संस्मरण
गर्दिश के साथी
रूपसिंह चन्देल
मैं उन्हें खान की क्लीनिक में बैठे या बाहर खड़े प्रतिदिन देखता । वह मेरी ही आयु के थे ..... लंबे...... लगभग पांच फीट आठ-नौ इंच , गोरे , स्लिम , स्वस्थ और सुन्दर । गोल , भरे गाल , सुतवां नाक , चमकती गोल आंखें , कुछ घुंघराले काले बाल...... प्रथम दृष्ट्या ही आकर्षक । मैं सुबह दस बजे घर से निकल जाता और शाम छः बजे के आस-पास कालोनी में प्रवेश करता । मैं प्रतिदिन शहर की एक दिशा नापता और खाली हाथ अगले दिन किस दिशा की फैक्ट्रियों-कंपनियों के मैनेजरों-पर्सनल अफसरों से मिलने जाना है यह तय करता घर लौटता । सुबह जाते समय वह मुझे अपने चौथे मंजिल के घर की बाल्कनी में खड़े दिखते और लौटते समय डाक्टर खान की क्लीनिक में या बाहर खड़े । खान की क्लीनिक मेरे पहली मंजिल के घर के ठीक सामने थी ।
यह 1970 के उत्तरार्ध की बात है । मैं बेगमपुरवा की म्यूनिसिपल कालोनी में बड़े भाई के साथ रहता था । उन दिनों मैं एक ऐसी बीमारी का शिकार था जिसके विषय में मैं स्वयं नहीं जान पा रहा था और बड़े भाई का कहना था कि दरअसल मुझे कोई बीमारी नहीं , केवल ‘शक’ की बीमारी है । लेकिन में जानता था कि कुछ ऐसा था अवश्य जिसके कारण मेरा वजन निरंतर घट रहा था और भूख मरती जा रही थी । मैं भाई की विवशता समझता था और उनसे कभी किसी बड़े डाक्टर या अस्पताल की बात नहीं करता था । छोटी नौकरी में , जो छः सात वर्ष पुरानी ही थी , बड़े परिवार का बोझ था उन पर । मैं चाहता था कि नौकरी लगे तो स्वयं ही किसी अच्छे डाक्टर से संपर्क करूं , लेकिन नौकरी मुझे दूर से ही ठेंगा दिखा रही थी । कुछ दिन एक वकील के यहां सेवादारी करके कुछ पैसे बचाए थे जिनसे मैं कुछ दिनों तक आइन्स्टाइन जैसे दिखने वाले एक होम्योपैथ डाक्टर की शरण में रहा जिसने मुझे मीठी गोलियों के साथ दलिया सेवन की सलाह दी थी । उससे लाभ नहीं हुआ । तब मैंने डाक्टर खान की शरण लेने का विचार किया , जिनसे खांसी-ज्वर हाने पर हम दवा लेते थे । ‘बड़े डाक्टर कभी जिस मर्ज को नहीं पकड़ पाते छोटे उसे पकड़ लेते हैं ’ उस समय मैंने यह सोचा और एक दिन डाक्टर खान के पास जा पहुंचा । शाम के सात बजे थे । वही समय होता था खान के आने का । यह तो मुझे बाद में पता चला कि डाक्टर खान नीम -हकीम डाक्टर थे । वह घण्टाघर में एक सरदार जी के धर्मकांटा में बतौर मैनेजर काम करते थे जहां बड़े ट्रकों को तौला जाता था ।
गहरे सांवले रंग के डाक्टर खान सदैव सफेद पैण्ट और हाफ शर्ट पहनते थे । सदैव उनके मुंह में पान रहता और पुराने अखबार में दो-चार बीड़े पान बंधे उनकी मेज पर रखे होते । उनकी क्लीनिक आठ बाई दस के कमरे में थी , जिसमें एक ओर हरे पर्दे के पार्टीशन में कंपाउडर दवाएं कूट-पीसकर....घोल बनाता रहता । उनके यहां बेगमपुरवा बस्ती के कुछ और शेष मरीज कालोनी के होते थे । लेकिन यदि एक मरीज होता तो चार उनसे गप हांकने वाले वहां बैठे होते जो मरीज जैसे ही दिखाई देते थे ।
उस दिन भी वह वहां बैठे अन्य लोगों के साथ ठहाके लगा रहे थे ।
मैंने खान को अपना कष्ट बताया । उन्होंने नब्ज देखी , पेट दबाया फिर आंखें फैलाकर देखीं और बोले , ‘‘ठाकुर साहब आपको कमजोरी है । यह टानिक लिख रहा हूं ..... सुबह-शाम खाने के बाद एक चम्मच लीजिए । बाकी जूस -दूध नियमित ........’’
मैंनें उनसे टानिक का पर्चा लिया और उनकी फीस देने लगा , जिसे उन्होंने , ‘‘तुम ठाकुर साहब के भाई हो ।’’ फीस लेने से इंकार कर दिया । कालोनी में भाई साहब को सभी ठाकुर साहब कहकर पुकारते थे और वहां उनकी अच्छी प्रतिष्ठा थी ।
मैं जब क्लीनिक से बाहर निकला वह भी मेरे पीछे बाहर आ गए ।
‘‘आजकल क्या कर रहे हो ?’’ उन्होंने सीधे पूछ लिया ।
‘‘मैं.....मैं नौकरी तलाश रहा हूं ।’’
‘‘नौकरी....।’’ क्षणभर के लिए उनके चेहरे पर गंभीरता पसर गयी । ‘‘हुंह .....नौकरी.....।’’
‘‘और आप ?’’ उन्हें असमजंस में पाकर मैंने पूछा ।
‘‘यार मैं भी इसी मर्ज से गाफिल हूं ।’’ वह फिर गंभीर हुए । क्षणभर बाद पूछा , ‘‘क्या किया है ?’’
