संस्मरण
अपने साहित्यकार को देर से पहचाना डॉ0 रत्नलाल शर्मा ने
रूपसिंह चन्देल
फरवरी की वह सुबह अधिक ठंडी न थी । हांलाकि दिल्ली में फरवरी के अंत तक ठंड अपनी जवानी में रहती है । वह सुबह पूरी तरह शांत और सुखद थी । यह 22 फरवरी, 1997 का दिन था । तय हुआ था कि हम दोनों में जो भी पहले जग जाएगा फोन करेगा । और यह बाजी मैंने जीती थी ।
''हलो'' कुछ देर तक फोन की घंटी बजने के बाद खनखनाती आवाज सुनाई दी, ''मैं तो साढ़े तीन बजे ही जग गया था। आपको फोन करने ही वाला था।''
''कितने बजे निकल रहे हैं ?''
''आप साढ़े पांच तैयार मिले। डॉक्टर कालरा को लेकर मैं निश्चित समय पर पहुंच जाउंगा।''
''आज्ञा का पालन करूंगा।''
तेज ठहाका, फिर सकुचाहट, ''मुझे इतनी जोर से नहीं हंसना चाहिए। पोता जग गया तो सौ प्रश्न करेगा।'' फुसफुसाहट, ''ठीक है डॉक्टर.... तो हम मिलते हैं।''
और डॉक्टर रत्नलाल शर्मा सवा पांच बजे मेरे यहां पहुंच गए। मुझे डॉ0 कालरा के पति ने पांच बजे फोन कर दिया था कि वे लोग पीतमपुरा छोड़ चुके हैं। उतनी सुबह दिल्ली की सड़कें प्राय: खाली रहती हैं। वाहन की गति स्वत: दोगुनी हो जाती है। डॉ0 कालरा के पति का फोन मिलते ही मैंने विष्णु प्रभाकर जी को फोन कर दिया था कि हम लोग पौने छ: बजे तक उनके यहां पहुंच जाएगें। यह एक सुखद संयोग था कि उस दिन हम चारों ... विष्णु प्रभाकर, डॉ0 रत्नलाल शर्मा, डॉ0 शकुतंला कालरा और मैं .... लखनऊ-नई दिल्ली शताब्दी एक्सप्रेस से कानपुर जा रहे थे। अवसर था ''बाल कल्याण संस्थान'' द्वारा आयोजित वार्षिक समारोह जिसके लिए हमें डॉ0 राष्ट्रबंधु ने बहुत ही आदरपूर्वक आमंत्रित किया था ।
डॉ0 कालरा को संस्थान उस वर्ष अन्य बाल-साहित्यकारों के साथ सम्मानित कर रहा था, जबकि हम तीनों को अलग-अलग सत्रों के अध्यक्ष-विशिष्ट अतिथि के रूप में आमंत्रित किया गया था। मेरे लिए यह सम्माननीय बात थी, क्योंकि जिस आयोजन के एक सत्र की अध्यक्षता विष्णुप्रभाकर जैसे वरिष्ठतम साहित्यकार कर रहे थे और दूसरे की मेरे अग्रजतुल्य मित्र डॉ0 रत्नलाल शर्मा, वहां 'विचार सत्र' के विशिष्ट अतिथि के रूप में मुझे बुलाकर डॉ0 राष्ट्रबंधु ने अपने बड़प्पन का परिचय देते हए मुझे जो सम्मान दिया मैं शायद उसके सर्वथा योग्य नहीं था, क्योंकि हिन्दी में अनेक ऐसे विद्वान साहित्यकार हैं जिनके सामने मेरी बाल-साहित्य की रचनात्मकता पासंग है। खैर, डॉ0 राष्ट्रबंधु ने विष्णु जी को ले आने के लिए मुझे तो कहा ही था डॉ0 शर्मा को भी कह दिया था। डॉ0 शर्मा अति-उत्साही व्यक्ति थे और नौकरी से अवकाश ग्रहण करने के पश्चात वह बाल-साहित्य को लेकर कुछ अतिरिक्त ही उत्साह में रहने लगे थे। उनका यह उत्साह श्रीमती रतन शर्मा,उनकी पत्नी, की मृत्यु के पश्चात कई गुना बढ़ गया था और उसी का परिणाम था कि उन्होंने बाल-साहित्य के लिए कुछ करने के ध्येय से पत्नी के नाम एक ट्रस्ट बनाया और प्रति वर्ष एक पुरस्कार देने लगे। उनके मस्तिष्क में बाल-साहित्य के महत्व और विकास को लेकर अनेक योजनाएं रहतीं और वह कुछ न कुछ करते भी रहते। हालांकि उन्होंने जो ट्रस्ट बनाया था उसमें ऐसे लोगों को रखा जो बाल-साहित्य का 'क' 'ख' 'ग' भी नहीं जानते थे और इस विषय में मेरी अनेक बार उनसे चर्चा भी हुई, लेकिन उन गैर बाल-साहित्यकारों को लेकर उनके पास तर्क थे और उन तर्कों में दम भी था। एक दमदार तर्क तो यही था कि यदि एक भी बाल-साहित्यकार उन्होंने ट्रस्ट में रखा तो 'न्यास' साहित्यिक राजनीति से अछूता न रहेगा। किसी हद तक उनकी बात सही थी।
'श्रीमती रतन शर्मा स्मृति न्यास' की स्थापना के पश्चात वह बाल-साहित्य के देशव्यापी आयोजनों में शिरकत करने लगे थे और जब भी मिलते उन आयोजनों के संस्मरण मुग्धभाव से सुनाते। आयोजानों में सम्मिलित होते रहने से डॉ0 शर्मा और डॉ0 राष्ट्रबंधु प्राय: एक दूसरे से मिलते रहते और उसी आधार पर डॉ0 शर्मा ने उन्हें आश्वस्त कर दिया कि वह सभी को लेकर कानपुर पहुंचेगें। आनन-फानन में उन्होंने विष्णु जी और डॉ0 कालरा के आरक्षण करवा डाले। मेरा जाना किन्हीं कारणों से टल रहा था, लेकिन एक दिन दिल्ली विश्वविद्यालय पुस्तकालय की छत पर चाय की चुस्कियों के साथ आदेशात्मक स्वर में वह बोले, ''डॉक्टर, कोई बहाना नहीं मानूंगा। शनिवार - रविवार को कार्यक्रम है .... आपको चलना है।''
