tag:blogger.com,1999:blog-2880097249222214869.post2236725822319305795..comments2023-10-15T00:40:36.801-07:00Comments on रचना यात्रा: यादों की लकीरेंRoop Singh Chandelhttp://www.blogger.com/profile/07746336325719389687noreply@blogger.comBlogger6125tag:blogger.com,1999:blog-2880097249222214869.post-59127606081919600832010-04-20T06:23:45.170-07:002010-04-20T06:23:45.170-07:00priya bhai chandel mai bhai Suresh jee se poorntah...priya bhai chandel mai bhai Suresh jee se poorntahaa sehmat hoon ki poorani tatha katu yaaden hamse bhavishaya men kuchh naya likhvane ko taakat aur dishaa deti hain oonse ghabhraana nahin chahyie oonhe prasad swarup samajh kar sweekar kar lena chaahiye. iss sansmaran ko padvane ke liye mai tumhaara aabhar vayakt karta hoonashok andreyhttps://www.blogger.com/profile/03418874958756221645noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-2880097249222214869.post-82968499915798966312010-04-12T09:53:12.559-07:002010-04-12T09:53:12.559-07:00भाई चन्देल जी, सन्समरण पुरानी यादों को ताज़ा ही नही...भाई चन्देल जी, सन्समरण पुरानी यादों को ताज़ा ही नहीं करते ,भविष्य की रोशनी भी होते हैं।सन्त राज सिंह अगर कुंठित होकर मुरादनगर की सीढ़ियां नहीं उतरते तो क्या आप और नीरव जी इतनी सीढ़ियां चढ़ पाते। कितना योगदान होता है, उन लोगों का जो हम जैसे लेखकों को सह नहीं पाते हैं। आप इस समय जो संस्मरण लिख रहे हैं, आप ऐसी प्रबल ऊर्जा ऐसे ही लोगों की कटु यादों से मिल रही है। जारी रखिये, मेरी बधाई !सुरेश यादवhttps://www.blogger.com/profile/16080483473983405812noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-2880097249222214869.post-45359497265624699272010-04-10T06:17:42.966-07:002010-04-10T06:17:42.966-07:00AAPKE LIKHTE HEE KUCHH IS ANDAAZ
KEE HOTEE HAI KI ...AAPKE LIKHTE HEE KUCHH IS ANDAAZ<br />KEE HOTEE HAI KI RACHNA KO POORE<br />KAA POORA PADH KAR HEE DAM LENA<br />PADTA HAI.<br /> DOCTOR LAAL PAR LIKHE AAPKE<br />SANSMARAN MEIN BAHUT SEE BAATEN<br />MAALOOM HUEE HAIN.<br /> CHUNKI AAPKE KAEE SANSMARANON<br />MEIN SUBHASH NEERAV KAA ULLEKH <br />HUA HAI ISLIYE UN PAR BHEE KABHEE<br />SANSMARAN HO JAAYE.UNSE AAPKEE<br />ANTRANGTA JAANE KEE UTSUKTAA HAI.PRAN SHARMAhttp://mahavirsharma.blogspot.comnoreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-2880097249222214869.post-15770327833116648962010-04-09T22:37:09.326-07:002010-04-09T22:37:09.326-07:00हंसराज रहबर की एक ग़ज़ल के ये शे'र अनायास ही याद...हंसराज रहबर की एक ग़ज़ल के ये शे'र अनायास ही याद आ रहे हैं:<br />मैं रवायत का पाबंद नहीं हो सकता<br />मेरी तहजीब अगर खाम है तो खाम सही।<br />जिनके पिंदार के बुत तोड़के खुश होता हूँ<br />उनकी दुनिया में बदनाम हूँ, बदनाम सही॥<br /><br />पुरस्कार हथियाने में महारत हासिल लेखक को अनाम क्यों रहने दिया? इस पुरस्कार पर उनका हक नहीं बनता क्या?