संस्मरण
जब तक यह व्यक्ति जीवित है----
रूपसिंह चन्देल
अप्रैल ०४,१९८७-- शनिवार का दिन. अपरान्ह तीन बजे का समय. मैंने दरियागंज की उस गली में प्रवेश किया जिसमें बायीं ओर गली के मोहाने पर एक चाय की दुकान थी. वह दुकान आज भी है. वहां मैंने अक्षर प्रकाशन के विषय में पूछा. दुकानदार ने बताया-’आखिरी बिल्डिंग’. बायीं ओर आखिरी बिल्डिंग पर अक्षर प्रकाशन का फीका-सा बोर्ड लटक रहा था. पहले कमरे में धंसते ही सामने जिस युवती से सामना हुआ वह बीना उनियाल थीं. बीना से मैं बोला, “राजेन्द्र जी से मिलना है”. उन्होंने उससे सटे कमरे की ओर इशारा करते हुए कहा, “उधर चले जाइए.”
दूसरे कमरे में सामने ही राजेन्द्र जी बैठे कुछ पढ़ते हुए दिखाई दिए. चेहरे पर चमकता तेज, काले बाल, जो स्पष्ट था कि डाई किए गए थे, आंखों पर मोटा चश्मा. प्रणाम कह मैंने परिचय दिया. मुस्कराते हुए बोले, “आओ—आओ…” और वह फिर पढ़ने में व्यस्त हो गए थे. शायद कोई रचना थी. उसे पढ़ने के बाद वह पाइप भरने लगे. पाइप भर उसे सुलगा एक कश लेने के बाद वह बोले, “यह मेरी कमजोरी है. आपको बुरा तो नहीं लगेगा.” उनकी इस सौजन्यता के समक्ष मैं नतमस्तक हुए बिना नहीं रह सका. उन्होंने यह अहसास बिल्कुल नहीं होने दिया कि मैं उनसे पहली बार मिल रहा था. लगा कि वह मुझे वर्षों से जानते थे और मैं पहले भी कितनी ही बार उनसे मिला था. राजेन्द्र यादव और कमलेश्वर की यह बड़ी खूबी थी कि वह सामने वाले को अपरिचय का अहसास नहीं होने देते थे. यही नहीं राजेन्द्र यादव की एक खूबी यह भी थी कि वह अपने यहां बैठे या आने वाले हर व्यक्ति का परिचय दूसरों को देते थे.
उनसे यह मेरी पहली मुलाकात थी. मैं खास आभिप्राय से उनसे मिलने गया था. जनवरी के प्रारंभ में कहानी –‘आदमखोर’ उन्हें भेजी थी. कहानी के विषय में जानना चाहता था. मेरे कुछ कहने से पहले पीछे आंगन की ओर से एक नाटे कद के सज्जन आकर वहां बैठ गए. वह हरिनारायण थे. उनके आते ही राजेन्द्र जी उनसे बोले, “यह रूपसिंह चन्देल हैं…” कुछ रुके फिर पूछा, “इन्हें परिचय–फोटो के लिए पत्र भेजा?”
“नहीं..” हरिनारायण जी अपने स्वाभाविक मंद स्वर में बोले.
“अब भेजना क्या---कह दो.”
मैं समझ तो रहा था कि बात ’आदमखोर’ से संबन्धित थी, लेकिन फिर भी पूछ लिया, “किसलिए?”
“आपकी कहानी अगले अंक में जा रही है---आप एक हफ्ते में परिचय और चित्र उपलब्ध करवा दें.”
अंदर से प्रसन्नता अनुभव करता हुआ मैंने राजेन्द्र जी से मूर्खतापूर्ण प्रश्न किया, “आपको कहानी पसंद आयी?”
“पसंद न आती तो छप कैसे रही होती.”
उस दिन ही मुझे ज्ञात हुआ कि राजेन्द्र जी १९८१ तक शक्तिनगर में रहते रहे थे. जिस मकान में वह रहे थे वह उस मकान से मात्र तीन मिनट की दूरी पर था जिसमें मैं रहता था. उनके उस किराए के मकान के बाहर तिकोना पार्क था (आज भी है) जहां हम प्रायः रात में जाकर बैठा करते थे. शक्तिनगर का उनका वह मकान साहित्यकारों का केन्द्र था. लेकिन मैं इस जानकारी से अनभिज्ञ था. मुझे शक्तिनगर-कमलानगर के उन साहित्यकार मित्रों ने भी कभी इस विषय में नहीं बताया था जिनसे सप्ताह में मेरी दो-तीन मुलाकातें हो जाया करती थीं.
उस दिन राजेन्द्र जी से मेरी वह संक्षिप्त मुलाकात रही थी.
-0-0-0-0-
सुकून क्या होता है मैंने आज तक नहीं जाना. मेरे लिए वे दिन कुछ अधिक ही मारक थे. नौकरी के तनाव के साथ घर के तनाव--- लेकिन आश्चर्यजनक सच यह है कि उन तनावों के बीच न केवल अधिक लिखा जा रहा था बल्कि महत्वपूर्ण पढ़ भी रहा था. अब तक मेरे अनुभव यह बताते हैं कि कठिन स्थितियों में मैं अधिक ही रचनात्मक रहा. शनिवार-रविवार अवकाश के दिन होते और मै सुबह आठ बजे से ही किराए के मकान के उस हिस्से में दुबक लेता जिसे मैं स्टडी कहता था. वह कमरों से अलग सीढ़ियों के साथ था—बिल्कुल एकांत में. उसकी छत छः फुट से अधिक ऊंची और क्षेत्रफल चालीस वर्गफुट से अधिक न था. उसमें मैंने तख्त के साथ मेज सटा रखी थी. केन की एक कुर्सी भी थी---दोनों दिन नियमतः मैं दो बजे तक वहां बैठता---फिर शाम चार बजे से रात देर तक. हंस में ‘आदमखोर’ के प्रकाशन और पाठकों द्वारा उसके स्वागत ने लिखने का उत्साह कई गुना बढ़ा दिया था. लिखने बैठता तो सोचता कि किस विषय को पहले पकड़ूं. १९८७ के अंत में लंबी कहानी ‘पापी’ लिखी. मैं उन लेखकों की जैसी प्रतिभा का धनी नहीं जो एक बार में ही कहानी को अंतिम रूप दे लेते हैं. गोगोल का कहना था कि रचनाकार को लिखने के बाद रचना को दो-तीन माह के लिए रख देना चाहिए और उसपर निरन्तर चिन्तन करते रहना चाहिए. इस प्रकार उस रचना पर उसे कम से कम आठ बार काम करना चाहिए. मैंने हर रचना को – चाहे कहानी रही हो, उपन्यास,संस्मरण रहे हों या आलेख— कम से काम चार-पांच बार काम करता रहा हूं और आज भी करता हूं.
‘पापी’ को अंतिम रूप देने के बाद मैंने उसे हंस में भेज दिया. तीन महीने की प्रतीक्षा के बाद भी जब कोई उत्तर नहीं आया तब हंस कार्यालय गया. राजेन्द्र जी से मेरी वह दूसरी मुलाकात थी. महीनों बाद मैं उनसे मिला था. कमरे में धंसते ही उनके “आओ” कहने पर स्वभावानुसार जब मैंने “मैं रूपसिंह चन्देल” कहकर परिचय दिया, उन्होंने मुस्कराते हुए कहा, “इस सबकी आवश्यकता नहीं.” राजेन्द्र जी की एक विशेषता यह भी थी कि एक बार मिले व्यक्ति को वह कभी नहीं भूलते थे---उसका नाम भी उन्हें याद रहता था भले ही वह उनसे दोबारा वर्षों बाद क्यों न मिल रहा हो. उनकी स्मरण शक्ति अप्रतिम थी. हंस में अनगिनत बार गया और एक बार भी ऎसा नहीं हुआ कि चाय प्रस्तुत न की गई हो. वहां पहुंचते ही उनका सहायक दुर्गाप्रसाद और दुर्गा नहीं हुआ तो किसन पानी लेकर हाजिर हो जाते थे और उसके कुछ देर बाद ही चाय---यह स्वागत हर आने वाले के लिए था.
उस दिन भी चाय आयी. चाय पीते हुए मैंने ‘पापी’ का जिक्र किया.
“मेरी नजरों से नहीं गुजरी.” चाय पीते हुए राजेन्द्र जी बोले, “कितने दिन हुए भेजे हुए?”
“तीन महीने..”
राजेन्द्र जी ने बीना जी को बुलाया. एक आवाज में बीना उनकी मेज से आ टिकीं.
“देखो चन्देल की कोई कहानी आयी थी?” फिर मेरी ओर मुड़कर पूछा, “क्या शीर्षक बताया?”
मैंने शीर्षक बताया. बीना चली गयीं. कुछ देर बाद लौटीं, “इस शीर्षक की कोई कहानी रजिस्टर में चढ़ी हुई नहीं है.” मेरी ओर देखते हुए बीना जी ने मुझसे प्रश्न किया, “सर, आपने कैसे भेजा था?”
“साधारण डाक से.”
“फिर तो डाक में कहीं गुम हो गई होगी…आप दोबारा भेज दें.” बीना उनियाल ने मायूस-सा होते हुए कहा.
मैं उदास हो उठा. राजेन्द्र जी ने मेरी उदासी भांपी, “क्यों, क्या बात है---दूसरी प्रति नहीं है?”
“प्रति है.”
“फोटोस्टेट करवाकर दे जाओ.”
“हाथ से ही लिखना होगा….लेकिन कोई बात नहीं।” मैं उदासी से उबर चुका था, “मैं अगले शनिवार को दे जाउंगा.”
अब राजेन्द्र ने मुझे उधेड़ना शुरू किया. “कहानी के विषय में बताओ!”
“मतलब?” मैं उनका आभिप्राय नहीं समझ पाया था.
“कहानी का विषय क्या है?” राजेन्द्र जी बोले. सार-संक्षेप में मैंने उन्हें कहानी बताई. आधी सुनने के बाद ही वह बोले, “हाल ही में राजी सेठ का कहानी संग्रह आया है (उन्होंने शीर्षक बताया जो मैं भूल गया हूं) उसकी शीर्षक कहानी भी एक बच्चे पर केन्द्रित है.”
“मेरा पात्र बच्चा नहीं है और कहानी ग्राम्य जीवन पर है..”
राजेन्द्र जी कुछ देर चुप रहे फिर बोले, “तुम कहानी भेज दो ---देखता हूं.”
