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मंगलवार, 15 मई 2012

यादों की लकीरें-भाग दो

संस्मरण - तीन


मेरे पाठक
रूपसिंह चन्देल

यद्यपि मुझे मेरे और मेरे पाठकों के बीच संबन्धों पर प्रकाश डालने के लिए कहा गया है, लेकिन उससे पहले मैं कुछ सामान्य बातें कहना आवश्यक समझता हूं.

हिन्दी पाठकों में साहित्य के प्रति रुचि क्षरित हुई है यह बात प्रायः कही जाती है. कही ही नहीं जाती बल्कि साहित्यिक समागमों में इस पर गंभीर चर्चाएं भी हुईं और आगे भी होगीं. इसके लिए दोषी पाठक है या लेखक यह एक अहम प्रश्न है. कुछ लोग इसके लिए टी.वी., इंटरनेट आदि माध्यमों को दोष देते हैं और कुछ वर्तमान जीवन स्थितियों को. मेरी दृष्टि में वास्तविकता इससे भिन्न है. इसके लिए कोई माध्यम दोषी नहीं---दोष स्वयं लेखकों का है. पाठक स्वस्थ साहित्य के साथ वह पढ़ना चाहता है  जिसमें वह अपने जीवन को प्रतिभासित पाता है. हम सभी जानते हैं कि  नवें दशक के उत्तरार्द्ध तक स्थितियां इतनी विद्रूप नहीं थीं. लेकिन बदलाव प्रारंभ हो चुका था. बाजार से स्थापित पत्रिकाओं ने अपने कार्यालयों में ताला लगाना प्रारंभ कर दिया था. लेकिन इस सबके बावजूद पाठक थे और पाठकों में उन पत्रिकाओं के तिरोहित होने की पीड़ा भी थी. सहज और सस्ते रूप में उपलब्ध साहित्य उनसे छीन लिया गया था. यह सर्वविदित सत्य है कि हिन्दी पाठक की हैसियत पुस्तकें खरीदकर पढ़ने की नहीं है. फिर भी बंद हुई पत्रिकाओं की क्षतिपूर्ति कुछ पत्रिकाएं कर रही थीं. १९९२-९३ तक हंस और कुछ अन्य पत्रिकाओं ने इस दिशा में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई, लेकिन अचानक प्रकटे स्त्री विमर्श और दलित विमर्श ने पाठकों में बेचैनी पैदा की और उन्हें दूर हटने के लिए विवश किया. रही सही कसर पूरी कर दी अपठनीय और अविश्सनीय रचनाओं ने. पाठक  कथा खोजता जिसके दर्शन उसे अंत नहीं हो रहे थे. लेकिन आश्चर्य इस बात का था कि स्वनामधन्य सम्पादकों, वैसा ही लेखन करने वाले लेखकों और आलोचकों ने बेहद अपठनीय, विकृत यौन सम्बन्धों से परिपूर्ण, जीवन से दूर रचनाओं की प्रशंसा में एड़ी चोटी का जोर लगाया और उनकी प्रशंसा से प्रेरित पाठक ने वहां अपने को छला हुआ पाया. ऎसी स्थिति में दोष किसे दिया जाना चाहिए?

किसी भी साहित्यकार को उसके आलोचक नहीं उसके पाठक जीवित रखते हैं. इसका अर्थ यह नहीं कि लेखक वह लिखे जिसकी और जैसे की मांग पाठक उससे करता है, लेकिन उसे वैसा अवश्य लिखना चाहिए जो पाठकों  को विश्वसनीय और संप्रेषणीय लगे. यदि रचना में संप्रेषणीयता और पठनीयता नहीं  है तो पाठक उसे नकारने में समय नष्ट नहीं करता.

महान रूसी लेखक लियो तोल्स्तोय ने अपने एक मित्र से कहा था, “तुम्हें पता है कि प्रारंभ में रूस ही नहीं जर्मन के आलोचकों ने मेरी रचनाओं पर कितना हाय-तौबा मचाया था. यह अच्छी बात है कि बात अब उनकी समझ में आ गयी है.” उन्होंने आगे कहा था, “मैंने कभी आलोचकों की परवाह नहीं की.  सदैव अपने पाठकों के विषय में सोचा---क्योंकि वे ही लेखक को जीवित रखते हैं.” मैक्सिम गोर्की की एक कहानी सुनकर तोल्स्तोय ने उनसे कहा था, “किसके लिए लिखी यह कहानी? यह भाषा आम-जन की नहीं है. आम-जन ऎसे नहीं बोलता. उसके लिए लिखो---वही तुम्हें जिन्दा रखेगा.”