और मुझे आरक्षण करवाना पड़ा था। इसी कारण हम अलग-अलग कोचों में थे। फिर भी बीच-बीच में मैं तीनों के पास आ खड़ा होता। डॉ0 कालरा विष्णु जी के साथ की सीट में थीं और उस अवसर का लाभ उठाने के विचार से वह लगातार विष्णु जी से साक्षात्कारात्मक बातचीत में संलग्न थीं। ऐसे समय मैं और डॉ0 शर्मा बाथरूम के पास खड़े होकर बाल-साहित्य पर चर्चा करते रहे थे।
सिगरेट फूंकते बात करना डॉ0 शर्मा की आदत थी। जब भी कभी गंभीर चर्चा छिड़ती वह सिगरेट सुलगा लेते। लेकिन अनुशासन-प्रियता इतनी अधिक थी उनमें कि किसी भी सार्वजनिक स्थान में सिगरेट नहीं पीते थे। उनसे जब मेरा परिचय हुआ तब वह जीवन-विहार में 'समाज कल्याण विभाग' में कार्यरत थे और वहीं से उप-निदेशक के रूप में अवकाश ग्रहण किया था। अक्टूबर 1980 में मैं गाजियाबाद से शक्तिनगर में आ बसा था। उन दिनों केन्द्रीय सचिवालय के लिए शक्तिनगर से 240 नं0 रूट की बसें प्रत्येक दस मिनट में चलती थीं। मेरा कार्यालय उन दिनों रामकृष्णपुरम में था। मैं 240 से केन्द्रीय सचिवालय पहुंचकर वहां से रामकृष्णपुरम की बस लेता। डॉ0 शर्मा शक्तिनगर के पश्चिमी छोर में और मैं पूर्वी छोर में रहता था। वह भी उसी बस से जाते और पटेल चौक उतरते। कई वर्षों हमारा यह सिलसिला चला था। बाद में वह दूसरी बस से जाने लगे थे।
उन दिनों शनिवार को कॉफी हाउस (कनॉट प्लेस) में साहित्यकारों का जमघट होता था। नियम से जाने वालों में विष्णु प्रभाकर, रमाकांत, डॉ0 रत्नलाल शर्मा, डॉ0 हरदयाल, डॉ0 राजकुमार सैनी आदि थे। मैं भी कभी-कभार पहुंच जाता। तब कॉफी हाउस का माहौल खराब नहीं था। परनिन्दा तब भी होती, लेकिन साहित्य पर चर्चा भी होती और उसी माध्यम से एक दूसरे की खिंचाई भी होती। विष्णु जी निन्दा-प्रशंसा से विमुख मंद-मंद मुस्कराते हर स्थिति का आनंद लेते रहते। यदि वे बहस में शामिल भी होते तो बोलते धीमे ही थे, लेकिन शर्मा बहस को प्राय: उत्तेजक बना देते और जब उनके मित्र उन पर हावी होने लगते, वह अनियंन्त्रित हो जाते। लेकिन इसका आभिप्राय यह नहीं कि नौबत हाथापाई तक पहुंचती थी । डॉ0 शर्मा की यह खूबी थी कि उत्तेजित वह कितना ही क्यों न होते हों लेकिन किसी के विरुध्द अपशब्द का प्रयोग करते मैंने उन्हें कभी नहीं सुना। जब कि उनके अति अंतरंग मित्रों को कई बार उनके खिलाफ अपशब्द प्रयोग करते (पीठ पीछे) मैंने सुना था । डॉ0 शर्मा आपा तो खोते, क्योंकि वह अपनी बात पर अडिग रहते और प्राय: सही वही होते । लेकिन वह यह समझ नहीं पाते कि उनके मित्र उन्हें उत्तेजित करने के लिए ही ऐसा विनोद कर रहे थे। बाद में माहौल शांत होता और सभी फिर मीठी बातों में खो जात।
बहुत बाद में (वर्ष याद नहीं...संभवत: 1990 के आसपास) किसी शनिवार को शायद किसी मित्र ने उनके विरुध्द कोई ऐसी टिप्पणी कर दी, जिससे उन्हें गहरा आघात लगा था। उन्होंने कभी-भी कॉफी हाउस न जाने का संकल्प किया और मृत्यु पर्यन्त उसका निर्वाह किया।
अवकाश ग्रहण कने के बाद वह प्रतिदिन दिल्ली विश्वविद्यालय के केन्द्रीय पुस्तकालय के 'रिसर्च फ्लोर' के एक कमरे में बैठने लगे थे। निश्चित कमरा और निश्चित सीट थी उनकी। वहां वह पहले भी (जब नौकरी में थे ) शनिवार - रविवार को जाते थे, लेकिन अवकाश ग्रहण के बाद वह वहां तभी अनुपस्थित रहे जब या तो अस्वस्थ रहे या शहर से बाहर या किसी अन्य आवश्यक कार्य में व्यस्त।
'रिसर्च फ्लोर' उनके कारण आबाद रहने लगा था। वहां के प्रत्येक शोधार्थी के वह आदरणीय -प्रिय थे और उम्र की सीमाओं को ताक पर रखकर कॉलेज से निकले युवा से लेकर हम उम्र लोगों से वह स्वयं 'हैलो' करके 'विश' करते और चाय के लिए आमंत्रित करते। मुझ जैसे व्यक्ति, जो स्वयं व्यवहार में उदारता का समर्थक है, को भी वह सब अटपटा लगता कि उम्रदराज डॉ0 शर्मा अपने से चालीस-बयालीस वर्ष छोटे बालक-बालिका से न केवल स्वयं विश कर रहे हैं बल्कि साग्रह चाय के लिए बुला रहे हैं। हालांकि मैं स्वयं इसी आदत का शिकार हूं और गवंई -गांव का होने के कारण आयु की सीमारेखा खींचकर चलना आता नहीं। एक - दो बार मैंने डॉ0 शर्मा को इस विषय में उनकी उम्र का वास्ता देते हुए टोका भी। उनका छोटा-सा उत्तर होता, ''आप नहीं समझेंगे डॉक्टर।''
