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गुरुवार, 23 अप्रैल 2009

उपन्यास अंश

’वातायन” और ’रचना समय’ में मैं वरिष्ठ और समकालीन रचनाकारों की रचनाएं प्रकाशित करने का सुख प्राप्त करता हूं। प्रायः मैं अपनी कोई रचना प्रकाशित करने से बचता हूं। कुछ संस्मरण और आलेख अवश्य प्रकाशित किए हैं। बहुत दिनों से अनुभव कर रहा था कि कोई ब्लॉग सृजित करूं जिसमें अपनी नवीन रचनाएं और पुस्तकों की सूचनाएं प्रकाशित करूं। उसीका परिणाम है ’रचना यात्रा’। प्रस्तुत है मेरे शीघ्र प्रकाश्य उपन्यास - ’गुलाम बादशाह’ का एक अंश.

उपन्यास अंश
(शीघ्र प्रकाश्य उपन्यास ’गुलाम बादशाह का एक अंश )

नन्दलाल पांडेय

रूपसिंह चन्देल

कुमार राणावत उपनिदेशक के रूप में वरिष्ठ था. चर्चा थी कि कुछ समय बाद ही वह संयुक्त निदेशक के रूप में पदोन्नत होगा. कुमार के आने पर अनेक बातें कार्यालय के गलियारों में हवा के साथ तैरने लगी थीं. विभाग के अधिकांश निदेशक, यहां तक कि महानिदेशक भी उसे कुछ कहने से पहले उसकी राजनैतिक और प्रशासनिक पहुंच को ध्यान में अवश्य रखते थे. चर्चा यह भी थी कि उसकी पोस्टिंग से पहले उससे पूछ लिया जाता था कि वह अमुक स्टेशन जाना चाहता है या नहीं. यद्यपि उपनिदेशक और उससे बड़े अधिकारियों के स्थानांतरण मंत्रालय द्वारा किए जाते थे, लेकिन फाइल महानिदेशक कार्यालय से ही भेजी जाती थी और महानिदेशक कार्यालय अपने विवेक के अनुसार अधिकारियों के कार्यालय और शहर के नाम उद्धृत करता था. चर्चा थी कि उसकी मेरठ पोस्टिंग के पीछे एक योजना थी--- पदोन्नति पर उसे वहीं व्यवस्थित करने की.

चर्चा यह भी थी कि महानिदेशक कार्यालय ने जब कुमार राणावत से पूछा था कि वह कहां जाना चाहेगा, तब उसने ही मेरठ का चयन किया था, क्योंकि वह दिल्ली के निकट रहना चाहता था; दिल्ली जो देश की राजधानी और राजनैतिक हलचल का केन्द्र है. चर्चा यह भी थी कि पदोन्नति के बाद उसे उसी कार्यालय में रखा जाएगा. लेकिन यह प्रसंग आते ही बाबुओं के चेहरे एक-दूसरे के अति निकट हो जाते थे और वे फुसफुसाते हुए चर्चा करने लगते कि तब त्रेहन साहब का क्या होगा ! क्या एक म्यान में दो तलवारें रहेंगी? या त्रेहन को कुछ ही समय के लिए भेजा गया था? लेकिन इन अटकलों को विराम देती एक चर्चा यह भी थी कि उस कार्यालय को निदेशक स्तर का कार्यालय बना दिया जाएगा. त्रेहन भी कुछ ही समय में निदेशक बनेगा. संभव था कि वह वहीं निदेशक बने और कुमार राणावत संयुक्त निदेशक. लेकिन इन चर्चाओं से ऊपर जो एक चर्चा थी, वह थी कुमार के स्वभाव से संबन्धित . वह अपने अधीनस्थ किसी से भी, यहां तक कि अपने से एक महीना कनिष्ठ उपनिदेशक से भी अनुचित ढंग से ही पेश आता था. इस समाचार से दफ्तर के बाबुओं में शीत-लहर दौड़ गई थी. त्रेहन के आने से पूर्व जो चर्चे रहे थे, उसके आने के बाद बाबुओं ने वैसा कुछ नहीं देखा था. यूनियनवालों के साथ उसका एक अलिखित समझौता हो गया था--- जियो और जीने दो. त्रेहन ने प्रारंभ में बाबुओं के आने-जाने और काम को लेकर कुछ सख्ती की थी, लेकिन कुछ ही समय में स्थिति यथावत हो गई थी.

कुमार के आने के पश्चात त्रेहन ने उसे प्रशासन का इंचार्ज बना दिया था. टेंडर का काम वह कुमार को नहीं देना चाहता था, इसलिए उसे मोहित कुमार को दे दिया था. राणावत की रुचि उसमें थी भी नहीं. टेंडर मामलों में वह आंखें बंद रखना चाहता था. मोहित कुमार सीधा-सरल, केवल काम तक ही अपने को सीमित रखनेवाला युवक था. टेंडर कमिटी मीटिंग का प्रस्ताव प्र.र. विभाग की ओर से जब आता, फाइल बनवाकर वह उसे त्रेहन के पास भेज दिया करता. जब भी कोई ठेकेदार आता, वह हांडा के माध्यम से त्रेहन से ही मिलता था.

कुमार के आने के बाद हांडा का काम बढ़ गया था. अब वह त्रेहन के साथ राणावत की सेवा में भी मुस्तैदी से तैनात रहता, बल्कि चर्चा यह थी कि त्रेहन से अधिक वह अब कुमार का ख्याल रखता था. उसके विषय में यह कहा जाता था कि वह भविष्य विचारकर काम करनेवाला व्यक्ति था. वह जानता था कि कुमार शीघ्र ही संयुक्त निदेशक बनेगा और तब यदि त्रेहन को जाना पड़ा, तब वही उसका अफसर होगा. इसलिए जानेवाले से अधिक रहनेवाले या आनेवाले का ख्याल रखना वह अपना परम कर्तव्य मानता था. कुमार-त्रेहन मोर्चे पर काम करते हुए वह कभी असुविधा अनुभव नहीं करता था, बल्कि जितनी अधिक बार वे उसे याद करते, उतना ही वह प्रसन्न होता. वह उन्हें अपना सर्वस्व मानता. उसके बारे में कार्यालय के बाबुओं में चर्चा थी कि यदि उसे वे कह दें कि वह दिन-भर गर्मियों की धूप में खड़ा रहे तो वह खड़ा रहनेवाला व्यक्ति था. वह अपने अधीनस्थों से कहता, "नौकरी का मतलब है गुलामी ! गुलाम को बादशाह की हुक्म-उदूली का अधिकार नहीं होता."

दफ्तर के लोग उसे अफ्सरों का दलाल भी कहते. बल्कि यह शब्द उसके लिए इतना प्रचलित हो गया था और विशेषतया त्रेहन के आने के बाद कि उसकी चर्चा करते समय कोई भी उसका नाम नहीं लेता था. वे उसके लिए नए नाम का ही प्रयोग करते थे.

कुमार के आने और संजना गुप्ता के जाने के कुछ दिनों बाद त्रेहन का परिवार चंडीगढ़ से आ गया था. हांडा ने उसके बेटे का प्रवेश सेण्ट्रल स्कूल में करवा दिया था. यहां भगदौड़ शब्द अनावश्यक ही कहा जाएगा, क्योंकि बड़े अफसरों के बच्चों के लिए एडमिशन-समस्या इस देश में कभी नहीं होती. होती है मध्यवर्ग और निम्नवर्गीय मझोले कद के अफसरों और बाबुओं के बच्चों को. बाबू को अपने बच्चे को सेण्ट्रल स्कूल में प्रवेश दिलाने में कभी-कभी एक जोड़ी जूते के तलवे घिसने पड़ जाते हैं.

त्रेहन के बेटे के प्रवेश की समस्या से मुक्त होने के बाद समस्या उत्पन्न हुई थी घरेलू काम में उसकी बेगम की सहायता करने और घर के दूसरे काम करने के लिए किसी नौकरानी की. स्थायी नौकरानी की खोज व्यर्थ हुई थी. त्रेहन प्रतिदिन सुबह दफ्तर आते ही हांडा से पूछता, "यस हांडा, क्या हुआ ?"

और हांडा दांत दिखा देता. चेहरे पर पीलापन छा जाता उसके. उसके चेहरे के पीलेपन को त्रेहन एन्जॉय करता और कहता, "ओ.के.... कोशिश करते रहो. लेकिन जल्दी...." और वह पी.ए. को बज़्रर दे कुछ निर्देश देने लगता. हांडा के लिए वह जाने का संकेत होता.

दरअसल हांडा सुबह साढ़े आठ बजे ही दफ्तर पहुंच जाता था. दफ्तर साढ़े नौ बजे का था और त्रेहन दस बजे तक आता था. लेकिन दफ्तर की साफ-सफाई के लिए दो कौजुअल लेबर, स्वीपर, चपरासी नन्दलाल पांडेय, एक बाबू और एक सेक्शन अफसर सुबह आठ बजे आ जाते थे. सेक्शन अफसर और बाबू हर महीने बदलते रहते थे, जबकि शेष सभी स्थायी तौर पर आठ बजे आते थे. स्थायी चपरासी और भी थे, लेकिन नंदलाल पांडेय ने स्वयं प्रशासन से कहकर सुबह दफ्तर खोलवाने का काम अपने जिम्मे ले रखा था. इसका लाभ उसे यह मिलता कि वह चार बजे दफ्तर से चला जात था और बस अड्डा के पास अपनी पान की दुकान पर बैठता था. सुबह से उसके पहुंचने तक उसका बड़ा बेटा दुकान पर होता था.

हांडा प्रायः साढ़े आठ और यदि विलंब हुआ तो नौ बजे तक दफ्तर पहुंच जाता था. दफ्तर के गेट पर एक कैजुअल लेबर उसके आने का इंतजार करता रहता और जैसे ही उसका स्कूटर दिखता, वह लपककर स्कूटर पार्किंग की ओर बढ़ जाता. स्कूटर से उतरते ही हांडा स्कूटर उसके हवाले कर देता और हेल्मेट संभालता अपनी सीट की ओर लपकता. कैजुअल लेबर स्कूटर पार्क करता, उसका ब्रीफकेस उतारता और दाहिने हाथ में ब्रीफकेस थामे, बांए में स्कूटर और आल्मारी की जाबी का छल्ला झुलाता वह हांडा की सीट की ओर जाता. तब तक हांडा अपनी मेज की चीजों पर दृष्टि डाल चुका होता. कैजुअल लेबर उसकी मेज के पास की छोटी मेज पर हांडा का ब्रीफकेस रख चाबी का गुच्छा उसे पकड़ाता. हांडा मेज की ड्राअर खोल उससे नोटबुक और पेन निकालता और उन्हें थाम पूरे कार्यालय---- एक-एक कमरे का जायजा लेता हुआ त्रेहन के चैम्बर में धंसता. लेकिन उससे पहले वह उसके पी.ए. गुलाटी के कमरे में अवश्य जाता और यदि नौ बजे तक गुलाटी नहीं पहुंचा होता, तब त्रेहन के आने के बाद वह गुलाटी को हिदायत देता हुआ कहता, "मिस्टर गुलाटी, आपको बड़े साहब के आने से पहेल सीट पर होना चाहिए ."

गुलाटी ’यस सर’ कहकर उससे मुक्ति चाहता और उसके मुड़ते ही उसकी मां-बहन से अपना रिश्ता कायम करता हुआ बुदबुदाकर कहता, "दलाल स्साला--कुत्ती की औलाद."

सभी कमरों का जायजा लेने के बाद हांडा मेन गेट के पास वहां जा खड़ा होता, जहां त्रेहन की गाड़ी आकर रुकती थी. एक कैजुअल लेबर वहां नौ बजे ही तैनात हो जाता था. उससे पहले हांडा त्रेहन के कमरे की साफ-सफाई का जायजा लेता था. यदि कहीं कागज का कोई टुकड़ा या तिनका भी दिख जाता, वह उसे उठाकर डस्टबिन, जो टॉयलेट में एक ओर रखी थी, डाल देता. टॉयलेट चैम्बर से अटैच्ड था और त्रेहन की गाड़ी का इतंजार करने से पूर्व वह टॉयलेट का मुआयना अवश्य करता था. उसके बाद वह कैजुअल लेबर के पास जा खड़ा होता . त्रेहन की गाड़ी के रुकते ही वह गाड़ी का दरवाजा खोलने के लिए लपकता. ड्राइवर भी गाड़ी रोक तेजी से उतरता और प्रायः ड्राइवर और हांडा के हाथ दरवाजा खोलने के लिए एक साथ आगे बढ़ते . त्रेहन के गाड़ी से उतरते ही हांडा अटैंशन की मुद्रा में खड़ा हो त्रेहन को सैल्य़ूट मारता. त्रेहन कोई उत्तर न दे आगे बढ़ता. नोटबुक और पेन संभाले हांडा उसके पीछे चलता उसके बताए काम नोट करता हुआ. गाड़ी से अपने चैम्बर तक त्रेहन हांडा को दिन-भर के निजी काम नोट करवा देता. यहां तक कि गुलाटी से किस-किसको फोन करवाना है---- और जो बातें गोपनीय होतीं, उन्हें चैम्बर में पहुंच वह नोट करवाता. फिर पूछ लेता, "ह्वाट एबाउट मेड सर्वेंट---- मिस्टर हांडा ?"

हांडा का चेहरा एक बार फिर पीला पड़ जाता. त्रेहन ओ.के.’ कह ’प्रयत्नशील’ रहने का संकेत देता.

लेकिन उस दिन जब त्रेहन गाड़ी से उतरा , हांडा ने उसके चेहरे के भाव से ही अनुमान लगा लिया कि उस दिन बड़े साहब का मूड उखड़ा हुआ था. अफसरों के मूड भांपने का उसे पुराना अनुभव था. त्रेहन ने अपने पीछे चलते हांडा को उस दिन कुछ भी नोट नहीं करवाया. हांडा के पेट में हुलेड़-सी उठने लगी और दिल कोयला इंजन के पिस्टन की भांति धक-धक करता रहा.

चैम्बर में पहुंच त्रेहन ऊंची आवाज में बोला, "मिस्टर हांडा...."

"यस सर !" हांडा अटैंशन की मुद्रा में खड़ा हो गया. ऎसी स्थिति में वह दोनों हाथ पीछे बांध लिया करता था.

"कितने दिन हो गए आपसे नौकरानी के लिए कहते हुए---- आज मैडम की तबीयत ठीक नहीं---- ब्रेकफास्ट भी नहीं किया."

"सर, अभी मंगवाता हूं..."

"व्हॉट नॉनसेंस !"

"सर !" हांडा को लगा कि पैंट खिसककर नीचे आ गई है. उसने पैंट को ऊपर खिसकाया.

"डू समथिंग. किसी को भी भेजो...."

"यस सर ! अभी भेजता हूं सर---- दूसरा कौजुअल लेबर." क्षण-भर तक उसने त्रेहन की ओर देखा, "एक तो बागवानी के लिए जाता ही है सर !"

"नॉनसेंस ! उससे मतलब ? एक और भेजो. बैटर है कोई नौकरानी तलाश करो." त्रेहन ने चैम्बर में लगे शीशे के सामने खड़ा हो अपने बाल ठीक किए. तभी दरवाजे पर नॉक हुआ. मोहित कुमार था.

"ऑफ्टर टेन मिनट्स....." त्रेहन ने ऊंची आवाज में कहा और हांडा की ओर मुड़ा, "आप जानते होंगे मिस्टर हांडा कि चपरासियों की बीवियां-बेटियां घरों में काम करती हैं. हमारे ऑफिस में भी कोई ऎसा होगा. उसे एवज में रहने के लिए मुफ्त में सर्वेण्ट क्वार्टर मिल जाएगा. मेरा सर्वेंट क्वार्टर अभी खाली होगा ही." त्रेहन की आवाज अब कुछ हल्की थी.

"सर, नंदलाल पांडेय रहता है उसमें."

संयोग से तभी नंदलाल पांडेय कुछ फाइलों के साथ चैम्बर में दाखिल हुआ. त्रेहन की भौंहें टेढ़ी हुईं, लेकिन वह चुप रहा. वह समझ गया कि जो अफसर आना चाहता था, उसने नंदलाल से फाइलें भेज दी हैं. नंदलाल पर हांडा को भी क्रोध आया, लेकिन वह त्रेहन के सामने प्रकट नहीं कर सकता था. नंदलाल को देखते ही कुछ देर पहले की त्रेहन की बात उसके दिमाग में घूम गई. नंदलाल वापस लौटने को था कि हांडा ने उसे रोका, "नंदलाल, कुछ देर बाद मुझसे मिलना."

"जी, सर !" नंदलाल हाथ मलता हुआ बाहर निकल आया और त्रेहन के चैम्बर के बाहर हांडा के निकलने की प्रतीक्षा करने लगा.

नंदलाल के बाहर जाते ही त्रेहन ने सिर हिलाया और गुलाटी को बज़र देने लगा. हांडा उसके सिर हिलाने का अर्थ समझता था. उसने सिर झुकाकर त्रेहन को अभिवादन किया और पीछे मुड़ गया. त्रेहन के चैम्बर से बाहर निकलते ही तनी तोंद और दाहिने हाथ में पकड़े पैड को हिलाता हांडा अपने कमरे की ओर बढ़ा. नंदलाल पांडेय, जो बाहर खड़ा था, "सर---- आप कुछ कहना चाहते थे." कहकर हांडा के पीछे हो लिया.

हांडा ने नंदलाल की ओर ध्यान नहीं दिया. यह जानते हुए भी कि वह उसके पीछे आ रहा था, वह अपने कमरे में दाखिल हुआ और नंदलाल उसके कमरे के बाहर रुक गया. हांडा ने नोट पैड मेज पर पटका, उस पर पेन रखा और मेज पर इकट्ठा फाइलों, जिनमें कई कुमार के पास जानी थीं, पर दृष्टि डाली और कमरे में मौजूद दो बाबुओं की ओर देखा जो पहले से ही उसके आने का इंतजार कर रहे थे, क्योंकि उन्हें अपने केस डिस्कस करने थे, जिन्हें कुमार के पास भेजा जाना था. नंदलाल कमरे के बाहर हांडा पर ही नजरें गड़ाए खड़ा था. भय की रेखाएं उसके चेहरे पर स्पष्ट थीं.

’जरूर कुछ गड़बड़ है. जरूर त्रेहन साहब ने मेरे विषय में हांडा से कुछ कहा है और हरामी का बीज हांडा जरूर मुझे रगड़ेगा---- बात जो भी हो--- है मेरे खिलाफ ही.’ नंदलाल के अंदर से आवाज उठ रही थी.

हांडा ने एक नजर उस पर डाली, फिर कमरे में उपस्थित बाबुओं की ओर देखा. अपने पर हांडा की नजर पड़ते ही नंदलाल के दिल की धड़कन तेज हो गई.

"आप लोग पंद्रह मिनट बाद आइए." हांडा ने बाबुओं से कहा.

"सर, कुमार साहब ने साढ़े दस बुलाया है----."

"पंद्रह मिनट बाद---- आपने सुना ?" हांडा का स्वर ऊंचा था.

"जी सर, लेकिन----."

"लेकिन क्या ?"

नंदलाल को कंपकंपी छूट गई. उसका मन किया कि वह वहां से भाग ले. वह जल्लाद के सामने खड़े व्यक्ति की भांति अपने को पा रहा था.

दोनों बाबू कमरे से बाहर निकल गए. हांडा कुछ क्षण तक फाइलों को उलटता-पलटता रहा. नंदलाल साहस नहीं जुटा पा रहा था उसके कमरे में घुसने का. वह गैलरी में खड़ा था. जानता था कि हांडा जान-बूझकर उसकी उपेक्षा कर रहा है.’ऎसा वह अपने बराबर पदवालों के साथ भी करता है, फिर मैं तो चपरासी हूं.’ नंदलाल ने सोचा. तभी उसे हांडा की तीखी आवाज सुनाई दी, "पांडे".

"जी साब! " नंदलाल सहमता हुआ हांडा के कमरे में घुसा.

"तुम्हारे लिए बड़े साहब का एक आदेश है."

नंदलाल को लगा कि पेट में तेज हुलेड़ उठी है. उसका चेहरा जर्द हो उठा. हांडा ने यह अनुभव किया और मन-ही-मन प्रसन्न हुआ.

"दो दिन में साहब का सर्वेण्ट क्वार्टर खाली करना होगा."

"साहब, हम गरीब आदमी हैं."

"सभी गरीब हैं." ऊपर से सख्त लेकिन अंदर से नंदलाल के भय से आह्लादित हांडा बोला. अपने सामने कर्मचारियों का गिड़गिड़ाना उसे अच्छा लगता था. विषेष रूप से त्रुटि पकड़े जाने पर बाबुओं का गिड़गिड़ाना.

"साहब, आप मेरे लिए कुछ करें---- बाहर कमरा लेकर रहना...."

"मैं क्या कर सकता हूं---- बड़े साहब का हुक्म है."

"साहब, चार बच्चे हैं---- घरवाली बीमार है---- साब----." नंदलाल ने हाथ जोड़ दिए.

"अपनी ओर से साहब को जो कुछ भी मैं कह सकता था, कह चुका हूं--- लेकिन वह माने नहीं."

"साहब , बच्चों पर रहम करें."

"पांडे, इतने बच्चे मुझसे पूछकर पैदा किए थे. सरकार ने चीख-चीखकर अपना गला खराब किया---- फेमिली प्लानिंग के लिए करोड़ों बरबाद किए---- और तुम जैसे लोग कान में रुई ठूंसे रहे----- जब खिलाने-पालने की औकात नहीं थी तब----- तुम्हारी हरामखोरियों का खामियाजा घरवाली भोग रही है."

नंदलाल चुप रहा. अपने परिवार के विषय में हांडा की टिप्पणी उसके कलेजे को कटार की भांति काट रही थी, लेकिन वह सरकारी महकमे की अंतिम सीढ़ी पर खड़ा कर्मचारी था---- जिसकी पहली शर्त होती है अपने अफसरों की बातें सुनना. उन पर प्रतिक्रिया देने का अधिकार उसे नहीं था. संविधान ने हांडा को उसके विषय में वैसी टिप्पणी करने का अधिकार नहीं दिया, यह बात भी वह नहीं जानता था.

नंदलाल जब देर तक चुप रहा, हांडा ने पूछा, "फिर कल शाम तक---- ओ.के." और वह फाइल खोलकर कुछ पढ़ने लगा.

"साहब, आप कुछ करें साब---- बड़े साहब से---- इतने कम समय में ---- कहां जाऊं साब----- मैं कितने जमाने से उसमें रह रहा हूं---- कितने ही अफसर आए-गए साब, लेकिन किसी ने भी कभी खाली करने के लिए नहीं कहा."

"नंदलाल", हांडा ने फाइल से सिर ऊपर उठाया, "कभी सरकारी मकान के लिए अप्लाई किया ?"

नंदलाल चुप रहा.

"मुफ्त में संयुक्त निदेशक का सर्वेण्ट क्वार्टर जो मिला हुआ था---- क्यों करते ! तुम्हें पता है न कि सर्वेण्ट क्वार्टर में कोई अफसर किसी सरकरी कर्मचारी को नहीं रख सकता."

"जी साब !" नंदलाल का स्वर दयनीय था.

"--- तब---- क्यों पड़े रहे उसमें ?" हांडा का स्वर पुनः ऊंचा हो गया था, "त्रेहन साहब दूसरों जैसे अफसर नहीं हैं. नियम-कानून के पक्के हैं."

’तभी न ठेकेदारों के साथ मिलकर चांदी काट रहे हैं और इस बहती गंगा में आप भी डुबकी लगा रहे हो हांडा !’ नंदलाल सोचने लगा था. उसके मुंह तक दोनों के लिए फूहड़ गाली आई, लेकिन वापस लौटा दिया उसने.

देर तक तुप्पी रही वहां. हांडा को अब जल्दी थी, क्योंकि दोनों बाबू एक बार कमरे में झांककर और नंदलाल को खड़ा देखकर लौट गये थे.

"एक उपाय है...." हांडा गंभीर, लेकिन मंद स्वर में बोला.

"जी, साब !" उम्मीद की एक क्षीण रेखा नंदलाल को दिखाई दी.

"बड़े साब को घर में काम करनेवाली कोई चाहिए. तुम्हारे घर में कोई है ?"

"साब, बीवी तो बीमार रहती है."

"बेटी कितनी बड़ी है ?"

"अठारह की हो रही है...." नंदलाल क्षण-भर सोचता रहा, फिर बोला, "नहीं, साब, उन्नीस की----."

"क्या करती है ?"

"घर में सिलाई मशीन पर काम कर लेती है---- बाकी घरवाली की देखभाल...."

"दूसरे बच्चे----?"

"बड़ा बेटा पान की दुकान पर बैठता है---- बस अड्डे के पास--- दूसरा आठवीं में और छोटावाला चौथी में पढ़ता है."

"हुंह----." हांडा ने फाइल में कुछ लिखा, फिर बोला, "क्या तुम्हारी बेटी----- क्या नाम है उसका ?"

"साब, कुसुम."

"अगर कुसुम साहब के यहां दो-तीन घंटे काम कर आया करे---- उनकी बेगम की मदद--- तो मैं तुम्हारे वहां बने रहने की सिफारिश कर सकता हूं --- वर्ना---."

"साब, बिटिया से पूछना होगा."

"बेटी तुम्हारी बात मानने से इंकार कर देगी ?"

"फिर भी साब, सयानी बेटी है...." पांडे ने बात बीच में ही रोक ली. उसे लगा संभलती बात बिगड़ न जाए. हांडा की नाराजगी उसे त्रेहन से अधिक खतरनाक लगती थी. बात संभालने की दृष्टि से वह बोला, "वैसे मेरी बेटी सीधी है साब---- मेरी बात काटेगी नहीं."

"वही तो मैं भी कह रहा था." हांडा ने नंदलाल के चेहरे पर दृष्टि गड़ा दी. नंदलाल अकबका गया.

"फिर मैं जाकर त्रेहन साहब से यह कह दूं.?" सीट से उठने का उपक्रम करता हुआ हांडा बोला.

नंदलाल चुप रहा.

"हां, एक बात और पांडे !"

"जी साब!"

"यह तुम भी जानते हो और मैं भी----" हांडा के स्वर में आत्मीयता घुल आई थी, "कि ये बड़े अफसर कंजूस होते हैं. त्रेहन साहब भले बहुत हैं, लेकिन हैं कंजूस." हांडा मुस्कराया.

पांडे को लगा कि बिजली गिरनेवाली है.

"अपने सर्वेण्ट क्वार्टर में वह उसी को रखना चाहते हैं जो उसमें रहने के बदले उनकी कुछ मदद कर सके---- मसलन उसके घर का कोई सदस्य उनके घर के काम----- समझे ?"

"जी साब !"

"फिर मैं अभी बता आता हूं बड़े साहब को कि तुम्हारी बेटी उनकी बेगम की मदद आज ही करने जाएगी ---- और करती रहेगी."

"साहब, आज से ----? घर में बताना तो पड़ेगा साब !"

"बेवकूफ---- जाओ और बेटी को लेकर साहब के बंगले में छोड़ आओ. मैं बाद में बताऊंगा साहब को----. उनकी बेगम जब कुसुम के पहुंचने का समाचार देंगी, तब सोच, त्रेहन साहब तुझ पर कितना खुश होंगे."

नंदलाल को कमरा घूमता नजर आ रहा था. वह अपने अंदर बेचैनी अनुभव कर रहा था. ’अगर कुसुम ने मना कर दिया---.’ वह सोच रहा था.

"जाओ, नंदलाल ---- घर जाओ. आज साहब को ब्रेकफास्ट नहीं मिला---- जल्दी करो, जिससे उन्हें लंच तो मिल जाए----."

"जी साब . " नंदलाल भारी कदमों से हांडा के कमरे से बाहर निकला. उस क्षण उसे ऎसा प्रतीत हो रहा था मानो उसकी टांगें बेजान हो रही थीं और वह कभी भी लड़खड़ाकर गिर जाएगा. उसके कानों में हांडा के शब्द लगातार गूंज रहे थे--- ’बेवकूफ---- जाओ----बेटी को लेकर----."

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’गुलाम बादशाह’ उपन्यास प्रवीण प्रकाशन, दरियागंज, नई दिल्ली-११०००२ से शीघ्र ही प्रकाश्य है.
पृष्ठ संख्या : (डिमाई) : २१४