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सोमवार, 20 दिसंबर 2010

यादों की लकीरें

छाया चित्र - बलराम अग्रवाल
संस्मरण

पहला मित्र

रूपसिंह चन्देल

उससे मेरी पहली मुलाकात 1956 के मार्च या अप्रैल में हुई थी । उस वर्ष की होली कलकत्ता में मनाकर माँ के साथ मैं और छोटी बहन गांव लौटे थे । वहां मुझे पढ़ाने के पिता जी और बड़े भाई के सारे उपक्रम व्यर्थ रहे थे और शायद यह भी सोचा गया होगा कि दो वर्ष बाद पिता जी के रिटायर होने पर अंतत: मुझे गांव के स्कूल में ही पढ़ना होगा । गांव से जाने के समय मैं चार वर्ष के आस-पास रहा हूंगा । उस समय उससे मेरे संपर्क की याद मुझे नहीं है । शायद तब वह गांव में था भी नहीं । उसके पिता फौज में थे और परिवार साथ रखते थे । निश्चित ही तब वह पिता के साथ एक स्थान से दूसरे स्थान घूमता रहा था, लेकिन कलकत्ता से मेरे लौटने पर वह गांव में था गुल्ली-डंडा और कंचे खेलता हुआ । पता चला उसके पिता फौज से अवकाश ग्रहण कर चुके थे ।
उसका एक घर मेरे घर के सामने था (आज भी है) पक्का लिंटलवाला । मेरा मिट्टी की कच्ची इंटों का बना हुआ । उसके घर से सटा हुआ पक्का चबूतरा है , जिसमें एक शिवलिगं है और एक कोने में त्रिशूल गड़ा हुआ है। चबूतरे के पूर्वी छोटे-से हिस्से की फर्श टूट गयी थी जिसमें रेत डाल दी गई थी । मेरे और उसके घर के बीच दस फीट चौड़ी गली है। गली में उसे गांव के किसी न किसी लड़के के साथ कंचे खेलता प्रतिदिन सुबह मैं अपने चबूतरे पर और शाम उसके पक्के चबूतरे पर बैठकर देखता रहता ।

उसका नाम था बाला ... बाला प्रसाद त्रिवेदी । बड़ी ऑंखें, गोल चेहरा, तांबई रंग और हृष्ट-पुष्ट शरीर । जैसा वह बचपन में था वैसा ही अपनी अंतिम मुलाकात में मैंने उसे देखा था। वह मुझे खेलने के लिए बुलाता, लेकिन मैं खेलता नही । खेलने में मेरी रुचि नहीं थी। निठल्ला मैं उसे खेलते देखता और यहीं से हमारी मित्रता प्रारंभ हुई थी। मेरे घर के सामने उसका जो घर था, वह दो हिस्सों में बटा हुआ था। उसका आधा भाग उसके मंझले ताऊ के पास था और आधे में उसके पिता रहते थे। मेरे घर के सामने की गली से मुड़ती एक और संकरी गली है, उसमें पचास कदम पर उसका एक और मकान था, जिसमें वह अपनी माँ, विधवा बुआ और भाई-बहनों के साथ रहता था। बाद में उसकी माँ ने उसे भी पक्का बनवा लिया था ।
वह मुझसे एक वर्ष बड़ा था लेकिन माँ ने एक मील दूर पुरवामीर के 'जुग्गीलाल कमलापति प्राइमरी पाठशाला' में जब मेरा नाम लिखाया तब पता चला कि वह मेरी कक्षा में पहले से ही था। मेरी शिक्षा तो लेट-लपाट शुरू ही हुई थी, लेकिन शायद पिता के साथ रहने के कारण उसकी मुझसे भी देर से प्रारंभ हुई थी। विद्यालय में एक साथ होने के कारण मेरा अधिकांश समय उसके साथ बीतता। सुबह अपना बस्ता संभाल मैं जब उसके घर पहुंचता, वह चाय के साथ पराठे का राश्ता कर रहा होता। हम पगडंडी के रास्ते पड़ोसी गांव पुरवामीर की ओर लपकते जहां हमारी पाठशाला थी। लौटते समय भी हम साथ होते। गांव के तीन औेर लड़के हमारी कक्षा में थे। प्राय: वे हम दोनों से अलग चलते। कारण यह कि वे बाला को पसंद नहीं करते थ । पसंद न करने का कारण था उसकी शरारतें। बात-बात में वह लड़ जाता। शरीर में सबसे जबर था, इसलिए सामने वाले पर भारी पड़ता। आए दिन उसके घर शिकायत पहुंचती। लेकिन वह मुझसे प्रेम करता.... मेरी हर बात मानता। मेरे दूसरे सहपाठियों का ही नहीं, गांव वालों और अध्यापकों का यह मानना था कि हमारी मित्रता अनमेल थी। कई बार हम दोनों के सामने लोग कहते, ''रूप तुम्हें ब्राम्हण और इसे क्षत्रिय घर में जन्म लेना चाहिए था।'' बाला ब्राम्हण था। वह जितना हृष्ट-पुष्ट था मैं उतना ही दुर्बल। गांव में सींकिया पहलवान कहा जाता मुझे। दूसरों से लड़-भिड़ने वाला बाला मेरी डांट सुन लेता और खींसे निपोर देता, लेकिन ऐसा तभी होता जब गलती उसकी होती और मैं उस क्षण उपस्थित होता।
(बाएं से इकबाल बहादुर सिंह,बाला प्र.त्रिवेदी और लेखक -चित्र (नव.१९६६)

