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रविवार, 25 अप्रैल 2010

यादों की लकीरें



संस्मरण

एक किस्सागो से मुलाकात

रूपसिंह चन्देल

संस्मरणों की इस श्रृंखला में मैंने कुछ साहित्यकारों पर लिखा तो उन लोगों पर भी जिनका साहित्य से दूर का भी रिश्ता नहीं था । जिन साहित्यकारों पर लिखा उन्होंने किसी न किसी रूप में मुझे प्रभावित किया और दूसरे लोगों की मेरे जीवन में कुछ स्मरणीय भूमिका रही । सभी पर लिखने के अपने कारण रहे लेकिन मुख्य कारण उन पर लिखकर उन सबकी स्मृतियों को जीने का सुख प्राप्त करना रहा । मैं आज जो हूं उसके निर्माण में जिन लोगों की सकारात्मक भूमिका रही उन्हें याद करना उनके प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करने के अतिरिक्त कुछ नहीं है । उनमें से एक नाम डॉ0 शिवतोष दास का है ।

डॉ0 दास दुबले , पांच फीट छ: या सात इंच लंबे , चमकदार आंखों और चपटे ---कुछ लंबोतरे चेहरे वाले व्यक्ति थे । उनकी भौंहों पर घने बाल थे । मुंह में बनारसी पान , दाहिने हाथ में छाता (जैसा कि प्राय: बंगाली भद्र लोगों में देखने को मिलता है ) , और बायें में रेड वाइन कलर का चमड़े का बैग .....पैर में चप्पलें और ढीले पैण्ट पर बाहर निकली शर्ट...... वह प्रतिदिन सुबह आठ बजे मुझे शकितनगर बस स्टैण्ड पर दो सौ चालीस नंबर बस की प्रतीक्षा में पंक्ति में खड़े दिखते । यदि मुझे आते हुए नांगिया पार्क के मोड़ पर देख लेते तब चीखते .......''आसून.....आसून.....।'' और मैं दौड़ लेता । लेकिन यदि उस बस में मेरे लिए सीट मिलने की संभावना न होती तब वह भी बस छोड़ देते और हम दूसरी बस में होते जो दस मिनट बाद जाने वाली होती । उन दिनों शक्तिनगर से सेण्ट्रल सेक्रेटरिएट के लिए प्रत्येक दस मिनट में दौ सौ चालीस नंबर बस शक्तिनगर से चलती थी और यात्री अनुशासन में पंक्तिबध्द बस में चढ़ते थे । आज की भांति अनुशासन-हीनता नहीं थी । आज बसों के लिए दिल्ली में कहीं कोई पंक्ति नहीं दिखती और यदि होती भी है तो बस के आते ही वह बिखर जाती है । सभ्यता के मुखौटे में दिल्ली इन तीस वर्षों में इतनी असभ्य .....इतनी संवेदनशून्य और खुदगर्ज हो गयी है कि सभी एक दूसरे के कंधे पर चढ़कर निकल जाना चाहते हैं ।

साहित्य भी अपवाद कैसे रह सकता था । हालंकि जड़ें काटने वाले लोग तब भी थे , लेकिन आज जैसी गलाकाट स्थिति न थी । तब एक -दूसरे की सहायता के लिए अधिक हाथ आगे बढ़ते थे और नि:स्वार्थभाव से .... आज ऐसे हाथ हैं लेकिन संख्या कम हो गयी है ।

शिवतोष दास से मेरा परिचय डॉ0 रत्नलाल शर्मा ने करवाया था । दास साहब कमला नगर में ई-135 में रहते थे , जबकि डॉ0 शर्मा शक्तिनगर में आनाज गोदाम के पास गंदा नाले की ओर रहते थे ....... मेरे घर से दस मिनट के रास्ते पर । परिचय के मामले में मैं सदैव संकोची रहा हूं । स्वयं आगे बढ़कर परिचय करने से आज भी बचता हूं । संभव है इसे लोग मेरा अहंकार मानते हों या कुछ और लेकिन मैं आज भी अपनी इस आदत का शिकार हूं । एक बार परिचय होने के बाद अपनी ओर से उसके निर्वाह की भरपूर कोशिश करता हूं ......। रिश्तों में कांइयापन मुझे स्वीकार नहीं.....इसका अहसास होते ही कोई कितना ही बड़ा लेखक-व्यक्ति क्यों न हो उससे दूर छिटक लेने में मैं समय नष्ट नहीं करता ।

उन दिनों मेरे पास पढ़ने के लिए बहुत कुछ होता था ....खासकर कथा-साहित्य । दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी , मारवाड़ी पुस्तकालय (चांदनी चौक) ,और केन्द्रीय सचिवालय पुस्तकालय का मैं स्थायी सदस्य था और दिल्ली विश्वविद्यालय और साहित्य अकादमी पुस्तकालयों का अस्थायी । शक्तिनगर से आर।के। पुरम तक की मेरी एक ओर की यात्रा में दो बसें बदलकर डेढ़ -पौने दो घण्टे लगते थे । आते -जाते मुझे तीन-साढ़े तीन घण्टे मिलते , जिसमें मैं किसी भी कृति के सत्तर-अस्सी पृष्ठ पढ़ लेता । डॉ0 रत्नलाल शर्मा समाज कल्याण विभाग में डिप्टी डायरेक्टर थे , जो उन दिनों संसद मार्ग में था । वह प्रतिदिन मुझे पढ़ते देखते ..... और महीनों देखते रहे । बस में उनके परिचितों की संख्या बहुत थी और प्राय: वह आगे बैठते , जबकि मैं जानबूझकर बीच में या पीछे बैठता । कई महीनों बाद डॉ0 शर्मा ने मेरे बारे में पूछ लिया । वह आलोचक थे ...... उन्होंने अपना परिचय उसी रूप में दिया था , लेकिन उन्हें उनके मित्र आलोचक मानने को तैयार नहीं थे । उनके मित्रों में डॉ0 विनय , डॉ0 कमलकिशोर गोयनका , डॉ0 रामदरस मिश्र , डॉ0 हरदयाल , डॉ0 नरेन्द्र मोहन , डॉ0 प्रताप सहगल , डॉ0 अश्वनी पाराशर , डॉ0 सुखबीर ..... थे और उनके माध्यम से इन सबसे मेरा परिचय हुआ। डॉ0 विनय दास साहब के ब्लॉक में रहते थे और प्राय: इन सबका उनके यहां बैठना होता । इनमें से कोई प्राय: डॉ0 शर्मा को छेड़ देता और वह उत्तेजित हो बैठक छोड़कर विनय के घर की सीढ़ियां उतर जाते । लेकिन ऐसा वह अपने समकालीनों के साथ ही करते । मुझ जैसे युवा और अपने से बहुत जूनियर के प्रति उनका व्यवहार बहुत ही आत्मीय होता था ।

डॉ0 रत्नलाल शर्मा ने दास साहब से मेरा परिचय करवाया , ''आर. के. पुरम में केन्दीय हिन्दी निदेशालय में हैं दास साहब ....बड़े लेखक हैं । ''

पहली बार केन्द्रीय हिन्दी निदेशालय नामक संस्था के बारे में जाना और आगे जितना ही जाना यही निष्कर्ष निकाला कि यह संस्था एक सफेद हाथी है ..... हिन्दी के नाम पर जनता के धन का दुरुपयोग करने वाली मृतप्राय: संस्था । डॉ0 दास वहां सहायक शिक्षा अधिकारी थे । उनसे परिचय के बाद सुबह बस में मेरा पढ़ना बंद हो गया । उनके पास संस्मरणों का भंडार था , जिसे वह किसी किस्सागो की भांति सुनाते और सफ़र का पता ही नहीं चलता । मैं सोचता , यह व्यक्ति यदि कथाकार होता तो कितने ही मील के पत्थर गाड़ चुका होता ।

वह बनारस के रहने वाले थे और बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय के छात्र रहे थे । वहां से उन्होंने मिलटरी साइंस में एम0एस0सी किया था । उनके मुताबिक उन्होंने ओटावा विश्वविद्यालय से पी-एच।डी. की थी और दिल्ली से ओटावा की यात्रा का एक बार नहीं अनेक बार उन्होंने आकर्षक वर्णन किया था ..... फिर विश्वविद्यालय जीवन का भी ।

''इतनी योग्यता के बाद भी आप केन्द्रीय हिन्दी निदेशालय जैसे अर्थहीन संस्था में.....और वह भी ग्रुप-बी गज़टेड अफसर के रूप में क्यों सड़ रहे हैं ?'' एक दिन मैंने पूछ लिया ।

''सब किश्मत का खेल है चंदेल जी ।'' मुंह में पान चभुलाते हुए उन्होंने कहा ।

उनके बैग में कई बीड़े पान रहते , जो वह घर से लगवा लाते थे ।

उनके साथ रिसर्च असिस्टैण्ट बनकर नौकरी प्रारंभ करने वाले लोग इधर-उधर घूमकर वहां निदेशक बने.... डॉ0 रणवीर रांग्रा वहां एक मेसेंजर के पद पर नियुक्त हुए और कहीं न जाकर वहीं निदेशक के पद तक पहुंचे । 'कोई रहस्य है.........दास साहब कुछ छुपा रहे हैं' मैं सोचता लेकिन उस विषय में मैंने कभी कोई चर्चा नहीं की । मैं उनके किस्से सुनकर ही प्रसन्न था । लेकिन जाड़े के एक दिन डॉ0 रत्नलाल शर्मा ने दिल्ली विश्वविद्यालय के रिसर्च फ्लोर की छत पर धूप में बैठकर चाय पीते हुए कहा , ''डॉ0 दास ने पी-एच0डी0 नहीं की ..... होम्योपैथ का सार्टीफिकेट है उनके पास ।''

छठवें -सातवें दशक में लखनऊ से होम्योपैथ और आयुर्वेद के प्रमाणपत्र सहजता से मिल जाया करते थे । संभव है डॉ0 शर्मा सच कह रहे हों लेकिन इस विषय में मेरी रुचि नहीं थी ।

बहरहाल गाहे-बगाहे दास साहब मेरे घर आने लगे थे । उनकी पत्नी मीना दास आर्टिस्ट थीं और दिल्ली दूरदर्शन द्वारा निर्मित घारावाहिकों में उनकी कोई न कोई भूमिका होती थी । प्राय: वह कृषि-दर्शन में किसी से बातचीत करती दिखतीं ।

1982 , फरवरी में कानपुर की बाल-कल्याण संस्था ने बाल साहित्य में दास साहब के योगदान के लिए उन्हें सम्मानित किया । वह मुझे भी अपने साथ ले गये ....''आपका शहर है .... अपका साथ अच्छा लगेगा । ''

पुरस्कार पाकर वह बहुत प्रसन्न थे और शायद वह उनके जीवन का प्रथम और अंतिम पुरस्कार था । उन दिनों उन्होंने अपनी पुस्तकों की जो साइक्लोस्टाइल्ड प्रति मुझे दी थी उसमें तब तक उनकी बाल साहित्य की प्रकाशित पुस्तकों की संख्या चौसठ थी । उनकी पुस्तकें किताबघर , आर्य बुक डिपो, , प्रकाशन विभाग (भारत सरकार ) , पेनमेन पब्लिशर्स आदि से प्रकाशित हुईं थीं , जिनमें आदिवासियों और जन-जातियों पर अनेक बड़ी पुस्तकें भी थीं ।

1982 में एक दिन बस में उन्होंने मुझे एक प्रस्ताव दिया , '' आप हमारी संस्था के लिए कोई पुस्तक क्यों नहीं लिखते ?''

''मैं.......।'' मैं चौका था , क्योंकि तब तक मैं साहित्य में अपने पैर जमाने की कोशिश कर रहा था और 'विशाल साहित्य सदन ' , नवीन शाहदरा से मेरा बालकहानी संग्रह - ''राजा नहीं बनूंगा'' ही प्रकाशित हुआ था । 'यत्किंचित' के कवि के रूप में मैं फ्लाप घोषित किया जा चुका था और कवि होने के मुगालते से बाहर आ चुका था । अब कथा साहित्य ही मेरी दुनिया थी । तब तक कोई प्रकाशक मुझे पहचानता नहीं था .... बल्कि उनकी दृष्टि में मैं लेखक था ही नहीं । 'प्रभात प्रकाशन' के श्यामसुन्दर जी ने उन्हीं दिनों बहुत ही शालीनता से कहा था , '' न ....न .... अभी आप अपने को लेखक न कहें .....अभी तो आपने लिखना शुरू ही किया है .....।''

बात गलत नहीं थी ।

इस वास्तविकता से वाकिफ़ मेरे लिए दास साहब का प्रस्ताव आश्चर्यचकित करने वाला था । बात को स्पष्ट करते हुए उन्होंने कहा ''निदेशालय की एक योजना है प्रकाशकों के सहयोग से पुस्तक प्रकाशन की । पाण्डुलिपि आप निदेशालय में किसी प्रकाशक के माध्यम से प्रस्तुत करेंगे । निदेशालय तीन विद्वानों से उस पर राय लेगा । स्वीकृत होने पर प्रकाशक को तीन हजार प्रतियां प्रकाशित करनी होगीं । निदेशालय उसमें से एक हजार प्रतियां खरीद लेगा । प्रकाशक लेखक को उन एक हजार की तुरंत रायल्टी देने के लिए बाध्य होता है ।''

मुझ जैसे नये लेखक के लिए योजना आकर्षक थी ।

''फिर कहानियों का संग्रह प्रस्तुत कर देता हूं ।''

''नहीं , कथा-साहित्य नहीं....कुछ और विषय सोचिए .....।''उस दिन बात यहीं समाप्त हो गयी । लगभग एक सप्ताह बाद उन्होंने पूछा ,''विषय सोचा ?''

''नहीं ।''

''आप अपराध विज्ञान पर पुस्तक लिखें ।''

'' मैं और अपराध विज्ञान ..........यह तो मज़ाक हो गया ।''

''नहीं.....मेरे पास इस विषय पर पर्याप्त सामग्री है ।'' चेहरे पर गंभीरता ओढ़ वह बोले , ''भाभी जी (मेरी पत्नी) दिल्ली विश्वविद्यालय पुस्तकालय में हैं ..... उनकी सहायता लें । आप स्वयं अनेक पुस्तकालयों के सदस्य हैं ...... बहुत अच्छा रहेगा । एक बार लगकर काम कर जायें .....पुलिस विभाग , क्राइम ब्रांच ....सर्वत्र आपकी पूछ बढ़ जाएगी । ''

''भाड़ में जाये पूछ .....मुझे कहानियां ही लिखने दीजिए ।''

लेकिन वह पीछे पड़ गये और एक दिन ढेर-सी सामग्री मेरे घर छोड़ गये । विषय भी सुझा दिया -- ''अपराध : समस्या और समाधान ।'' मैंने उनकी दी सामग्री का अध्ययन किया । पत्नी की सहायता ली । अन्य पुस्तकालयों से अपराध संबन्धी डॉटा इकट्ठा किया । मनोवैज्ञानिकों के अपराध संबन्धी वियारों का अध्ययन किया और कार्य प्रारंभ किर दिया । छ: महीनों तक मैंने कोई अन्य साहित्यिक कार्य नहीं किया । पाण्डुलिपि टाइप करवाकर दास साहब को सौंप दी ।

''मुझे नहीं ..... मेरे मित्र प्रकाशक हैं सुखपाल जी .... आर्य बुक डिपो , करोल बाग ....उन्हें दे आइये । पेमेण्ट के मामले में वह ईमानदार हैं । आजकल इस प्रोजेक्ट को मैं ही देख रहा हूं । मैं उन्हें कह दूंगा । ''

पण्डुलिपि मैं सुखपाल जी को दे आया । मैं प्रसन्न था कि दिल्ली में एक ढंग के प्रकाशक से परिचय हुआ । यह तो बाद में जाना कि वह साहित्य के नहीं स्कूलों की पुस्तकें प्रकाशित करते थे ।
पण्डुलिपि केन्द्रीय हिन्दी निदेशालय से स्वीकृत हो गयी । पत्र मुझे और आर्यबुक डिपो के पास आया । दास साहब से पूछा , ''अब ?''

''जाकर अनुबंध करो । '' कुछ देर चुप रहकर बोले , ''सुखपाल जी से कहना कि वह आपको अनुबंध के साथ तीन हजार रुपये अग्रिम दें ।''

दास साहब की सलाह मान मैं सुखपाल जी से मिला । मेरा प्रस्ताव सुनते ही वह उत्तेजित स्वर में बोले , ''अग्रिम मैं किसी को नहीं देता .....आपको तो बिल्कुल ही नहीं , क्योंकि आपसे मेरा अधिक परिचय नहीं है । फिर तीन हजार ......।''

लौटकर मैं सीधे दास साहब के घर गया । पता चला वह घर में नहीं थे । हालांकि कभी-कभी वह होकर भी मना करवा देते थे । एक बार का ऐसा ही प्रसंग उन्होंने सुनाया था । उनके पास ढाई कमरे थे किराये पर । छोटे कमरे को उन्होंने स्टडी बना रखा था । उसका निकास ड्राइंगरूम से था । वह स्टडी में कुछ लिख रहे थे । कोई मित्र मिलने आ गया । मीना जी ने कहा , ''वह बाहर गए हैं ।''

''कोई बात नहीं भाभी जी ....मैं उनके आने का इंतजार करूंगा ।'' और मित्र महोदय बैठ गये । जाड़े के दिन.....दास साहब लिखने के फेर में पेशाब टालते रहे थे ....'' अब .....'' वह सोचने लगे । दो घण्टे तक उन पर क्या बीती होगी , कल्पना की जा सकती है ।

सुबह बस में पूरा विवरण सुनकर वह बोले ,'' आप फोन करके सुखपाल जी को कह दें कि यदि वह अग्रिम राशि देंगे तभी पाण्डुलिपि उनके यहां से प्रकाशित होगी ..... अन्यथा आप किसी अन्य प्रकाशक को दे देंगे । यदि वह नहीं छापते तो लिखकर दे दें ।''

मैंने दास साहब के निर्देश का पालन किया । सुखपाल भले प्रकाशक थे । लिखकर देने के लिए तैयार हो गये । इधर दास साहब ने किताबघर के श्री सत्यव्रत शर्मा से उसे प्रकाशित करने की चर्चा की और वह तैयार हो गये । लेकिन मुझे अग्रिम तीन हजार नहीं डेढ़ हजार ही देने के लिए तैयार हुए । सत्यव्रत जी अनुबंध करने के लिए दास साहब के साथ मेरे घर आये । डेढ़ हजार का चेक पाकर मैं इतना प्रसन्न था कि उस पुस्तक का कॉपी राइट मैंने मीना दास के नाम लिख दिया ... जो आज भी उन्हीं नाम है । हालंकि उसका दूसरा संस्करण आज तक नहीं हुआ और न ही मेरी उस पुस्तक में कोई रुचि रही । लेकिन इसका परिणाम यह हुआ कि दास साहब मुझे छोटे भाई की भांति मानने लगे । 'अपराध :समस्या और समाधान' के बाद उनके कारण सत्यव्रत जी ने एक साथ मेरी तीन पाण्डुलिपियां प्रकाशनार्थ लीं । एक कहानी संग्रह (पेरिस की दो कब्रें) , बाल कहानी संग्रह (अपना घर) और लघुकथा संग्रह (चीख) । लेकिन उन्होंने केवल कहानी संग्रह ही 1984 में प्रकाशित किया । 'अपना घर' बहुत बाद में अभिरुचि प्रकाशन से और 'चीख' संशोधित रूप में 'कुर्सी संवाद' शीर्षक से 1997 में पेनमेन पब्लिशर्स से प्रकाशित हुए ।

दास साहब के माध्यम से ही मेरा परिचय जैनेन्द्रे जी के पुत्र प्रदीप जैन से हुआ और प्रदीप ने पूर्वोदय प्रकाशन के लिए मेरा किशोर उपन्यास 'ऐसे थे शिवाजी' लिया । तीन सौ रुपये अग्रिम राशि भी दी । यह 1985 की बात है । लेकिन उन्होंने उसे प्रकाशित नहीं किया ।

*******

एक दिन दफ्तर में दास साहब का फोन आया , ''चन्देल जी.... तुरंत आइए .....।''

''क्यों ?''

''इलाहाबाद से सहगल साहब आए हैं .....चांद कार्यालय वाले ।''''चांद कार्यालय .....?''

''अरे भाई, चांद पत्रिका .....आप तो इतिहास में रुचि रखने वाले व्यक्ति हैं ।''

मैं दौड़ गया । सड़क के इस पार-उस पार का फासला । दास सहब मेरे बारे में सहगल साहब से पहले ही हवा बांध चुके थे । यह वह दौर था जब मैं पत्र-पत्रिकाओं में धुंआधार लिख रहा था । दैनिक हिन्दुस्तान के प्रत्येक दूसरे रविवासरीय संस्करण में मेरी एक रचना होती थी । सहगल साहब मेरे नाम-काम से परिचित थे ।

''आप चन्देल जी की बाल साहित्य की पुस्तकें प्रकाशित करें ..... ।'' दास साहब बोल रहे थे और ''दीजिए साहब ....मुझे आपको प्रकाशित कर अच्छा लगेगा । '' सहगल साहब ने कहा ।

उनका नाम अशोक कुमार सहगल था । चांद पत्रिका उनके पिता जी निकालते थे , जिसका फांसी अंक सरकार ने जब्त कर लिया था । सहगल साहब ने मेरी चार पुस्तकें प्रकाशित कीं , जिनमें तीन बाल कहानी संग्रह और 'ऐसे थे शिवाजी' किशोर उपन्यास थे । 1985-86 में चारों की अग्रिम भुगतान के रूप में उन्होंने चार हजार रुपये दिये थे । बाल साहित्य की पुस्तकों की दृष्टि से उन दिनों यह अच्छी राशि थी क्योंकि बड़े-बड़े प्रकाशक बाल साहित्य की पाण्डुलिपियां मिट्टी भाव खरीदते थे... ढाई -तीन सौ से लेकर पांच सौ में ----सदा के लिए । कर्तार सिंह सराभा' पर मेरे किशोर उपन्यास 'अमर बलिदान' (1992 ) के साथ राजपाल एण्ड संस ने ऐसा ही किया था और मैं आज तक उसे पुनर्मुद्रित नहीं करवा सका ।

यद्यपि तीन प्रकाशकों से ही डॉ0 शिवतोष दास ने मेरा परिचय करवाया , लेकिन यह उन्होंने तब किया जब इस क्षेत्र में मेरी कोई पहचान नहीं थी । उसके बाद मैं एक के बाद अनेक (अब तक चौदह) प्रकाशकों के संपर्क में आया और दास साहब ने जो जमीन मेरे लिए तैयार की थी .... मैंने मित्रों के लिए करने की कोशिश की । मेरे माध्यम से जब मेरे किसी मित्र की कोई पुस्तक प्रकाशित होती है तब अपनी पुस्तक प्रकाशित होने जैसा सुख मैं अनुभव करता हूं ।

मेरे और दास साहब के बीच कुछ मुद्दों पर मतभेद भी रहे , लेकिन संबन्धों में कोई फ़र्क नहीं आया । 1987-88 के आस-पास हमारा साथ आना-जाना छूट गया था । कभी-कभार हम मिलते , लेकिन उनमें वही उत्साह.......लपककर मिलना....घर परिवार ...माशा-कुणाल....सबके हालचाल पूछना । जबकि मैं उनकी दोनों बेटियों और मीना जी के बारे में पूछना भूल जाता ।

*******

अवकाश ग्रहण करने के बाद ही उन्हें चालीस वर्ष पुराना किराए का मकान छोड़कर विजयनगर जाना पड़ा था । एक दिन विश्वविद्यालय में टकरा गये । कुछ दुबले हो गये थे । बोले , ''आजकल करेले के जूस पर जी रहा हूं ।''

''शुगर के शिकार हो गये ? दुबले पतले लोगों को भी शुगर हो जाती है ? आप तो पैदल भी खूब चलते हैं ।''

''हो गयी .....कैसे ...... पता नहीं ।''

''वक्त कैसा कट रहा है ?''

''कुछ लिखना-पढ़ना.....विश्वविद्यालय में विजिटिगं प्रोफेसर हूं ......कुछ क्लासेज मिल जाती हैं ......।'' कुछ रुककर बोले ,'' मैंने नोएडा में मकान ले लिया है । एक महीने में शिफ्ट कर जाऊंगा ।''

जिन्दगी भर दास साहब 'एक ऐसी महत्वाकांक्षा पाले रहे जिसकी पूर्ति संभव नहीं थी , लेकिन अपने को उस रूप में प्रस्तुत करने की आदत वह कभी छोड़ नहीं पाए । इस मनोवैज्ञानिक कमजोरी को मैंने यथासमय समझ लिया था और उनके साथ मुझे कभी कोई परेशानी नहीं हुई । इसके बावजूद वह एक सहज ,सरल और भले व्यक्ति थे ।

एक बार मैं सपरिवार उनसे मिलने नोएडा गया ..... यह शायद 1997 की बात है । वह कुछ और दुबले हो गये थे , लेकिन प्रसन्न थे । उसके बाद उनसे मेरी मुलाकात नहीं हुई ।
********

8 टिप्‍पणियां:

प्रदीप कांत ने कहा…

ACHCHHA SANSMARAN HAI

सहज साहित्य ने कहा…

भाई चन्देल जी डॉ शिवतोष दास पर आपका संस्मरण बहुत रोचक है और विधा के निकष पर खरा उतरता है ।रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु'

PRAN SHARMA ने कहा…

MAIN KAHANI SE ZIADA SANSMARAN
PADHNAA PASAND KARTAA HOON.
SANSMARAN MEIN JO BAAT HOTEE HAI
VAH KAHANI MEIN NAHIN.KAHANI MEIN
KALPANA KAA ANSH KUCHH ZIADAA HEE
HOTAA HAI.SANSMARAN MEIN AESEE
BAAT NAHIN HAI.USMEIN TO KISEEKO
KO BADEE SACHCHHAAE SE SMARAN KIYAA
JAATAA HAI.
Dr. SHIVTOSH DAAS KE JEEWA
KEE GATIVIDHIYON KO JIN SACHCHAAEEYON SE AAPNE SMARAN KIYAA
HAI VE AVISMARNIY BAN GAAYEE HAI.
DIL MEIN UTARTE HUE IS SANSMARAN
KE LIYE AAPKO DERON HEE BADHAEEYAN.

लावण्यम्` ~ अन्तर्मन्` ने कहा…

आपके संस्मरण अत्यंत सजीव कर देते हैं
जीवन के उस हिस्से को और पात्रों को
इसी तरह लिखते रहे
शुभम
- लावण्या

बेनामी ने कहा…

आपके संस्मरण अत्यंत सजीव कर देते हैं जीवन के उस हिस्से को और पात्रों को
इसी तरह लिखते रहे
शुभम
- लावण्या

ashok andrey ने कहा…

priya chandel maine tumhaara yeh sansmaran pad liya thaa lekin tabiyat theek n hone ke karan tippani nahi de paya vaise tumhare sare sansmaran bahut kareeb se chhute chale jaate hain aesaa lagta hai ki ve humse bhii kuchh guphtgu kar rahen hain, badhai

डॉ. सरोज गुप्ता ने कहा…

ek baat bahut khali ki aapne unkii patni aur bachcho ka haal nahi puchhaa .bhlaa kyon ?
snsmaran itnaa rochak hai ki ek hi saans men pdh gayi

डॉ. सरोज गुप्ता ने कहा…

ek baat bahut khali ki aapne unkii patni aur bachcho ka haal nahi puchhaa .bhlaa kyon ?
snsmaran itnaa rochak hai ki ek hi saans men pdh gayi