Text selection Lock by Hindi Blog Tips

सोमवार, 13 फ़रवरी 2012

यादों की लकीरें-भाग दो

संस्मरण

सशक्त-सक्रिय रचनाकार थे द्रोणवीर कोहली

रूपसिंह चन्देल

“भई नाराज हो.” यह आवाज २४ जनवरी, २०१२ से निरंतर मेरे कानों में गूंज रही है. फोन पर उनका जो पहला वाक्य सुनाई देता वह यही होता. सधी और खनकती आवाज और उसके बाद “बहुत दिन हो गए थे आपकी आवाज सुने हुए---सोचा शायद कुछ नाराजगी है.”

“आपसे नाराजगी---मैं स्वप्न में भी नहीं सोच सकता.” मैं कहता.

ऎसा तब होता जब हमारे मध्य लंबे समय तक संवाद नहीं होता. महीने में एक-दो बार हम अवश्य बातें करते. कभी-कभी तीसरे-चौथे दिन भी, लेकिन तभी जब कुछ विशेष बात होती. अंतराल तब होता तब हम दोनों ही किसी न किसी काम में व्यस्त होते. फोन पर बातें चाहे तीसरे-चौथे दिन हुईं या पन्द्रह-बीस दिनों में या दो-चार माह बाद---लंबी बातें होतीं. चालीस-पैंतालीस मिनट से कम नहीं. बीच-बीच में हमारे ठहाके लगते. शिष्ट मजाक उनके स्वभाव में था, और हम आयु की सीमाएं भूल जाते. वार्तालाप के विषय प्रायः साहित्यिक होते---देश-विदेश का साहित्य. वे जो पढ़ रहे होते उसकी चर्चा करते या जो लिख रहे होते उसकी. साहित्य की चर्चा हो और साहित्यिक राजनीति की न हो ऎसा कैसे हो सकता था. वह भी होती.

हम एक-दूसरे से कब मिले या संवाद कब प्रारंभ हुआ सही वर्ष-तारीख याद नहीं, लेकिन अनुमान है कि १९९४ की बात थी. उनका उपन्यास ’तकसीम’ प्रकाशित हुआ था और मेरा ’रमला बहू’. मुझे याद है कि एक रात उनका फोन आया था और मेरे ’हलो’ कहते ही उन्होंने कहा था, “मैं द्रोणवीर कोहली बोल रहा हूं---आपने मेरा नाम सुना होगा.“ उनकी विनम्रता ने मुझे उनकी ओर आकर्षित किया था. उन दिनों वह ग्रेटर कैलाश में रह रहे थे. बातों और फिर मिलने का सिलसिला चल निकला था. यह तो मुझे बहुत बाद में ज्ञात हुआ कि धर्मयुग के बुनियाद अली वही थे. आठवें दशक के उत्तरार्द्ध के दिनों की बात थी. धर्मयुग में बुनियाद अली के नाम से एक पाक्षिक धारावाहिक स्तंभ प्रकाशित होता था जो दिल्ली की साहित्यिक गतिविधियों पर केन्द्रित होता था. उसे जिस रूप में प्रस्तुत किया जाता वह इतना आकर्षक होता कि उन दिनों उसी स्तंभ के लिए मुझे धर्मयुग की प्रतीक्षा रहती थी. तब मैं दिल्ली में नही रहता था और न ही मेरे मित्रों को यह जानकारी थी कि बुनियाद अली नामका व्यक्ति कौन था. हम इस पर चर्चा करते और अनुमान लगाने का प्रयत्न करते परन्तु अनुमान कोहली जी के आसपास भी नहीं फटक पाता था. लेकिन दिल्ली के साहित्यकार जान चुके थे और उस स्तंभ ने कितने ही लोगों को कोहली जी का शत्रु बना दिया था. उस स्तंभ में वह जो लिख रहे थे वह कड़वा सच था लेकिन हिन्दी साहित्य में कड़वाहट पैदा करने वाले देश के भ्रष्ट राजनेताओं की भांति अपनी चमक पर दाग दिखाया जाना बर्दाश्त नहीं कर सकते. परिणामतः कोहली जी के उत्कृष्ट अवदान की ओर सबने ठंडी नजरों से देखा या आंखें मूंद लीं और उनके समकालीनों ने, जो दसियों वर्ष पहले लेखन से मुख मोड़ चुके थे, नाक-भौं भी सिकोड़ी लेकिन उन्होंने उस सबकी परवाह नहीं करते हुए निरंतर लिखा और जीवन के अंतिम दिनों तक लिखते रहे.

