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बुधवार, 21 जुलाई 2010

यादों की लकीरें



रचना यात्रा में अब तक ’यादों की लकीरें’ श्रंखला के अंतर्गत प्रकाशित अट्ठारह संस्मरण पुस्तकाकार रूप में इसी शीर्षक से भाग एक के रूप में ’भावना प्रकाशन’ , १०९ A , पटपड़गंज, दिल्ली-९२ से शीघ्र ही प्रकाश्य हैं।

प्रस्तुत है इसी श्रंखला के दूसरे भाग का एक संस्मरण :

तांगेवाला

रूपसिंह चन्देल

2 जुलाई, 1984 - सोमवार का दिन । स्कूल खुल गए थे । उस दिन मैंने अवकाश लिया और सुबह बेटी को स्कूल छोड़ आया । आधा दिन यह सोचते हुए बीता कि उसके लिए टैक्सी , आटो की व्यवस्था करूं या बस की । टैक्सी-आटो की व्यवस्था अनुकूल थी, क्योंकि अनुरोध करने पर शायद वे उसे क्रेच के गेट पर छोड़ देते, लेकिन बस मुआफिक इसलिए न थी क्योंकि उसका निश्चित स्टैण्ड था और बच्चों को स्टैण्ड पर उतारकर बस आगे चली जाती हैं । यदि क्रेच की आया या मालकिन स्टैण्ड पर उपस्थित न रही तब तीन वर्ष की बेटी क्रेच तक कैसे जाएगी, यह सोचकर बस की व्यवस्था करने का विचार हमने त्याग दिया था । दरअसल इस उलझन से हम मई में स्कूल बंद होने के साथ ही जूझने लगे थे । अप्रैल से 15 मई तक का समय हमने किसी तरह काट लिया था, लेकिन अब समस्या मुंह बाये खड़ी थी । डेढ़ महीने तक जूझने के बाद भी हम किसी निर्ष्कर्ष पर नहीं पहुंच पाए थे । बेटी जब पांच माह की थी, तभी से क्रेच जा रही थी । प्रारंभ में शक्तिनगर में रवीन्द्र मल्होत्रा द्वारा खोले गए क्रेच में , और एक साल बाद उसके बंद होने पर बैंग्लोरोड (जवाहरनगर) में चोपड़ा परिवार के यहां । चोपड़ा गोरे, मध्यम कद के हंसमुख स्वभाव व्यक्ति थे । आर.के. पुरम के एक कार्यालय में कार्य करते थे और आते-जाते प्रायः वह मेरे साथ होते, लेकिन वर्षों तक मुझे यह जानकारी नहीं हुई कि जिस क्रेच में मेरी बेटी जाती थी, उसे उनकी पत्नी और उनका अविवाहित छोटा भाई (जिसने कभी विवाह न करने की शपथ ले रखी थी) चलाते थे । यह तब ज्ञात हुआ जब बच्चों का क्रेच जाना बंद हो गया था ।
उस दिन पत्नी आधे दिन के बाद घर आ गई । दिल्ली विश्वविद्यालय शक्तिनगर से मात्र तीन किलोमीटर की दूरी पर अवस्थित है । स्कूल की छुट्टी ढाई बजे होनी थी । स्कूल घर से बहुत ही निकट था - - - पैदल पन्द्रह मिनट के रास्ते पर - - रेलवे लाइन के उस पार । बहुत सोच-समझकर हमने उस स्कूल का चयन किया था । यह आर.आर.वी.एम. सीनियर सेकेण्डरी स्कूल के प्रबन्धन का एल.वी.एम. नामका उसी परिसर में दूसरा स्कूल था । आर.आर.वी.एम. दिल्ली के महत्वपूर्ण विद्यालयों में रहा था , लेकिन तब तक वह अपनी प्रतिष्ठा खो चुका था, जबकि एल.वी.एम. सीनियर सेकेण्डरी स्कूल अपनी प्रिन्सिपल की सुव्यवस्था और अनुशासनप्रियता के कारण उस क्षेत्र के महत्वपूर्ण विद्यालयों की पंक्ति में खड़ा था । मेरे मित्रों ने सेण्ट जेवियर्स या डी.पी.एस. के लिए प्रयत्न न करने के लिए मुझे झिड़का था, और मेरा विश्वास था कि उनमें भी बेटी को प्रवेश मिल जाता, लेकिन हमारी विवशता थी । विवशता थी हम दोनों का नौकरीपेशा होना और घर में किसी का भी न होना जो बेटी को बस स्टैण्ड से ले सकता ।
हमें एक ऐसे विद्यालय की खोज थी जहां से सुविधाजनक प्रकार से बेटी क्रेच पहुंच जाती और आवश्यकता होने पर पत्नी, जो उन दिनों तक विश्वविद्यालय पुस्तकालय में तदर्थ मुलाजिम थी , स्कूल, क्रेच या घर पहुंच सकती जो अधिक से अधिक आध धण्टा के रास्ते पर थे ।
उस दिन हम दोनों पौने दो बजे स्कूल पहुंच गए । बेटी को स्कूल छोड़ते समय मैंने यह ध्यान नहीं दिया था कि कुछ बच्चे तांगों पर भी आ रहे थे । जब हम पहुंचे कम से कम पांच तांगे घोड़े जुते खड़े हुए थे । हमने आपस में चर्चा की कि क्यों न माशा (बेटी का घर का नाम) के लिए किसी तांगे वाले से बात की जाए । यह अधिक सुरक्षित साधन था । इससे पहले दो टैक्सी वालों से हम बात कर चुके थे । वे उस रूट पर नहीं जाते थे ।
हम एक युवा तांगावाले के पास पहुंचे । उसे अपनी समस्या बतायी । उसने सिर हिला दिया , ‘‘मैं उधर नहीं जाता ।’’
हम निराशा में ऊभ-चूभ हो ही रहे थे कि हमने उसे अपनी ओर आते देखा । रूखे उलझे, कुछ भूरे बाल, पका सांवला रंग, छोटी आंखें , मोटी नाक, चेहरे पर स्पष्ट दिखते चेचक के दाग, गंदी कमीज और पायजामा में वह हमारे सामने था ।
‘‘क्या बात है बाबू जी ?’’ पीले दांतों में मकुस्कराते हुए उसने पूछा ।
हमने उसे अपनी समस्या बताई ।
‘‘किस क्लास में पढ़ती है बिटिया ?’’
‘‘एल.के.जी. में......... सवा तीन साल की है ।’’
‘‘मैं छोड़ दिया करूंगा ।’’
उसके उत्तर से हमारे मुर्झाए चेहरों पर चमक आ गई । सब तय हो गया । स्कूल छूटने पर पत्नी बेटी के साथ तांगे पर घर गयी ..... उसे घर दिखाने के लिए ।
उसका नाम कमल था । अगले दिन सुबह निश्चित समय पर कमल घर आ गया । उस किराए के मकान की दूसरी मंजिल मेरे पास थी । कमल के घोड़े के सामने सड़क पर घर की ओर मुड़ते ही मैंने माशा को गोद उठाया , उसका बैग संभाला, अपना थैला कंधे से लटकाया और सीढि़यां उतर गया । उसे तांगे वाले को पकड़ा मैं बस पकड़ने के लिए दौड़ गया था । उस दिन दोपहर पत्नी पुनः स्कूल पहुंची थी और कमल को क्रेच दिखाने ले गयी थी। उस दिन के बाद कमल प्रतिदिन क्रेच के सामने तांगा खड़ाकर बेटी को गोद में उठा, कंधे से उसका बैग लटका पहली मंजिल पर क्रेच की आया या मालकिन को उसे देकर आने लगा था ।
लेकिन हमारी समस्याओं का अंत वहीं नहीं हुआ । कुछ दिनों बाद पुस्तकालय प्रशासन ने पत्नी की ड्यूटी शिफ्ट में लगा दी । एक महीना सुबह और दूसरे महीना शाम . सुबह उसे आठ बजे पहुंचकर पुस्तकालय खुलवाना होता । तब वह चार बजे वहां से निकलती । कमल बेटी को क्रेच छोड़ता जहां से शाम साढ़े पांच बजे के लगभग क्रेच की आया रिक्शा से उसे घर छोड़ने आती । चोपड़ा के भाई ने क्रेच के बच्चों को लाने-छोड़ने के लिए स्कूलों की भांति एक रिक्शा रखा हुआ था । पत्नी की दूसरी शिफ्ट दोपहर बारह बजे से रात आठ बजे तक होती । उन दिनों वह डिपार्टमेण्ट आफ एजूकेशन की लाइब्रेरी में थी । उस कठिन घड़ी में क्रेच का रिक्शा शाम बेटी को लाइब्रेरी छोड़ता था । मैं दो बसें बदलकर लटकता-पटकता छः-साढ़े बजे तक पुस्तकालय पहुंचता और बेटी को लेकर घर आता । लेकिन अप्रैल 1985 में पत्नी के रेगुलर होने के बाद स्थितियों में कुछ परिवर्तन हुआ । उसे शिफ्ट की ड्यूटी से मुक्ति मिली । अब वह जनरल शिफ्ट में थी, जो दस बजे से साढ़े पांच बजे तक होती । तब तक बेटा भी क्रेच जाने लगा था , जिसे क्रेच का रिक्शा ले जाता और शाम दोनों बच्चों को छोड़ जाता । बेटा इतना छोटा था कि कभी-कभी आया को पत्नी के पहुंचने की प्रतीक्षा करनी होती । यह सिलसिला मार्च 1987 तक चला । मार्च ’87 में मेरी मां बहुत मनुहार के बाद मेरे पास आकर रहने को तैयार हो गयी थीं । लेकिन तीन महीने बाद ही उन्होंने गांव जाने का ऐसा तुमुल नाद छेड़ा कि हमें उन्हें भेजना पड़ा । एक बार पुनः बच्चे क्रेच के हवाले हुए थे।
