(जैसलमेर - समसैंड ड्यून का एक चित्र - २९ .११.२०१४)
(कुलधरा का एक ध्वस्त मकान)
(कुलधरा का मंदिर)
(बड़ा बाग में शालवाहन की छतरी)
(गढ़ी सर- चित्र )
(जैसलमेर किला का एक दृश्य)
(मंदौर गार्डन)
मंदौर गार्डन में श्रीमती छाया चन्देल
अतीत
में जीते हुए कुछ दिन
रूपसिंह
चन्देल
वीर प्रसूता राजस्थान
मुझे सदा आकर्षित करता रहा. चित्तौड़ और उदयपुर (जनवरी,१९९१) की यात्रा के पश्चात ही
तय किया था कि अगले वर्ष जैसलमेर और जोधपुर
की यात्रा करूंगा, लेकिन जीवन के लंबे चैबीस वर्ष पश्चात वह सुअवसर आ पाया. दिल्ली-जैसलमेर
एक्सप्रेस अपने निर्धारित समय से दो घण्टे विलंब से २९ नवंबर,१४ को जैसलमेर पहुंची.
चलने से पहले गूगल पर तापमान का जायजा लिया था. दिन का तापमान २७-२८ था. लेकिन मित्रो
ने कहा कि वहां रातें बहुत ठंडी हो जाती हैं. हमने उस भयंकर ठंड की कल्पना की और ढेर
सारे गर्म कपड़े रख लिए. वे कपड़े यात्रा के अंत तक नहीं निकले, क्योंकि वहां न दिन ठंडे
थे और न ही रातें. पौने दो बजे हम होटल मूमल पहुंचे, जहां सभी आधी बांह की शर्ट पहने
घूम रहे थे. होटल मूमल राजस्थान टूरिज्म डेवलमेण्ट कार्पोरेशन का होटल है और शहर के
अंतिम छोर पर अवस्थित है. आस-पास हरियाली
और बेहद ही शांतपूर्ण वातावरण. कर्मचारियों का आदरपूर्ण व्यवहार और साफ-सफाई. ऑफिस
में पहली मुलाकात आनन्द सिंह से हुई. कमरा अलाट करने की प्रक्रिया के पश्चात उन्होंने
टूर पैकेज का पर्चा सामने बढ़ा दिया. हम जिस टैक्सी से आए थे उससे रास्ते में ही घुमाने
की बात तय कर चुके थे, लेकिन आनन्द सिंह के बढ़ाए पर्चे ने हमें पसोपेश में डाल दिया.
यद्यपि वह भी एक निजी व्यवस्था ही थी, लेकिन उसका माध्यम होटल प्रबंधन था, अतः हमने
स्टेशन से होटल छोड़ने आए टैक्सी चालक को फोन करके मना कर दिया.
हमारे पास ढाई दिन
थे. अर्थात २९ नवंबर का वह शेष दिन और आगे के दो दिन. टैक्सी ऑपरेटर नत्थू सिंह ने
सलाह दी कि उस दिन का शाम का समय हम कुलधरा और सम सैंड ड्यून और वहां के किसी कैंप
में राजस्थानी लोक गायन और लोक नृत्य देखने में बिताए. डिनर की व्यवस्था पैकेज में
ही कैंप में होनी थी. चार बजे हम इन स्थानों के लिए निकल पड़े. उस दिन हमे घुमाने के
लिए उसने कायम खां नामक ड्राइवर को भेजा.
मूमल से सम सैंड ड्यून
की दूरी ४२ कि.मी. है. लागभग आधी दूरी तय करने
के पश्चात मुख्य मार्ग से बायीं ओर एक सड़क फूटती है, जिसपर कुलधरा गांव के खंडहर हैं. इसे एक ’त्रासद गांव’ (ज्तंहमकल अपससंहम) के रूप
में जाना जाता है. २५० वर्ष पहले जैसलमेर राज्य का यह एक बड़ा गांव था. गांव के निवासी
इसे रात-रात में ही खाली करके अन्यत्र चले गए थे.
गांव में प्रवेश के
लिए एक द्वार बनाया गया है, जहां टिकट लेकर ही गांव देखने जाया जा सकता है. यह किसकी
व्यवस्था है यह पूछने पर कायम खां ने बताया कि आसपास के गांवों की पंचायत की ओर से
यह व्यवस्था की गयी है, जिससे प्राप्त धन से कुलधरा के अवशेषों को बचाने के प्रयास
किए जाते हैं. कायम खां ने मंदिर के निकट गाड़ी रोकी. मंदिर, उसके निकट की छतरी और मंदिर
के ठीक सामने का घर काफी बेहतर स्थिति में दिखे. अनुमान है कि वह घर गांव के प्रधान
का रहा होगा. लेकिन शेष गांव पूरी तरह खंडहर हुआ अतीत की समृद्धता का आभास देता दिखाई
दे रहा था. मकानों के सामने की गलियां पन्द्रह से बीस फुट की थीं. घर की दीवारों को
पत्थरों को जोड़कर बनाया गया था. कहीं भी चूने का उपयोग नहीं किया गया था. दरवाजों पर
बड़ा पत्थर इसप्रकार रखा गया था कि भयानक भूकंप में भी वह स्थिर रहे. दरवाजों की चैड़ाई
ढाई से साढ़े तीन फुट थी. ऊंचाई का अनुमान कठिन था, क्योंकि ढाई सौ वर्षों में मलबे ने बहुत कुछ ढक
दिया है. कुछ लोगों ने उसकी आबादी के विषय में लिखा है कि वह १५०० की आबादी वाला गांव
था, लेकिन गांव जितना बड़ा है उससे यह संख्या कम प्रतीत होती है. वहां छोटे-बडे सैकड़ों
मकान थे. स्थानीय लोगों के अनुसार भी उसे जैसलमेर राज्य का उस समय का सबसे बड़ा गांव
होने का गौरव प्राप्त था. मेरा अपना अनुमान है कि वहां लगभग तीन हजार लोग निवास करते
रहे होंगे.