पाठकों का प्यार पाने के मामले में मैं अपने को भाग्यशाली मानता हूं. नवें दशक में किसी भी रचना, विशेषरूप से कहानी पर, पाठकों के पत्र आते थे. वे बेबाकरूप से अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त करते थे. ये पत्र भारत के किसी स्थान से ही नहीं बल्कि अमेरिका और लंदन से भी मुझे मिलते थे. मेरी कहानी ’उनकी वापसी’ (साप्ताहिक हिन्दुस्तान -१९८५) पर ऎसे अनेक पत्र मुझे मिले थे.  सत्येन कुमार की पत्रिका में जब मेरी ’क्रान्तिकारी’ कहानी प्रकाशित हुई, उसपर कितने ही पाठकों ने प्रशंसा में पत्र लिखे. लेकिन केवल प्रशंसक ही नहीं थे. सत्यवती कॉलेज के हिन्दी विभाग में कार्यरत एक प्राध्यापक की पत्नी ने मुझे मरवाने की धमकी भी भेजी थी, क्योंकि उसे लगा था कि उस कहानी के मुख्य पात्र शांतनु के रूप में उसके पति को चित्रित किया गया था. इसे मैंने अपनी कहानी की सफलता मानी थी और अपनी पीठ पर लगाने के लिए हल्दी-चूना की अग्रिम व्यवस्था कर ली थी.

 पाठकों के प्रेम की अनगिनत किस्से हैं. अंतिम दशक की बात है. नवभारत टाइम्स में ’बच्चे’ कहानी प्रकाशित हुई. कहानी कन्याकुमारी में सीपियों से तैयार वस्तुएं बेचने वाले बच्चों पर केन्द्रित थी और बहुत ही मार्मिक थी. गलती से अखबार ने परिचय के साथ मेरा पता भी प्रकाशित कर दिया था. उन दिनों मैं शक्तिनगर, दिल्ली में रहता था. अगले दिन रात जब मैं घर पहुंचा पता चला कि एक युवक घर आकर लौट चुका था. वह एक बेरोजगार युवक था और कहानी ने उसमें एक आशा का संचार किया था. उसे लगा था कि कन्याकुमारी के बच्चों का वास्तविक और मार्मिक चित्रण करने वाला लेखक अवश्य ही उसकी बेरोजगारी दूर करने में सहायक होगा. ’हंस’ में मई, १९८७ में प्रकाशित  कहानी ’आदमखोर’ से कितने ही पाठक विचिलित हुए थे और आज भी कितनों के जेहन में वह ताजा है. यह अनुभव मुझे अनेक बार हुआ, जब संयोगतः ऎसे पाठकों से मेरी मुलाकात  हुई और नाम सुनते ही उन्होंने उस कहानी का उल्लेख किया. ऎसा ही लंबी कहानी ’पापी’ के उपन्यासिका के रूप में मई १९९० में सारिका में प्रकाशित होने के बाद कितनी ही बार हुआ. 

एक सोमवार का वाकया याद आ रहा है. बात १९९३ की है.  मैं जब शाम सात बजे कार्यालय से घर पहुंचा दरवाजे पर ही पता चला कि एक सज्जन आध घंटा से मेरी प्रतीक्षा कर रहे थे. वह सज्जन मेरे क्षेत्र के ही रहने वाले थे. बीते रविवार को नवभारत टाइम्स में प्रकाशित मेरी कहानी उन्हें मेरे घर तक खींच लायी थी. उनकी शिकायत थी कि वह कहानी मैंने उन्हें केन्द्र में रखकर लिखी थी. मैंने उन्हें समझाने का प्रयास किया कि मैं उन्हें जानता भी नहीं, लेकिन वह मानने को तैयार नहीं थे. सज्जन व्यक्ति थे, इसलिए मैं उन्हें समझाने में सफल रहा था. यदि कोई दबंग होता तो ----- लेकिन ऎसे पाठकों ने सदैव मुझमें अपने साहित्य के प्रति विश्वास और आस्था उत्पन्न किया.

मार्च, २०१२ की पाखी में द्रोणवीर कोहली पर मेरा संस्मरण पढ़कर जिन पाठकों ने मुझे फोन किए उनमें वरिष्ठ कथाकार ज्ञानरंजन जी और बरेली की एक निर्मला सिंह थीं. निर्मला सिंह ने कहा कि संस्मरण पढ़कर वह अपने को रोक नहीं पायीं. उन्होंने बताया कि १९९४ में अमर उजाला में धारावाहिक प्रकाशित  मेरे उपन्यास ’रमला बहू’   की सभी किस्ते उन्होंने पढ़ीं थीं और आज भी वह उसे भूल नहीं पायीं हैं. चेन्नई से प्रो. आर. सौरीराजन ने भी रमला बहू  पर अपनी ऎसी ही प्रतिक्रिया से मुझे अवगत करवाया था. मेरे उपन्यास ’खुदीराम बोस’ को पढ़कर सुधीर विद्यार्थी ने पूछा था कि क्या मैं पश्चिमी बंगाल में रहा था. उपन्यास को पढ़कर कहा नहीं जा सकता कि मेरे बचपन के दो-तीन वर्ष ही वहां बीते थे और उसकी धुंधली याद ही मेरे मस्तिषक में शेष है. सुधीर ने कहा था कि उपन्यास इतना विश्वनीय है कि वह यही मान रहे थे कि मैंने लंबा समय वहां गुजारा होगा.