‘‘बारहवीं की परीक्षा देनी है.....प्राइवेट । टाइपिगं जानता हूं । चालीस से ऊपर स्पीड है ।’’
वह मुझे घूरते हुए कुछ सोचते रहे । मैं भी उनके चेहरे पर नजरें गड़ाए उन्हें देखता रहा । हम खान के क्लीनिक से कुछ हटकर रेलवे कालोनी की ओर जाने वाले रास्ते के पास बिजली के खंभे के निकट आ खड़े हुए , जिस पर एक टिमटिमाता पीला बल्ब इस बात का अहसास करा रहा था कि उस कालोनी वालों पर केसा की मेहरबानी थी। अंधेरा घिर आया था और धुंए में डूबी कालोनी के घरों से बीमार रोशनी फूट रही थी । अमूमन हर दूसरे घर में अंगीठी सुलग रही थी । कुछ घरों के बाहर गृहणियां उन्हें सुलगाने का प्रयत्न करती दिख रही थीं । यह कालोनी रेलवे वर्कशाप के निकट थी , इसलिए कच्चा कोयला सहजता से मिल जाता था । कभी वह वर्कशाप ही कानपुर का मुख्य रेलवे स्टेशन हुआ करता था , जिसकी स्मृति को जीर्ण काठ का पुल आज भी सुरक्षित रखे हुए है।
‘‘फिर तो यार , कहीं न कहीं नौकरी मिल ही जानी चाहिए ।’’
‘‘कैसे ?’’
’’टाइपिगं जो आती है .... मुझे टाइपिगं आती होती तो .....?’’ वह चुप हो गए । लेकिन उन्होंने यह संकेत अवश्य दे दिया था कि वह भी मेरी तरह ही बेकार थे ।
‘‘आप भी सीख लें .....।’’
‘‘आपने कहां सीखी ?’’ उन्होंने पूछा ।
‘‘आई.टी.आई. में....लेकिन प्रैक्टिस के लिए अब सुबह किदवईनगर के शर्मा टाइपिगं इंस्टीट्यूट जाता हूं ।’’
वह देर तक कुछ सोचते रहे , फिर बोले , ‘‘यार , मुझे क्लर्की पसंद नहीं है । मैं अध्यापक बनना चाहता हूं ।’’
‘‘आपने क्या किया है ?’’
‘‘मैंने.........मैंने हमीरपुर से इण्टर पास किया है । वहीं का रहने वाला हूं ।’’
‘‘फिर प्राइमरी टीचर्स ट्रेनिगं कर लो ।’’
‘‘उससे भी नौकरी कहां मिलती है । यू.पी. में बी.टी.सी. किए हुए हजारों बेकार हैं ।’’
‘‘फिर.....?’’ मेरे प्रश्न पर वह सोच में डूब गए ।
‘‘वही.....फिर....।’’ और वह फिर चुप हो गए । हम देर तक खड़े रहे निर्वाक फिर हम अपने घरों को चले गए थे ।
*****
उसके बाद हम दोनों गहरे मित्र बन गए थे ।
उनका नाम था इकरामुर्रहमान हाशमी ।
अब हम दोनों ही सुबह एक साथ अपनी-अपनी साइकिलों पर निकलते । किदवईनगर या रेल बाजार तक साथ जाते , फिर हमारे रास्ते जुदा हो जाते थे । शाम हम पुनः खान की क्लीनिक के सामने मिलते और घण्टा-आध घण्टा दिनभर के अपने अनुभवों को बांटते ।
मार्च 1971 में बारहवीं की परीक्षा थी , इसलिए मैंने नौकरी के लिए दौड़ना छोड़ दिया । सुबह केवल टाइपिगं की प्रैक्टिस के लिए जाता और शेष समय पढ़ाई । हमारी शाम की मुलाकातें बदस्तूर जारी थीं और वह मुझे बताते कि चमनगंज के किसी मुसलमान नेता ने उनसे वायदा किया है कि वह जुलाई में उन्हें अपने स्कूल में बतौर हिन्दी अध्यापक नौकरी दे देगा ।
‘‘यार , वहां काम करते हुए मैं बी.ए. का प्राइवेट फार्म तो भर सकूंगा । बी.ए. करना आवश्यक है ।’’ उन्होंने कहा था ।
‘‘रेगुलर कर लो ।’’
‘‘नहीं ।’’ उनके स्वर में स्वाभिमान की गंध थी । ‘‘मैं भी बड़े भाई के साथ रह रहा हूं ... यही पर्याप्त है । उन पर अधिक बोझ नहीं डालना चाहता । अपने बल पर ही आगे की पढ़ाई करूंगा ।’’
उनके निर्णय की मैंने मन ही मन प्रशंसा की । उससे मुझे भी बल मिला था ।
उन दिनों कानपुर विश्वविद्यालय केवल अध्यापन से जुड़े लोगों को ही प्राइवेट बी.ए. की अनुमति देता था । अगस्त से फार्म भरने का सिलसिला प्रारंभ होता जो विलंब शुल्क के साथ अक्टूबर -नवम्बर तक चलता । मैं भी इण्टरमीडिएट तक सीमित नहीं रहना चाहता था .....लेकिन....वास्तव में हम दोनों की स्थिति एक-सी थी ।
जून 1971 में मेरा स्वास्थ्य अधिक ही खराब हो गया । एक दिन दोपहर इतनी घबड़ाहट हुई कि मैंने सी.ओ.डी. पोस्ट आफिस से भाई साहब को फोन कर दिया । वह घबड़ा गए । उन्होंने कुछ डाक्टरों की जानकारी अपने सहयोगियों से ली और शाम सवा पांच बजे आते ही (वह हिन्दुस्तान एयरोनाटिक्स लि. (HAL) में थे ) बोले , ‘‘कपड़े बदलो....डाक्टर के पास जाना है ।’’
मैं हत्प्रभ था । कल तक वह कहते थे कि मुझे ‘शक’ की बीमारी है.... लेकिन घर में सभी उनसे डरते थे और मैं तो उनसे दस वर्ष छोटा था । चुपचाप बिना कुछ कहे कपड़े बदल उनके साथ चल पड़ा था । किदवई नगर के वाई ब्लाक में डाक्टर भार्गव का क्लीनिक था जो कुछ दिन पहले तक कानपुर मेडिकल कालेज में रीडर पद पर कार्यरत थे , और घर में भी प्रैक्टिस करते थे । घर में उमड़ती भीड़ ने उन्हें नौकरी छोड़ने के लिए प्रेरित किया था । डाक्टर भार्गव ने बातचीत से ही मर्ज समझ लिया , लेकिन उसकी पुष्टि आवश्यक थी , अतः एक्सरे के लिए लिखा । अगले दिन एक्सरे के लिए मैं माल रोड गया । रपट में डाक्टर भार्गव की आशंका सही निकली थी । आंतो का अंतिम छोर आपस में लगभग मिल गया था । (डाक्टरों के मुताबिक इल्यूशिकिल आंत नैरो हो गयी थी ) मात्र सूत भर का अंतर..... यदि पन्द्रह दिन और बीत जाते तब उन आंतों के फट जाने का खतरा था.......अर्थात अवश्यभांवी मृत्यु ।
डाक्टर भार्गव ने सर्जन एस.पी. जैन के पास पत्र देकर भेजा , जो कोतवाली के पास अपनी साली के यहां रहते थे ,क्योंकि उनकी पत्नी की कुछ दिन पहले मृत्यु हो गयी थी और उनके तीन वर्ष की बेटी थी जो साली के यहां रहकर पल रही थी । मैं उनसे घर पर मिला । उन्होंने हैलट अस्पताल में , जहां वह सर्जन थे , मिलने के लिए कहा ।
अंततः 20 जून ‘1971 को उन्होंने मुझे हैलट में भर्ती कर लिया । सभी परीक्षण हुए और पता चला कि उस समय मेरा वजन केवल चालीस किलो था । डाक्टर जैन ने तुरंत आपरेशन न करने का निर्णय किया , क्योंकि उस स्थिति में मुझे बाहर से रक्त देना होता , जो वह नहीं चाहते थे । उचित उपचार प्रारंभ हो गया था , इसलिए पन्द्रह दिनों के लिए आपरेशन टाला जा सकता था । डाक्टर ने अधिक से अधिक मौसमी का जूस लेने की सलाह दी ।
इकराम प्रतिदिन मुझसे मिलने अस्पताल आते थे ।
उन दिनों मौसमी का छोटा गिलास सवा रुपया और बड़ा डेढ़ रुपए का था । मैं भोजन कम जूस अधिक लेने लगा और भाई साहब से पैसे कम लेने के निर्णय के कारण इकराम का एक सौ पचास रुपयों का कर्जदार हो गया । वे पैसे मैंने कब और कैसे वापस किए आज मुझे याद नहीं और न ही यह जान सका कि मेरी ही स्थिति में रह रहे इकराम ने उन पैसों की व्यवस्था कैसी की थी ।
*****
11 जुलाई 1971 को मेरा आपरेशन हुआ ....पांच घण्टे । इकराम सुबह ही अस्पताल पहुंच गए थे और मेरे होश में आने तक अर्थात शाम पांच बजे तक वहां रहे थे ।
जब अस्पताल से मुझे छुट्टी मिली मेरा वजन मात्र छत्तीस किलो था .... लेकिन तब मैं पूर्ण स्वस्थ था । अगले तीन महीनों में मैं इतना स्वस्थ हो गया कि मैं पुनः उस इनकम टैक्स-सेल्स टैक्स वकील के यहां पचास रुपए मासिक पर प्रतिदिन चार घण्टे के लिए काम पर जाने लगा था ... न चाहते हुए भी । अपने उपन्यास ‘शहर गवाह है’ में मैंने इसी वकील का चित्रण किया है । शाम इकराम के साथ हम बी.ए. करने की चर्चा करते । चमनगंज के नेता ने अपना वायदा पूरा नहीं किया था , जबकि इकराम ने जुलाई से कुछ दिनों तक उसके स्कूल में मुफ्त पढ़ाया था । जब उसने अनुभव प्रमाण पत्र देने से इंकार कर दिया , जिसके बिना इकराम प्राइवेट फार्म नहीं भर सकते थे , उन्होंने स्कूल छोड़ दिया था । वकील साहब के यहां तीन महीने जाने के बाद मैंने भी उन्हें नमस्ते कह दी थी । पुनः टाइपिगं की प्रैक्टिस के लिए मैं ‘शर्मा इंस्टीट्यूट’ जाने लगा था । जिन्दगी पुराने ढर्रे पर लौट आयी थी .....दिन भर शहर की धूल फांकता - घूमता और शाम हताश वापस ।
1972 शुरू हो गया था । एक दिन इकराम समाचार लाए कि फूड कार्पोरेशन आफ इंडिया में लेबर की बहुत-सी वेकेंसी आने वाली हैं ।
‘‘अपुन एक दिन झखरकटी एम्प्लायमेण्ट एक्सचेंज में रजिस्ट्रेशन करवा लेते हैं ।’’ वह बोले ।
‘‘लेकिन हम इण्टरमीडियेट हैं । हम गोटैहा में पहले ही रजिस्टर्ड हैं .... सर्टीफिकेट के पीछे वहां की मोहर लगी हुई है । ’’
‘‘यार हमें हाई स्कूल , इण्टर की सार्टीफिकेट दिखानी ही नहीं.... लेबर को आठवीं पास होना चाहिए.... वह प्रमाणपत्र है न ....?’’
‘‘हां....।’’
‘‘फिर कल ही चलते हैं ।’’
हम दोनों ने गंदे पायजामे पर गंदी कमीजें पहनी थीं जिससे लेबर जैसा दिखें । झखरकटी एम्प्लायमेण्ट एक्सचेंज घर से पांच-छः किलोमीटर की दूरी पर जी.टी. रोड पर था । क्लर्क ने हमें पहनावे से नहीं , बातचीत से भांप लिया कि हम आठवी नहीं...अधिक पढ़े लिखे हैं । उसने यह बात छुपायी भी नहीं । और हम पर एहसान जताते हुए उसने हमारा रजिस्ट्रेशन कर लिया था ।
लेकिन हमें वहां से कोई काल नहीं मिली । इकराम हर दिन फूड कार्पोरेशन की खबर लाते और हम हर दिन झखरकटी से लेबर की काल का इंतजार करते ....... समय बीत गया । अब हम पर पूरी तरह अध्यापक के रूप में बी.ए. करने का भूत सवार हो गया था । अध्यापन के प्रमाणपत्र अथवा किसी विद्यालय से अग्रसारण का जिम्मा इकराम ने संभाल रखा था । वह दिनभर केवल दो बातों के लिए धक्के खा रहे थे .... कहीं नियमित अध्यापकी और फार्म के अग्रसारण के लिए । वह सूचना लाते अमुक प्रधानाचार्य या प्रबन्धक ने तीन सौ रुपये लेकर अग्रसारित करने का वायदा किया है , ‘‘लेकिन यार मेरे पास कुल एक सौ पचास रुपये ही हैं ।’’ कुछ चुप रहकर वह कहते , ‘‘मैं कोशिश कर रहा हूं कि इतने में ही काम हो जाए....।’’
मैं उन्हें सुनता और सोचता ‘मेरे आपरेशन में भाई साहब को खासी रकम खर्च करनी पड़ी है .....कैसे उनसे रुपये मांगूगा । लेकिन मैंने अपना उत्साह भंग नहीं होने दिया । ‘रुपयों के बारे में तब सोचूगं जब किसी स्कूल में अग्रसरारण की बात पक्की हो जाएगी ।’’
लेकिन इकराम को अपने प्रयास में सफलता नहीं मिल रही थी ।
एक दिन शाम हम दोनों खान की क्लीनिक के बाहर खड़े उसी विषय पर गंभीरतापूर्वक चर्चा कर रहे थे कि कहीं से मेरे भाई साहब आ गये ।
‘‘क्या गुफ्तगू हो रहीं है ?’’
‘‘ठाकुर साहब , हमारी एक ही समस्या है .... बी.ए. का फार्म भरना ।’’
भाई साहब गंभीर हो गये । फिर मुझे सुनाते हुए बोले , ‘‘जितनी ऊर्जा इसके लिए नष्टट कर रहे हो ....उतनी यदि नौकरी पाने के लिए करते तो शायद नौकरी मिल जाती , तब करते बी.ए.....एम.ए....।’’
उनकी बात से मेरा ही नहीं इकराम का चेहरा भी राख हो गया था । भाई साहब चले गये और हम देर तक वहां खड़े रहे थे लेकिन शायद ही हमने कोई बात की थी । उस दिन के बाद उस समय मैंने बी.ए. करने का स्वप्न त्याग दिया था और शायद इकराम ने भी । मैंने गंभीरता से अपनी टाइपिगं स्पीड बढ़ाने पर ध्यान केन्द्रित कर लिया और इकराम ने अध्यापकी हासिल करने में ।
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एक दिन इकराम सूचना लेकर आये कि किसी ने उनसे वायदा किया है कि वह उन्हें हमीरपुर के एक इण्टर कालेज के प्राइमरी सेक्शन में उर्दू टीचर की नौकरी दिलवा सकता है बशर्तें उन्होंने आठवीं जमात तक उर्दू पढ़ी हो ।
‘‘तुम्हें उर्दू आती है ?’’
‘थोड़ी.... लेकिन जाकर अम्मी से पन्द्रह दिनों में सीख लूंगा ।’’ वह फिर गंभीर हो गये । कुछ देर बाद वह बोले , ‘‘लेकिन...।’’
‘‘लेकिन क्या ?’’
उन्होंने अपनी समस्या बतायी । कई दिनों तक हम उसके समाधान के विषय में सोचते रहे थे । और हमने समाधान खोज ही लिया था ।
अंततः इकराम को हमीरपुर के उस इण्टर कालेज के प्राइमरी सेक्शन में जब जुलाई में उर्दू अध्यापक की नौकरी मिली तब मुझे लगा था कि वह इकराम की ही नहीं मेरी भी सफलता थी ।
उनके कदमों को जमीन मिल गयी थी और उसके नौ महीने बाद मुझे भी । जब 1973 में कानपुर विश्वविद्यालय ने सभी के लिए प्राइवेट छात्र के रूप में बी.ए. करने की घोषणा की तब मैंने भी बी.ए. किया और इकराम ने भी । उसके बाद उन्होंने प्राइमरी टीचर्स ट्रेनिगं की स्कूल से अवकाश लेकर । मैंने जब एम.ए. कर लिया तब उन्होंने मुझे लिखा कि वह मेरी पुस्तकों और मेरे नोट्स से हिन्दी में एम.ए. करना चाहते हैं ।
उन्होंने वह भी किया और बी.एड. भी । लेकिन 1978 के बाद हम एक-दूसरे से नहीं मिल सके । उनके बारे में कुछ वर्षों बाद यह सूचना अवश्य मिली थी कि वह इण्टर कालेज में हिन्दी लेक्चरर हो गये थे ।
संभव है अब वह उस कालेज में अब प्रिसिंपल हों ।
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यह 1970 के उत्तरार्ध की बात है । मैं बेगमपुरवा की म्यूनिसिपल कालोनी में बड़े भाई के साथ रहता था । उन दिनों मैं एक ऐसी बीमारी का शिकार था जिसके विषय में मैं स्वयं नहीं जान पा रहा था और बड़े भाई का कहना था कि दरअसल मुझे कोई बीमारी नहीं , केवल ‘शक’ की बीमारी है । लेकिन में जानता था कि कुछ ऐसा था अवश्य जिसके कारण मेरा वजन निरंतर घट रहा था और भूख मरती जा रही थी । मैं भाई की विवशता समझता था और उनसे कभी किसी बड़े डाक्टर या अस्पताल की बात नहीं करता था । छोटी नौकरी में , जो छः सात वर्ष पुरानी ही थी , बड़े परिवार का बोझ था उन पर । मैं चाहता था कि नौकरी लगे तो स्वयं ही किसी अच्छे डाक्टर से संपर्क करूं , लेकिन नौकरी मुझे दूर से ही ठेंगा दिखा रही थी । कुछ दिन एक वकील के यहां सेवादारी करके कुछ पैसे बचाए थे जिनसे मैं कुछ दिनों तक आइन्स्टाइन जैसे दिखने वाले एक होम्योपैथ डाक्टर की शरण में रहा जिसने मुझे मीठी गोलियों के साथ दलिया सेवन की सलाह दी थी । उससे लाभ नहीं हुआ । तब मैंने डाक्टर खान की शरण लेने का विचार किया , जिनसे खांसी-ज्वर हाने पर हम दवा लेते थे । ‘बड़े डाक्टर कभी जिस मर्ज को नहीं पकड़ पाते छोटे उसे पकड़ लेते हैं ’ उस समय मैंने यह सोचा और एक दिन डाक्टर खान के पास जा पहुंचा । शाम के सात बजे थे । वही समय होता था खान के आने का । यह तो मुझे बाद में पता चला कि डाक्टर खान नीम -हकीम डाक्टर थे । वह घण्टाघर में एक सरदार जी के धर्मकांटा में बतौर मैनेजर काम करते थे जहां बड़े ट्रकों को तौला जाता था ।
गहरे सांवले रंग के डाक्टर खान सदैव सफेद पैण्ट और हाफ शर्ट पहनते थे । सदैव उनके मुंह में पान रहता और पुराने अखबार में दो-चार बीड़े पान बंधे उनकी मेज पर रखे होते । उनकी क्लीनिक आठ बाई दस के कमरे में थी , जिसमें एक ओर हरे पर्दे के पार्टीशन में कंपाउडर दवाएं कूट-पीसकर....घोल बनाता रहता । उनके यहां बेगमपुरवा बस्ती के कुछ और शेष मरीज कालोनी के होते थे । लेकिन यदि एक मरीज होता तो चार उनसे गप हांकने वाले वहां बैठे होते जो मरीज जैसे ही दिखाई देते थे ।
उस दिन भी वह वहां बैठे अन्य लोगों के साथ ठहाके लगा रहे थे ।
मैंने खान को अपना कष्ट बताया । उन्होंने नब्ज देखी , पेट दबाया फिर आंखें फैलाकर देखीं और बोले , ‘‘ठाकुर साहब आपको कमजोरी है । यह टानिक लिख रहा हूं ..... सुबह-शाम खाने के बाद एक चम्मच लीजिए । बाकी जूस -दूध नियमित ........’’
मैंनें उनसे टानिक का पर्चा लिया और उनकी फीस देने लगा , जिसे उन्होंने , ‘‘तुम ठाकुर साहब के भाई हो ।’’ फीस लेने से इंकार कर दिया । कालोनी में भाई साहब को सभी ठाकुर साहब कहकर पुकारते थे और वहां उनकी अच्छी प्रतिष्ठा थी ।
मैं जब क्लीनिक से बाहर निकला वह भी मेरे पीछे बाहर आ गए ।
‘‘आजकल क्या कर रहे हो ?’’ उन्होंने सीधे पूछ लिया ।
‘‘मैं.....मैं नौकरी तलाश रहा हूं ।’’
‘‘नौकरी....।’’ क्षणभर के लिए उनके चेहरे पर गंभीरता पसर गयी । ‘‘हुंह .....नौकरी.....।’’
‘‘और आप ?’’ उन्हें असमजंस में पाकर मैंने पूछा ।
‘‘यार मैं भी इसी मर्ज से गाफिल हूं ।’’ वह फिर गंभीर हुए । क्षणभर बाद पूछा , ‘‘क्या किया है ?’’
‘‘बारहवीं की परीक्षा देनी है.....प्राइवेट । टाइपिगं जानता हूं । चालीस से ऊपर स्पीड है ।’’
वह मुझे घूरते हुए कुछ सोचते रहे । मैं भी उनके चेहरे पर नजरें गड़ाए उन्हें देखता रहा । हम खान के क्लीनिक से कुछ हटकर रेलवे कालोनी की ओर जाने वाले रास्ते के पास बिजली के खंभे के निकट आ खड़े हुए , जिस पर एक टिमटिमाता पीला बल्ब इस बात का अहसास करा रहा था कि उस कालोनी वालों पर केसा की मेहरबानी थी। अंधेरा घिर आया था और धुंए में डूबी कालोनी के घरों से बीमार रोशनी फूट रही थी । अमूमन हर दूसरे घर में अंगीठी सुलग रही थी । कुछ घरों के बाहर गृहणियां उन्हें सुलगाने का प्रयत्न करती दिख रही थीं । यह कालोनी रेलवे वर्कशाप के निकट थी , इसलिए कच्चा कोयला सहजता से मिल जाता था । कभी वह वर्कशाप ही कानपुर का मुख्य रेलवे स्टेशन हुआ करता था , जिसकी स्मृति को जीर्ण काठ का पुल आज भी सुरक्षित रखे हुए है।
‘‘फिर तो यार , कहीं न कहीं नौकरी मिल ही जानी चाहिए ।’’
‘‘कैसे ?’’
’’टाइपिगं जो आती है .... मुझे टाइपिगं आती होती तो .....?’’ वह चुप हो गए । लेकिन उन्होंने यह संकेत अवश्य दे दिया था कि वह भी मेरी तरह ही बेकार थे ।
‘‘आप भी सीख लें .....।’’
‘‘आपने कहां सीखी ?’’ उन्होंने पूछा ।
‘‘आई.टी.आई. में....लेकिन प्रैक्टिस के लिए अब सुबह किदवईनगर के शर्मा टाइपिगं इंस्टीट्यूट जाता हूं ।’’
वह देर तक कुछ सोचते रहे , फिर बोले , ‘‘यार , मुझे क्लर्की पसंद नहीं है । मैं अध्यापक बनना चाहता हूं ।’’
‘‘आपने क्या किया है ?’’
‘‘मैंने.........मैंने हमीरपुर से इण्टर पास किया है । वहीं का रहने वाला हूं ।’’
‘‘फिर प्राइमरी टीचर्स ट्रेनिगं कर लो ।’’
‘‘उससे भी नौकरी कहां मिलती है । यू.पी. में बी.टी.सी. किए हुए हजारों बेकार हैं ।’’
‘‘फिर.....?’’ मेरे प्रश्न पर वह सोच में डूब गए ।
‘‘वही.....फिर....।’’ और वह फिर चुप हो गए । हम देर तक खड़े रहे निर्वाक फिर हम अपने घरों को चले गए थे ।
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उसके बाद हम दोनों गहरे मित्र बन गए थे ।
उनका नाम था इकरामुर्रहमान हाशमी ।
अब हम दोनों ही सुबह एक साथ अपनी-अपनी साइकिलों पर निकलते । किदवईनगर या रेल बाजार तक साथ जाते , फिर हमारे रास्ते जुदा हो जाते थे । शाम हम पुनः खान की क्लीनिक के सामने मिलते और घण्टा-आध घण्टा दिनभर के अपने अनुभवों को बांटते ।
मार्च 1971 में बारहवीं की परीक्षा थी , इसलिए मैंने नौकरी के लिए दौड़ना छोड़ दिया । सुबह केवल टाइपिगं की प्रैक्टिस के लिए जाता और शेष समय पढ़ाई । हमारी शाम की मुलाकातें बदस्तूर जारी थीं और वह मुझे बताते कि चमनगंज के किसी मुसलमान नेता ने उनसे वायदा किया है कि वह जुलाई में उन्हें अपने स्कूल में बतौर हिन्दी अध्यापक नौकरी दे देगा ।
‘‘यार , वहां काम करते हुए मैं बी.ए. का प्राइवेट फार्म तो भर सकूंगा । बी.ए. करना आवश्यक है ।’’ उन्होंने कहा था ।
‘‘रेगुलर कर लो ।’’
‘‘नहीं ।’’ उनके स्वर में स्वाभिमान की गंध थी । ‘‘मैं भी बड़े भाई के साथ रह रहा हूं ... यही पर्याप्त है । उन पर अधिक बोझ नहीं डालना चाहता । अपने बल पर ही आगे की पढ़ाई करूंगा ।’’
उनके निर्णय की मैंने मन ही मन प्रशंसा की । उससे मुझे भी बल मिला था ।
उन दिनों कानपुर विश्वविद्यालय केवल अध्यापन से जुड़े लोगों को ही प्राइवेट बी.ए. की अनुमति देता था । अगस्त से फार्म भरने का सिलसिला प्रारंभ होता जो विलंब शुल्क के साथ अक्टूबर -नवम्बर तक चलता । मैं भी इण्टरमीडिएट तक सीमित नहीं रहना चाहता था .....लेकिन....वास्तव में हम दोनों की स्थिति एक-सी थी ।
जून 1971 में मेरा स्वास्थ्य अधिक ही खराब हो गया । एक दिन दोपहर इतनी घबड़ाहट हुई कि मैंने सी.ओ.डी. पोस्ट आफिस से भाई साहब को फोन कर दिया । वह घबड़ा गए । उन्होंने कुछ डाक्टरों की जानकारी अपने सहयोगियों से ली और शाम सवा पांच बजे आते ही (वह हिन्दुस्तान एयरोनाटिक्स लि. (HAL) में थे ) बोले , ‘‘कपड़े बदलो....डाक्टर के पास जाना है ।’’
मैं हत्प्रभ था । कल तक वह कहते थे कि मुझे ‘शक’ की बीमारी है.... लेकिन घर में सभी उनसे डरते थे और मैं तो उनसे दस वर्ष छोटा था । चुपचाप बिना कुछ कहे कपड़े बदल उनके साथ चल पड़ा था । किदवई नगर के वाई ब्लाक में डाक्टर भार्गव का क्लीनिक था जो कुछ दिन पहले तक कानपुर मेडिकल कालेज में रीडर पद पर कार्यरत थे , और घर में भी प्रैक्टिस करते थे । घर में उमड़ती भीड़ ने उन्हें नौकरी छोड़ने के लिए प्रेरित किया था । डाक्टर भार्गव ने बातचीत से ही मर्ज समझ लिया , लेकिन उसकी पुष्टि आवश्यक थी , अतः एक्सरे के लिए लिखा । अगले दिन एक्सरे के लिए मैं माल रोड गया । रपट में डाक्टर भार्गव की आशंका सही निकली थी । आंतो का अंतिम छोर आपस में लगभग मिल गया था । (डाक्टरों के मुताबिक इल्यूशिकिल आंत नैरो हो गयी थी ) मात्र सूत भर का अंतर..... यदि पन्द्रह दिन और बीत जाते तब उन आंतों के फट जाने का खतरा था.......अर्थात अवश्यभांवी मृत्यु ।
डाक्टर भार्गव ने सर्जन एस.पी. जैन के पास पत्र देकर भेजा , जो कोतवाली के पास अपनी साली के यहां रहते थे ,क्योंकि उनकी पत्नी की कुछ दिन पहले मृत्यु हो गयी थी और उनके तीन वर्ष की बेटी थी जो साली के यहां रहकर पल रही थी । मैं उनसे घर पर मिला । उन्होंने हैलट अस्पताल में , जहां वह सर्जन थे , मिलने के लिए कहा ।
अंततः 20 जून ‘1971 को उन्होंने मुझे हैलट में भर्ती कर लिया । सभी परीक्षण हुए और पता चला कि उस समय मेरा वजन केवल चालीस किलो था । डाक्टर जैन ने तुरंत आपरेशन न करने का निर्णय किया , क्योंकि उस स्थिति में मुझे बाहर से रक्त देना होता , जो वह नहीं चाहते थे । उचित उपचार प्रारंभ हो गया था , इसलिए पन्द्रह दिनों के लिए आपरेशन टाला जा सकता था । डाक्टर ने अधिक से अधिक मौसमी का जूस लेने की सलाह दी ।
इकराम प्रतिदिन मुझसे मिलने अस्पताल आते थे ।
उन दिनों मौसमी का छोटा गिलास सवा रुपया और बड़ा डेढ़ रुपए का था । मैं भोजन कम जूस अधिक लेने लगा और भाई साहब से पैसे कम लेने के निर्णय के कारण इकराम का एक सौ पचास रुपयों का कर्जदार हो गया । वे पैसे मैंने कब और कैसे वापस किए आज मुझे याद नहीं और न ही यह जान सका कि मेरी ही स्थिति में रह रहे इकराम ने उन पैसों की व्यवस्था कैसी की थी ।
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11 जुलाई 1971 को मेरा आपरेशन हुआ ....पांच घण्टे । इकराम सुबह ही अस्पताल पहुंच गए थे और मेरे होश में आने तक अर्थात शाम पांच बजे तक वहां रहे थे ।
जब अस्पताल से मुझे छुट्टी मिली मेरा वजन मात्र छत्तीस किलो था .... लेकिन तब मैं पूर्ण स्वस्थ था । अगले तीन महीनों में मैं इतना स्वस्थ हो गया कि मैं पुनः उस इनकम टैक्स-सेल्स टैक्स वकील के यहां पचास रुपए मासिक पर प्रतिदिन चार घण्टे के लिए काम पर जाने लगा था ... न चाहते हुए भी । अपने उपन्यास ‘शहर गवाह है’ में मैंने इसी वकील का चित्रण किया है । शाम इकराम के साथ हम बी.ए. करने की चर्चा करते । चमनगंज के नेता ने अपना वायदा पूरा नहीं किया था , जबकि इकराम ने जुलाई से कुछ दिनों तक उसके स्कूल में मुफ्त पढ़ाया था । जब उसने अनुभव प्रमाण पत्र देने से इंकार कर दिया , जिसके बिना इकराम प्राइवेट फार्म नहीं भर सकते थे , उन्होंने स्कूल छोड़ दिया था । वकील साहब के यहां तीन महीने जाने के बाद मैंने भी उन्हें नमस्ते कह दी थी । पुनः टाइपिगं की प्रैक्टिस के लिए मैं ‘शर्मा इंस्टीट्यूट’ जाने लगा था । जिन्दगी पुराने ढर्रे पर लौट आयी थी .....दिन भर शहर की धूल फांकता - घूमता और शाम हताश वापस ।
1972 शुरू हो गया था । एक दिन इकराम समाचार लाए कि फूड कार्पोरेशन आफ इंडिया में लेबर की बहुत-सी वेकेंसी आने वाली हैं ।
‘‘अपुन एक दिन झखरकटी एम्प्लायमेण्ट एक्सचेंज में रजिस्ट्रेशन करवा लेते हैं ।’’ वह बोले ।
‘‘लेकिन हम इण्टरमीडियेट हैं । हम गोटैहा में पहले ही रजिस्टर्ड हैं .... सर्टीफिकेट के पीछे वहां की मोहर लगी हुई है । ’’
‘‘यार हमें हाई स्कूल , इण्टर की सार्टीफिकेट दिखानी ही नहीं.... लेबर को आठवीं पास होना चाहिए.... वह प्रमाणपत्र है न ....?’’
‘‘हां....।’’
‘‘फिर कल ही चलते हैं ।’’
हम दोनों ने गंदे पायजामे पर गंदी कमीजें पहनी थीं जिससे लेबर जैसा दिखें । झखरकटी एम्प्लायमेण्ट एक्सचेंज घर से पांच-छः किलोमीटर की दूरी पर जी.टी. रोड पर था । क्लर्क ने हमें पहनावे से नहीं , बातचीत से भांप लिया कि हम आठवी नहीं...अधिक पढ़े लिखे हैं । उसने यह बात छुपायी भी नहीं । और हम पर एहसान जताते हुए उसने हमारा रजिस्ट्रेशन कर लिया था ।
लेकिन हमें वहां से कोई काल नहीं मिली । इकराम हर दिन फूड कार्पोरेशन की खबर लाते और हम हर दिन झखरकटी से लेबर की काल का इंतजार करते ....... समय बीत गया । अब हम पर पूरी तरह अध्यापक के रूप में बी.ए. करने का भूत सवार हो गया था । अध्यापन के प्रमाणपत्र अथवा किसी विद्यालय से अग्रसारण का जिम्मा इकराम ने संभाल रखा था । वह दिनभर केवल दो बातों के लिए धक्के खा रहे थे .... कहीं नियमित अध्यापकी और फार्म के अग्रसारण के लिए । वह सूचना लाते अमुक प्रधानाचार्य या प्रबन्धक ने तीन सौ रुपये लेकर अग्रसारित करने का वायदा किया है , ‘‘लेकिन यार मेरे पास कुल एक सौ पचास रुपये ही हैं ।’’ कुछ चुप रहकर वह कहते , ‘‘मैं कोशिश कर रहा हूं कि इतने में ही काम हो जाए....।’’
मैं उन्हें सुनता और सोचता ‘मेरे आपरेशन में भाई साहब को खासी रकम खर्च करनी पड़ी है .....कैसे उनसे रुपये मांगूगा । लेकिन मैंने अपना उत्साह भंग नहीं होने दिया । ‘रुपयों के बारे में तब सोचूगं जब किसी स्कूल में अग्रसरारण की बात पक्की हो जाएगी ।’’
लेकिन इकराम को अपने प्रयास में सफलता नहीं मिल रही थी ।
एक दिन शाम हम दोनों खान की क्लीनिक के बाहर खड़े उसी विषय पर गंभीरतापूर्वक चर्चा कर रहे थे कि कहीं से मेरे भाई साहब आ गये ।
‘‘क्या गुफ्तगू हो रहीं है ?’’
‘‘ठाकुर साहब , हमारी एक ही समस्या है .... बी.ए. का फार्म भरना ।’’
भाई साहब गंभीर हो गये । फिर मुझे सुनाते हुए बोले , ‘‘जितनी ऊर्जा इसके लिए नष्टट कर रहे हो ....उतनी यदि नौकरी पाने के लिए करते तो शायद नौकरी मिल जाती , तब करते बी.ए.....एम.ए....।’’
उनकी बात से मेरा ही नहीं इकराम का चेहरा भी राख हो गया था । भाई साहब चले गये और हम देर तक वहां खड़े रहे थे लेकिन शायद ही हमने कोई बात की थी । उस दिन के बाद उस समय मैंने बी.ए. करने का स्वप्न त्याग दिया था और शायद इकराम ने भी । मैंने गंभीरता से अपनी टाइपिगं स्पीड बढ़ाने पर ध्यान केन्द्रित कर लिया और इकराम ने अध्यापकी हासिल करने में ।
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एक दिन इकराम सूचना लेकर आये कि किसी ने उनसे वायदा किया है कि वह उन्हें हमीरपुर के एक इण्टर कालेज के प्राइमरी सेक्शन में उर्दू टीचर की नौकरी दिलवा सकता है बशर्तें उन्होंने आठवीं जमात तक उर्दू पढ़ी हो ।
‘‘तुम्हें उर्दू आती है ?’’
‘थोड़ी.... लेकिन जाकर अम्मी से पन्द्रह दिनों में सीख लूंगा ।’’ वह फिर गंभीर हो गये । कुछ देर बाद वह बोले , ‘‘लेकिन...।’’
‘‘लेकिन क्या ?’’
उन्होंने अपनी समस्या बतायी । कई दिनों तक हम उसके समाधान के विषय में सोचते रहे थे । और हमने समाधान खोज ही लिया था ।
अंततः इकराम को हमीरपुर के उस इण्टर कालेज के प्राइमरी सेक्शन में जब जुलाई में उर्दू अध्यापक की नौकरी मिली तब मुझे लगा था कि वह इकराम की ही नहीं मेरी भी सफलता थी ।
उनके कदमों को जमीन मिल गयी थी और उसके नौ महीने बाद मुझे भी । जब 1973 में कानपुर विश्वविद्यालय ने सभी के लिए प्राइवेट छात्र के रूप में बी.ए. करने की घोषणा की तब मैंने भी बी.ए. किया और इकराम ने भी । उसके बाद उन्होंने प्राइमरी टीचर्स ट्रेनिगं की स्कूल से अवकाश लेकर । मैंने जब एम.ए. कर लिया तब उन्होंने मुझे लिखा कि वह मेरी पुस्तकों और मेरे नोट्स से हिन्दी में एम.ए. करना चाहते हैं ।
उन्होंने वह भी किया और बी.एड. भी । लेकिन 1978 के बाद हम एक-दूसरे से नहीं मिल सके । उनके बारे में कुछ वर्षों बाद यह सूचना अवश्य मिली थी कि वह इण्टर कालेज में हिन्दी लेक्चरर हो गये थे ।
संभव है अब वह उस कालेज में अब प्रिसिंपल हों ।
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8 टिप्पणियां:
ांअपका संस्मरण बहुत अच्छा लगा । तब जीवन के कुछ मुल्य थे। ऐसे लोगों को जो निस्वार्थ हमारे लिये कुछ करते हैं हम जीवन भर नहीं भूलते । शुभकामनायें
संस्मरण न कहिए
ये तो वे यादें हैं
जो सदा जीवंत रहती हैं
इसमें मरण कहां है
इनमें तो जीवन ही जीवन है
ऐवन जीवन है।
AAPKEE LEKHNEE SE AEK AUR AATMEEYTA
SE BHARAA AVISMARNIY SANSMARAN.
MUJHE LAGAA KI PARDE PAR DO DOSTON
KEE EK-DOOJE PAR MAR-MITNE KEE
FILM DEKH RAHAA HOON.
संघर्ष के दिनों ने जितना रुलाया है, उन दिनों की स्मृतियाँ उतनी ही सुखद हैं। यह संयोग नहीं है कि स्मृति में 'मृति' का, संस्मरण में 'स्मरण' का, स्मरण में 'मरण' और मरण में 'रण' का योग है। रण को जीतकर आया हुआ आदमी अगर अतीत के अपने 'मरण' को याद करता है तो आने वाली पीढ़ी को उस तरह के मरण से पलायन न करने की प्रेरणा देने की दृष्टि से। मैं समझता हूँ कि 'यादें' में रण की आग से गुजरकर बाहर आने जैसी त्वरा नहीं है, यह बोलचाल का आसान शब्द अवश्य है लेकिन अपनी प्रकृति में यह भोगवादी अधिक प्रतीत होता है--बैठे रहे तसव्वुरे जाना किये हुए--जैसा। संस्मरण में मरण की अवधारणा सबसे पहले भाई हसन जमाल की कलम से उनकी पत्रिका 'शेष' के एक अंक में पढ़ी थी। तभी से मन था कि उस पर कुछ लिखूँ। भाई अविनाश(इस शब्द में 'विनाश' जुड़ा है, यह मेरा कुतर्क है) ने कुछ लिखने का अवसर दिया, आभारी हूँ।
भाई चन्देल, तुम्हारे इस संस्मरण में एक कहानी जैसी रवानगी भी दिखाई दी, जो संस्मरण के पक्ष में जाती दीखती हैं,इसी कथा रस के कारण यह और भी पठनीय हो गया है। हमारे जीवन में इस तरह के अनेक व्यक्ति आते हैं और भीड़ में खो जाते हैं। पर वे हमारी यादों में जीवित रहते हैं, तुमने इन यादों को कलमबद्ध किया,अच्छा लगा, अब ये सिर्फ़ तुम्हारे तक सीमित नहीं रहेंगी,वक्त का हिस्सा बन जाएंगी। सुन्दर भाषा और सधी हुई प्रस्तुति लिए यह संस्मरण तुम्हारे अच्छे संस्मरणों में याद किया जाता रहेगा। बधाई !
are bhai chaldel tumhari rachna yatraa badii jeevantataa ke saath udghatit ho kar hamare sammukh prastut ho rahee hei vakei jeevan mulyon se jude log ta umr nahii bhulaye jaa sakte hein ve hamare jeevn ke light house ban jaate hein bahut sundar
एक जीवंत संस्मरण के लिए आप को बधाई.
कुछ दिन नेट ख़राब रहा और कुछ दिन शहर से बाहर रही, आज ही आपके ब्लाग पर आईं हूँ ..एक उपन्यासकार और कथाकार जब यादों को समेटेगा तो वह रचना संस्मरण नहीं एक अद्भुत अनुभूति पाठक को दिलवा जाती है..आँखें नम कर दीं..वैसे यह प्रतिभा सब में नहीं होती...रूप जी बधाई..
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