हम हाई स्कूल तक एक साथ रहे। आठवीं के बाद मैंने साइंस ली और उसने कामर्स। उत्तर प्रदेश में हाई स्कूल से स्ट्रीम तय कर लेना होता है। प्राइमरी उत्तीर्ण करने के बाद जूनियर हाईस्कूल के लिए हमने गांव से तीन मील दूर महोली के विद्यालय में प्रवेश लिया था। तब तक मेरे परिवार की आर्थिक स्थिति खराब हो चुकी थी। उन तीन वर्षों की पढ़ाई के दौरान हम दोनों के मध्य एक बार किसी बात पर सिकठिया-पुरवा की बाजार के पास तालाब किनारे (उन दिनों वह तालाब सिघांड़ों की बेल से पटा पड़ा था) मल्लयुध्द हुआ था। हम पगडंडी के रास्ते गांव लौट रहे थे। गांव के हमारे तीनों सहपाठी भी उस दिन साथ थे। किसी बात पर बाला और मुझमें बहस छिड़ी हुई थी और उस बहस ने इतना भयंकर रूप लिया कि ताल ठोक हम आमने-सामने थे। एक-दूसरे के बस्ते साथियों ने संभाले और हम भिड़ गए थे खुले मैदान। दुबला-पतला होने के बावजूद मुझमें ताकत कम न थी। उठा-पटक ऐसी कि कभी वह मेरे ऊपर होता तो कभी मैं। एक बार उसकी पीठ पर बैठ मैंने उसका दाहिना हाथ उमेठना शुरू किया। वह सीत्कार कर रहा था। शुक्र था कि मेरे गांव के सीताराम अवस्थी (जो हम दोनों के पड़सी थे) अचानक प्रकट हो गए थे और उनकी दहाड़ सुन मैंने उसका हाथ छोड़ दिया था। सीताराम अवस्थी ने न केवल हमें बुरी तरह डांटा था, बल्कि घर और स्कूल मे शिकायत की धमकी भी दी थी। मैं लड़ाई को बाहर तक ही रखना चाहता था। नहीं चाहता था कि मेरे पिता-माँ तक या स्कूल तक बात पहुंचे। स्कूल में अध्यापकों से लेकर हेडमास्टर तक का मैं प्रिय छात्र था ... सीधा-सादा।उनकी दृष्टि में मैं अपनी वही छवि बनाए रखना चाहता था। मैंने कपड़े पहने, बस्ता साथी से लिया और तेजी से गांव के लिए भाग खड़ा हुआ था।
उसके बाद कई महीनों तक न हम साथ आए-गए और न बोल-चाल रही। बाद में उसने गलती स्वीकार कर माफी मांगी और हमारी मित्रता पुन: उसी ढर्रे पर चल पड़ी थी।
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बाला खेल का शौकीन था ..... वालीबाल और कबड्डी। दूसरे खेलों की गांव में गुंजाइश नहीं थी। वालीबाल के लिए वह कभी-कभी रेलवे स्टेशन जाता, जहां शायं कुछ युवक खेलते थे। अक्टूबर-नवंबर में जब किसान अपने खेतों को रवी की फसल बोने के लिए जोतकर पाटा देते तब खेत चौरस हो जाते। बाला एण्ड कंपनी ऐसे खेतों में रात की छिटकी चांदनी में कबड्डी खेलते। सुबह वह मुझे उत्साहित करता ,''आज तुम भी चलना ... गजब का आनंद आता है ।''
उसे खेलने में ही आनंद नहीं आता था, बागों से फल लूटने में भी वह आनंद लेता। गांव के बाहर दक्षिण दिशा में एक मुसलमान का अमरूदों का बड़ा बाग था। ऐसे कई बाग आज भी गांव में हैं और उनके अमरूद इलाहाबादी अमरूदों जैसे गुदाज और मीठे होते हैं। एक दिन वह बोला, ''आज शाम चलना मेरे साथ....।''
''कहां ?''
''घूमने......स्कूल से आकर घर में घुस लेते हो। कभी घूम भी लिया करो।''
यह सातवीं कक्षा के दिनों की बात है।
शाम लगभग साढ़े पांच बजे वह मुझे लेने आ गया।
''कहां जा रहे हो ?'' तेजी से बढ़ते धुंधलके और ठंड को भांप माँ ने पूछा।
''बाला के साथ जा रहा हूं....अभी आता हूं।''
''दूर मत जाना....शाम होते ही साउज गांव के नजदीक आ जाते हैं।''
गांव के आस-पास जंगल के नाम पर बाग थे और बहुतायत में थे (अब उतने नहीं रहे)। एक मील की दूरी पर गांव के पूरब और दक्षिण में दो नाले थे, जो बरसात के दिनों में किसी नदी का रूप ले लेते थे। इन नालों के दोनों ओर झाड़-झंखाड़ थे, जिनमें कोई खतरनाक जानवर नहीं, सियार, लोमड़ी और खरगोश छुपे होते या कभी-कभी कोई स्याही दिख जाती। गांव के निकट जो बाग घने थे उनमें भी झाड़ियां थीं और कोई जानवर वहां भी छुपा होता। दिन में वे झाड़ियों में होते जबकि रात शुरू होते ही वे गांव के निकट आ जाते। रातभर हमें सियारों की हुहुआहट सुनाई देती। जब लगातार कई दिनों तक सियार गांव के और अधिक निकट आकर हुहुआते तब माँ-नानी कहतीं कि गांव में कुछ विपदा आने वाली है। यह उनका अनुभूत सत्य था ।
''अमुक की तबीयत ज्यादा खराब है .... भगवान उसकी रक्षा करना।''
जब कभी कई दिनों तक हुहुआने के बाद सियारों का हुहुआना कम हो जाता, वे कहतीं, ''भगवान उस पर मेहरबान है .... विपदा टल गयी।''
रास्ते में बाला बोला, ''हाफी जी के बाग में अमरूदों की बहार है .... आज उधर ही चलते हैं ।''
मैं डर रहा था, लेकिन स्वादिष्ट अमरूदों की कल्पना से मेरे मुंह में भी पानी आ गया था। हम हाफी जी के बाग के पीछे पहुंचे। बाग चारों ओर से ऊंची दीवार से घिरा हुआ था और था भी ऊंचाई पर। मेरा साहस उसके अंदर जाने का नहीं हो रहा था, लेकिन बाला उस्ताद था। उसने एक ऐसी जगह पहचान रखी थी जहां से बिना आहट बाग के अंदर प्रवेश किया और निकला जा सकता था। वह एक ही छलांग में बिना आहट बाग में पहुंच गया। उसने मुझे इशारा किया। अंधेरे में केवल उसका हाथ नजर आया। अमरूदों की महक मुझे ललचा रही थी। मैं भी साहस जुटा ऊपर पहुंच गया। हम अंधेरे में टटोलकर अमरूद तोड़ने लगे और कुर्ते की जेबों में ठूंसने लगे।

