२०१२ में भावना प्रकाशन से प्रकाशित मेरी संस्मरण पुस्तक ’यादों की लकीरें’ के अधिकांश संस्मरण
’रचना यात्रा’ में प्रकाशित हुए थे. उसके पश्चात लिखे गए संस्मरणों को भी मैंने रचना
यात्रा में प्रकाशित किया. यह सिलसिला जारी रहेगा.
१ जनवरी, १९८५ के पश्चात मैंने २००७ में ’एडीसी’ शीर्षक से लघुकथा जो साहित्य शिल्पी में
प्रकाशित हुई थी. वह लघुकथा आज मेरे पास उपलब्ध नहीं है. उसके पश्चात हाल में तीन लघुकथाएं लिखी गईं और एक
आज लिखी. चारों ही लघुकथाएं यहां प्रस्तुत हैं. आशा है आपको पसंद आएगीं.
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एक
गरीब बौद्धिक
वह खासे बौद्धिक हैं. अपने दायरे और कार्यक्षेत्र में चर्चित. अनेक सरकारी और गैरसरकारी
संस्थाओं से सम्मानित और पुरस्कृत. दुनिया
की दृष्टि में सम्पन्न. दिल्ली जैसे महानगर के पॉश इलाकों में दो मकान. कीमत करोड़ों
की, लेकिन अपने को गरीब कहते हैं. कुछ लोग गरीब होने के उनके तर्क को सही मानते हैं.
उनका मानना है कि पांच-सात करोड़ की सम्पत्ति आज के संदर्भ में कुछ भी नहीं, क्योंकि
इस देश का एक अल्प शिक्षित मंत्री पांच वर्षों में उससे पचास-सौ गुना अधिक अपने खाते
में जमा कर लेता है जबकि उन्हें बौद्धिक हुए पैंतीस वर्ष हो चुके हैं. इस दौरान वह
कितने ही सौ पृष्ठ कागज काले कर चुके और देश-विदेश
में कितने ही विश्वविद्यालयों में भाषण भी दे आए, लेकिन पांच-सात करोड़ पर ही अटके पड़े
हुए हैं.
बौद्धिक होने से पहले वह गरीब नहीं थे, लेकिन बौद्धिक होते ही जब उन्हें इस बात
का अहसास हुआ कि अमेरिका का एक बौद्धिक चंद दिनों में ही करोड़ों में खेलने लगता है
तब वह उनसे अपनी तुलना करने लगे और सार्वजनिक तौर पर अपने गरीब होने की घोषणा करने
लगे. एक दिन एक हिन्दी दैनिक का एक पत्रकार उनकी गरीबी पर बातचीत करने के लिए पीतम
पुरा स्थित उनके निवास पर पहुंचा. उन्होंने खुलकर बातचीत की और सिद्ध कर दिया कि वह
गरीब हैं. पत्रकार के साथ उनकी बातचीत उस अखबार
में प्रकाशित हुई. उनके घर से कुछ दूर चौराहे पर बैठने वाले भिखारी ने उसे पढ़ा. वह
उन्हें जानता था, क्योंकि उसने भी कभी बौद्धिक होने का भ्रम पाला था लेकिन समय के साथ
दौड़ नहीं पाया और भीख मांगने की स्थिति तक पहुंच गया. अखबार में उनकी बातचीत पढ़कर देर
तक भिखारी गुमसुम रहा, फिर भीख मांगने वाला कटोरा उठाकर वह उनकी कोठी की ओर चल पड़ा.
जिस समय वह वहां पहुंचा वह कहीं जाने के लिए गाड़ी में बैठने के लिए घर से बाहर निकले
ही थे.
वह गाड़ी की ओर बढ़े कि भिखारी सामने आ गया और उनकी ओर कटोरा बढ़ाकर खड़ा हो गया. वह
जल्दी में थे. भिखारी कॊ घूरकर देखा और पर्स से पांच का नोट निकालकर कटोरे में डालने
लगे, लेकिन भिखारी ने नोट लेने से इंकार करते हुए कहा, “सर, मैंने कल के अखबार में
आपकी बातचीत पढ़ी है. आप मुझसे अधिक गरीब हैं – मैं यह कटोरा आपको देने आया हूं. इसकी आवश्यकता मुझसे कहीं अधिक आपको है सर!”
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दो
कविता
कल एक
पुराने मित्र रास्ते में मिल गए थे।
"कविता के क्या हाल हैं?" हलो-हाय के बाद उन्होंने पूछा।
"उसने पीएच.डी. कर लिया था।” मैंने बताया,“…दिल्ली के ही एक महाविद्यालय में पढ़ा
रही है इन दिनों।"
"भई,
आप बिल्कुल ही
बुद्धू हैं…" वे बोले।
"आपने आज जाना-- मैं तो बचपन से ही बुद्धू हूं तभी तो देश से लेकर
विदेश तक के मित्र मुझसे काम निकालकर अर्थात मेरा इस्तेमाल करके आसानी से मेरा अपमान
कर जाते हैं." मैंने कहा, "लेकिन आप किस कविता की बात कर रहे थे?"
"कविता---यानी कविता--भई---"
"कविता---यानी कविता--भई---"
"वो--s" मैं समझ गया था कि वह किस कविता की बात कर रहे थे.
"हां--वही."
" उसे ब्रेस्ट कैंसर हो गया है...वह मर रही है."
"क्या ---sss ?" वह चौंके.
"जी---उसकी अंतिम सांसे चल रही हैं. रसिक और हितैषी मित्र मोहल्ला में एकत्र भी हो गए हैं. जानकी पुल तक बचाने वालों की लाइन लगी हुई है।"
"हां--वही."
" उसे ब्रेस्ट कैंसर हो गया है...वह मर रही है."
"क्या ---sss ?" वह चौंके.
"जी---उसकी अंतिम सांसे चल रही हैं. रसिक और हितैषी मित्र मोहल्ला में एकत्र भी हो गए हैं. जानकी पुल तक बचाने वालों की लाइन लगी हुई है।"
“यह तो बुरी खबर सुनाई आपने।" मित्र मुँह लटकाकर बोले और सदमे की-सी
हालत में आगे बढ़ गए।
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तीन
हकीकत
सुबह एक कवयित्री मित्र का फोन आया. बोलीं, "आपने अमुक अखबार देखा?"
"देखा. उसमें कुछ खास है?"
"स्नेह रश्मि के कविता संग्रह की समीक्षा----."
" वह भी देखा--लेकिन..."
मेरी बात बीच में ही काट वह बोलीं, "मेरा संग्रह प्रकाशित हुए एक वर्ष होने को आया और किसी भी पत्र-पत्रिका ने अभी तक उसकी समीक्षा प्रकाशित नहीं की, जबकि मैंने सभी को समीक्षार्थ प्रतियां भेजी थीं. स्नेह रश्मि के संग्रह को प्रकाशित हुए छः माह भी नहीं हुए और कितनी ही पत्रिकाओं और रविवासरीय अखबारों में समीक्षाएं प्रकाशित हो चुकीं हैं." उनके स्वर में उदासी स्पष्ट थी.
" देखिए---" मैने उन्हें नाम से संबोधित करते हुए कहा, "आपके पति दूरदर्शन या आकाशवाणी में निदेशक नहीं हैं और न ही किसी मंत्रालय या लाभप्रद विभाग में ऊंचे पद पर हैं. आकाशवाणी या दूरदर्शन में निदेशक नहीं तो कम से कम प्रोग्राम एक्ज्य़ूकेटिव ही होते---लिखने वाले लपककर आपका कविता संग्रह थामते और आपको बताना भी नहीं होता कि आपने कहां-कहां समीक्षार्थ प्रतियां भेजी हैं. वे स्वयं पत्र-पत्रिकाएं खोज लेते. स्नेह रश्मि के संग्रह की भांति ही वे आपके संग्रह पर भी टूट पड़े होते और सारे कामकाज छोड़कर उस पर लिखते. आपके पति हैं तो रक्षा मंत्रालय में लेकिन ऎसे पद पर भी नहीं कि वहां की कैंटीन से लिखने वालों के गले तर करने की व्यवस्था कर सकते."
"यह तो मुझ जैसी साधनहीना के साथ ज्यादती है." लंबी सांस खींच वह बोलीं.
" कुछ जोड़-जुगाड़कर आप भी इंडिया इंटर नेशनल सेंटर या इंडिया हैबिटेट सेंटर में एक गोष्ठी कर डालें---समय की वास्तविकता को समझें--वर्ना---."
"वर्ना--वर्ना---" उनके शब्दों में पहले की अपेक्षा और अधिक उदासी थी. उनको उदास जान मैं उनसे अधिक उदास हो चुका था.
"देखा. उसमें कुछ खास है?"
"स्नेह रश्मि के कविता संग्रह की समीक्षा----."
" वह भी देखा--लेकिन..."
मेरी बात बीच में ही काट वह बोलीं, "मेरा संग्रह प्रकाशित हुए एक वर्ष होने को आया और किसी भी पत्र-पत्रिका ने अभी तक उसकी समीक्षा प्रकाशित नहीं की, जबकि मैंने सभी को समीक्षार्थ प्रतियां भेजी थीं. स्नेह रश्मि के संग्रह को प्रकाशित हुए छः माह भी नहीं हुए और कितनी ही पत्रिकाओं और रविवासरीय अखबारों में समीक्षाएं प्रकाशित हो चुकीं हैं." उनके स्वर में उदासी स्पष्ट थी.
" देखिए---" मैने उन्हें नाम से संबोधित करते हुए कहा, "आपके पति दूरदर्शन या आकाशवाणी में निदेशक नहीं हैं और न ही किसी मंत्रालय या लाभप्रद विभाग में ऊंचे पद पर हैं. आकाशवाणी या दूरदर्शन में निदेशक नहीं तो कम से कम प्रोग्राम एक्ज्य़ूकेटिव ही होते---लिखने वाले लपककर आपका कविता संग्रह थामते और आपको बताना भी नहीं होता कि आपने कहां-कहां समीक्षार्थ प्रतियां भेजी हैं. वे स्वयं पत्र-पत्रिकाएं खोज लेते. स्नेह रश्मि के संग्रह की भांति ही वे आपके संग्रह पर भी टूट पड़े होते और सारे कामकाज छोड़कर उस पर लिखते. आपके पति हैं तो रक्षा मंत्रालय में लेकिन ऎसे पद पर भी नहीं कि वहां की कैंटीन से लिखने वालों के गले तर करने की व्यवस्था कर सकते."
"यह तो मुझ जैसी साधनहीना के साथ ज्यादती है." लंबी सांस खींच वह बोलीं.
" कुछ जोड़-जुगाड़कर आप भी इंडिया इंटर नेशनल सेंटर या इंडिया हैबिटेट सेंटर में एक गोष्ठी कर डालें---समय की वास्तविकता को समझें--वर्ना---."
"वर्ना--वर्ना---" उनके शब्दों में पहले की अपेक्षा और अधिक उदासी थी. उनको उदास जान मैं उनसे अधिक उदास हो चुका था.
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चार
और वह फफक पड़ी
वह एक दरवाजे खड़ी रो रही थी. उस घर की मालकिन ने दरवाजे को केवल इतना
खोल रखा था जिससे उनका केवल सिर दिखाई दे रहा था. वह उनसे कुछ कहते हुए रोये जा रही
थी. दरवाजे से झांकती महिला ने मुंह पर साड़ी दबा रखा था और गंभीरता से उसकी बात सुन
रही थीं, लेकिन कुछ कह नहीं रही थीं. शायद
वह बहुत आशा लेकर उनके पास आयी थी. लेकिन पूरी
बात सुन लेने के बाद भी उनकी चुप्पी उसे हताश कर रही थी. उसने डबडबाई आंखों सड़क की ओर देखा और उन पर दृष्टि
पड़ते ही उस दरवाजे से हटकर उनकी ओर उन्मुख हो बोली, “अंकल, आप मेरी मदद कीजिए.”
रुककर उन्होंने उसकी ओर देखा. साधारण कपड़ों में वह उन्हें कम पढ़ी-लिखी
प्रतीत हुई. बोले, “बोलो बेटे, कैसी मदद चाहिए?”
“अंकल” वह क्षणभर तक सिसकी फिर धोती से आंखें पोंछ बोली, “मेरा पति
रोज रात शराब पीकर आता है और फूहड़ गाली देता हुआ मुझे मारता है. अब तो वह जवान हो रही
बेटी पर भी हाथ छोड़ने लगा है. अभी कुछ देर पहले कहीं से आया और उस दुकान के सामने…”
उसने दुकान की ओर इशारा किया, “मारना शुरू कर दिया. लोग तमाशा देखते रहे, किसी ने भी
मेरी मदद नहीं की.” उसने पुनः लाल हो रही डबडबा
आयी आंखें पोंछी.
“सौ नंबर पर शिकायत करो, नहीं तो स्वयं थाने जाकर पुलिस को….”
उनकी बात समाप्त होने से पहले ही वह चीखी, “पुलिस..s..s..” और फफक कर
रोने लगी.
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4 टिप्पणियां:
चारों लघु कथाओं में समाज का सच और मानवीय वेदना को बखूबी आपने उकेरा है ..
आपको बहुत-बहुत बधाई। चारों लघुकथाओं में आपका तंज सराहनीय है। इसे निरंतरता मिलनी चाहिए। अगर राधेश्याम तिवारी तैयार हो जायें तो आपको अपनी से सुइयाँ कॉलम रूप में लगातार देते रहना चाहिए। इस रचनात्मकता को निरन्तरता मिलनी चाहिए।
कुफ्र टूट ही गया बरसों बाद . अच्चा लगा। उम्मीद करें नए साल में कुछ और इसी तरह की चीज़ें सामने आएँगी। नए साल पर के मशहूर शायर प्रोफेसर मेहदी अली ने पिता जी को पर शुभमाना सन्देश देते हुए एक शेर लिखा था। वोह यहाँ मौजूं लग रहा है
यकुम जनवरी है नया साल है \
दिसम्बर में पूछेंगे क्या हाल है।
मैं भी दिसम्बर का इंतज़ार करूँगा।
नोट: यकुम का मतलब पहली होगा
CHARON LAGHU KATHAAYEN PADH KAR
LAGAA HAI KI GAGAR MEIN SAGAR
BHAR DIYA GYAA HAI .
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