रूपसिंह चन्देल
२ सितम्बर, २००९. सुबह के साढ़े चार बजे का समय.
मोबाईल के अलार्म की पहली ’ट्रिंग’ के साथ वह मेरे पास खड़ा था. अलार्म की कर्णकटु ध्वनि को उसके आने से पहले ही बंद कर मैं उठ बैठा और पन्द्रह मिनट बाद हम टहलने निकल गये थे. १९९६ से यह नियम अबाध है और ३ अगस्त,२००३ को यहां आने के बाद भी जारी है, बावजूद इसके कि मेरे पहले के आवास - शक्ति नगर - से सटा हुआ बहुत बड़ा रौशनआरा बाग था, जिसे औरगंजेब ने अपनी बहन रौशन आरा के लिए तैयार करवाया था और जिसने औरंगजेब की गंभीर अस्वस्थता में उसके नाबालिग पुत्र को गद्दी पर बैठाकर सत्ता अपने हाथ में ले ली थी. दरअसल वह स्वयं साम्राज्ञी बनना चाहती थी, लेकिन उसका दुर्भाग्य था कि औरंगजेब स्वस्थ हो गया था और रौशन आरा की कुचाल की सजा उसे मिली थी. तो यहां अर्थात लेखकों की बस्ती, सादतपुर, जिसे कवि-गज़लकार रामकुमार कृषक नागार्जुननगर कहते-लिखते हैं, क्योंकि यह बाबा नागार्जुन की कर्मभूमि भी रही है, में आने के बाद रौशन आरा जैसे बाग की तो क्या किसी पार्क की सुविधा न होने पर भी यहां की सड़कें मेरे प्रातः सैर का आधार बनीं.
२३ मार्च, २००८ को मेरे पास आने के कुछ दिनों बाद से ही वह भी मेरे साथ जाने लगा. सुबह की सैर उसकी आदत में यों शामिल हुई कि यदि कभी मैंने आलस्य दिखाया, उसने मुझे जाने के लिए विवश कर दिया. विलंब उसे स्वीकार नहीं---- अर्थात पौने पांच का मतलब पौने पांच --- हमें घर से बाहर हो जाना होता है.
****
(माइकी छत पर)
अन्य दिनो की भांति उस दिन भी यानी २ सितम्बर, को हम साढ़े पांच बजे लौट आये और सीधे छत पर चले गये. मौसम खुशनुमा था. आसमान में तैरते बादलों के टुकड़े पूरब से पश्चिम की ओर मंद गति से जा रहे थे. हवा पैरों में मेंहदी लगी युवती की भांति सधे कदमों छत पर से गुजर रही थी. पूरब में बादलों के बीच लाली फैल रही थी.
इतने खुशनुमा मौसम का आनंद लेता वह आंखें बंद कर छत पर लेट गया. उसे लेटा देख मैं नीचे उतर गया. यह सब भी मेरी दैनन्दिन गतिविधि का हिस्सा है. अब मुझे आध घण्टा यौगिक व्यायाम में व्यतीत करना था.
छः बजे मेरे चाय बनाने का समय होता है. अपने और पत्नी के लिए और कभी-कभी बेटी के लिए भी --सुबह की चाय मैं तैयार करता हूं. सवा छः बजे से साढ़े छः बजे के मध्य हमारी चाय तैयार होती है, और उसीके साथ तैयार होता है उसका नाश्ता. साढ़े छः बजे के आसपास नाश्ता करना उसकी कमजोरी है और इस कमजोरी का दोषी मैं हूं, लेकिन जब किसी चीज के लेने का एक समय निश्चित हो जाता है तब उस समय उस चीज का न मिलना कष्टकारी होता है. सुबह जैसे साढ़े छः बजे की चाय मेरी कमजोरी है तो नाश्ता उसकी.
नाश्ते में वह आधा लीटर दूध और ब्राउन ब्रेड के दो पीस लेता है. उसके बाद लंच तक उसे किसी चीज की दरकार नहीं होती. उस दिन भी अपने लिए चाय, उसका नाश्ता, और पानी की बोतल लेकर मैं छत पर गया. वह नाश्ता करता रहा और मैं उसके निकट कुर्सी पर बैठा चाय पीता रहा. सात बजे तक मैं उसके साथ था. सात बजे कंप्यूटर पर मेल चेक करने के लिए नीचे उतरा. लेकिन तत्काल कंप्यूटर पर नहीं बैठा. फर्स्ट फ्लोर के आंगन मे लगे जाल पर (ऎसा ही जाल फर्स्टफ्लोर के ऊपर छत पर है, जिससे सूरज की रोशनी सीधे फर्स्ट और ग्राउण्ड फ्लोर पर जाती है ) खड़ा हो मैं अखबार के पहले पन्ने का समाचार पढ़ने लगा . पत्नी सामने किचन में काम कर रही थी. सामने कमरे में घड़ी सात बजकर दस मिनट दिखा रही थी और तभी मुझे उसकी आवाज सुनाई पड़ी. मैंने ऊपर जाल की ओर देखा--- वह किसी पर भौंक रहा था. अनुमान लगाया कि दाहिनी ओर का पड़ोसी या उनका बेटा अपनी छत पर आये होंगे. वह केवल और केवल उन्हीं पर भौंकता है. यह आश्चर्य की बात है, जबकि मेरे मकान से सटे दो और मकान हैं, लेकिन उन लोगों के आने पर वह उनपर नहीं भौंकता.
’क्या जानवर --- खासकर कुत्ते अपने प्रति दुर्भावना रखने वाले के भावों को भांप लेते हैं ?’ मैंने कई बार इस विषय पर विचार किया है. मेरा अनुभव तो यही कहता है. बहरहाल, मैंने नीचे से उसे डांटा -- "माइकी चुप हो जाओ."
लेकिन यह क्या ! मैंने उसकी मर्मान्तक चीख सुनी और फिर ऊपर जाल पर से उसे नीचे झांकते देखा. हम दोनों -- पति-पत्नी - के मुंह से एक साथ निकला , "माइकी क्या हुआ ?" हम दोनों ने एक-दूसरे से यह भी कहा कि ऎसे तो यह कभी नहीं चीखा, लेकिन उसके साथ कुछ हुआ होगा यह हमारी कल्पना से बाहर था. मैं कंप्यूटर पर जा बैठा और पत्नी आफिस के लिए तैयार होने में व्यस्त हो गयी .
****
माइकी के साथ क्या हुआ था यह मुझे अगले दिन सुबह सात बजे के लगभग ज्ञात हुआ, जब मैं उसके गले का पट्टा ठीक कर रहा था. उसके गले में एक इंच गहरा घाव था. घाव देख मुझे धरती घूमती नजर आयी . मैं पीड़ा से छटपटा उठा . हम हत्प्रभ -- किंकर्तव्यविमूढ़ थे. किसीने उसे भैंकने से रोकने के लिए -- सदा के लिए उसकी आवाज छीन लेने के लिए - किसी तेज धारदार चीज से उसके गले पर प्रहार किया था. प्रहार होने के बाद ही वह चीखा था और जाल पर झांककर मुझसे सहायता की अपेक्षा की थी. मुझे तब की उसकी आंखों की पीड़ा और निरीहिता स्मरण हो आये और मैं यह सोच और अधिक पीड़ित महसूस करने लगा कि मैं उसके दर्द और निरीहित को पढ़ पाने में असमर्थ क्यों रहा था.
माइकी का गला छेदकर उसकी आवाज छीन लेने का क्रूर कृत्य करने वाले के प्रति विक्षोभ से अधिक मुझे स्वयं पर ग्लानि हुई थी. उसे डाक्टर के पास ले जाने में तीन घण्टों का समय था और मेरे वे तीन घण्टे कैसे कटे होंगे --- अनुमान लगाया जा सकता है.
*****
11 टिप्पणियां:
बहुत खूबसूरत संस्मरण है और बेहद मार्मिक भी। सस्मरण का शीर्षक ही नहीं, इसकी भाषा भी बहुत सुन्दर है। पढ़ते समय लगता रहा कि एक उत्कृष्ट गद्य रचना पढ़ रहा होऊँ। कहानी जैसा कौतुहल भी और दिल को छू लेने वाला मार्मिक अन्त भी इस संस्मरण में है। बधाई !
सुभाष नीरव
अपनी आदतों विशेषत: आलस्यपूर्ण व्यवहार के मद्देनजर अपने बारे में मेरा यह अटूट विश्वास है कि सबसे ज्यादा मैं खुद को और सिर्फ़ खुद को प्यार करता हूँ। किसी और को चाहने, प्यार करने का मेरा दावा छल है, ढकोसला है। आप मुझे क्षमा करेंगे, लेकिन इस पूरे प्रकरण में आप में भी मुझे मेरा मैं ही दिखाई दे रहा है, हालांकि न तो आप मेरी तरह आलसी हैं न लापरवाह। करीब डेढ़ साल से जो प्राणी आपके साथ रह रहा है आप उसके गले के आरोहों-अवरोहों से आप अनजान कैसे रहे? शायद सिर्फ इसलिए कि आपने उसे कुत्ता और अपने आपको मालिक समझा, भले ही आप उसकी उचित देखभाल भी करते रहे। यह हादसा न होता तो आप के बीच का उक्त भाव शायद कभी न मिट पाता क्योंकि वस्तुत: तो कभी-कभी खुद हमें भी अपने 'इगोज़'का पता नहीं चलता है। 'ईगो' का पता चले, इसके लिए ईश्वर ऐसे आघात के द्वारा हमें सावधान करने की पहल करता है, ऐसा मेरा मानना है। इस हादसे के बाद माइकी से आपका नैकट्य, स्नेह, दुलार अब दूसरा रूप पा गया होगा, ऐसा मुझे लगता है। पहले आपको लगता होगा कि माइकी आपकी रखवाली के लिए है। अब आप जान गए होंगे कि वही नहीं आप भी उसकी रखवाली के लिए हैं। यह पशु और मनुष्य के बीच का नहीं दो प्राणियों के बीच का रिश्ता है। उसे अपने दायित्व निभाने हैं (जो प्राकृतिक-स्वभाव के अनुरूप वह निभाएगा ही)और सावधानीपूर्वक आपको अपने।
प्रिय बलराम,
तुम्हारा संस्मरण प्रकाशित कर दिया है.
तुम्हे यह बताना आवश्यक लगा कि माइकी को मैंने कभी कुत्ता नहीं बल्कि अपना दूसरा बेटा माना है. वह डेढ़ माह का था जब हम उसे लाये थे. तब से ही. उसकी परवाह अपने से अधिक करता हूं . आलस्य से मेरी शत्रुता है, लेकिन जब हादसे होने होते हैं तब हजार सतर्कता के बावजूद हो ही जाते हैं. दरअसल हादसों को अंजाम देने वाले चीजों का पूरा जायजा लेते रहते हैं और वे उस समय को ही उपयुक्त समझते हैं जब वे सफलतापूर्वक हादसे को अंजाम दे सकते हैं. जब मामला पड़ोस का हो तब आप अपनी गतिविधियों को कितना छुपा सकते हैं. करने वाले को पता था कि माइकी प्रतिदिन सुबह एक घण्टे के लिए ऊपर छत पर होता और आपके लिए यह जानना कितना कठिन है कि कोई क्या सोच रहा है.
तो मित्र, मुझे लगता है कि तुमने संस्मरण को एक आम पाठ की दृष्टि से न कि एक संवेदनशील लेखक की दृष्टि से देखा-पढ़ा है. यहां यह भी बताना उचित है कि इसे मैंने आत्म-प्रचार या किसी की संवेदना प्राप्त करने के लिए नहीं बल्कि आत्मपीड़ा से उबरने के लिए लिखा है.
सप्रेम,
रूपसिंह चन्देल
PRIY ROOP JEE,
MUJHE TO SANSMARAN SE ZIADA YE KAHANI LAGEE HAI,MARMIK AUR SANVEDNA SE PARIPOORN.MEREE GUZAARISH HAI KI AAP ISMEIN "MAIN AUR " HUM" KO HATAAKAR KISEE ANYA
PAATR SE JODIYE ISE.AAP BEETEE GHATNAAON SE
KAHANIYAN APNE ROOP AKHTIYAAR KARTEE HAIN.
KAHANI KO SAJEEV BANAANE KE LIYE VYAKTIGAT
ANUBHAV ATI AAVASHYAK HAIN.
KABHEE MAINE LAGHUKATHA LIKHEE THEE.
AADHEE RAAT KO 7 SAAL KAA BETAA CHILAAYAA.MAA-BAAP NE SUNA ANSUNA KAR DIYA KYONKI VE SEX MEIN
LIPT THE.SUBAH UTHE TO UNHONNE BETE KO MARAA HUAA PAYAA.SAANP BETE KO DAS GAYAA THA.
AAPKE LEKHAN KAA MAIN MUREED HOON.
AAPKAA HAR KATHAN AAKHYAAN SE KAM NAHIN HAI.
Balaram Agrawal ne kaha
भाईसाहब, टिप्पणी लिखने और पोस्ट कर देने के बाद मैंने खुद सोचा कि मैंने इतनी कड़वी टिप्पणी क्यों लिखी? मुझे लगता है कि मैंने अचेतन रूप से पाया होगा कि मैं आपके बजाय उस अनदेखे प्राणी का पक्ष लूँ। मुझे अभी भी लगता है कि मुझे उसी के पक्ष में रहना चाहिए।
बुरा नहीं मानेंगे।
-बलराम
आपके दोनों पोस्ट पढ़े। व्यावहारिकता की नायिका को नहीं जानती लेकिन ऐसे लोग हर कहीं मिल जाते हैं, बहुतायत में।
आपकी दूसरी प्रविष्टि अपराध- स्वीकार जैसी है। लेकिन बहुत सुन्दर लिखी गई है।
इला
tumhara marmick sansmaran padaa. vakei aaj hum log kitne aasahashnu ho gaye hein mujhe yaad aata hei jab meine khargosh kaa jodaa palaa thaa ve mujhe bahut pyaar karte the unki mrityu par bahut royaa thaa isliye mei tumhare dukh ko samajh saktaa hoon hum log hii gir gaye hein janwar aaj bhii vafadar hei uskaa payaar to satya suondariya se bharaa hotaa hei mei uss janvar ke dard ko bhii badii shiddat se mehsus kar saktaa hoon meraa jangal kaa anubhav bhii kaphii rahaa hei taqliiph hotii hei aadmii kii iss tarah kii ochhii harkat dekh kar.
eise logon ke liye mei ishwar se prarthnaa karta hoon taaki unhe sadbudhii hasil ho aur apni iss harqat par sharmindaa ho saken.
aamiin.
ashok andrey
it realy vary sad. a man can be an animal any time. it is sad for me because the insident took place in my nabour. mahesh darpan
हृदय के गहन स्थल से निकला भावनायों का आवेग एक मार्मिक और उत्तम रचना बन गया. ऐसा लगा कि संवेगों से भीगी एक ऐसी रचना पढ़ रही हूँ, जो संस्मरण को एक खूबसूरत जामा पहना कहानी का भी रस दे गई. बहुत खूब ---बधाई.
सुधा ओम ढींगरा
भाई,रूप सिंह चंदेल जी,व्यक्ति के स्तर .पर यह घटना आप को निष्ठुरता के दायरे में लातीहै .मिकी की मार्मिक पीडा सुन कर भी आप लोग भाग कर ऊपर नहीं गए/?लेकिन यह भी सच है की यही बिंदु इसे मार्मिक रचना बना गया..इस रचना का मर्म स्पर्शी स्थल यही अपराधबोध है जो संवेदन शील मनुष्य में ही पाया जाता है.मैंने रचना को रचना की तरह देखा तो पाया कीइस मार्मिक संस्मरण के लिए आप बधाई के पात्र हैं.
Suresh Yadav
कल आपसे और भाई सुरेश यादव से सुना और आज इसे पढ़कर भीतर तक महसूसा। मेरा मानना है कि होनी से बलवान कोई नहीं है। खुद होनी भी नहीं, क्योंकि वो अनहोनी हो नहीं सकती। वैसे यही ताकत सबमें विद्यमान है रहती है। इसे ताकत भी मानते हैं और नियति भी। पर इस नियति के प्रारब्ध में जिसकी नीयत ठीक नहीं थी, वह उजागर हो रही है। नीयत की नीचता का यह घृणित रूप है। जो आपको नुकसान नहीं पहुंचा रहा है। हो सकता है वो कुछ अच्छा ही कहना चाह रहा हो। जब हम उस भाषा को जानते ही नहीं हैं तो उसके बोलने (भौंकना) का आशय अपने विरोध में क्यों लगा लेते हैं हो सकता है कि वो सावधान कर रहा हो, कुछ बतलाना चाह रहा हो, जतलाना चाह रहा हो। पर इंसान अपने पूर्वाग्रह में इस कदर मग्न रहता है कि उसे कुछ और नहीं सुहाता है और यह न सुहाना ही हर सुहावनेपन का काल बनता है। जो किसी को रास नहीं आता है।
खैर ... यह सच्च ... यदि झूठ हो सकता। पर ऐसा नहीं हुआ ... यह कथा भी नहीं बना। एक अहसास मन को भीतर तक छीलता हुआ है। किसी को सही दिशा दे पाये यह संस्मरण तो इसी में इसकी सार्थकता है।
एक टिप्पणी भेजें