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शुक्रवार, 1 मई 2009

पुस्तक चर्चा

’खुदीराम बोस उपन्यास’ के विषय में दो शब्द

रूपसिंह चन्देल

मैं इतिहास का विद्यार्थी कभी नहीं रहा, लेकिन इतिहास में रुचि है--- विशेषरूप से क्रान्तिकारी इतिहास मे.शायद यही कारण रहा कि अपने लेखन के प्रारंभिक दौर में मैनें कुछ ऎतिहासिक कहानियां लिखीं. मेरा सबसे पहला उपन्यास किशोरों के लिए लिखा गया था शिवाजी को केन्द्र में रखकर - ’ऎसे थे शिवाजी’ जो १९८५ में ’चांद कार्यालय , इलहाबाद ( यह वही प्रकाशन था जहां से हिन्दी की प्रसिद्ध पत्रिका ’चांद’ निकलती थी और जिसके ’फांसी अंक’ ने ब्रितानी सरकार को हिलाकर रख दिया था. अंततः उन्होंने इसे प्रतिबन्धित कर दिया था. ) से प्रकाशित हुआ था.

मेरा दूसरा किशोर उपन्यास प्रसिद्ध क्रान्तिकारी करतार सिंह सराभा को केन्द्र में रखकर लिखा गया था. सराभा ने १८ वर्ष की आयु में ऎसे कार्य कर डाले थे, जिनकी कल्पना बड़े भी नहीं कर सकते. पंजाबी में उन पर मुकम्मल एक बड़ा उपन्यास लिखा गया , लेकिन हिन्दी में सराभा पर ऎसा कोई उपन्यास या उनकी जीवनी नहीं थी विशेष रूप से किशोरों के लिए. उन दिनों मैं कहानियों के साथ बाल साहित्य भी निरन्तर लिख रहा था. सराभा पर लिखा गया उपन्यास - ’अमर बलिदान’ १९९२ में ’राजपाल एण्ड संस’ से प्रकाशित हुआ और जिन्दगी में पहली और अंतिम बार मैंने अपनी किसी कृति का कॉपी राइट किसी प्रकाशक को बेचा था. यह पैसों के लिए नहीं था----- शायद एक बड़े प्रकाशक के यहां से प्रकाशित होने का मोह इसके पीछे रहा था. आज मेरी परेशानी का अनुमान लगाया जा सकता है. राजपाल एण्ड संस से कॉपी राइट वापस पाना एक टेढ़ी खीर है.

मेरा तीसरा किशोर उपन्यास था - ’क्रान्तिदूत अजीमुल्ला खां’ . वास्तव में अजीमुल्ला को केन्द्र में रखकर मैं एक बड़ा महत्वाकांक्षी उपन्यास लिखना चाहता था, लेकिन लिख नहीं पा रहा था और आज तक नहीं लिख पाया, जबकि उसपर मैं १९८३ से निरंतर सामग्री का संचयन करता आ रहा था. १८५७ के एक सौ पचास वर्ष मनाये जाने के दौरान कई प्रकाशकों ने उसे शीघ्रातिशीघ्र लिख डालने का आग्रह किया ,लेकिन मैं उस महान व्यक्ति के प्रति जल्दबाजी नहीं करना चाहता. हां, जब प्रकाशन विभाग के निदेशक डॉ. श्याम सिंह शशि ने इस विषय पर किशोरों के लिए लिख देने का आग्रह किया तब १९८८ में यह लिखा गया और यह भी प्रकाशन विभाग, भारत सरकार, से १९९२ में प्रकाशित हुआ और अब तक असमिया और पंजाबी भाषाओं में न केवल इसके अनुवाद प्रकाशित हो चुके हैं बल्कि हिन्दी में यह दस हजार प्रतियों के लगभग बिक भी चुका है.

कर्तार सिंह सराभा की भांति एक और युवक था - खुदीराम बोस, जिसे अंग्रेजों ने सराभा की भांति ही १८ वर्ष की आयु में ११ अगस्त, १९०८ को फांसी दे दी थी. वास्तविकता यह है कि आजादी के लिए शहीद होने वाला वह पहला किशोर क्रान्तिकारी था. सराभा को भी १८ वर्ष की आयु में ही फांसी पर लटका दिया गया था, लेकिन खुदीराम बोस के वर्षों बाद.

खुदीराम बोस पर हिन्दी में इतनी कम सामग्री उपलब्ध थी कि आश्चर्य हो रहा था. मैंने सामग्री संकलित की. बांग्ला साहित्य में उन पर पर्याप्त लिखा गया है, लेकिन न मुझे बांग्ला आती थी और न मेरे लिए अनुवाद उपलब्ध था. अंग्रेजी और हिन्दी में जो प्रामाणिक सामग्री मुझे उपलब्ध हुई वही ’खुदीराम बोस’ उपन्यास का आधार बनी. कुछ लोग इसे जीवनी मानते हैं, लेकिन अपनी सम्पूर्णता में यह उपन्यास है . इसे पढ़कर क्रान्तिकारी साहित्य के मर्मज्ञ और क्रान्तिकारियों पर महत्वपूर्ण कार्य करने वाले प्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार सुधीर विद्यार्थी ने पहला प्रश्न किया था कि आप बंगाल में कब और कितने दिन रहे थे. मेरा उत्तार था कि चार-पांच वर्ष की आयु के दौरान (१९५६-५७) कलकत्ता में रहा था जब पिताजी वहां रेलवे में नौकरी करते थे. उनका आभिप्राय था कि बंगाल में रहे बिना इतना प्रामाणिक और पठनीय उपन्यास लिखने में मुझे सफलता कैसे मिली ! यहां यह बताना आवश्यक है कि कथा को गति देने के लिए दो-तीन पात्र और कुछ घटनाओं की ही कल्पना की गई है. लेकिन कहीं और किसी रूप में भी ऎतिहासिकता से छेड़ -छाड़ नहीं की गई. जब मेरे प्रकाशक ने कहा कि उपन्यास का एक अंश पढ़कर वह रो पड़े थे तब मैंने अनुभव किया था कि अपने प्रयास में मैं सफल रहा था, क्योंकि एक तो हिन्दी का प्रकाशक कृतियों को पढ़ते नहीं (छापने से पहले भी ) और यदि गलती से पढ़ भी लिया तो उनकी आंखों में आंसू ----- खुदा का नाम लीजिए. वे तो लेखक के आंखों में आंसू देखने के लिए विकल रहते हैं.

उपन्यास ’प्रवीण प्रकाश” (मेहरौली, नई दिल्ली- अब दरियागंज, नई दिल्ली ) ने ८ अगस्त, १९९७ को प्रकाशित किया था और सबसे पहली प्रति रफी मार्ग, नई दिल्ली स्थित ’यूनिवार्ता’ के कार्यालय पहुंचाय़ी थी, क्योंकि ११, अगस्त को खुदीराम बोस का शहीदी दिवस था. ’युनिवार्ता ’ ने उपन्यास के आधार पर लगभग एक हजार शब्दों का जो फीचर तैयार किया वह ११ अगस्त, १९९७ को देश के लगभग सभी हिन्दी समाचार पत्रों में प्रकाशित हुआ था. ’राष्ट्रीय सहारा ’ ने इसे १३ अगस्त को प्रकाशित किया था.

पाठकों ने किस गंभीरता से इसे ग्रहण किया इसका प्रमाण यह है कि अप्रैल, २००९ में इसका पांचवां संस्करण प्रकाशित हुआ है, जबकि चौथा संस्करण जनवरी, २००८ में विश्व पुस्तक मेला के दौरान प्रकाशित हुआ था. प्रस्तुत है प्रथम संस्करण पर लिखी गयी और ’अमर उजाला’ में प्रकाशित वरिष्ठ कथाकार ज्ञानप्रकाश विवेक की समीक्षा :
प्रवीण प्रकाशन, दरियागंज, नई दिल्ली-११०००२
पृष्ठ - १५६, मूल्य : २००/-
अमेरिका में यह उपन्यास : www.pustak.org
में उपलब्ध है। इसके लिए श्री अभिलाष त्रिवेदी से : actrivedi@gmail.com पर संपर्क कर सकते हैं.

समीक्षा


खुदीराम बोस के विस्मृत जीवन की एक झलक

ज्ञान प्रकाश विवेक

देश की स्वतंत्रता के संदर्भ में नेताजी सुभाष चन्द्र बोस की पंक्तियां ध्यान आती हैं. उन्होंने कहा था, "आजादी सहज उपलब्ध हो जाए, तो न उसका महत्व होता है न मुल्यांकन! " भारतीय स्वतंत्रता किसी तश्तरी में परोसकर नहीं दी गई. उसके पीछे बलिदानों और देशवासियों की शौर्यकथाओं का लंबा और गौरवपूर्ण इतिहास है. १८५७ के स्वतंत्रता संग्राम से १९४७ तक सैकड़ों वीरों का स्मरण और उनकी वीरता तथा दृढ़ संकल्पों के दस्तावेज एक नए रक्त का संचार करते हैं. उन्हीं वीर पुत्रों में एक थे खुदीराम बोस.

कथाकार रूपसिंह चन्देल ने खुदीराम बोस की जीवनी को औपन्यासिक कृति के रूप में सृजित करते हुए पठनीयता का विशेष ध्यान रखा है. उपन्यास, जीवनी के अधिक निकट होने के बावजूद, कल्पनाशीलता और यथार्थ के संश्लिष्ट तालमेल की अच्छी प्रस्तुति है. वस्तुतः जीवनियों को उपन्यास विधा में उतारना दिक्कत भरा काम इसलिए होता है कि कथानक जीवनी और उपन्यास (या कहें कि यथार्थ और कल्पना) के बीच झूलता रह जाता है. रूप सिंह चन्देल इससे बचे हैं. यह सफलता इसलिए भी हासिल हुई है कि वे अधिक जोखिम (कल्पनाशीलता का जोखिम) नहीं उठाते. इसके बावजूद खुदीराम बोस के जीवन संबंधी सभी पहलू और घटनाएं उपन्यास की मुख्य कथा के साथ जुड़ते चले जाते हैं.

जाहिर है खुदीराम बोस स्वयं उपन्यास का मुख्य पात्र है और पात्रता के सभी गुण उसमें मौजूद हैं. कथा में मुख्य पात्र खुदीराम विचलित है. संभवतः किसी तलाश में है. तलाश क्या है, स्वयं उसे भी नहीं मालूम. उस तलाश के लिए उपयुक्त रास्ता दिखाते हैं क्रांतिकारी सत्येन्द्रनाथ . इसके पश्चात खुदीराम का विचलन समाप्त हो जाता है और देशप्रेम का जज्बा तथा स्वतंत्रता की कामना उसका दृढ़ संकल्प बन जाता है.

उपन्यास में अपने भांजे ललित के साथ खुदीराम की शैतानियां तथा अपने संगी- साथियों के साथ झगड़े, उसके भीतर की ईमानदारी , सचाई और साहस को भी लक्षित करते हैं. गौरतलब है कि बचपन में ही खुदीराम के माता-पिता चल बसे और बड़ी बहन ने खुदीराम का पालन-पोषण किया था. खुदीराम नाम भी बड़ी बहन ने दिया था.

उपन्यास में बचपन से खुदीराम के बलिदान तक के प्रसंग सिलसिलेवार कथासूत्र में गुंधे हुए हैं. क्रांतिकारी विचारों से लैस सत्येंद्रनाथ ने खुदीराम को एक चट्टान जैसा व्यक्तित्व प्रदान करने में जरूर मदद की. गौरतलब है कि भगत सिंह हों, बिस्मिल हों अथवा खुदीराम बोस, सभी अध्येता भी थे. उनमे केवल जोश नहीं, विवेकशील चिंतन और गहरी समझ भी थी. किंग्जफोर्ड जैसे क्रूर, अत्याचारी अधिकारी पर बम फेंकना, आतंकवादी घटना नहीं , अत्याचारों के विरुद्ध देश के युवाओं की बुलंद आवाज थी. आम मनुष्य के प्रति करुणा का भाव था. दुर्भाग्यवश किंग्जफोर्ड बच गया. खुदीराम बोस के साथी प्रफुल्ल चाकी ने स्वयं को गोली मार ली और खुदीराम बोस को फांसी की सजा हुई.

उपन्यास में क्रांति और देशप्रेम की भावना को जीवंतता प्रदान की गई है. चन्देल ने खुदीराम बोस की जीवनी पर उपन्यास रचकर, खुदीराम के विस्मृत जीवन तथा घटनाओं को पाठकों के बीच लाने का महत्वपूर्ण कार्य किया है.

खुदीराम बोस के जीवन पर आधारित यह पहला और प्रामाणिक उपन्यास है, ऎसा मेरा मानना है.

3 टिप्‍पणियां:

बलराम अग्रवाल ने कहा…

'खुदीराम बोस'के पाँचवें संस्करण के प्रकाशन पर आपको और प्रकाशक को दोनों को बधाई। इससे यह भी सिद्ध होता है कि(जैसा कि वर्तमान धनाश्रित समाज को देखने पर प्रतीत होता है)क्रांतिकारियों के विषय में जानने की चेतना कहीं भी मरी नहीं है,जिन्दा है।

pran sharma ने कहा…

BHARAT AAJ SAAMAAJIK VISHAMTAAON SE GUZAR
RAHAA HAI.AESEE PARISTHIYON MEIN SUBHASH
CHANDER BOSE ,KARTAAR SINGH SARAABHAA, BHAGAT
SINGH,CHANDER SHEKHAR AAZAAD,KHUDEERAMBOSE
JAESE KRANTIKAARION KE VICHAARON KAA JANMAANAS
TAK PAHUNCHNAA ATI AAVASHYAK HAI.
"KHUDEE RAM BOSE"UPNYAS KE PAANCHVEN
SANSKARAN PAR AAPKO AUR PRAKASHAK KO DHERON
BADHAAEEYAN.GYAN PRAKASH "VIVEK" KEE SMEEKSH NE
UPNYAS KO CHAAR CHAAND LAGAA DIYE HAIN.UNHEN BHEE
BADHAAEE.

बेनामी ने कहा…

रूप सिंह जी,
यह मैंने पढ़ा । लेकिन जब टिप्प्णी डाली तो गई नहीं शायद, चेक कीजियेगा। आप बड़े लेखक हैं , वरना कितनी किताबों को पाठकों की यह स्वीकृति मिलती है कि उसका पाँचवा संस्करण छपे। प्रकाशक भी कहाँ ईमान दार होते हैं । हो सकता है वास्तविकता में यह पाँचवा न होकर , सातवाँ , आठवाँ संस्करण हो। तब भी....

मैंने गुलाम बाद्शाह का अंश भी पढ़ा । रोचक उपन्यास लगता है। इसे भी पाठकों/आलोचकों की स्वीकृति मिले - यही कामना करना चाहँगी।
इला प्रसाद (USA)