(कुलधरा गांव का एक दृश्य)
कुलधरा पालीवाल ब्राम्हणों
का गांव था. पालीवालों के अतिरिक्त वहां जो अन्य जातियां रहती थीं उनमें स्वर्णकार
और कुम्हकार आदि जातियां भी थीं, लेकिन इनकी संख्या अधिक न थी. कुलधरा से आगे उसी रास्ते
में खाभा नामक स्थान है, जो कभी उस नगर का सबसे बड़ा परगना था. खाभा क्षेत्र में ही
कुलधरा सहित पालीवालों के चैरासी गांव थे, जो सिन्धु तक व्यापार किया करते थे. हजारों
मन सामान ऊंटों पर लादकर ले जाया जाता था. अधिकांश सोने-चादी के आभूषणों के व्यवसाय
से जुड़े हुए थे. यही नहीं सिन्धु और अमरकोट के व्यापारी भी वहां आते थे. यह क्षेत्र
पाकृतिक और भौगोलिक दृष्टि से जैसलमेर के अन्य क्षेत्रों से बेहतर था. इतिहाकारों के
अनुसार वहां मूंग,मोठ,तिल,ग्वार, गेहूं,चना, बाजरा, ज्वार आदि फसलें उगायी जाती थीं.
कुलधरा सहित सभी चैरासी गांव एक ही रात खाली
हुए थे. बड़ा गांव होने के कारण कुलधरा के अवशेष आज भी मौजूद हैं. इन गांवों के खाली
होने की जो कहानी ज्ञात हुई वह बहुत ही त्रासद है.
यह जैसलमेर के महारावल
मूलराज द्वितीय (१७६१-१८२०) के शासन काल की बात थी. उनके दीवान अर्थात प्रधानमंत्री
मेहता स्वरूपसिंह की हत्या उनके बड़े पुत्र राय सिंह ने कुछ सामन्तो के बहकावे में आकर
वि.सं.१८४० में मकर संक्रान्ति के दिन भरी सभा में कर दी थी.उसने अपने पिता को कैद
कर स्वयं राजा बन बैठा था. लेकिन वह केवल तीन माह चार दिन ही शासन कर सका. मूलराज के
समर्थक सामन्तों ने उसे पदच्युत कर उन्हें कैदमुक्त किया था. उन सामन्तों ने स्वरूपसिंह
के ग्यारह वर्षीय पुत्र सालिम सिंह को दीवान बनाया, लेकिन तीन वर्षों तक उसका चाचा
उसके स्थान पर कार्यभार संभालता रहा. चैदह वर्ष की आयु में सालिम सिंह ने दीवान की गद्दी संभाली. सालिम सिंह बहुत चतुर और
कूटिनीतिज्ञ था. सक्षम स्थिति में आते ही उसने सबसे पहले राय सिंह को रास्ते से हटाया.
रायसिंह और उसकी पत्नी को देवा-कोट में सूखी घास भरकर आग लगवा दी, जिसमें दोनों जलकर
राख हो गए थे. रायसिंह के पुत्रों को रामगढ़ में विष देकर मरवा दिया. उसने एक-एक कर
अपने सभी विरोधी सामन्तों की हत्याएं करवायीं. जोरावर सिंह, खेत सिंह,अभयसिंह,बहादुर
सिंह और जालिम सिंह आदि की हत्याएं भी उसने जहर देकर करवायीं. महारावल मूलराज द्वितीय
उसकी हाथ की कठपुतली बन गए. एक प्रकार से शासन उसके हाथ में था. सालिम सिंह और उसके
सहयोगियों के अत्याचार से पूरे राज्य की जनता में त्राहि मच गयी. डाका, चोरी, लूट-पाट,
और स्त्रियों का अपहरण आम बात थी. वह बेहद विलासी व्यक्ति था. ब्रिटिश प्रतिनिधि ने
१७ दिसम्बर,१८२१ को जो पत्र अपने उच्चाधिकारियों को भेजा उसमें उसने लिखा, “मेहता सालिम
सिंह के लोमहर्षक अत्याचार से रजवाड़े के लोग दुखी हो रहे हैं. पालीवाल धनवानों से मूलधन
की सहायता लेकर समस्त बनिये भारत में व्यापार करते हैं, किन्तु मेहता के अत्याचारों
से इन धनवान परिवारों के लगभग पांच हजार लोग जन्मभूमि छोड़कर निर्वासित जीवन बिता रहे
हैं.” राजस्थान के इतिहासकार कर्नल जेम्स टॉड ने लिखा, “जैसलमेर के व्यापारी जैसलमेर
से बाहर जाने के लिए ब्रिटिश हुकूमत से अनुरोध करते हैं, लेकिन सालिम सिंह की क्रूरता
से भयभीत वे दूसरे स्थान पर जाने का साहस नहीं जुटा पाते. जो जाने का प्रयास करते हैं
सालिम सिंह उन्हें मार्ग में लुटवाकर उनकी हत्या करवा देता है.”
कुलधरा के साथ भी उस
लंपट नर-पिशाच की कहानी जुड़ी हुई है. बताया गया कि एक बार वह अपने सामन्तों के साथ
कुलधारा गांव के मध्य से गुजरा. एक युवती कुंए में पानी भर रही थी. युवती अत्यंत सुन्दर
थी. दुश्चरित्र सालिम सिंह युवती के सौन्दर्य पर मुग्ध हो गया. उसने अपने सामन्तों
को आदेश दिया कि वह युवती के पिता को उसके सामने हाजिर करें. उसने पिता से कहा, “मैं
तुम्हारी बेटी से विवाह करना चाहता हूं”. सालिम सिंह का प्रस्ताव सुन पिता का चेहरा
पीला पड़ गया. वह कोई उत्तर नहीं दे पाया. सालिम को इंकार करने का अर्थ था मृत्यु. उसका
कोई उत्तर न सुन सालिम सिंह बोला, “तीन दिन का समय दे रहा हूं. यदि विवाह प्रस्ताव
स्वीकार नहीं किया तो मैं तुम्हारी लड़की को बलात उठवा लूंगा.” यह बता दूं कि सालिम
के सात पत्नियां थीं.
कुलधरा के पालीवाल
ब्राम्हणों के लिए उस अत्याचारी के साथ गांव की बेटी ब्याह देने की अपेक्षा मृत्यु
वरण स्वीकार था. आनन-फानन में संदेश राज्य के अन्य तिरासी पालीवाल ब्राम्हण गांवों
के प्रधानों के पास भेजा गया. दूसरे दिन सभी गांवों के प्रधान कुलधरा में एकत्रित हुए.
निर्णय किया गया कि उस आततायी के साथ उस लड़की के विवाह के बजाए वे सभी अगली रात अपने
गांव खाली करके कहीं अन्यत्र जा बसेंगे. और तीसरे दिन की रात कुलधरा सहित सभी गांवों
के पालीवाल ब्राम्हणों ने पलायन कर दिया था. निश्चित ही उतने कम समय में वे अपना बहुत
कुछ पीछे छोड़ जाने के लिए विवश हुए होंगे.