अगले शनिवार मैं स्वयं बीना को कहानी दे आया. साथ में डाक टिकट लगा लिफाफा भी नत्थी कर दिया. यह बात बीना जी को बता भी दी. एक माह बाद ‘पापी’ मेरे द्वारा दिए गए लिफाफे में वापस लौट आयी. कोई टिप्पणी नहीं थी उसमें. जब कोई कहानी राजेन्द्र जी की नज़रों से गुज़रकर वापस लौटती थी तब उनके हाथ की लिखी चिट अवश्य कहानी के साथ होती थी, जिसमें लौटाने का कारण वह लिखते थे. ‘पापी’ के बाद एक और कहानी हंस को भेजी थी जिसे लौटाते हुए राजेन्द्र जी ने कहानी पर टिप्पणी करते हुए छोटी-सी चिट रख दी थी जो आज भी मेरे पास है. ‘पापी’ के साथ उनकी टिप्पणी न होने से मुझे लगा कि राजेन्द्र जी ने किसी अन्य से कहानी पढ़वाकर उसे लौटा दिया था. लेकिन मेरा विचार सही नहीं था. अगले ही दिन मैंने ‘पापी’ को रविवार को भेज दिया और पन्द्रह दिन में ही जब वहां से स्वीकृति पत्र मिला तो मेरी प्रसन्नता का अनुमान लगाया जा सकता है. उसी शनिवार मैं ‘रविवार’ का स्वीकृति पत्र लेकर सीना ताने राजेन्द्र जी के सामने हाजिर था. संयोग कि वह अकेले थे. मैंने ‘पापी’ के लौटाए जाने का कारण पूछा. राजेन्द्र जी ने कहा, “सभी कारण बताए नहीं जाते.”
मैंने उन्हें ‘रविवार’ में उसकी स्वीकृति के विषय में बताया. वह बोले, “वह कहीं भी छप सकती है.” इससे मेरा यह विचार धराशायी हो गया कि राजेन्द्र जी ने कहानी बिना पढ़े ही लौटा दिया था. उन्होंने कहानी पढ़ा था.
“फिर वह हंस में क्यों नहीं छप सकती थी?” अपने छोटों के साथ भी बराबर का व्यवहार करने की राजेन्द्र जी के स्वभाव की विशेषता ने मुझे बहुत ही कम समय और कम मुलाकातों में उनसे बातचीत में पूरी तरह बेतकल्लुफ कर दिया था.
“वह सब तुम नहीं समझोगे.”
“फिर भी, कुछ तो बताइए.”
“चन्देल, बहुत से कारण होते हैं, ” मुझे लगा कि यह कहते हुए उन्होंने दीर्घ निश्वास लिया था. मेरा यह भ्रम भी हो सकता है. फिर बोले, “हर बात बताई नहीं जाती.” बात वहीं समाप्त हो गयी थी.
‘पापी’ रविवार में भी प्रकाशित नहीं हुई. जिस दीपावली विशेषांक में वह प्रकाशित हो रही थी उसी अंक से मालिकों ने रविवार को बंद कर दिया था. बाद में मई,१९९० में ‘सारिका’ में वह उपन्यासिका के रूप में प्रकाशित हुई थी. मेरे लिए यह रहस्य ही रहा कि पसंद होते हुए भी राजेन्द्र जी किसके कहने पर या किन कारणों से ‘पापी’ को हंस में नहीं प्रकाशित कर पाए थे. बाद में यह अनुमान अवश्य लगाया था कि कुछ लोग थे जिन्हें मेरा हंस में प्रकाशित होना स्वीकार नहीं था.
-0-0-0-
राजेन्द्र यादव एक कुशल सम्पादक और गंभीर चिन्तक थे. हंस के सम्पादकीय इसका प्रमाण हैं. पाठक केवल उनके सम्पादकीय पढ़ने के लिए हंस खरीदते थे. लेकिन उनके अंदर एक फितूरी व्यक्ति भी उपस्थित था, जिसके कारण उनकी विशेषताओं से अधिक उनकी कमियां-कमजोरियां अधिक चर्चा में रहती रहीं. यह बात उनके धुर विरोधी भी स्वीकार करते हैं. प्रारंभिक दिनों में हंस में निष्पक्षता थी---उसने अनेक नये लेखक तैयार किए, लेकिन १९९३-९४ के बाद हंस का स्वरूप बदलने लगा था. एक सक्षम सम्पादक चाटुकारों से कैसे बचा रह सकता था. कोई कितने ही दावे करे कि वह ऎसे लोगों को फटकने भी नहीं देगा, लेकिन ऎसे लोग पता भी नहीं लगने देते कि वे कब सेंध लगाकर अंदर प्रविष्ट हो चुके. उसके बाद शुरू होते हैं उनके खेल. खेल इतने अजब-गजब कि सम्पादक धीरे-धीरे कब उनकी कठपुतली बन जाता है वह स्वयं नहीं जान पाता. लेकिन राजेन्द्र जी उन चाटुकारों की हकीकत नहीं जानते रहे होंगे ऎसा हो ही नहीं सकता. किसी को चाटुकारिता तभी करनी पड़ती है जब वह अपनी रचनात्मकता के प्रति आश्वस्त नहीं होता…एक कमजोर रचनाकार होता है. राजेन्द्र जी की अपनी कुछ सर्वविदित कमजोरियां थीं. उन कमजोरियों के चलते वे फिसलते चले गए और जितना चाटुकारों ने उनका इस्तेमाल किया उन्होंने भी अपने ढंग से उनका इस्तेमाल किया ही होगा. लेकिन यह सब हंस की स्तरीयता की शर्तों पर हुआ और यही सही नहीं हो रहा था. उन चाटुकारों को स्थापित करने के लिए राजेन्द्र जी ने सम्पादकीय दायित्व के सभी मानदंड ताक पर रखने शुरू कर दिए थे. परिणामतः कितने ही वरिष्ठ और महत्वपूर्ण लेखकों ने हंस से किनारा करना शुरू कर दिया था. मुझे याद है ’बल्लभ सिद्धार्थ’ के साथ कोई विवाद हुआ था जिसने बल्लभ सिद्धार्थ को इतना आहत किया कि एक समर्थ कथा लेखक मात्र अनुवादक बन रह गया.
यद्यप्ति राजेन्द्र जी मार्क्सवादियों और हिन्दूवादियों से एक खास दूरी बनाकर रखते थे लेकिन वह थे मार्क्सवाद के बहुत ही निकट. कितने ही लेखकों को दरकिनार करने के लिए उन्होंने उन्हें हिन्दूवादी कहना शुरू किया. शैलेश मटियानी (जो कि उनके घनिष्ट मित्रों में थे), निर्मल वर्मा, शिवप्रसाद सिंह…और भी नाम हैं. खुले विचारों के होते हुए भी उनके अंदर एक भयानक ईर्ष्यालु व्यक्ति मौजूद था. इन लेखकों के रचनात्मक अवदान को शायद वह अपनी निष्क्रियता के कारण पचा नहीं पा रहे थे और मार्क्सवादियों द्वारा अपने विरोधी को धराशायी करने के लिए इस्तेमाल किए जाने वाले हथियार का वह भी इस्तेमाल करने लगे थे.
यद्यपि वह विरोधी को बहुत ही गंभीरता से सुनते थे…उसे बोलने का पूरा अवसर देते थे और बाद में अपने तर्कों से उसे खारिज करते थे. उनके व्यक्तित्व के सकारात्मक पक्षों में से यह भी एक पक्ष है, जिसकी सभी प्रशंसा करते हैं, लेकिन यह भी सच है कि उनके अंदर एक असहिष्णु व्यक्ति हर समय उपस्थित रहा. जिसे काटना चाहा उसे स्पष्ट न होने देते हुए ऎसा काटा कि या तो वह पूर्णतया खलास हुआ और यदि रहा तो अपनी दुर्धर्ष क्षमता के कारण. वह हर किसी का पूर्ण समर्पण चाहते थे---चाटुकारों ने वही किया जो उन्होंने चाहा; और फिर चाटुकार उन पर इतना हावी हुए कि जो वे चाहते रहे राजेन्द्र जी उन्हें प्रसन्न रखने के लिए वह सब करते रहे. यदि किसी ने कहा कि इस लेखक को हंस में नहीं प्रकाशित करना है तो राजेन्द्र जी ने शायद वही किया.
राजेन्द्र जी की असहिष्णुता का एक उदाहरण देना चाहता हूं. हंस के ३१ जुलाई,२०१३ के कार्यक्रम में किन्हीं विरोधों के कारण आमन्त्रित वरवर राव और अरुन्धती राय ने आने से इंकार कर दिया. इस पर साहित्यकारों ने जमकर चर्चा की. मैंने भी उन लोगों के इस कदम को अनुचित बताया था, लेकिन राजेन्द्र जी भी अतीत में ऎसा ही कर चुके थे. बात १९९२ की है. मेरे मित्र सुभाष नीरव ने पंजाबी लेखकों की एक संस्था की ओर से दिल्ली में एक हिन्दी-पंजाबी लेखक सम्मेलन का आयोजन किया था. एक सत्र की अध्यक्षता करने के लिए राजेन्द यादव से अनुरोध किया और राजेन्द्र जी ने उसे स्वीकार भी कर लिया. फिर भी उन्होंने कहा कि कार्यक्रम की अंतिम रूपरेखा तय होने के बाद वह उन्हें अवश्य सूचित करेंगे. अंतिम रूपरेखा तय होने के बाद नीरव उनसे मिलने गए. जिस सत्र की अध्यक्षता राजेन्द्र जी को करनी थी उसमें हिन्दी लघुकथाओं पर डॉ.कमलकिशोर गोयनका को आलेख पढ़ना था. गोयनका जी का नाम सुनते ही राजेन्द्र जी ने कहा, “कमलकिशोर गोयनका के साथ मैं मंच शेयर नहीं करूंगा. यद्यपि वह मेरे अच्छे मित्र हैं और मैं घण्टों उनसे बातें करता हूं लेकिन मैं उन्हें एक हिन्दूवादी लेखक मानता हूं…इसलिए…”
राजेन्द्र जी जिन्हें हिन्दूवादी लेखक मानते थे उनसे खास तरह की दूरी बना लेते थे. नीरव के कार्यक्रम को लेकर उन्होंने जो किया उससे यह स्पष्ट था, लेकिन जब हंस के कार्यक्रम में गोविन्दाचार्य और अशोक बाजपेयी की उपस्थिति में मंच साझा करने से वरवर राव और अरुन्धति राय ने इंकार कर दिया तो उस पर हंगामा हुआ. यहां यह लिखना भी अप्रासंगिक न होगा कि अधिकांश प्रवासी हिन्दी लेखक राजेन्द्र जी की दृष्टि में हिन्दूवादी लेखक थे और नाम लेकर वह उन्हें ऎसा घोषित करते रहे, लेकिन कुछ कमजोरियोंवश जीवन के अंतिम दिनों में जो फिसलन उनमें शुरू हुई थी उस कारण उन्होंने कुछ प्रवासी लेखकों को सिर माथे बैठाना शुरू कर दिया था.