 दिसम्बर,२०११ में एक रात मुम्बई से प्रो.डॉ. धनराज मानधानि का फोन आया. मेरे लिए बिल्कुल अपरिचित नाम. लंबी बातचीत और बातचीत मेरे शीघ्र प्रकाश्य उपन्यास ’गलियारे’ पर केन्द्रित. उन्होंने उसे मेरे ब्लॉग ’रचना समय’ में धारावाहिक रूप से प्रकाशित होते पढ़ा था. उपन्यास पर एक-दो सुझावों के बाद वह मेरे अन्य उपन्यासों पर बात करने लगे थे. मैं भौंचक था. पता चला कि उन्होंने ’रमला बहू’ से लेकर ”गलियारे’ तक मेरे सभी उपन्यास पढ़ रखे थे. बोले, “वह उन्हें पुनः पढ़ेंगे’ और  ’पाथर टीला’ को पुनः पढ़कर उन्होंने एक रात फोन किया और उस पर लंबी बात की. ऎसे पाठक सदैव मुझे लिखते रहने की प्रेरणा देते हैं.    

कुछ और उदाहरणों के बिना बात अधूरी रहेगी. एक घटना याद आ रही है. लगभग पन्द्रह वर्ष पुरानी बात है. राजस्थान से एक पाठक ने फोन कर मेरी एक कहानी का उल्लेख करते हुए कहा, “सर, मैं तो आपसे कभी मिला नहीं, फिर आपने मेरी कहानी कैसे लिख दी.” वह शिकायत नहीं कर रहा था और न ही धमकी दे रहा था. अपनी जिज्ञासा प्रकट कर रहा था.

सामयिक प्रकाशन के जगदीश भारद्वाज जी उन प्रकाशकों में थे जो पांडुलिपियों को पढ़ते अवश्य थे. मेरा उपन्यास ’पाथर टीला’ उनके यहां प्रकाशनार्थ प्रस्तुत था जो १९९८ में प्रकाशित हुआ था. पांडुलिपि समाप्त कर वह अपने को रोक नहीं पाए. तुरंत फोन करके बोले, “चंदेल जी, पांच मिनट पहले ही उपन्यास पढ़कर समाप्त किया है.”

मुझे लगा कि वह उसमें कुछ संशोधन सुझाना चाहते हैं. मैं  चुप रहा था.

“आप कभी मेरे गांव के ग्राम प्रधान से मिले थे?”

“भारद्वाज जी, मुझे आपके नगर की जानकारी भी नहीं, गांव तो दूर की बात है.”

“उपन्यास में ग्रामप्रधान हरिहर अवस्थी का चरित्र मेरे गांव के ग्रामप्रधान जैसा है.”

ये उदाहरण इसलिए दिए क्योंकि जिन रचनाओं में पाठक स्वयं को अथवा अपने आस-पास के किसी चरित्र को खोज लेता है,  उन्हें ही पसंद करता है, न कि प्रायोजित रूप से थोपी गई रचनाओं को. हाल में मेरी संस्मरण पुस्तक ’यादों की लकीरें’ प्रकाशित हुई है. उसके सभी संस्मरण मैंने अपने ब्लॉग में प्रकाशित किए थे. प्रत्येक संस्मरण  पर मुझे पाठकों की जो प्रतिक्रियाएं मिलती रहीं वे मुझे एक नया संस्मरण लिखने के लिए प्रेरित करती रहीं. लगभग डेढ़-दो वर्ष पहले मेरे यात्रा संस्मरण को पढ़कर फैजाबाद के एक पाठक का लंबा पत्र मुझे मिला था. उन्होंने मुझे सूचित किया था कि उस पुस्तक से दक्षिण भारत के पर्यटन स्थलों की जो जानकारी उन्हें प्राप्त हूई है उसने उन्हें दक्षिण भारत की यात्रा के लिए प्रेरित किया है. प्रसंगतः यह बताना अनुपयुक्त न होगा कि उस यात्रा संस्मरण के १९९७ से अब तक छः संस्करण प्रकाशित हो चुके हैं. सातवां संस्करण शीघ्र ही प्रकाशित होने वाला है. १९९४ से अब तक मेरे उपन्यास ’रमला बहू’ के तीन, ’पाथर टीला’ के दो और ’खुदी राम बोस’(१९९९) के चार संस्करण प्रकाशित हो चुके हैं. पन्द्रह दिन पहले ही प्रकाशित ने बताया कि ’खुदी राम बोस’ का नया संस्करण भी वह शीघ्र ही प्रकाशित करने वाले हैं. यह सब मेरे पाठकों के कारण ही संभव हो पा रहा है.

कितने ही उदाहरण हैं जब पाठकों के पत्रों, फोन, और निजी मुलाकातों ने मुझमें रचनात्मक उत्साहवर्धन किया. मैं अपने पाठकों के प्रति कृतज्ञ हूं, क्योंकि मेरा रचनात्मक नैरंतैर्य और ऊर्जा का प्रमुख कारण मेरे पाठक ही हैं. जब तक मुझ पर उनका विश्वास और मेरे प्रति उनका आदर-प्रेम हैं मैं निरंतर लिखता रहूंगा.

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