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शनिवार, 26 सितंबर 2009

यादों की लकीरें


संस्मरण
''मैं दिनकर से बड़ा कवि होता''- भगवतीचरण वर्मा
रूपसिंह चन्देल
वर्ष याद नहीं लेकिन महीना अक्टूबर का था । राज्यसभा का सदस्य बने उन्हें पर्याप्त समय हो चुका था .

बस से मण्डी हाउस उतरकर हम -यानी मैं और सुभाष नीरव पैेदल फीरोजशाह रोड स्थित उनके बंगले की ओर जा रहे थे । मेरे पी-एच. डी. का विषय यदि कथाकार प्रतापनारायण श्रीवास्तव का व्यक्तित्व और कृतित्व न होता तो शायद ही मैं उन जैसे वड़े कथाकार से मिलने का साहस जुटाता .

प्रतापनारायण श्रीवास्तव के जीवन पर इतनी कम सामग्री मुझे मिली कि मेरा कार्य ठहर गया था । कानपुर इस मामले में मेरे लिए छुंछा सिध्द हुआ था . तभी मुझे किसी ने बताया कि भगवती बाबू बचपन में उनके सहपाठी थे. मुझे यह तो ज्ञात था कि जीवन के प्रारंभिक दौर में भगवती चरण वर्मा का कार्य क्षेत्र कानपुर रहा था , लेकिन दोनों बचपन में एक साथ पढ़े थे , सुनकर लगा था कि मेरी समस्या का समाधान मिल गया था दृ अपने बचपन के सहपाठी के विषय में वर्मा जी विस्तार से बताएंगे . उनके बंगले की ओर बढ़ते हुए श्रीवास्तव जप् के विषय में बहुत कुछ जान लेने का उत्साह मेरे अंदर कुलांचे मार रहा था .

जनता पार्टी के दौरान चौधरी चरण सिंह प्रधानमंत्री बने थे । भगवती बाबू ने साप्ताहिक हिन्दुस्तान में उन पर एक लंबा आलेख लिखा था . वह आलेख चर्चा का विषय रहा था और उसके कुछ दिनों बाद ही भगवती बाबू को राज्य सभा में (१९७८ से १९८१ तक ) दाखिला मिल गया था .

भगवती बाबू से मिलने जाने के लिए नीरव ने उन्हें फोन कर रविवार का समय निश्चित कर लिया । मण्डी हाउस से उनका बंगला पांच मिनट पेैदल की दूरी पर था . नौकर ने दरवाजा खोला और हमें ड्राइंगरूम में बैठाकर गायब हो गया . थोड़ी देर बाद सादे कपड़ों में छोटे'कद -काठी के भगवती बाबू ने प्रवेश किया . चेहरे की झुर्रियां उनकी बढ़ी उम्र की घोषणा कर रही थीं . कुछ दिन पहले ही 'सारिका' में उनकी 'खिचड़ी' कहानी प्रकाशित हुई थी . हमारी बातचीत उसीसे प्रारंभ हुई . कहानी को लेकर वह मुग्ध थे , जबकि वह उनकी एक कमजोर कहानी थी. हमारे आने का उद्देश्य जानकर वह गंभीर हो गए और अत्यंत उदासीनतापूर्वक बोले , ''प्रताप बाबू मेरे सहपाठी तो थे - - अब याद नहीं कितने दिन रहे थे - -बहुत पुरानी बात है - - .''

''मुझे बताया गया कि छठवीं से आठवीं तक आप और वह साथ थे .'' मैं बोला .
''बीच में वह किसी दूसरे स्कूल में चले गए थे । लेकिन कुछ दिन हम साथ अवश्य थे . उसके बाद लंबे समय तक हम नहीं मिले . फिर विश्वभंरनाथ शर्मा कौशिक के यहां हमारी मुलाकातें होने लगी थीं . कौशिक जी के घर शाम को कलाकारों - साहित्यकारों का जमघट लगता था - -- ठण्डाई छनती और हंसी-ठट्ठे गूंजते रहते .''

''श्रीवास्तव जी का एक अप्रकाशित संस्मरण है कौशिक जी के यहां उन बैठकों के विषय में .'' मैंने बीच में ही टोका .
कानपुर उन दिनों साहित्य का केन्द्र था। मुझे भगवती बाबू की ये पंक्तियां याद आयीं जो उन्होंने 1966 में प्रकाशित अपनी पुस्तक 'आधुनिक कवि' में प्रस्तावना स्वरूप लिखी थीं -- '' मेरे साहित्यिक जीवन का प्रारंभ कानपुर में हुआ था --- कानपुर उन दिनों हिन्दी का एक प्रमुख साहित्यिक केन्द्र था . स्व. गणेश शंकर विद्यार्थी के 'प्रताप' नामक साप्ताहिक पत्र तथा गणेश (हम लोग गणेश शंकर विद्यार्थी को गणेश जी के नाम से ही जानते थे ) की प्रेरणा के प्रभाव में कानपुर देशभक्ति की ओजपूर्ण कविताओं का भी केन्द्र बन गया था .''

बीच में मेरे टोकने से कुछ देर तक भगवती बाबू चुप रहे थे । फिर बोले ''एल.एल.बी. करके प्रताप नारायण जोधपुर रियाशत के ज्यूडिशियल मजिस्ट्रेट बनकर चले गए थे और मैं जीवन संघर्षों में डूब गया था .''

''क्या आप मानते हैं कि 'विदा' जैसा अपने समय का चर्चित उपन्यास लिखनेवाले श्रीवास्तव जी के लिए वह नौकरी उनके साहित्यिक जीवन के लिए घातक सिध्द हुई थी ?'' ( 1970 तक 'विदा' की 64 हजार प्रतियां बिक चुकी थीं और यह उपन्यास लेखक की 23 वर्ष आयु में 1927 में प्रकाशित हुआ था और मुंशी प्रेमचन्द ने उसकी भूमिका लिखी थी )।

''होना ही था । लेकिन आर्थिक सुरक्षा तो थी . रुतबा तो था - - जब कि मैं आर्थिक संकटों से जूझ रहा था --'' उनके चेहरे पर गंभीरता पसर गयी थी .

''उस संकट ने ही आपको कथा लेखक बना दिया ।''

''निश्चित ही ।''

उन्होंने इस विषय में लिखा है , ''चित्रलेखा उपन्यास मैंने आजीविका के लिए नहीं लिखा , शायद 'तीन वर्ष' उपन्यास भी मैंने आजीविका के लिए नहीं लिखा , लेकिन न जाने कितनी कहानियां मुझे आजीविका के लिए लिखनी पड़ी ।''

मैंने प्रश्न किया , ''आपने कहीं लिखा है कि आपके साहित्यिक जीवन की शरुरूआत कविताआें से हुई थी ?''

'' जी ।''

''अब आप कविता बिल्कुल नहीं लिखते ? '' नीरव का प्रश्न था ।

''कविता की नदी सूख गयी है ।''

बात कविताओं पर केन्द्रित हो गयी थी और तभी उन्होंने सगर्व घोषणा की थी , ''यदि मैंने कविता लिखना छोड़ न दिया होता तो मैं दिनकर से बड़ा कवि होता ।''

सुभाष और मेंने एक-दूसरे की ओर देखा था । भगवती बाबू चुप हो गए थे . विषय परिवर्तन करते हुए मैंने पूछा ,''श्रीवास्तव जी 1948 में जोधपुर से कानपुर लौट आए थे - - - उसके बाद आपकी मुलाकातें हुई ?''

''देखो , जोधपुर जाकर प्रतापनाराण साहित्य की समकालीनता के साथ अपने को जोड़कर नहीं रख सके । अपने साहित्यकार का विकास नहीं कर पाए . सच यह है कि 'विदा' से आगे वह नहीं बढ़ पाये थे . राजा-रानी - - अंग्रेज -- आभिजात्यवर्ग -- - वह इसके इर्द-गिर्द ही घूमते रहे . जबकि साहित्य कहां से कहां पहुंच गया था- - - .'' भगवती बाबू पुन: चुप हो गए थे .

चलते समय मैंने उनसे अनुरोध किया कि यदि वह श्रीवास्तव जी पर संस्मरण लिख दें और वह कहीं प्रकाशित हो जाए तो मेरे लिए बहुत उपयोगी सिध्द होगा ।

''मैं इन दिनों संस्मरण ही लिख रहा हूं । जल्दी ही वे पुस्तकाकार राजकमल प्रकाशन से प्रकाशित होगें .''

हमारी लगभग एक घण्टे की उस स्मरण्ीय मुलाकात के बाद उनकी संस्मरणों की पुस्तक 'अतीत के गर्त से' प्रकाशित हुई थी , जिसमें एक छोटा-सा संस्मरण प्रतापनारायण श्रीवास्तव पर भी था । लेकिन उस पुस्तक में सर्वाधिक चाेंैकानेवाला संस्मरण दिनकर पर था . उन्होंने उसमें भी वही बात दोहराई थी कि यदि उन्होंने कविताएं लिखना न छोड़ा होता तो वह दिनकर से बड़े कवि हुए होते . दूसरी बात दिनकर की नैतिकता से जुड़ी हुई थी , जिसके कारण दिनकर जीवन के अंतिम दिनों में गृहकलह से परेशान रहे थे . बात जो भी थी वह दिनकर का निजी जीवन था . उनके किसके साथ अवैध संबंन्ध थे इसे उनके मरणोपरांत लिखा जाना उचित नहीं था . .

'' चित्रलेखा' , 'टेढ़े मेढ़े रास्ते' , 'सीधी-सच्ची बातें , 'भूले बिसरे चित्र , 'त्रिपथगा' आदि उपन्यास , कहानियां और 'मेरी कविताएं ' और 'आधुनिक कवि' कविता संग्रहों के रचयिता भगवती चरण वर्मा निश्चित ही प्रतिभाशाली रचनाकर थे . उन्होंने स्वयं कहा है - ''मैं कभी यश के पीछे नहीं दौड़ा --- वह स्वयं ही मुझे मिलता गया .'' साहित्य में इसे चमत्कार से कम नहीं मानना होगा . हालंकि उन्होंने यह भी माना कि '' विरोधी उनके भी हैं , लेकिन विरोध भी तो चर्चा ही देता है .'' आज जब साहित्य में गलाकाट राजनीति , अविश्वास और विद्रूपता का माहौल है -- जब एक ही विचारधारा के तीन साहित्यकार तीन वर्षों तक एक साथ नहीं चल पाते तब अलग-अलग विचारधारा के लखनऊ की त्रिमूर्ति -- यशपाल , अम्तालाल नागर और भगवती चरण वर्मा की याद एक सुखद अनुभूति प्रदान करती है .
*****

9 टिप्‍पणियां:

सुभाष नीरव ने कहा…

तुमने तो यार पुरानी यादें ताज़ा कर दी। दिल्ली में किसी सांसद के घर जाने का यह मेरा पहला अवसर था। जब मैंने फोन पर भगवती चरण वर्मा जी से समय मांगा था, तो मुझे लग रहा था शायद वह अपनी व्यस्तताएं गिनाकर मना ही न कर दें, क्योंकि उन दिनों हम दोनों नौसिखिये ही थे, हमें कोई अधिक जानता ही न था, परन्तु उन्होंने बड़ी विनम्रता से बात की थी। मैंने उनका कुछ अधिक पढ़ नहीं रखा था, सिवाय उनके एक उपन्यास 'चित्रलेखा' के या छिटपुट कहानियों के। उन दिनों वे हिंदी की चर्चित कथा पत्रिका 'सारिका' के अनुरोध पर पुन: कहानियाँ लिखने लगे थे जो 'सारिका' में धारावाहिक छप रही थीं। किसी बड़े साहित्यकार से मिलने जाना हो, और उसे अधिक पढ़ा न हो, यह बात मुझे जच नहीं रही थी। तुम्हारी बात और थी, तुमने उनका बहुत कुछ पढ़ रखा था और इंटरव्यू भी तुम अपनी पी एचडी के सिलसिले में लेना चाहते थे, इसलिए बेफिक्र भी था। लेकिन, पहली बार मिलने और बातचीत करने पर मुझे उनमें बड़बोलापन भी नजर आया था। जैसे 'दिनकर से बड़ा कवि होता वाली बात'। मैंने यह भी प्रश्न किया था कि उपन्यास लिखते समय आपकी क्या तैयारी होती है, जिसके उत्तर में उन्होंने कहा था कि मैं कभी योजनागत ढंग से पहले से रूपरेखा बना कर नहीं लिखता। बस, लिखने बैठता हूँ तो सब अपने आप होता चला जाता है। मैं उनकी बात पर हैरान था कि उपन्यास लिखने वाला व्यक्ति ऐसे कैसे कह सकता है। खैर, तुम्हारा यहा छोटा सा लेकिन एक सुन्दर संस्मरण है उन पर। बधाई !

pran sharma ने कहा…

AAPKAA SANSMARAN ACHCHHA LAGAA HAI.MAINE BHAGVATI CHARAN VERMA KEE KAEE KAVITAYEN
PADHEE HAIN.KAVITHAYEN THEEK-THEEK HAIN
LEKIN KAHAN RAMDHARI SINGH " DINKAR" AUR
KAHAN BHAGWATI CHARAN VERMA? ZAMEEN-AASMAAN
KAA ANTAR! DINKAR JAESA KAVI SADIYON KE BAAD
PAEDA HOTA HAI.BHAGWATI CHARAN VERMA KE BAARE
MEIN JO BAAT AAP NAHIN KAH SAKE VO BAAT
SUBHASH NEERAV JEE NE KAH DEE HAI.BHAGWATI
CHARAN VERMA MEIN UNKO BADBOLAPAN NAZAR
AAYAA.
AESE HEE KUCHH AUR SANSMARAN HO JAAYEN
BHAVISHYA MEIN.

बेनामी ने कहा…

इतनी ऊँचाई पर पहुँच कर भी वर्मा जी इतने कुंठाग्रस्त थे , जानकर अजॊब लगा। यह उनकी कुंठा ही रही होगी जो उनसे यह वक्तव्य- मैं दिनकर से बड़ा कवि होता- दिलवा गई ।
यह संस्मरण भी अच्छा लगा।
आपकी रचना -यात्रा चलती रहे।
सादर
इला

रूपसिंह चन्देल ने कहा…

यार सुभाष

तुम्हारी यह महत्वपूर्ण बात मैं भूल ही गया था, जिसका तुमने उल्लेख किया -- उपन्यास लिखने वाली बात. तुमने टिप्पणी के रूप में ही सही यह लिखकर संस्मरण को और अच्छा कर दिया है. इसका उत्तर मैं दे रहा और अपनी गलती स्वीकार रहा हूं. यदि तुम याद दिलादेते तो उसे शामिल कर लेता. खैर इसी रूप में ही सही.

चन्देल

बेनामी ने कहा…

dear roop singh chandel jee
aapki tamaam dak dil khush kar deti hai
aapse request hai ki rajkamal se prakashit mera novel pahchan zuroor padhen
aur us par pratikriya likhen
aapka
anwarsuhail

Dr. Sudha Om Dhingra ने कहा…

संस्मरण पढ़ा, कुछ बातें जानती थी और कुछ जानकर अच्छा लगा. ऐसे ही संस्मरण पढ़ने को मिलते रहें -आशा करती हूँ.
बहुत -बहुत बधाई.

लावण्यम्` ~ अन्तर्मन्` ने कहा…

आ . भगवती बाबू का बडबोलापन ,
उनके भोले मन और पारदर्शी ह्रदय की ओर इंगित करता है
ऐसा मेरा मत है - -

चाचाजी श्री अमृत लाल नागर जी
तथा भगवती बाबू का
मित्र होने के नाते
मेरे स्व. पिता पं. नरेंद्र शर्मा के
साहित्यिक जीवन के विभिन्न मोडों पर ,
बहुत प्रभावशाली प्रभाव रखता है -

- ख़ास तौर से ,
भगवती बाबू के कहने से ही
पापा अंग्रेजों की जेल से मुक्त होकर ,
अपने गाँव खुर्जा / बुलंदशहर गए थे

वहीं से बोम्बे टाकीज के फिल्मी गीतकार के रूप में
पापा जी को ,
भारत की प्रथम सुपर स्टार देविका रानी के कहने पर ,
भगवती बाबू ही ,
नरेंद्र शर्मा को बंबई लाये थे

ये एक महत्त्वपूर्ण कदम था -

और अमृतलाल नागर जी भी बंबई में ही थे -

- पापा के बंबई स्थायी होते ही ,
हिन्दी छायावादी कविता के महाकवि
आ. पन्त जी भी ,
पापा जी के साथ ही रहने के लिए ,
आ पहुंचे थे --
आ. दिनकर जी की निजी जिंदगी
अन्य साहित्यकारों की तरह ,
उनका अपना जीवन था - -

इन सारे महान रचनाकारों का
हिन्दी भाषा व साहित्य के लिए किया गया योगदान ,
सदा ही , अविस्मरनीय रहेगा
-- सादर,
- लावण्या

ashok andrey ने कहा…

priya bhai chandel iss sansmaran ko padnaa achchha lagaa kyonki iss tarah se hum kisii bhee lekhak ko kreeb se jaan pate hein vaese uprokt lekhakon ne kaaphee kuchh keh dia hae
vaese kai baar sansmaran hame rastaa bhee deekhaate hein jo jaruri bhee hae
ashok andrey

बेनामी ने कहा…

bhagwati babu ki choti see ye jhalak achhi hai.

Mahesh Darpan