बलराम अग्रवालhttps://www.blogger.com/profile/04819113049257907444noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-2880097249222214869.post-56900953215647760172010-04-09T21:08:03.981-07:002010-04-09T21:08:03.981-07:00kafi theek likha aapne chandel ji. lal sahab ks sw...kafi theek likha aapne chandel ji. lal sahab ks swavbhav tha aisa. lekin vah jo sochte the kah dete the. aaj ke logon men yeh gun nahin milega. tol kar boltey hen log. vaise lal sahab ne kuch baten nahin bhi bolin. kuch maynon men ve bahut barhe aadami the. lekin barhi bat ye hai ki aapne unki yad dilai to sahi.darpan maheshhttps://www.blogger.com/profile/13688619381975369737noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-2880097249222214869.post-6068594878990565002010-04-09T20:47:11.188-07:002010-04-09T20:47:11.188-07:00यार,तुम्हारा यह संस्मरण पढ़कर एकबार फिर जहाँ अपने श...यार,तुम्हारा यह संस्मरण पढ़कर एकबार फिर जहाँ अपने शुरूआती दौर के दिनों की याद ताज़ा हो गई, वहीं डा0 लाल के विषय में एक अनजाना पहलू भी उजागर हुआ। मैं डा0 लाल की लेखनी से प्रभावित था उन दिनों जब वे धुआंधार छप रहे थे। जब तुम्हारे संग 'यत्किंचित' कविता संग्रह की प्रति उन्हें भेंट करने गया था तो बहुत रोमांचित भी था। हम दोनों उन दिनों साहित्य लेखन की पहली पायदानों पर थे और दिल्ली और दिल्ली के आसपास रह रहे बड़े साहित्यकारों से मिलने की अक्सर कोशिश किया करते थे। इसमें 'विविधा' के सिलसिले में नागार्जुन से मिलना, कन्हैया लाल नन्दन से मिलना। मैं प्राय: दिल्ली की सड़कें छुट्टी के दिन तुम्हारे संग ही नापा करता था। तुम्हारे संग उस दौर के घूमने घूमाने की अविस्मरणीय यादें हैं जैसे फिरोजशाह रोड पर हम भगवती चरण वर्मा से उनके बंगले पर मिले थे। काफी लम्बी बातचीत हुई थी। मैं उन दिनों बहुत संकोची स्वभाव का था और तुम मेरा यह संकोच दूर करने में मददगार हुआ करते थे। तुम्हारा यह कहना था कि हमें लोगों से अर्थात साहित्यकारों से, संपादकों से मिलते रहना चाहिए। 'यत्किंचित' की कुछेक प्रतियां अभी भी मेरे पास हैं पर अब क्या, 'यत्किंचित'(1979) में छ्पने के कुछ वर्ष बाद ही मुझे लगने लगा था कि वह हम दोनों का बहुत जल्दी में लिया गया फैसला था। उन दिनों भारत में राजनैतिक स्तर पर काफी हलचल थी और हम कविता के क्षेत्र में प्रवेश करने वाले बहुत ही नये खिलाड़ी थे। बेशक डा0 लाल ने और बच्चन जी ने तो मुझे स्वयं तेजी बच्चन जी के लैटर पैड पर पत्र लिख कर बधाई दी और मेरी एक कविता 'इतिहास चुप है…' की प्रशंसा की तो मेरी खुशी का ठिकाना नहीं रहा था। यह पत्र मेरे पास आज भी सुरक्षित है। पर फिर भी उन कविताओं पर आज गौर करता हूँ तो लगता है, बहुत भावावेश में आकर लिखी गई कविताएं थीं वे। खैर, तुमने तो बच्चन जी की सलाह मानकर कविता से किनारा कर लिया पर मैं आज भी कविता के आसपास मंडराता रहता हूँ। अच्छी कविताएं पढ़ने-सुनने की इच्छा आज भी मेरे भीतर जिंदा है और कभी कभार कविता लिख भी लेता हूँ। कविता से यह मेरा लगाव ही है कि जब ब्लॉग की दुनिया में प्रवेश किया तो मैंने केवल कविता पर आधारित 'वाटिका' ब्लॉग आरम्भ किया जो आज बहुत पसंद किया जाता है। इसमें मेरी पसंद की किसी भी कवि की दस चुनिंदा कविताएं अथवा किसी शायर की दस चुनिंदा ग़ज़लें होती हैं। खैर, बात लम्बी हो गई। तुमने संस्मरण ही ऐसा लिख मारा है कि इसमें बहता चला गया… बधाई !सुभाष नीरवhttps://www.blogger.com/profile/06327767362864234960noreply@blogger.com