द्रोणवीर जी का जन्म पाकिस्तान में १९ जनवरी, १९३२ को हुआ था. उन्हें अपनी सही जन्म तिथि ज्ञात नहीं थी. वह प्रायः कहते कि वह १९३२-३३ में कभी जन्मे थे, लेकिन सरकारी नौकरी में थे तो वहां कोई निश्चित जन्म तिथि दर्ज होनी ही थी. उनके एक मित्र ने मृत्यु की सूचना देते हुए कहा था, “१९ जनवरी को वह अस्सी वर्ष के हुए थे.” अर्थात यही तिथि सरकारी रिकार्ड में दर्ज थी. वह केन्द्र सरकार के ’सूचना एवं प्रसारण’ विभाग में थे. इसका विशद उल्लेख उन्होंने अपने उपन्यास ’ध्रुव सत्य’ में किया है. छः सौ पृष्ठों से अधिक का यह उपन्यास एक प्रकार से उनका आत्मकथात्मक उपन्यास है. किस्सागोई शैली और आकर्षक भाषा में इस उपन्यास की गतिशीलता इसे एक उल्लेखनीय उपन्यास बनाती है. इसके विषय में जब मैंने उनसे चर्चा की कि इसके नायक के रूप में मुझे वह स्वयं दिखाई देते रहे तब हंसकर उन्होंने कहा था, “सारा भोगा हुआ यथार्थ है”, लेकिन इसे आत्मकथा मत समझ लेना ---है यह उपन्यास ही. उनके सभी उपन्यासों में किस्सागोई शैली परिलक्षित है.

उनके उपन्यास ’वाह कैंप’ में उनका स्वयं के भोगे यथार्थ के साथ देखा यथार्थ भी अभिव्यक्त हुआ है. उनका यह उपन्यास विभाजन पर यशपाल के ’जूठा सच’ के बाद दूसरा उत्कृष्ट उपन्यास है. कुछ लोग भीष्म साहनी के ’तमस’ को दूसरे क्रम में रख सकते हैं---लेकिन ऎसा वे ही करेंगे जिन्होंने ’वाह कैंप’ नहीं पढ़ा होगा. विभाजन की त्रासदी को व्यक्तिगत रूप से न यशपाल ने भोगा था और न ही भीष्म जी ने, जबकि ’वाह कैंप’ के लेखक ने उसे स्वयं भोगा और निकट से देखा था. उनके अनुसार वह स्वयं ’वाह कैंप’ में रहे थे. यद्यपि किसी रचना की उत्कृष्टता की कसौटी किसी त्रासदी को स्वयं भोगकर लिखे जाने में निहित नहीं है---पढ़-सुनकर अंतर्मथंन कर रचनाकार उसे उत्कृष्टता प्रदान करता है. चीजों को वह जितना ही आत्मसात करता है रचना उतनी ही उत्कृष्ट होती है. ’झूठा सच’ इसका प्रमाण है. तथापि यदि भोगे यथार्थ को कोई रचनाकार लंबे समय के अंतर्मथंन के बाद लिखता है और डूबकर लिखता है तब वह ’वाह कैंप’ जैसी उल्लेखनीय कृति को जन्म देता है.

कोहली जी कुछ भी लिखने से पहले चीजों का गहनता से अध्ययन करते थे---लंबे समय तक उसपर अतंर्मथंन करते और जब लिखते तब पूरे धैर्य का परिचय देते. पहले वह सीधे टाइपराइटर पर लिखते थे लेकिन जब कंप्यूटर का ज्ञान प्राप्त कर लिया तब उसपर लिखने लगे थे और कहते थे, “आप भी कंप्यूटर पर लिखा करो, क्योंकि उसमें संशोधन आसान होता है.” वह उपन्यास पर कई-कई बार कार्य करते और जब संतुष्ट हो लेते तभी उसे प्रकाशक को सौंपते. अपने लिखे के प्रति वह इतना आस्थावान थे कि किसी का तर्कहीन संशोधन उन्हें स्वीकार नहीं होता था. ऎसा न करके उन्होंने एक प्रकाशक के असाहित्यिक सलाहकार की नाराजगी मोल ले ली थी और परिणामतः वहां से अपने अगले उपन्यास की वापसी की पीड़ा भी सही थी. लेकिन अपनी इसी नीति के लिए अपने प्रकाश्य उपन्यास पर राजपाल एंड संस के विश्वनाथ जी की प्रशंसा भी पायी थी.

कोहली जी लंबे, मेरे अनुमान से पांच फीट ग्यारह इंच के लगभग---बिल्कुल स्लिम-ट्रिम—पूर्ण स्वस्थ व्यक्ति थे. पहली मुलाकात से अंतिम तक उनके चेहरे पर दाढ़ी देखी. उन्होंने आकाशवाणी से समाचार सम्पादक के पद से बावन वर्ष की आयु में स्वैच्छिक सेवावकाश ग्रहण किया था. सामान्य से सम्पन्नता तक की उनकी यात्रा अनेक कठिन मार्गों से होकर गुजरी थी. उन्होंने ग्रेटर कैलाश के मकान से लेकर गुड़गांव में पांच सौ गज में मकान बनाने की दास्तान सुनाते हुए भाभी जी की ओर इशारा कर कहा था, “ सब इनके कारण संभव हुआ…वर्ना मैं तो क्लर्क था.” जबकि भाभी जी भी सामान्य स्कूल अध्यापिका ही थीं. दरअसल वह जीवन और साहित्य में संतुलन और बेहतर प्रबंधन का परिणाम था. “जीवन भी एक प्रबंधन है.” वह कहा करते.

गुड़गांव के मकान में पहुंचने के बाद उनकी लेखनी की गति बढ़ गयी थी और वह एक के बाद दूसरा उपन्यास हिन्दी जगत को देने लगे थे. जब अपना मौलिक कुछ न लिख रहे होते तब अनुवाद करते. उन्होंने ज़ोला के एक उपन्यास का अनुवाद किया और पिछले दिनों भी एक अनुवाद उन्होंने पूरा किया था. मुझे कहते, “स्वैच्छिक सेवाकाश इसलिए नहीं लिया कि खाली समय नष्ट करें---आपने भी काम करने के लिए स्वैच्छिक सेवाकाश लिया और मैंने भी---कुछ रचनात्मक नहीं कर रहे तो मनपसंद पुस्तक का अनुवाद ही करो---कुछ करो---कभी अपने को खाली मत रहने दो. अनुवाद भी रचनात्मक कार्य ही होता है. उससे हम बहुत कुछ सीखते हैं.”

उनकी सीख का ही परिणाम कहूंगा कि स्वैच्छिक सेवाकाश लेने के बाद मैंने जो पहला काम किया वह महान रूसी लेखक लियो तोलस्तोय के अंतिम उपन्यास ’हाज़ी मुराद’ के अनुवाद का था. उसके बाद मैंने कितना ही काम किया. जब भी फोन पर बात होती वह यह अवश्य पूछते, “क्या लिख रहे हो---लिखते हुए मैंने डिस्टर्ब तो नहीं किया” ---और यदि मैंने यह कहा कि इन दिनों कुछ नहीं कर रहा तो वह समझाते, “भई, हमें लिखने के अलावा जब कुछ आता ही नहीं तब वह मत रोको---कुछ करते रहो. हम राजनीति कर नहीं सकते---चाटुकारिता स्वभाव में नहीं---कि एक उपन्यास कालजयी बना दिया जाये या दो-चार कहानियों के बल पर दुनिया में चर्चा होने लगे.”

उन्होंने जमकर काम किया. ”मुल्क अवाणों का’, ’हवेलियों वाले’, ’चौखट’ , ’तकसीम’, ’नानी’ और हाल में नया ज्ञानोदय में प्रकाशित उनका उपन्यास जिसमें अमेरिका में बस गए एक परिवार की वास्तविकता रेखांकित की गई थी. राजपाल एण्ड संस से प्रकाश्य उपन्यास के बाद वह एक और उपन्यास पर कार्य कर रहे थे. वह बहुआयामी प्रतिभा के धनी साहित्यकार थे. बाल-साहित्य, कहानी, उपन्यास, रिपोर्ताज, साक्षात्कार, यात्रा संस्मरण आदि अनेक विधाओं में उन्होंने कार्य किया. सूचना एवं प्रसारण सेवा में कार्यरत रहते हुए वह भारत सरकार के प्रकाशन विभाग की पत्रिका ’बाल भारती’ के सम्पादक रहे थे. ’ध्रुव सत्य’ में ’बाल भारती’ के प्रारंभिक दौर का अच्छा चित्रण उन्होंने किया है. वह ’सैनिक समाचार’ के सम्पादक भी रहे और आकाशवाणी नई दिल्ली में समाचार सम्पादक पद को भी सुशोभित किया. उन्होंने केवल लेखन के प्रति अपनी प्रतिबद्धता के कारण स्वैच्छिक सेवावकाश लिया था. दरअसल नौकरी सरकारी हो या निजी संस्थान की, एक खुद्दार लेखक उसे कभी अपने अनुकूल नहीं पाता. कुछ विवशता में करते हैं. यह विवशता आर्थिक होती है. लेकिन कुछ ऎसे भी लेखक हैं जो सरकारी नौकरी को उत्सवजनित ढंग से आजीवन करते हैं. वे सत्ता या व्यवस्था से ताल-मेल ही नहीं बैठा लेते बल्कि उसका हिस्सा बनकर सुख-सुविधा और सम्पन्नता हासिल करते रहते हैं. पद को साहित्य में अपनी पहुंच के लिए इस्तेमाल करते हैं और सफल लेखक होने की मानसिक संतुष्टि पाते हैं. कोहली जी भी साधारण पद पर नहीं थे. अवकाश ग्रहण न करते तो और बड़े पद पर पहुंचते, लेकिन उन जैसे लेखक सत्ता और व्यवस्था का हिस्सा बनने से इंकार करते हैं जहां चंद सुविधाओं के लिए अपने ज़मीर को मारना होता है.

स्वैच्छिक सेवावकाश लेने के बाद उन्होंने वह लिखा जो वह लिखना चाहते थे और बीच के कुछ समय के व्यवधान को छोड़कर (जब वह बेटी और अपना मकान गुड़गांव में बनवा रहे थे) वह निरतंर सक्रिय रहे. उनकी बेटी-दामाद अमेरिका में डॉक्टर हैं अतः वर्ष में एक बार डेढ़-दो महीने के लिए वहां अवश्य जाते रहे, लेकिन उसके अतिरिक्त भी उन्होंने योरोप के अनेक देशों की यात्राएं की थीं. दुबई आदि की यात्राएं भी उन्होंने कीं. अर्थात वह एक भ्रमणशील रचनाकार थे.

वह जितने अच्छे लेखक थे वक्ता उतने अच्छे नहीं थे. उम्र के अंतिम पड़ाव तक मंच पर जाकर बोलने में उन्हें संकोच होता था. जब भी कहीं बुलाए गए, बोले अवश्य और जब उस प्रकरण की चर्चा की तब हंसकर बताया , “भई, मुझे बहुत साहस जुटाना पड़ा था बोलने के लिए.” उनकी दूसरी कमी थी कि वह अपनी प्रकाशित पुस्तक मित्रों को देने में संकोच करते थे. पूछने पर कहा, “कोई मित्र पढ़ने का अनावश्यक दबाव न माने---इसलिए.” प्रायः स्वयं कभी किसी पत्रिका को पुस्तक समीक्षार्थ नहीं भेजते थे. प्रकाशक को पत्र-पत्रिकाओं की सूची दे देते थे. उनकी इस उदासीनता का परिणाम होता कि उनकी पुस्तकों की एक-दो से अधिक समीक्षाएं प्रकाशित नहीं होती थीं. पिछले दिनों उन्होंने एक अलोचक का उल्लेख बहुत दुखी भाव से किया. किसी मित्र के सुझाव और दबाव देने पर उन्होंने ’ध्रुवसत्य’ की एक प्रति आलोचक महोदय को भेज दी. आलोचक जी एक समीक्षा पत्रिका से संबद्ध थे. कुछ दिनों बाद फोन किया तो आलोचक जी बोले, “मैं किसी लेखक की भेजी पुस्तक कभी नहीं पढ़ता.” निश्चित ही कोहली जी उनके उत्तर से आहत हुए थे, जबकि वास्तविकता यह है कि विश्वविद्यालय के कुछ साहित्यकारनुमा प्राध्यापकों और छुटभैया लेखकों की पुस्तकों को आलोचक जी कंधे पर लादते रहे, पढ़ते और लिखते रहे हैं.

कोहली जी नफासत पसंद खांटी पंजाबी थे. जिसप्रकार तनकर चलते उसीप्रकार तनकर रहते और लिखते थे. लोगों को उनका यह ढंग पसंद नहीं था---खासकर उनके समकालीनों को. कॉफी हाउस आते, लेकिन निन्दापुराण का हिस्सा नहीं बनते थे. लोग इसे उनका आभिजात्य- अहंकार मानते थे. लेकिन हकीकत यह थी कि उनके समकालीन ही नहीं उनके बाद की पीढ़ी भी उनकी लेखकीय सक्रियता से आतंकित थी और इसे हिन्दी साहित्य का दुर्भाग्य ही माना जाएगा कि प्रायः सक्रिय रचनाकारों के प्रति साहित्यकार-आलोचक चुप्पी साध लेते हैं—एक षडयंत्र के तहत. यह क्षुद्र राजनीति है. जगदीश चन्द्र भी इस क्षुद्र राजनीति का शिकार रहे और द्रोणवीर कोहली भी. यह संयोग ही कहा जाएगा कि दोनों ही एक ही विभाग से थे. लेकिन उन्होंने अपनी रचनाओं में समय के जिस सच को अभिव्यक्ति प्रदान की है वह अमिट है---समय स्वयं उनका मूल्याकंन करेगा.
-०-०-०-०-०-

कोई टिप्पणी नहीं: