संस्मरण
किंवदन्ती बन
चुके गोरख
रूपसिंह चन्देल
“इनसे मिलो” पान चभुलाते हुए वह बोले, “यह कानपुर से गांव घूमने आयी
हैं.”
मैं कभी उनकी ओर तो कभी उस युवती, जो छरहरे बदन, आकर्षक नाक-नक्श,गेहुंए
रंग, मध्यम कद, सुन्दर चकमती बड़ी आंखें, गोलाई लिए कुछ चपटे चेहरे वाली लगभग तीस-बत्तीस
वर्ष की थी, की ओर देखता रहा. मुझे असमंजस में देख वह बोले, “इन्होंने गांव नहीं देखा
था कभी-----“ वह मुस्कराए और रूमाल से होंठों के बायीं ओर निकल आयी पान की ललाई को
पोछते हुए युवती की ओर उन्मुख हो कहा, “जाओ (उन्होंने उसे नाम से संबोधित किया जो आज
मैं भूल गया हूं) बैलगाड़ी जोतवा लो बंशी से…तुम्हारी मोटर गाड़ी खेतों तक न जा पाएगी.”
युवती ने कनखियों से उनकी ओर देखा और ठठा उठी. फिर आंखों से बहुत ही
रोमांटिक ढंग से साथ चलने का आग्रह किया, जिसे उन्होंने यह कहकर मना कर दिया कि मरीज
बैठे हैं वह नहीं जा सकते. फिर मेरी ओर मुड़कर बोले, “रूप, तुम साथ चले जाओ---तुम्हारा
मन भी बहल जाएगा.”
उनके इस प्रस्ताव ने मुझमें घबड़ाहट पैदा कर दी. चेहरे पर उसे उनकी अनुभवी
आंखों ने पढ़ा और हो- हो करके हंसते हुए बोले, “तुम डर गए…रहे गांव के भुचक ही. शहर
मा नौकरी करैं लाग हौ पर हौ पूरे भुचक....”
मुझे आज भी याद है कि मेरा चेहरा लाल हो उठा था. युवती ने फिर कुछ इशारा
किया, जिसे उन्होंने समझा और कहा, “बंशी के साथ जाओ---खेतों का आनन्द लो.”
’खेतों का आनन्द---’ मैं सोचने लगा था. लेकिन वह फरवरी १९८३ के अंतिम दिनों की बात थी.
इन दिनों खेतों में लहलहाते सरसों के पीले
फूल अपनी ओर आकर्षित करते हैं. गेहूं, चना, और गन्ना---गांव से नितांत अपरिचित उस युवती
के लिए निश्चित ही वह सब आनन्दकारी था.
युवती के चले जाने के बाद वह बोले, “इसके पति कानपुर के बहुत बड़े व्यवसायी
हैं. कोठी, गाड़ियां---नौकर---“ वह मेरी ओर कुछ झुक आए और बहुत रहस्यपूर्ण ढंग से बोले,
“यह मेरी तिरासहवीं है…”
यह कथन चौंकाने वाला था. मैं उनकी ओर देखता रह गया. उन्होंने मेरे भाव
को समझा और बोले, “तुम नहीं समझोगे—बच्चे हो.
शहर में रहने लगे, लेकिन----.”
इस ’लेकिन’ में निहित भाव मैंने समझ लिया था. वह भी यह जानते थे. और यही हमारा उनसे अंतिम संवाद
और अंतिम मुलाकात थी.
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उनका नाम गोरखनाथ निगम था. वह मुझसे लगभग पन्द्रह-सोलह वर्ष बड़े थे.
बड़ों से वार्तालाप में कुछ विषयों पर एक खास दूरी बनाकर रखने के जो संस्कार बचपन में
मिले थे उसका पालन आज भी करने का प्रयास रहता है.
गोरखनाथ हाई स्कूल नहीं कर पाए थे. पिता बनवारी लाल निगम गांव के जमींदार
के कारिन्दा रहे थे. गांव में प्रतिष्ठित व्यक्ति. लंबे, छरहरे बनवारी लाल को धोती
पर बण्डी पहने सुबह-शाम अपने खेतों की ओर जाते
मैंने नियमित देखा था. हाथ में पीतल का बड़ा लोटा थामे रहते वह. सामने पड़ने पर प्रणाम
कहता और हर बार वह एक ही प्रश्न करते, “पढ़ाई कैसी चल रही है लाला?” गांव में लोग उन्हें
लाला कहते थे और आज सोचता हूं कि चूंकि वह सभी को लाला कहकर पुकारते थे इसलिए लोगों
ने उन्हें ही लाला कहना शुरू कर दिया होगा. उन्हीं के सबसे छॊटे पुत्र थे गोरखनाथ निगम.
गोरखनाथ के बड़े भाई कानपुर में अध्यापक थे. सपरिवार शहर में रहते और मझला बेटा गहरे
सांवले रंग और मध्यम कद का सीधा-सादा व्यक्ति था, जिनका विवाह लंबे समय तक नहीं हुआ
था. जबकि छोटा होने के बावजूद गोरखनाथ का विवाह मझले से कम से कम दस वर्ष पहले हो चुका
था. गोरखनाथ का रंग साफ गेहुंआ, चेहरा गोल-सुन्दर और कद मध्यम था.
गोरखनाथ किशोरावस्था से ही चंचल प्रकृति के थे. हाई स्कूल की पढ़ाई बीच
में ही छोड़कर वह किसी को बताए बिना दिल्ली भाग गए और वहां अपने दूर के एक रिश्तेदार
के यहां तीन वर्षों तक रहे थे. किशोरावस्था में वह निश्चित ही स्मार्ट और सुन्दर रहे
होगें. दिल्ली ने उन्हें धन दिया और मन की दूसरी मुरादें भी पूरी की. आदतें वहीं से
खराब हुई. रिश्तेदार व्यवसायी थे और बड़े व्यवसायी थे. गांव में चर्चा थी कि गोरख ने
वहां से निकलने से पहले उन्हें खासा चूना लगाया था और जब घर लौटे तो बिगड़े बेटा ने
धनबल पर पिता का मुंह बंद कर दिया था. लेकिन बेटे को पुनः भागने से रोकने के लिए लाला
बनवारीलाल निगम ने उसे पड़ोसी गांव के एक सुयोग्य वैद्य के हवाले किया जिनके साथ उनके
बहुत पुराने संबन्ध थे. वैद्य ने आयुर्वेद की जड़ी-बूटियां और खल्लर गोरख को थमा दिया,
जिसमें सुबह से शाम तक वह दवाएं कूटते, कपड़छान करते और फिर कूटते. यह सिलसिला तब तक
चलता जब तक जड़ी-बूटी में कुटने की क्षमता बनी रहती. वैद्य जी प्रैक्टिस नहीं करते थे---गांव
और दूसरे गांव के मरीजों की सेवा के लिए मुफ्त में दवाएं तैयार करते थे. जिन्दगीभर
शहर-दर शहर अफसरी की थी और तभी आयुर्वेद का गहन अध्ययन किया था. उन्होंने धन कमाने
के लिए उसे पेशे के रूप में नहीं अपनाया था. लेकिन बनवारी लाल अपने बेटे को पेशेवर
वैद्य बनाना चाहते थे. यह १९६०-६२ की बात है. गोरखनाथ ने भी उसमें
अपना भविष्य उज्वल देखा और मनोयोग से वैद्यकी सीखी. दो वर्षों में वह पारंगत
हो गए. बनवारी लाल ने किसी परिचित के माध्यम से लखनऊ की किसी आयुर्वेद संस्था से उनका
रजिस्ट्रेशन भी करवा दिया. उन दिनों वह सब सहजता से हो जाता था और गोरखनाथ निगम डॉ.
गोरखनाथ निगम बन गए थे.
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गोरखनाथ सुबह आठ बजे साइकिल में थैला लटकाकर दूसरे गांवों के लिए निकल
जाते और कई गांवों में मरीजों को देखते-घूमते दोपहर दो बजे तक घर लौटते. दो घण्टे विश्राम
करते फिर घर के दवाखाने में शाम पांच बजे बैठ जाते और रात नौ बजे तक किरोसिन लैम्प
की रोशनी में मरीजों को देखते. निश्चित ही उन्होंने कठिन श्रम करके वैद्यकी सीखी थी
और उसमें अच्छा ज्ञान हासिल कर लिया था, लेकिन वह जानते थे कि वैद्यकी आधुनिकता की
ओर बढ़ रहे समाज को संतुष्ट करने और त्वरित उपचार के लिए कारगर नहीं थी. इसीलिए वैद्यकी
के साथ उन्होंने अंग्रेजी दवाओं का अध्ययन भी प्रारंभ कर दिया था. यह आश्चर्यजनक लग
सकता है, लेकिन यह सच है कि बिना किसी मुक्कमल ट्रेनिंग के गोरखनाथ ने स्वाध्याय से
इतना ज्ञान प्राप्त कर लिया था कि मरीजों को वह आयुर्वेद की दवाएं नहीं अंग्रेजी दवाएं
देने लगे थे. दवाखाना इतना चमका और डॉ. गोरखनाथ निगम की शोहरत इतनी फैली कि दूर गांवों के लोग उनके यहां आने लगे थे.
दो वर्षों में ही उनके बाहर के दौरे बंद हो गए थे और मेरे मामा के घर के पास खाली पड़े
अपने एक प्लॉट में कच्ची ईंटों की एक कोठरी बनवाकर उन्होंने अपना दवाखाना वहां शिफ्ट
कर लिया था. वह कोठरी उनके उस बगीचे के सामने थी, जहां सुबह-शाम उनके मझले भाई बागवानी
के लिए आते थे और जहां सभी प्रकार के पेड़-पौधे लगे हुए थे. गांव में वह सबसे सुन्दर
बगीचा था और उसी बगीचे में मैंने सुबह साढ़े सात बजे से शाम पांच बजे तक हाई स्कूल के
अंतिम दिनों की पढ़ाई की थी.
गांव नाते गोरखनाथ मेरे मामा लगते थे और मैंने कभी उन्हें डाक्टर नहीं
कहा. गांव में उनका परिवार समृद्ध माना जाता था और समृद्धता के
दर्शन कृष्ण जन्माष्टमी के दिन देखने को मिलता था. समृद्ध होते हुए भी उनका घर कच्ची
मिट्टी की ईटों का बना हुआ था. ईंटों पर मिट्टी का पलस्तर किया जाता. लेकिन उस पलस्तर
को मिट्टी में गोबर और भूसा मिलाकर कम से कम एक माह तक सड़ने के लिए छोड़ दिया जाता था.
वह पलस्तर किसी मिस्त्री द्वारा नहीं बल्कि मजदूरों द्वारा हाथ से किया जाता वैसे जैसे
कच्चे घरों के आंगन और बरौठों–कोठरियों को गोबर से लीपा जाता है. उस पलस्तर के बाद
दीवारें बिल्कुल पत्थर जैसी मजबूत हो जाती थीं.
गोरखनाथ के घर का प्रवेश द्वार एक गली में था और उसी से सटी हुई उनकी
बैठक थी. बैठक बहुत बड़ी---जिसमें लगभग एक सौ लोग बैठ सकते थे. बैठक का दरवाजा एक चौड़ी
गली में खुलता था. बैठक के एक हिस्से मे देवी-देवताओं की मूर्तियां सजी हुई थी, जैसी
किसी मंदिर में होती हैं. सुबह शाम बनवारी लाल निगम या उनका मझला बेटा उनकी आरती उतारते.
वर्ष में एक बार वहां अखंड पाठ होता. लेकिन कृष्ण जन्माष्टमी जिस उत्साह से वहां मनायी
जाती वह गांव वालों के लिए आकर्षण की बात थी. गांववाले उसे झांकी कहते. झांकी देखने
के लिए हम बच्चे दिन में दो बार उस ओर जाते, लेकिन झांकी पर्दे में छुपी होती. पर्दे
के पीछे सजाने का काम होता रहता. उस दौरान बैठक ही पूरी तरह लोगों की पहुंच से बाहर
हो जाती, क्योंकि उसकी सभी दीवारें देवी-देवताओं की तस्वीरों से सजायी जातीं. निगम
परिवार बैठक के बाहर लोगों से मिलता. चर्चा रहती कि बैठक को खास कृष्ण जन्माष्टमी के
दिन खोला जाएगा और अंदर सजी मूर्तियों को रात बारह बजे जब कृष्ण का जन्म होगा. उस दिन
कृष्ण जन्म तक बैठक के बाहर गांव वालों की भीड़ रहती और बैठक में भजन-कीर्तन होता रहता.
गांव का कोई व्यक्ति देवकी बनता और जब पर्दा उठता तब तक वह कृष्ण को जन्म दे चुका होता.
यह रात ठीक बारह बजे होता. उसके बाद प्रसाद बटता और लोग घरों को जाते, लेकिन उत्साही
भक्त रातभर भजन-कीर्तन करते रहते.
गोरखनाथ के घर का वह उत्सव मुझे भी आकर्षित करता था. इसके अतिरिक्त
उस परिवार के सदस्यों की यह बात भी मुझे प्रभावित करती कि बनवारी लाल ही नहीं, उनके
बड़े और मझले बेटे मेरी पढ़ाई में रुचि लेते, मेरा उत्साह बढ़ाते. गोरखनाथ भी जब-तब पूछ
लेते. तब गांव में चार-पांच परिवार ही ऎसे थे जिनके घरों के बच्चे उच्च शिक्षा की ओर
अग्रसर थे. मेरा घर भी उनमें एक था. जब गोरखनाथ स्थायीरूप से अपना दवाखाना खोलकर बैठने
लगे थे तब तक उनके विषय में मुझे केवल इतनी ही जानकारी थी कि वह डाक्टर थे. मैं उनके
उस पेशे से भी आकर्षित था और गाहे-बगाहे उनके दवाखाना में जा बैठने लगा था. वह मेरे
घर से पांच मिनट की दूरी पर था. बैठने ही नहीं लगा था बल्कि कहने पर उनकी सहायता भी
कर देता था. तभी मन में डाक्टर बनने की इच्छा जागृत हुई थी. यह इच्छा बार-बार उनके
दवाखाना की ओर ले जाने लगी थी.
गोरखनाथ के दवाखाने में मरीजों की संख्या दिन दूनी रात चौगनी गति से
बढ़ने लगी थी. उन्होंने सहायता के लिए गांव के दो लड़कों को रख लिया था जो दवा कूट-पीसकर
मरीजों को देते थे. जून,१९६९ तक मैं गांव में रहा और गोरखनाथ के दवाखाना जाना होता
रहा. कुछ चीजें समझ आने लगी थीं. महिलाओं के प्रति उनका व्यवहार और उनसे बात करने के
उनके ढंग से दबी-ढकी चर्चाएं होने लगी थीं. लेकिन मुझे कभी विश्वास नहीं हुआ था कि
कुछ महिलाएं/युवतियां डॉ. गोरखनाथ निगम से बीमारी का इलाज करवाने नहीं बल्कि केवल उनसे
मिलने आती थी. मरीजों की संख्या प्रतिदिन के हिसाब से सैकड़ा पार कर चुकी थी. गांव वाले कहते कि गोरख के हाथ में जस है---जस का
अर्थ था कि वह दवा के नाम पर यदि चुटकी भर राख भी दे देंगे तो भी मरीज स्वस्थ हो जाएगा.
शायद यह दवा से अधिक आस्था की बात थी.
गोरखनाथ ने कानपुर के कुछ अस्पतालों से सम्बद्ध डाक्टरों और नर्सिंग
होम्स से अपने संबन्ध कायम कर लिए थे और गंभीर बीमारी की स्थिति में वह मरीज को शहर
के उन परिचितों के पास भेज देते थे. इससे भी गांववाले प्रभावित थे. स्थिति यह थी कि
प्रैक्टिस से अकूत धन आ रहा था. १९७५ या ’७६ में
गोरखनाथ ने कानपुर के काकादेव में अपना क्लीनिक खोल लिया और सप्ताह में पहले
एक दिन फिर दो दिन वहां बैठने लगे थे. शहर में रसूख बढ़ गया था. पत्नी-बच्चे गांव में
रहते थे. शहर में गोरख का जीवन उन्मुक्त था. वैसे गांव में भी पत्नी का अंकुश नहीं
था उन पर.
गोरखनाथ ने गांव में खेत खरीदे—बेहतरीन खेत. १९८४ तक वह सप्ताह में
दो दिन शहर में और पांच दिन गांव में प्रैक्टिस करते रहे थे. उनके तीन बेटे और एक बेटी
थी. बच्चों के बड़े होते ही उन्होंने काकादेव में कोठी भी खरीद ली थी और अपने परिवार
को वहां शिफ्ट कर लिया था. अपनी अंतिम मुलाकात के बाद मैं जब भी गांव गया, उनसे नहीं
मिला. घरवालों से उनके समाचार मिलते रहते थे. १९८७ के आसपास उन्होंने गांव का दवाखाना
बंद कर दिया था और काकादेव में ही प्रैक्टिस करने लगे थे. गोरखनाथ के तीनों बेटे हाईस्कूल
से आगे नहीं पढ़ पाए. अकूत धन और अर्द्धशिक्षित बेटे. बड़ा झटका था गोरखनाथ के लिए. उस पर कोढ़ में खाज यह कि बेटे आवारागर्दी करने लगे
थे. पिता की करतूतों से बेटे अनभिज्ञ नहीं
थे और वे भी उसी राह चल पड़े थे जिस राह पिता चले थे. गोरखनाथ ने दो बेटों को कोई व्यवसाय करवाया और दोनों ने उसे डुबो दिया. यह वह
समय था जब प्रैक्टिस बंद हो चुकी थी. गोरखनाथ को झटके पर झटके लग रहे थे. उनकी प्रेयसियों
ने मुंह मोड़ लिया था. हजारों मरीजों को चंगा कर देने वाला वह व्यक्ति अंदर ही अंदर
मर रहा था. उनकी कमाई उनके बेटे उनकी आंखों के सामने उड़ा रहे थे और वह अवश थे. और एक
दिन सूचना मिली कि हार्ट अटैक से डाक्टर गोरखनाथ निगम की मृत्यु हो गयी थी.
सूचना मिलने पर मैं सोचता रहा था कि उन्हें हार्ट अटैक बेटों द्वारा
बरबाद की जा रही उनकी कमाई के परिणामस्वरूप हुआ था या उनके अपने अराजक जीवन ने अंदर
से उन्हें खोखला कर दिया था इसलिए---अब सोचता हूं कि शायद दोनों ही कारण रहे थे. एक
परिचित ने बताया कि वह एक ऎसी महिला के सम्पर्क में आए थे जिसे कोई गंभीर बीमारी थी
और उनकी मृत्यु उस कारण हुई थी.
सच क्या था मेरे गांव की किंवदन्ती बन चुके गोरखनाथ अपने साथ लेकर चले
गए लेकिन मेरे मन में एक प्रश्न आज भी जिन्दा है कि क्या वह तिरासहवीं उनकी अंतिम थी?
जब उन्होंने उससे मेरा परिचय करवाया था उस समय वह पैंतालीस-छियालिस वर्ष के ही थे.
उनकी मृत्यु उसके बहुत साल बाद हुई थी---यदि कभी मिलता और संकोच छोड़ पूछ लेता तो पान
रचे होठों में मुस्कराकर वह कहते, “अब गिनती याद नहीं रही रूप.”
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5 टिप्पणियां:
एक साँस में ही पढ़ा जाने वाला संस्मरण रहा| गठित शब्द, सुंदर शिल्प आपकी लेखनी की पहचान है| गोरखनाथ यकीनन हमारे लिए अपरिचित व्यक्ति है पर आपके संस्मरण से हम भी उनके जीवन से रूबरू होते अनजाने ही जुड़ गए..
एक साँस में ही पढ़ा जाने वाला संस्मरण रहा| गठित शब्द, सुंदर शिल्प आपकी लेखनी की पहचान है| गोरखनाथ यकीनन हमारे लिए अपरिचित व्यक्ति है पर आपके संस्मरण से हम भी उनके जीवन से रूबरू होते अनजाने ही जुड़ गए..
अर्चना ठाकुर
आपकी लघु कहानियॉं अच्छी लगीं। दिल को छूने वाली। मेरी बधाई स्वीकारें। गोरखनाथ विषयक संस्मरण भी नायाब है।
ओम निश्चल
SANSMARAN LIKHNE MEIN AAP LAJWAAB
HAIN . RACHNA PATHNEEY HO TO VAH
LAMBEE HONE PAR BHEE EK SAANS
MEIN PADHEE JAATEE HAI . YAH BAAT
AAPKE HAR SANSMARAN PAR LAAGOO HOTEE HAI . DHERON SHUBH KAMNAAYEN.
SANSMARAN LIKHNE MEIN AAP LAJWAAB
HAIN . RACHNA PATHNEEY HO TO VAH
LAMBEE HONE PAR BHEE EK SAANS
MEIN PADHEE JAATEE HAI . YAH BAAT
AAPKE HAR SANSMARAN PAR LAAGOO HOTEE HAI . DHERON SHUBH KAMNAAYEN.
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