वास्तव में मैं नहीं समझ सका। वह भी अपने स्वभाव को बदल नहीं सके। एक विशेषता और भी देखी उनमें। वह हर जरूरतमंद की मदद के लिए तत्पर रहते थे। बेहतर सलाह देने का प्रयत्न करते। अनेक उदाहरण हैं जब वह किसी न किसी शोधार्थी के काम से दौड़ रहे होते थे। कई शोधार्थियों को उनसे अपने शोध से संबन्धित चर्चा करते या अपना शोध कार्य दिखाते मैंने देखा। वास्तविकता यह होती कि छात्र-छात्रा उनके किसी मित्र प्राध्यापक के अधीन शोधरत होता और डॉ0 शर्मा मित्रता का निर्वाह करते उसका कार्य देखते/गाइड करते।
प्राय: विश्वविद्यालय पुस्तकालय में बाहरी व्यक्ति को एक निश्चित अवधि तक ही बैठने की अनुमति होती है, लेकिन हिन्दी विभाग से लेकर पुस्तकालय तक डॉ0 शर्मा के अनेक मित्र (कुछ उनके सहपाठी थे) थे। डॉ0 शर्मा ने भी कभी स्वप्न देखा था कि वह प्राध्यापक बनेंगे। पी-एच.डी. भी इसी कारण उन्होंने की थी, लेकिन जैसा कि होता है प्राध्यापक बनने के लिए जो गुण व्यक्ति में होने चाहिए वे डॉ0 शर्मा में नहीं थे। डॉ0 शर्मा प्राध्यापक नहीं बन पाए, लेकिन वह उस टीस को शायद कभी भूल भी नहीं पाए। अंदर छुपा वह स्वप्न ही रहा होगा कि कभी उनके अधीन भी शोधार्थी हुआ करेंगे। शायद शोधार्थियों की सहायता कर वह उस स्वप्न को ही पूरा कर रहे थे।
एक अच्छे इंसान होते हुए भी डॉ0 शर्मा में दो कमजारियां भी थीं। जब तब उनका लेखकीय स्वाभिमान जागृत हो जाता और वह सभा-गोष्ठियों का बहिष्कार कर दिया करते। डॉ0 विनय, डॉ0 महीप सिंह, डॉ0 रामदरस मिश्र, डॉ0 नरेन्द्र मोहन और डॉ0 हरदयाल उनके गहरे मित्रों में से थे। डॉ0 शर्मा प्राय: डॉ0 विनय के घर जाते। एक बार डॉ0 विनय ने अपने घर स्व0 डॉ0 सुखबीर के कविता संग्रह पर अपनी संस्था 'दीर्घा' (दीर्घा नाम की पत्रिका भी वह निकालते थे) की ओर से विचार गोष्ठी का आयोजन किया। अध्यक्ष थे डॉ0 रामदरस मिश्र। डॉ0 शर्मा ने आलेख लिखा था। आलेख पढ़ते समय डॉ0 शर्मा को टोका-टाकी बर्दाश्त न थी । उस दिन भी कुछ ऐसा ही हुआ। उन्होंने सभी को घूरकर देखा और अपना शाश्वत तकियाकलाम, '' इट्स एनफ'' कह वह उठ गए। सभी भौंचक। आलेख तो शुरू ही हुआ था। डॉ0 विनय ने टोका, ''क्या हुआ पंडित ?''
''मैं जा रहा हूं ।''
गर्मी के दिन थे। गोष्ठी छत पर हो रही थी। डॉ0 विनय ने रोका ... मिन्नते कीं। डॉ0 रामदरस मिश्र ने समझाने का प्रयास किया, लेकिन पंडित जी का मूड उखड़ा तो फिर जमा नहीं। वह जूते पहन सीढ़ियां उतर गए थे।
डनके व्यक्तित्व का दूसरा कमजोर पक्ष था उनकी कार्य-शैली। एक अच्छे समीक्षक -आलोचक की प्रतिभा थी उनमें, लेकिन वह उसका सही उपयोग नहीं कर सके। स्नेहिल होते हुए भी स्वभाव की अक्खड़ता ने उन्हें रचनाकारों से दूर रखा तो कर्यशैली भी बाधक बनी। कुछ भी व्यवस्थित नहीं कर पाते थे। समय का खयाल नहीं रखते थे। आवश्यक और महत्वपूर्ण को छोड़ अनावश्यक कामों-बातों और लोगों में उलझे रहे। एक बार उन्होंने बताया था कि उन्होंने लगभग एक हजार पुस्तकों की समीक्षाएं लिखी थीं।
उनकी कार्यशैली से संबन्धित स्वानुभूत एक उदाहरण देना चाहता हूं। किताबघर, नई दिल्ली से मेरे द्वारा सम्पादित लघुकथा संकलन प्रकाश्य था। यह कार्य मैंने 1985 में पूरा कर लिया था, लेकिन उस वर्ष उसका प्रकाशन नहीं हो पाया। उन्हीं दिनों डॉ0 शर्मा से इस विषय में चर्चा हुई । उन्होंने पूछा, '' उसकी भूमिका आपने लिखी है ?'' ''जी ।'' ''अरे डॉक्टर, आपने पहले क्यों नहीं बताया.... आजकल मैं लघुकथाओं पर विशेष कार्य कर रहा हूं। उसकी बहुत अच्छी भूमिका लिखता।''
'' अभी क्या बिगड़ गया है । आप लिख दें । आपकी भी प्रकाशित हो जाएगी ।''
''आप सत्यव्रत शर्मा (प्रकाशक) को कह दीजिए .... मेरी भूमिका मिलने के बाद ही वह पुस्तक को प्रेस में देंगे।''
मैंने श्री सत्यव्रत शर्मा को यह कह दिया । फिर प्रारंभ हुआ उनकी भूमिका का इंतजार। पाण्डुलिपि की एक प्रति प्रकाशक के पास और दूसरी डॉ0 रत्नलाल शर्मा के पास और शर्मा जी के वायदे दर वायदे होने लगे। ....बस इसी सप्ताह .....पन्द्रह दिन बाद....। इसी बीच उन्होंने शक्तिनगर से प्रशांत विहार शिफ्ट कर लिया। प्रकाशक को भी शर्मा जी की भूमिका न मिलने का बहाना मिल गया। 'प्रकारांतर' (लघुकथा संकलन) का प्रकाशन स्थगित होता रहा। अंतत: बहुत जोर देने पर डॉ0 शर्मा बोले, ''शिफ्ट करते समय पांडुलिपि बांधकर कहीं रख दी गई। मिल नहीं रही । रविवार को घर आ जाओ.....मिलकर खोजते हैं। मैं गया। बराम्दे में बने दोछत्ती में बोरियों में बंद पुस्तकों के साथ पांडुलिपि को हमलोगों ने खोज लिया। उसके पन्द्रह दिनों के अंदर उन्होंने छोटी-सी भूमिका लिख दी थी। उसे लिखने में उन्होंने तीन वर्षों का समय लिया था। पुस्तक 1990 में प्रकाशित हुई थी।