हम जब भी कमल को अपनी समस्या बताते वह मुस्कराकर कहता, ‘‘कोई नहीं बाबू जी ......बूढ़े लोगों का मन एक जगह नहीं रमता ......अम्मा को आप गांव जाने दो...... आप जहां कहेंगे..... मैं वहां बच्चों को छोड़ दिया करूंगा ।’’
और सच ही कमल ने अपना कौल निभाया था । माता जी दो महीना बाद फिर चेहरे पर तनाव लिए आयीं । बच्चों के चेहरे खिल उठे । हमने भी राहत की सांस ली । मैं जानता था कि उनका वह आना दो-तीन माह से अधिक के लिए नहीं था । लेकिन हमने यह भी निर्णय कर लिया था कि बच्चों को भविष्य में क्रेच नहीं भेजेंगे । बेटा भी स्कूल जाने लगा था और उसे भी उसी स्कूल में प्रवेश मिल गया था । अब स्थितियां ये थीं कि जिन दिनों माता जी नहीं होतीं कमल बच्चों को एजूकेशन डिपार्टमेण्ट के गेट पर छोड़ता । उन्हें वहां पहुंचते हुए साढ़े तीन-चार बज जाते । वहां की कैण्टीन में वे कुछ खाते, लॉन में खेलते और शाम पांच बजे मां के साथ कभी बस से तो कभी रिक्शा से घर आते ।
1990 के अंत में मेरी मां ने दिल्ली के आवागमन को पूर्ण विराम दे दिया । उनकी भी अपनी समस्या थी, उसे मैं समझता था । हम सभी के चले जाने के बाद घर में वह अकेली होतीं, जबकि गांव में एक वृहद समाज का वह अंग थीं । गांव के अपने अकेलेपन को वह अपने ढंग से एन्जॉय करतीं...... वहां कोई बंधन नहीं, जहां चाहा गयीं.......खेतों या बगीचे की ओर निकल गयीं या किसी के घर जा बैठीं । मेरा ननिहाल ही मेरा गांव है, इसलिए पूरा गांव ही उनका था ....... हर घर में उनकी पैठ-पूछ । ऐसी स्थिति में गांव के लिए उनकी तड़प समझ आती थी , जबकि दिल्ली में घर की दीवारें थीं या खुली छत से दिखते मकानों की मुंडेरें..... सड़क पर गुजरते लोग । न आस-न पास -पड़ोस । अपरान्ह बच्चों के आने तक शून्य में ताकती उनकी आंखें दुख जातीं होंगी ।
दो-तीन महीना वे बमुश्किल काट पातीं और गांव जाने की जिद पकड़ लेतीं । वे कानपुर में बड़े भाई के पास भी न रुकतीं जिनका बड़ा घर और भरा-पूरा परिवार है ......मेरे यहां जैसा एकाकीपन वहां नहीं था । लेकिन उन्हें गांव ही पसंद था ।
माता जी के स्थायी रूप से चले जाने के बाद हमने एक दिन कमल को घर बुलाया । वह एक रविवार का दिन था । वह दौड़ा आया ।
‘‘कमल अब हम बच्चों को इधर-उधर नहीं दौड़ाना चाहते ..... क्या आप हमारी एक मदद कर सकते हैं ?’’
‘‘हुकुम करें बाबू जी ।’’
‘‘यदि हम अपने मुख्य दरवाजे के ताले की एक चाबी आपको दे दें तो आप उसे खोलकर बच्चों को अंदर छोड़ दिया करें और बाहर से फिर ताला बंद कर दिया करें ।’’
‘‘कोई समस्या नहीं ।’’
‘‘मैं मकान मालिक को भी बता दूंगा ।’’
‘‘जैसी आपकी मर्जी ।’’
और उसके बाद कमल वैसा ही करने लगा । बिटिया इतनी बड़ी हो गयी थी कि वह व्यवस्था संभाल सकती थी । कमल बेटे का बैग उठा दोनों को ऊपर छोड़ बाहर से ताला बंद कर देता ....और बेटी अंदर से कुण्डी लगा लेती । वह दरवाजा सीढि़यां समाप्त होने के बाद था, जिसके बंद हो जाने पर बच्चे घर में सुरक्षित थे । सीढि़यों पर आने वाले किसी भी व्यक्ति को पीछे सीमण्ट की जाली से देखा जा सकता था । यह सिलसिला लगभग चार वर्षों तक चला था ।
1993 मार्च में जब बच्चों के अवकाश पर हम अशोक आन्द्रें और बीना आन्द्रे के साथ बंगलौर, मैसूर, ऊटी आदि स्थानों की यात्रा पर निकले तब उससे पहले मकान मालिक की अनुमति से घर की सुरक्षा को दृष्टिगत रखते हुए हमने सीढि़यों पर एक लोहे का ग्रिल का दरवाजा लगवाया था । अब हमारे हिस्से की सुरक्षा के लिए दो दरवाजे थे । कमल को उसके बाद कुछ सीढि़यां कम चढ़नी पड़ती थीं । वह लोहे के ग्रिल वाले दरवाजे का ताला खोलकर बच्चों को ऊपर छोड़ देता, जबकि पुराने दरवाजे की चाबी बेटी के पास होती । शायद सुरक्षा के उस कांसेप्ट के कारण ही मेरे अपने मकान में मेन गेट के बाद भी लोहे के दो दरवाजे हैं । वरिष्ठ कवि -कथाकार विष्णुचन्द्र शर्मा ने एक दिन कहा था कि मैंने अपने घर को किसी किले की भांति सुरक्षित कर रखा है ।
1984 से 1994 तक कमल की सेवाएं मुझे मिलीं । इस दौरान उसने दो घोड़े बदले थे । हर घोड़े के बदलने के समय वह हमसे कछ अग्रिम राशि लेता, जिसे किश्तों में कटवा देता । कमल ने 1994 में फिर घोड़ा बदला और इस बार उसने घोड़ी खरीदी जो बेहद मरियल थी और इतना मंद गति चलती कि बच्चे दुखी हो जाते । एक-दो बार घोड़ी ने अपनी पूंछ से बेटी के चेहरे को झाड़ दिया था। एक बार वह आगे न बढ़ने की कसम खाकर बीच सड़क पर अड़कर खड़ी हो गयी थी । बच्चे अपने बैग लादकर पैदल घर आए थे और उसी शाम बेटे ने घोषणा कर दी थी कि वह कमल के तांगे में नहीं जाएगा .....पैदल जाएगा । पन्द्रह मिनट का रास्ता और तांगे में एक धण्टा ......नहीं....। बेटे के मना करने पर बेटी ने भी जाने से इंकार कर दिया था . दोनों अलग-अलग पैदल जाने लगे थे । कमल की दो सवारियां कम हो गयीं थीं जिससे मुझे दुख हुआ था।
‘‘बाबू जी, बच्चे अब बड़े हो गए हैं .....।’’ मुस्कराकर कमल ने कहा था और जो कुछ नहीं कहा था उसने मुझे अंदर तक छील दिया था । उसकी बिगड़ती आर्थिक स्थिति के विषय में मैं प्रायः सोचता । कमल ने मेरे साथ जो सहयोग किया था उसे मैं कभी भुला नहीं पाया और न ही भुला पाउंगा।
गाहे-बगाहे स्कूल की ओर से निकलते हुए मैं कमल को तांगे में अधलेटा सोते या दूसरे तांगावालों से गपशप हांकते देखता । नजरें मिलतीं और दुआ-सलाम हो जाती । दो-तीन वर्षों तक उसकी मरियल घोड़ी मुझे दिखती रही थी, लेकिन 1997 के बाद कमल मुझे वहां नहीं दिखा । एक दिन उसके एक साथी से पूछा तो वह बोला , ‘‘उसकी घोड़ी मर गयी थी बाबू जी....दूसरी नहीं खरीद सका । गांव चला गया ।’’
गांव....उत्तर प्रदेश के सहारनपुर का कोई गांव........जिस मिट्टी में वह जन्मा था वहीं चला गया था । इस बेदिल दिल्ली में उसके लिए कुछ भी नहीं बचा था । एक दिन उसने बड़े गर्व से बताया था, ‘‘बाबू जी मेरे तांगे में स्कूल आने वाले कई बच्चे आज डाक्टर - इंजीनियर बन गए हैं और कुछ विदेश भी चले गए हैं ।’’
सोचता हूं कि आज मेरे बच्चों को देखकर वह अवश्य कहता, ‘‘अरे, ये वही बच्चे हैं जो मेरी गोद में चढ़कर स्कूल-क्रेच जाते थे ........ अब ये बड़ी कंपनियों में नौकरी करने लगे हैं । इत्ते बड़े थे ...... अब कित्ते बड़े हो गए......।’’ और शायद उसकी आंखे उसी प्रकार खुशी से चमक उठतीं जैसा उन बच्चों के बारे में बताते हुए चमक उठी थीं ।
*****

