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शनिवार, 25 जुलाई 2009

सस्मरण

प्रस्तुत संस्मरण मेरे द्वारा संचयित और अनूदित शीघ्र प्रकाश्य पुस्तक ’लियो तोल्स्तोय का अतंरंग संसार’ से उद्धृत है. यह पुस्तक संवाद प्रकाशन मुम्बई/मेरठ से प्रकाश्य है.

अतीत पर निबन्ध
सत्तर पार मेरे पिता लियो तोल्स्तोय

एस.एल.तोल्स्तोय
(सेर्गेई ल्वोविच तोल्स्तोय (१८६३-१९४६)
तोल्स्तोय के बड़े पुत्र)

अनुवाद : रूपसिंह चन्देल

बचपन में हम तीन बड़े बच्चों ने (मेरी बहन तान्या, मेरा भाई इल्या और मैं ) अपने पिता के प्रति असामान्य भाव अपना रखा था. कहना चाहिए, दूसरे बच्चों का अपने पिताओं के प्रति जो विचार होते हैं उससे बिल्कुल भिन्न. हमारे लिए उनके निर्णय, उनकी सलाह-नियम अंतिम होते थे. वास्तव में हम यह विश्वास करने लगे थे कि हम जो भी सोचते और अनुभव करते थे पिता जी वह सब कुछ जानते थे, भले ही वह उसे प्रकट नहीं करते थे. मैं उनकी टकटकी लगाकर देखती छोटी भेदक भूरी आंखों के नीचे छटपटाता, और जब वह किसी विषय पर मुझसे पूछते (वह प्रश्न करना पसंद करते थे और मैं उत्तर देने की परवाह नहीं करता था ) मैं झूठ नहीं बोल पाता, अथवा टालमटोल उत्तर दे देता .

हमारे बचपन की सबसे बड़ी खुशी यह थी कि हम उनके साथ थे. वह जब टहलने, अथवा शिकार करने अथवा भ्रमण करने जाते, हमें साथ ले जाते थे. स्नेह के चिन्ह प्रकट करना उनकी प्रकृति में नहीं था. वह लाड़-प्यार में कभी ही हमे चूमते अथवा नाम लेकर बुलाते. लेकिन हमारे प्रति उनके प्यार से हम अवगत थे और यह भी जानते थे कि हमारे व्यवहार से वह प्रसन्न थे अथवा नहीं. यदि वह मुझे ’सेर्गेझा’ बुलाने के बजाय ’सेर्गुलोविच’ कहकर बुलाते, मैं इसे उनका प्यार मानता. कभी-कभी वह दबे पांव पीछे से आते और अपने दोनों हाथों से मेरी आंखें ढांप लेते. यह अनुमान लगाना कठिन न होता कि कौन था. अथवा वह मेरे दोनों हाथ पकड़ लेते और कहते, "ऊपर चढ़ो " और मैं उनकी सहायता से उनके ऊपर चढ़ जाता और उनके कंधों पर खड़ा हो जाता या बैठ जाता. उसी स्थिति में वह मुझे लेकर कमरे में घूमते, फिर अचानक वह मुझे पहले ऊपर हवा में उछालते और फिर पैरों पर खड़ा कर देते. हम इन कलाबाजियों को बहुत पसंद करते थे और यदि पिता जी हममें से किसी को भी ऎसा करते, कहूं, मुझे , मेरी बहन तान्या अथवा भाई इल्या को तो तुरन्त हम चीखना शुरू कर देते , "मुझे भी ! मुझे भी ."

यहां तक कि हम पिता जी की तम्बाकू की विशेष गंध ( वह उस समय तक धूम्रपान करते थे ) , उनकी फलालेन की शर्ट, और उनके स्वास्थ्यवर्द्धक घोर परिश्रम को बहुत पसंद करते थे.

जिमनास्टिक हमारे मन बहलाव की रुचिकर चीज थी. यह इस प्रकार प्रारंभ होती : हम एक पंक्ति में पिता के सामने खड़े होते और उनकी गतिविधि को ठीक उसी प्रकार दोहराने का प्रयास करते--- सिर को दाहिने मोड़ते, फिर बायें, फिर ऊपर, फिर नीचे. बाहों को सीधा तानते, ऊपर उठाते और पहले दाहिना , फिर बांया पैर झुकाकर उंकड़ू बैठ कुहनियों से सीधे जमीन स्पर्श करते, और इसी प्रकार और बहुत कुछ करते. यहां तक कि हमारे पास लकड़ी का एक घोड़ा भी था, जिसपर चढ़कर हम कूदते थे.