रत्नलाल शर्मा के साथ एक और कमजारी थी ... वह एक विधा से दूसरी की ओर दौड़ते रहे थे। कहानी, ललित निबंध, व्यंग्य, रेखाचित्र, समीक्षा, बाल-साहित्य..... आभिप्राय यह कि यदि वह अपने को एक-दो विधाओं में साध लेते तो शायद स्थिति खराब न होती। लेखक को स्वयं अपने को पहचानना होता है .... वह क्या लिख सकता है। जीवन भर इधर-उधर भागने के बाद अवकाश ग्रहण करने के पश्चात शायद उन्हें वास्तविकता का ज्ञान हुआ और उन्होंने अपने को 'बाल साहित्य' में केन्द्रित करना प्रारंभ किया। यदि वह कुछ वर्ष और जीवित रह जाते तो तन-मन-धन से बाल साहितय के लिए समर्पित हो जाने वाले व्यक्ति के रूप में अपनी अलग पहचान बना लेते।
24 फरवरी, 1997 को जब हम लोग कानपुर से शताब्दी एक्सप्रेस से लौट रहे थे तब मुझे डॉ0 शर्मा के बालमन का परिचय भी मिला । और लगा कि उन्होंने व्यर्थ ही विभिन्न विधाओं में अपना श्रम जाया किया, उन्हें बाल साहित्यकार ही होना चाहिए था। मन को संतोष हुआ कि विलंब से ही सही उन्होंने आखिर अपने साहित्यकार को पहचान लिया है ..... बाल-साहित्य के लिए यह शुभ होगा । लेकिन प्रकृति को यह स्वीकार न था। उनकी असमय मृत्यु ने एक स्नेहिल व्यक्ति हमसे छीन लिया।
मैं प्राय: हफ्ते-दो हफ्ते में डॉ0 शर्मा से मिलने विश्वविद्यालय पुस्तकालय जाता था, लेकिन उनकी मृत्यु के पश्चात लंबे समय तक नहीं गया । बहुत बाद में अपने मित्र प्रखर दलित आलोचक और 'अपेक्षा' त्रैमासिक पत्रिका के सम्पादक डॉ0 तेज सिंह से मिलने वहां जाने लगा , जो विश्वविद्यालय में हिन्दी विभाग में रीडर हैं। डॉ0 तेज सिंह से डॉ0 शर्मा ने ही परिचय करवाया था। वहां की सीढ़ियां चढ़ते हुए डॉ0 शर्मा की याद आती। मन करता कि उस कमरे में झांकर देखूं जहां वह बैठते थे। शायद वह बैठे काम कर रहे हों और मुझे देखते ही बोलें, '' हैलो डॉक्टर'' ,लेकिन यह सच नहीं था । सच डॉ0 शर्मा के साथ जा चुका था ।
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रूपसिंह चन्देल
फरवरी की वह सुबह अधिक ठंडी न थी । हांलाकि दिल्ली में फरवरी के अंत तक ठंड अपनी जवानी में रहती है । वह सुबह पूरी तरह शांत और सुखद थी । यह 22 फरवरी, 1997 का दिन था । तय हुआ था कि हम दोनों में जो भी पहले जग जाएगा फोन करेगा । और यह बाजी मैंने जीती थी ।
''हलो'' कुछ देर तक फोन की घंटी बजने के बाद खनखनाती आवाज सुनाई दी, ''मैं तो साढ़े तीन बजे ही जग गया था। आपको फोन करने ही वाला था।''
''कितने बजे निकल रहे हैं ?''
''आप साढ़े पांच तैयार मिले। डॉक्टर कालरा को लेकर मैं निश्चित समय पर पहुंच जाउंगा।''
''आज्ञा का पालन करूंगा।''
तेज ठहाका, फिर सकुचाहट, ''मुझे इतनी जोर से नहीं हंसना चाहिए। पोता जग गया तो सौ प्रश्न करेगा।'' फुसफुसाहट, ''ठीक है डॉक्टर.... तो हम मिलते हैं।''
और डॉक्टर रत्नलाल शर्मा सवा पांच बजे मेरे यहां पहुंच गए। मुझे डॉ0 कालरा के पति ने पांच बजे फोन कर दिया था कि वे लोग पीतमपुरा छोड़ चुके हैं। उतनी सुबह दिल्ली की सड़कें प्राय: खाली रहती हैं। वाहन की गति स्वत: दोगुनी हो जाती है। डॉ0 कालरा के पति का फोन मिलते ही मैंने विष्णु प्रभाकर जी को फोन कर दिया था कि हम लोग पौने छ: बजे तक उनके यहां पहुंच जाएगें। यह एक सुखद संयोग था कि उस दिन हम चारों ... विष्णु प्रभाकर, डॉ0 रत्नलाल शर्मा, डॉ0 शकुतंला कालरा और मैं .... लखनऊ-नई दिल्ली शताब्दी एक्सप्रेस से कानपुर जा रहे थे। अवसर था ''बाल कल्याण संस्थान'' द्वारा आयोजित वार्षिक समारोह जिसके लिए हमें डॉ0 राष्ट्रबंधु ने बहुत ही आदरपूर्वक आमंत्रित किया था ।
डॉ0 कालरा को संस्थान उस वर्ष अन्य बाल-साहित्यकारों के साथ सम्मानित कर रहा था, जबकि हम तीनों को अलग-अलग सत्रों के अध्यक्ष-विशिष्ट अतिथि के रूप में आमंत्रित किया गया था। मेरे लिए यह सम्माननीय बात थी, क्योंकि जिस आयोजन के एक सत्र की अध्यक्षता विष्णुप्रभाकर जैसे वरिष्ठतम साहित्यकार कर रहे थे और दूसरे की मेरे अग्रजतुल्य मित्र डॉ0 रत्नलाल शर्मा, वहां 'विचार सत्र' के विशिष्ट अतिथि के रूप में मुझे बुलाकर डॉ0 राष्ट्रबंधु ने अपने बड़प्पन का परिचय देते हए मुझे जो सम्मान दिया मैं शायद उसके सर्वथा योग्य नहीं था, क्योंकि हिन्दी में अनेक ऐसे विद्वान साहित्यकार हैं जिनके सामने मेरी बाल-साहित्य की रचनात्मकता पासंग है। खैर, डॉ0 राष्ट्रबंधु ने विष्णु जी को ले आने के लिए मुझे तो कहा ही था डॉ0 शर्मा को भी कह दिया था। डॉ0 शर्मा अति-उत्साही व्यक्ति थे और नौकरी से अवकाश ग्रहण करने के पश्चात वह बाल-साहित्य को लेकर कुछ अतिरिक्त ही उत्साह में रहने लगे थे। उनका यह उत्साह श्रीमती रतन शर्मा,उनकी पत्नी, की मृत्यु के पश्चात कई गुना बढ़ गया था और उसी का परिणाम था कि उन्होंने बाल-साहित्य के लिए कुछ करने के ध्येय से पत्नी के नाम एक ट्रस्ट बनाया और प्रति वर्ष एक पुरस्कार देने लगे। उनके मस्तिष्क में बाल-साहित्य के महत्व और विकास को लेकर अनेक योजनाएं रहतीं और वह कुछ न कुछ करते भी रहते। हालांकि उन्होंने जो ट्रस्ट बनाया था उसमें ऐसे लोगों को रखा जो बाल-साहित्य का 'क' 'ख' 'ग' भी नहीं जानते थे और इस विषय में मेरी अनेक बार उनसे चर्चा भी हुई, लेकिन उन गैर बाल-साहित्यकारों को लेकर उनके पास तर्क थे और उन तर्कों में दम भी था। एक दमदार तर्क तो यही था कि यदि एक भी बाल-साहित्यकार उन्होंने ट्रस्ट में रखा तो 'न्यास' साहित्यिक राजनीति से अछूता न रहेगा। किसी हद तक उनकी बात सही थी।
'श्रीमती रतन शर्मा स्मृति न्यास' की स्थापना के पश्चात वह बाल-साहित्य के देशव्यापी आयोजनों में शिरकत करने लगे थे और जब भी मिलते उन आयोजनों के संस्मरण मुग्धभाव से सुनाते। आयोजानों में सम्मिलित होते रहने से डॉ0 शर्मा और डॉ0 राष्ट्रबंधु प्राय: एक दूसरे से मिलते रहते और उसी आधार पर डॉ0 शर्मा ने उन्हें आश्वस्त कर दिया कि वह सभी को लेकर कानपुर पहुंचेगें। आनन-फानन में उन्होंने विष्णु जी और डॉ0 कालरा के आरक्षण करवा डाले। मेरा जाना किन्हीं कारणों से टल रहा था, लेकिन एक दिन दिल्ली विश्वविद्यालय पुस्तकालय की छत पर चाय की चुस्कियों के साथ आदेशात्मक स्वर में वह बोले, ''डॉक्टर, कोई बहाना नहीं मानूंगा। शनिवार - रविवार को कार्यक्रम है .... आपको चलना है।''
और मुझे आरक्षण करवाना पड़ा था। इसी कारण हम अलग-अलग कोचों में थे। फिर भी बीच-बीच में मैं तीनों के पास आ खड़ा होता। डॉ0 कालरा विष्णु जी के साथ की सीट में थीं और उस अवसर का लाभ उठाने के विचार से वह लगातार विष्णु जी से साक्षात्कारात्मक बातचीत में संलग्न थीं। ऐसे समय मैं और डॉ0 शर्मा बाथरूम के पास खड़े होकर बाल-साहित्य पर चर्चा करते रहे थे।
सिगरेट फूंकते बात करना डॉ0 शर्मा की आदत थी। जब भी कभी गंभीर चर्चा छिड़ती वह सिगरेट सुलगा लेते। लेकिन अनुशासन-प्रियता इतनी अधिक थी उनमें कि किसी भी सार्वजनिक स्थान में सिगरेट नहीं पीते थे। उनसे जब मेरा परिचय हुआ तब वह जीवन-विहार में 'समाज कल्याण विभाग' में कार्यरत थे और वहीं से उप-निदेशक के रूप में अवकाश ग्रहण किया था। अक्टूबर 1980 में मैं गाजियाबाद से शक्तिनगर में आ बसा था। उन दिनों केन्द्रीय सचिवालय के लिए शक्तिनगर से 240 नं0 रूट की बसें प्रत्येक दस मिनट में चलती थीं। मेरा कार्यालय उन दिनों रामकृष्णपुरम में था। मैं 240 से केन्द्रीय सचिवालय पहुंचकर वहां से रामकृष्णपुरम की बस लेता। डॉ0 शर्मा शक्तिनगर के पश्चिमी छोर में और मैं पूर्वी छोर में रहता था। वह भी उसी बस से जाते और पटेल चौक उतरते। कई वर्षों हमारा यह सिलसिला चला था। बाद में वह दूसरी बस से जाने लगे थे।
उन दिनों शनिवार को कॉफी हाउस (कनॉट प्लेस) में साहित्यकारों का जमघट होता था। नियम से जाने वालों में विष्णु प्रभाकर, रमाकांत, डॉ0 रत्नलाल शर्मा, डॉ0 हरदयाल, डॉ0 राजकुमार सैनी आदि थे। मैं भी कभी-कभार पहुंच जाता। तब कॉफी हाउस का माहौल खराब नहीं था। परनिन्दा तब भी होती, लेकिन साहित्य पर चर्चा भी होती और उसी माध्यम से एक दूसरे की खिंचाई भी होती। विष्णु जी निन्दा-प्रशंसा से विमुख मंद-मंद मुस्कराते हर स्थिति का आनंद लेते रहते। यदि वे बहस में शामिल भी होते तो बोलते धीमे ही थे, लेकिन शर्मा बहस को प्राय: उत्तेजक बना देते और जब उनके मित्र उन पर हावी होने लगते, वह अनियंन्त्रित हो जाते। लेकिन इसका आभिप्राय यह नहीं कि नौबत हाथापाई तक पहुंचती थी । डॉ0 शर्मा की यह खूबी थी कि उत्तेजित वह कितना ही क्यों न होते हों लेकिन किसी के विरुध्द अपशब्द का प्रयोग करते मैंने उन्हें कभी नहीं सुना। जब कि उनके अति अंतरंग मित्रों को कई बार उनके खिलाफ अपशब्द प्रयोग करते (पीठ पीछे) मैंने सुना था । डॉ0 शर्मा आपा तो खोते, क्योंकि वह अपनी बात पर अडिग रहते और प्राय: सही वही होते । लेकिन वह यह समझ नहीं पाते कि उनके मित्र उन्हें उत्तेजित करने के लिए ही ऐसा विनोद कर रहे थे। बाद में माहौल शांत होता और सभी फिर मीठी बातों में खो जात।
बहुत बाद में (वर्ष याद नहीं...संभवत: 1990 के आसपास) किसी शनिवार को शायद किसी मित्र ने उनके विरुध्द कोई ऐसी टिप्पणी कर दी, जिससे उन्हें गहरा आघात लगा था। उन्होंने कभी-भी कॉफी हाउस न जाने का संकल्प किया और मृत्यु पर्यन्त उसका निर्वाह किया।
अवकाश ग्रहण कने के बाद वह प्रतिदिन दिल्ली विश्वविद्यालय के केन्द्रीय पुस्तकालय के 'रिसर्च फ्लोर' के एक कमरे में बैठने लगे थे। निश्चित कमरा और निश्चित सीट थी उनकी। वहां वह पहले भी (जब नौकरी में थे ) शनिवार - रविवार को जाते थे, लेकिन अवकाश ग्रहण के बाद वह वहां तभी अनुपस्थित रहे जब या तो अस्वस्थ रहे या शहर से बाहर या किसी अन्य आवश्यक कार्य में व्यस्त।
'रिसर्च फ्लोर' उनके कारण आबाद रहने लगा था। वहां के प्रत्येक शोधार्थी के वह आदरणीय -प्रिय थे और उम्र की सीमाओं को ताक पर रखकर कॉलेज से निकले युवा से लेकर हम उम्र लोगों से वह स्वयं 'हैलो' करके 'विश' करते और चाय के लिए आमंत्रित करते। मुझ जैसे व्यक्ति, जो स्वयं व्यवहार में उदारता का समर्थक है, को भी वह सब अटपटा लगता कि उम्रदराज डॉ0 शर्मा अपने से चालीस-बयालीस वर्ष छोटे बालक-बालिका से न केवल स्वयं विश कर रहे हैं बल्कि साग्रह चाय के लिए बुला रहे हैं। हालांकि मैं स्वयं इसी आदत का शिकार हूं और गवंई -गांव का होने के कारण आयु की सीमारेखा खींचकर चलना आता नहीं। एक - दो बार मैंने डॉ0 शर्मा को इस विषय में उनकी उम्र का वास्ता देते हुए टोका भी। उनका छोटा-सा उत्तर होता, ''आप नहीं समझेंगे डॉक्टर।''
वास्तव में मैं नहीं समझ सका। वह भी अपने स्वभाव को बदल नहीं सके। एक विशेषता और भी देखी उनमें। वह हर जरूरतमंद की मदद के लिए तत्पर रहते थे। बेहतर सलाह देने का प्रयत्न करते। अनेक उदाहरण हैं जब वह किसी न किसी शोधार्थी के काम से दौड़ रहे होते थे। कई शोधार्थियों को उनसे अपने शोध से संबन्धित चर्चा करते या अपना शोध कार्य दिखाते मैंने देखा। वास्तविकता यह होती कि छात्र-छात्रा उनके किसी मित्र प्राध्यापक के अधीन शोधरत होता और डॉ0 शर्मा मित्रता का निर्वाह करते उसका कार्य देखते/गाइड करते।
प्राय: विश्वविद्यालय पुस्तकालय में बाहरी व्यक्ति को एक निश्चित अवधि तक ही बैठने की अनुमति होती है, लेकिन हिन्दी विभाग से लेकर पुस्तकालय तक डॉ0 शर्मा के अनेक मित्र (कुछ उनके सहपाठी थे) थे। डॉ0 शर्मा ने भी कभी स्वप्न देखा था कि वह प्राध्यापक बनेंगे। पी-एच.डी. भी इसी कारण उन्होंने की थी, लेकिन जैसा कि होता है प्राध्यापक बनने के लिए जो गुण व्यक्ति में होने चाहिए वे डॉ0 शर्मा में नहीं थे। डॉ0 शर्मा प्राध्यापक नहीं बन पाए, लेकिन वह उस टीस को शायद कभी भूल भी नहीं पाए। अंदर छुपा वह स्वप्न ही रहा होगा कि कभी उनके अधीन भी शोधार्थी हुआ करेंगे। शायद शोधार्थियों की सहायता कर वह उस स्वप्न को ही पूरा कर रहे थे।
एक अच्छे इंसान होते हुए भी डॉ0 शर्मा में दो कमजारियां भी थीं। जब तब उनका लेखकीय स्वाभिमान जागृत हो जाता और वह सभा-गोष्ठियों का बहिष्कार कर दिया करते। डॉ0 विनय, डॉ0 महीप सिंह, डॉ0 रामदरस मिश्र, डॉ0 नरेन्द्र मोहन और डॉ0 हरदयाल उनके गहरे मित्रों में से थे। डॉ0 शर्मा प्राय: डॉ0 विनय के घर जाते। एक बार डॉ0 विनय ने अपने घर स्व0 डॉ0 सुखबीर के कविता संग्रह पर अपनी संस्था 'दीर्घा' (दीर्घा नाम की पत्रिका भी वह निकालते थे) की ओर से विचार गोष्ठी का आयोजन किया। अध्यक्ष थे डॉ0 रामदरस मिश्र। डॉ0 शर्मा ने आलेख लिखा था। आलेख पढ़ते समय डॉ0 शर्मा को टोका-टाकी बर्दाश्त न थी । उस दिन भी कुछ ऐसा ही हुआ। उन्होंने सभी को घूरकर देखा और अपना शाश्वत तकियाकलाम, '' इट्स एनफ'' कह वह उठ गए। सभी भौंचक। आलेख तो शुरू ही हुआ था। डॉ0 विनय ने टोका, ''क्या हुआ पंडित ?''