कहते हैं कि वे सब पाली नामक स्थान में जा बसे, लेकिन प्रामाणिक रूप से यह कह
पाना कठिन है. कुछ इतिहासकारों का मानना है कि उन्हें जोधपुर के राजा ने स्थान उपलब्ध
करवाया और वे वहां बस गए थे. उनमें से कुछ लोग पीछे छूटी सम्पत्ति, जिसे उन्होंने बहुत
परिश्रम से कमाया था, के शोक में असमय मृत्यु का शिकार हो गये थे.
महारावल मूलराज की
मृत्यु के पश्चात उनके तीसरे पुत्र जइतसिंह के पुत्र महासिंह के तीसरे पुत्र गजसिंह अर्थात मूलराज के प्रपौत्र को अपने अनुकूल
समझ सालिम सिंह ने उनका उत्तराधिकारी घोषित करवाया और उनका विवाह उदयपुर में करवाया,
लेकिन गजसिंह एक कुशल शासक थे और सालिम सिंह के अत्याचारों और स्वेच्छाचारिता से वाकिफ
थे. गजसिंह ने इस आततायी से मुक्ति पाने के लिए अनासिंह नामक राजपूत को कार्यभार सौंपा.
सालिमसिंह न्यायालय से निकलकर अपने विलास महल मोतीमहल की ओर जा रहा था कि अनासिंह ने
विषबुझी तलवार से सालिम सिंह पर आक्रमण कर दिया. सालिम सिंह बच तो गया, लेकिन तलवार
का जहर उसके शरीर में व्याप्त हो गया था. परिणामतः छः माह तक नर्क भोगने के पश्चात
वि.सं.१८८१ को उसकी मृत्यु हो गयी थी.
लोकश्रुति है कि कुलधरा
में रात में छायाएं डोलती दिखाई देती हैं. मानव स्वर सुनाई पड़ते हैं. यह कितना सच है
कहना कठिन है. संभव है रात में ऐसा कुछ लोगों ने अनुभव ने किया हो. निश्चित ही अध्ययन
और पुरातात्विक दृष्टि से यह एक ऐसा उजड़ा हुआ गांव है जिसकी ओर न ’भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग’, न राजस्थान सरकार ध्यान दे रही है और न ही जिला प्रशासन. इसे संरक्षित किए
जाने की आवश्यकता है.
गांव से निकलते समय
हमें यह आशंका सताने लगी थी कि हम सम सैंड ड्यून में सूर्यास्त देख पाएगें या नहीं.
सम एक गांव है जहां सूमा जाति के पंवारों का निवास था. सूमा से ही सम बना. यह रेतीला
क्षेत्र है और लगभग ३० मील के दायरे में फैला हुआ है. जैसलमेर से सम को जाने वाली सड़क
के दाहिनी ओर पथरीली-रेतीली समतल भूमि थी,जिस पर कू के पौधे और दूर-दूर कीकर-करील के
पेड़ थे, जिनमें बकरियों के झुंड चारा खोजते दिखाई दे रहे थे. दाहिनी ओर रेतीला हिस्सा
था.
कायम खां ने मुख्य मार्ग पर आते ही गाड़ी तेज रफ्तार
से दौड़ानी शुरू की. डामर की सड़क बिल्कुल साफ थी- - चिकनी-धुली-धुली. सड़क के दोनों ओर
रेगिस्तान और उस पर बर्फीले फाहों की चादर-सी
ओढ़े मारवाड़ी भाषा में कू पुकारे जाने वाले पौधे हमारे साथ दौड़ रहे थे. जब हम
सम सैंड ड्यून पहुंचे सूर्यास्त सन्निकट था. हमने पहले तय किया था की रेत के टीलों
तक हम ऊंटों पर नहीं जाएगें. चलकर जाएगें, लेकिन हमें अपना निर्णय बदलना पड़ा था. कायम
खां ने उस कैंप के सामने गाड़ी रोकी जहां हमें सूर्यास्त देखने के बाद लोक गायन और नृत्य
सुनना-देखना था. सड़क किनारे दायीं ओर बहुत पहले से ऐसे कैंप मिलने शुरू हो गए थे. एक
बड़े समतल भू-भाग को चारों ओर से घेर कर उनके बीच में सांस्कृ-तिक कार्यक्रम के लिए
स्थान को पक्का किया गया था. उसके चारों ओर पर्यटकों के ठहरने के लिए तंबू गाड़े गए
थे. कुछ कमरे भी बनाए गए थे, जहां पर्यटकों को रात्रि भोजन करवाया जाता था. उस दूर-दराज
रेगिस्तानी क्षेत्र में बिजली-पानी की पर्याप्त सुविधा थी. पाकिस्तानी सीमा वहां से
मात्र बीस किलोमीटर दूर है. ऐसे अनेकों कैंप मिले हमें, जहां होटल वाले या टूर ऑपरेटर्स
की सेटिंग थी.
कैंप के सामने गाड़ी
के रुकते ही ऊंट वालों ने हमें घेर लिया. सामने रेत के टीलों पर सैकड़ों पर्यटक और ऊंट
दिखाई दे रहे थे. अंततः हमने ऊंट गाड़ी लेने का निर्णय किया. लेकिन रेत के टीले पर पहुंचते
ही हमें निराशा हाथ लगी. क्षितिज में हल्के बादल हमारे पहुंचने से पहले ही आसन जमा
चुके थे. सूर्य मां के आंचल में छुपे बच्चे की भांति केवल अपनी आंखें ही मुलमुला रहा
था. अंधेरा होने से कुछ मिनट पहले ही हम वापस लौट आए. कैंप में प्रविष्ट होते समय शांति
नामक युवती ने तिलक लगाकर हमारा स्वागत किया. यह वही युवती थी जिसने एक अन्य युवती
और शायद आठ-दस वर्षीया अपनी पुत्री के साथ मंत्र-मुग्घ कर देने वाले राजस्थानी नृत्य
प्रस्तुत किए थे. जलालुद्दीन तथा उसके साथियों के लोक गायन ने हमें मुग्ध किया. रात
नौ बजे हम वहां से निकले. रास्ता घुप अंधेरे
में डूबा हुआ था. दिन में दोनों ओर दौड़ता रेगिस्तान और कू के पौधे गहरी नींद में सो
चुके प्रतीत हो रहे थे.
(समसैंड ड्यून में मैं- २९.११.१४ की शाम)
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अगले दिन सुबह नौ बजे
१२० कि.मी. दूर पाकिस्तान सीमा से २० कि.मी. पहले अवस्थित तनोत माता मंदिर देखने के
लिए निकलना था. अब हमारे साथ प्रकाश नामका २०-२२ वर्षीय युवक था. सीधा-सौम्य और सधी
हुई गाड़ी चलाने वाला. हाई स्कूल उत्तीर्ण वह एक प्रकार से हमारा गाइड भी था. रास्ते
में पड़ने वाले हर गांव के विषय में उसने हमें विस्तार से बताया. गाड़ी से चलते हुए मैंने
मुरुभूमि के कुछ चित्र लिए. मार्ग में रणाऊ नामका एक गांव था, जिसके विषय में उसने
बताया कि वह गांव मिट्टी और गोबर को मिलाकर बनाया गया है. दूसरे गांवों से बिल्कुल
अलग है. “आप उतरकर गांव अवश्य देखें.” वह बोला. गांव के निकट पहुंच उसने गाड़ी रोकनी
चाही, “साहब उन घरों की तस्वीर खींच सकते हैं.” मैंने गाड़ी में बैठे हुए ही सामने पड़ने
वाले मकान की मोबाइल से तस्वीर ली,क्योंकि हम कैमरा दिल्ली में ही भूल आए थे. मैंने उसे गाड़ी आगे बढ़ाने के लिए कहा. रणाऊ में फौजी चैकी थी और कोई बड़ा अफसर कुछ सैनिकों के साथ
गांव के अंदर जाता दिखा तो मैंने प्रकाश से
उस विषय में पूछा. उसने कहा, “साहब, यहां फौज बहुत चैकसी बरतती है, क्योंकि प्रायः
पाकिस्तान से लोग अपने रिश्तेदारों से मिलने छुपकर आ जाते हैं.” रणाऊ गांव के बिल्कुल
सामने सड़क पार रेत के ऊंचे टीले दूर तक हमारे साथ चलते आ रहे थे,लेकिन गांव की ओर पथरीला-रेतीला
मैदान था. उन रेत के टीलों के विषय में प्रकाश
ने बताया, “गर्मियों में आंधी में रेत उड़कर घरों के चारों ओर इकट्ठा हो जाती है.” मैंने
पूछा, “तब भी लोग यहां रहते हैं?”. “क्या करें
साहब. जमाने से रह रहे हैं---कहां जाएं?”
रास्ते भर हमें भेड़-बकरियों
के झुंड कू के पौधों और करील-सांगरी के पेडों पर मुंह मारते दिखाई दे रहे थे. कहीं-कहीं
इक्का-दुक्का गाएं भी थीं. राजस्थान सरकार ने एक अच्छी बात यह की है कि गांबों में
पानी और बिजली की अच्छी व्यवस्था है. जब से इंदिरा कैनाल वहां पहुंची पीने के साथ सिंचाई
की सुविधा हो गयी है. हालांकि वहां दूर कहीं दो-चार खेत ही दिखाई दे रहे थे. इंदिरा कैनाल रास्ते में मिली, जिसमें पानी अधिक
नहीं था. प्रकाश ने बताया कि एक दिन के अंतराल से पानी छोड़ा जाता है.
(तनोत माता मंदिर - चित्र-३०.११.१४)
ग्यारह बजे हम तनोत
माता मंदिर में थे. मंदिर की व्यवस्था सीमा सुरक्षा बल के हाथ है. इस मंदिर का निर्माण
भाटी राजाओं ने करवाया था. जैसलमेर में भाटी राजाओं का शासन रहा. इनका विशद इतिहास
है. कहते हैं कि ये अफगानिस्तान से भारत आए. इनके एक राजा गज सिंह ने गजनी या गजनवी
नगर बसाया था. लेकिन आधुनिक खोजों के अनुसार वह नगर अफगानिस्तान में न होकर पाकिस्तान
के इस्लामाबाद के निकट था. यवनों के अपने पर होने वाले निरन्तर आक्रमणों के कारण वे
पंजाब-गुजरात होते हुए अति सुरक्षित स्थान खोजते वहां पहुंचे. उस क्षेत्र के चुनाव
का कारण उसके आसपास मीलों फैला थार मरुस्थल था. ऐसे स्थान पर कोई आक्रमण करने का दुस्साहस
नहीं कर सकता था. तनोत माता को भाटी शासकों ने अपनी कुल देवी स्वीकार किया. प्राप्त
उल्लेख के अनुसार तनोत देवी का जन्म वि.सं. ८०८ की चैत्र नवमी दिन मंगलवार को हुआ था.
उनका बचपन का नाम आंवणी देवी था. वह छः बहने थीं. सभी बहुत ही धार्मिक प्रकृति की थीं.
कालांतर में वह तनोत नाम से जानी गयीं. यही कारण है कि चैत्र की रामनवमी को वहां विशाल
मेला लगता है. श्रृद्धालुओं की जबर्दश्त भीड़ होती है. बहुत से श्रृद्धालु सैकड़ों मील
से पैदल चलकर देवी दर्शन के लिए आते हैं. लेकिन मेरा आकर्षण कुछ और ही था. मुझे बताया गया था कि १९६५ के भारत- पाकिस्तान युद्ध
के दौरान पाकिस्तान ने मंदिर के आसपास ४००० गोले दागे थे, जिनमें से ४५० गोले मंदिर
परिसर में गिरे और उनमें से एक भी गोला फटा नहीं था. उनमें से कुछ गोले आज भी पर्यटकों
के अवलोकनार्थ मंदिर में सुरक्षित रखे हुए हैं. उस समय हमारे एक सौ बीस भारतीय वीरों
ने पाकिस्तान की बड़ी सेना के छक्के छुड़ा दिए थे.
बाद में हवाई हमलों ने पाकिस्तानी सैनिकों
की कब्र वहीं बना दी थी. उस दिन के पश्चात उस सामान्य-से दिखने वाले मंदिर का महत्व
बढ़ गया. महत्व आम जनता की दृष्टि में ही नहीं भारतीय सेना और सीमा सुरक्षा बलों की
दृष्टि में भी. वहां मुझे आम लोगों की अपेक्षा दोनों बलों के जवान ही अधिक दिखाई दिए.
लगभग एक घण्टा समय
बिताने के पश्चात हम बड़ा बाग देखने के लिए वापस लौटे जो उसी मार्ग में जैसलमेर से छः
किलोमीटर की दूरी पर अवस्थित है. बड़ा बाग एक गांव है, जिसके निकट जैसलमेर राजाओं की
समाधियां बनी हुई हैं. महारावल शालवाहन (१८९६-१९१४), जवाहर सिंह(१९१४-१९४९) और गिरधरसिंह
(१९४९-१९६०) की समाधियां अलग, जबकि शेष अलग-अलग पंक्तियों में एक साथ बनी हुई हैं.
सभी के ऊपर सुन्दर छतरियां बनायी गई हैं. शालवाहन और गजसिंह की समाधि आकार-प्रकार में
सबसे बड़ी हैं. लेकिन प्रशासन की उदासीनता के कारण अब ये समाधियां नष्ट होने के निकट
हैं. कहते हैं कि एक समय बड़ा बाग में आमों का एक सुन्दर बाग हुआ करता था, जो अब मुझे
कहीं दिखाई नहीं दिया.
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१ दिसम्बर,१४ (सोमवार)
को सवा नौ बजे हम शहर स्थित अन्य ऐतिहासिक स्थलों को देखने निकले. होटल से दस मिनट
पैदल रास्ते पर हनुमान चैक के पास (जहां एक छोटा-सा बाजार भी है) पीले पत्थरों से निर्मित बादल विलास है जो ताजिया
की आकृति में निर्मित है. मुख्य द्वार से प्रवेश करते ही कुछ घोड़े दिखाई दिए. ये वर्तमान
राजपरिवार के हैं, जो अब यहां नहीं रहता. एक व्यक्ति घोड़ों की सेवा में व्यस्त दिखाई
दिया. बताया गया कि शाम को उन्हें खुला छोड़
दिया जाता है और वे सड़कों पर घूमते,वाहनों के आवागमन में अवरोध उत्पन्न करते, आम लोगों
के लिए खतरा पैदा करते मटरगस्ती कर अपने आप वापस लौट आते हैं. “लोग विरोध नहीं करते?”
पूछने पर बताया गया कि आज भी लोग राज परिवार का सम्मान करते हैं,इसलिए विरोध नहीं करते.
बादल विलास देखने में मेरी रुचि नहीं थी. हम
पटवों की हवेली देखने गए. पटवा जैसलमेर का बड़ा व्यापारी था, जिसने अपने पांच पुत्रों
के लिए पांच हवेलियां बनवायीं थीं. जिनमें से दो में उसके परिवार की सातवीं पीढ़ी के
कुछ लोग रह रहे हैं, दो हवेलियां सरकार के अधीन हैं और बंद हैं और जिस हवेली को हम
देख सके उसे किसी अन्य व्यापारी को बेच दिया गया है. पांच मंजिला उस हवेली का सौन्दर्य
देखते ही बनता है. वास्तुशिल्प का अद्भुत नमूना है वह. दीवारों और छतों की चित्रकारी-नक्काशी
मुग्धकारी है. नक्काशीदार स्तंभ और दीवारों पर चित्रित मोर आकर्षित करते हैं. पटवों द्वारा प्रयोग में आने वाली वस्तुएं, यहां
तक बांट-बट्टा आदि को भी प्रदर्शित किया गया है.
इससे तीन-चार मिनट की दूरी पर उन्नीसवीं शताब्दी के अंतिम काल में निर्मित नथमल
की हवेली है. नथमल राज्य का एक कुशल दीवान था.
इस हवेली का सौन्दर्य हम बाहर से ही देख सके, क्योंकि इसमें नथमल की वर्तमान
पीढियां रह रही हैं. परिवार के कुछ लोग बाहर चबूतरे पर बैठे भी दिखाई दिए थे.
नथमल की हवेली के पश्चात
हमारा अगला पड़ाव था गड्सीसर. इसका निर्माण राजा गड्सीसिंह ने करवाया था. लेक का निर्माण
१४०० ई. में हुआ, जिसका उद्देश्य बरसात के पानी को एकत्र करके नगरवासियों के लिए पानी
की सुविधा उपलब्ध करवाना था. किसी समय वह एक विशाल लेक रही होगी. लेक के प्रवेश द्वार
के दोनों ओर अनेक भव्य भवन बने हुए हैं. लेक के मध्य भी छतरीदार एक छोटा-सा भवन है.
लेकिन व्यवस्था के अभाव में गड्सीसर के सभी भवनों की स्थिति खराब है.
गड्सीसर से पांच-सात
मिनट के ड्राइव पर जैसलमेर किला है, जिसे गोल्डेन फोर्ट कहा जाता है. पीले पत्थरों
की उपलब्धता के कारण पूरे शहर के भवन पीले पत्थरों से निर्मित हैं इसलिए
इस शहर को ही गोल्डेन सिटी पुकारा जाता है. कुछ देर बाद ही हम किले की चढाई नाप रहे
थे. किला पर्याप्त ऊंचाई पर बना हुआ है. इसे जयशाल ’जैसल’ ने बनवाया था. वि.सं. १२१२
(११५५-५६) में श्रावण शुक्ल द्वादशी बुधवार
के दिन महारावल जैसल ने इस किले की नींव रखी थी. जैसलमेर के किला के निर्माण से पहले
जैसलमेर से १६ कि.मी. पश्चिम में काक नदी के किनारे स्थित लोद्रवा उसकी राजधानी थी.
भाटियों से पूर्व लोद्रवा में पंवारों का शासन था. कर्नल जेम्स टॉड के अनुसार लोद्रवा
पर राउल भाटी देवराज ने अधिकार कर लिया था,
जिसका जन्म ८३५-३६ के आसपास हुआ था. लेकिन
चैहानों ने उसकी हत्या करके किले पर अधिकार कर लिया और दीर्घकाल तक वह चैहानों के अधीन
रहा. चैहान राजा की पुत्री मूमल (होटल मूमल शायद उसीके नाम पर है) और सोढा परमार राजकुमार
महेन्द्र की प्रेमकथा भी लोद्रवा से जुड़ी हुई है. बाद में लोद्रवा पर पुनः भाटियों
ने अधिकार कर लिया. बाहरी आक्रमणों से यह स्थान सुरक्षित नहीं था. यही सोचकर जैसल ने
जैसलमेर किले का निर्माण करवाया था. उस किले के विषय में एक कहानी प्रचलित है. लोद्रवा
में बड़े किले के अभाव और आक्रमणों की संभावना भांपकर महारावल जैसल ने सुरक्षित स्थान
की खोज प्रारंभ की. वह अपने सामंतो के साथ प्रतिदिन लोद्रुवा से १५-२० कि.मी. दूर ऐसे
स्थान की खोज में जाया करता. एक दिन उसकी मुलाकात
१२० वर्षीय एक तपस्वी से हुई, जिसका नाम ईसा था. जैसल की बात सुनकर वह उन्हें ’गोरहरे’
नामक तीन कोने वाले ’त्रिकूट पर्वत’ पर ले गया.
उस पर्वत पर बने जलकुण्ड को दिखाते हुए उसने कहा, ”यह वह जलकुण्ड है जिसे कृष्ण ने अर्जुन की प्यास बुझाने के लिए अपने सुदर्शन चक्र
से खोदा था.” जैसल को उस स्थान की रमणीकता बहुत पसंद आयी और उसने त्रिकूट पर्वत पर
किला बनाने का निर्णय किया. जैसल ने उस स्थान का नाम ईसाल रखा जहां ईसा उसे तपस्या
करते हुए मिले थे. आज भी मूमल होटल और जवाहर निवास के पास का स्थान ईसाल नाम से जाना
जाता है.
लगभग सात वर्षों के निर्माण के बाद किले का एक प्रोल
तथा कुछ बुर्ज बनकर तैयार हुए. वि.सं.१२१९ में
जैसल लोद्रवा से आकर वहां रहने लगा
था. यह एक विशाल और भव्य किला है, आज जहां अनेक राजाओं के समय के सामन्तों, नौकरों
और दासियों के परिवार के लगभग पांच हजार लोग निवास करते हैं. अतः हमें किले का वही
भाग देखने को मिला जहां राजपरिवार निवास करता था. पत्थरों के ऊपर पथरों को जमाकर बनाया
गया किला बेमिसाल है.
किले से पांच मिनट
से भी कम दूरी पर उस दीवान सालिम सिंह की हवेली है, जिसका वर्णन कुलधरा गांव के संदर्भ
में पहले ही कर चुका हूं. यद्यपि प्रकाश ने दो-तीन बार कहा था कि उसमें देखने योग्य
कुछ भी नहीं है, लेकिन उत्सुकता को हम रोक नहीं पाए और टिकट लेकर हवेली देखने के लिए
उसकी सीढियां चढ़ने लगे. पहली मंजिल पर पहुंचते ही लौटने का मन होने लगा. वहां कोई परिवार
रह रहा था. गंदगी का साम्राज्य था और थीं जीर्णता ओढ़े हवेली की दीवारें. बीच में न
रुककर हम छत पर जा पहुंचे, जहां पहले से ही एक युवा दम्पति उपस्थित थे. मुझे देखते
ही पति बोला, “यहां तो कुछ भी नहीं है सर----व्यर्थ ही हम यहां आए.” उसकी पत्नी मुस्कराती
हुई हवेली के उस हिस्से के चित्र खींच रही थी जहां हम नहीं जा सकते थे. मुझे जानकारी
दी गयी कि सालिम सिंह ने हवेली सात मंजिला बनवायी थी, लेकिन बाद में उसकी तीन मंजिलों को ढहा दिया गया था. पांच मिनट बाद ही मैं नीचे
उतर आया. पत्नी तो पहली मंजिल से ऊपर गयी ही न थीं. टिकट देने
वाले व्यक्ति से मैंने दीवान सालिम सिंह की चर्चा की तो वह बोला, “सब राजनीति है साहब---उन
बातों में सचाई बिल्कुल नहीं.” मैं कहना चाहता था कि राजस्थान का इतिहासकार कर्नल टॉड
और अन्य इतिहासकारों ने उसकी क्रूरता की जो कथाएं लिखी हैं क्या वे सब झूठ हैं, लेकिन
चुप रहा, क्योंकि मुझे लगा कि वह संभवतः सालिम सिंह का कोई वंशज था.
सालिम सिंह की हवेली
से लौटते हुए मैंने ड्राइवर को फोन किया जो हमें किले के पास छोड़कर होटल लौट गया था
यह कहकर कि आप जब भी फोन करेंगे वह पांच मिनट में हमें लेने के लिए पहुंच जाएगा,.
“साहब, जैसलमेर शहर मात्र दस किलोमीटर के दायरे में बसा हुआ है. बहुत कम समय में यहां
एक छोर से दूसरे छोर पर पहुंचा जा सकता है. आबादी भी कम है और ट्रैफिक भी कम.” उसने
कहा था. और सच ही मेरे फोन करने के पांच-सात
मिनट के अंदर वह हमें लेने पहुंच गया था.
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(उम्मेद भवन)
२ दिसम्बर ,१४ (मंगलवार)
को हमें जोधपुर जाना था. जैसलमेर-जोधपुर एक्सप्रेस सुबह ६.२५ की थी. मैंने प्रकाश को
कहा, “सुबह सवा पांच बजे आ जाना.” “आप चिन्ता न करें साहब! मैं आपको तैयार मिलूंगा.”
वह हल्का हकलाता था और बीच-बीच में अपने बाएं कान में उंगली रख लिया करता था. कुछ रुककर
वह बोला, “मैं होटल में ही सो जाउंगा.....घर से १०-१२ कि.मी. चलकर आना कठिन होगा.” और वह सवा पांच बजे होटल के
बाहर सड़क पर टहलता दिखाई दिया. पांच पैंतीस पर उसने हमें स्टेशन पहुंचा दिया. पता चला
कि ट्रेन पैंतालीस मिनट विलंब से वहां पहुंचने वाली थी. जोधपुर से आने वाली ट्रेन ही
वापस जाती है. जैसलमेर एक छोटा स्टेशन है. प्रतीक्षालय भी छोटा, जहां फौजी और सीमा
सुरक्षा बल के जवान दैनिक कर्म से निवृत्त हो रहे थे. पुरुषों और महिलाओं के लिए एक-एक
बाथरूम-कम टॉयलट थे. सैनिकों को महिलाओं के बाथरूम में घुसते देखा. प्लेटफार्म पर कोई
शेडिंग नहीं थी.....लंबे-चैड़े प्लेटफार्म पर पत्थर की कुछ बेंचे पड़ी हुई थीं. ठंड नहीं
थी, लेकिन जब ठंड होती होगी तब ----! मैं सोचता रहा था.
सवा सात बजे ट्रेन
रवाना हुई. दो घण्टा विलंब से हम जोधपुर पहुंचे. स्टेशन ने लखनऊ के चार बाग स्टेशन
की याद दिला दी. प्लेटफार्म पर ही एक युवक मिला--नाम... अशोक. होटल घूमर तक का किराया
तय हुआ और हम उसके साथ हो लिए. वह हट्टा कट्टा -मृदुभाषी, लेकिन अपने हितों के प्रति
बेहद जागरुक युवक था. रास्ते में उसने पर्यटन स्थल घुमा देने का प्रस्ताव किया और हम
उसके लिए तैयार हो गए. तय हुआ कि उस दिन वह
हमें उम्मेद भवन पैलेस दिखाएगा. होटल घूमर के प्रबन्धन और कर्मचारियों के व्यवहार मूमल
के लोगों से बिल्कुल विपरीत थे. पहुंचते ही हमारा सामना ऑफिस में मध्य वय, पांच फुट चार इंच लंबे, मोटे, फूले-मोटे
गालों पर लंबी-मोटी मूंछों वाले किशोर नामक सज्जन से हुआ. नाम सुनते ही बोले, “चन्देल
साहब, आपको मेरा मेल नहीं मिलाघ्श् “कैसा मेल?” मैंने पूछा. “ आपने गलत बुकिंग करवायी.
जिस समय आपने कंप्यूटर पर क्लिक किया उससे क्षण भर पहले हमारे कमरे फुल हो चुके थे.
इसी आशय का मेल मैंने आपको लिखा था.”
मैंने उन्हें सुधारते
हुए कहा, “मान्यवर, यह बुकिंग मैंने सीधे नहीं की थी, क्योंकि उस दिन आपकी साइट खराब
चल नहीं रही थी. यह बुकिंग दिल्ली के बीकानेर हाउस स्थित आर.टी.डी.सी. ऑफिस से करवायी
गयी है. उसकी रसीद आपके सामने है.”
“लेकिन मैंने तो मेल
भेजा था...आपको नहीं मिला?” किशोर जी ने मेरी बात पर कान दिए बिना कहा.
“मिला होता तो मैं
आपके सामने हाजिर नहीं हुआ होता.कोई उपाय कर चुका होता.” मैंने उनके चेहरे पर नजरें
गड़ाकर कहा, “आपने मुझे नहीं अपने दिल्ली कार्यालय को मेल भेजा होगा. उन्होंने मुझे
सूचित नहीं. किया---इसमें किसकी गलती है?”
बंदा फिर भी मेरी ही
गलती बताने पर तुला हुआ था. उन्होंने फिर अपनी बात रिपीट करने की कोशिश की कि जब मैंने कंप्यूटर पर क्लिक----“
उन्हें बीच में ही
टोकते हुए मैंने कहा, “श्रीमान जी, मैं एक लेखक और स्वतंत्र पत्रकार हूं. दिनभर इंटरनेट
पर काम करता हूं. आपका कोई मेल मुझे नहीं मिला और आपकी बात को फिर सुधार दूं कि यह
बुकिंग दिल्ली के बीकानेर हाउस से करवायी गयी थी.”
किशोर जी को लगा कि
उनकी चाल फेल हो चुकी थी. हताशापूर्ण स्वर में बोले, “आप पत्रकार या जो भी हैं---कोई
बात नहीं ---मैं दिल्ली वालों से लड़ता रहूंगा.आप रजिस्टर में अपनी इंट्री करें और एंज्वाय
करें.”
वहां के कर्मचारी ने
सामान उठाया और दूसरी मंजिल के कमरा नं. ३०३ में हमें पहुंचा दिया. सीढ़ियां चढ़ते हुए
देखा कि नीचे बहुत गहमा-गहमी थी. कई कमरों से शोरगुल सुनाई दे रहा था. पहली मंजिल में
भी कुछ कमरों से बच्चों,महिलाओं और पुरुषों का शोर आ रहा था. बाद में पता चला कि वहां
कोई बारात ठहरी हुई थी. मेरी मोटी अक्ल ने सोचा कि किशोर जी मेरा कमरा उन्हें देना
चाह रहे होंगे, इसलिए उन्होंने बुकिंग की बात उठाकर मुझे झांसे में ले लेना चाहा था.
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चार बजे हम उम्मेदभवन
पैलेस में थे. घुमावदार बहुत ही ऊंचाई पर बना
हुआ यह भवन आधुनिक शिल्प कला का एक खूबसूरत उदाहरण है, जिसके विषय में कहा जाता है
कि यह विश्व का सबसे बड़ा निजी निवास है. इसे चित्तार महल भी कहा जाता है, क्योंकि इसका
निर्माण जिन पत्थरों से हुआ है उसे चित्तार पुकारा जाता है. इसकी नींव १८ नवंबर,१९२९
में तत्कालीन महाराजा उम्मेद सिंह ने रखी थी, जो १९४३ में बनकर तैयार हुआ था. इसकी
योजना अकाल पीड़ित हजारों लोगों के सहायतार्थ बनी थी, जिन्हें यहां रोजगार दिया गया
था. वहां खुदे पत्थरों पर लिखा गया है कि इसके निर्माण में पांच लाख खच्चर लगाए गए
थे. दरअसल शहर से अलग यह इतनी अधिक ऊंचाई पर बनाया गया कि खच्चरों की यह संख्या अतिशयोक्ति
नहीं लगती.
भवन को तीन भागों में
बांटा गया है. एक भाग पर्यटकों के लिए म्यूजियम के रूप में रखा गया है, दूसरे भाग में
वर्तमान राजपरिवार के लोग रहते हैं और तीसरे भाग को ताज होटल ने लेकर वहां होटल खोल
दिया है. भवन प्राकृतिक सौंदर्य से परिपूर्ण स्थान पर स्थित है. उसके सामने बड़ा-सा लॉन और छायादार पेड़ हैं. यहां
नीम के पेड़ बहुतायत में दिखाई दिए. इसमें ३४७ कमरे हैं. इसे शिल्प कला का उत्कृष्ट
नमूना कहना होगा. म्यूजियम में राज दरबारों से जुड़ी चीजों के अतिरिक्त खूबसूरत पेण्टिंग्स
अधिक आकर्षक हैं.
जब हम उम्मेद भवन से
बाहर आए, सूरज पश्चित की ओर खिसकता दिखाई देने लगा था. लौटते हुए एक चैराहे के पास गाड़ी की गति कुछ कम
करते हुए सड़क के दाहिनी ओर इशारा करता हुआ अशोक बोला, “वो जो जूतों में पालिश कर रहे
हैं ---मेरे पिता जी हैं.” सामने लंबे, तगड़े, बढ़े पेट और गालों पर बड़ी मूंछों वाले
उसके पिता को देखा और मन ही मन उस युवक की प्रशंसा किए बिना नहीं रह सका. वह बोला,
“सर, हम बहुत मेहनत करते हैं. मैं सुबह तीन बजे जाग जाता हूं. जोधपुर आने वाली हर गाड़ी
से सवारी पकड़ने का प्रयास करता हूं.” यकीनन
वह बहुत परिश्रमी युवक था.
होटल में कुछ देर के
विश्राम के पश्चात लगभग सात बजे हम पास के चैक तक घूमने और डिनर के लिए निकले. सड़क
पर बेलगाम दौड़ते वाहन दिल्ली की याद दिला रहे थे.
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३ दिसम्बर,१४ को हम
सुबह दस बजे निकले. हमारी इच्छा के विरुद्ध अशोक हमें संतोषी माता मंदिर ले गया, क्योंकि
वह वहां मत्था टेकना चाहता था. मंदिर के प्रवेश द्वार पर ही मरे चूहे की बदबू फैली
हुई थी. मंदिर में देखने योग्य कुछ नहीं था. मुझे अपना बचपन यादा आया, जब पहली बार
गांव में संतोषी माता के बारे में सुना था. गांव गांव यह बात प्रचारित की गयी थी कि
अमुक गांव में जमीन फोड़कर देवी प्रकट हुई हैं. बैलगाड़ियों में लदकर गांव की महिलाओं
के जत्थे उस गांव जाने लगे थे. घरों में पोस्टकार्ड आने लगे थे कि देवी के प्रचार के
लिए वैसे ही दस पत्र लिखकर अपने परिचितों को अवगत कराएं. पाखंडियों ने धर्मभीरु महिलाओं
को अंधास्था की ओर धकेल दिया था. जोधपुर के उस मंदिर के बाहर भी कुछ ऐसा ही लिखा था
कि देवी जमीन से प्रकटी थीं.
कुछ देर बाद हम मंदौर
गार्डन में थे. प्राकृतिक सौन्दर्य से परिपूर्ण यह एक सुन्दर बाग है, जहां जोधपुर राजाओं
की समाधियां उसी प्रकार बनायी गयी हैं जैसी
जैसलमेर के राजाओं की बड़ा बाग में हमें देखने को मिली थीं. लेकिन ये समाधियां कहीं
अधिक भव्य हैं. जोधपुर में राठौर राजाओं का शासन था. जोधपुर का मेहरानगढ़ किला बनने
से पहले उनकी राजधानी मंदौर ही थी. यह एक बड़ा
बाग है, जहां बड़े छायादार पेड़ हैं और चारों
ओर अनेक रंगी झूमती बोगनबेलिया ने बाग की सुन्दरता में चार चांद लगा दिए हैं.
मंदौर गार्डन से हम
मेहारानगढ़ किला पहुंचे. इस किले का निर्माण राव जोधा ने करवाया था, जो रणमल (१४५८)
के चैबीस पुत्रों में से एक पंद्रहवां राठौर राजा था. मंदौर किला लगभग एक हजार वर्ष
पुराना हो चुका था और सुरक्षा की दृष्टि से उपयुक्त नहीं था, अतः राव जोधा ने मेहरानगढ़
किले का निर्माण करवाया. किले में चढ़ने से पूर्व पत्नी ने कहा, “इसकी ऊंचाई जैसलमेर
के किले से कम है”. लेकिन यह सच न था. किला इतनी ऊंचाई पर बना हुआ है कि चढ़ते समय लगता
रहा कि मानो हम पहाड़ की चोटी पर चढ़ रहे थे. इसके ३३ कमरों में से एक में दो चीतों की
खाल में भूसा या कुछ अन्य सामग्री भरकर वास्तविक चीतों की प्रतीति देता हुआ पेड़ की
शाखाओं पर चढ़ने की स्थिति में बैठाया गया है. अन्य में भाले, ढालें, तलवारें आदि के
साथ नागौर सहित अन्य राजाओं के समय की पेण्टिंग्स प्रदर्शित की गयी हैं. कई पेण्टिंग्स
में राजाओं की विलासता ---सैकड़ों युवतियों के साथ स्नान आदि के चित्र थे.
मेहरानगढ़ किला से निकट
ही सफेद पत्थरों से बना जसवंत थाडा है. इसका निर्माण तेतीसवें राजा जसवंत सिंह (१८३८-११
अक्टू.१८९५) की स्मृति में उनके पुत्र सरदार
सिंह ने बनवाया था. जसवंत थाडा के आसपास भी भरपूर हरियाली और उसके सामने बड़ा-सा लॉन
है. इसका शिल्प दर्शनीय है. दूर से ताजमहल की भांति आकर्षित करता है. संभवतः यह स्थान
भी सरकारी नियंत्रण में है, लेकिन मुझे स्मारक के चबूतरे, सीढ़ियों आदि में साफ-सफाई
का अभाव दिखाई दिया. सरकारों और भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग का यह दायित्व है
कि वे इन सभी स्मारकों की ओर ध्यान दें और उन्हें नष्ट होने से बचाएं.
जैसलमेर और जोधपुर
यात्रा में जसवंत थाडा हमारा अंतिम पर्यटन स्थल था. अगले दिन सुबह साढ़े पांच बजे स्टेशन
छोड़ने के लिए अशोक होटल के बाहर उपस्थित था. हमें रानीखेत एक्सप्रेस से दिल्ली रवाना
होना था, जो दो घण्टे विलंब से जोधपुर स्टेशन पहुंची थी. यहां यह बात कहना आवश्यक है
कि पर्यटन की दृष्टि से दोनों शहर अति महत्वपूर्ण हैं और देश-विदेश के पर्यटक बड़ी मात्रा
में यहां आते हैं, लेकिन दुर्भाग्यपूर्ण बात यह कि यहां पहुंचने के लिए रेल और हवाई
व्यवस्था बहुत ही खराब है. भारतीय पर्यटन विभाग
को इस ओर गंभीर होने की आवश्यकता है.
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