बाग की फसल किसी कुंजड़े ने खरीद रखी थी। बाग के बीच उसने फूस की झोपड़ी डाल रखी थी, जहां वह सपरिवार दिन-रात रहता था। दिन में वह गांव-गांव - और बाजार में अमरूद बेचता और उसकी पत्नी-बच्चे रखवाली करते। अमरूद पक्षियों.... खासकर सुग्गों का प्रिय आहार होता है। उसके लिए बाग के चारों ओर पेड़ों से बांस के डंडे बांधकर रस्सी से उनको मड़ैया से वे संचालित करते। रस्सी खींचने से डंडे पेड़ से टकराते .... आवाज होती और पक्षी उड़ जाते। दिनभर उसके बच्चे यह करते रहते, जबकि पत्नी घूम-घूमकर पके अमरूद तोड़ती ओैर जानवरों पर नजर रखती।
यद्यपि हम बहुत संभलकर अपना काम कर रहे थे, लेकिन आहट कुंजड़े तक पहुंच चुकी थी। उसने भक से टार्च की रोशनी उधर फेकी। पहचान नहीं पाया, लेकिन इतना समझ गया कि बाग में कोई जानवर नहीं मानुस घुसे थे। वह गाली देता डंडा लेकर हमारी ओर दौड़ा, लेकिन उसकी टार्च की रोशनी पड़ते ही हम प्रवेश की जगह से नीचे कूद गये और सिर पर पैर रख भाग खड़े हुए थे।
इस प्रसंग को केन्द्र में रखकर मैंने 'अमरूदों की चोरी' शीर्षक से एक बाल कहानी लिखी थी।
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हमारी हाई स्कूल की बोर्ड परीक्षा निकट थी और हम दोनों ने ही उस वर्ष पढ़ाई नहीं की थी। उत्तर प्रदेश में आठवीं की परीक्षा जिला बोर्ड द्वारा ली जाती थी और गांव में मैं पहला लड़का था जिसने प्रथम श्रेणी पायी थी। हाई स्कूल में फेल हो जाने का खतरा या कम अंक लेकर पास होने से मैं प्रकम्पित था। सोचता, फिर भी पढ़ाई नहीं कर रहा था। कह सकता हूं कि पूरे वर्ष मैंने पड़ोसी गांव के एक दूधिया के बेटे, जो मुझसे सीनियर था और लगातार इण्टरमीडिएट में फेल होता रहा था, के चक्कर में केवल गप्प-गोष्ठी में समय नष्ट किया था। वह मेरे गांव दूध लेने आता और दूध लेकर सात बजे के लगभग मेरे चबूतरे से साइकिल टिकाकर मुझे आवाज देता। मुझे उसके आने का इंतजार रहता। उसकी एक आवाज में मैं डयोढ़ी पार होता और सामने के पक्के चबूतरें पर रात नौ बजे तक हमारी गोष्ठी होती रहती। इस गोष्ठी में बाला कभी शामिल नहीं हुआ। उसके न पढ़ने के अपने कारण रहे होगें। तभी 31 जनवरी,1967 को मुझे बड़े भाई से मिलने कानपुर जाना पड़ा। रविवार का दिन था। कानपुर मेरे गांव से तीस किलोमीटर दूर है। और उन दिनों मेरे पास नई हीरो साइकिल थी, जिसे मैं हर समय चमकाकर रखता था। मुझे उसी से जाना था। मेरे गांव से जी.टी.रोड एक किलोमीटर उत्तर है और वह कानपुर के मध्य से गुजरती है। भाई साहब उन दिनों लाल बंगला में रहते थे, जो जी.टी.रोड के किनारे बसा है।