''मैं जा रहा हूं ।''
गर्मी के दिन थे। गोष्ठी छत पर हो रही थी। डॉ0 विनय ने रोका ... मिन्नते कीं। डॉ0 रामदरस मिश्र ने समझाने का प्रयास किया, लेकिन पंडित जी का मूड उखड़ा तो फिर जमा नहीं। वह जूते पहन सीढ़ियां उतर गए थे।
डनके व्यक्तित्व का दूसरा कमजोर पक्ष था उनकी कार्य-शैली। एक अच्छे समीक्षक -आलोचक की प्रतिभा थी उनमें, लेकिन वह उसका सही उपयोग नहीं कर सके। स्नेहिल होते हुए भी स्वभाव की अक्खड़ता ने उन्हें रचनाकारों से दूर रखा तो कर्यशैली भी बाधक बनी। कुछ भी व्यवस्थित नहीं कर पाते थे। समय का खयाल नहीं रखते थे। आवश्यक और महत्वपूर्ण को छोड़ अनावश्यक कामों-बातों और लोगों में उलझे रहे। एक बार उन्होंने बताया था कि उन्होंने लगभग एक हजार पुस्तकों की समीक्षाएं लिखी थीं।
उनकी कार्यशैली से संबन्धित स्वानुभूत एक उदाहरण देना चाहता हूं। किताबघर, नई दिल्ली से मेरे द्वारा सम्पादित लघुकथा संकलन प्रकाश्य था। यह कार्य मैंने 1985 में पूरा कर लिया था, लेकिन उस वर्ष उसका प्रकाशन नहीं हो पाया। उन्हीं दिनों डॉ0 शर्मा से इस विषय में चर्चा हुई । उन्होंने पूछा, '' उसकी भूमिका आपने लिखी है ?'' ''जी ।'' ''अरे डॉक्टर, आपने पहले क्यों नहीं बताया.... आजकल मैं लघुकथाओं पर विशेष कार्य कर रहा हूं। उसकी बहुत अच्छी भूमिका लिखता।''
'' अभी क्या बिगड़ गया है । आप लिख दें । आपकी भी प्रकाशित हो जाएगी ।''
''आप सत्यव्रत शर्मा (प्रकाशक) को कह दीजिए .... मेरी भूमिका मिलने के बाद ही वह पुस्तक को प्रेस में देंगे।''
मैंने श्री सत्यव्रत शर्मा को यह कह दिया । फिर प्रारंभ हुआ उनकी भूमिका का इंतजार। पाण्डुलिपि की एक प्रति प्रकाशक के पास और दूसरी डॉ0 रत्नलाल शर्मा के पास और शर्मा जी के वायदे दर वायदे होने लगे। ....बस इसी सप्ताह .....पन्द्रह दिन बाद....। इसी बीच उन्होंने शक्तिनगर से प्रशांत विहार शिफ्ट कर लिया। प्रकाशक को भी शर्मा जी की भूमिका न मिलने का बहाना मिल गया। 'प्रकारांतर' (लघुकथा संकलन) का प्रकाशन स्थगित होता रहा। अंतत: बहुत जोर देने पर डॉ0 शर्मा बोले, ''शिफ्ट करते समय पांडुलिपि बांधकर कहीं रख दी गई। मिल नहीं रही । रविवार को घर आ जाओ.....मिलकर खोजते हैं। मैं गया। बराम्दे में बने दोछत्ती में बोरियों में बंद पुस्तकों के साथ पांडुलिपि को हमलोगों ने खोज लिया। उसके पन्द्रह दिनों के अंदर उन्होंने छोटी-सी भूमिका लिख दी थी। उसे लिखने में उन्होंने तीन वर्षों का समय लिया था। पुस्तक 1990 में प्रकाशित हुई थी।
रत्नलाल शर्मा के साथ एक और कमजारी थी ... वह एक विधा से दूसरी की ओर दौड़ते रहे थे। कहानी, ललित निबंध, व्यंग्य, रेखाचित्र, समीक्षा, बाल-साहित्य..... आभिप्राय यह कि यदि वह अपने को एक-दो विधाओं में साध लेते तो शायद स्थिति खराब न होती। लेखक को स्वयं अपने को पहचानना होता है .... वह क्या लिख सकता है। जीवन भर इधर-उधर भागने के बाद अवकाश ग्रहण करने के पश्चात शायद उन्हें वास्तविकता का ज्ञान हुआ और उन्होंने अपने को 'बाल साहित्य' में केन्द्रित करना प्रारंभ किया। यदि वह कुछ वर्ष और जीवित रह जाते तो तन-मन-धन से बाल साहितय के लिए समर्पित हो जाने वाले व्यक्ति के रूप में अपनी अलग पहचान बना लेते।
24 फरवरी, 1997 को जब हम लोग कानपुर से शताब्दी एक्सप्रेस से लौट रहे थे तब मुझे डॉ0 शर्मा के बालमन का परिचय भी मिला । और लगा कि उन्होंने व्यर्थ ही विभिन्न विधाओं में अपना श्रम जाया किया, उन्हें बाल साहित्यकार ही होना चाहिए था। मन को संतोष हुआ कि विलंब से ही सही उन्होंने आखिर अपने साहित्यकार को पहचान लिया है ..... बाल-साहित्य के लिए यह शुभ होगा । लेकिन प्रकृति को यह स्वीकार न था। उनकी असमय मृत्यु ने एक स्नेहिल व्यक्ति हमसे छीन लिया।
मैं प्राय: हफ्ते-दो हफ्ते में डॉ0 शर्मा से मिलने विश्वविद्यालय पुस्तकालय जाता था, लेकिन उनकी मृत्यु के पश्चात लंबे समय तक नहीं गया । बहुत बाद में अपने मित्र प्रखर दलित आलोचक और 'अपेक्षा' त्रैमासिक पत्रिका के सम्पादक डॉ0 तेज सिंह से मिलने वहां जाने लगा , जो विश्वविद्यालय में हिन्दी विभाग में रीडर हैं। डॉ0 तेज सिंह से डॉ0 शर्मा ने ही परिचय करवाया था। वहां की सीढ़ियां चढ़ते हुए डॉ0 शर्मा की याद आती। मन करता कि उस कमरे में झांकर देखूं जहां वह बैठते थे। शायद वह बैठे काम कर रहे हों और मुझे देखते ही बोलें, '' हैलो डॉक्टर'' ,लेकिन यह सच नहीं था । सच डॉ0 शर्मा के साथ जा चुका था ।
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8 टिप्पणियां:
बहुत ही रोचक अंदाज में लिखा गया है और काबिले तारीफ तो यह है कि इतने कालांतर के बाद भी स्मृतियों को जीवंतता के साथ सहेजे रखना।
बहुत अच्छी प्रस्तुति।
सादर,
मुकेश कुमार तिवारी
भाई चन्देल जी । बहुत अच्छा संस्मरण है । आपके इन संस्मरणों के माध्यम से बहुर सारी भी मिल रही है। बेवाकी से सब कुछ कह जाना इन संस्मरणों की जान है ।
संस्मरण पढ़ कर बहुत अच्छा लगा । बधाई ।
दिविक रमेश
ROOP JEE,
AAPKEE YADAAST KEE TAREEF
KARUN YAA AAPKEE LEKHNEE KEE.