हम मानते हैं कि व्यक्तित्व अच्छाइयों और कमजोरियों का समुच्चय होता है. हर व्यक्ति में दोनों पक्ष विद्यमान होते हैं लेकिन प्रायः कमियां अच्छाइयों को अच्छादित कर लेती हैं---राजेन्द्र जी के साथ भी ऎसा ही था. जैसा कि मैंने लिखा—हंस के प्रारंभिक दौर के बाद जिस प्रकार राजेन्द्र जी कुछ लोगों से घिरते गए थे उससे हंस की उत्कृष्टता प्रभावित हुई थी. उन घेरने वालों में महिला कथाकारों की संख्या अधिक थी. कुछ इतना नियमित प्रकाशित होती और केवल हंस में ही दिखाई देतीं कि आश्चर्य होता था---लेकिन एक दिन ऎसा भी होता कि वे सुन्दर लेखिकाएं गायब हो जातीं और गायब वे हंस से ही नहीं होती थीं साहित्यिक परिदृश्य से भी गायब हो जाया करती थीं और उनका स्थान नई लेखिकाएं ले लिया करती थीं. राजेन्द्र जी के अपने गणित थे---उनके अपने कैलकुलेशन थे---और कुछ को छोड़कर वे औरों को छोड़ते जाते थे या वे लोग स्वयं ही उन्हें छोड़ जाया करते थे. कई पुरुष लेखकों के साथ भी यह देखा गया. कुछ लेखिकाएं ऎसी भी थीं जिनका लेखन सामान्य था, लेकिन जिन कारणों से भी वे राजेन्द्र जी की पसंदीदा बनीं यह उन दोनों के अतिरिक्त कोई कैसे बता सकता है! उन्हें साहित्य में स्थापित करने के लिए ही उन्होंने स्त्री-विमर्श का शस्त्र अपने तूणीर से निकाला था. मैं यह कभी समझ नहीं पाया कि साहित्य में स्त्री-विमर्श कब नहीं था! वह तब भी था जब मन्नू भंडारी, उषा प्रियंवदा या कृष्णा सोबती ने लिखना शुरू किया था और तब भी था जब मृदुला गर्ग, नासिरा शर्मा, सुधा अरोड़ा, मंजुल भगत, सूर्यबाला, उषाकिरण खान आदि लिख रही थीं और इनमें से कितनी ही लेखिकाएं आज भी लिख रही हैं और इन्हें कभी स्त्री-विमर्श के बैनर की आवश्यकता नहीं पड़ी. फिर उन्हें ही क्यों पड़ी जिनके साहित्य को राजेन्द्र जी ने स्त्री-विमर्श के अंतर्गत परिभाषित करना प्रारंभ किया था. शायद इसलिए, क्योंकि ऎसा करके ही वह उन्हें स्थापित कर सकते थे. उन महिला रचनाकारों के लिए स्त्री-विमर्श खड़े होने की बैसाखी थी---हंस एक मंच था…और थी राजेन्द्र जी द्वारा गढ़ी गई परिभाषा, जहां नारी को देहमुक्त होने का संदेश दिया जा रहा था. साहित्य और कुछ मामलों में वह देहमुक्त होने भी लगी थी. हंस भदेश, भोंडी, अश्लीलता की सीमाएं तोड़ती कहानियों का एक उबाऊ मंच बन गया और छपास के भूखे रचनाकार केवल हंस में छप लेने मात्र के लिए ऎसी कहानियां लिखने लगे. मुझे याद है कि मेरे एक मित्र, जो अब साहित्य नहीं लिख रहे, केवल हंस में छपने के लिए एक ऎसी अश्लील कहानी लिखी कि मैं हत्प्रभ रह गया था. हालांकि राजेन्द्र जी ने उसे प्रकाशित नहीं किया था.
परिणाम --- हंस अपनी वह चमक खोने लगा था जो उसने प्रारंभिक कुछ वर्षों में बनाया था.
-0-0-0-0-
राजेन्द्र जी स्त्री विमर्श के साथ ही ’दलित विमर्श’ का मुद्दा भी ले उपस्थित हुए थे . १९८८ के बाद जिस प्रकार दलित रचनाकार सक्रिय हुए उस ओर से आंखें बंद नहीं की जा सकती थीं. राजेन्द्र जी एक सजग और विचारशील सम्पादक थे, उन्होंने दूसरों से पहले उसे लपक लिया और एक मसीहाई अंदाज में उसे आन्दोलन का रूप देते हुए हंस का मंच दलित रचनाकारों के लिए उपलब्ध करवा दिया. निश्चित ही जहां स्त्री विमर्श के अंतर्गत खराब कहानियां लिखी जा रही थीं, वहीं दलित साहित्यकारों ने बहुत त्वरितता के साथ विकास किया. यह अविवादित सच है कि हिन्दी में दलित लेखन को आगे लाने का श्रेय राजेन्द्र यादव को ही है. हंस ने उन्हें भरपूर अवसर प्रदान किए. ऎसी स्थिति में दूसरे सम्पादक और पत्रिकाएं पीछे कैसे रह सकती थीं. दलित विमर्श आन्दोलन के आलोचक भले ही इसके खिलाफ कुछ भी कहें, लेकिन यह सचाई तो है ही कि साहित्यिक आन्दोलनों की साहित्य के विकास में एक अहम भूमिका रही है. यह बात राजेन्द्र यादव भी मानते थे कि हंस में उन्हें दलित लेखकों की कुछ कमजोर रचनाएं भी प्रकाशित करनी पड़ती हैं, लेकिन जिस समाज को कभी आगे आने के अवसर ही नहीं दिए गए उस समाज से अकस्मात प्रेमचन्द, तोलस्तोय और गोर्की कैसे पैदा हो सकते हैं. वह इस बात से भी दुखी थे कि अधिकांश दलित रचनाकार कुछ रचनाओं के बाद आत्मकथा लिखने लगते हैं. जबकि आत्मकथा लिखने का समय जीवन का उत्तरार्द्ध होता है जब रचनाकार जीवन का अधिकांश देख-भोग लेता है. उनकी दृष्टि में यही कारण था कि आत्मकथा लेखन के बाद वे लेखक अपने लेखन की इति मान लेते हैं----दूसरे शब्दों में चुक जाते हैं.
मैं राजेन्द जी की उपरोक्त बातों से सहमत रहा. मैंने अपने आलेखों में कई बार लिखा भी और अपने दलित रचनाकार मित्रों से कहा भी कि एक आत्मकथा अनेक उपन्यासों को जन्म दे सकती है. उन लोगों को आत्मकथात्मक उपन्यास लिखना चाहिए. मैंने प्रसिद्ध मराठी लेखक आनन्द यादव के ’जूझ’ और ’नटरंग’ उपन्यासों का उदाहरण भी दिया. हंस के लिए मैंने ’जूझ’ की समीक्षा लिखी थी. लेकिन हिन्दी के दलित रचनाकार आत्मकथाओं की ओर क्यों तेजी से अग्रसर हो जाते रहे इसके लिए राजेन्द्र जी को ही मैं दोषी मानता हूं. उन्होंने एक-दो दलित रचनाकारों की आत्मकथाओं की हंस में जिसप्रकार चर्चा की और करवाई और यत्र-तत्र अपने भाषणों में उन्हें हिन्दी की श्रेष्ठतम आत्मकथाओं की कोटि में रखा उससे दूसरे रचनाकारों को प्रेरित होना ही था. राजेन्द्र जी के साथ कई बार इस बात पर लंबी चर्चा हुई कि दलित साहित्य केवल वही नहीं है जो दलित लेखकों द्वारा लिखा जा रहा है बल्कि वह भी है जिसे गैर दलित लेखकों ने लिखा है और जिसके केन्द्र में दलित जीवन ही रहा है. लेकिन राजेन्द्र जी सदा इस बात के पक्षधर रहे कि दलित लेखकों द्वारा लिखा साहित्य ही दलित साहित्य की श्रेणी में आता है. दलित लेखकों की भांति वे गैर दलितों के लेखन को सहानुभूति का लेखन मानते थे. उनके अनुसार दलित अपना भोगा यथार्थ लिख रहे हैं…जबकि गैर दलितों ने उसे भोगा नहीं है. इसलिए वह सहानुभूति का साहित्य है. मेरे इस प्रश्न का उत्तर वह कभी नहीं दे पाए कि यदि भोगा यथार्थ ही साहित्य बनता तो उन्होंने भी शायद उतना सब न लिखा होता जो वे लिख सके. ‘सारा आकाश’ नहीं होता तब. यथार्थ भोगा, महसूसा और देखा--- तीनों रूप में होता है. देखे और महसूसे यथार्थ को व्यक्ति आत्मसात करता है ----उसे अपने अंदर जीता है और जब वह उसे लिखता है तब वह उसका भोगा यथार्थ बन चुका होता है. दुनिया का अधिकांश महान साहित्य दूसरे के भोगे यथार्थ के आधार पर ही लिखा गया.
एक उदाहरण पर्याप्त है. लियो तोलस्तोय ने ’अन्ना कारेनिना’ अपने पड़ोसी की रखैल की आत्महत्या के आधार पर लिखा था. जिस लड़की को वह अपने पड़ोसी के बच्चे की देखभाल करते देखते रहे उस व्यक्ति द्वारा बेटे के लिए एक नई गवर्नेस रख लेने से स्वयं को वंचित अनुभव करने वाली उस युवती ने ट्रेन के नीचे कूदकर आत्महत्या की थी. तोलस्तोय ने उस क्षत-विक्षत शव को देखा और उसके पुराने स्वरूप को याद किया….उन्होंने उस युवती के चरित्र को कितनी गहराई से जिया होगा और जो लिखा वह विश्व की महनतम रचनाओं में से एक बना. इस बात का अच्छा विवरण सोफिया अन्द्रेएव्ना ने अपनी डायरी में दिया है.
जगदीश चन्द्र की ट्रिलॉजी (धरती धन न अपना, नरक कुंड में बास, और यह जमीन तो अपनी थी), गोपाल उपाध्याय (एक टुकड़ा इतिहास), मदन दीक्षित (मोरी की ईंट), और अमृत लाल नागर( नाच्यो बहुत गोपाल) केवल दलित जीवन पर आधारित उपन्यास हैं. राजेन्द्र जी इनके प्रशंसक तो थे, लेकिन वे इन्हें दलित साहित्य के अंतर्गत मानने को तैयार न थे. मैंने एक बार कहा कि प्रेमचंद का ’रंगभूमि’ हिन्दी का प्रथम दलित उपन्यास है. उसका मुख्य पात्र दलित है और उपन्यास की पूरी कथा उसी के इर्द-गिर्द घूमती है. राजेन्द्र जी ने ऊंचे स्वर में कहा, “यार, तुम भी कहां-कहां की हांकने लगते हो….” और अपने चौड़े मुंह में मुस्करा दिए थे.
एक दिन एक दलित लेखक ने मेरे सामने उनसे कहा, “हंस में चालीस प्रतिशत रचनाएं दलित लेखकों की आपको प्रकाशित करना चाहिए.”
