिरित समय ले लो, लेकिन लिखो ‘अलग-अलग वैतरिणी’ पर ही ।’’ मुझे उनकी आज्ञा का पालन करना ही पड़ा था । बाद में एक दिन शाम सवा पांच बजे उनका फोन आया ।
‘‘रूपसिंह कैसे हो ?’’
‘‘आपका आशीर्वाद है भाई साहब ।’’
कुछ इधर-उधर की बातें और अंत में ,‘‘आज तुम पर प्रेम उमड़ आया ...... तुम्हें प्रेम करने का मन हुआ ....।’’ और एक जबर्दस्त ठहाका ।
मैं भी ठहाका लगा हंस पड़ा था ।
‘‘अच्छा प्रसन्न रहो ।’’ आशीर्वचन ।
और उनके पचहत्तरहवें जन्म दिन का निमंत्रण । इण्डिया इण्टरनेशनल सेण्टर में आयोजन था । लगा पूरी दिल्ली के साहित्यकार-पत्रकार उमड़ आए थे । नन्दन जी के कुछ मित्र बाहर से भी आए थे । उस दिन नन्दन जी बहुत ही बूढ़े दिखे थे । बीमारी ने उन्हें खोखला कर दिया था । डायलिसस पर रहना पड़ रहा था । 1933 में परसदेपुर (जिला - फतेहपुर (उत्तर प्रदेश ) में जन्मे इस प्रखर पत्रकार -साहित्यकार ने 25 सितम्बर , 2010 को नई दिल्ली के राकलैण्ड अस्पताल में तड़के तीन बजकर दस मिनट पर 77 वर्ष की आयु में इस संसार को अलविदा कह दिया ।
अत्यंत सामान्य परिवार में जन्में नन्दन जी का जीवन बेहद उथल-पुथलपूर्ण रहा । प्रेमचंद से प्रेरित हो उन्होंने अंतर्जातीय विवाह किया , जिसके बारे में उन्होंने अपने एक आलेख में लिखा था । उनके जाने से पत्रकारिता और लेखन जगत को अपूरणीय क्षति हुई है ।
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रविवार, 3 अक्तूबर 2010

यादों की लकीरें



संस्मरण

चंदनिया बुइया उर्फ चांदनी देवी

रूपसिंह चन्देल

16 अगस्त ,1981 (रविवार) को उनसे मेरी अंतिम मुलाकात हुई थी । सुबह छः बजे का वक्त था । आसमान में हल्के बादल थे और रह-रहकर फुहारें पड़ रही थीं । उनसे मिलने के लिए मैं पांच मिनट पहले घर से निकल आया । वह दरवाजे के बाहर खड़ी थीं । मैंने आगे बढ़कर उनके चरणस्पर्श किए ।
‘‘जा रहे हौ ? एकौ दिन न रुकेव ।’’
‘‘कल दफ्तर है ।’’
‘‘बिटेऊ जा रही हैं ?’’
‘‘बहुत मुश्किल से दो महीने के लिए तैयार हुई हैं ।’’
‘का बताई बबुआ .... बहुत समझावा पर सुनै का तैयार नहीं । ई उमिर मा आदमी का अपन बच्चन के पास रहा चाही .... कब तलक अकेली पड़ी रहिहैं, लेकिन ई कान ते सुनति हैं अउर दुसरे ते निकारि देति हैं ।’’
मैं उनके घर के सामने गली के साथ खड़े नीम के पेड़ की ओर खिसकने लगा । वह भी मेरे साथ खिसकने लगीं । मैंने गौर से उन्हें देखा । बहुत बूढ़ी हो गयी थीं । चेहरे पर झुर्रियां छायी हुई थीं ।
तभी मेरे घर के दरवाजे पर ताला बंद होने की आवाज आयी । उनके स्वर में हड़बड़ाहट थी । मैं तुरंत भांप गया कि वह मेरी मां का सामना करने से बचना चाहती थीं ....... मेरी मां यानी उनकी बेटी । वह मेरी नानी थीं ......अस्सी पार ।
‘‘हम चली बबुआ ..... देखिहैं तो कहिहैं कि हम तुमका कुछ पट्टी पढ़ावत रही ।’’
मैंने पुनः उनके चरणस्पर्श किए । आशीसती नानी घर की ओर लपक लीं थीं।
घर में ताला बंद कर मां सामने के त्रिवेदी परिवार के किसी सदस्य से कह रही थीं , ‘‘का बताई , जबरदस्ती जांय का पडि़ रहा है ।’’
उधर से सांत्वना में क्या कहा गया , सुन नहीं पाया । मैं नीम के पेड़ के पास खड़ा मां के आने के प्रतीक्षा कर रहा था और सोच रहा था , नानी और उनके स्वभाव के विषय में । नानी जितनी सीधी-सहज, सरल थीं, मां उतनी ही अक्खड़ । अड़ जाएं तो दुनिया की कोई ताकत उन्हें डिगा नहीं सकती थी । पूरी रात मैं उन्हें कुछ दिन अपने साथ चलकर दिल्ली रहने के लिए मनाता रहा था । नानी से भी कहा था कि वह भी समझाएं, लेकिन ‘‘हमरे कहैं ते वह जाती हुई भी न जइहैं बबुआ ।’’ नानी ने असमर्थता व्यक्त की थी , ‘‘तुम्हरे आवैं ते पहले कहा रही.......पर उनने कहा कि मैं तो चाहती ही हूं कि वह गांव मा न रहैं ।’’
और इसीलिए नानी मां का सामना टालना चाहती थीं ।
त्रिवेदी परिवार से मिलकर और ऐसा आभास देकर कि जिन्दा बचीं तो वह जल्दी ही दिल्ली को अलविदा कह आएगीं, मां भारी कदमों से आगे बढ़ रही थीं ।
पुरवामीर बस अड्डे तक पूरे रास्ते वह बुड़बुड़ाती रहीं और इस गति से चलती रहीं मानो कसाईघर जाने वाली कोई गाय । मुझे कानपुर से आसाम मेल पकड़ने की जल्दी थी और जब भी इस विषय में उन्हें कहता वह चीख उठतीं , ‘‘ मैं तेज नहीं चल सकती । जल्दी है तो चले जाव ।’’
उस दिन नानी मेरे दिमाग में यो अटकीं कि आसाम मेल में पूरे समय वह मेरे साथ रहीं और उसके बाद भी कितने ही ऐसे अवसर आए जब उनकी स्मृतियों ने मुझे अपने में समेटा और घण्टों उनकी याद में बीत गए ।
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जब भी हम बच्चे नानी का नाम पूछते वह सकुचा जातीं । कितनी ही बार पूछने के बाद एक बार बोलीं, ‘‘चंदनिया बुइया ।’’ और हो होकर हंस पड़ी थीं । नाम ठीक समझ में नहीं आया । दोबारा पूछा । फिर वही..... तीसरी बार सही नाम सुना गया । ‘लेकिन यह कोई नाम न हुआ ।’ मै मन ही मन सोचता रहा । सोचता रहा ....... वर्षों .... उम्र गुजर गई और नानी भी गुजर गईं, लेकिन उनके नाम का सही उच्चारण मैं खोजता रहा । यह बात तभी ज्ञात हो गयी थी कि यमुना पार अर्थात् बांदा-हमीरपुर में बुइया का अर्थ देवी या बाई से था , जो वहां सभी लड़कियों के नाम के साथ जोड़ दिया जाता था ।
अनुमान लगाया कि वह चांदनी देवी थीं । चांदनी देवी अर्थात मेरी नानी की मृत्यु 1982 में जब हुई तब वह लगभग नव्वे वर्ष की थीं । इस प्रकार उनका जन्म 1890-91 के आसपास कभी बांदा जिला (उत्तर प्रदेश) के एक गांव में हुआ था । तीन भाइयों की इकलौती बहन । सभी भाई लंबे छः फुटा , लेकिन बहन की कद-काठी सामान्य थी । गेहुआं रंग, गोल चेहरा, बड़ी आंखें ,हृष्ट-पुष्ट शरीर ..... होश संभालने के बाद मैंने उन्हें वैसा ही देखा था । जब मैंने होश संभाला , जाहिर है वह सत्तर के आस-पास थीं , लेकिन ऐसा नहीं लगता था कि वह बूढ़ी हो गयी थीं । उनके बूढ़े होने की प्रक्रिया बेटे (मेरे मामा) के दूसरे विवाह के बाद प्रारंभ हुई थी ।
’’’’’
चांदनी देवी की उम्र जब खेतों से ज्वार और बाजरे के भुट्टे चुन लाने की थी, तभी उनका विवाह मेरे नाना के साथ कर दिया गया । नाना, जिन्हें मैंने कभी नहीं देखा । मेरी मां या मेरे मामा (इन्द्रजीत सिंह गौतम) ने भी अपने पिता को नहीं जाना । मामा साढ़े तीन और मां जब ढाई वर्ष के थे किसी अनजान ज्वर से नाना की मृत्यु हो गयी थी । नानी तब पचीस -छब्बीस वर्ष की थीं ..... जवानी में वैधव्य । घर में तीन देवर और अकाल वर्ष । अकाल भी ऐसा कि बड़े-बड़े किसानों ने घुटने टेक दिए । घरों में चूहे दण्ड लगाते और खेतों में किसान जेठ की तपती दोपहर में जौ-चना के दाने खोजते । अकाल इतना भीषण था कि सर्वत्र त्राहि-त्राहि मच गई । लोग भूखों मरने लगे । उस पर अंग्रेज सरकार और उसके जमींदारों का आतंक जीने से अधिक उन्हें मृत्यु वरण के लिए प्रेरित कर रहा था ।
तीन वर्ष अकाल की भेंट चढ़े । नानी ने उन दिनों का एकाधिक बार वर्णन किया था । घर में दो मटके चना बचे हुए थे । रात घर के हर सदस्य के हिसाब से एक मुट्ठी चना भिगो दिए जाते । सुबह अंगौछे में भीगे चना बांध नाना के भाई खेतों में पत्थर हुई मिट्टी से जूझते । बड़े-बड़े ढेलों को तोड़ते और मन को आश्वस्त करते कि आसाढ़ में यदि वर्षा हुई तब वे अच्छी फसल उगा सकेगें । वर्षा तो नहीं हुई, लेकिन उनका सबसे छोटा भाई लू की चपेट में आकर प्राण गंवा बैठा । अब शेष बचे दो भाई , जिनमें मझले कंचन सिंह सन् 1967 तक जीवित रहे थे ।