3 टिप्‍पणियां:

सुभाष नीरव ने कहा…

चन्देल यार, तुम क्या कमाल का लिख रहे हो! तांगेवाले से जुड़ा यह संस्मरण इतना मार्मिक है कि अन्त पर जब पहुँचा तो बरबस आँखें नम हो आईं। तुम्हारे अपने विवाहित जिन्दगी के आरंभिक दिनों के संघर्ष तो दिखे ही,पर तांगेवाले की भूमिका भी हृदयस्पर्शी है। अन्त में घोड़ी के मर जाने पर उसका बेदिल दिल्ली को छोड़कर अपने गांव लौट जाना, भीतर एक कचोट छोड़ जाता है। बहुत ही सधा हुआ, पाठक के मर्म को छू लेने की ताकत रखता हुआ संस्मरण है यह ! मेरी बधाई !

Dr. Sudha Om Dhingra ने कहा…

रूप जी,
आप के तकरीबन सभी संस्मरण पढ़े हैं. साथ ले चलने वाले संस्मरण थे.
पर इस संस्मरण ने तो अंत में हृदय छील दिया. बहुत अच्छा लिखते हैं आप.
बधाई.

ashok andrey ने कहा…

Vakei purane sansmaran hame jindagee kii bhagambhag se door uss ghatii ki taraph le jaaten hain
jo hamaari vismrit ho gaee yadon ko doobaara se tarotaaza kar deti hain yeh to dil ko chhu ta hai bhai, badhai