संस्मरण (5)
होस्टल, मथाई सी.जे. और फिरकी
रूपसिंह चन्देल
कानपुर की भव्य बाजारों में से एक गुमटी नंबर पांच। साफ सड़क,चमकती दुकानें और दुकानों पर बैठे और खरीददारी करते साफ-सुथरे चमकदार चेहरे। यह पंजाबी बाहुल्य क्षेत्र है। अधिकतर पाकिस्तान से आए लोग और उन्हीं का व्यवसाय है यहां। पास ही जी.टी.रोड पर सफेद संगमरमर का चित्ताकर्षक गुरुद्वारा है। हालांकि आज न तब जैसी चमकदार सड़क रही न दुकानें....... बढ़ती आबादी और राजनैतिक भ्रष्टाचार ने जब कानपुर शहर के अन्य क्षेत्रों को नर्क में तब्दील होते देने में कोई कमी नहीं छोड़ी तब गुमटी नंबर पांच की बाजार अपने को सुरक्षित कैसे रख सकती थी। लेकिन 1969-70 में ऐसा नहीं था। उन दिनों मैं आई.टी.आई. का छात्र था और मेरे प्रशिक्षण का समय था दोपहर दो बजे से शाम छः तक। इंस्टीट्यूट जे.के. मंदिर के पश्चिम ओर गुमटी नंबर पांच (जिसे कानपुर के लोग केवल गुमटी कहते हैं) पूर्व ओर अवस्थित है। प्रायः इंस्टीट्यूट से निकल मैं अकेले या किसी प्रशिक्षु के साथ जे.के. मंदिर की दीवार पर जा बैठता और साफ-शफ़्फ़ाक़ परिधानों में लिपटे स्त्री-पुरुषों और बच्चों को आते-जाते देखता रहता। अकेले होता तब भविष्य के सपने बुनता हुआ घण्टों बिता देता, जो मुझे अंधकारमय प्रतीत होता था। उन दिनों मैं युवावस्था की दहलीज पर कदम रख रहा था। भविष्य के ढेरों सपने थे और चारों ओर फैले तिमिर में उन्हें पकड़ कैसे मुट्ठी में कैद किया जाए यही मेरे सोच की उड़ान होती थी।
लेकिन जब साथ में कोई साथी होता तब बातों के विषय क्या होते अब याद नहीं, लेकिन स्पष्टतया कोई गंभीर मुद्दे नहीं ही होते थे। अध्ययन बहुत सीमित था और पत्र-पत्रिकाओं से न के बराबर परिचय हुआ था। विज्ञान से ग्यारहवीं करके एक वर्ष जानवरों के सान्निध्य में खेत-जंगल भटकने के बाद तय पाया गया था कि ग्रेजुएशन-पोस्ट ग्रेजुएशन के बजाय कोई प्रोफेशनल कोर्स किया जाए जिससे बड़े परिवार की गाड़ी सहजता से खींचने में बड़े भाई के साथ मैं भी अपना कंधा दे सकूं। स्थितियों को कम उम्र से ही समझने लगा था और मन में यह संकल्प भी था कि जीवन में कुछ करने के लिए स्वावलंबी होना ही पड़ेगा।