सामान्यतः पिता जी हमारे शारीरिक विकास को विशेष महत्व देते और ध्यान रखते थे. वह जिमनास्टिक, तैराकी, दौड़ना, ऊंची कूद, घुड़सवारी, और ’लेप्ता’ और मोरोद्की सहित बच्चों के अन्य खेलों के लिए हमें प्रोत्साहित करते थे. कभी-कभी जब हम साथ टहल रहे होते वह कहते, "देखें कौन सबसे तेज दौड़ सकता है", और हम सब उनके पीछे दौड़ पड़ते थे.

पिता जी ने कभी हमें दण्डित नही किया, न ही कोने में खड़ा किया. विरले ही कभी हमें डांटा और फटकारा. उन्होंने न कभी हमें पीटा या हमारे कान खींचे, लेकिन वह कैसा महसूस कर रहे थे यह प्रकट करने के उनके अपने दूसरे ढंग थे. वह हमारी उपेक्षा करके अपनी अप्रसन्नता प्रकट करते और हमें अपने साथ ले जाने से इंकार कर देते, अथवा कोई व्यंग्यात्मक टिप्पणी करते.

कहानी सुनाते समय जो बात आमोद-प्रमोद या बुद्धिमानी की होती , और हममें से कोई हंस देता, पिता जी कहते, "जोक सुनाने वाले तीन प्रकार के होते हैं. सबसे खराब प्रकार का वह जो जोक सुनाते समय हंसता है, यद्यपि उसके सुनने वाले नहीं हंसते, दूसरे प्रकार का अपने श्रोताओं के साथ हंसता रहता है, और सबसे अच्छा वह होता है, जो स्वयं नहीं हंसता. यह बात वह अपने श्रोताओं पर छोड़ देता है."

उन्होंने कहानी सुनाते समय हमारे श्रोताओं को ऊबता देखने की परेशानी से बचने के लिए न हंसने की सलाह दी.

जब मैं वाग्विदग्ध हो जाता या श्लेष में बोलता, वह कहते, "तुम्हारी वाग्विदग्धता एक लॉटरी की तरह है. जीतने के नम्बर कुछ ही हैं. अधिकांश ’अलेग्री’ (allegri ) शब्द लिखी खाली टिकटें हैं." हर बार मैं समझता और आशा करता कि मैंने बुद्धिमानीपूर्ण टिप्पणी की थी और हताश अनुभव करता, वह कहते, "अलेग्री’ अथवा "हार गये".

जब कभी मैं दुर्घटनावश, अपने या किसी अन्य के कपड़े फाड़ देता या गंदे कर देता अथवा दिये गये काम को नहीं करता और किसी कारण मैं कर नहीं पाया कहकर अपनी सफाई पेश करता, वह कहते :

"इसीलिए मैं तुम्हें डांट रहा हूं कि दुर्घटनावश ऎसा कर रहे हो. तुम्हें प्रयत्न करना चाहिए कि ऎसी दुर्घटनावश न होने पाये."

उनकी दूसरी चेतावनी होती :

"जब तुम कोई काम करो, भली प्रकार से करो. यदि तुम नहीं कर सकते या करना नहीं चाहते , उसे बिल्कुल मत करो."

पिता जी मित्रों अथवा रिश्तेदारों के बीच घनिष्टता पसंद नहीं करते थे. उनकी टिप्पणी थी : "ऎसे मित्र हैं जो एक-दूसरे के पीठ पीछे बुराई करते हैं और कहते हैं -- ’अच्छे पुराने बदमाश !’ अथवा ’प्यारे बूढ़े कुत्ते’. "यह अमिकोशोन्स्त्वो (amicoshonstvo- - सुअरों की मित्रता) है."