DONO NE MILKAR SONE PAR SUHAAGAA
JAESA MAHAUL BANAYA HAI.SANSMARAN
KEE VIDHAA MEIN AAPKO MAHAARAT
HAASIL HAI.AAP SANSMARAN YUN SUNAATE HAIN JAESE RAJA-RANI KEE
KAHANI SUNAANE MEIN KOEE NAANEE YA
DAADEE AMMA MAAHIR HO.BAHUT ACHCHAA
LAGAA AAPKA YE SANSMARAN.MUBAARAK.
चंदेल भाई आप सचमुच संस्मरणों में जान डाल देते हैं.ऐसा इसलिए होता है कि आप दिल से लिखते हैं और ईमान का साथ नहीं छोड़ते हैं.डा.रतनलाल शर्मा एक स्वाभिमानी रचनाकार थे .रचना पीछे चलती थी स्वाभिमान आगे चलता था और मुझे इसी लिए अच्छे लगते थे.कई साहित्यकार जो नाम कमाचुके थे फिर भी छिछोरे थे .शर्मा जी कभी भी उनमें शामिल नहीं हुए .बड़ा मनुष्य होना वडी बात है .मेरा अभिवादन आप को बधाई.
priya bhai chandel maine aaj hee Dr Ratan Lal Sharma par likha tumhaara sansamaran padaa jo bahut jivantata liye hue hai aisa laga ki veh hamare sammhukh khade batiya rahe hon sahitya ki vibhin vadhaon par
yeh bahut hee yaadgar sansmaran ban pdaa hai, badhai
Balram Agarwal said
डॉ रत्नलाल शर्मा पर लिखा आपका यह संस्मरण मन को एक पुन: दिल्ली विश्वविद्यालय के पुस्तकालय की उन्हीं सीढ़ियों, उसी कमरे, उसी छत और उसी चाय वाले के पास ले गया। डॉ शर्मा में अपनत्व गज़ब का था। मेरे प्रथम लघुकथा-संग्रह के प्रकाशन की व्यवस्था बिना मेरी जानकारी के स्वयं उन्होने की और आदेश दिया कि तुरन्त पांडुलिपि तैयार करो। मैंने जब पांडुलिपि तैयार करके उन्हें सौंपी तो उसका नाम बदलकर साधिकार उन्होंने ही 'सरसों के फूल' रखा। वह बुलन्दशहर के निकटस्थ ग्राम 'बालका' के रहने वाले हैं, मैं जब भी मिलता यह बताकर वे अपने गाँव को अवश्य याद करते। दिल्ली के पंकपूर्ण साहित्यिक पोखरे में स्वयं को निर्मल पंकज बनाए रखने में वे अन्त तक सफल रहे। इस बात का तीक्ष्ण उदाहरण यह है कि उनके निधन पर टिप्पणी करते हुए दिल्ली विश्वविद्यालय के एक पंक-हृदय साहित्यिक मित्र ने दुखी स्वर में मुझसे कहा था--'हम (पुस्तकालय के ऊपर वाला)यह कमरा खाली कराने की मुहिम चलाने वाले थे, मौका ही नहीं दिया, चला गया।'
स्वाभिमान को जीवन के उस सिरे तक भी बरकरार रख पाने में सफल 'बालकानिवासी डॉ शर्मा' को शतश: नमन!
बलराम अग्रवाल
भाईसाहब,
टिप्पणी पोस्ट नहीं हो पाई इसलिए मेल द्वारा कोशिश कर रहा हूँ।
डा0 रत्नलाल शर्मा पर तुम्हारा यह संस्मरण उनके विषय में बहुत सी छिपी-अनछिपी बातों को उजागर करता है। बहुत ही सधा हुआ और गहरी आत्मीयता से लिखा गया संस्मरण है। मुझे भी डा0 रत्नलाल शर्मा के सानिध्य का कई बार अवसर मिला। मुझे याद आते हैं वे दिन जब मैं साइक्लोस्टाइल पत्रिका "प्रयास" निकाला करता था और उसकी तीन सौ प्रतियां महीने भर में खत्म हो जाती थीं। डा0 शर्मा ने मुझे बहुत उत्साहित किया था - प्रयास का अंक देखकर। उन्होंने अपने दफ़्तर के कैबिन में बैठे अन्य साहित्यिक मित्रों से मेरा परिचय बड़े उत्साह से करवाया था और 'प्रयास' की वार्षिक सदस्यता राशि न केवल स्वयं अपनी जेब से निकाल कर दी वरन अपने मित्रों को 'प्रयास' के अंक दिखालते हुए आग्रह किया कि वे भी इसकी सदस्यता लें। दिल्ली की साहित्यिक गोष्ठियों में अथवा काफ़ी हाउस में उनसे जब भी मुलाकात होती, वे बहुत आत्मीयता से मिलते और 'नया क्या लिखा' के बारे में अवश्य पूछते। वह स्वाभिमानी और स्पष्टवादी थे और मुँह पर ही बात करने वालों में से थे। सन 80-83 के दिन रहे होंगे जब वे संसद मार्ग स्थित जीवन दीप या जीवन विहार में 'समाज कल्याण' में कार्यरत थे। उन दिनों सर्दी के दिनों में गुनगुनी धूप का मजा लेने के लिए कथाकार-व्यंग्यकार प्रदीप पंत, डा0 रत्न लाल शर्मा, और पीटीआई बिल्डिंग में कथाकार श्रवण कुमार और मै, लंच के समय अपने अपने दफ़्तर से बाहर निकल आते थे और पटेल चौक पर मिला करते थे। वहीं फुटपाथ पर टहलते हुए अथवा कहीं घास पर बैठकर साहित्य की चर्चा किया करते थे। कई बार बहस भी छिड़ जाती और डा0 शर्मा अपना आपा भी खो बैठते परन्तु जल्द ही वह सामान्य भी हो जाते थे। कई बार प्रदीप पंत और श्रवण कुमार न आते तो हम दोनों ही कहीं बैठ कर बातें किया करते, वह मुझसे मेरी नई लघुकथाएं सुनते, अपनी बेबाक राय देते और लघुकथा लेखन और बाल साहित्य को लेकर बहुत चिंतित दिखाई देते। तुम्हारी तरह डा0 शर्मा भी मुझे बाल साहित्य लिखने के लिए प्रेरित करते रहते थे। बहुत सी यादें हैं उन्हें लेकर, जो तुम्हारे इस संस्मरण को पढ़कर ताज़ा हो उठी हैं।
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