मैंने जुलाई 1969 में इंस्टीट्यूट में प्रवेश लिया। वह प्रवेश भी उतना आसान न रहा होता यदि भाई साहब के एक सहयोगी ने सहायता न की होती। भाई साहब हिन्दुस्तान एयरोनॉटिक्स लिमिटेड में प्रशासन विभाग में थे और शायद नियुक्तियां देखते थे। जिन सहयोगी की बात की, उनकी नियुक्ति भी भाई साहब के माध्यम से हुई थी। उससे पहले वह इंस्टीट्यूट से किसी रूप में संबद्ध रहे थे। उनकी संबद्धता मेरे काम आयी थी। काम इसलिए कि मेरी शैक्षणिक योग्यता तब हाईस्कूल थी जबकि वहां इतनी कम योग्यता का कोई अभ्यर्थी नहीं था। सभी ग्रेजुएट और पोस्ट-ग्रेजुएट थे। लेकिन मुझे इस बात का लाभ मिला था कि जिस प्रशिक्षण के लिए मैंने आवेदन किया था उसके लिए निम्नतम अर्हता हाईस्कूल ही थी।
चालीस छात्रों की क्लास में मैं एक मात्र हाईस्कूल, जिसकी अंग्रजी माशा-अल्लाह। जब कुछ छात्र अंग्रेजी में बातें करते तब मैं उनके चेहरे देखता और मन ही मन यह संकल्प करता रहता कि मुझे उस कोर्स में उत्तीर्ण होना ही है। कोर्स की पढ़ाई का माध्यम अंग्रजी.......इंस्ट्रक्टर आता, लेक्चर देता और चला जाता। आधा पल्ले पड़ता और आधा नहीं। मैंने कठोर श्रम किया और परीक्षा में चालीस में से जो सात छात्र उत्तीर्ण हुए उनमें से एक मैं भी था।
इंस्टीट्यूट में प्रवेश मिलने के बाद समस्या आई रहने की। भाई साहब वहां से 15-16 किलोमीटर दूर रहते थे। वहां से प्रतिदिन आने-जाने की समस्या का समाधान उन्होंने खोज निकाला। शस्त्रीनगर की लेबर कॉलोनी में इंस्टीट्यूट का होस्टल था। उन्होंने पुनः अपने सहयोगी की सेवाएं लीं और मुझे होस्टल में एकमोडेशन मिल गया। दो मंजिला कॉलोनी है वह। इंस्टीट्यूट ने होस्टल के लिए पूरा एक ब्लॉक ले रखा था.... शायद सोलह फ्लैट्स का। मुझे भूतल का फ्लैट मिला। दो बड़े कमरें-बड़ा आंगन। दो तख्त और एक मेज। एक सप्ताह ही बीता था कि एक दिन सुबह किसी ने दरवाजा खटखटाया। दरवाजा खोला तो पांच फुट चार इंच लंबा, चमकती आंखों, सुतवां नाक, चपटे गाल, और गहरा कृष्णवर्णी एक युवक सामने खड़ा था जिसने मोती जैसे चमकते दांतों में मुस्कराते हुए कहा, ‘‘मैं मथाई सी.जे......मुझे यह फ्लैट एलाट हुआ है।’’
‘‘हां, हां ....अंदर आ जाओ।’’ मैं उसका सामान उठाने के लिए आगे बढ़ा, जिसके लिए उसने मुझे रोक दिया। मैं जानता था कि एक न एक दिन मेरे साथ रहने के लिए कोई आएगा ही। दूसरे फ्लैट्स में दो-तीन छात्र रह रहे थे.... और आधे से अधिक छात्र पुराने थे।
मथाई अपना सामान अंदर ले आया तो मैंने दरवाजा बंद कर दिया। मैंने खिड़की के साथ के तख्त पर आसन जमा रखा था। सामने के तख्त की ओर इशारा कर बोला, ‘‘उस पर बिस्तर लगा लो।’’
‘‘वह शाम को करूंगा। अभी इंस्टीट्यूट जाना है।’’ मथाई ने कुछ सामान तख्त के नीचे फेका, कुछ कमरे में बने टॉल पर और पूछा, ‘‘आप कब तक लौटते हैं ?’’
‘‘साढ़े छः बजे तक।’’
‘‘ताले की डुप्लीकेट ’की’ है?’’
‘‘है।’’ मैंने दूसरी चाबी उसे दे दी।
मैंने नोट किया कि वह जब मुस्कराता, जीभ दांतो से लगा लेता। यद्यपि उसका हिन्दी बोलने का लहजा केरलाइट था, लेकिन हिन्दी वह अच्छी बोल-समझ लेता। उसने मुझे बताया कि उसने बाकायदा स्कूल में हिन्दी पढ़ी और परीक्षा उत्तीर्ण की थी।
मथाई के प्रशिक्षण का समय सुबह नौ बजे से शाम छः बजे था। वह इलेक्ट्रिकल में डिप्लोमा कर रहा था। हम दोनों अलग भोजन पकाते। वह स्टोव में प्रायः मसूर की लाल दाल और सेला चावल पकाता जिसका माड़ निकाल देता। दाल वह दोनों वक्त के लिए सुबह ही पका लेता। वह साढ़े आठ बजे पका-खाकर चला जाता। उसके जाने के बाद मैं अपनी बुरादे की अंगीठी सुलगाता।
एक दिन किसी रविवार मथाई ने साग्रह लंच के समय मुझे अपनी दाल सेवन के लिए दी। दाल खाकर मैं हतप्रभ था। इतना स्वादिष्ट...। दाल में वह मसालों का भरपूर प्रयोग करता। उसकी दाल का स्वाद आज भी मैं अनुभव करता हूं। वह छौंकर सीधे भगौने में पकाता था। उस जैसी मसूर की दाल पकाने की मैंने कितनी ही बार कोशिश की, लेकिन वह स्वाद नहीं मिला।
रात पढ़ने के लिए मेज का उपयोग मथाई करता। मेरा तख्त खिड़की के साथ था, इसलिए पढ़ते समय मेरा चेहरा सामने दीवार की ओर और पीठ खिड़की की ओर होते। खिड़की के बाहर सड़क थी जो हर समय चलती रहती थी। सड़क के उस पार एक और ब्लॉक था। उस ब्लॉक में मेरे फ्लैट के सामने प्रथम तल के फ्लैट की खिड़की पूरे समय खुली रहती। मेज पर जब मथाई का कब्जा होता, उसका चेहरा खिड़की की ओर होता और पढ़ते हुए भी उसकी नजरें सड़क पार सामने ब्लॉक के उस खुली खिड़की पर टिकी होतीं। बीच-बीच में मथाई कभी किसी हिन्दी फिल्म तो कभी किसी मलयाली फिल्म का गाना गुनगुनाता रहता। जब वह गाना गुनगुनाता, मेरी नजर सामने वाले फ्लैट की खिड़की की ओर उठ जाती। उस कमरे में उनतीस-तीस वर्षीया एक सुन्दर लंबी युवती इधर-उधर आती-जाती दिखाई देती। युवती इतनी तेजी से उस कमरे में आती-जाती कि मथाई ने उसे फिरकी नाम दे दिया। कभी ही वह खिड़की के सामने खड़ी होती, लेकिन जब भी खड़ी होती मथाई के गाने की आवाज कुछ ऊंची हो जाती, लेकिन इतनी भी नहीं कि वह सड़क पार दूर उस फ्लैट की खिड़की तक जा पहुंचती। कभी-कभी वह युवती चार-पांच वर्ष की अपनी बेटी को दुलारती दिखाई देती। उस क्षण मथाई गाता नहीं था.....एकटक उधर देखता रहता था।
‘‘ये है कौन?’’ एक दिन उसने मुझसे पूछा।
‘‘जाकर पता कर लो।’’
‘‘उंह....।’’ वह खिलखिला उठा।
लेकिन उसे यह जानने के लिए अधिक दिन प्रतीक्षा नहीं करना पड़ा। एक दिन उस कमरे में उस युवती की ही उम्र का सरदार युवक दिखा तो उसने मेरा ध्यान खींचते हुए कहा, ‘‘रूपसिंह, वह सरदारिनी है।’’
मैंने देखा युवक सरदार भी सुन्दर था।
मथाई सी.जे. मुझसे दो वर्ष बड़ा था और उस आयु की उस स्वाभाविक चंचलता के अतिरिक्त उसमें कोई ऐब नहीं था। हॉस्टल में वह किसी अन्य से संबन्ध नहीं रखता था। उसकी सीमित दुनिया थी जो कानपुर के कुछ केरलवासियों तक ही सीमित थी। लेकिन वे लोग होस्टल नहीं आते थे। मथाई ही उनके यहां जाता। उसकी बड़ी बहन कानपुर के अकबरपुर तहसील में फेमिली प्लानिगं से संबद्ध थी और शायद नर्स थी। कभी-कभी वह अपने उस छोटे भाई से मिलने अपने फील्ड आफीसर के साथ, जो एक केरलाइट ब्राम्हण था, मोटरसाइकिल पर आती थी। फील्ड आफीसर लंबा-हट्टा कट्टा, गोरा और खूबसूरत व्यक्ति था..... जिसकी आयु तीस से पैंतीस के मध्य थी। सी.जे. की बहन दुबली-पतली भाई की भांति गहरी श्यामवर्णी सत्ताइस-अट्ठाइस के आस-पास थी।
मथाई सी.जे. के साथ तीन महीने ही बीते थे कि एक दिन शाम एक और युवक रिक्शे पर टीन का बॉक्स, एक कनस्तर और होल्डाल लादे आया और बोला, उसे भी वह फ्लैट एलाट किया गया है। वह कानपुर के पास औरय्या का रहनेवाला था। हम दोनों ने उसका स्वागत किया। युवक बहुत बातूनी था। उसकी वाचालता से हम विचलित थे, क्योंकि हमारे अपने लक्ष्य थे, जबकि वह लक्ष्यहीन लगा।
‘‘ये हमारी पढ़ाई चौपट कर देगा।’’ मैंने कहा।
‘‘कुछ इलाज करना होगा।’’ मथाई बोला ।
अगले दिन युवक ने कनस्तर से देशी घी और मेवा पड़े आटा के लड्डू हम लोगों को खाने को दिए। बहुत स्वादिष्ट थे।
‘‘किसने बनाए?’’ मैंने पूछा।
‘‘मां ने।’’
‘‘तुम्हारी मां तुम्हे बहुत प्यार करती हैं।’’
युवक भावुक हो उठा, ‘‘बहुत प्यार करती हैं। मैं आना नहीं चाहता था, लेकिन पिता ने जबर्दस्ती इधर ला पटका।’’
‘‘मां का प्रेम होता ही ऐसा है...।’’ मथाई बोला।
युवक की आंखें घुचघुचा आईं।
बतचीत में हम दोनों ने उस युवक को मां के प्रेम के प्रति इतना उकसाया कि तीन या चार दिन बाद ही, ‘‘मैं घर जा रहा हूं.... एक सप्ताह बाद आउंगा।’’ कहकर वह घर चला गया।
उसके जाने पर हमने राहत की सांस ली। एक सप्ताह बाद दो-तीन दिन और बीत गए । वह नहीं लौटा तब हमारी नजरें उसके कनस्तर पर जा टिकीं। लड्डुओं (जिसे वहां पीड़ा कहा जाता है) का स्वाद मुंह में बरकरार था।
एक रात मैं बोला, ‘‘मथाई इसने कनस्तर में ताला डाला हुआ है।’’
‘‘उसके लड्डू खाना चाहते हो?’’ मुस्कराते हुए मथाई बोला।
‘‘चाहता हूं।’’
‘‘तो ताला भी खुल जाएगा।’’ कहता हुआ मथाई आंगन में गया और एक तार लेकर लौटा। उसने उस तार से कनस्तर के छोटे-से ताले को खोल दिया। ताला चिटखनीवाला था, जिसे दबाकर बंद किया जा सकता था। उस दिन के बाद वह तार हमने तब तक संभालकर रखा जब तक उस कनस्तर में पांच-छः लड्डू छोड़ शेष सभी हमारे उदर में नहीं पहुंच गए।
तीन सप्ताह बाद वह युवक लौटा, लेकिन रहने के लिए नहीं....सामान उठा ले जाने के लिए। उसने कनस्तर खोलकर भी नहीं देखा। जिस रिक्शे पर आया था, उसी पर सामान लाद वह चला गया था।
*****
एक दिन मैं शाम साढ़े छः बजे जे.के. मंदिर की दीवार पर बैठा आने-जाने वालों का नजारा ले रहा था। मंदिर के चारों ओर बहुत लंबी-चौड़ी जगह है और पाण्डुनगर और गुमटी की ओर अर्थात मंदिर के पश्चिम-पूर्व गेट हैं। पश्चिमी गेट यानी पाण्डुनगर की ओर का गेट छोटा है, केवल लोगों के आने-जाने के लिए, जबकि उसका मेन गेट गुमटी की ओर है। यह मंदिर सफेद संगमरमर पर निर्मित दिल्ली के बिरला मंदिर की अनुकृति है और उससे कई गुना अधिक भव्य।
मैंने नीचे देखा, मथाई हाथ में डायरी थामे जा रहा था। वह जब भी इंस्टीट्यूट जाता डायरी अवश्य उसके हाथ में होती थी। एक बार पूछने पर उसने बताया था कि इंस्ट्रक्टर की बातें वह उसमें दर्ज करता था और कुछ अन्य आवश्यक बातें भी। मैंने ऊपर से आवाज दी। मुझे मंडेर पर बैठा देख उसके चेहरे पर मुस्कान खिल उठी और दूधिया दांत यमक उठे। उसने हाथ के इशारे से मुझे नीचे आने का संकेत किया। मैंने भी इशारे से ही पूछा -‘‘किसलिए?’’ उसने साथ चलने का इशारा किया। मैं उसके साथ हो लिया। पूछने पर उसने बताया कि वह गुमटी जा रहा था रेस्टॉरेण्ट में इडली खाने।
‘‘तुम्हें इडली पसंद है?’’ उसने पूछा।
‘‘नापसंद नहीं है।’’
वह चुप हो गया। प्रायः ही वह चुप रहता। किसी प्रश्न का उत्तर संक्षेप में देता और जब मैं अघिक बातें करने लगता तब बचने के लिए कोई मलयाली फिल्मी गाना गुनगुनाने लगता। वह मेरा रूममेट था, इसलिए मुझसे बातें करना उसकी विवशता थी, लेकिन न भी होता तब भी मेरा यकीन था कि वह मुझे नापसंद नहीं करता। उसके स्थान पर यदि कोई अन्य युवक मेरे साथ होता तो शायद मैं उतनी पढ़ाई नहीं कर पाता और उस कोर्स में उत्तीर्ण हो पाता कहना कठिन है।
दरअसल वहां हम दोनों और दो-तीन अन्य युवकों को छोड़ शेष सभी उद्दण्ड और बदमाश किस्म के लड़के थे। मेरे पड़ोसी फ्लैट के ऊपरी मंजिल में दो मुसलमान लड़के रहते थे और सुना कि वे कई वर्षों से उसमें रह रहे थे। दो वर्षों के कोर्स में वे चार वर्ष बिता चुके थे। उनकी गतिविधियों से लगता और दूसरें लड़कों में चर्चा भी थी कि दरअसल इंस्टीट्यूट में वे केवल होस्टल के लिए रह रहे थे, जबकि उनके धंधे कुछ और थे । क्या, यह जानने की न मुझे फुर्सत थी न चाहत, लेकिन पड़ोसी बी.एन. कनौजिया, जो मेरे ही क्लास में था और जिसकी ऊपरी मंजिल में वे रहते थे, प्रायः सुबह देर से उठकर आंाखें मलता हुआ बताया करता ‘‘सालों ने रात भर सोने नहीं दिया।’’
‘‘क्यों?’’
‘‘रात एक बजे मैं पढ़ रहा था कि मेरी खिड़की के सामने जीप आकर रुकी। दो लड़कियां और एक लड़का उतरे और ऊपर चले गए। फिर नींद कैसे आती..... रात भर साले धमाचौकड़ी करते रहे और मैं जागता रहा।’’ बड़ी बंटे जैसी आंखें मलता हुआ कनौजिया मुंह बनाकर कहता और अपने सांवले, फूले, चौड़े मुंह में ठठाकर हंस देता। कनौजिया बहुत टिप-टॉप रहता था। अपने को सजाने-संवारने में विशेष ध्यान देता। कानपुर में मैं जब तक रहा, उससे मेरा संपर्क बना रहा था। इंस्टीट्यूट से निकलने के कुछ दिनों बाद ही उसका विवाह हो गया था और उसकी पत्नी को देख मैंने उससे कहा था कि भाभी की शक्ल दीप्तिनवल जैसी है। कनौजिया बहुत प्रसन्न हुआ था।
शादी के कुछ दिनों बाद डी.एम.एस.आर.डी. (डी.आर.डी.ओ. की एक लैब) कानपुर में उसकी नौकरी लग गई थी। स्वैच्छिक सेवावकाश ग्रहण करने से पहले और बाद में कई बार मैं इस लैब के गेस्ट हाउस में ठहरा और ऑफिस के काम से लैब भी गया, लेकिन वहां कनौजिया नहीं मिला। पूछने पर ज्ञात हुआ कि प्रमोशन पाकर वह देहरादून चला गया था।
******
उस दिन शाम सी.जे. मुझे लेकर गुमटी के एक दक्षिण भारतीय रेस्टॉरेण्ट में गया। इडली का आर्डर देकर हम मेज पर बैठ गए। मेरी बगल की मेज पर एक सरदार परिवार बैठा हुआ था। मैं उसे नहीं पहचान पाया, लेकिन सी.जे. ने पहचन लिया। उसने मुझे इशारा किया, लेकिन मैंने उसके इशारे पर ध्यान नहीं दिया। वह कुछ कहना चाहता था, लेकिन कह नहीं पा रहा था। जब मैं कुछ नहीं समझा, उसने मेरा हाथ पकड़ा और बाहर चलने के लिए कहा। मैं समझ नहीं पा रहा था कि बेयरा इडली लेकर आने वाला था और मथाई बाहर जाने के लिए कह रहा था। वह मुझे लेकर आया था और अब .......मैं उसके साथ बाहर आ गया। वह मुझे सड़क पार खींच ले गया।
‘‘मामला क्या है सी.जे.?’’ मैं चीख उठा।
‘‘बाप रे....तुमने देखा नहीं....?’’
‘‘क्या?’’
‘‘बगल की मेज पर ....।’’ उसकी सांस उखड़ी हुई थी।
‘‘बगल की मेज पर ....हां क्या था बगल की मेज पर।’’
‘‘अरे यार....।’’ केरलाइट लहजे में वह बोला, ‘‘फिरकी अपनी बच्ची और हजबैंण्ड के साथ बैठी थी।’’ अब वह प्रकृतिस्थ था।
‘‘धत्तेरे की....।’’ मैंने उसे धौल जमाते हुए कहा।
‘‘किसी दूसरे रेस्टॉरेण्ट में चलते हैं।’’
‘‘होस्टल चलते है। ....बहुत दिनों से तुम्हारे द्वारा पकायी मसूर की दाल नहीं खायी। आज तुम मेरे लिए दाल और चावल पकाओगे।’’
‘‘ओ.के.।’’ वह हंस पड़ा।
अप्रैल का महीना था। पसीना पोछते हम दोनों तीन-चार किलोमीटर का रास्ता पैदल तय करने का निर्णय कर होस्टल लौट पडे़ थे।
*****
जून, 1970 में इंस्टीट्यूट से मेरा वास्ता समाप्त हो चुका था, जबकि सी.जे. को एक वर्ष और वहां रहना था। यद्यपि मैं अक्टूबर 1973 तक कानपुर में रहा, लेकिन इंस्टीट्यूट छोड़ने के बाद सी.जे. से मेरी मुलाकात नहीं हुई। किसी से ज्ञात हुआ था कि इंस्टीट्यूट से निकलने के बाद वह फर्टिलाइजर कार्पोरेशन ऑफ इंडिया में पहले एप्रैण्टिश के रूप में फिर वहीं स्थायी नौकरी पा गया था।
*****
7 टिप्पणियां:
It made a good reading! Good choice of words and brilliant dwcriptions down the memory lane.
बहुत ही रोचक संस्मरण है। क्या आप एन फ एल लिमिटड मे नौकरी करते हैं ? तब इसे फर्टेलाईज़र कार्पोरेशन ही कहा जाता था। सुन्दर संस्मरण के लिये धन्यवाद।
Main apnee baat dohrana chahta hoon
ki aapke sansmarnon ko padhta hoon
to Manto , Krishan Chandar ,
Devendra Satyarthi , Khwaza ahmed
abbas , Upendra Nath Ashk ityadi ke
sansmarnon kee yaad aa jaatee hai .
Sansmaran padhna mujhe achchha
lagta hai . Usmein jeewan ka ytharth rahtaa hai . Aapka yah
sansmaran pathniy hee nahin ,
ullekhniy aur sangrahniy bhee hai .
Aapkee lekhni kaa main fan hoon .
sansmaran padte hue atit ki yadon men kho jaana aksar man ko kinheen gehraeyon ke sukhad anubhavon se sakshat krajaata hai kyonki inme jeevan ki sachchaiya hilor letin hain, bahut sundar.
संस्मरण अच्छा है। बांधने वाली भाषा तो तुम्हारी है ही परन्तु इस संस्मरण में मुझे ऐसा भी महसूस होता रहा कि मिथाई का चरित्र कुछ और खुल सकता था। 'फिरकी' ने कौतुहल पैदा किया लेकिन बहुत जल्द ही वह कौतुहल रसहीन सा हो गया लगा। खैर, संस्मरण में तो तुम वही लिखोगे जो घटित हुआ, वहां कहानी की तरह अपनी ओर से कुछ रोचक, रहस्यमय जोड़ने की कोई गुंजाइश नहीं होती। तुम चाहो तो इस चरित्र पर कहानी बहुत अच्छी लिख सकते हो क्योंकि वहां तुम्हें कोई बंदिश नहीं होगी।
बहुत दिनों के बाद आप के इस ब्लाग पर आया हूँ ,अच्छा संस्मरण पढ़ने को मिला .आना सार्थक हुआ ,चंदेल जी आप को बधाई .
रोचक संस्मरण !
पढ़ना अच्छा लगा !
धन्यवाद !
एक टिप्पणी भेजें