आत्मीय,जीवन्त,खुद्दार और अति संवेदनशील व्यक्ति
रूपसिंह चन्देल
यह बता पाना कठिन
है कि क़मर मेवाड़ी जी से मेरा परिचय किस माह और वर्ष हुआ. अनुमान ही लगा सकता हूं कि
वह १९८८ की बात होगी. सम्बोधन से मेरा परिचय किसी लेखक मित्र के माध्यम से हुआ था.
कहानी भेजी और कुछ दिनों बाद क़मर भाई का पोस्टकार्ड मिला कि आगामी अंक में कहानी प्रकाशित
करेंगे. पत्रों का आदान-प्रदान प्रारंभ हो गया. उन दिनों मैं प्रतिदिन ढेरों पत्र लिखता. सम्पादकों, लेखक मित्रो, और उन पाठकों को जो मेरी
रचनाओं पर अपनी प्रतिक्रिया देते थे. बेहद
खराब, उबाऊ और पीड़क नौकरी में रहते हुए भी मैं सारे पत्र दफ्तर में ही लिखता. सुबह
जल्दी पहुंच जाता तब काम शुरू करने से पहले कुछ पत्र लिख लेता और शेष लंच के दौरान.
प्रतिदिन कम-से कम दस पत्र. ढेरों अंतर्देशीय और पोस्टकार्ड बैग में पड़े रहते. शाम
घर लौटकर लेटर बॉक्स देखता और यदि किसी दिन (ऎसा कभी ही होता) कोई पत्र न आया होता
तब शाम चाय फीकी लगती.
हिन्दी के दो ऎसे
लेखक हैं जिनके साथ मेरा पत्राचार सर्वाधिक हुआ. एक हृदयेश और दूसरे क़मर मेवाड़ी. क़मर
मेवाड़ी जी के साथ हृदयेश जी से कहीं अधिक पत्राचार रहा. हृदयेश जी के पत्र सदैव अपने
किसी काम से आते जबकि क़मर भाई से पत्राचार
रचनात्मक कारणों से होता.
फोन पर पहली बार कब
बात की यह भी याद नहीं, लेकिन स्पष्ट है कि तब मोबाइल न मेरे पास था और न क़मर भाई के
पास. शायद किसी रचना के सिलसिले में मैंने
उन्हें दफ्तर से फोन किया था. यह बात निश्चित ही २००४ से पहले की है. यद्यपि पत्रों
से उनके व्यक्तित्व का एक खाका मेरे मन-मस्तिष्क में निर्मित हो चुका था. उनके चित्र
अनेक बार देख चुका था और चित्र भी किसी के व्यक्तित्व के विषय में अच्छी समझ देते हैं.
लेकिन फोन पर बात करने के पश्चात उनकी वाणी का माधुर्य और ठहाकों ने मुझे बहुत ही प्रभावित
किया. अनुभव किया कि वह एक अलमस्त,गंभीर, स्वाभिमानी और संवेदनशील लेकिन चीजों की परवाह
न करने वाले व्यक्ति हैं. ऎसा ही व्यक्ति सीमित साधनों के बावजूद १९६६ से किसी पत्रिका को निरंतर निकालने का साहस कर सकता
है. सम्बोधन के कितने ही बड़े विशेषांक निकाले
उन्होंने –व्यक्ति केन्द्रित भी और विधा और विमर्श केन्द्रित भी. कहानी,,संस्मरण और
स्त्री विमर्श विशेषांक तो बहु-चर्चित रहे.
क़मर भाई ने कहानी, कविता, संस्मरण, उपन्यास आदि विधाओं में
अपनी रचनात्मकता को सार्थकता प्रदान किया. समय से साक्षात करती इनकी कविताएं जन सरोकारों
से जुडती हैं तो कहानियों में समाजिक विद्रूपता, राजनैतिक कुरूपता, आर्थिक ,धार्मिक
आदि समस्याएं उद्घाटित हुई हैं. कहानियों की विशेषता उनका छोटा होना है. क़मर मेवाड़ी
का कथाकार अनावश्यक विवरण प्रस्तुत करने में विश्वास नहीं करता. उनकी पहली कहानी ८
मार्च, १९५९ के साप्ताहिक हिन्दुस्तान में प्रकाशित हुई थी. अब तक दस से अधिक पुस्तकें
प्रकाशित हो चुकी हैं, जिनमें उनका एक मात्र उपन्यास – ’वह एक’ (१९७४) भी है.
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एक बार का वाकया याद
आ रहा है. मैंने एक कहानी ’चेहरा’ शीर्षक से
सम्बोधन को भेजा. दो माह बीत गए, क़मर भाई का कोई पत्र नहीं आया. मैंने पत्र लिखा लेकिन
वह अनुत्तरित रहा. सोचा कि कहानी उन्हें पसंद नहीं आयी. कुछ दिन और प्रतीक्षा की, लेकिन
कोई उत्तर नहीं. मैंने कहानी सण्डे मेल को भेज दी. उन दिनों रमेश बतरा वहां साहित्य
देख रहे थे. रमेश ने तीसरे सप्ताह उसे प्रकाशित कर दिया. एक सप्ताह बाद ही क़मर भाई
का पोस्टकार्ड मिला. लिखा था, “किसी रचना का एक से अधिक पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित
होना अच्छी बात है. जितने अधिक पाठकों द्वारा वह पढ़ी जाए उतना ही अच्छा. आपकी चेहरा कहानी सण्डे मेल प्रकाशित
देखी. कहानी आपने मुझे भेजी थी और सम्बोधन
में भी प्रकाशित हो गयी है. एक-दो दिन में अंक आपको भेज रहा हूं.” क़मर भाई ने बहुत ही शिष्ट तरीके से अपना विरोध
व्यक्त किया था. मैं बहुत शर्मिन्दा हुआ था अपने अधैर्य को लेकर. पत्र लिखकर मैंने
क्षमा मांगी थी. वह उन सम्पादकों में नहीं कि उस त्रुटि के लिए मुझे अपनी पत्रिका से
ब्लैकलिस्ट कर देते. हमारे सम्बन्ध यथावत बने रहे.
कानपुर के कथाकार
सुनील कौशिश कथानक पत्रिका निकालते थे. कौशिश जी ने भी मेरी कई कहानियां कथानक में प्रकाशित की थीं. मुझे यह जानकारी नहीं
थी कि वह मधुमेह के पुराने और गंभीर मरीज थे. कानपुर में यशोदा नगर में बड़े भाई साहब
के घर से दस मकान छोड़कर उनका मकान था. १९९१ जून में उनसे मेरी मुलाकात हुई. कौशिश जी
बहुत अच्छे नहीं तो बहुत खराब कथाकार भी न थे. उनकी कई कहानियां चर्चित रही थीं, लेकिन
वह स्थानीय साहित्यिक राजनीति का शिकार थे. जब मिला तब इस बारे में उन्होंने अपना दुखड़ा सुनाया था. लेकिन उनकी
उपेक्षा का एक प्रमुख कारण शायद उनका स्वभाव भी रहा होगा. वह चिड़चिड़े हो चुके थे और
बात-बात में लोगों को गाली दे रहे थे. यहां तक कि मेरे खिलाफ भी बोलते रहे थे. मेरी
चूक यह थी कि दो बार उनके दिल्ली आगमन पर वायदा करके भी मैं दफ्तर की व्यस्तता के कारण
उनसे नहीं मिल सका था. लेकिन दो लोगों की
उन्होंने मुक्तकंठ प्रशंसा की थी. एक क़मर मेवाड़ी
और दूसरे डॉ. माधव सक्सेना ’अरविन्द’ की. कुछ
दिनों बाद ही उनका स्वास्थ्य अधिक खराब हुआ और इलाज के लिए उन्हें मुम्बई जाना पड़ा.
जहां कुछ दिन वह अरविन्द जी के घर रहे और शायद वहीं उनका निधन हुआ था. उनके निधन की
सूचना मुझे अरविन्द जी से मिली. पत्र लिखकर मैंने यह बात क़मर भाई को बताई. पत्र आया.
दुख प्रकट करते हुए लिखा, “चन्देल भाई, आप कौशिश जी पर सम्बोधन के लिए एक संस्मरण लिख
दें---इसी अंक में देना चाहूंगा.” मैंने कौशिश
जी पर उन्हें संस्मरण लिख भेजा. संस्मरण विधा की वह मेरी पहली रचना थी. सम्बोधन को
कौशिश जी पर संस्मरण लिख भेजने के पश्चात अरविन्द जी ने फोन करके कथाबिंब के लिए लिखने
का आग्रह किया. मैंने बताया कि वह तो सम्बोधन के आने वाले अंक में प्रकाशित हो रहा
है. अरविन्द जी ने कहा, “भाई, उसे मुझे देना चाहिए था. उस पर कथाबिंब का पहले अधिकार
था, खैर…” कुछ दिनों तक अरविन्द जी की नाराजगी बनी रही थी.
एक और घटना. मैंने
राजेन्द्र यादव का लंबा साक्षात्कार किया. साक्षात्कार ’अकार’ के अंक तीन में प्रकाशित
हुआ. राजेन्द्र यादव भी क़मर मेवाड़ी के जुझारू व्यक्तित्व के प्रशंसक थे. साक्षात्कार
में उन्होंने सम्बोधन की विशेष चर्चा की थी.
उनके साथ अपनी बातचीत के विषय में क़मर भाई से फोन पर चर्चा हुई तो वह बोले,
“चन्देल भाई, दो-तीन और लोगों के साक्षात्कार कर लें तो सम्बोधन का साक्षात्कार विशेषांक निकाल दूंगा आपके अतिथि सम्पादन में. मैंने कहा
कि राजेन्द्र जी का इंटरव्यू तो प्रकाशित हो चुका. बोले, “क्या फर्क पड़ता है. अकार
के पाठक अलग और सम्बोधन के अलग. कुछ लोग ही होंगे कॉमन---तो आप इस काम को कर डालें.”
मैंने धीमे स्वर में हां की किन्तु, राजेन्द्र जी के बाद किसी अन्य साहित्यकार का चाहकर भी साक्षात्कार नहीं कर पाया. लेकिन प्रकाशित साक्षात्कार पुनः
प्रकाशित करने की दिलेरी क़मर मेवाड़ी ही दिखा सकते थे.
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नवंबर,२०१३ में एक
सुबह सूचना मिली कि मेरे उपन्यास ’गुलाम बादशाह’ को ’आचार्य निरंजननाथ सम्मान’
के लिए चुना गया है. अकस्मात प्राप्त ऎसी सूचना
से कौन प्रसन्न न होगा. अगले दिन रात “आचार्य निरंजननाथ सम्मान समिति’ के अध्यक्ष कर्नल देशबंधु आचार्य का फोन आया. कर्नल साहब ने लंबी बात की. सम्मान समारोह २५ दिसम्बर,
२०१३ को सुनिश्चित किया गया था. कर्नल साहब ने मुझसे २४ दिसम्बर को पहुंचने का आग्रह
किया. फिर उन्होंने सम्मान के विषय में विस्तार से बताया. तभी पता चला कि आचार्य निरंजननाथ
उनके पिता थे और एक अच्छे साहित्यकार के साथ ही राजस्थान विधान के अध्यक्ष रहे थे. इस सम्मान की रपट प्रतिवर्ष सम्बोधन
में देखता तो था, लेकिन उसके विषय में
अधिक नहीं जानता था. उसके दो दिन बाद क़मर भाई का फोन आया और उन्होंने भी मुझे २४ दसम्बर
को पहुंचने का आग्रह किया. एक सप्ताह बाद प्रेस विज्ञप्ति मुझे मेल से प्राप्त हुई
तब निर्णायकों के विषय में ज्ञात हुआ.
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२४ दिसम्बर को सुबह चित्तौड़ से ही गज़ब का कोहरा दिखाई
देने लगा था. ट्रेन की गति इतनी मंद कि लगे कि वह रेंग रही थी. क़मर भाई का फोन सुबह
५.४० पर आ गया. मैंने उन्हें वस्तुस्थिति बताई. बोले, “चिन्ता न करें, कर्नल साहब से
बात हुई है. वे आपको लेने पहुंच रहे हैं.” फिर पूछा, “ विष्णु नागर जी भी इसी ट्रेन
में हैं---मुलाकात हुई?” मैंने कहा, “नहीं हुई.” (पुरस्कार नागर जी के हाथों दिलाया
जाना था) क़मर भाई बोले, “कोई बात नहीं.” थोड़ी देर बाद कर्नल साहब का फोन आ गया. मैंने
कहा, “ट्रेन आठ बजे से पहले उदयपुर नहीं पहुंचेगी.” बोले, “मैं वहीं मिलूंगा.” ट्रेन
के उदयपुर पहुंचने तक चार बार और क़मर भाई के फोन आए. कर्नल साहब ने भी किए. दोनों की
आत्मीयता ने मुझे अभिभूत कर दिया था. ’इतना सम्मान कैसे संभाल पाउंगा” सोचता रहा था.
उदयपुर स्टेशन पर
विष्णुनागर और श्रीमती नागर से मेरी मुलाकात हुई. वह कर्नल देशबन्धु आचार्य से पूर्व
परिचित थे. पहले भी किसी को पुरस्कार देने के लिए जा चुके थे. मैं दिन भर कर्नल साहब
के आतिथ्य में रहा. नागर दम्पती शहर घूमने चले गए थे. लगभग तीन बजे हम राजसंमद के लिए चले. पांच बजे के लगभग हम राजसमंद पहुंचे. एक वाटिका
के रेस्टॉरेण्ट में क़मर भाई हमारी प्रतीक्षा
कर रहे थे. हम गले मिले. वर्षों से जिस व्यक्ति से पत्रों –फोन के माध्यम से मिलता
रहा था, पहली बार मिलकर लगा कि मैं तो उनसे सैकड़ों बार मिल चुका था. हल्के नीले सूट
में मुस्कराता चेहरा, दुबला मध्यम कद, चमकती खूबसूरत बड़ी भेदक आंखें—प्रभावित करने
वाला व्यक्तित्व है क़मर भाई का. कुछ देर पश्चात नागर दम्पति भी पहुंच गए. चाय पकौड़ों
के बाद हमें जेके गेस्ट हाउस पहुंचाया गया. वहां की व्यवस्था कवि नरेन्द्र निर्मल ने
संभाल रखी थी. रात लौटने से पहले क़मर भाई ने पूछा, “चन्देल साहब, संकोच न करिएगा. यहां
सारी व्यवस्था है.” मैं समझ नहीं पाया तो कर्नल साहब ने स्पष्ट किया, “क़मर भाई का मतलब
ड्रिंक से है.” मैंने मुस्कराते हुए कहा, “मैं नहीं लेता.” जाते जाते दोनों ने नरेन्द्र
निर्मल को ताकीद की कि हमें कोई कष्ट न होने पाए.
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25 दिसम्बर को सुबह
११ बजे पुरस्कार समारोह था. वहां पहली ही बार
मेरी मुलाकात वरिष्ठ कथाकार माधव नागदा से हुई. वह भी उस पुरस्कार के निर्णायकों में
से एक थे. क़मर भाई बहुत व्यस्त थे. दौड़कर-दौड़कर सारी व्यवस्था देख रहे थे. मैं सोच
भी नहीं सकता था कि छः माह पश्चात ही वह पचहत्तर वर्ष के होने वाले हैं. आज सोचता हूं कि उनकी यह सक्रियता ही उन्हें जवान
बनाए हुए है.
कार्यक्रम बहुत ही
सादा लेकिन भव्य था. देखकर हैरान था कि स्थानीय साहित्यकारों के अतिरिक्त बड़ी संख्या में साहित्य प्रेमी वहां उपस्थित थे.
इतनी भीड़ दिल्ली जैसे महानगर में होने वाले किसी साहित्यिक कार्यक्रम में नहीं होती. मुझे इस बात का अफसोस रहा कि क़मर भाई से बहुत ही
संक्षिप्त मुलाकात रही. दो-चार घण्टे बैठकर बातें करने का अवसर ही न था. तीन बजे ट्रेन पकड़ने के लिए निकलना था. शाम
सवा छः बजे ट्रेन थी. पिछले दिन की ही भांति कर्नल साहब ने मेरी जिम्मेदारी संभाल रखी थी. साथ में उनकी पत्नी
श्रीमती सुधा आचार्य भी थीं. चलते समय क़मर भाई दौड़कर मेरे पास आए. उनके चेहरे पर उदासी
थी. बोले, “चन्देल साहब, मजा नहीं आया इस संक्षिप्त मुलाकात में.” मैं बोला, “जल्दी
ही आने का कार्यक्रम बनाउंगा तब पूरा दिन आपके साथ रहूंगा.” उन्होंने उदास आंखों मुझे
विदा किया. पुनः मिलने की आकांक्षा लिए मैं उदयपुर जाने के
लिए गाड़ी में कर्नल साहब के बगल में बैठ गया था. राजसंमद से निकलते ही कर्नल साहब की
बातों का सिलसिला शुरू हो गया था. वह एक अच्छे किस्सागो हैं. दो घण्टे बीतने का पता
तब चला जब हम उदयपुर में प्रविष्ट हुए. उस समय पांच बज रहे थे.
इतने आत्मीय व्यक्ति सौभाग्य से ही मिलते हैं.
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