अकाल के दिनों एक दिन जमींदार का कारिन्दा सिपाहियों सहित नानी के घर आ धमका लगान वसूली के लिए । छूछे घर से क्या वसूली करता ? उसने बेइज्जत करने के लिए सिपाहियों को हुक्म दिया कि वे घर की ड्योंढ़ी उखाड़ लें । गांवों में आज भी ड्योढ़ी किसी भी घर की प्रतिष्ठा से जुड़ी होती है । सिपाही आगे बढ़े ही थे कि नानी दरवाजे की ओट हो आ खड़ी हुईं और दबंग आवाज में बोलीं , ‘‘ खबरदार, ड्योंढ़ी को हाथ मत लगाना ।’’
सिपाही ठहर गए । कारिन्दा का चेहरा देखने लगे ।
‘‘डर गए स्सालो .... आगे बढ़ो ....।’’
‘‘बढ़ो आगे .... गर्दन पर गड़ासा पड़ेगा ।’’ नानी दुर्गा बनी दरवाजे की ओट खड़ी थीं ।
कारिन्दा भी सहमा , ‘‘ठकुरानी, अकड़ से काम नहीं चलेगा । रोकड़ा गिन दो लगान का ....।’’
‘‘बताव।’’
कारिन्दा ने हिसाब बताया । नानी ने टेंट से चांदी के सिक्के निकाले और कारिन्दा की ओर फेककर कहा , ‘‘अब शकल न दिखाएव ।’’
‘‘वाह ठकुरानी ।’’ बेसाख्ता कारिन्दा के मुंह से निकला था।
नना के दोनों भाई नानी का चेहरा देखते रहे थे , लेकिन वे नानी का इतना सम्मान करते थे कि उनसे उलट यह नहीं पूछा कि ‘‘भौजाई, घर में फांके के हालात है और तुम चांदी के सिक्के छुपाए बैठी थी ।’’
वे नहीं पूछ पाए लेकिन मैंने यह बात पूछी थी । नानी ने बताया कि ‘‘कारिन्दा दो साल से लगान वसूली के लिए नहीं आया था । उसे किसान के परेशान हाल होने का ही इंतजार होता था। मैंने कुछ रकम केवल इसीलिए बचा रखी थी । कम खाकर गुजर हो ही रहा था । लेकिन लगान न देने पर अगर वह खेतों से बेदखल कर देता तब क्या होता ..... भूखे रहकर भी खेत बचाना जरूरी था ।’’
इस घटना के कुछ वर्षों में घर में पुनः सम्पन्नता आ बिराजी थी । लेकिन उस सम्पन्नता का उपभोग कंचन नाना के दूसरे भाई नहीं कर सके । कंचन नाना को अकला छोड़ वह भी एक दिन मृत्यु का शिकार हो गए थे ।
*****
भरे-पूरे घर में अब बची थीं नानी, मामा और मां और शायद नानी की एक विधवा ननद। उन सबका बोझ कंचन नाना के कंधों पर था । कंचन नाना का रंग बिल्कुल कंचन जैसा .... साफ-सुथरा, चमकदार चेहरा । सूर्य की रोशनी में उनका चेहरा बिल्कुल सोने की भांति दहकता । कुल मिलाकर वह भव्य व्यक्तित्व के धनी थे ।
कंचन नाना ने अपनी जिम्मदारी का निर्वहन सफलतापूर्वक किया । कुछ दिनों बाद अकाल पीडि़त नानी के तीनों भाई भी उनके यहां आ जमे थे । नाना के पास अच्छी खेती थी ...गांव में सबसे अधिक मातबर खेत । कई बाग और पड़ती पड़ी जमीन । वह पड़ती जमीन ही कंचन नाना ने बाद में मेरे पिता को दी थी ।
नानी के सबसे बड़े भाई दुलार सिंह और छोटे गजराज सिंह को ही मैं जानता था । तीसरे और शायद मंझले भाई कुछ दिन रहकर अपने गांव वापस लौट गए थे और अपनी किसी खता के कारण कभी नाना के घर नहीं आए । जबकि दुलार सिंह और गजराज सिंह ने नाना के खेत संभाल लिए थे और अपने भांजा-भांजी की परवरिश में रुचि लेने लगे थे । दोनों ही अविवाहित थे और सारी जिन्दगी अविवाहित रहे थे । कंचन नाना भी अविवाहित रहे थे ।
नानी के भाइयों के आने के बाद कंचन नाना ने खेती से अपने को मुक्त कर लिया था और गांव से पांच या छः मील दूर पाण्डुनदी के किनारे सिउली नामक गांव में जी.टी.रोड के किनारे शराब का ठेका ले लिया था । वर्षों वह उसे चलाते रहे । अच्छा धन कमाया और चार गांवों में सम्पन्न व्यक्तियों में शामिल हो गए । लेकिन तभी एक सुबह सोकर उठने पर उन्होंने पाया कि दुनिया देखने की उनकी क्षमता नष्ट हो चुकी थी । वह अंधे हो गए थे । लेकिन मेरी मां और मामा के विवाह तक वह बिल्कुल ठीक थे । यह घटना उसके कुछ दिनों बाद की थी ।
कंचन नाना ने जिस समर्पण के साथ घर संभाला था और भौजाई और उनके बच्चों की देखभाल की थी , नाना के अंधे होने के बाद नानी ने कभी उन्हें कोई कष्ट नहीं होने दिया । वह उनके हर सुख -दुख का खयाल रखती थीं । अंधा होने के बाद नाना घर छोड़कर गांव के बाहर सड़क किनारे के बाग में आकर रहने लगे थे , जहां पहले से ही जानवर बंधते थे और दो कोठरियां बनी हुई थीं ।
शादी के बाद मेरी मां कलकत्ता चली गईं और मामा की पहली पत्नी दो लड़कियों को जन्म देने के बाद जीवित नहीं रहीं । लंबे समय तक विधुर जीवन जीने के बाद मामा का पुनर्विवाह बांदा के ही किसी गांव में हुआ । मेरा अनुमान है कि मामा और इस दूसरी मामी में आयु का पन्द्रह से अघिक वर्षों का अंतर था । कुछ दिनों में ही मामा उस नवोढा की मुट्ठी में थे और नानी अधिकार-वंचिता ।
और वहीं से प्रारंभ हुआ था नानी के दुर्दिनों का सिलसिला और हम उनके लिए कुछ भी कर सकने में अपने को असमर्थ पा रहे थे । दो कारण थे ..... पहला यह कि मामी गजब की लड़ाकू थी । उसे अपने डील-डौल पर घमण्ड था । दूसरा कारण था हमारे घर की विद्रूप आर्थिक स्थिति । पिता अवकाश पाकर घर आ गए थे और कुछ ही वर्षों में उनकी जमा-पूंजी खत्म हो चुकी थी । किस आधार पर एक और पेट हम पालते , जबकि मामा गांव के समृद्धतम व्यक्तियों में गिने जाते थे ।
गहरे सांवले रंग की मामी , मोटी नाक, बड़ी आंखें और चेचकारू चेहरे वाली हृष्ट-पुष्ट शरीरा थी । नाक में जब मोटी छदाम जितनी लौंग पहनती और मटककर चलती तब धरती हिलती प्रतीत होती । कुछ वर्षों में ही उसने एक के बाद कई बच्चे पैदा किए ......शायद आठ-नौ । एक डेढ-दो साल का होता कि पता चलता दूसरा आने वाला है । पैदा करती हुई पालने के लिए वह उन्हें नानी के हवाले कर देती । बच्चा जनने से तीन महीना पहले से लेकर चार-पांच महीने बाद तक वह घर के काम छूती भी न थी । नारियल और मिश्री उसका प्रिय खाद्य था । आभूषणों की वह शौकीन थी और उसकी बाक्स का आकार उनके कारण बड़ा होता जा रहा था । घर का सम्पूर्ण स्वामित्व अपने अधीन रखने के बावजूद वह चोरी छुपे छत के रास्ते घर से सटे मुसलमानों के घरों की औरतों को आनाज बेचती और वह बेच अपने लिए दबाकर रखती । जब पचहत्तर की आयु में पूरे घर के बर्तन मांजते मैं नानी को देखता तब कलेजा मुंह को हो आता , और जब भी इस विषय में नानी से कहता कि हम उससे या मामा से बात करके किसी को बर्तन मांजने के लिए लगा लेने के लिए कह देते हैं तब नानी का चेहरा पीला पड़ जाता । लटपटी जुबान से वह कहतीं , ‘‘न बबुआ.... न कहौ । किस्मत मा जो लिखा है होंय देव ।’’
किशोरावस्था से ही मैं अन्याय के विरोध में आवाज उठाने लगा था । मैं अपने को रोक नहीं पाया । एक दिन मामी के पास गया और बोला, ‘‘ मांई (मामी) शर्म करो , इतना बड़ा शरीर पलंग पर पसरा रखा है और इतनी बूढ़ी सास से खांची भर बर्तन मंजवा रही हो ।’’
वह तमककर पलंग पर उठ बैठी और तमतमाती हुई नानी की ओर लपकी ,‘‘ये बूढ़ा.....तुम गांव भर मा हमारी बुराई करती घूमती हो ........ छोडि़ देव बर्तन ।’’ और उसने नानी को धकियाकर एक ओर करने का प्रयास किया और बर्तनों को पैर से दूर खिसका दिया । उसके धकियाने से नानी पीढ़े पर अपना संतुलन नहीं संभाल पायीं । एक ओर लुढ़क गयीं । आगे बढ़कर मैंने उन्हें संभाला ।
नानी बुक्का फाड़कर रोने लगीं, ‘‘हाय बबुआ रूप, ई दिन द्याखैं का बदा रहै ।’’
‘‘ज्यादा बुलकी न बहाव बूढ़ा, आज से ई बबुआ रूप ही तुम्हें खिलैहैं । यहां खाना-रहना है तो ई बर्तन धोवैं का ही पड़ी ।’’ पैर पटकती वह चली गई थी ।
मैं किंकर्तव्यविमूढ़ खड़ा रहा था - असहाय ! नानी के आंखों की ओर देखने का साहस मुझमें नहीं रहा था ।
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(प्रकाश्य संस्मरण पुस्तक - ‘रोशनी की लकीरें’ (भाग दो ) में प्रकाश्य एक संस्मरण ।)

बुधवार, 21 जुलाई 2010

यादों की लकीरें



रचना यात्रा में अब तक ’यादों की लकीरें’ श्रंखला के अंतर्गत प्रकाशित अट्ठारह संस्मरण पुस्तकाकार रूप में इसी शीर्षक से भाग एक के रूप में ’भावना प्रकाशन’ , १०९ A , पटपड़गंज, दिल्ली-९२ से शीघ्र ही प्रकाश्य हैं।

प्रस्तुत है इसी श्रंखला के दूसरे भाग का एक संस्मरण :

तांगेवाला

रूपसिंह चन्देल

2 जुलाई, 1984 - सोमवार का दिन । स्कूल खुल गए थे । उस दिन मैंने अवकाश लिया और सुबह बेटी को स्कूल छोड़ आया । आधा दिन यह सोचते हुए बीता कि उसके लिए टैक्सी , आटो की व्यवस्था करूं या बस की । टैक्सी-आटो की व्यवस्था अनुकूल थी, क्योंकि अनुरोध करने पर शायद वे उसे क्रेच के गेट पर छोड़ देते, लेकिन बस मुआफिक इसलिए न थी क्योंकि उसका निश्चित स्टैण्ड था और बच्चों को स्टैण्ड पर उतारकर बस आगे चली जाती हैं । यदि क्रेच की आया या मालकिन स्टैण्ड पर उपस्थित न रही तब तीन वर्ष की बेटी क्रेच तक कैसे जाएगी, यह सोचकर बस की व्यवस्था करने का विचार हमने त्याग दिया था । दरअसल इस उलझन से हम मई में स्कूल बंद होने के साथ ही जूझने लगे थे । अप्रैल से 15 मई तक का समय हमने किसी तरह काट लिया था, लेकिन अब समस्या मुंह बाये खड़ी थी । डेढ़ महीने तक जूझने के बाद भी हम किसी निर्ष्कर्ष पर नहीं पहुंच पाए थे । बेटी जब पांच माह की थी, तभी से क्रेच जा रही थी । प्रारंभ में शक्तिनगर में रवीन्द्र मल्होत्रा द्वारा खोले गए क्रेच में , और एक साल बाद उसके बंद होने पर बैंग्लोरोड (जवाहरनगर) में चोपड़ा परिवार के यहां । चोपड़ा गोरे, मध्यम कद के हंसमुख स्वभाव व्यक्ति थे । आर.के. पुरम के एक कार्यालय में कार्य करते थे और आते-जाते प्रायः वह मेरे साथ होते, लेकिन वर्षों तक मुझे यह जानकारी नहीं हुई कि जिस क्रेच में मेरी बेटी जाती थी, उसे उनकी पत्नी और उनका अविवाहित छोटा भाई (जिसने कभी विवाह न करने की शपथ ले रखी थी) चलाते थे । यह तब ज्ञात हुआ जब बच्चों का क्रेच जाना बंद हो गया था ।
उस दिन पत्नी आधे दिन के बाद घर आ गई । दिल्ली विश्वविद्यालय शक्तिनगर से मात्र तीन किलोमीटर की दूरी पर अवस्थित है । स्कूल की छुट्टी ढाई बजे होनी थी । स्कूल घर से बहुत ही निकट था - - - पैदल पन्द्रह मिनट के रास्ते पर - - रेलवे लाइन के उस पार । बहुत सोच-समझकर हमने उस स्कूल का चयन किया था । यह आर.आर.वी.एम. सीनियर सेकेण्डरी स्कूल के प्रबन्धन का एल.वी.एम. नामका उसी परिसर में दूसरा स्कूल था । आर.आर.वी.एम. दिल्ली के महत्वपूर्ण विद्यालयों में रहा था , लेकिन तब तक वह अपनी प्रतिष्ठा खो चुका था, जबकि एल.वी.एम. सीनियर सेकेण्डरी स्कूल अपनी प्रिन्सिपल की सुव्यवस्था और अनुशासनप्रियता के कारण उस क्षेत्र के महत्वपूर्ण विद्यालयों की पंक्ति में खड़ा था । मेरे मित्रों ने सेण्ट जेवियर्स या डी.पी.एस. के लिए प्रयत्न न करने के लिए मुझे झिड़का था, और मेरा विश्वास था कि उनमें भी बेटी को प्रवेश मिल जाता, लेकिन हमारी विवशता थी । विवशता थी हम दोनों का नौकरीपेशा होना और घर में किसी का भी न होना जो बेटी को बस स्टैण्ड से ले सकता ।
हमें एक ऐसे विद्यालय की खोज थी जहां से सुविधाजनक प्रकार से बेटी क्रेच पहुंच जाती और आवश्यकता होने पर पत्नी, जो उन दिनों तक विश्वविद्यालय पुस्तकालय में तदर्थ मुलाजिम थी , स्कूल, क्रेच या घर पहुंच सकती जो अधिक से अधिक आध धण्टा के रास्ते पर थे ।
उस दिन हम दोनों पौने दो बजे स्कूल पहुंच गए । बेटी को स्कूल छोड़ते समय मैंने यह ध्यान नहीं दिया था कि कुछ बच्चे तांगों पर भी आ रहे थे । जब हम पहुंचे कम से कम पांच तांगे घोड़े जुते खड़े हुए थे । हमने आपस में चर्चा की कि क्यों न माशा (बेटी का घर का नाम) के लिए किसी तांगे वाले से बात की जाए । यह अधिक सुरक्षित साधन था । इससे पहले दो टैक्सी वालों से हम बात कर चुके थे । वे उस रूट पर नहीं जाते थे ।
हम एक युवा तांगावाले के पास पहुंचे । उसे अपनी समस्या बतायी । उसने सिर हिला दिया , ‘‘मैं उधर नहीं जाता ।’’
हम निराशा में ऊभ-चूभ हो ही रहे थे कि हमने उसे अपनी ओर आते देखा । रूखे उलझे, कुछ भूरे बाल, पका सांवला रंग, छोटी आंखें , मोटी नाक, चेहरे पर स्पष्ट दिखते चेचक के दाग, गंदी कमीज और पायजामा में वह हमारे सामने था ।
‘‘क्या बात है बाबू जी ?’’ पीले दांतों में मकुस्कराते हुए उसने पूछा ।
हमने उसे अपनी समस्या बताई ।
‘‘किस क्लास में पढ़ती है बिटिया ?’’
‘‘एल.के.जी. में......... सवा तीन साल की है ।’’
‘‘मैं छोड़ दिया करूंगा ।’’
उसके उत्तर से हमारे मुर्झाए चेहरों पर चमक आ गई । सब तय हो गया । स्कूल छूटने पर पत्नी बेटी के साथ तांगे पर घर गयी ..... उसे घर दिखाने के लिए ।
उसका नाम कमल था । अगले दिन सुबह निश्चित समय पर कमल घर आ गया । उस किराए के मकान की दूसरी मंजिल मेरे पास थी । कमल के घोड़े के सामने सड़क पर घर की ओर मुड़ते ही मैंने माशा को गोद उठाया , उसका बैग संभाला, अपना थैला कंधे से लटकाया और सीढि़यां उतर गया । उसे तांगे वाले को पकड़ा मैं बस पकड़ने के लिए दौड़ गया था । उस दिन दोपहर पत्नी पुनः स्कूल पहुंची थी और कमल को क्रेच दिखाने ले गयी थी। उस दिन के बाद कमल प्रतिदिन क्रेच के सामने तांगा खड़ाकर बेटी को गोद में उठा, कंधे से उसका बैग लटका पहली मंजिल पर क्रेच की आया या मालकिन को उसे देकर आने लगा था ।
लेकिन हमारी समस्याओं का अंत वहीं नहीं हुआ । कुछ दिनों बाद पुस्तकालय प्रशासन ने पत्नी की ड्यूटी शिफ्ट में लगा दी । एक महीना सुबह और दूसरे महीना शाम . सुबह उसे आठ बजे पहुंचकर पुस्तकालय खुलवाना होता । तब वह चार बजे वहां से निकलती । कमल बेटी को क्रेच छोड़ता जहां से शाम साढ़े पांच बजे के लगभग क्रेच की आया रिक्शा से उसे घर छोड़ने आती । चोपड़ा के भाई ने क्रेच के बच्चों को लाने-छोड़ने के लिए स्कूलों की भांति एक रिक्शा रखा हुआ था । पत्नी की दूसरी शिफ्ट दोपहर बारह बजे से रात आठ बजे तक होती । उन दिनों वह डिपार्टमेण्ट आफ एजूकेशन की लाइब्रेरी में थी । उस कठिन घड़ी में क्रेच का रिक्शा शाम बेटी को लाइब्रेरी छोड़ता था । मैं दो बसें बदलकर लटकता-पटकता छः-साढ़े बजे तक पुस्तकालय पहुंचता और बेटी को लेकर घर आता । लेकिन अप्रैल 1985 में पत्नी के रेगुलर होने के बाद स्थितियों में कुछ परिवर्तन हुआ । उसे शिफ्ट की ड्यूटी से मुक्ति मिली । अब वह जनरल शिफ्ट में थी, जो दस बजे से साढ़े पांच बजे तक होती । तब तक बेटा भी क्रेच जाने लगा था , जिसे क्रेच का रिक्शा ले जाता और शाम दोनों बच्चों को छोड़ जाता । बेटा इतना छोटा था कि कभी-कभी आया को पत्नी के पहुंचने की प्रतीक्षा करनी होती । यह सिलसिला मार्च 1987 तक चला । मार्च ’87 में मेरी मां बहुत मनुहार के बाद मेरे पास आकर रहने को तैयार हो गयी थीं । लेकिन तीन महीने बाद ही उन्होंने गांव जाने का ऐसा तुमुल नाद छेड़ा कि हमें उन्हें भेजना पड़ा । एक बार पुनः बच्चे क्रेच के हवाले हुए थे।
हम जब भी कमल को अपनी समस्या बताते वह मुस्कराकर कहता, ‘‘कोई नहीं बाबू जी ......बूढ़े लोगों का मन एक जगह नहीं रमता ......अम्मा को आप गांव जाने दो...... आप जहां कहेंगे..... मैं वहां बच्चों को छोड़ दिया करूंगा ।’’
और सच ही कमल ने अपना कौल निभाया था । माता जी दो महीना बाद फिर चेहरे पर तनाव लिए आयीं । बच्चों के चेहरे खिल उठे । हमने भी राहत की सांस ली । मैं जानता था कि उनका वह आना दो-तीन माह से अधिक के लिए नहीं था । लेकिन हमने यह भी निर्णय कर लिया था कि बच्चों को भविष्य में क्रेच नहीं भेजेंगे । बेटा भी स्कूल जाने लगा था और उसे भी उसी स्कूल में प्रवेश मिल गया था । अब स्थितियां ये थीं कि जिन दिनों माता जी नहीं होतीं कमल बच्चों को एजूकेशन डिपार्टमेण्ट के गेट पर छोड़ता । उन्हें वहां पहुंचते हुए साढ़े तीन-चार बज जाते । वहां की कैण्टीन में वे कुछ खाते, लॉन में खेलते और शाम पांच बजे मां के साथ कभी बस से तो कभी रिक्शा से घर आते ।
1990 के अंत में मेरी मां ने दिल्ली के आवागमन को पूर्ण विराम दे दिया । उनकी भी अपनी समस्या थी, उसे मैं समझता था । हम सभी के चले जाने के बाद घर में वह अकेली होतीं, जबकि गांव में एक वृहद समाज का वह अंग थीं । गांव के अपने अकेलेपन को वह अपने ढंग से एन्जॉय करतीं...... वहां कोई बंधन नहीं, जहां चाहा गयीं.......खेतों या बगीचे की ओर निकल गयीं या किसी के घर जा बैठीं । मेरा ननिहाल ही मेरा गांव है, इसलिए पूरा गांव ही उनका था ....... हर घर में उनकी पैठ-पूछ । ऐसी स्थिति में गांव के लिए उनकी तड़प समझ आती थी , जबकि दिल्ली में घर की दीवारें थीं या खुली छत से दिखते मकानों की मुंडेरें..... सड़क पर गुजरते लोग । न आस-न पास -पड़ोस । अपरान्ह बच्चों के आने तक शून्य में ताकती उनकी आंखें दुख जातीं होंगी ।
दो-तीन महीना वे बमुश्किल काट पातीं और गांव जाने की जिद पकड़ लेतीं । वे कानपुर में बड़े भाई के पास भी न रुकतीं जिनका बड़ा घर और भरा-पूरा परिवार है ......मेरे यहां जैसा एकाकीपन वहां नहीं था । लेकिन उन्हें गांव ही पसंद था ।
माता जी के स्थायी रूप से चले जाने के बाद हमने एक दिन कमल को घर बुलाया । वह एक रविवार का दिन था । वह दौड़ा आया ।
‘‘कमल अब हम बच्चों को इधर-उधर नहीं दौड़ाना चाहते ..... क्या आप हमारी एक मदद कर सकते हैं ?’’
‘‘हुकुम करें बाबू जी ।’’
‘‘यदि हम अपने मुख्य दरवाजे के ताले की एक चाबी आपको दे दें तो आप उसे खोलकर बच्चों को अंदर छोड़ दिया करें और बाहर से फिर ताला बंद कर दिया करें ।’’
‘‘कोई समस्या नहीं ।’’
‘‘मैं मकान मालिक को भी बता दूंगा ।’’
‘‘जैसी आपकी मर्जी ।’’
और उसके बाद कमल वैसा ही करने लगा । बिटिया इतनी बड़ी हो गयी थी कि वह व्यवस्था संभाल सकती थी । कमल बेटे का बैग उठा दोनों को ऊपर छोड़ बाहर से ताला बंद कर देता ....और बेटी अंदर से कुण्डी लगा लेती । वह दरवाजा सीढि़यां समाप्त होने के बाद था, जिसके बंद हो जाने पर बच्चे घर में सुरक्षित थे । सीढि़यों पर आने वाले किसी भी व्यक्ति को पीछे सीमण्ट की जाली से देखा जा सकता था । यह सिलसिला लगभग चार वर्षों तक चला था ।
1993 मार्च में जब बच्चों के अवकाश पर हम अशोक आन्द्रें और बीना आन्द्रे के साथ बंगलौर, मैसूर, ऊटी आदि स्थानों की यात्रा पर निकले तब उससे पहले मकान मालिक की अनुमति से घर की सुरक्षा को दृष्टिगत रखते हुए हमने सीढि़यों पर एक लोहे का ग्रिल का दरवाजा लगवाया था । अब हमारे हिस्से की सुरक्षा के लिए दो दरवाजे थे । कमल को उसके बाद कुछ सीढि़यां कम चढ़नी पड़ती थीं । वह लोहे के ग्रिल वाले दरवाजे का ताला खोलकर बच्चों को ऊपर छोड़ देता, जबकि पुराने दरवाजे की चाबी बेटी के पास होती । शायद सुरक्षा के उस कांसेप्ट के कारण ही मेरे अपने मकान में मेन गेट के बाद भी लोहे के दो दरवाजे हैं । वरिष्ठ कवि -कथाकार विष्णुचन्द्र शर्मा ने एक दिन कहा था कि मैंने अपने घर को किसी किले की भांति सुरक्षित कर रखा है ।
1984 से 1994 तक कमल की सेवाएं मुझे मिलीं । इस दौरान उसने दो घोड़े बदले थे । हर घोड़े के बदलने के समय वह हमसे कछ अग्रिम राशि लेता, जिसे किश्तों में कटवा देता । कमल ने 1994 में फिर घोड़ा बदला और इस बार उसने घोड़ी खरीदी जो बेहद मरियल थी और इतना मंद गति चलती कि बच्चे दुखी हो जाते । एक-दो बार घोड़ी ने अपनी पूंछ से बेटी के चेहरे को झाड़ दिया था। एक बार वह आगे न बढ़ने की कसम खाकर बीच सड़क पर अड़कर खड़ी हो गयी थी । बच्चे अपने बैग लादकर पैदल घर आए थे और उसी शाम बेटे ने घोषणा कर दी थी कि वह कमल के तांगे में नहीं जाएगा .....पैदल जाएगा । पन्द्रह मिनट का रास्ता और तांगे में एक धण्टा ......नहीं....। बेटे के मना करने पर बेटी ने भी जाने से इंकार कर दिया था . दोनों अलग-अलग पैदल जाने लगे थे । कमल की दो सवारियां कम हो गयीं थीं जिससे मुझे दुख हुआ था।
‘‘बाबू जी, बच्चे अब बड़े हो गए हैं .....।’’ मुस्कराकर कमल ने कहा था और जो कुछ नहीं कहा था उसने मुझे अंदर तक छील दिया था । उसकी बिगड़ती आर्थिक स्थिति के विषय में मैं प्रायः सोचता । कमल ने मेरे साथ जो सहयोग किया था उसे मैं कभी भुला नहीं पाया और न ही भुला पाउंगा।
गाहे-बगाहे स्कूल की ओर से निकलते हुए मैं कमल को तांगे में अधलेटा सोते या दूसरे तांगावालों से गपशप हांकते देखता । नजरें मिलतीं और दुआ-सलाम हो जाती । दो-तीन वर्षों तक उसकी मरियल घोड़ी मुझे दिखती रही थी, लेकिन 1997 के बाद कमल मुझे वहां नहीं दिखा । एक दिन उसके एक साथी से पूछा तो वह बोला , ‘‘उसकी घोड़ी मर गयी थी बाबू जी....दूसरी नहीं खरीद सका । गांव चला गया ।’’
गांव....उत्तर प्रदेश के सहारनपुर का कोई गांव........जिस मिट्टी में वह जन्मा था वहीं चला गया था । इस बेदिल दिल्ली में उसके लिए कुछ भी नहीं बचा था । एक दिन उसने बड़े गर्व से बताया था, ‘‘बाबू जी मेरे तांगे में स्कूल आने वाले कई बच्चे आज डाक्टर - इंजीनियर बन गए हैं और कुछ विदेश भी चले गए हैं ।’’
सोचता हूं कि आज मेरे बच्चों को देखकर वह अवश्य कहता, ‘‘अरे, ये वही बच्चे हैं जो मेरी गोद में चढ़कर स्कूल-क्रेच जाते थे ........ अब ये बड़ी कंपनियों में नौकरी करने लगे हैं । इत्ते बड़े थे ...... अब कित्ते बड़े हो गए......।’’ और शायद उसकी आंखे उसी प्रकार खुशी से चमक उठतीं जैसा उन बच्चों के बारे में बताते हुए चमक उठी थीं ।
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रविवार, 13 जून 2010

यादों की लकीरें



संस्मरण
अपने साहित्यकार को देर से पहचाना डॉ0 रत्नलाल शर्मा ने

रूपसिंह चन्देल


फरवरी की वह सुबह अधिक ठंडी न थी । हांलाकि दिल्ली में फरवरी के अंत तक ठंड अपनी जवानी में रहती है । वह सुबह पूरी तरह शांत और सुखद थी । यह 22 फरवरी, 1997 का दिन था । तय हुआ था कि हम दोनों में जो भी पहले जग जाएगा फोन करेगा । और यह बाजी मैंने जीती थी ।


''हलो'' कुछ देर तक फोन की घंटी बजने के बाद खनखनाती आवाज सुनाई दी, ''मैं तो साढ़े तीन बजे ही जग गया था। आपको फोन करने ही वाला था।''


''कितने बजे निकल रहे हैं ?''


''आप साढ़े पांच तैयार मिले। डॉक्टर कालरा को लेकर मैं निश्चित समय पर पहुंच जाउंगा।''


''आज्ञा का पालन करूंगा।''


तेज ठहाका, फिर सकुचाहट, ''मुझे इतनी जोर से नहीं हंसना चाहिए। पोता जग गया तो सौ प्रश्न करेगा।'' फुसफुसाहट, ''ठीक है डॉक्टर.... तो हम मिलते हैं।''


और डॉक्टर रत्नलाल शर्मा सवा पांच बजे मेरे यहां पहुंच गए। मुझे डॉ0 कालरा के पति ने पांच बजे फोन कर दिया था कि वे लोग पीतमपुरा छोड़ चुके हैं। उतनी सुबह दिल्ली की सड़कें प्राय: खाली रहती हैं। वाहन की गति स्वत: दोगुनी हो जाती है। डॉ0 कालरा के पति का फोन मिलते ही मैंने विष्णु प्रभाकर जी को फोन कर दिया था कि हम लोग पौने छ: बजे तक उनके यहां पहुंच जाएगें। यह एक सुखद संयोग था कि उस दिन हम चारों ... विष्णु प्रभाकर, डॉ0 रत्नलाल शर्मा, डॉ0 शकुतंला कालरा और मैं .... लखनऊ-नई दिल्ली शताब्दी एक्सप्रेस से कानपुर जा रहे थे। अवसर था ''बाल कल्याण संस्थान'' द्वारा आयोजित वार्षिक समारोह जिसके लिए हमें डॉ0 राष्ट्रबंधु ने बहुत ही आदरपूर्वक आमंत्रित किया था ।


डॉ0 कालरा को संस्थान उस वर्ष अन्य बाल-साहित्यकारों के साथ सम्मानित कर रहा था, जबकि हम तीनों को अलग-अलग सत्रों के अध्यक्ष-विशिष्ट अतिथि के रूप में आमंत्रित किया गया था। मेरे लिए यह सम्माननीय बात थी, क्योंकि जिस आयोजन के एक सत्र की अध्यक्षता विष्णुप्रभाकर जैसे वरिष्ठतम साहित्यकार कर रहे थे और दूसरे की मेरे अग्रजतुल्य मित्र डॉ0 रत्नलाल शर्मा, वहां 'विचार सत्र' के विशिष्ट अतिथि के रूप में मुझे बुलाकर डॉ0 राष्ट्रबंधु ने अपने बड़प्पन का परिचय देते हए मुझे जो सम्मान दिया मैं शायद उसके सर्वथा योग्य नहीं था, क्योंकि हिन्दी में अनेक ऐसे विद्वान साहित्यकार हैं जिनके सामने मेरी बाल-साहित्य की रचनात्मकता पासंग है। खैर, डॉ0 राष्ट्रबंधु ने विष्णु जी को ले आने के लिए मुझे तो कहा ही था डॉ0 शर्मा को भी कह दिया था। डॉ0 शर्मा अति-उत्साही व्यक्ति थे और नौकरी से अवकाश ग्रहण करने के पश्चात वह बाल-साहित्य को लेकर कुछ अतिरिक्त ही उत्साह में रहने लगे थे। उनका यह उत्साह श्रीमती रतन शर्मा,उनकी पत्नी, की मृत्यु के पश्चात कई गुना बढ़ गया था और उसी का परिणाम था कि उन्होंने बाल-साहित्य के लिए कुछ करने के ध्येय से पत्नी के नाम एक ट्रस्ट बनाया और प्रति वर्ष एक पुरस्कार देने लगे। उनके मस्तिष्क में बाल-साहित्य के महत्व और विकास को लेकर अनेक योजनाएं रहतीं और वह कुछ न कुछ करते भी रहते। हालांकि उन्होंने जो ट्रस्ट बनाया था उसमें ऐसे लोगों को रखा जो बाल-साहित्य का 'क' 'ख' 'ग' भी नहीं जानते थे और इस विषय में मेरी अनेक बार उनसे चर्चा भी हुई, लेकिन उन गैर बाल-साहित्यकारों को लेकर उनके पास तर्क थे और उन तर्कों में दम भी था। एक दमदार तर्क तो यही था कि यदि एक भी बाल-साहित्यकार उन्होंने ट्रस्ट में रखा तो 'न्यास' साहित्यिक राजनीति से अछूता न रहेगा। किसी हद तक उनकी बात सही थी।


'श्रीमती रतन शर्मा स्मृति न्यास' की स्थापना के पश्चात वह बाल-साहित्य के देशव्यापी आयोजनों में शिरकत करने लगे थे और जब भी मिलते उन आयोजनों के संस्मरण मुग्धभाव से सुनाते। आयोजानों में सम्मिलित होते रहने से डॉ0 शर्मा और डॉ0 राष्ट्रबंधु प्राय: एक दूसरे से मिलते रहते और उसी आधार पर डॉ0 शर्मा ने उन्हें आश्वस्त कर दिया कि वह सभी को लेकर कानपुर पहुंचेगें। आनन-फानन में उन्होंने विष्णु जी और डॉ0 कालरा के आरक्षण करवा डाले। मेरा जाना किन्हीं कारणों से टल रहा था, लेकिन एक दिन दिल्ली विश्वविद्यालय पुस्तकालय की छत पर चाय की चुस्कियों के साथ आदेशात्मक स्वर में वह बोले, ''डॉक्टर, कोई बहाना नहीं मानूंगा। शनिवार - रविवार को कार्यक्रम है .... आपको चलना है।''


और मुझे आरक्षण करवाना पड़ा था। इसी कारण हम अलग-अलग कोचों में थे। फिर भी बीच-बीच में मैं तीनों के पास आ खड़ा होता। डॉ0 कालरा विष्णु जी के साथ की सीट में थीं और उस अवसर का लाभ उठाने के विचार से वह लगातार विष्णु जी से साक्षात्कारात्मक बातचीत में संलग्न थीं। ऐसे समय मैं और डॉ0 शर्मा बाथरूम के पास खड़े होकर बाल-साहित्य पर चर्चा करते रहे थे।


सिगरेट फूंकते बात करना डॉ0 शर्मा की आदत थी। जब भी कभी गंभीर चर्चा छिड़ती वह सिगरेट सुलगा लेते। लेकिन अनुशासन-प्रियता इतनी अधिक थी उनमें कि किसी भी सार्वजनिक स्थान में सिगरेट नहीं पीते थे। उनसे जब मेरा परिचय हुआ तब वह जीवन-विहार में 'समाज कल्याण विभाग' में कार्यरत थे और वहीं से उप-निदेशक के रूप में अवकाश ग्रहण किया था। अक्टूबर 1980 में मैं गाजियाबाद से शक्तिनगर में आ बसा था। उन दिनों केन्द्रीय सचिवालय के लिए शक्तिनगर से 240 नं0 रूट की बसें प्रत्येक दस मिनट में चलती थीं। मेरा कार्यालय उन दिनों रामकृष्णपुरम में था। मैं 240 से केन्द्रीय सचिवालय पहुंचकर वहां से रामकृष्णपुरम की बस लेता। डॉ0 शर्मा शक्तिनगर के पश्चिमी छोर में और मैं पूर्वी छोर में रहता था। वह भी उसी बस से जाते और पटेल चौक उतरते। कई वर्षों हमारा यह सिलसिला चला था। बाद में वह दूसरी बस से जाने लगे थे।