“तुम्हारा मतलब है कि साहित्य में आरक्षण ----ऎसा कैसे हो सकता है. मैं तो पहले से ही हर अंक में दलित लेखकों को प्रकाशित करता हूं और तुम जानते हो कि कितनों की ही कमजोर रचनाएं देता हूं. यह संभव नहीं….” राजेन्द्र जी के इस दो टूक उत्तर से उन लेखक का खिसियाना चेहरा देखने योग्य था. राजेन्द्र जी ने संकेत में कह दिया था कि उनकी सलाह पर चला गया तो चालीस में तीस और कभी-कभी पूरे चालीस प्रतिशत कमजोर रचनाएं जाएगीं और तब हंस का क्या होगा! इस सबके बावजूद हंस के दलित साहित्य विशेषांक निकले और चर्चित भी रहे. कई ऎसे लेखक रहे जिनको राजेन्द्र यादव ने विशेष महत्व दिया, लेकिन उनमें से कुछ ऎसे भी रहे जो बाद में उनके खिलाफ हुए. यह उनके स्वभाव में था कि जिसे वह झुका पाने में समर्थ नहीं हो पाए उससे दूरी बना ली…और ऎसे लोगों में उन्हें हजार कमियां दिखनी ही थीं; और यह भी सच है कि किसी जिद के तहत जब किसी रचनाकार को वह अधिक उछालने पर लगे होते तब दूसरों को उनके खिलाफ होना ही था. लेकिन वह हंस के सम्पादक थे और हंस के सम्पादक को किसी का क्या भय…वह जो चाहते करते, जिसे चाहते छापते और जो चाहते छापते---! और उन्होंने वही किया था.
‘दलित विमर्श’ को एक आन्दोलन के रूप में हिन्दी साहित्य की मुख्यधारा से जोड़ने का उनका योगदान दलित साहित्य के इतिहास में अक्ष्क्षुण रहेगा.
-0-0-0-
राजेन्द्र जी से मिलने जाने का सिलसिला जो एक बार शुरू हुआ तो कभी नहीं छूटा. ये वे दिन थे जब साहित्यिक पत्रिकाएं एक-एक कर बंद हो रही थीं. हंस ने अपना वर्चस्व कायम कर लिया था और राजेन्द्र यादव की छवि एक ऎसे सम्पादक की बनती जा रही थी जो जिसे चाहें उसे आसमान पर बैठा दे और जिसे न चाहें उसके प्रति उदासीन रुख अख्तियार कर लें. मैं यह मानने को तैयार नहीं कि राजेन्द्र जी ने यदि किसी को हंस में अवसर नहीं दिया या किसी दूसरे की अपेक्षा कम दिया तो वे सभी रचनाकार डूब गए. अनेक ऎसे रचनाकार हैं जिन्हें हंस का मंच कभी नहीं मिला या नहीं के बराबर मिला लेकिन वे हिन्दी साहित्य में अपना स्थान बनाने में सक्षम रहे.
हर सम्पादक के कुछ प्रिय रचनाकार होते हैं. उनकी प्रियता के उसके अपने मामदंड होते हैं. आवश्यक नहीं कि जिसकी रचनाओं को वह बेहद पसंद करता हो वही उसकी प्रिय सूची में हो. ऎसे भी कुछ रचनाकार होते हैं जो इतर कारणों से प्रिय हो जाते हैं. राजेन्द्र जी के साथ ऎसा था. स्त्री-विमर्श के मुद्दे के कारण वह कई लेखिकाओं से घिर गए थे और उन्हें घेरे रहने वाली वे लेखिकाएं सामान्य रचनाकार थीं लेकिन कुछ के प्रति राजेन्द्र जी का आकर्षण इतना अधिक था कि वह उनकी कमजोर रचनाएं निरन्तर प्रकाशित करते रहते थे. यही नहीं उनकी कोई भी पुस्तक प्रकाशित होने पर एक नहीं उस पर एक के बाद एक कई समीक्षाएं प्रकाशित करते…. उनका यह घोर पक्षपात क्यों था, यह समझ से परे था.
दरअसल सदैव विवादों में रहना पसंद करने वाले राजेन्द्र जी किसी बात की परवाह नहीं करते थे.
-0-0-0-
मैं दो-तीन माह और कभी-कभी छः माह में एक बार हंस जाता. कभी बहुत उत्साह में राजेन्द्र जी स्वागत करते तो कभी किसी रचना को पढ़ने में व्यस्त होने या किसी से किसी गर्मागर्म बात में उलझे होने के कारण केवल ‘आओ—आओ’ कहकर व्यस्त हो जाया करते थे. जब भी वहां जाता कोई न कोई पहले से वहां उपस्थित मिलता. कोई उनसे मिलने आया होता तो कोई उन्हें अपने किसी कार्यक्रम की अध्यक्षता के लिए आमंत्रित करने. कितने ही साहित्यिक आयोजन उनकी सलाह से ही सम्पन्न होते थे. यद्यपि राजेन्द्र जी ने हंस में मेरी दो ही कहानियां प्रकाशित की लेकिन कई पुस्तकों की समीक्षाएं या आलेख लिखवाए. जब भी मैं उनके पास अकेला होता वह काम करते हुए मुझसे पूछते, “क्या लिख रहे हो?” और यदि कहा, “उपन्यास लिख रहा हूँ”. तो “क्या विषय है? ” विषय जानकर पूछते, “कितना बड़ा बनेगा…” “अनुमानतः इतना बड़ा” मैं बताता तो वह छूटते ही कहते, “अरे मारा---“
“अरे मारा—“ उनका तकिया कलाम था.
१९९८ तक राजेन्द्र जी से मेरी मुलाकातों में बिल्कुल गर्माहट न थी, लेकिन ‘पाथरटीला’ उपन्यास के प्रकाशन के बाद उनसे मिलने जाने के समय का अंतराल कम हो गया था. मैं उनसे पन्द्रह दिन में और अधिक विलंब हुआ तो माह में एक बार मिलने जाने लगा था. इसका एक कारण मेरे मित्र आलोचक डॉ. तेज सिंह भी थे. उसके बाद २००९ तक हम दोनों ही साथ जाते रहे थे.
-0-0-0-
१९९४ में ’रमला बहू’ किताबघर से प्रकाशित हुआ था. राजेन्द्र जी को एक प्रति भेंट करने गया था और एक प्रति समीक्षा के लिए दी थी. राजेन्द्र जी ने स्वभाव के अनुसार उपन्यास के कथानक पर चर्चा की. उस समय वह उस कमरे में बैठे हुए थे जहां बीना उनियाल बैठती हैं. उस दिन बीना उनियाल नहीं थीं और समय था अपरान्ह तीन बजे का. राजेन्द्र जी भागलपुर के कथाकार शिवकुमार शिव के साथ बातें कर रहे थे. शिवकुमार शिव राजेन्द्र जी के पसंदीदा लोगों में थे. भागलपुर में शिव द्वारा आयोजित कई कार्यक्रमों में वह जाते रहे थे. उस दिन मैं एक अनाहूत व्यक्ति जैसा उन दोनों के सामने बैठा दोनों की बातें सुनता रहा था, लेकिन जब लगा कि मुझे वहां नहीं रहना चाहिए तब उपन्यास की एक प्रति राजेन्द्र जी की ओर बढ़ाते हुए कहा, “यह आपके लिए।” फिर दूसरी प्रति देते हुए कहा, “यह हंस के लिए समीक्षार्थ है…”. राजेन्द्र जी ने उपन्यास को उलट-पलट कर देखा और बोले, “यार इतने मोटे उपन्यास लिखोगे तो औरों का क्या होगा!”
“वे अपना काम कर रहे हैं और मैं अपना---होना क्या है.”
राजेन्द्र जी हंसे और उपन्यास शिवकुमार शिव की ओर बढ़ाते हुए बोले, “इसकी समीक्षा लिखोगे?”
शिवकुमार शिव ने अनमने भाव से उपन्यास थामा लेकिन कहा कुछ नहीं. मैं समझ गया कि हंस में ‘रमला बहू’ की समीक्षा प्रकाशित नहीं होगी और नहीं ही हुई.
हंस में मेरे दो उपन्यासों ‘पाथरटीला’ और ‘नटसार’ की समीक्षाएं प्रकाशित हुई. पाथरटीला का प्रकाशन अक्टूबर,१९९८ में सामयिक प्रकाशन ने किया था. उपन्यास पर विचार गोष्ठी आयोजन का प्रस्ताव महेश भारद्वाज ने दिया. मुझमें अधिक उत्साह नहीं था. लेकिन महेश भारद्वाज अडिग थे.
मैंने तब तक किसी पुस्तक का लोकार्पण नहीं करवाया था. हम तय नहीं कर पा रहे थे कि लोकार्पण किससे करवाया जाए, विचार गोष्ठी की अध्यक्षता कौन करे और उपन्यास पर बोलने वाले कौन हों! विष्णुप्रभाकर के प्रति मेरे मन में अगाध श्रद्धा थी. चाहकर भी हम उन्हें कार्यक्रम में शामिल नहीं कर सकते थे, क्योंकि उपन्यास उन्हें समर्पित था. दो महीने तक हम इस निर्णय पर नहीं पहुंचे कि कार्यक्रम की रूपरेखा क्या हो! अंततः जनवरी,१९९९ में महेश भारद्वाज ने अध्यक्षता के लिए राजेन्द्र यादव का नाम तय कर लिया. कार्यक्रम महेश को ही आयोजित करना था. मेरी भी कुछ भूमिका थी, लेकिन मुख्य भूमिका महेश भारद्वाज की ही होनी थी. वह उपन्यास के प्रकाशक थे और व्यावसायिक दृष्टि से सोच रहे थे. उन दिनों वह राजेन्द्र जी के अधिक निकट थे. मैंने स्वीकृति दे दी. राजेन्द्र जी को लेकर मैं दुविधा में रहा था. जिसप्रकार उन्होंने रमला बहू के प्रति उदासीनता प्रदर्शित की थी मुझे लग रहा था कि उनकी अध्यक्षता में हुए कार्यक्रम में उपन्यास पर निष्पक्ष चर्चा नहीं हो पाएगी, क्योंकि चर्चाकारों की सूची वे स्वयं तैयार करेंगे और महेश उन नामों को खारिज नहीं कर पाएगें. महेश के सुझाए या मेरे द्वारा प्रस्तावित नाम उन्हें स्वीकार नहीं होंगे. महेश ने ही तय किया कि डॉ. मैनेजर पाण्डेय कार्यक्रम के मुख्य अतिथि होंगे. उपन्यास पर चर्चा करने के लिए राजेन्द्र जी ने दो नाम तय किए --मैत्रेयी पुष्पा और पंकज बिष्ट. कार्यक्रम के संचालन के लिए उन्होंने महेश भारद्वाज द्वारा प्रस्तावित महेश दर्पण के नाम पर मोहर लगा दी.
दीनदयाल उपाध्याय मार्ग स्थित गांधी शांति प्रतिष्ठान में १२ मार्च,१९९९ को शायं ५.३० बजे विचार गोष्ठी प्रारंभ हुई. यह तिथि मैंने तय की थी, क्योंकि यह मेरा जन्म दिवस है.