भाई साहब हिन्दुस्तान एयरोनॉटिक्स लिमिटेड में नौकरी करते थे ...घर का एकमात्र आर्थिक स्रोत। माहांत में या तो वह स्वयं आकर घर खर्च दे जाते या मैं जाकर ले आता। उस दिन मुझे उनसे पैसे लेने जाना था और उसी दिन उनके साले बाबूसिंह को भी कानपुर जाना था। एक मुलाकात में उनसे समय-दिन और स्थान निश्चित हो गया था। तय हुआ था कि महाराजपुर थाना के आगे, जहां नरवल से आने वाला रास्ता जी.टी.रोड से मिलता है वहीं मंदिर के पास हम दस बजे मिलेंगे।
मैं निश्चित समय पर साइकिल मंदिर की दीवार से टिका मंदिर की दीवार पर नरवल की ओर से आने वाली सड़क पर टकटकी लगाकर बैठ गया था। दीवार अधिक ऊंची न थी । मंदिर लगभग एक एकड़ क्षेत्र में था। बाबू सिंह की प्रतीक्षा में जब दो घण्टे से ऊपर समय बीत गया तब मंदिर के पुजारी ने मेरे पास आकर पूछा ,''किसी की प्रतीक्षा में हो बेटा ?''
''जी ।'' मैंने पूरी बात बतायी ।
''अंदर आ जाओ।''
वह मुझे गेट से अंदर प्रागंण में ले गए जहां बिछी चारपाई पर मुझे बैठाते हुए उन्होंने मेरे बारे में जानकारी ली। कुछ देर तक कुछ सोचने के बाद वह कागज-पेंसिल ले आए और बोले, ''किसी फूल का नाम सोचो।''
मेरे सोचते समय उन्होंने उस फूल का नाम लिख लिया था। मेरे बताते ही उन्होंने अपना लिखा कागज मेरी ओर बढ़ा दिया। उन्होंने फूल का वही नाम लिखा था। फिर उन्होंने कहा, ''किसी फल का नाम सोचो।''
मेरे सोचने तक वह उस फल का नाम भी लिख चुके थे।
एक-दो और बातों ने मुझे उनके प्रति आकर्षित किया।
'यह तो बहुत विद्वान व्यंक्ति हैं।' मैंने सोचा। मैं यह सोच रहा था और वह मेरे चेहरे को पढ़ रहे थे। देर की चुप्पी के बाद वह बोले, ''बेटा तुमने पूरे वर्ष पढ़ाई नहीं की.... और हाई स्कूल की परीक्षा देने जा रहे हो!''
मैंने स्वीकार किया ।
''परीक्षा कब से है ?''
''29 फरवरी से।''
''एक महीना है।'' वह फिर कुछ देर चुप रहे, फिर बोले, ''एक महीना है। मैं पढ़ पा रहा हूं कि यदि तुम अभी भी जमकर परिश्रम करोगे तो अच्छे अंकों से उत्तीर्ण हो जाओगे ।''
पुजारी की बात ने मुझे आंदोलित किया। एक बज चुका था और बाबूसिंह का अता-पता नहीं था। मैंने पुजारी से इजाजात ली और भाई साहब से मिलने चला गया। रास्ते भर मैं पुजारी की बात सोचता रहा। घर लौटा तब एक संकल्प था मन में कि कल से रात दिन एक कर देना है पढ़ाई में। रात ही मैंने बाला को यह बताया। वह भी पूरे वर्ष न पढ़ने से परेशान था। हमने तय किया कि गोरखनाथ निगम के बाग में सुबह ही हम पढ़ने चले जाएगें और शाम पांच बजे तक वहीं रहेंगे। दिन भर पढ़ेंगे ....केवल आध घण्टे का विश्राम लेंगे।
यह बाग हमारे घर से दो सौ मीटर की दूरी पर था बिल्कुल गांव से सटा हुआ ...उत्तर दिशा में। उस बाग से सटा हुआ था मुसलमानों का बेरों का बाग।
अगले दिन से हम वहां जाने लगे। प्रेपरेशन लीव चल रही थीं। दृढ़ संकल्प के साथ हमने टाइम-टेबल बनाकर पढ़ाई की। बीच-बीच में बाला अवश्य इधर-उधर घूम आता और मौका पाकर बेर भी तोड़ लाता। शाम पांच बजे अपने बस्ते संभाल हम घर लौटते। मेरे पास घड़ी नहीं थी। उसके पास थी। उसने अपनी घड़ी मुझे दे दी और वह परीक्षा तक मेरे पास ही रही, जिसने समय संयोजित करने में मेरी बहुत सहायता की थी।
मैं सात बजे सो जाता माँ से यह कहकर कि वह साढ़े बारह बजे मुझे जगा देंगी। बाला अपने पिता के कमरे में सोता यह कहकर कि मैं जब उठूंगा उसे भी जगा दूंगा। मुझे आश्यर्य होता जब माँ बिना घड़ी-एलार्म मुझे ठीक साढ़े बारह बजे उठा देतीं। दो बजे कहा तो दो बजे....ऐसा वह कैसे संभव कर लेती थीं..... आज भी मेरे लिए रहस्य है। मैं सुबह तक पढ़ता और अगले दिन की फिर वही दिनचर्या होती। इतना घनघोर परिश्रम मैंने कभी नहीं किया था। परिणामत: मेरी आंखों में पीलापन छा गया। धुंधला दिखने लगा। परीक्षा के बाद इसका देसी इलाज किया और स्वस्थ हुआ।
आज भी सोचता हूं कि यदि मंदिर के पुजारी से मुलाकात न हुई होती तो पता नहीं मेरा भविष्य क्या रहा होता। मैं और बाला दोनों ही पास हो गए थे। कुछ अंकों से मेरी प्रथम श्रेणी रह गयी थी। बाला भी द्वितीय श्रेणी में उत्तीर्ण हो गया था।
*******
हाई स्कूल का परीक्षा परिणाम आने से पहले ही उसका विवाह हो गया। वह बहुत प्रसन्न था। पत्नी सुन्दर और सुशील थी। हाई स्कूल के बाद उसने पढ़ाई नहीं की। वह नौकरी की तलाश में लग गया था। रेगुलर इंटरमीडिएट मैं भी नहीं कर सका। बीच मे्रं 1969-70 मे आई.टी.आई. किया और उसी की भांति नौकरी के लिए भटकने लगा। (इकरामुर्रहमान हाशमी पर लिखे अपने संस्मरण में मैंने इस विषय पर विस्तार से लिखा है।)
जून 1970 में आई.टी.आई से निकलने के बाद मैं भाई साहब के साथ रहने के लिए बेगमपुरवा कॉलोनी में शिफ्ट कर गया था। उन्हीं दिनों भाई साहब ने कॉलोनी में दूसरी मंजिल पर एक और फ्लैट खरीदा था। उन्होंने पड़ोसी बमशंकर बाजपेई से कहकर बाला को उनके प्रिण्टिगं प्रेस में प्रशिक्षु के रूप में लगवा दिया। वेतन न के बराबर था, लेकिन वह अपना गुजर कर लेता। स्वयं ही स्टोव में खाना पकाता और प्रेस तक पांच-छ: किलोमीटर पैदल जाता, लेकिन लौटते समय बाजपेई के साथ उनकी साइकिल से आता। तब तक उसके परिवार की आर्थिक स्थिति डांवाडोल हो चुकी थी और शायद वह एक बेटे का पिता भी बन चुका था। पर्याप्त तनाव में रहता। तनाव में रहते हुए भी वह उसे प्रकट नहीं करता था। दूसरी मंजिल के फ्लैट में मैं उसके साथ रहता था। कभी-कभी वह लंबी आह भरकर कहता, ''रूप, तम्हारे लिए जगरूप कोशिश करने वाले हैं, लेकिन मेरे लिए मेरे घर का कोई कुछ करने को तैयार नहीं। पिता जी ने परिवार से नाता तोड़ लिया है।''
उसके पिता को फौज से पेंशन मिलती थी और वह घर के लिए धेला नहीं देते थे। उसकी माँ गाय -भैंस पालकर उनका दूध बेच परिवार पाल रही थीं। उसकी चिन्ता स्वाभाविक थी।
एक बार सप्ताह भर गांव रहकर वह लौटा। बहुत उत्साहित था। मैंने कारण पूछा।
''रूप, तुम समझो कि जल्दी ही मेरी नौकरी लग जाएगी।''
''कहीं जुगाड़ बन गया है ?''
''मुझे पहले मालूम होता तो इतने दिनों तक बाजपेई जी के प्रेस में अक्षर (कंपोजिगं) न बिठाता रहता।''

''कुछ मुझे भी बताओ।'' मैं स्वयं उन दिनों साइकिल के पैडल घिस रहा था और मेरा अनुमान है कि शहर की शायद ही कोई मिल रही होगी जहां मैं नहीं गया था। कितने ही छोटे दफ्तर .....और सभी जगह खेदजनक आश्वासन। भाई साहब के लिए अपनी क्लर्की से घर संभालना कठिन हो रहा था।
''इस बार बाबू जी ने तरस खाकर मुझे बताया कि उनके फुफेरे भाई इन दिनों कानपुर के मेयर हैं ।'' वह कह रहा था ।
''हां ऽऽऽ'' मुझे आश्चर्य हुआ। इतना निकट का रिश्ता।
''तिवारी जी मेरे बाबा की बहन के बेटा हैं। उन दिनों कोई तिवारी कानपुर के मेयर थे.... शहर के सभ्रांत व्यक्ति।''
''उन्होंने अब तक क्यों नहीं बताया था ?'' मैंने पूछा।
''बाबू जी उनसे कहना नहीं चाहते थे..... हमारी उनकी हैसियत में बहुत अंतर है शायद इसलिए....''
''तो क्या ...?''
''बस बाबू जी को उनके पास जाना गवारा नहीं .....और इसीलिए उन्होंने आज तक नहीं बताया ।''
''तुम मिलो तिवारी जी से..... अपने बाबा का परिचय देकर।''

''कल ही जाउगां....तुम भी अपनी सर्टीफिकेट लेकर चलना ....मेरा काम बनेगा जब तब तुम्हारे लिए भी कहूंगा ।''
''चलूंगा।''
''बताऊं,'' बाला ने क्षणभर की चुप्पी के बाद कहा, ''तिवारी महाराज फर्टीलाइजर कार्पोरेशन ऑफ इंडिया' के चेयरमैंन हैं.... और आजकल वहां सभी प्रकार की भर्ती चल रही हैं। नया खुला है न कार्पोरेशन कानपुर में।''
''समय नष्ट नहीं करना चाहिए बाला। कल ही चलते हैं।''
और दूसरे ही दिन हम दोनों तिवारी जी के यहां थे सुबह दस बजे के लगभग। आलीशान कोठी। मिलने वालों की भीड़। कोठी के गेट पर दरबान ने रोका, लेकिन वह समय जनता से मिलने का था। मामूली तहकीकात के बाद हम अंदर थे। मुलाकातियों की पंक्ति में लंबे समय तक अपने नंबर की प्रतीक्षा करते हुए हम हॉल में एक ओर बैठ गए थे। हॉल से लगा तिवारी जी का मुलाकाती कमरा था .... कमरा नहीं विशाल हॉल ....खिड़कियों-दरवाजों पर झूलते मंहगे लंबे परदे, फर्शे पर बिछी कार्पेट, जिसपर पैर रखने में उसके गंदा हो जाने का संकोच हमारे चेहरों पर स्पष्ट था। नंबर आने पर हम दोनों साथ ही मिलने गए। आलीशान सोफे पर क्रीम कलर के सिल्क के कुर्ता और भक पायजामा में साठ के आस-पास की आयु के लंबे, गोरे-चिट्टे चमकते चेहरे वाले तिवारी जी आसीन थे।

बाला ने अपना परिचय दिया, ''मैं नौगवां गौतम के कृष्णकुमार त्रिवेदी का बेटा हूं।''
अपने ममेरे भाई का नाम सुनकर भी तिवारी जी के चेहरे पर पहचान का कोई चिन्ह प्रकट नहीं हुआ। ना ही उन्होंने ममेरे भाई के बारे में कुछ पूछा।
''क्या काम हैं ?'' दूसरों की भांति एक रूटीन प्रश्न।
बाला ने आने का आभिप्रय बताया।
''एप्लीकेशन और प्रमाण-पत्र लाए हो ?''
'जी।'' हम दोनों एप्लीकेशन प्रमाणपत्रों के साथ ले गए थे। बाला ने वे उन्हें पकड़ा दिए। लेकिन मेरा मन नहीं हुआ अपनी एप्लीकेशन देने का। बाला ने इशारा भी किया, लेकिन मैं चुप बैठा रहा था।
कुछ देर की चुप्पी के बाद तिवारी जी बोले, '' ठीक है । कुछ होगा तब तुम्हें बुला लेगें।''
हम दोनों ने तिवारी जो के उठ जाने के संकेत को समझा और तुरंत उठकर बाहर आ गए। लेकिन इस बार बाला ने वह गलती नहीं की जो अंदर जाने पर की थी। तब वह तिवारी जी के चरण-स्पर्श करना भूल गया था। लौटते समय उसने वह भूल सुधार ली थी।

''तुम्हारा काम बन जाएगा।'' रास्ते में मैंने उससे कहा।
''मुझे उम्मीद नहीं है ...(.तिवारी महाराज वह ऐसे ही बोल रहा था) उसने पहचाना ही नहीं। बाबू जी का नाम सुनकर भी उन्होंने कुछ भी नहीं पूछा ।
बाला का अनुमान सही सिद्ध हुआ था ।

लगभग एक वर्ष तक बाला ने प्रेस में हाथ-पैर मारे लेकिन कंपोजिंग में वह अच्छी गति नहीं बना पाया। बाजपेई उसे कुछ नहीं कहते लेकिन भाई साहब को बताते ,''ठाकुर साहब, बाला काम सीखने में रुचि नहीं ले रहा।'' और वास्तव में ही उसका मन नहीं लग रहा था। एक दिन खीजकर उसने कहा, ''इस काम से मेरी गुजर न होगी। मैं नहीं सीख पाउंगा।'' और एक दिन उसने घोषणा की कि वह गांव वापस जा रहा है। मैं अपने संघर्षों में डूबा हुआ था। बाद में पता चला कि वह अपने बड़े ताऊ के बड़े लड़के बद्रीप्रसाद त्रिवेदी के पास चला गया था, जो महाराष्ट्र के किसी शहर में रेलवे में छोटे पद पर कार्यरत थे। बद्री ने किसी प्रकार उसे रेलवे पुलिस में भर्ती करवा दिया था। नौकरी लगने के बाद मैं मुरादनगर, फिर दिल्ली आ गया। गांव जाना कम हो गया। लेकिन मुझे बाला के समाचार मिलते रहते।
1973 के बाद लंबे समय तक हम नहीं मिले और जब मिले तब पता चला कि वह गांव लौट आया था। यह मुलाकात गांव में हुई थी। वह रेलवे की नौकरी छोड़ आया था.... छोड़ नहीं बल्कि उसे निकाल दिया गया था। वह झगड़ा करने की आदत से विवश था। अपने किसी सहयोगी से उसका झगड़ा हुआ और उसने उस पर घातक प्रहार किया था। परिणामस्वरूप नौकरी से हाथ धोना पड़ा। मैं गांव गया तब वह मुझसे मिलने आया और लगभग एक घण्टा मेरे पास बैठा। लेकिन उसकी नौकरी के विषय में कुछ भी पूछने का साहस मुझमें नहीं था और न ही उसने बताया। यह बात 1988 की है। उसने मेरा दिल्ली का पता लिया। मैंनें उसे अपना वर्तमान पता दिया, क्योंकि मैंने इस मकान का आधा भाग इस उद्देश्य से बनवाया था कि यहां शिफ्ट करूंगा। बाला को पता देने के समय मैं शक्तिनगर में किराए के मकान में रह रहा था और कुछ दिनों के अंदर ही अपने मकान में आने का विचार था, लेकिन बच्चों की शिक्षा को ध्यान में रखकर बाद में इस विचार को त्यागना पड़ा था। उसने बताया था कि उसकी छोटी बहन का विवाह दिल्ली में हुआ था और वह जल्दी ही दिल्ली आएगा ।
वह दिल्ली आया और मेरे मकान में भी आया, लेकिन यहां ताला बंद था। शक्तिनगर का पता उसके पास नहीं था। डेढ़-दो वर्ष बाद मैं फिर गांव गया। इस बार वह गांव में नहीं था। उस दिन मेरा मन अपने खेतों की ओर जाने का हुआ। अपने खेतों की ओर जाऊं और पास के रेलवे स्टेशन (करबिगवां) तक न जाऊं यह संभव नहीं था। इस रेलवे स्टेशन से मेरी अनेक यादें जुड़ी हुई हैं। गांव में रहते हुए मैं प्राय: शाम के समय उधर निकल जाता और स्टेशन के बाहर एक चबूतरे पर बैठकर आगरा-इलाहाबाद पैसेंजर से आने वाले यात्रियों को देखता। उस दिन मेरा मन स्टेशन को एक बार पुन: देखने का हुआ। वहां मुझे बदलू मोची मिले, जो उसी प्रकार स्टेशन के बाहर पीपल के पेड़ के नीचे बैठे हुए थे, जिस प्रकार वह मेरी किशोरावस्था में मुझे बैठे दिखाई देते थ। घर के जूते-चप्पलें गठवांने के लिए मुझे एक मील चलकर स्टेशन तक जाना पड़ता, जबकि बदलू मेरे गांव के ही थे। ऐसा इसलिए क्योंकि वह अपना सामान स्टेशन में ही कहीं रख आते थे। बदलू बहुत बूढ़े हो चुके थे। मैंने जिस बदलू को किशोरावस्था में देखा था उनमें और उस दिन के बदलू में बहुत अंतर था। चेहरा झुर्रियों भरा......हाथ-पैर सूखे हुए.....लेकिन वह तब भी जूते गांठ रहे थे ।
स्टेशन में बहुत कुछ बदल गया था, नहीं बदला था तो पुन्नी पाण्डे के भतीजे का व्यवसाय। वर्षों बाद भी मैंने उसे उसी प्रकार यात्रियों को पानी पिलाते देखा। उम्र अपनी छाप उसके चेहरे पर छोड़ चुकी थी। गोरे चेहरे पर कालिमा उतर आयी थी, जो उसके कठिनतर जीवन की गवाही दे रही थी ।
वहां से लौटते हुए रेलवे फाटक के पास अचानक बाला से मेरी मुलाकात हो गयी। वह किसी बारात में जा रहा था। बारात बैलगाडियों में थी। मुझे देखते ही वह बैलगाड़ी से उछलकर कूदा और आंखे निकालकर लगा धमकाने, ''तुम्हारा खून पीने का मन कर रहा है .....मुझे तुमने सादतपुर का पता दिया....मैं गया....वहां ताला बंद था। तुमने शक्तिनगर का पता क्यों नहीं दिया था ! नहीं मिलना था तब दिया ही क्यों था ?''
शर्मिन्दा मैंने बहुत सफाई दी, लेकिन उसने एक नहीं सुनी। बोलता रहा। ट्रेन निकल गई थी और फाटक खुलने वाला था। वह बोला, ''अपना शक्तिनगर का पता दो ।''
मैंने उसके आदेश का पालन किया।
''ठीक है....जल्दी ही वहां आऊंगा।'' कहकर वह उछलकर बैलगाड़ी पर सवार हो गया था।
लेकिन वह शक्तिनगर कभी नहीं आया।
बाला के साथ वह मेरी अंतिम भेंट थी। उसके बाद उसके विषय में मुझे जो सूचना मिलती वह अत्यंत कष्टकारी होती। उसके पास कोई रोजगार नहीं था .... शायद वह कुछ करना भी नहीं चाहता था। कोढ़ में खाज यह कि वह पीने लगा था। ऐसा-वैसा नहीं.....पूरी बोतल एक साथ पी जाता और पीने के लिए उसे हर दिन शराब चाहिए थी। बड़ा बेटा कहीं कुछ करने लगा था, लेकिन हालात बेहतर नहीं थे ।
शराब के साथ ही उसने मदक की लत डाल ली थी। गांव में मदक की पहली लत उसके बड़े ताऊ यानी बद्रीप्रसाद त्रिवेदी के पिता ने डाली थी। वह पूरे दिन उसी में धुत रहते थे और उनसे ही वह लत गांव के कितने ही लोगों को लग गयी थी। कई लोग तबाह हुए थे और कई युवावस्था में ही परलोकवासी हो चुके थे। अब वही लत बाला ने अपना ली थी। अपने उपन्यास 'पाथरटीला' में मैंने मदक का विस्तृत चित्रण किया है।
मदक और शराब ने बाला के हट्टे-कट्टे शरीर को निचोड़ दिया। ऐसा नहीं कि वह इसके दुष्परिणाम नहीं जानता रहा होगा। शायद वह अपने जीवन से अत्यंत असंतुष्ट और निराश था और उसने अपने को समाप्त कर लेने का निर्णय कर लिया था। उसने जो चाहा होगा, वही हुआ। हाल की कानपुर यात्रा के दौरान मुझे सूचना मिली कि सात-आठ माह पूर्व वह इस संसार को अलविदा कह गया था।
अपने पहले मित्र के ऐसे अंत से मैं आहत था। उसका अंतिम स्वप्न भी मैंने लगभग इतने ही दिनों पहले देखा था। शायद वह मुझे स्वप्न में अलविदा कहने आया था और संभव है, वह वही दिन रहा हो जिस दिन वह इस संसार से विदा हुआ था।
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3 टिप्‍पणियां:

सुभाष नीरव ने कहा…

भाई बहुत जानदार है तुम्हारा यह संस्मरण भी। इन संस्मरणों को पढ़कर लगता है जैसे तुम्हारी आत्मकथा पढ़ रहे हों। इस सन्दर्भ में मैत्रेयी पुष्पा की यह बात सच साबित होती है कि "आत्मकथा केवल अपनी कथा ही नहीं होती, वह अपने परिवेश के लेकर आसपास के लोगों से संबंधित रहती है" (कथादेश- दिसम्बर 2010) । तुम्हारे इन संस्मरणों में तुम्हारे आसपास के परिवेश से लेकर आसपास के लोग भी पूरी जीवंतता से प्रकट हो रहे हैं। इसीलिए मुझे पढ़ते हुए भ्रम होता है कि मैं संस्मरण पढ़ रहा हूँ या चन्देल की आत्मकथा।

खैर… बहुत बधाई ।

ashok andrey ने कहा…

priya chandel yaden to yaden hii hoti hain vo bhii bachpan ki jo kabhii piichha nahi chhodti hain isii liye tumhaara yeh sansmaran bahut kuchh sochne ko badhaya kartaa hai mujhe lagaa eise hii kaee paatr hamaare chaaron aur mandraate rehte hain hum khoe-khoe se unhen takte rehte hain bus. badhai iss sansmaran ke liye

PRAN SHARMA ने कहा…

AMROODON KEE CHOREE TAK PADH KAR
SOCHA KI SHESH SANSMARAN KAL
PADHUNGA .CHUNKI SANSMARAN ROCHAK HAI ISLIYE MAIN POORAA KAA POORA
PADHE BINAA NAHIN RAH SAKAA HOON .
AAPKE SANSMARAN PADHKAR SAADAT
HASSAN MANTO KE AGHA HASHR KASHMIRI
, DEVENDRA SATYARTHEE AADI PAR
LIKHE SANSMARAN YAAD AA JAATE HAIN . JAESEE PYAAREE KISSAGOEE UNKE SANSMARANON MEIN HAIN VAESEE HEE KISSAGOEE AAPKE SANSMARANON MEIN HAI . UNKE SANSMARANON KEE
TARAH AAPKE SANSMARAN BHEE TAAZAA
AUR YAADGAAR RAHENGE .