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मंगलवार, 1 सितंबर 2009

यादों की लकीरें



सभी के जीवन में कुछ ऎसा होता है - छोटी-बड़ी घटनाएं जिनमें से कुछ अमिट छाप छोड़ जाती हैं----- स्मृति पटल पर सदा के लिए अंकित हो जाती हैं. कभी-कभी वे कुरेदती हैं-- जीवंत हो उठती हैं, अपने उसीरूप में---- तब वह क्षण विशेष आंखों के समक्ष साकार हो उठता है अपनी प्रियता-अप्रियता के साथ. जब से होश संभाला छोटी-बड़ी घटनाओं ने कभी साथ नहीं छोड़ा---- उनके रूप बदलते रहे--- सिलसिला आज भी जारी है. लेकिन उन बड़ी घटनाओं से आपका साक्षात करवाकर आपको विचारशील बनाने का कोई इराद नहीं है. इस श्रृखंला में मैं उन छोटी-छोटी घटनाओं को संग्रहीत करना चाहता हूं, जो स्थूलरूप से महत्वहीन होते हुए भी अपने में गहन अर्थ छुपाये हुए थीं. प्रस्तुत है शृखंला की पहली कड़ी :

व्यवहारिकता

हाल की बात है. ’साहित्य अकादमी’ द्वारा प्रकाशित ’प्रवासी हिन्दी लेखकों’ की कहानियों के संकलन का लोकार्पण कार्यक्रम था. संकलन का सम्पादन वरिष्ठ कथाकार-पत्रकार हिमांशु जोशी ने किया है.

एक दिन पूर्व हिमांशु जी का फोन आया और उन्होंने संकलन के लोकार्पण कार्यक्रम में पहुंचने के लिए आमन्त्रित किया. हिमांशु जी से मेरा परिचय १९७८ में तब हुआ था जब मैं ’स्व. प्रतापनारायण श्रीवास्तव के जीवन और कथा साहित्य पर शोध कर रहा था और उसी संबन्ध में ’साप्ताहिक हिन्दुस्तान’ कार्यालय गया था. उसके बाद मैं उनसे १९८२-८३ में मिला और परिचय प्रगाढ़ से प्रगाढ़तर होता गया. वे मेरे लिए आदरणीय भाई साहब बन गये और मैं उनके लिए ’रूप’ . इस संबोधन से घरवाले मुझे बुलाते थे. बाद में डॉ. शिवप्रसाद सिंह ने यह संबोधन दिया और उसके बाद हिमांशु जी ने. वैसे तो १९९२ के बाद मृत्युपर्यन्त शिवप्रसाद जी जब भी दिल्ली में होते मुझे प्रतिदिन उनसे मिलने जाना होता, लेकिन इनमें से कितनी ही मुलाकातों में हिमांशु जी भी हमारे साथ होते थे. कितनी ही बार हम लोग बंगाली मार्केट के ’नत्थू स्वीट्स’ में बैठे---- लंबी बैठकें होती थीं वे---- अविस्मरणीय----.

हिमांशु जी के बाद मुझे ’रूप’ बुलाने वालों में मेरे समकालीन कथाकार-कवि मित्र अशोक गुप्ता हैं. अमेरिका की हिन्दी कवयित्री-कथाकार सुधा ओम ढींगरा भी प्रायः अपने पत्रों में यह संबोधन देती हैं. दरअसल इसकी इतनी लंबी चर्चा केवल इसलिए कि यह संबोधन मुझे अधिक प्रिय और आत्मीय लगता है.

मैं अपने मूल विषय से भटक गया. यह मेरी कमजोरी है और मेरी इस कमजोरी को मित्र लोग ’किस्सागोई’ शब्द देते हैं.

तो हिमांशु जी का फोन मेरे लिए आदेश था. उस कार्यक्रम में जाना इसलिए भी आवश्यक था क्योंकि लगभग एक वर्ष से हम दोनों ’जल्दी ही मिलेंगे’ के झूठे वायदे करते आ रहे थे, जबकि पांच-छः वर्ष पहले तक हम लगभग हर पन्द्रह दिन में ’कॉफी हाउस’, ’कॉफी होम’, ’नत्थू स्वीट्स’ , ’श्रीराम सेण्टर’ या ’त्रिवेणी’ में मिलते रहे थे . बहरहाल -

कार्यक्रम साहित्य अकादमी सभागार में था. जब मैं पहुंचा कथाकार वीरेन्द्र सक्सेना, हिमांशु जी और महेश दर्पण ही पहुंचे थे. लेकिन पन्द्रह मिनट में काफी संख्या में लोग आ गये और साहित्य अकादमी का कोई कर्मचारी सभागार में बैठे लोगों को बाहर हॉल में जलपान के लिए बुला ले गया.

बाहर हॉल में मेरी उनसे मुलाकात हुई. कुछ वर्षों से हम एक दूसरे को जानते हैं. वह मूलतः कवयित्री हैं, लेकिन कुछ कहानियां भी लिखी हैं उन्होंने. किसी सरकारी दफ्तर में अधिकारी हैं. दुबली-पतली -- उनके पतले चेहरे पर सदैव मुस्कान खिली रहती है. मुझे देख दूर से मुस्कराती हुई वह मेरी ओर लपकीं, लेकिन बीच में किसी साहित्यकार के साथ अटक गयीं. दो मिनट उससे बातें करने के बाद वह मेरे निकट आयीं और "कैसे हैं आप ?" से शुरूआत कर "आजकल क्या कर रहे हैं---- क्या लिख डाला ?" जैसे प्रश्न एक सांस में उन्होंने मेरी ओर उछाल दिए. मैंने उलट प्रश्न किया , "आपने क्या लिखा ?"

"मैं---- कुछ नहीं---- आजकल बहुत व्यस्तता है. दफ्तर----- कुछ दूसरे कार्यक्रम-----. मैं कुछ नहीं कर पा रही---- लेकिन आप तो निरंतर लिखने वालों में हैं---." वह क्षणभर के लिए रुकीं, फिर बोलीं, "क्या कर रहे हैं?"

आत्मीयता से पूछे गये प्रश्नों के उत्तर मैं लंबे देने लगता हूं और वही गलती मैंने उनके साथ भी की. हाल ही में प्रकाशित उपन्यास ’गुलाम बादशाह’ की सूचना देने के बाद लियो तोल्स्तोय पर उनके रिश्तेदारों, मित्रों, कलाकारों, लेखकों आदि के संस्मरणॊं की चर्चा करने लगा, जिनका मैंने अनुवाद कर लिया था या कर रहा था. मैंने बताना शुरू ही किया था कि उनकी आवाज सुनाई दी -- "हेलो, अंकित जी S--S--." और मुझे बोलता छोड़ वह तेजी से अंकित जी की ओर बढ़ गयी थीं, जो अपनी दाढ़ी में मुस्कराते हुए समोसा टूंगते किसी से सिर हिलाकर बातें कर रहे थे. अंकित जी ने अपनी ओर उछले ’हेलो’ की ओर देखा और चमकती आंखों से उनकी ओर हाथ हिलाया.

अंकित जी दूरदर्शन में कार्यक्रम अधिकारी हैं और वह कवयित्री जी को नियमित कार्यक्रमों के लिए बुलाते रहते हैं.

उनकी व्यवहारिकता के प्रति मैं नतमस्तक था, जो मेरे लिए एक अच्छा सबक भी था.
*****

6 टिप्‍पणियां:

Himanshu Pandey ने कहा…

आपको ब्लॉगिंग जगत में देखकर सुखद अनुभूति हो रही है । अब हम आपकी लेखनी का आस्वादन करते रहेंगे ।

pran sharma ने कहा…

SANSMARAN CHHOTA HEE SAHEE LEKIN AAPNE BAHUT KUCHH KAH DIYAA HAI,POOREE AATMIYTA KE SAATH.AAPKO " ROOP " SAMBODHAN ADHIK PRIY
AUR AATMIY LAGTA HAI.MERE MUN MEIN BHEE UMANG
PAIDA HO GAYEE HAI.CHALIYE ,MAIN BHEE SHURU KAR
DETA HOON " ROOP" LIKHNA-" ROOP JEE,UMDA SANSMARAN KE LIYE AAPKO BADHAAEE."

बेनामी ने कहा…

आदरणीय बड़े भाई,

गीत भेजने का वादा समय पर पूरा नहीं कर पाया, क्षमाप्रार्थी हूँ। जब तक विश्वविद्यालय में प्रतिनियुक्ति पर रहा समय नहीं निकाल पाया। फिलहाल दस दोहे और दो गीत भेज रहा हूँ। ब्लॉग पर देने का तटस्थ निर्णय लें।

गीत भेजने और पत्र लिखने में शायद और विलम्ब हो जाता पर ‘व्यावहारिकता’ पर टिप्पणी करना जरूरी-सा हो गया। संस्मरण के दोनों पात्रों को मैंने पहचान लिया है। आप की तरह पब्लिक तो मैं भी नहीं करूँगा। हाँ, फोन पर आथवा मिलने पर ही अपने अंदाजे की पुष्टि करना चाहूँगा।

पिछले दिनों हिन्दी अकादमी के पचड़े पर आप के बहुत संतुलित विचार पढ़े, असंतुलन था तो बस एक; अकादमी के संभावित सदस्यों में आपने जिन सशक्त जचनाकारों के नाम गिनवाए है, उनमें आपने मुझ जैसे अनाम कलम-घसीटू को भी शामिल कर लिया है, जो न तीन में न तेरह में! पर आप ने मुझे यह सम्मान दिया, इस के लिये आभारी हूँ।

आशा है सानन्द होंगे।

फोन/पत्र/मेल या तीनों की प्रतीक्षा रहेगी।

आपका

राजेन्द्र गौतम

b-226, rajnagar palam, new delhi-110077
ph. +91+11+25362321 mob: +91+9868140469

बेनामी ने कहा…
इस टिप्पणी को एक ब्लॉग व्यवस्थापक द्वारा हटा दिया गया है.
बलराम अग्रवाल ने कहा…

भाईसाहब "व्यावहारिकता" पढ़ा। उक्त व्यावहारिकता के वस्तुत: कई पक्ष हैं। उनमें से एक की ओर तो आपने इशारा कर ही दिया है कि 'अंकित जी दूरदर्शन में कार्यक्रम अधिकारी हैं और वह कवयित्री जी को नियमित कार्यक्रमों के लिए बुलाते रहते हैं.' लेकिन यह आपका नजरिया है जो अधूरा भी हो सकता है; क्योंकि वह अगर पूरी तरह व्यावहारिक होतीं तो बीच में मिल गए सज्जन से शीघ्र निबटकर आपसे जैसे व्यक्ति से बातें करने क्यों आतीं जिससे अंकित जी जैसा कोई लाभ कभी मिलना ही नहीं है? दूसरा पक्ष यह भी हो सकता है कि आपकी लम्बी बातचीत से पीछा छुड़ाने के लिए उन्होंने जबरन अंकित जी की ओर 'हलो'उछाल दिया हो क्योंकि आपने स्वयं ही लिखा है कि 'आत्मीयता से पूछे गये प्रश्नों के उत्तर मैं लंबे देने लगता हूं और वही गलती मैंने उनके साथ भी की.' तीसरे पक्ष की ओर सुधा ओम धींगरा जी ने इशारा किया है यह लिखकर कि 'अगर आप यह लिख देते कि मैं आप को …… रूप भाई भी बुलाती हूँ तो भारतीय मानसिकता को थोड़ी राहत मिल जाती.' यहाँ वस्तुत: भारतीय मानसिकता के स्थान पर 'पुरुष मानसिकता' शब्दों का प्रयोग होना चाहिए था। मुझे लगता है कि इस मानसिकता से अपने आप को बचाए रखने की दृष्टि भी विशिष्ट व्यावहारिक बना देती है।

बेनामी ने कहा…

बलराम अग्रवाल ने कहा --

भाईसाहब "व्यावहारिकता" पढ़ा। उक्त व्यावहारिकता के वस्तुत: कई पक्ष हैं। उनमें से एक की ओर तो आपने इशारा कर ही दिया है कि 'अंकित जी दूरदर्शन में कार्यक्रम अधिकारी हैं और वह कवयित्री जी को नियमित कार्यक्रमों के लिए बुलाते रहते हैं.' लेकिन यह आपका नजरिया है जो अधूरा भी हो सकता है; क्योंकि वह अगर पूरी तरह व्यावहारिक होतीं तो बीच में मिल गए सज्जन से शीघ्र निबटकर आपसे जैसे व्यक्ति से बातें करने क्यों आतीं जिससे अंकित जी जैसा कोई लाभ कभी मिलना ही नहीं है? दूसरा पक्ष यह भी हो सकता है कि आपकी लम्बी बातचीत से पीछा छुड़ाने के लिए उन्होंने जबरन अंकित जी की ओर 'हलो'उछाल दिया हो क्योंकि आपने स्वयं ही लिखा है कि 'आत्मीयता से पूछे गये प्रश्नों के उत्तर मैं लंबे देने लगता हूं और वही गलती मैंने उनके साथ भी की.

बलराम अग्रवाल