कार्यक्रम मैत्रेयी पुष्पा के वक्तव्य से शुरू हुआ. मैत्रेयी तब तक मंच पर बोलना सीख चुकी थीं. मंच पर आते ही बोलीं, “राजेन्द्र जी ने कहा कि मुझे ’पाथर टीला’ पर बोलना है. उपन्यास पढ़कर मैंने राजेन्द्र जी से पूछा कि आपने कहा था कि उपन्यास गांव पर आधारित है, लेकिन उपन्यास में गांव है कहां---मुझे तो उसमें कहीं गांव नजर ही नहीं आया.” लगभग बीस मिनट तक मैत्रेयी जी बोलती रहीं, लेकिन उनकी प्रारंभिक बातों के अतिरिक्त कुछ ऎसा नहीं था कि उसे याद रखा जाता. प्रारंभिक बातें इसलिए याद रह गयीं क्योंकि गांव पर लिखने वाली लेखिका को उस उपन्यास में गांव ही नजर नहीं आया जिसकी सम्पूर्ण कथा के केन्द्र में गांव के अतिरिक्त कुछ और है ही नहीं. राजेन्द्र जी की पसंद के दूसरे वक्ता पंकज बिष्ट ने भी उपन्यास को बहुत ही खराब सिद्ध किया लेकिन एक सच बोलने से वह अपने को रोक नहीं पाए कि पाथरटीला हिन्दी का पहला उपन्यास है जिसमें नायक एक खलनायक के रूप में चित्रित हुआ है. उन्होंने अंग्रेजी के ’गॉड फादर’ का उल्लेख करते हुए कहा कि उसके पश्चात वहां ऎसे उपन्यास लिखे जाने लगे थे लेकिन हिन्दी में इस परम्परा की शुरूआत ’पाथरटीला’ से हुई मानना होगा. तीसरे वक्ता डॉ. रामशरण जोशी थे जो उपन्यास पर कुछ स्पष्ट राय व्यक्त नहीं कर पाए. डॉ. कुमुद शर्मा, डॉ. ज्योतिष जोशी, हीरालाल नागर और महेश दर्पण ने तीनों पूर्व वक्ताओं के कथन को खारिज करते हुए उपन्यास को अपने समय की उल्लेखनीय कृति बताया. मैनेजर पाण्डेय भी उपन्यास के पक्ष में नहीं बोले और राजेन्द्र जी ने भी अपने अध्यक्षीय भाषण में जो कहा वह मेरे पक्ष में न था.
इस कार्यक्रम में अरुण प्रकाश भी थे। अध्यक्षीय भाषण से पहले उन्होंने कुछ कहने की अनुमति माँगी जो उन्हें प्रदान की गई। मंच पर आकर उन्होंने जो कहा वह निर्विवाद साहित्यिक सत्य है। मैत्रेयी पुष्पा द्वारा ‘पाथरटीला’ में व्यक्त गाँव को काल्पनिक बताने की खबर लेते हुए उन्होंने कहा, “दरअसल, हिन्दी की नई पीढ़ी के लेखकों ने गाँव को जिया अथवा निकट से देखा नहीं है; बल्कि प्रेमचंद की कहानियों में पढ़ा भर है। इसलिए उनके विज़न में प्रेमचंद वाले गाँव ही गाँव हैं; यथार्थ गाँव उन्हें काल्पनिक नजर आते हैं। ”
उस दिन का आश्चर्यजनक सत्य यह था कि गांधी शांति प्रतिष्ठान का हॉल खचाखच भरा हुआ था और एक भी व्यक्ति बीच में उठकर नहीं गया था, जैसाकि प्रायः ऎसे कार्यक्रमों में हुआ करता है. लोगों को कहते सुना गया कि लंबे समय के बाद एक सार्थक कार्यक्रम हुआ. साहित्यिक कार्यक्रमों में व्याप्त उदासीनता उस कार्यक्रम से टूटी थी.
राजेन्द्र जी ने अपने अध्यक्षीय भाषण में जो भी कहा था, लेकिन एक अच्छे सम्पादक का दायित्व निर्वाह करते हुए उन्होंने वरिष्ठ आलोचक मधुरेश से उसकी समीक्षा लिखवाकर हंस में प्रकाशित की थी और हीरालाल नागर द्वारा उस कार्यक्रम की रपट भी ’रेतघड़ी’ के अंतर्गत प्रकाशित की थी.
उस कार्यक्रम के बाद ही डॉ. तेज सिंह के साथ मेरा हंस में जाने का सिलसिला बढ़ गया था.
-0-0-0-
हंस में जाने का आकर्षण अपनी कोई रचना प्रकाशित करवाना कभी नहीं रहा. हम दोनों को वहां जाना इसलिए भाता था क्योंकि उतने समय के लिए हम विशुद्ध साहित्य की दुनिया से जुड़ जाते थे. राजेन्द्र यादव प्रायः कुछ ऎसा कहते कि ठहाके लगते और हम उन ठहाकों के भूखे थे. हमारे साथ कई बार ईशकुमार गंगानिया भी होते. गंगानिया तेज सिंह की पत्रिका ’अपेक्षा’ से जुड़े हुए थे. राजेन्द्र जी हर उम्र वालों के साथ बेतकल्लुफ होकर बात करते ---हंसी-मजाक करते. कई बार उनके सामने बीस-बाइस साल की कोई युवती बैठी होती, जिसने कलम चलाना शुरू ही किया होता और हंस का आकर्षण उसे वहां खींच लाता. राजेन्द्र जी उससे इस प्रकार की बातें कहते, जिनमें अश्लीलता निहित होती. सुनने वाले को अटपटा लगता. गंगानिया उनके मजाक सुनकर गंभीर हो जाते. अंततः उन्होंने एक दिन घोषणा कर दी कि वे अब कभी हंस नहीं आएँगे और मेरा अनुमान है कि वे शायद कभी नहीं गए होंगे. किसी युवती के साथ राजेन्द्र जी के वे मज़ाक मुझे और तेज सिंह को भी अच्छे नहीं लगते थे और हम प्रायः इस पर चर्चा भी करते थे. राजेन्द्र जी स्वभाव से विवश थे और वह हंस का लाभ उठा रहे थे बल्कि कहना उचित होगा कि दुरुपयोग कर रहे थे.
लेकिन हंसी-ठहाकों के बीच गंभीर विषयों पर चर्चा भी होती और प्रायः उन चर्चाओं के बीच ही हंसी-ठहाके लगते.
एक घटना याद आ रही है.
यह बात २००४ या २००५ की है. उस दिन राजेन्द्र जी के साथ मैं और तेज सिंह ही थे. तेज सिंह की पत्रिका ’अपेक्षा’ पर चर्चा हो रही थी. कुछ देर बाद एक चालीस पार रचनाकार आए. हंस में उनकी कई वर्ष पहले एक कहानी मैंने पढ़ी थी. उनके आते ही राजेन्द्र जी, जो हंस-बतिया रहे थे अकस्मात गंभीर हो गए. हमें लगा कि उस व्यक्ति का आना राजेन्द्र जी को पसंद नहीं आया. लेकिन उसके बावजूद उन्होंने उसके हाल पूछे और चुप होकर पाइप सुलगाने लगे. कमरे में सन्नाटा छाया रहा. कुछ देर की चुप्पी के बाद मूंछों पर हल्की मुस्कान लाकर उस व्यक्ति ने पूछा, “मेरी कहानी का क्या कर रहे हैं?” पूछने का ढंग इतना अशिष्ट था कि कोई सामान्य व्यक्ति भी आपा खो देता. राजेन्द्र जी ने पाइप सुलगाते हुए बिना किसी उत्तेजना के कहा, “उसे नहीं छाप रहे.”
“क्यों नहीं छाप रहे?”
“यह भी पूछने की बात है!” राजेन्द्र जी अब अधिक ही गंभीर हो उठे थे.
“फिर भी मैं जानना चाहता हूं कि आपको उस कहानी में क्या कमी दिखाई दी?” उस व्यक्ति का चेहरा लाल हो रहा था. उसके चौड़े मुंह पर अस्वाभाविकता उभर आयी थी.
“क्योंकि वह हंस के योग्य नहीं है.”
“हंस में आप बेहद घटिया कहानियां छाप रहे हैं और मेरी कहानी आपको पत्रिका के योग्य नहीं लगी.”
राजेन्द्र जी चुप रहे.
कुछ देर चुप रहने के बाद वह व्यक्ति बोला, “आप क्यों छापेगें मेरी कहानी! वह कहानी आपको केन्द्र में रखकर जो लिखी गई है---इसलिए---!”
राजेन्द्र जी का चेहरा लाल हो उठा था. स्पष्ट था कि वह अपने क्रोध को किसी प्रकार जज्ब कर रहे थे. वह तत्काल चोट करते भी न थे. उन्होंने कोई उत्तर नहीं दिया.
“वापस कर दीजिए मेरी कहानी. कहीं भी छप जाएगी.”
’बीना से ले लो.” राजेन्द्र जी ने केवल इतना ही कहा, लेकिन चेहरा तब भी उनका लाल ही था.
“आप मेरी कहानी क्यों छापेगें---छापेगें इन जैसे चमचों की..” उसने मेरी ओर इशारा किया. मैं चुप रहा उसके उस मूर्खतापूर्ण प्रलाप पर. डॉ. तेज सिंह हत्प्रभ थे. आखिर उसकी धृष्टता के कारण तेज सिंह अपने को रोक नहीं पाए और बोले, “यादव जी, छाप दीजिए न इनकी कहानी---आखिर यह भी यादव हैं ---जाति का कुछ तो लिहाज कीजिए---.”
लेकिन राजेन्द्र जी ने जो चुप्पी साधी तो उस व्यक्ति के जाने के बहुत देर बाद ही तोड़ी.
दो-तीन वर्षों बाद मैंने उस व्यक्ति की एक रचना (वह कहानी थी या आलेख याद नहीं) हंस में देखी थी. शायद उस दिन की उस व्यक्ति की धृष्टता को राजेन्द्र जी ने क्षमा कर दिया था.
एक और घटना…
एक दिन मैं और राजेन्द्र जी ही थे. तेज सिंह हमारे साथ न थे और जब मैं अकेले उनके कार्यालय पहुंचता तो हंसते हुए वह पूछते, “आज आग अकेले---धुंआ को कहां छोड़ आए..?”
उस दिन किसी बात पर चर्चा करते हुए राजेन्द्र जी ने कहा कि ईमानदारी यदि शेष है तो केवल कम्युनिस्टों में. मैंने कहा, “कुछ कम्युनिस्ट भी भ्रष्ट हैं…आप सभी को ईमानदार होने का प्रमाणपत्र नहीं दे सकते.”
“मैं ठीक कह रहा हूं।” राजेन्द्र जी अड़ गए थे अपनी बात पर.
मैंने कहा, “मेरे पास एक व्यक्ति का उदाहरण है जो अपने को मार्क्सवादी (सीपीएमएल का) कहता है लेकिन महाधूर्त है---उसका मार्क्सवाद एक छद्म है और उस जैसे अनेक हैं.”
“कौन है?” राजेन्द्र जी ने पूछा.