उन दिनों शनिवार को कॉफी हाउस (कनॉट प्लेस) में साहित्यकारों का जमघट होता था। नियम से जाने वालों में विष्णु प्रभाकर, रमाकांत, डॉ0 रत्नलाल शर्मा, डॉ0 हरदयाल, डॉ0 राजकुमार सैनी आदि थे। मैं भी कभी-कभार पहुंच जाता। तब कॉफी हाउस का माहौल खराब नहीं था। परनिन्दा तब भी होती, लेकिन साहित्य पर चर्चा भी होती और उसी माध्यम से एक दूसरे की खिंचाई भी होती। विष्णु जी निन्दा-प्रशंसा से विमुख मंद-मंद मुस्कराते हर स्थिति का आनंद लेते रहते। यदि वे बहस में शामिल भी होते तो बोलते धीमे ही थे, लेकिन शर्मा बहस को प्राय: उत्तेजक बना देते और जब उनके मित्र उन पर हावी होने लगते, वह अनियंन्त्रित हो जाते। लेकिन इसका आभिप्राय यह नहीं कि नौबत हाथापाई तक पहुंचती थी । डॉ0 शर्मा की यह खूबी थी कि उत्तेजित वह कितना ही क्यों न होते हों लेकिन किसी के विरुध्द अपशब्द का प्रयोग करते मैंने उन्हें कभी नहीं सुना। जब कि उनके अति अंतरंग मित्रों को कई बार उनके खिलाफ अपशब्द प्रयोग करते (पीठ पीछे) मैंने सुना था । डॉ0 शर्मा आपा तो खोते, क्योंकि वह अपनी बात पर अडिग रहते और प्राय: सही वही होते । लेकिन वह यह समझ नहीं पाते कि उनके मित्र उन्हें उत्तेजित करने के लिए ही ऐसा विनोद कर रहे थे। बाद में माहौल शांत होता और सभी फिर मीठी बातों में खो जात।


बहुत बाद में (वर्ष याद नहीं...संभवत: 1990 के आसपास) किसी शनिवार को शायद किसी मित्र ने उनके विरुध्द कोई ऐसी टिप्पणी कर दी, जिससे उन्हें गहरा आघात लगा था। उन्होंने कभी-भी कॉफी हाउस न जाने का संकल्प किया और मृत्यु पर्यन्त उसका निर्वाह किया।


अवकाश ग्रहण कने के बाद वह प्रतिदिन दिल्ली विश्वविद्यालय के केन्द्रीय पुस्तकालय के 'रिसर्च फ्लोर' के एक कमरे में बैठने लगे थे। निश्चित कमरा और निश्चित सीट थी उनकी। वहां वह पहले भी (जब नौकरी में थे ) शनिवार - रविवार को जाते थे, लेकिन अवकाश ग्रहण के बाद वह वहां तभी अनुपस्थित रहे जब या तो अस्वस्थ रहे या शहर से बाहर या किसी अन्य आवश्यक कार्य में व्यस्त।


'रिसर्च फ्लोर' उनके कारण आबाद रहने लगा था। वहां के प्रत्येक शोधार्थी के वह आदरणीय -प्रिय थे और उम्र की सीमाओं को ताक पर रखकर कॉलेज से निकले युवा से लेकर हम उम्र लोगों से वह स्वयं 'हैलो' करके 'विश' करते और चाय के लिए आमंत्रित करते। मुझ जैसे व्यक्ति, जो स्वयं व्यवहार में उदारता का समर्थक है, को भी वह सब अटपटा लगता कि उम्रदराज डॉ0 शर्मा अपने से चालीस-बयालीस वर्ष छोटे बालक-बालिका से न केवल स्वयं विश कर रहे हैं बल्कि साग्रह चाय के लिए बुला रहे हैं। हालांकि मैं स्वयं इसी आदत का शिकार हूं और गवंई -गांव का होने के कारण आयु की सीमारेखा खींचकर चलना आता नहीं। एक - दो बार मैंने डॉ0 शर्मा को इस विषय में उनकी उम्र का वास्ता देते हुए टोका भी। उनका छोटा-सा उत्तर होता, ''आप नहीं समझेंगे डॉक्टर।''


वास्तव में मैं नहीं समझ सका। वह भी अपने स्वभाव को बदल नहीं सके। एक विशेषता और भी देखी उनमें। वह हर जरूरतमंद की मदद के लिए तत्पर रहते थे। बेहतर सलाह देने का प्रयत्न करते। अनेक उदाहरण हैं जब वह किसी न किसी शोधार्थी के काम से दौड़ रहे होते थे। कई शोधार्थियों को उनसे अपने शोध से संबन्धित चर्चा करते या अपना शोध कार्य दिखाते मैंने देखा। वास्तविकता यह होती कि छात्र-छात्रा उनके किसी मित्र प्राध्यापक के अधीन शोधरत होता और डॉ0 शर्मा मित्रता का निर्वाह करते उसका कार्य देखते/गाइड करते।


प्राय: विश्वविद्यालय पुस्तकालय में बाहरी व्यक्ति को एक निश्चित अवधि तक ही बैठने की अनुमति होती है, लेकिन हिन्दी विभाग से लेकर पुस्तकालय तक डॉ0 शर्मा के अनेक मित्र (कुछ उनके सहपाठी थे) थे। डॉ0 शर्मा ने भी कभी स्वप्न देखा था कि वह प्राध्यापक बनेंगे। पी-एच.डी. भी इसी कारण उन्होंने की थी, लेकिन जैसा कि होता है प्राध्यापक बनने के लिए जो गुण व्यक्ति में होने चाहिए वे डॉ0 शर्मा में नहीं थे। डॉ0 शर्मा प्राध्यापक नहीं बन पाए, लेकिन वह उस टीस को शायद कभी भूल भी नहीं पाए। अंदर छुपा वह स्वप्न ही रहा होगा कि कभी उनके अधीन भी शोधार्थी हुआ करेंगे। शायद शोधार्थियों की सहायता कर वह उस स्वप्न को ही पूरा कर रहे थे।


एक अच्छे इंसान होते हुए भी डॉ0 शर्मा में दो कमजारियां भी थीं। जब तब उनका लेखकीय स्वाभिमान जागृत हो जाता और वह सभा-गोष्ठियों का बहिष्कार कर दिया करते। डॉ0 विनय, डॉ0 महीप सिंह, डॉ0 रामदरस मिश्र, डॉ0 नरेन्द्र मोहन और डॉ0 हरदयाल उनके गहरे मित्रों में से थे। डॉ0 शर्मा प्राय: डॉ0 विनय के घर जाते। एक बार डॉ0 विनय ने अपने घर स्व0 डॉ0 सुखबीर के कविता संग्रह पर अपनी संस्था 'दीर्घा' (दीर्घा नाम की पत्रिका भी वह निकालते थे) की ओर से विचार गोष्ठी का आयोजन किया। अध्यक्ष थे डॉ0 रामदरस मिश्र। डॉ0 शर्मा ने आलेख लिखा था। आलेख पढ़ते समय डॉ0 शर्मा को टोका-टाकी बर्दाश्त न थी । उस दिन भी कुछ ऐसा ही हुआ। उन्होंने सभी को घूरकर देखा और अपना शाश्वत तकियाकलाम, '' इट्स एनफ'' कह वह उठ गए। सभी भौंचक। आलेख तो शुरू ही हुआ था। डॉ0 विनय ने टोका, ''क्या हुआ पंडित ?''


''मैं जा रहा हूं ।''


गर्मी के दिन थे। गोष्ठी छत पर हो रही थी। डॉ0 विनय ने रोका ... मिन्नते कीं। डॉ0 रामदरस मिश्र ने समझाने का प्रयास किया, लेकिन पंडित जी का मूड उखड़ा तो फिर जमा नहीं। वह जूते पहन सीढ़ियां उतर गए थे।


डनके व्यक्तित्व का दूसरा कमजोर पक्ष था उनकी कार्य-शैली। एक अच्छे समीक्षक -आलोचक की प्रतिभा थी उनमें, लेकिन वह उसका सही उपयोग नहीं कर सके। स्नेहिल होते हुए भी स्वभाव की अक्खड़ता ने उन्हें रचनाकारों से दूर रखा तो कर्यशैली भी बाधक बनी। कुछ भी व्यवस्थित नहीं कर पाते थे। समय का खयाल नहीं रखते थे। आवश्यक और महत्वपूर्ण को छोड़ अनावश्यक कामों-बातों और लोगों में उलझे रहे। एक बार उन्होंने बताया था कि उन्होंने लगभग एक हजार पुस्तकों की समीक्षाएं लिखी थीं।


उनकी कार्यशैली से संबन्धित स्वानुभूत एक उदाहरण देना चाहता हूं। किताबघर, नई दिल्ली से मेरे द्वारा सम्पादित लघुकथा संकलन प्रकाश्य था। यह कार्य मैंने 1985 में पूरा कर लिया था, लेकिन उस वर्ष उसका प्रकाशन नहीं हो पाया। उन्हीं दिनों डॉ0 शर्मा से इस विषय में चर्चा हुई । उन्होंने पूछा, '' उसकी भूमिका आपने लिखी है ?'' ''जी ।'' ''अरे डॉक्टर, आपने पहले क्यों नहीं बताया.... आजकल मैं लघुकथाओं पर विशेष कार्य कर रहा हूं। उसकी बहुत अच्छी भूमिका लिखता।''


'' अभी क्या बिगड़ गया है । आप लिख दें । आपकी भी प्रकाशित हो जाएगी ।''


''आप सत्यव्रत शर्मा (प्रकाशक) को कह दीजिए .... मेरी भूमिका मिलने के बाद ही वह पुस्तक को प्रेस में देंगे।''


मैंने श्री सत्यव्रत शर्मा को यह कह दिया । फिर प्रारंभ हुआ उनकी भूमिका का इंतजार। पाण्डुलिपि की एक प्रति प्रकाशक के पास और दूसरी डॉ0 रत्नलाल शर्मा के पास और शर्मा जी के वायदे दर वायदे होने लगे। ....बस इसी सप्ताह .....पन्द्रह दिन बाद....। इसी बीच उन्होंने शक्तिनगर से प्रशांत विहार शिफ्ट कर लिया। प्रकाशक को भी शर्मा जी की भूमिका न मिलने का बहाना मिल गया। 'प्रकारांतर' (लघुकथा संकलन) का प्रकाशन स्थगित होता रहा। अंतत: बहुत जोर देने पर डॉ0 शर्मा बोले, ''शिफ्ट करते समय पांडुलिपि बांधकर कहीं रख दी गई। मिल नहीं रही । रविवार को घर आ जाओ.....मिलकर खोजते हैं। मैं गया। बराम्दे में बने दोछत्ती में बोरियों में बंद पुस्तकों के साथ पांडुलिपि को हमलोगों ने खोज लिया। उसके पन्द्रह दिनों के अंदर उन्होंने छोटी-सी भूमिका लिख दी थी। उसे लिखने में उन्होंने तीन वर्षों का समय लिया था। पुस्तक 1990 में प्रकाशित हुई थी।


रत्नलाल शर्मा के साथ एक और कमजारी थी ... वह एक विधा से दूसरी की ओर दौड़ते रहे थे। कहानी, ललित निबंध, व्यंग्य, रेखाचित्र, समीक्षा, बाल-साहित्य..... आभिप्राय यह कि यदि वह अपने को एक-दो विधाओं में साध लेते तो शायद स्थिति खराब न होती। लेखक को स्वयं अपने को पहचानना होता है .... वह क्या लिख सकता है। जीवन भर इधर-उधर भागने के बाद अवकाश ग्रहण करने के पश्चात शायद उन्हें वास्तविकता का ज्ञान हुआ और उन्होंने अपने को 'बाल साहित्य' में केन्द्रित करना प्रारंभ किया। यदि वह कुछ वर्ष और जीवित रह जाते तो तन-मन-धन से बाल साहितय के लिए समर्पित हो जाने वाले व्यक्ति के रूप में अपनी अलग पहचान बना लेते।


24 फरवरी, 1997 को जब हम लोग कानपुर से शताब्दी एक्सप्रेस से लौट रहे थे तब मुझे डॉ0 शर्मा के बालमन का परिचय भी मिला । और लगा कि उन्होंने व्यर्थ ही विभिन्न विधाओं में अपना श्रम जाया किया, उन्हें बाल साहित्यकार ही होना चाहिए था। मन को संतोष हुआ कि विलंब से ही सही उन्होंने आखिर अपने साहित्यकार को पहचान लिया है ..... बाल-साहित्य के लिए यह शुभ होगा । लेकिन प्रकृति को यह स्वीकार न था। उनकी असमय मृत्यु ने एक स्नेहिल व्यक्ति हमसे छीन लिया।


मैं प्राय: हफ्ते-दो हफ्ते में डॉ0 शर्मा से मिलने विश्वविद्यालय पुस्तकालय जाता था, लेकिन उनकी मृत्यु के पश्चात लंबे समय तक नहीं गया । बहुत बाद में अपने मित्र प्रखर दलित आलोचक और 'अपेक्षा' त्रैमासिक पत्रिका के सम्पादक डॉ0 तेज सिंह से मिलने वहां जाने लगा , जो विश्वविद्यालय में हिन्दी विभाग में रीडर हैं। डॉ0 तेज सिंह से डॉ0 शर्मा ने ही परिचय करवाया था। वहां की सीढ़ियां चढ़ते हुए डॉ0 शर्मा की याद आती। मन करता कि उस कमरे में झांकर देखूं जहां वह बैठते थे। शायद वह बैठे काम कर रहे हों और मुझे देखते ही बोलें, '' हैलो डॉक्टर'' ,लेकिन यह सच नहीं था । सच डॉ0 शर्मा के साथ जा चुका था ।


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रविवार, 6 जून 2010

यादों की लकीरें



संस्मरण

सपनों में पिता

रूपसिंह चन्देल

पिछले दिनों पिता एक बार फिर आए । इस बार वह वर्षों बाद ......शायद छ:-सात वर्ष बाद । हर बार की भांति वह मेरे साथ बैठे , बातें की, कुछ समझाया , साथ लेकर कहीं गए .... एक अपरिचित स्थान , जिसे मैंने पहले कभी नहीं देखा था । एक समय था जब वह महीना-दो महीना में आते , कुछ देर ही ठहरते , कुछ कहते.... जो मुझे कभी याद नहीं रहता था । वह जब भी आते उनकी वेश-भूषा निपट गंवई होती....अर्थात् मोटे सूत की कानपुर के किसी मिल की बनी लुंगी और बण्डी । कलकत्ता से रेलवे की नौकरी से सेवानिवृत्त होने के पश्चात् उन्होंने बेहद साधारण कपड़े अपना लिए थे.......किसानों वाले । लुंगी, पुरुषों की धोती का आधा, सफेद-बदरंग होती । लेकिन इस बार वह गांव की अपनी प्रिय वेशभूषा में नहीं , कलकत्ता की प्रिय वेशभूषा....मंहगी सफेद बुर्राक धोती और सफेद लक-दक कुर्ता में थे । हाथ में भद्र बंगालियों की पहचान वाला छाता , पैरों में अच्छी चप्पलें और चेहरे पर खिली मुस्कान ।


पहले वह जब आते जाने से पहले भोजन की मांग करते ... अपनी पसंद लौकी या तोराई की सब्जी और चपाती । मैं जब भोजन की व्यवस्था में व्यस्त होता , वह कब खिसक जाते पता नहीं चलता । उनकी यही बात मुझे बाद में याद रहती .... शेष सब भूल जाता । घर वाले दुखी होते कि पिता उनके सपनों में क्यों नहीं आते !


पिता जी की मृत्यु (20 सितम्बर,1970) के इक्कीस वर्ष पांच दिन (25 सितम्बर,1991) बाद मां की मृत्यु हुई और उन्हें अफसोस था कि इस पूरी अवधि में वह दो बार ही उनके सपनों में आए थे । और किसी के सपने में वह शायद ही कभी आए । मेरे सपनों में आने के लिए सभी के पास अपने तर्क थे । कुछ के अनुसार उनकी बीमारी में सबसे अधिक सेवा मैंने की थी , और उनकी मृत्यु के समय मैं उनके निकट नहीं था । शायद अंतिम क्षण उनकी आंखें मुझे खोजती रही होगीं ....इसलिए और भोजन मांगने के लिए उन लोगों के तर्क रहे कि जब मैं उनकी मृत्यु से एक दिन पहले इण्टरमीडिएट का प्राइवेट फार्म भरने कानपुर जा रहा था तब उन्होंने अपने लिए लौकी मंगा देने की मांग की थी, जिसे अनुसुना कर मैं चला गया था ..... ।


पिता जी के उन स्वप्नों से मुक्ति के लिए लोग सुझाव देते कि मैं सुबह किसी भिखारी को भोजन करवाऊं या किसी ब्राम्हण को अन्न दान दूं या मंदिर में कुछ दे आऊं । भिखारी को कुछ देना समझ आता, लेकिन मुझ जैसा नास्तिक शेष सलाहों पर मुस्करा देता । अपने हितैषियों के विश्लेषण से अलग मेरा विश्लेषण था और वह चार-छ: बार के अनुभव के बाद तय हुआ था ।


पिता जी जब भी सपने में आते..... कुछ दिनों के अंदर मैं किसी न किसी परेशानी का सामना कर रहा होता । वह परेशानी शारीरिक होती , आर्थिक या किसी भी प्रकार की..... और कुछ अवसरों के बाद मैं इस निष्कर्ष पर पहले ही पहुंच लेता कि जिस किसी महत्वपूर्ण कार्य के लिए मैं प्रयत्नशील था उसमें असफलता मिलने वाली थी या स्वयं अथवा परिवार का कोई व्यक्ति बीमार होने वाला था । अंतत: होता भी यही । मेरा निष्कर्ष था कि सपने में पिता का आना इस बात का पूर्वाभास देना था कि कोई न कोई संकट आसन्न है ।


जिन्दगीभर संघर्षरत रहने वाले पिता शायद मृत्योपरांत भी संघर्षों में मेरे साथ थे । सपनों में आकर शायद वह मुझे आगाह करते थे । लेकिन यह भी सही है कि समस्या या संकट कितना ही गहन क्यों न रहा हो मैं हर बार उससे उबरता रहा हूं । तो क्या वह आगाह कर मेरी रक्षा करते रहे । स्वप्न विश्लेषक होता तो यह जानने का प्रयत्न करता । एक समय आया कि उनके स्वप्न में आने के बाद सुबह ही मैं यह घोषणा कर देता कि कोई संकट संभावित है ।


लेकिन इस बार.... इतने वर्षों बाद, बिल्कुल अलग वेश-भूषा ... लकदक कपड़ों में पिता का आना मुझे अच्छा लगा । सपना मैं भूल गया ... याद रहा केवल उनका वह परिधान जिसमें कलकत्ता में या छुट्टियों में गांव आने में उन्हें देखता था । सुबह मन आशंकित हुआ कि क्या घटित होने वाला है .... उनका आना किस बात की ओर संकेत है ! सोचता रहा और सोचता रहा पिता के बीहड़ जीवन के बारे में जो उनसे , चाचा (काका) और मां से जाना था ।


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पिता का प्रारंभिक और अंतिम जीवन अत्यंत संघर्षमय रहा ।


मेरे पितामह कानपुर के रावतपुर (मसवानपुर) के रहनेवाले थे, जो जी0टी0 रोड पर अवस्थित है और अब शहर के मध्य में है । पितामह नवाबगंज थाने में सिपाही थे । वे लंबे और हृष्ट-पुष्ट शरीर के धनी..... शायद छ: फुट से अधिक लंबे और उनके पैर इतने बड़े कि मोची विशेष आदेश पर उनके लिए जूते तैयार करता था । इतने लंबे डील-डौल वाले पिता की संतान मेरे पिता कुल पांच फुट तीन इंच लंबे थे, लेकिन बलिष्ठ थे । शायद मेरी दादी छोटे कद की थीं । दादी की मृत्यु पिता जी के जन्म के ढाई वर्ष बाद हो गयी थी । दादा जी ने दूसरी शादी की । सौतेली दादी कद-काठी में ठीक-ठाक थीं । उनसे जन्में मेरे चाचा की लंबाई भी दादा जैसी थी ।


दादा ने नवाबगंज थाने के पास अपना बड़ा-सा मकान बनवा लिया था । यह उन दिनों की बात रही होगी जब कानपुर का विस्तार हो रहा था । एक समय कानपुर की बसावट नवाबगंज के आस-पास थी , जिसे आज भी पुराना कानपुर कहा जाता हैं । 1857 की क्रांति के बाद जो नया कानपुर बसा वह परेड के इर्द-गिर्द था। आज जहां आर्डनैंस इक्विपमेण्ट फैक्ट्री है , वहां 1857 में अंग्रेजों का किला था ....कच्ची-पक्की ईटों से निर्मित । इससे कुछ दूर ही है परेड..... जो उन दिनों सैनिकों का परेड ग्राउण्ड हुआ करता था । 1857 की कानपुर का निर्णायक युध्द इसी परेड ग्राउण्ड और किले मध्य हुआ था।


नवाबगंज कब बसा ज्ञात नहीं , लेकिन कानपुर का इतिहास 1338 के आसपास से मिलता है । इसे इलाहाबाद के तत्कालीन चन्देल वंशीय राजा कान्हदेव ने बसवाया था । अपने लाव-लश्कर के साथ कन्नोज जाते हुए वह गंगा के किनारे जिस स्थान पर ठहरे थे वह आज के नवाबगंज के पास था । तब वहां निपट जंगल था , लेकिन कान्हदेव को वहां की रमणीकता भा गयी थी । उन्होंने संचेडी (आज कानपुर के पास एक कस्बा) के तत्कालीन राजा को उस स्थान पर एक गांव बसाने के लिए कहा था । जो गांव बसा वह कान्हदेव के नाम पर कान्हपुर कहलाया , जिसका स्वामित्व एक ब्राम्हण को प्राप्त था । उस गांव के स्वामित्व के लिए उसी ब्राम्हण परिवार का मुकदमा मोतीलाल नेहरू और कैलाशनाथ काटजू द्वारा इलाहाबाद हाईकोर्ट में लड़ा गया था ('कानपुर का इतिहास' - ले0. नारायण प्रसाद अरोड़ा )। कालान्तर में वही कान्हपुर आज का कानपुर बना ।


नवाबगंज में मकान बनाने के बाद दादा का कितना रिश्ता अपने गांव रावतपुर से रहा था यह जानकारी नहीं । नवाबगंज से रावतपुर की दूरी कुछ ही किलोमीटर है ।


पिता जब तेरह वर्ष के थे दादा की मृत्यु हो गयी थी । सौतेली दादी मेरे चाचा को लेकर अपने मायके चली गयीं और पिता अपनी एक मात्र बहन के यहां चले गये , जो उनसे कई वर्ष बड़ी और पनकी के पास एक छोटे-से गांव देसामऊ में ब्याही थीं । पिता पढ़-लिख नहीं पाए लेकिन उनकी अपनी स्वतंत्र सोच थी । कुछ दिन बहनोई के साथ उनके खेतों में काम कया, लेकिन बात नहीं बनी । उन दिनों इंच-इंच जमीन की मारा-मारी नहीं थी । गांव के इर्द-गिर्द जंगल फैला हुआ था । बहन से पैसे लेकर पिता जी ने एक जोड़ी भेैसे खरीदे और लगभग दस बीघा जमीन खेती योग्य तैयार की । दो वर्ष खेती की, लेकिन काम-काज में बहनोई का दखल बर्दाश्त नहीं हुआ । हल , भैसे बहन के दरवाजे छोड़ आगरा भाग गए । उन दिनों प्रथम विश्वयुध्द चल रहा था । सेना में भर्ती हो रही थी । तब पिता जी की आयु मात्र सोलह वर्ष थी ।


पिता भर्ती के लिए गए और उनका चयन नहीं हुआ । कारण थी उनकी आयु । अठारह वर्ष से कम के युवक को भर्ती नहीं किया जा रहा था । चयन बोर्ड में अंग्र्रेज अफसरों के अलावा एक कुशवाहा साहब भी थे । पिता जी निराश भर्ती कार्यालय के बाहर घूम रहे थे । बाहर निकलने पर कुशवाहा जी ने उन्हें देखा और उन्हें पास बुलाया । पूरी जानकारी के बाद बोले , ''मेरे साथ आओ ।''


पिता उनके पीछे हो लिए । कुछ देर चलने के बाद वह एक लंबे-चौड़े मकान में पहुंचे । वह कुशवाहा साहब का अपना घर था । पिता जी को भोजन करवाने के बाद कुशवाहा साहब बोले , ''घर के पड़ोस में मेरा एक हाता हेै । अभी दिखा दूंगा । छ: भैंसे हैं । छ: महीने तक तुम उस हाते में रहोगे ..... केवल दिसा -मैदान के लिए बाहर जाओगे । एक भैंस तुम्हारे नाम ..... उसका दूध केवल तुम इस्तेमाल करोगे .... दण्ड-बैठक....व्यायाम ...कुश्ती .....केवल अपने शरीर पर ध्यान दोगे....दूसरा कोई काम नहीं । भेैेंसों की देखभाल के लिए आदमी है । तुम्हारे खान-पान की चिन्ता मेरी । छ: महीने बाद फिर भर्ती का प्रयास करना.....तब तुम्हें निराश नहीं होना पड़ेगा ।''


कुशवाहा साहब ने घी, काजू , पिश्ता , बादाम....अर्थात् सभी प्रकार की पौष्टिक चीजें पिता जी के लिए उपलब्ध करवाई थीं।


मुझे सुनकर आश्चर्य हुआ था कि क्या ऐसे लोग भी थे जो एक अपरिचित युवक के लिए इतना करते थे । सौ वर्षों में हम कहां से कहां पहुंच गए !


पिता जी ने कुशवाहा साहब की आज्ञा का पालन किया । छ: महीने में ही उनका शरीर खिल उठा था । दूसरी बार भी चयन बोर्ड में कुशवाहा साहब थे । उन्होंने पहले ही बता दिया था कि पिता जी अपनी उम्र उन्नीस वर्ष बताएगें । कुछ अन्य बातें भी उन्होंने बतायी थीं। इस बार पिता जी सेलेक्ट हुए और कुछ दिनों के प्रशिक्षण के बाद इटली भेज दिए गए ।


वहां से विश्वयुध्द समाप्ति के बाद वह लौटे थे ।


भारत लौटते ही सेना की नौकरी छोड़ पुन: खेती की ओर रुख किया था । फिर भैसे खरीदे और (उन्हें इस बात की आशंका थी कि बैलों की खेती उनके लिए फलीभूत नहीं होगी) खेती में लग गए । लेकिन कुछ दिनों बाद ही बहनोई की दखलंदाजी से परेशान होकर मुम्बई भाग गए । वहां किसी मारवाड़ी के यहां काम किया । स्पष्ट है कि कोई छोटा काम ही रहा होगा..... घरेलू नौकर जैसा । एक दिन उस मारवाड़ी के घर के आंगन में नाली के पास उन्होंने लगभग एक सेर सोना पड़ा देखा । उन्होंने उसे उठाकर मारवाड़ी को दे दिया । उनकी ईमानदारी से मारवाड़ी ने उन्हें बख्शीश देना चाहा, लेकिन उन्होंने उसे लेने से इंकार कर दिया और नौकरी छोड़ दी। उन्हें मारवाड़ी के पेशे पर संदेह हो गया था ।


पुन: एक बार कानपुर वापसी । फिर गांव.....फिर चख-चख और पुन: प्रस्थान ।

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इस बार पिता जी जा पहुंचे कलकत्ता । आज जिस प्रकार बिहार-उत्तर प्रदेश के लोग दिल्ली दौड़ रहे हैं ... उन दिनों कलकत्ता उनका शरणस्थल था । कई दिनों तक इधर-उधर भटकने के बाद जीने का जुगाड़ सोचा । भद्र बंगाली समाज सुबह नीम की दातून आज भी पसंद करता है .... उन दिनों पसंद करने वालों की संख्या बहुत अधिक थी । उन दिनों जीविका का यह एक अच्छा साधन था और आज की भांति नीम के पेड़ों का संरक्षण भी न था । पिता ने लंबे समय तक सड़क किनारे सुबह-सुबह दातून बेचकर जीविका चलायी । कुछ समय बाद किसी परिचित के माध्यम से पश्चिम बंगाल पुलिस में भर्ती हो गए । दो वर्ष नौकरी की । एक बार वह और उनका साथी सिपाही एक चोर को ट्रेन से आसनसोल ले जा रहे थे । चोर को हथकड़ी लगी हुई थी और एक ने उसकी जंजीर पकड़ रखी थी । रात गहराई तो दोनों साथी खिड़की के रास्ते आ रही शीतल बयार में झपकी लेने लगे । एक जगह ट्रेन धीमी हुई और चोर ने आहिस्ते से जंजीर छुड़ाई और अंधेरे में कूद गया । साथ के यात्री ने इन्हें जगाया । जंजीर खींचकर ट्रेन रोकी । दोनों टार्च की रोशनी में जंगल छानते रहे , अपनी झपकी को कोसते रहे और स्वयं जेल के सीखचों के पीछे जाने की कल्पना करते रहे ।


सुबह दोनों एक गांव के बीच से निकले । भाग्य ने साथ दिया । एक लोहार की दुकान पर नजर पड़ी और दोनों चौंके । चोर लोहार से अपनी हथकड़ी कटवा रहा था । बाज की तेजी से झपठकर दोनों ने चोर को जा पकड़ा था ।


आसनसोल से कलकत्ता लौट पिता ने पुलिस की नौकरी भी छोड़ दी थी ।


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एक बार फिर गांव । फिर वही स्थितियां और पुन: कलकत्ता वापसी । पुराने साथियों के सहयोग से वह रेलवे में खलासी नियुक्त हो गए । इस बार मन जमाने का प्रयत्न किया और वर्षों तक देसामऊ नहीं गए । बहनोई की मृत्यु का समाचार मिलने पर कुछ दिनों के लिए गए और अपने खेत जवान भांजे को सौंप वापस लोट गए ।


पिता जी अथक परिश्रमी , बेहद सीधे, सरल, कोमल हृदय और ईमानदार व्यक्ति थे । सुबह चार बजे उठ जाते । कई मील चलकर कालीबाड़ी जाते .... काली दर्शन के लिए, लौटते, चाय पीते और साढ़े छ: बजे लोको वर्कशॉप (हावड़ा) के लिए निकल जाते । शाम छ: बजे के लगभग लौटते । मेरे बचपन के कितने दिन हावड़ा में बीते, यह याद नहीं लेकिन बावनगाछी की याद है मुझे । बहुत खूबसूरत फ्लैट्स थे वे ....तीन मंजिला । मेरा परिवार पहली मंजिल में रहता था । आमने -सामने फ्लैट्स के बीच लगभग सौ फुट चौड़ी जगह थी । रेलवे के वे फ्लैट्स चारदीवारी से घिरे हुए थे । केवल एक ओर... पूर्व का रास्ता खुला हुआ था, जिधर सड़क गुजरती थी और जिसे पारकर मैं पिता जी को प्रतिदिन शाम वर्कशॉप से लौटते देखता था। दक्षिण दिशा की दीवार का कुछ भाग तोड़कर लोगों ने रास्ता बना लिया था जो एक मैदान में निकलता था , जहां से होकर लोग सीधे बाजार जाते थे । कभी -कभी हम बच्चे उस मैदान में खेलने निकल जाते थे ।


अपने श्रम और लगन के बल पर पिता जी खलासी से सीढ़ियां चढ़ते हुए फिटर तक पहुंच चुके थे। मेरे जन्म से पहले ही वह फिटर बन चुके थे । कॉलोनी में उनका अच्छा रुतबा और सम्मान था । उस कॉलोनी के कुछ फ्लैट्स अफसरों को अलॉट थे और मैं देखता कि सहयोगियों के बीच ही नहीं बंगाली अफसरों के बीच भी पिता जी 'बाबू जी' के रूप में जाने जाते थे । मां-पिता दोनों ही निरक्षर थे लेकिन वे अपने बच्चों को पढ़ा-लिखा देखना चाहते थे । उनकी इस लालसा का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि जब भाई साहब पाचवीं में थे पिता जी ने उन्हें नेहरू जी की जीवनी खरीदकर भेंट की थी ।


बड़े भाई ने जैसे ही गांव से पाचवीं उत्तीर्ण किया पिता जी उन्हें कलकत्ता ले गए और अंग्रेजी ज्ञान न होने के कारण बड़े भाई को पांचवीं में ही प्रवेश दिलाया । पिता जी ने जब 1959 में अवकाश ग्रहण किया , तब भाई साहब ने हाई स्कूल किया था । वह उन्हें रेलवे में बाबू बनवाना चाहते थे । भाई साहब को नियुक्ति मिल रही थी , लेकिन बंगाली चयन अधिकारी ने पिता जी से चार सौ रुपए रिश्वत मांगी, जिसे देने से उन्होंने इंकार कर दिया और बड़े भाई को पिता जी के साथ ही कलकत्ता से प्रस्थान करना पड़ा था ।


पिता जी ने मुझे दो बार पढ़ने के लिए स्कूल भेजा । उन दिनों मैं पांच वर्ष के लगभग था । पहला स्कूल घर से बहुत दूर नहीं था । सामान्य-सा विद्यालय था वह । आया मुझे और मेरे पड़ोसी मनभरन , जिन्हें हम काका कहते थे , के छोटे बेटे प्रेमचन्द को लेने आती । मां सजा-धजाकर बड़े चाव से मुझे स्कूल भेजतीं । लेकिन मुझे वहां घबड़ाहट होती । मैंने न पढ़ने का मन बना लिया । लेकिन मन बना लेने से बात बनने वाली नहीं थी । कुछ बहाना चाहिए था और मेरे बाल मन ने बहाना खोज लिया था । मैंने जिद पकड़ ली कि स्कूल नहीं जाऊंगा ।


''क्यों ?'' पिता , भाई ने पूछा । भाई ने धमकाया भी, लेकिन पिता जी ने प्यार से समझाया था ।


''क्योंकि वहां जमीन पर बैठाते हैं ......फट्टे पर ।''


''सभी बच्चे बेैठते हैं ....तुम्हारे लिए कुर्सी मेज थोड़े लगाई जाएगी .....कोई अनोखे हो!''


बड़े भाई की इस बात पर मैं रोने लगा था । मुझे यह सब आज भी ज्यों का त्यों याद है। पिता जी ने भाई को डांटा , मुझे पुचकारा , मां ने सहलाया और समझाया , लेकिन बाल जिद .... नहीं का मतलब था नहीं ।


स्कूल का प्रिन्सिपल , जो एक बिहारी बाबू थे , मिस्टर सिन्हा , आया से मेरे स्कूल न आने का कारण जान समझाने - रिझाने घर दौड़े आए । तरह-तरह के लालच दिए , पर मैं जिद पर अटल रहा। लेकिन बड़े भाई छोड़ने वाले नहीं थे । वह जिस हायर सेकेण्डरी स्कूल से हाई स्कूल कर रहे थे , उसके पास एक अच्छा-सा स्कूल था ... मेज कुर्सी .... अच्छे स्मार्ट अध्यापकों और अच्छी ड्रेस वाला । बड़े भाई ने कैसे जुगाड़ बनाया, पता नहीं, लेकिन उन्होंने मुझे वहां प्रवेश दिला दिया । अब बचने का कोई रास्ता नहीं था । बड़े भाई के साथ बस से जाने-आने लगा । वहां मेरा मन भी लगने लगा । इसका एक कारण और था । बड़े भाई हर दिन लंच में मेरे पास आते और कभी लड्डू तो कभी कोई अन्य मिठाई मुझे दे जाते । घर में वह मुझे अंग्रेजी पढ़ाते और पढ़ाई से बिदकने वाला मैं पढ़ने लगा था । लेकिन सत्र समाप्ति से पूर्व ही अकस्मात मां को गांव जाना पड़ा और मुझे और मेरी छोटी बहन को भी उनके साथ लौटना पड़ा। उसके बाद की मेरी पढ़ाई गांव में ही हुई ।


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लेकिन दो बातों के उल्लेख के बिना बात अधूरी ही रहेगी । यद्यपि पिता जी का सम्पूर्ण जीवन ही किसी उपन्यास की मांग करता है, लेकिन संक्षेप में दो घटनाओं का उल्लेख करना चाहता हूं ।


पहली घटना मां ने बतायी थी । उन दिनों बड़े भाई छोटे थे और पिता जी के पास रेलवे का छोटा मकान था । उन दिनों उनकी डयूटी शिफ्ट में रहती थी । वह रात शिफ्ट में थे और वेतन का दिन था वह । उस दिन वह रेलवे लाईन के साथ शाम वर्कशॉप जा रहे थे। रास्ते में उन्हें उनका एक सहयोगी मिला, जो दिन की शिफ्ट करके लौट रहा था । दोनों ने पांच मिनट बातचीत की । सहयोगी घर और पिता जी वर्कशॉप की ओर बढ़ गए । कुछ दूर जाने पर पिता जी को नोटों भरा पर्स मिला । खोलकर देखा .... सोचा और अनुमान लगाया कि वह पर्स कुछ देर पहले मिले सहयोगी का था जिसमें उसका वेतन था । उन्होंने पर्स आफिस में जमा कर दिया ।


पर्स उसी सहयोगी का था ।


दूसरी घटना आंखों देखी है । जाड़े के दिन थे । प्रेमचंद के अतिरिक्त कॉलोनी में मेरा कोई साथी नहीं था । बड़े भाई के साथियों की संख्या पर्याप्त थी । शाम बीच के मैदान में वह अपने मित्रों के साथ वॉलीवाल खेलते...नियमत: । मैं सजधज कर -- कोट-पैण्ट पहन फ्लैट के नीचे सीढ़ियों के साथ बने छोटे चबूतरे पर बैठ उन्हें खेलता देखता । उस दिन मेरी दृष्टि सड़क की ओर से आ रहे काफ़िले पर जा टिकी । चार लोगों ने चारपाई थाम रखी थी और साथ कम से कम दस-पन्द्रह लोग थे । काफ़िला निकट आया । भाई और उनके साथियों का खेल थम गया । पता चला चारपाई पर घायल पिता थे । क्रेन से वह किसी डिब्बे को उठा रहे थे कि क्रेन का पहिया टूटकर उनकी छाती पर आ गिरा था । खून से लथपथ पिता सामने ....भाई किंकर्तव्यविमूढ़ । पूरी कॉलोनी इकट्ठा थी ....सिर ही सिर ...शोर और चीत्कार करती मां । उसके बाद क्या हुआ मैं जान नहीं पाया । बाद में कितने ही दिन मैं भाई के साथ रात रेलवे अस्पताल जाता रहा था । पिता जी स्वस्थ हो गये थे, लेकिन भारी-भरकम पहिए ने उन्हें जो आंतरिक चोट पहुंचाई थी , कालांतर में वही उनकी मृत्यु का कारण बनी थी । उस घटना के कुछ दिनों बाद उनका प्रमोशन हुआ ....... ड्राइवर के रूप में । वह मालगाड़ी चलाने लगे और उसी पद से उन्होंने अवकाश ग्रहण किया था ।


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अवकाश ग्रहण के बाद पिता जी ने गांव में बसने का निर्णय किया , जबकि उनके साथियों ने उन्हें कलकत्ता में रुकने का आग्रह किया था । तीन हजार का एक अच्छा-सा मकान भी उन्हें मिल रहा था । पैसा भी था, लेकिन मां गांव रहना चाहती थीं । मां को उनके चाचा (कंचन सिंह गौतम) ने तेरह बीघे खेत दे दिए थे और मकान बनाने की जगह । नाना के पास यह जमीन अतिरिक्त थी । गांव में सर्वाधिक उपजाऊ खेत उन्हीं के पास थे , लेकिन जो जमीन उन्होंने मां को दी थी वह ऊंची -नीची और चरीदा थी, जिसे कभी उपजाऊ नहीं बनाया जा सका । पिता जी ने अपने गांव देसामऊ में जो खेत भांजे को जोतने-बोने और उनके लौटने पर उन्हें लौटा देने के लिए दिए थे उस भांजे ने कोर्ट में उन्हें मृत घोषित कर (शपथ पत्र देकर) वे खेत अपने नाम लिखा लिए थे । लोगों ने पिता जी को जब भांजे पर मुकदमा करने की सलाह दी तब उन्होंने उत्तर दिया ,'' भांजा बेटा समान होता है ...... उससे कैसा मुकदमा !''


कानपुर शहर से सटे उन दस बीघे खेतों की कीमत आज लगभग ढाई-तीन करोड़ रुपए है । उसी प्रकार मेरे पितामह का जो मकान नवाबगंज में था पिताजी की उदासीनता के कारण नगर महापालिका ने उसे अपने अधिकार में ले लिया था ।


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गांव आकर कलकत्ता के बाबू जी पूरे किसान हो गए थे और गांव में 'चंद्याल' के नाम से जाने जाने लगे । नौकरी करने के दौरान जब भी वह गांव आते (मेरा ननिहाल ही मेरा गांव है ) हर दिन किसी न किसी के घर आमंत्रित रहते । एक युवा नाई, जिसका नाम मैं भूल गया हूं , सप्ताह में दो बार उनकी तेल-मालिश करने आता और बाबू जी मुक्त हस्त पैसे खर्च करते । मां के ठाठ सदैव शाही रहे । बनारसी साड़ी से नीचे कुछ नहीं पहना और यह सब 1962 तक चला । पिता जी ने भले ही खेती में झोंक अपने को माटी कर लिया था , लेकिन मां और हम सब तब तक अच्छा जीवन जीते रहे जब तक अवकाश प्राप्त होने के समय एक मुश्त मिला पैसा समाप्ति की कगार पर नहीं पहुंचा । लेकिन पिता जी ने शायद पहले ही यह स्थिति भांप ली थी । उन्होंने दुधारू गाएं , भैसें पाल ली थीं .... खेती करने के भैसों के साथ । उन दिनों तेरह जानवर थे मेरे यहां । कुछ खेत तिहाई में दिए जाते और कुछ वह स्वयं करते । लेकिन नाले के किनारे होने के कारण भयानक जाड़े में खेतों को पाला मार जाता और फसल के नाम पर जो मिलता उससे लागत बमुश्किल निकल पाती ।


कलकत्ता की अपनी आदत के अनुसार पिता सुबह चार बजे जागते । अब गाय-भैसों की सेवा उनके लिए काली दर्शन था । कुट्टी काटते, सानी तेैयार करते और साढ़े पांच बजे तक हसिया फावड़ा ले खेतों की ओर निकल जाते । जानवर घर से कुछ दूर पसियाने के बीच बने बड़े से घेर में रहते थे और पिता भी वहीं सोते थे । उनके खेतों की ओर जाने से पहले ही गाय-भैंसों का दूध निकालने या दूधिया से निकलवाने के लिए मां बालटी लटका घेर पहुंच जाती थीं ।


पिता जी के रिटायरमेण्ट की राशि खत्म होने के बाद और बड़े भाई की नौकरी लगने तक घर का खर्च गाय-भैंसों के कटता दूध से ही चला था । मुक्त भाव से लोगों को चीजें देने वाले ....ठाठ-बाट से रहने वाले पिता जवान बेटे की उतारन पहनने के लिए विवश थे ,लेकिन उन्हें कभी खीझते-झींकते ...दुखी होते या शिकायत करते नहीं देखा । 'दुखे-सुखे समेकृत्वा' वाला भाव रहता उनके चेहरे पर । जानवरों के लिए सानी आदि तैयार करते हुए ऊंची आवाज में भजन गाते रहते तरन्नाम में ।


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1967 में पहली बार उनके फेफड़ों में फोड़ा हुए । खांसी के साथ बलगम नहीं मवाद निकलता । शहर में दिखाया गया । इंजेक्शन ....लगभग एक सौ इंजेक्शन लगे । चार महीने लगे ठीक होने में । ठीक होते ही पुन: काम । डाक्टरों ने शायद उनके मर्ज को टी.बी. समझाा था । जबकि छाती पर वर्षों पहले गिरे क्रेन के पहिए के जख्म से उन्हें फेफड़ों का कैंसर हो गया था । इंजेक्शन ने कुछ समय के लिए कष्ट मुक्त कर दिया था । लेकिन तीन वर्ष बाद पुन: वह उभरा और इस बार जानलेवा साबित हुआ । बलगम के स्थान पर जो पस वह उगलते उसमें इतनी बदबू होती कि घर का कोई भी व्यक्ति उनके निकट ठहरने से कतराता । मां भी घबड़ाती, लेकिन मैं रात-दिन उनकी सेवा में रहा । मिट्टी के बड़े बर्तन में राख डाल दी गई थी । जब भी उन्हें खांसी आती मैं उनके सिर के नीचे हाथ लगा उन्हें आधा उठाता और राख भरा मिट्टी का बर्तन उनके मुंह के पास कर देता । उनके थूकने के बाद साफ कपड़े से उनका मुंह साफ करता । लगभग डेढ़ महीना यह सिलसिला चला था ।


19 सितम्बर, 1970 को सुबह इंटरमीडिएट का फार्म भरकर (20 सितम्बर अंतिम तिथि थी) 21 को वापस लौट आने की बात उनसे कहकर मैं कानपुर गया । लेकिन बीस सितम्बर की रात मेरे छोटे बहनोई ने कानपुर पहुंच मुझे उनके दिवगंत होने की सूचना दी थी ।

मृत्यु के समय मैं उनके अंतिम दर्शन से वंचित रहा था । क्या इसीलिए वे मेरे सपनों आते रहे । लेकिन उनके आने का जो विश्लेषण मैंने किया था इस बार भी वह सही सिध्द हुआ । मध्य मई में मेरा एक अत्यावश्यक कार्य सम्पन्न होना था , जो नहीं हुआ । पिता शायद उसका पूर्वाभास देने आए थे ।
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