जब पिता जी लिखते, न तो वह और न ही परिवार का कोई दूसरा सदस्य यह कहता कि वह काम कर रहे हैं, लेकिन वह सदैव व्यस्त रहते थे. वह ग्रीष्मकाल में अपने को अधिक व्यस्त नहीं रखते थे, बल्कि तीन महीने वह आराम करते थे. वर्ष के शेष दिनों , शरद के कुछ दिनों को छोड़कर जब कभी वह पूरा दिन शिकार में व्यतीत करते, वह प्रायः प्रतिदिन काम करते थे. जब वह व्यस्त होते, उनके कमरे में जाने का कोई साहस नहीं करता था, मेरी मां भी नहीं. बिना व्यवधान उन्हें पूरी तरह शांति और निश्चिन्तता की आवश्यकता होती थी. उनकी स्टडी बड़ी इटैलियन खिड़कीवाले कमरे में थी. उसके दो ओर दरवाजे थे, जिनमें एक डायनिंग रूम और दूसरा ड्राइंगरूम की ओर खुलते थे, और उन्हें वह बंद रखते थे. साथ वाले कमरे में भी हम शांत और सतर्कतापूर्वक प्रवेश करते थे --- यही हमें आदेश थे. ऎसे समय डायनिंग रूम में पियानो बजाने का तो प्रश्न ही नहीं था, क्योंकि पिता जी का कहना था कि वह संगीत नहीं सुन सकते भले ही वह कितना ही धीमे क्यों न बजाया जाये.

१८५७ में पिता जी ने चेपिझ में एक कुटीर बनवायी थी, जहां वह गर्मियों में लिखने और पढ़ने के लिए जाते थे.

काम के बाद पिता जी टहलने अथवा घुड़सवारी के लिए जाते थे. कभी -कभी उनका भ्रमण सप्रयोजन होता, जब उन्हें जागीर में कुछ काम होता, शिकार के लिए जाना होता, किसी से मिलना होता अथवा वहां ठहरना होता. जब उन्हें कोई प्रयोजन नहीं होता वह प्रायः जुसेस्का (राज्य का जंगल ) अथवा राजमार्ग तक जाते थे .

उद्देश्यहीन टहलना संभवतः उन्हें अधिक़ लाभप्रद प्रतीत होता था. उसमें वह अपनी लेखन सामग्री संचयित कर लाते थे. उस विशाल राजकीय जंगल में वृक्षहीन स्थल, जिन्हें वह अत्यधिक पसंद करते थे, अल्प-प्रयुक्त सड़कें, निकुंज, और दर्रों का वन्य-दृश्य , उसकी एकांतता, हरीभरी वानस्पति , आदि जंगल के आदिम बोध को संप्रेषित करते थे.

पिताजी को ज्ञात था कि कैसे पढ़ते हैं . उनकी स्मरण शक्ति असाधारण थी. जब हम यास्नाया पोल्याना में रह रहे थे वह बहुत अधिक पढ़ते थे. उन्होंने ग्रीक भाषा सीखी , अपने लिए उसकी व्याकरण और पाठमाला की सामग्री का संचयन किया. वह ’पीटर दि ग्रे” के समय को आधार बनाकर और दिसम्बरवादियों पर उपन्यास लिखने का विचार कर रहे थे . उन्होंने चेत्यी-मिनी (Chetyi - Minie) पढ़ा. रूसी वीरगाथाओं और लोकोक्तियों और सातवें दशक के अंत में, न्यू टेस्टामेण्ट और धर्मग्रंथों की समीक्षाओं का अध्ययन किया.

इसके अतिरिक्त वह विदेशी उपन्यास पढ़ते थे, विशेषकर अंग्रेजी और फ्रेंच (अंग्रेजी साहित्य में उनकी अभिरुचि डिकेन्स, ठाकरे (Thackeray) , और घरेलू उपन्यासों में ट्रोलोप, मिसेज हम्फ्री वार्ड, जार्ज इलियट, ब्राइटन, ब्रैडन आदि के उपन्यासों में थी.

जैसा कि बहुविदित है, ब्रिटिश उपन्यासकारों में वह डिकेन्स को सर्वोपरि मानते थे. ठाकरे को वह कुछ तटस्थ पाते थे और शेष में विशेष रूप से ’एडम बेडे’ (Adam Bede) और ’दि विकर ऑफ वेकफील्ड’ (The Vicar of Wakefield ) की प्रशंसा करते थे.

फ्रेंच में वह विक्टर ह्यूगो, फ्लाबर्ट, ड्रोज, फेलर (Felier) ज़ोला, मोपासा, डौडेट (Daudet) , गॉन्कर्ट्स (Goncourts) और अन्य लेखकों को पढ़ते थे.

उन्होंने विशेषरूप से विक्टर ह्यूगो का ले मेजराब्स (Les miserables ) और Le dernier Jourd'un Condamne, और यथार्थवादियों में मोपासा के काम को विशेष महत्वपूर्ण माना था. वह फ्लाबर्ट, बाल्जाक और डौडेट के प्रति तटस्थ थे, लेकिन वह जोला को रुचि लेकर पढ़ते थे, हालांकि वह उनके यथार्थवाद को सुविचारित और उनके चित्रण को बहुत विस्तृत और अनावश्यक मानते थे.

"ज़ोला के पात्र बीस पृष्ठों तक हंस खाते रहते हैं. यह बहुत लंबा है " La terre के एक प्रसंग पर उनकी टिप्पणी थी.

उन्होंने जर्मन कथा-साहित्य अधिक नहीं पढ़ा था. मुझे नहीं याद शिलर (Schiller) , गोयेथ (Goethe) और ऑरबाक (Auerbach) के अतिरिक्त उन्होंने किसी अन्य जर्मन लेखक को पढ़ा था. वह हमें शिलर का ’दि रोबर्स’ और गोयेथ के वर्दर (Werther) और ’हर्मन एण्ड डोरोथिया’ (Hermann and Dorothea) पढ़ने की सलाह देते थे.

सातवें दशक में प्रकाशित रूसी साहित्य भी उन्होंने अधिक नहीं पढ़ा था. पत्रिकाएं वह बिल्कुल ही नहीं के बराबर पढ़ते थे, और जहां तक कथा-साहित्य की बात है, जो कुछ भी हाथ आता उस पर वह केवल दृष्टिपात ही कर पाते थे. तुर्गनेव की पुस्तकें, जैसे ही वे प्रकाशित होतीं, सर्वाधिक उन्हें आकर्षित करती थीं. जहां तक दॉस्तोएव्स्की की पुस्तकों की बात है, यदि मुझे सही स्मरण है, कुछ , जिसमें एडलेसेण्ट (Adolescent) है, की जानकारी उन्हें नहीं थी. वह अन्द्रेई पेचेर्स्की मेलिनिकोव की ’फारेस्ट्स’ और ’माउण्टेन’ को पसंद नहीं करते थे, और कहते, "शैली अवास्तविक है. वह जनसाधारण की भाषा के शब्दों के साथ खिलवाड़ करते हैं.वह किसानों के जीवन के विषय में नहीं जानते." मेलिनकोव पेचेर्स्की के विषय में उनकी एक अन्य टिप्पणी थी, "यह अवास्तविक लेखन है. उदाहरण के लिए एक स्थान पर पेचेर्स्की ने कहा है : "रूसी लोग पेड़ों को कभी नहीं छोड़ते. वह सदियों पुराने बलूत के पेड़ को टुकड़े-टुकड़े कर देते हैं और उससे डण्डा बनाते हैं."

"जो वह नहीं जानते वह यह कि मुझिक कभी-भी पुराने बलूत के पेड़ से डण्डा नहीं बनाते, बल्कि इस उद्देश्य के लिए वह सदैव जवान भुर्ज का पेड़ काटते हैं." ऎतिहासिक उपन्यासों , जैसे युरी माइलोस्लाव्स्की और काउण्ट सेरेब्रियानी (वाल्टर स्कॉट की अनुकृतियां, जिन्हें पिता जी नापसंद करते थे ), के विषय में उनका कहना था कि उनमें तत्कालीन परम्पराओं का मिथ्या निरूपण किया गया है. वह अवज्ञापूर्ण ढंग से डैनिलेव्स्की, मोर्दोव्त्सेव, सैलियस, सोलोव्योव, और दूसरे लोगों के ऎतिहासिक उपन्यासों को खारिज करते थे.

वह हम बच्चों को सलाह देते कि उत्कृष्ट साहित्य पढ़ने की जल्दबाजी न करें, जिसे हमारे बड़े होने पर और उन्हें और अधिक अच्छे ढंग से समझ सकने योग्य हो जाने पर उनकी ताजगी नष्ट न होगी. उन्होंने हमें बच्चों और बड़ों की विश्वप्रसिद्ध पुस्तकें पढ़ने की सलाह दी. उदहरणार्थ रॉबिन्सन क्रूसो, डॉन क्विक्जोट, गलिवर्स ट्रेवेल्स, विक्टर ह्यूगो का ले मिजराब्स, अलेक्जेंडर डमास की पुस्तकें, डिकेन्स (ऑलिवर ट्विस्ट और डैविड कॉपरफीलल्ड ) आदि. रूसी साहित्य में उन्होंने पुश्किन और गोगोल, तुर्गनेव के ’ए हण्टर्स स्केचेज’ और दॉस्तोएव्स्की का ’नोट्स फ्राम दि डेड हाउस’ की अनुशंसा की थी. उन्होंने कभी अपने किसी काम को पढ़ने की सलाह नहीं दी अपवादस्वरूप ’ग्रामर’ और ’रीडर’ की कुछ कहानियों को छोड़कर.

रूसी साहित्य के विषय में लेव निकोलायेविच बताते : "पीटर दि ग्रेट से पहले महाकाव्यों और इतिहास और रूसी लेखकों , भयानक इवान और कुर्ब्स्की के पत्राचार, आर्चबिशप अवाकम की जीवनी, कोतोशिखिन, पोसोस्कोव आदि के विषय में बहुत कम कहा गया है और अब भी वह गंभीर और ज्ञानप्रद साहित्य है."

मेरे किशोरावस्था के दौरान पुश्किन के विषय में उन्होंने सलाह दी थी कि मैं सबसे पहले उनकी - ’दि टेल्स ऑफ बेल्किन’ पढ़ूं. पुश्किन के गद्य, भाषा, शैली और रचनात्मकता के विषय में उनके विचार बहुत उच्च थे. ’दि क्वीन ऑफ स्पेड्स’ को वह रचनात्मक निष्पादन का प्रतिमान मानते थे.

कविता के प्रति पिता जी का विचार पूरी तरह नकारात्मक था. उनका कहना था कि कविगण कविता और छंद, जिसमें भाषा और विम्बविधान की लयात्मकता होनी चाहिए, को जटिल बना देते हैं. उनके पास अपने विचारों की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अभाव होता है. वह कुछ ही कवियों को महव देते थे - त्युचेव, लर्मन्तोव, फेत, और निश्चय ही पुश्किन. जब मैंने एक बार टिप्पणी की कि पुश्किन कविता में ही सोचते हैं, उन्होंने मुझसे सहमति व्यक्त की थी.

एक व्यक्ति के रूप में, सहानुभूति के साथ , वह पुश्किन का सम्मान करते थे. वह पुश्किन को एक सच्चा इंसान मानते थे, जिसने अपनी कमजोरियों के प्रति आंखें बंद नहीं की थीं, और जो, यदि वह समझौता करता तो कर्म में, विश्वास में कभी नहीं. मुझे याद नहीं कि कहां उन्होंने एक मित्र के साथ पुश्किन का संवाद सुना था जिससे वह नेव्स्की प्रोस्पेक्ट के यहां मिले थे.

"मैं एक नीच व्यक्ति जैसा अनुभव कर रहा हूं." पुश्किन ने कहा.

"क्यों?" उनके मित्र ने पूछा.

"मैं अभी-अभी जार से मिला और उससे बात करने के लिए झुका."

सातवें दशक के अंत में ओटेचेस्टवेन्निये जपिस्की (Otechestvenniye Zapiski) पत्रिका की एक प्रति यास्नाया पोल्याना में प्राप्त हुई. पिता जी ने रुचिपूर्वक उसे पढ़ा, खासकर शेंन्द्रिन (Shchendrin) और एंगेलहर्ड (Engelhardt) का ’लेटर्स फ्राम दि विलेज’. उन्होंने हमें शेंद्रिन के ’ए ब्राड’ के अंश पढ़कर सुनाये. पतलून और बिना पतलून वाले बच्चों के मध्य हुए संवाद ने उन्हें इतना हंसाया कि वह चीख उठे थे.

पिताजी जंगलों , खेतों, चारागाहों और आकाश की सुन्दरता को प्यार और प्रशंसा करते थे जैसा कि कुछ और लोग करते हैं. वह कभी-कभी कहते, "ईश्वर ने कितने प्रकार के वरदान प्रदान किये हैं. प्रकृति अत्यधिक परिवर्तनीय है. प्रत्येक दिन वह पहले से भिन्न होती है, प्रतिवर्ष मौसम अप्रत्याशित होता है."

उनकी दृष्टि एक लैण्डस्केप पेण्टर की थी, हालांकि कला के इस प्रकार को वह निम्नकोटि का मानते थे. उदाहरण के लिए एक बार मैंने उन्हें चिल्लाकर कहते सुना, "काले बलूत के जंगल की पृष्ठभूमि के विपरीत पीली राई कितनी प्यारी दिख रही है. एक लैण्डस्केप पेण्टर के लिए अच्छा विषय है."

कभी -कभी वह आकाश और बादलों के बारे में कहते, "कितनी आश्चर्यजनक रोशनी है. यदि कोई कलाकार ऎसा एक चित्र बनाए तो कोई भी उस पर विश्वास नहीं करेगा. उसे अपनी कल्पनाशक्ति से पलायन का दोषी ठहराया जायेगा."

कभी-कभी टहलकर लौटते समय वह हमारे क्षेत्र में विरल उपलब्ध फूल लेकर आते, अथवा असाधारण रूप से बड़ा भुट्टा. वसंत में -- पहाड़ी बादाम की बौराई गुलाबी टहनी, हल्के रंग वाली पत्ती अथवा अनोखे आकार के बीज वाली फली. हमें दिखाते हुए वह स्वयं उनकी प्रशंसा किया करते थे.

एक निर्मल रात उन्होंने हमें तारामण्डल के विषय में बताया. कभी उनकी रुचि खगोल विज्ञान में रही थी. (स्पष्टतया मीमांसात्मक खगोल विज्ञान) और उन्होंने तारों के नाम बताये और तारा, ग्रह और धूमकेतु में अंतर समझाया था.

कभी-कभी वह किसानों के जीवन के विषय में बताते, विशेषरूप से यास्नाया पोल्याना के किसानों के विषय में . वह उनके घरों में जाते, उनसे बातें करते, कभी -कभी उन्हें सलाहें देते, उनकी समस्याओं पर बातचीत करते और उनके प्रश्नों के उत्तर देते. किसान अपने पारिवारिक मसले, यहां तक अपनी गोपनीय बातें उन्हें बताते. उन्होंने एक बहुत ही गोपनीय बात बतायी कि भगोड़ा अपराधी रिबिन गांव में दुर्नोसेन्कोव के घर में छुपा हुआ है.

एक अन्य अवसर पर उन्होंने बताया कि एक किसान राजमार्ग के निकट गड्ढे में गिरकर दफ्न हो गया , जहां वे रेतीली जमीन खोद रहे थे. वह किसानों के साथ गये थे, जिन्हें खोदकर लाश निकालनी थी और बोले थे कि किसान वीरोचित भाव से इस खतरे को अलक्षित करके गये थे जबकि वे स्वयं उसमें दफ्न हो सकते थे.

वह किसानों के काम और उनसे संबन्धित सुक्ष्मतम विवरण जानते थे और परीक्षा लेते हुए हमसे पूछते, "जोतने के काम आने वाले उपकरणॊं के भिन्न भागों के नाम बताओ और बताओ कि उन्हें कैसे जोड़ा जाता है." अथवा "हल के हिस्सों के नाम बताओ." हमें उस विषय का पूरा ज्ञान था, फिर भी जो सूचना हम नहीं दे पाते उसकी जानकारी वह स्वयं हमें देते थे.

कभी-कभी वह हमें बताते कि उस समय उनके दिमाग में क्या चल रहा है ---- एक बार उन्होंने समय मापने का विचार प्रस्तुत किया. उहोंने कहा कि समय मापने के दो पैमाने हैं ---- एक वस्तुनिष्ठ और दूसरा आत्मनिष्ठ. वस्तुनिष्ठ रूप में हम समय को वर्ष , दिनों और घण्टों आदि में मापते हैं, और आत्मनिष्ठ रूप में हमने जैसा अनुभव किया.

जो पुस्तकें चर्चित हो जाती हैं उनके लिए वह लैटिन के एक कथन को उद्धृत करते हुए कहते, "अपने पाठकों की योग्यता पर निर्भर हर पुस्तक का अपना भाग्य होता है ." उन्होंने देखा कि प्रायः कथन का पूर्वार्द्ध ’पुस्तकों का अपना भाग्य होता है’ ही उद्धृत किया जाता है, और इस प्रकार उसका वास्तविक अर्थ खो जाता है. उनके अनुसार, ’किसी पुस्तक की सफलता उसके पाठकों के बौद्धिक विकास पर निर्भर होती है.’

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1 टिप्पणी:

बेनामी ने कहा…

Sir,

Thanks for sending me your write-up about Tolstoy.

Though I am not in a position to look at his wife's diary, for the time being, due to lack of time. As you are a scholar and have delved deeper into the rev'd Tolstoy's life, I am very keen to know that he was a staunch supporter of the movement for vegetarian life since he believed that killing of animals for meat-production is hazardous for the environment.

However I appreciate your effort to explore these great writers.

With regard,

JL Gupta