“उस दिन तेज सिंह और मेरे सामने जो बनारसी यादव अपनी कहानी के लिए आपसे बक-झक कर रहे थे---वह उसे अपना गुरू कहते हैं. वह दिल्ली के एक सांध्य कॉलेज में हिन्दी प्राध्यापक है. उसने कानपुर में अपने ससुर को बरगलाकर उनके करोड़ों रुपयों के मकान की वसीयत करवा ली. गृहकलह हुई और ससुर जी समय से पहले दुनिया छोड़ गए. उनकी असमय मृत्यु का जिम्मेदार वह व्यक्ति अपने को पुराना नक्सलाइट कहता है---क्रान्तिकारी कहता है---उसके बारे में और अधिक जानेगें तो अपने विचार बदलने के लिए आप स्वयं विवश हो जाएगें.
राजेन्द्र जी चुप हो गए थे. मैं जानता था कि वे मेरी बात से सहमत भले ही न रहे हों लेकिन उसे काटने की बात भी वह सोच नहीं पा रहे थे. विश्वविद्यालय के लोगों के वह कटु आलोचक थे और मानते थे कि प्राध्यापन में ऎसे लोगों की कमी नहीं जिन्होंने छद्म मार्क्सवाद का लबादा ओढ़ रखा है जबकि वे अंदर से वह नहीं हैं जो दिखाने का प्रयास करते हैं. वे उतने ही बड़े शोषक-लंपट हैं जितने कि सामन्तवादी-पूंजीवादी होते हैं.
-0-0-0-
अक्टूबर, १९९९ में मैंने राजेन्द्र जी से साहित्य और साहित्येतर विषयों पर लंबी वातचीत की. यकबयक उन्होंने मुझे समय नहीं दिया. कई माह तक टालते रहे. पहले यह जानना चाहा कि मैं क्या पूछना चाहता हूं. उन्हें लोगों से यह शिकायत थी कि लोग घिसे-पिटे प्रश्न करते थे---आपने क्यों लिखना शुरू किया या आपकी पहली रचना क्या थी? ऎसे ही साधारण प्रश्न. मैंने उन्हें आश्वस्त किया कि मैं ऎसे प्रश्न नहीं करने वाला. कुछ गंभीर साहित्यिक,राजनैतिक, धार्मिक और अंतर्राष्ट्रीय विषयों पर बात करूंगा. वह तैयार हो गए, “किसी रविवार को आ जाओ…शाम को.”
“सुबह क्यों नहीं?”
“क्योंकि मैं सुबह चार बजे उठता हूं. लिखने-पढ़ने के लिए मुझे वही समय पसंद है. फिर नाश्ता करके नौ बजे से ग्यारह बजे तक सोता हूं. सुबह का मतलब तुम दस-ग्यारह बजे टपक जाओगे---शाम ही सही रहेगा.”
“कल आ जाऊं?” जिस दिन मेरी उनसे यह बात हो रही थी वह शनिवार का दिन था.
“कल नहीं---अगले रविवार को. इस रविवार को मुझे किसी के घर लंच पर जाना है.”
अगले शनिवार को मैंने उन्हें फोन किया, “भाई साहब, मैं कल शाम तीन बजे आपके यहां पहुंचूंगा.”
“यार, तीन के बजाए---चार रख लो, बल्कि पांच सही रहेगा. डिनर करके जाना.”
“बातचीत लंबी होनी है—तीन ही सही रहेगा.”
“अरे, मारा…” फोन पर हो-हो कर हंसे थे वह. मैंने दो कारणों से तीन बजे का समय तय किया था. पहला कारण यह कि सुना था कि शाम कोई न कोई उनके पास मिलने आ जाता था. दूसरा कारण यह कि मैं डिनर के उनके प्रस्ताव को इसलिए टालना चाहता था, क्योंकि मैं किसन को तकलीफ नहीं देना चाहता था. वैसे भी मैं अकेले नहीं जा रहा था. जैसा कि मेरी आदत है कहीं भी मैं किसी न किसी को साथ लेकर जाया करता हूं. जब कोई नहीं मिलता तब अकेले----उस दिन मेरे साथ महेश भारद्वाज और अशोक आन्द्रे को भी जाना था. अशोक आन्द्रे मेरे द्वारा किए गए कितने ही साहित्यकारों से साक्षात्कार के साक्षी बने. इसे आलस्य कहें या कुछ भी आज भी मेरे पास अच्छा कैमरा नहीं है और उन दिनों भी न था. आज जब डिजिटल का समय है जिससे लिए चित्रों को सीधे कंप्यूटर पर डाला जा सकता है, सोच-सोचकर भी नहीं खरीद पाया. न ही कभी छोटा टेप रिकार्डर रखा. ये दोनों ही चीजें अशोक के पास थीं और उन्होंने कभी भी मेरे साथ जाने से इंकार नहीं किया.
उस रविवार हम तीनों राजेन्द्र जी के यहां पहुंचे. लगभग तीन घण्टो तक बातचीत होती रही. मेरे भाग्य से उस दिन तब तक किसी ने भी आकर हमें बाधित नहीं किया था. वे रिकार्डेड टेप आज भी मेरे पास सुरक्षित हैं. यह साक्षात्कार इक्यावन पृष्ठों का बना. देखने के बाद राजेन्द्र जी संतुष्ट हुए थे. शीर्षक उन्होंने ही दिया था. अब समस्या पैदा हुई कि उसे प्रकाशित कौन करेगा. बहुत सोच-विचार के बाद तय हुआ कि गिरिराज किशोर जी से बात की जाए. गिरिराज जी उनके अभिन्न मित्र रहे. उनकी कटु आलोचना करते भी मैंने गिरिराज जी को ही सुना-पढ़ा. लेकिन उनकी आलोचना को राजेन्द्र जी ने कभी बुरा नहीं माना. राजेन्द्र जी को ही उनसे बात करने की जिम्मेदारी मैंने सौंपी. बहुत ना-नुकर के बाद उन्होंने बात की और एक दिन उनका फोन आया कि गिरिराज जी दिल्ली में थे और शाम चार बजे के लगभग हंस आने वाले थे. मैं दफ्तर में था. संयोग से साक्षात्कार की प्रति मेरे पास थी. मैं साढ़े तीन बजे हंस पहुंचा. बातचीत में मेरे मुंह से निकला, “मैंने सोचा कि चलकर गिरिराज जी से निपट ही लूं.”
“जुबान संभालकर बोला करो.” राजेन्द्र जी ने कुछ पढ़ते हुए कहा. मुझे काटो तो खून नहीं. राजेन्द्र जी से अपने कथन के लिए क्षमा मांगी. उनके साथ इसप्रकार की यह पहली और अंतिम घटना थी. कई अवसरों पर मैंने उनसे अपना विरोध जताया, लेकिन कभी भी विनम्रता नहीं छोड़ी. मुझे जो संस्कार मिले उसमें बड़ों के सामने विनम्र रहना प्रमुख था. मेरी पीढ़ी तक ये संस्कार घुट्टी में पिलाए जाते थे.
मुझे एक घटना याद आ रही है. वरिष्ठ कवि उपेन्द्र कुमार के सरकारी बंगले में आई.पी.एस. अधिकारी अनिल सिन्हा के पहले कहानी संग्रह, जिसे सामयिक प्रकाशन ने प्रकाशित किया था, उपेन्द्र जी की संस्था ‘बरगद’ की ओर से विचार गोष्ठी का आयोजन था. राजेन्द्र जी अध्यक्ष थे. अपने अध्यक्षीय भाषण में उन्होंने कहा था, “अनिल जी, साहित्य का दरवाजा बहुत छोटा होता है उसमें से झुककर ही प्रवेश करना होता है.” यह बात उन्होंने लेखक के लिए कही थी और शायद इसलिए क्योंकि वह एक आई.पी.एस. अधिकारी थे.
राजेन्द्र जी के साथ मेरी लंबी बातचीत ‘अकार’ के तीसरे अंक में अविकल प्रकाशित हुई. बाद में उसे राजेन्द्र जी ने किताबघर प्रकाशन से प्रकाशित अपने साक्षात्कार पुस्तक में भी शामिल किया. उसके प्रकाशन ने मुझसे एक कथा लेखिका को इस बात के लिए प्रेरित किया कि मैं उनका भी वैसा ही साक्षात्कार करूं. उन्होंने कभी स्वयं मुझे नहीं कहा. दरियागंज के अपने प्रकाशक को कहा और बार-बार कहा. यह २००२ की बात है. उन दिनों मैं दिल्ली विश्वविद्यालय में अपने बेटे के प्रवेश को लेकर तनाव में था. प्रकाशक से उन्होने यह भी कहलवाया कि मुझे पत्रिका नहीं खोजनी होगी. उन्होंने किसी पत्रिका में साक्षात्कार के प्रकाशन की बात कर ली थी. उन दिनों उनका उपन्यास चर्चा में था. मेरा उपन्यास ‘पाथरटीला’ उनके उपन्यास से कुछ माह पहले प्रकाशित हुआ था. उसकी भी चर्चा थी. उसके विषय में महेश भारद्वाज के पिता स्व. जगदीश भारद्वाज जी का कहना था, “चन्देल जी, जब से प्रकाशन प्रारंभ किया मैं अपनी अधिकांश पुस्तकें समीक्षा के लिए पत्र-पत्रिकाओं को भेजता रहा, लेकिन कभी समीक्षा नहीं प्रकाशित हुई. ‘पाथरटीला’ पहली पुस्तक है जिसकी पत्र-पत्रिकाओं में इतनी अधिक चर्चा हो रही है.”
जगदीश जी की बात मेरे लिए महत्वपूर्ण थी. मेरी उनसे गहन आत्मीयता स्थापित हो चुकी थी और जब भी दरियागंज जाना होता–मैं उनसे मिलने अवश्य जाया करता. उस लेखिका के उपन्यास की समीक्षाएं ‘पाथरटीला’ ही नहीं सुरेन्द्र वर्मा के उपन्यास ‘मुझे चांद चाहिए’ को भी पीछे छोड़ गयी. स्वाभाविक था कि वह अपने को राजेन्द्र यादव के समकक्ष मानने की गलतफहमी पाल बैठतीं. वह अपने प्रकाशक को कोंचती रहीं और वह मुझे फोन करते रहे. मैं एक तो कभी दूसरे कारण बताकर टालता रहा. हकीकत यह थी कि उनसे बातचीत करने का मेरे मन में बिल्कुल ही उत्साह नहीं था और अंततः यह बात लेखिका को समझ आ गयी थी. लेकिन इसका परिणाम यह रहा कि उन्होंने मुझे दुश्मन नंबर एक के खाते में डाल दिया. वह यह भूल गयीं कि जब एक कथा पत्रिका में उनके विरुद्ध अभियान छिड़ा हुआ था तब एकमात्र मैं ही उनके साथ खड़ा हुआ था. यह बात वह मेरे मित्र सुभाष नीरव से स्वीकार भी कर चुकी थीं. लेकिन उपन्यास की चर्चा ने उनमें जो अहंकार पैदा किया उसने अतीत की सभी यादों को उनसे शायद धो-पोछ दिया था. वह राजेन्द्र यादव से भी किसी बात से खफा थीं. राजेन्द्र जी ने हंस में उनके उपन्यास की बिल्कुल ही चर्चा नहीं की थी. इसलिए जिस व्यक्ति ने राजेन्द्र जी का इतना बड़ा और अच्छा साक्षात्कार किया उसे उनका भी करना चाहिए और यदि मैं ऎसा कर लेता तो वह अपने को राजेन्द्र यादव के बराबर ही नहीं उनसे बड़ा मान लेतीं.
राजेन्द्र जी से दूसरी बातचीत मैंने मित्रवर डॉ. तेजसिंह की पत्रिका ’अपेक्षा’ के लिए की थी. वह साक्षात्कार तीस पृष्ठों का था और पूरा ‘दलित साहित्य और दलित जीवन’ पर केन्द्रित था.
-0-0-0-0-
अपनी आलोचनाओं का आनन्द लेने वाला उन जैसा व्यक्ति मैंने दूसरा नहीं देखा. प्रायः वह कुछ ऎसा करते कि आलोचना होने लगती. हम सभी जानते हैं कि उन्होंने जितना छुपाया होगा उससे अधिक प्रकट किया और जो प्रकट किया वह विवादों को जन्म देता रहा. केवल विवादों के लिए उन्होंने कई ऎसे आलेख लिखे और जीवन के अंतिम दिनों में ‘स्वस्थ व्यक्ति के बीमार विचार’ जैसी पुस्तक लिखी. ‘होना सोना एक दुश्मन के साथ’ लिखने के बाद आलोचना का जो तूफान उठा उसे ठंडा होने में काफी वक्त लगा, लेकिन राजेन्द्र जी उस सबसे असम्पृक्त रहे. हनुमान को दुनिया का पहला आतंकवादी घोषित कर वह हिन्दूवादियों के निशाने पर आ गए. उन्हें धमकियां मिली या नहीं लेकिन उन्होंने अपनी सुरक्षा के लिए दिल्ली पुलिस से एक पुलिस वाले की व्यवस्था अवश्य करवा ली. एक दिन जब मैं अक्षर प्रकाशन पहुंचा बाहर एक पुलिस के सिपाही को बैठा देखकर समझ नहीं पाया कि वह दिल्ली पुलिस का सिपाही था या निजी सेक्योरिटी गार्ड. उस समय तक मैं हनुमान प्रकरण से अनजान था. अंदर पहुंचकर जब बीना उनियाल से उस सिपाही के बारे में पूछा तब असलियत पता चली. कुछ लोगों ने इसे राजेन्द्र जी का नाटक करार दिया था.
मेरे मित्र बलराम अग्रवाल ने उनकी मृत्यु पश्चात अपने ब्लॉग में ‘रह गया हंस अकेला’ शीर्षक के अन्तर्गत लिखा कि वह ब्यूटी कांशस थे. मैं बलराम के शब्द उधार ले रहा हूं. जब भी मिला उन्हें टिप-टाप देखा. रंग-बिरंगे मंहगे कुरते, आलीशान जैकेट---पूरी तरह सजे-धजे देखा. मेरे पास उनका एक चित्र १९५७ (वरिष्ठ कथाकार सुधा अरोड़ा जी के सौजन्य से) का है उसमें वह साधारण पायजामा-कुरता में साइकिल पर जमशेदपुर की चिल्का झील की ओर जाते दिखाई दे रहे हैं.
राजेन्द्र यादव हिन्दी के उन रचनाकारों में से एक थे, जिन्होंने नौकरी करना स्वीकार नहीं किया. स्वतंत्र जीवन के आकांक्षी राजेन्द्र जी को निश्चित ही अनेक कठिनाइयों का सामना करना पड़ा होगा. पूछने पर उन्होंने बताया था कि वह अपनी स्वच्छन्दता खोना नहीं चाहते थे. उन्होंने अच्छे अनुवाद किए लेकिन लेखन और अनुवाद के बल पर हिन्दी साहित्यकार जीवित नहीं रह सकता. निश्चित ही मन्नू जी ने उनकी स्वच्छन्दता की रक्षा करने में महत्वपूर्ण सहयोग किया होगा. अनेक लोगों का कहना है कि वह कंजूस व्यक्ति थे. इस मामले में आधिकारिकरुप से मेरे लिए कुछ कहना कठिन है, लेकिन आर्थिक मामलों में वह सचेत अवश्य रहते थे. अक्षर प्रकाशन से उनके मित्र इसी कारण उनसे अलग हुए थे. सर्वाधिक नुकसान जवाहर चौधरी को उठाना पड़ा था, जिन्होंने बताया था कि अक्षर के लिए उन्होनें ग्रेटर कैलाश का अपना एक सौ पचास वर्गगज का प्लॉट बेच दिया था और आजीवन किराए के मकान में रहने के लिए विवश रहे थे.
राजेन्द्र जी जब प्रसार भारती के सदस्य नामित हुए तब उन्हें बैठकों में सम्मिलित होने के लिए सरकारी गाड़ी और भत्ता मिलता था, लेकिन उस विषय में उन्होंने मुझे बताया था कि उन्होंने कभी वह सब स्वीकार नहीं किया. इस विषय में जब चर्चा हुई तब वह बोले, “चन्देल, मेरी आवश्यकताएं बहुत सीमित हैं. कोई जिम्मेदारी नहीं है. मेरे एक ही बेटी है और वह एक सुरक्षित और समृद्ध जीवन जी रही है. जितना मैं एक माह में खर्च करता हूं उससे दोगुना वह एक दिन में खर्च करती है. मन्नू को खासी पेंशन मिलती है (हालांकि तब वह उनसे अलग मयूर विहार में रह रहे थे), फिर सरकार मुझे दे भी क्या देगी. रोज दफ्तर-कार्यक्रमों में आना-जाना होता ही है---तो प्रसार भारती के कार्यक्रमों में भी शामिल हो लेता हूं.”
जबकि उनके बाद के सदस्यों पर धारावाहिकों की स्वीकृति दिलाने के लिए रिश्वत लेने के आरोप लगे थे.
किसी को कुछ देने में भी वह कंजूस थे, लेकिन जब देना चाहते तब दिल खोलकर देते. उनके उपकारों से उपकृत लोगों की सूची छोटी न होगी, लेकिन कब किसे उपकृत किया यह जानकारी कम लोगों को होगी क्योंकि वह इन बातों को उद्घाटित करने में भी कंजूस थे.
-0-0-0-
राजेन्द्र जी को अपना जन्म दिन मनाने का शौक था. यह शौक कब प्रारंभ हुआ मैं कह नहीं सकता. उनके बेहद निकट लोग ही बता सकते हैं, लेकिन सन २००० से लेकर मैं तब तक उनके जन्मदिवस समारोहों में शामिल होता रहा जब तक वे उपेन्द्र कुमार के बंगलें में होते रहे. राजेन्द्र जी के जन्मदिवस पार्टी को मैं समारोह इसलिए कह रहा हूं क्योंकि उसकी भव्यता और व्यवस्था किसी समारोह से कम न होती थी. दिल्ली ही नहीं बाहर के साहित्यकार उसमें शामिल होते थे. साहित्यकारों-पत्रकारों का समागम अवसर होती थी वह पार्टी.
२८ अगस्त को सुबह सात बजे ही मैं उन्हें फोन करके जन्मदिन की बधाई देता और वह हंसकर धन्यवाद देते, फिर कहते, “तो मिलते हैं शाम को।”.
“अवश्य।” मैं कहता तब वह तुरन्त जोड़ते, “धुंआ को भी साथ लेते आना।”. मैं हंसकर “हां”
-0-0-0-0-
एक बार की बात है. हमारे पहुंचने के कुछ देर बाद ही राजेन्द्र जी ने हमारी ओर एक पत्र बढ़ाकर कहा, “इसे पढ़ो.”
पत्र थामते हुए मैंने पूछा, “क्या है ?”
“हसन जमाल का पत्र.”
मैंने पत्र पढ़ा और ठहका लगाकर हंसा. राजेन्द्र जी चुप रहे. यद्यपि ठहाका लगाने का कोई भी अवसर वह गंवाते नहीं थे, लेकिन वह उस क्षण चुप थे. मुझे हंसता देख तेज सिंह की उत्सुकता बढ़ी और उन्होंने पत्र मेरे हाथ से ले लिया, पढ़ा और अपनी दाढ़ी में हंसने लगे. अब राजेन्द्र जी की बारी थी, मुस्कराते हुए बोले, “हसन जमाल की एक कहानी छपती नहीं कि एक के बाद एक ढेरों कहानियां पेल देते हैं. खुद ‘शेष’ पत्रिका निकालते हैं. इतनी समझ तो होगी ही उन्हें, लेकिन नहीं ---कहानी पर कहानी और फिर नाराज होकर ऎसे पत्र लिखते हैं.”
राजेन्द्र यादव को कोसता हुआ हसन जमाल का पत्र लंबा था, जिसके अंत में उन्होंने लिखा था, “जिस दिन राजेन्द्र यादव की मृत्यु होगी उस दिन वह एक मन लड्डू बांटेगें.” पता नहीं २९28 अक्टूबर,२०१३ को राजेन्द्र जी की मृत्यु का समाचार सुनने के बाद हसन ने ऎसा किया या नहीं. वह पत्र हसन की कुंठा का प्रतीक था, जब कि राजेन्द्र जी ने ’अकार’ के अपने साक्षात्कार में दो लघुपत्रिकाओं की खुले दिल से प्रशंसा की थी और वे दो थीं ’सम्बोधन’ (सम्पादक – क़मर मेवाड़ी) और शेष (सम्पादक – हसन जमाल). पत्र वापस राजेन्द्र जी को देते हुए मैंने कहा था, “यह कुंठा लेखक को कहीं का नहीं छोड़ती. क्या हंस ही एकमात्र पत्रिका है…. हिन्दी में इन दिनों इतनी अधिक पत्रिकाएं हैं ---हसन जमाल ने ‘कथादेश’ को लेकर भी कुछ ऎसी ही भावना पाल रखी है. मुझे एक बार पत्र लिखकर हरिनारायण से कुछ पूछने के लिए कहा. मैं वह नहीं कर पाया. हसन नाराज हो गए. मेरी कहानी ‘शेष’ में पड़ी थी. लौटाते हुए लिखा था—आपने हरिनारायण के लिए कहा मेरा काम नहीं किया इसलिए बिना पढ़े ही कहानी लौटा रहा हूं. ऎसी कुंठा उनके लिए घातक है.” मैंने राजेन्द्र जी की ओर देखकर मुस्कराते हुए कहा, “ आपने बीस साल में मेरी केवल दो ही कहानियां प्रकाशित की लेकिन मैंने न ही आपसे कोई शिकायत की और न ही कोई कहानी देकर ऎसा आग्रह किया. और ऎसा भी नहीं कि हंस में कहानी न छपने के कारण मैंने कहानियां लिखना छोड़ दिया है.”
“यार, ऎसा क्यों सोचते हो….” राजेन्द्र जी का चेहरा कुछ गंभीर हो गया, “अब तुम कहानियां कम उपन्यास अधिक लिख रहे हो….एक के बाद एक बड़े-बड़े उपन्यास पेले जा रहे हो.” ‘अधिक’ के लिए वह इस शब्द का प्रयोग करते थे.
एक और अवसर पर उन्होंने एक और पत्र दिखाया था. जब भी कोई ऎसा पत्र आता उसे वह मेज पर ठीक सामने रख दिया करते थे, जिससे आने वालों की दृष्टि उस पर स्वतः पड़ जाए और यदि वह देखने के बावजूद उसे पढ़ने में रुचि न लेता तो राजेन्द्र जी उसे कहकर पढ़वाते. ऎसा ही वह उन कार्यक्रमों के निमत्रंण पत्रों के लिए करते थे जिनमें उन्हें किसी खास भूमिका के लिए आमत्रित किया गया होता. वह चाहते कि उनके यहां आने वाला व्यक्ति उस कार्यक्रम में अवश्य शामिल हो. इससे उन्हें आतंरिक सुख मिलता था. बल्कि मैं कहूंगा कि अपने चाहने वालों और जिन्हें वे चाहते उनकी भीड़ देखकर उन्हें सुख मिलता रहा होगा. उस दिन सीट ग्रहण करते ही उन्होने वह पत्र बढ़ा दिया. वह हिन्दी में टाइप किया गया पत्र था, जो मयूर विहार के हिन्दुस्तान टाइम्स अपार्टमेण्ट्स में रहने वाले एक वरिष्ठ साहित्यकार और दरियागंज के एक प्रकाशक के संबन्धों को लेकर लिखा गया था. राजेन्द्र जी उन दिनों हिन्दुस्तान टाइम्स अपार्टमेण्ट्स में ही रह रहे थे. पत्र पढ़ लेने के बाद मैंने पूछा, “आपको क्यों भेजा गया है यह?”
“तुम बताओ।” मुझपर नज़रें गड़ाकर राजेन्द्र जी ने पूछा.
“मैं इस बारे में क्या कह सकता हूं.”
“जिनके बारे में लिखा गया है वह तो तुम्हारे मित्र हैं.”
“हां, मित्र हैं, लेकिन प्रकाशक के लिए वह क्या करते हैं यह जानकारी मुझे बिल्कुल नहीं है, क्योंकि उस प्रकाशक से १९९४ से मेरा संबन्ध नहीं है. “
“ऎसे पत्र आते रहते हैं….लोगों को लगता है कि सभी के दर्द की दवा मेरे पास है.” राजेन्द्र जी ने ठहाका लगाया. मैं भी हंसा.
“हो सकता है पत्र लेखक प्रकाशक से आपकी सिफारिश चाहता हो..आप भी उसके लेखक हैं न!” मैंने कहा.
“पत्र में किसके हस्ताक्षर हैं---पहचानते हो. कोई नाम तो है नहीं---यह सब बकवास करने वाले लोग हैं.”
“फिर आपने इस पत्र को मेज के ऊपर आने वालों को दिखाने के लिए क्यों रखा हुआ है?”
राजेन्द्र जी केवल मुस्कराए और मैंने पत्र जहां से उठाया था वहीं रख दिया,जिससे दूसरा कोई उसे पढ़ सके. पत्र जिन वरिष्ठ साहित्यकार के विरुद्ध लिखा गया था राजेन्द्र जी का उनसे छत्तीस का आंकड़ा था. शायद इसीलिए उन्होंने उसे सार्वजनिक रूप से वहां रखा हुआ था.
-0-0-0-
२००९ के बाद हंस जाना पहले की अपेक्षा कम हुआ, लेकिन डॉ. तेजसिंह के गीता कॉलोनी से वैशाली (गाजियाबाद) शिफ्ट हो जाने के बाद बहुत ही कम हो गया था…दो-तीन महीने में एक बार.
फरवरी,२०१२ के अंतिम सप्ताह में ज्ञात हुआ कि राजेन्द्र जी बहुत बीमार हैं. मैं जाने का कार्यक्रम बनाता रहा, लेकिन किसी न किसी कारण जा नहीं पाया. अंततः बलराम अग्रवाल के साथ १२ मार्च को जाने का कार्यक्रम बना. राजेन्द्र जी को देखकर हम हत्प्रभ थे. बेहद दुबले—मानो शरीर में मांस ही नहीं था. यह हमारी कल्पना से बाहर था. लेकिन उनकी आवाज में किंचित भी शिथिलता न थी---वही कड़कपन और वही बेलागपन. उन्होंने शिकायत करते हुए कहा, “इन दुष्टों (उनका आभिप्राय केयरटेकर युवक और किशन से था) ने जीना हराम कर रखा है.”
“क्या करते हैं ये लोग?” मैंने पूछा.
“अरे,क्या नहीं करते---?” बेड पर सीधे होकर कुछ ऊपर को उठे वह, “इतने परहेज---नाक में दम कर दिया है इन लोगों ने---.”
“आपके स्वस्थ होने के लिए डाक्टरों ने इन्हें जो निर्देश दिए होंगे उन्हीं का पालन ये कर रहे हैं….इसमें इनका क्या दोष.” मैं ऎसे उन्हें समझा रहा था मानो किसी बच्चे को समझा रहा होऊं. वैसे एक बीमार व्यक्ति किसी बच्चे की भांति ही हो जाता है.
राजेन्द्र जी फीकी मुस्कान के साथ बोले, “सिगरेट को हाथ नहीं लगाने देते---पाइप तो छूट ही गया….”
“सिगरेट आपके लिए जब मना है तब ये कैसे दे सकते हैं.”
राजेन्द्र जी कुछ देर चुप रहे, फिर धीमे स्वर में, जिससे किशन और केयरटेकर सुन न ले, लगभग फुसफुसाते हुए बोले, “लेकिन मिलने वालों से मैं एक-दो झटक लेता हूं और इन दुष्टों से छुपाकर बाथरूम में जाकर पी आता हूं.”
“लेकिन आपको ऎसा नहीं करना चाहिए और आने वाले लोगों को आपको कतई नहीं देना चाहिए.” मैं किसी बुजुर्ग की भांति बोला. बलराम अग्रवाल भी बीच-बीच में अपनी बात कह रहे थे.
“कुछ नहीं होता, एक-दो पी लेने से...”
राजेन्द्र जी जिद्दी व्यक्ति थे---सारी जिन्दगी उन्होंने सुना सबकी लेकिन किया वही जो उन्हें अच्छा लगा. भले ही जो उन्हें अच्छा लगा वह दुनिया की दृष्टि में कितना ही गलत क्यों न रहा हो.
इतनी सारी बातें होने से पहले पहुंचते ही बलराम अग्रवाल ने उनका एक चित्र तब खींच लिया था जब वह किसी से मोबाइल पर बात कर रहे थे. उनका चेहरा खिड़की की ओर था इसलिए पहली क्लिक को वह जान नहीं पाए. लेकिन जैसे ही बलराम अग्रवाल ने उनका दूसरा चित्र लेने का प्रयास किया वह जान चुके थे और मोबाइल को हटाकर बोले थे, “कोई फोटो नहीं.” बलराम ने कैमरा बैग के हवाले किया, लेकिन राजेन्द्र जी का जो चित्र उनके अनजाने ही कैमरे में कैद हो चुका था वह शायद किसी के पास भी न होगा.
“मैं एक पुस्तक डिक्टेट कर रहा हूं.” बातों का सिलसिला आगे बढ़ाते हुए वह बोले, “स्वस्थ व्यक्ति के बीमार विचार”.
हम उनके चेहरे की ओर देखने लगे. समझ नहीं पाए कि वह क्या लिखवा रहे थे. शायद हमारे असमंजस को उन्होंने समझा और खुलासा करते हुए कहा, “कुछ अपने बारे में कुछ दूसरों के बारे में… एक लड़की है---बहुत अच्छी-समझदार है--वह रोज डिक्टेशन लेने आती है.” वह कुछ देर चुप रहे फिर मेरी ओर उन्मुख होकर पूछा, “आजकल क्या लिख रहे हो?”
“एक उपन्यास – ’गलियारे’ पूरा किया है. इससे पहले लेव तोलस्तोय पर तीस संस्मरणों का अनुवाद किया था---आपको एक देना चाहता था---अद्भुत है वह लेकिन है लंबा..”
“कितना?”
“सत्रह-अठारह पृष्ठों का है.”
“उसे छोटा करके दो.”
“वह संभव न होगा…वह मर जाएगा… मैं देखता हूं कि कोई छोटा संस्मरण हो, लेकिन कोई भी संस्मरण ढाई हजार शब्दों से छोटा शायद ही हो.”
“जल्दी से दे दो..”
“आपको देना होगा या---“
“दफ्तर में दे देना…मुझे मिल जाएगा. कुछ काम देखने लगा हूं. इस माह का सम्पादकीय भी लिखना है.”
मैं सोचने लगा कि हंस की कितनी चिन्ता है उन्हें. हमें उनके पास बैठे लगभग पैंतालीस मिनट हो चुके थे. हमने एक दूसरे से चलने का इशारा किया, लेकिन तभी मुझे याद आया कि मैं उन्हें यह बताऊं कि १२ मार्च १९९९ को उन्होंने मेरे उपन्यास ‘पाथरटीला’ का लोकार्पण किया था. मैंने यह बताया और यह भी कि उस दिन (१२ मार्च) मेरा जन्म दिन है. राजेन्द्र जी ने आशीर्वाद स्वरूप अपना हाथ आगे बढ़ाया. मैंने उनका हाथ थाम लिया.
“फिर आउंगा---अब चलें.” हम उठ खड़े हुए. राजेन्द्र जी ने बैठने के लिए हाथ से इशारा किया. हम बैठ गए. खिड़की पर कागज का एक लिफाफा रखा हुआ था. दाहिना हाथ बढ़ा वह उस लिफाफे को पकड़ने का प्रयास करने लगे. हम उत्सुक नज़रों से उन्हें वैसा करते हुए देखते रहे. आखिर वह उस लिफाफे को पकड़ने में सफल रहे थे. उस समय उनका चेहरा गंभीर था. उन्होंने लिफाफे से दो टॉफी निकाली—जन्म दिन की बधाई कहते हुए पहली टॉफी मेरी ओर बढ़ाई. दूसरी उन्होंने बलराम अग्रवाल को देते हुए बोले, “इसके बाद तुम इनका भेजा खाना---“ हमने ठहाका लगाया. राजेन्द्र जी ठहाका तो नहीं लगा सके, लेकिन मुस्काराए अवश्य.
उनके अपार्टमेण्ट से निकलते हुए मुझे लेव तोलस्तोय के बारे में लिखी गोर्की की एक बात याद आयी. तोलस्तोय की अनेकानेक बातों को गोर्की पसंद नहीं करते थे---मैं भी राजेन्द्र जी की कितनी ही बातों को नापसंद करता था. गोर्की ने तोलस्तोय के विषय में लिखा था, “जब तक यह व्यक्ति जीवित है हम अनाथ नहीं हैं.” मैंने बलराम अग्रवाल से राजेन्द्र यादव के संदर्भ में गोर्की की वह बात दोहराई थी और बलराम ने कहा था, “बिल्कुल सही कहा आपने.”
-0-0-0-
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें